रांगेय राघव

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(सन् 1923-1962)

रांगेय राघव का जन्म आगरा में हुआ था। उनका मूल नाम तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था, परंतु उन्होंने रांगेय राघव नाम से साहित्य-रचना की है। उनके पूर्वज दक्षिण आरकाट से जयपुर-नरेश के निमंत्रण पर जयपुर आए थे, जो बाद में आगरा में बस गए। वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. और पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 39 वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गई।

रांगेय राघव ने साहित्य की विविध विधाओं में रचना की है जिनमें कहानी, उपन्यास, कविता और आलोचना मुख्य हैं। उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं – रामराज्य का वैभव, देवदासी, समुद्र के फेन, अधूरी मूरत, जीवन के दाने, अंगारे न बुझे, एेयाश मुर्दे, इंसान पैदा हुआ। उनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं – घरौंदा, विषाद-मठ, मुर्दों का टीला, सीधा-सादा रास्ता, अँधेरे के जुगनू, बोलते खंडहर तथा कब तक पुकारूँ। सन् 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी ने उनकी साहित्य-सेवा के लिए उन्हें पुरस्कृत किया। उनकी रचनाओं का संग्रह दस खंडों में रांगेय राघव ग्रंथावली नाम से प्रकाशित हो चुका है।

रांगेय राघव ने 1936 से ही कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं। उन्होंने अस्सी से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। अपने कथा-साहित्य में उन्होंने जीवन के विविध आयामों को रेखांकित किया है। उनकी कहानियों में समाज के शोषित-पीड़ित मानव जीवन के यथार्थ का बहुत ही मार्मिक चित्रण मिलता है। उनकी कहानियाँ शोषण से मुक्ति का मार्ग भी दिखाती हैं। सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा उनकी कहानियों की विशेषता है। पाठ्यपुस्तक में संकलित कहानी गूँगे में एक गूँगे किशोर के माध्यम से शोषित मानव की असहायता का चित्रण किया गया है। कभी तो वह मूक भाव से सब अत्याचार सह लेता है और कभी विरोध में आक्रोश व्यक्त करता है।

लेखक ने दिव्यांगों के प्रति समाज में व्याप्त संवेदनहीनता को रेखांकित किया है। साथ ही यह बताने की कोशिश भी की है कि उन्हें सामान्य मनुष्य की तरह मानना और समझना चाहिए एवं उनके साथ संवेदनशील व्यवहार करना चाहिए, ताकि वे इस दुनिया में अलग-थलग न पड़ने पाएँ। कहानी के माध्यम से लेखक ने यह कहा है कि समाज के जो लोग संवेदनहीन हैं, वे भी गूँगे-बहरे हैं, क्योंकि अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति वे सचेत नहीं हैं।


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गूँगेे


‘शकुंतला क्या नहीं जानती?’

‘कौन? शकुंतला! कुछ नहीं जानती!’

‘क्यों साहब? क्या नहीं जानती? एेसा क्या काम है जो वह नहीं कर सकती?’

‘वह उस गूँगे को नहीं बुला सकती।’

‘अच्छा, बुला दिया तो?’

‘बुला दिया?’

बालिका ने एक बार कहनेवाली की ओर द्वेष से देखा और चिल्ला उठी, दूँदे!

गूँगे ने नहीं सुना। तमाम स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। बालिका ने मुँह छिपा लिया।

जन्म से वज्र बहरा होने के कारण वह गूँगा है। उसने अपने कानों पर हाथ रखकर इशारा किया। सब लोगों को उसमें दिलचस्पी पैदा हो गई, जैसे तोते को राम-राम कहते सुनकर उसके प्रति हृदय में एक आनंद-मिश्रित कुतूहल उत्पन्न हो जाता है।

चमेली ने अंगुलियों से इंगित किया – फिर?

मुँह के आगे इशारा करके गूँगे ने बताया – भाग गई। कौन? फिर समझ में आया। जब छोटा ही था, तब ‘माँ’ जो घूँघट काढ़ती थी, छोड़ गई, क्योंकि ‘बाप’, अर्थात् बड़ी-बड़ी मूँछें, मर गया था। और फिर उसे पाला है – किसने? यह तो समझ में नहीं आया, पर वे लोग मारते बहुत हैं।

करुणा ने सबको घेर लिया। वह बोलने की कितनी ज़बर्दस्त कोशिश करता है। लेकिन नतीजा कुछ नहीं, केवल कर्कश काँय-काँय का ढेर! अस्फुट ध्वनियों का वमन, जैसे आदिम मानव अभी भाषा बनाने में जी-जान से लड़ रहा हो।

