Table of Contents
पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता है
यह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है।
(पथिक)
रामनरेश त्रिपाठी
जन्मः सन् 1881, कोइरीपुर, ज़िला जौनपुर (उ.प्र)
प्रमुख रचनाएँः मिलन, पथिक, स्वप्न (खंड काव्य) मानसी (फुटकर कविता संग्रह)
मृत्युः सन् 1962
राम नरेश त्रिपाठी छायावाद पूर्व की खड़ी बोली के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद स्वाध्याय से हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला और उर्दू का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने उस समय के कवियों के प्रिय विषय समाज-सुधार के स्थान पर रोमांटिक प्रेम को कविता का विषय बनाया। उनकी कविताओं में देशप्रेम और वैयक्तिक प्रेम दोनों मौजूद हैं, लेकिन देशप्रेम को ही विशेष स्थान दिया गया है। कविता कौमुदी (आठ भाग) में उन्होंने हिंदी, उर्दू, बांग्ला और संस्कृत की लोकप्रिय कविताओं का संकलन किया है। इसी के एक खंड में ग्रामगीत संकलित हैं, जिसे उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर एकत्र किया था। लोक-साहित्य के संरक्षण की दृष्टि से हिंदी में यह उनका पहला मौलिक कार्य था। हिंदी में वे बाल साहित्य के जनक माने जाते हैं। उन्होंने कई वर्षों तक बानर नामक बाल पत्रिका का संपादन किया, जिसमें मौलिक एवं शिक्षाप्रद कहानियाँ, प्रेरक प्रसंग आदि प्रकाशित होते थे। कविता के अलावा उन्होंने नाटक, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण आदि अन्य विधाओं में भी रचनाएँ कीं।
प्रस्तुत अंश पथिक शीर्षक खंड काव्य के पहले सर्ग से लिया गया है। इस दुनिया के दुखों से विरक्त काव्य नायक पथिक प्रकृति के सौंदर्य पर मुग्ध होकर वहीं बसना चाहता है। यहाँ किसी साधुजन द्वारा संदेश ग्रहण करके वह देशसेवा का व्रत लेता है। राजा द्वारा उसे मृत्युदंड मिलता है, परंतु उसकी कीर्ति समाज में बनी रहती है।
सागर के किनारे खड़ा पथिक उसके सौंदर्य पर मुग्ध है। प्रकृति के इस अद्भुत सौंदर्य को वह मधुर मनोहर उज्ज्वल प्रेम कहानी की तरह पाना चाहता है। प्रकृति के प्रति पथिक का यह प्रेम उसे अपनी पत्नी के प्रेम से दूर ले जाता है। स्वच्छंदतावादी इस रचना में प्रेम, भाषा और कल्पना का अद्भुत संयोग मिलता है।
पथिक
प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ, बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है।।
रत्नाकर गर्जन करता है, मलयानिल बहता है।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता है।
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के–
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के ।।
निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा।
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा।
लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी।।
निर्भय, दृढ़, गंभीर भाव से गरज रहा सागर है।
लहरों पर लहरों का आना सुंदर, अति सुंदर है।
कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?
अनुभव करो हृदय से, हे अनुराग-भरी कल्याणी।।
जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है।
अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है।
सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खड़ा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है।।
उससे ही विमुग्ध हो नभ में चंद्र विहँस देता है।
वृक्ष विविध पत्तों-पुष्पों से तन को सज लेता है।
पक्षी हर्ष सँभाल न सकते मुग्ध चहक उठते हैं।
फूल साँस लेकर सुख की सानंद महक उठते हैं–
वन, उपवन, गिरि, सानु, कुंज में मेघ बरस पड़ते हैं।
मेरा आत्म-प्रलय होता है, नयन नीर झड़ते हैं।
पढ़ो लहर, तट, तृण, तरु, गिरि, नभ, किरन, जलद पर प्यारी।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहारी।।
कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल है यह प्रेम-कहानी।
जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
स्थिर, पवित्र, आनंद-प्रवाहित, सदा शांति सुखकर है।
अहा! प्रेम का राज्य परम सुंदर, अतिशय सुंदर है।।
अभ्यास
कविता के साथ
1. पथिक का मन कहाँ विचरना चाहता है?
2. सूर्याेदय वर्णन के लिए किस तरह के बिंबों का प्रयोग हुआ है?
3. आशय स्पष्ट करें –
(क) सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खड़ा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है।।
(ख) कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल है यह प्रेम-कहानी।
जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
4. कविता में कई स्थानों पर प्रकृति को मनुष्य के रूप में देखा गया है। एेसे उदाहरणों का भाव स्पष्ट करते हुए लिखें।
कविता के आस-पास
1. समुद्र को देखकर आपके मन में क्या भाव उठते हैं? लगभग 200 शब्दों में लिखें।
2. प्रेम सत्य है, सुंदर है-प्रेम के विभिन्न रूपों को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर परिचर्चा करें।
3. वर्तमान समय में हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं– इस पर चर्चा करें और लिखें कि प्रकृति से जुड़े रहने के लिए क्या कर सकते हैं।
4. सागर संबंधी दस कविताओं का संकलन करें और पोस्टर बनाएँ।
शब्द-छवि
वारिद-माला - गिरती हुई वर्षा की लड़ियाँ
रत्नाकर - सागर
मलयानिल - मलय पर्वत (जहाँ चंदन वन है) से आने वाली शीतल, सुंगधित हवा
कँगूरा - गुंबद, बुर्ज़
असवारी - सवारी
अंतरिक्ष - आकाश, धरती और आकाश के बीच की खुली जगह
सानु - समतल भूमि
आत्म-प्रलय - स्वयं को भूल जाना
विश्व-विमोहनहारी - संसार को मुग्ध करने वाली