चमेली ने पहली बार अनुभव किया कि यदि गले में काकल तनिक ठीक नहीं हो तो मनुष्य क्या से क्या हो जाता है। कैसी यातना है कि वह अपने हृदय को उगल देना चाहता है, किंतु उगल नहीं पाता।

सुशीला ने आगे बढ़कर इशारा किया – ‘मुँह खोलो!’ और गूँगे ने मुँह खोल दिया – लेकिन उसमें कुछ दिखाई नहीं दिया। पूछा – ‘गले में कौआ है?’ गूँगा समझ गया। इशारे से ही बता दिया – ‘किसी ने बचपन में गला साफ़ करने की कोशिश में काट दिया’ और वह एेसे बोलता है जैसे घायल पशु कराह उठता है, शिकायत करता है, जैसे कुत्ता चिल्ला रहा हो और कभी-कभी उसके स्वर में ज्वालामुखी के विस्फोट की-सी भयानकता थपेड़े मार उठती है। वह जानता है कि वह सुन नहीं सकता। और बता-बताकर मुसकराता है। वह जानता है कि उसकी बोली को कोई नहीं समझता फिर भी बोलता है।

सुशीला ने कहा – इशारे गज़ब के करता है। अकल बहुत तेज़ है। पूछा – ‘खाता क्या है, कहाँ से मिलता है?’

वह कहानी एेसी है, जिसे सुनकर सब स्तब्ध बैठे हैं। हलवाई के यहाँ रात-भर लड्डू बनाए हैं, कड़ाही माँजी है, नौकरी की है, कपड़े धोए हैं, सबके इशारे हैं लेकिन –

गूँगे का स्वर चीत्कार में परिणत हो गया। सीने पर हाथ मारकर इशारा किया – ‘हाथ फैलाकर कभी नहीं माँगा, भीख नहीं लेता’, भुजाओं पर हाथ रखकर इशारा किया – ‘मेहनत का खाता हूंँ’ और पेट बजाकर दिखाया ‘इसके लिए, इसके लिए...’

अनाथाश्रम के बच्चों को देखकर चमेली रोती थी। आज भी उसकी आँखों में पानी आ गया। यह सदा से ही कोमल है। सुशीला से बोली – ‘इसे नौकर भी तो नहीं रखा जा सकता।’

पर गूँगा उस समय समझ रहा था। वह दूध ले आता है। कच्चा मँगाना हो, तो थन काढ़ने का इशारा कीजिए; औंटा हुआ मँगवाना हो, तो हलवाई जैसे एक बर्तन से दूध दूसरे बर्तन में उठाकर डालता है, वैसी बात कहिए। साग मँगवाना हो, तो गोल-गोल कीजिए या लंबी उँगली दिखाकर समझाइए, और भी... और भी...

और चमेली ने इशारा किया – ‘हमारे यहाँ रहेगा?’

गूँगे ने स्वीकार तो किया, किंतु हाथ से इशारा किया – ‘क्या देगी? खाना?’

‘हाँ, कुछ पैसे’ – चमेली ने सिर हिलाया। चार उँगलियाँ दिखा दीं। गूँगे ने सीने पर हाथ मारकर जैसे कहा – तैयार हैं। चार रुपये।

सुशीला ने कहा – ‘पछताओगी। भला यह क्या काम करेगा?’

‘मुझे तो दया आती है बेचारे पर’, चमेली ने उत्तर दिया – ‘न ही, बच्चों की तबीयत बहलेगी।’

घर पर बुआ मारती थी, फूफा मारता था, क्योंकि उन्होंने उसे पाला था। वे चाहते थे कि बाज़ार में पल्लेदारी करे, बारह-चौदह आने कमाकर लाए और उन्हें दे दे, बदले में वे उसके सामने बाजरे और चने की रोटियाँ डाल दें। अब गूँगा घर भी नहीं जाता। यहीं काम करता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। कभी नाराज़ नहीं होता। चमेली के पति सीधे-सादे आदमी हैं। पल जाएगा बेचारा, किंतु वे जानते हैं कि मनुष्य की करुणा की भावना उसके भीतर गूँगेपन की प्रतिच्छाया है, वह बहुत कुछ करना चाहता है, किंतु कर नहीं पाता। इस तरह दिन बीत रहे हैं।

चमेली ने पुकारा – ‘गूँगे।’

किंतु कोई उत्तर नहीं आया, उठकर ढूँढ़ा – ‘कुछ पता नहीं लगा।’

बसंता ने कहा – ‘मुझे तो कुछ नहीं मालूम।’

‘भाग गया होगा’, पति का उदासीन स्वर सुनाई दिया। सचमुच वह भाग गया था। कुछ भी समझ में नहीं आया। चुपचाप जाकर खाना पकाने लगी। क्यों भाग गया? नाली का कीड़ा! ‘एक छत उठाकर सिर पर रख दी’ फिर भी मन नहीं भरा। दुनिया हँसती है, हमारे घर को अब अजायबघर का नाम मिल गया है...किसलिए...

जब बच्चे और वह भी खाकर उठ गए तो चमेली बची रोटियाँ कटोरदान में रखकर उठने लगी। एकाएक द्वार पर कोई छाया हिल उठी। वह गूँगा था। हाथ से इशारा किया – ‘भूखा हूँ।’

‘काम तो करता नहीं, भिखारी।’ फेंक दी उसकी ओर रोटियाँ। रोष से पीठ मोड़कर खड़ी हो गई। किंतु गूँगा खड़ा रहा। रोटियाँ छुईं तक नहीं। देर तक दोनों चुप रहे। फिर न जाने क्यों, गूँगे ने रोटियाँ उठा लीं और खाने लगा। चमेली ने गिलासों में दूध भर दिया। देखा, गूँगा खा चुका है। उठी और हाथ में चिमटा लेकर उसके पास खड़ी हो गई।

‘कहाँ गया था?’ चमेली ने कठोर स्वर से पूछा।

कोई उत्तर नहीं मिला। अपराधी की भांँति सिर झुक गया। सड़ से एक चिमटा उसकी पीठ पर जड़ दिया। किंतु गूँगा रोया नहीं। वह अपने अपराध को जानता था। चमेली की आँखों से ज़मीन पर आँसू टपक गया। तब गूँगा भी रो दिया।

और फिर यह भी होने लगा कि गूँगा जब चाहे भाग जाता, फिर लौट आता। उसे जगह-जगह नौकरी करके भाग जाने की आदत पड़ गई थी और चमेली सोचती कि उसने उस दिन भीख ली थी या ममता की ठोकर को निस्संकोच स्वीकार कर लिया था।

बसंता ने कसकर गूँगे को चपत जड़ दी। गूँगे का हाथ उठा और न जाने क्यों अपने-आप रुक गया। उसकी आँखों में पानी भर आया और वह रोने लगा। उसका रुदन इतना कर्कश था कि चमेली को चूल्हा छोड़कर आना पड़ा। गूँगा उसे देखकर इशारों से कुछ समझाने लगा। देर तक चमेली उससे पूछती रही। उसकी समझ में इतना ही आया कि खेलते-खेलते बसंता ने उसे मार दिया था।

बसंता ने कहा – ‘अम्मा! यह मुझे मारना चाहता था।’

‘क्यों रे?’ चमेली ने गूँगे की ओर देखकर कहा। वह इस समय भी नहीं भूली थी कि गूँगा कुछ सुन नहीं सकता। लेकिन गूँगा भाव-भंगिमा से समझ गया। उसने चमेली का हाथ पकड़ लिया। एक क्षण को चमेली को लगा, जैसे उसी के पुत्र ने आज उसका हाथ पकड़ लिया था। एकाएक घृणा से उसने हाथ छुड़ा लिया। पुत्र के प्रति मंगल-कामना ने उसे एेसा करने को मजबूर कर दिया।

कहीं उसका भी बेटा गूँगा होता तो वह भी एेसे ही दुख उठाता! वह कुछ भी नहीं सोच सकी। एक बार फिर गूँगे के प्रति हृदय में ममता भर आई। वह लौटकर चूल्हे पर जा बैठी, जिसमें अंदर आग थी, लेकिन उसी आग से वह सब पक रहा था जिससे सबसे भयानक आग बुझती है – पेट की आग, जिसके कारण आदमी गुलाम हो जाता है। उसे अनुभव हुआ कि गूँगे में बसंता से कहीं अधिक शारीरिक बल था। कभी भी गूँगे की भाँति शक्ति से बसंता ने उसका हाथ नहीं पकड़ा था। लेकिन फिर भी गूँगे ने अपना उठा हाथ बसंता पर नहीं चलाया।

रोटी जल रही थी। झट से पलट दी। वह पक रही थी, इसी से बसंता बसंता है...गूँगा गूँगा है...

चमेली को विस्मय हुआ। गूँगा शायद यह समझता है कि बसंता मालिक का बेटा है, उस पर वह हाथ नहीं लगा सकता। मन-ही-मन थोड़ा विक्षोभ भी हुआ, किंतु पुत्र की ममता ने इस विषय पर चादर डाल दी और फिर याद आया कि उसने उसका हाथ पकड़ा था। शायद इसीलिए कि उसे बसंता को दंड देना ही चाहिए, यह उसको अधिकार है...।

किंतु वह तब समझ नहीं सकी, और उसने सुना कि गूँगा कभी-कभी कराह उठता था। चमेली उठकर बाहर गई। कुछ सोचकर रसोई में लौट आई और रात की बासी रोटी लेकर निकली।

‘गूँगे!’ उसने पुकारा।

कान के न जाने किस पर्दे में कोई चेतना है कि गूँगा उसकी आवाज़ को कभी अनसुना नहीं कर सकता, वह आया। उसकी आँखों में पानी भरा था। जैसे उनमें एक शिकायत थी, पक्षपात के प्रति तिरस्कार था। चमेली को लगा कि लड़का बहुत तेज़ है। बरबस ही उसके होंठों पर मुस्कान छा गई। कहा – ‘ले खा ले।’ – और हाथ बढ़ा दिया।

गूँगा इस स्वर की, इस सबकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह हँस पड़ा। अगर उसका रोना एक अजीब दर्दनाक आवाज़ थी तो यह हँसना और कुछ नहीं – एक अचानक गुर्राहट-सी चमेली के कानों में बज उठी। उस अमानवीय स्वर को सुनकर वह भीतर-ही-भीतर काँप उठी। यह उसने क्या किया था? उसने एक पशु पाला था। जिसके हृदय में मनुष्यों की-सी वेदना थी।

घृणा से विक्षुब्ध होकर चमेली ने कहा – ‘क्यों रे, तूने चोरी की है?’

गूँगा चुप हो गया। उसने अपना सिर झुका लिया। चमेली एक बार क्रोध से काँप उठी, देर तक उसकी ओर घूरती रही। सोचा – मारने से यह ठीक नहीं हो सकता। अपराध को स्वीकार करा दंड न देना ही शायद कुछ असर करे और फिर कौन मेरा अपना है। रहना हो तो ठीक से रहे, नहीं तो फिर जाकर सड़क पर कुत्तों की तरह जूठन पर ज़ि्ांदगी बिताए, दर-दर अपमानित और लांछित...।

आगे बढ़कर गूँगे का हाथ पकड़ लिया और द्वार की ओर इशारा करके दिखाया – निकल जा। गूँगा जैसे समझा नहीं। बड़ी-बड़ी आँखों को फाड़े देखता रहा। कुछ कहने को शायद एक बार होंठ खुले भी, किंतु कोई स्वर नहीं निकला। चमेली वैसे ही कठोर बनी रही। अब के मुँह से भी साथ-साथ कहा – ‘जाओ, निकल जाओ। ढंग से काम नहीं करना है तो तुम्हारा यहाँ कोई काम नहीं। नौकर की तरह रहना है रहो, नहीं तो बाहर जाओ। यहाँ तुम्हारे नखरे कोई नहीं उठा सकता। किसी को भी इतनी फुरसत नहीं है। समझे?’

और फिर चमेली आवेश में आकर चिल्ला उठी – ‘मक्कार, बदमाश! पहले कहता था, भीख नहीं माँगता, और सबसे भीख माँगता है। रोज़-रोज़ भाग जाता है, पत्ते चाटने की आदत पड़ गई है। कुत्ते की दुम क्या कभी सीधी होगी? नहीं। नहीं रखना है हमें, जा, तू इसी वक्त निकल जा...’

किंतु वह क्षोभ, वह क्रोध, सब उसके सामने निष्फल हो गए; जैसे मंदिर की मूर्ति कोई उत्तर नहीं देती, वैसे ही उसने भी कुछ नहीं कहा। केवल इतना समझ सका कि मालकिन नाराज़ है और निकल जाने को कह रही हैं। इसी पर उसे अचरज और अविश्वास हो रहा है।

चमेली अपने-आप लज्जित हो गई। कैसी मूर्खा है वह! बहरे से जाने क्या-क्या कह रही थी? वही क्या कुछ सुनता है?

हाथ पकड़कर ज़ोर से एक झटका दिया और उसे दरवाज़े के बाहर धकेलकर निकाल दिया। गूँगा धीरे-धीरे चला गया। चमेली देखती रही।

करीब घंटेभर बाद शकुंतला और बसंता – दोनों चिल्ला उठे, ‘अम्मा! अम्मा!’

‘क्या है?’ चमेली ने ऊपर ही से पूछा।

‘गूँगा...’, बसंता ने कहा। किंतु कहने के पहले ही नीचे उतरकर देखा – गूँगा खून से भीग रहा था। उसका सिर फट गया था। वह सड़क के लड़कों से पिटकर आया था, क्योंकि गूँगा होने के नाते वह उनसे दबना नहीं चाहता था। दरवाज़े की दहलीज़ पर सिर रखकर वह कुत्ते की तरह चिल्ला रहा था।

और चमेली चुपचाप देखती रही, देखती रही कि इस मूक अवसाद में युगों का हाहाकार भरकर गूँज रहा है।

और ये गूँगे... अनेक-अनेक हो संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गए हैं – जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परखकर भी अत्याचार को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर होकर भी स्वर में अर्थ नहीं है... क्योंकि वे असमर्थ हैं।

और चमेली सोचती है, आज दिन एेसा कौन है जो गूँगा नहीं है। किसका हृदय समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से, घृणा से नहीं छटपटाता, किंतु फिर भी कृत्रिम सुख की छलना अपने जालों में उसे नहीं फाँस देती – क्योंकि वह स्नेह चाहता है, समानता चाहता है!


प्रश्न-अभ्यास

1. गूँगे ने अपने स्वाभिमानी होने का परिचय किस प्रकार दिया?

2. ‘मनुष्य की करुणा की भावना उसके भीतर गूँगेपन की प्रतिच्छाया है।’ कहानी के इस कथन को वर्तमान सामाजिक परिवेश के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

3. ‘नाली का कीड़ा! ‘एक छत उठाकर सिर पर रख दी’ फिर भी मन नहीं भरा।’ – चमेली का यह कथन किस संदर्भ में कहा गया है और इसके माध्यम से उसके किन मनोभावों का पता चलता है?

4. यदि बसंता गूँगा होता तो आपकी दृष्टि में चमेली का व्यवहार उसके प्रति कैसा होता?

5. ‘उसकी आँखों में पानी भरा था। जैसे उनमें एक शिकायत थी, पक्षपात के प्रति तिरस्कार था।’ क्यों?

6. ‘गूँगा दया या सहानुभूति नहीं, अधिकार चाहता था’ – सिद्ध कीजिए।

7. ‘गूँगे’ कहानी पढ़कर आपके मन में कौन से भाव उत्पन्न होते हैं और क्यों?

8. कहानी का शीर्षक ‘गूँगे’ है, जबकि कहानी में एक ही गूँगा पात्र है। इसके माध्यम से लेखक ने समाज की किस प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है?

9. यदि ‘स्किल इंडिया’ जैसा कोई कार्यक्रम होता तो क्या गूँगे को दया या सहानुभूति का पात्र बनना पड़ता?

10. निम्नलिखित गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए –

(क) करुणा ने सबको...........................जी जान से लड़ रहा हो।

(ख) वह लौटकर चूल्हे पर...........................आदमी गुलाम हो जाता है।

(ग) और फिर कौन...........................ज़िंदगी बिताए।

(घ) और ये गूँगे...........................क्योंकि वे असमर्थ हैं?

11. निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए –

(क) कैसी यातना है कि वह अपने हृदय को उगल देना चाहता है, किंतु उगल नहीं पाता।

(ख) जैसे मंदिर की मूर्ति कोई उत्तर नहीं देती, वैसे ही उसने भी कुछ नहीं कहा।

 

योग्यता-विस्तार

1. समाज मेेें दिव्यांगों के लिए होने वाले प्रयासों में आप कैसे सहयोग कर सकते हैं?

2. दिव्यांगों की समस्या पर आधारित ‘स्पर्श’, ‘कोशिश’ तथा ‘इकबाल’ फ़िल्में देखिए और समीक्षा कीजिए।

  

 

शब्दार्थ और टिप्पणी

वज्र बहरा – जिसे बिलकुल सुनाई न देता हो

अस्फुट – अस्पष्ट

ध्वनियों का वमन – आवाज़ निकालने की कोशिश में ध्वनियों को जैसे-तैसे उगल देना

विक्षुब्ध – अशांत

कांकल – गले के भीतर की घाँटी

पल्लेदारी – पीठ पर अनाज या सामान इत्यादि ढोने का कार्य