सुधा अरोड़ा

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(सन् 1948)

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सुधा अरोड़ा का जन्म लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ। उच्च शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से हुई। इसी विश्वविद्यालय के दो कॉलेजों में उन्होंने सन् 1969 से 1971 तक अध्यापन कार्य किया। कथा साहित्य में सुधा अरोड़ा एक चर्चित नाम है। उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हैं – बगैर तराशे हुए, युद्ध-विराम, महानगर की भौतिकी, काला शुक्रवार, काँसे का गिलास तथा औरत की कहानी (संपादित) आदि। उनकी कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। उन्होंने भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्याें के दो संकलन दहलीज़ को लाँघते हुए और पंखों की उड़ान तैयार किए हैं।

लेखन के स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में भी बराबर उनकी सक्रियता बनी हुई है। पाक्षिक सारिका में आम आदमी ज़िंदा सवाल और राष्ट्रीय दैनिक जनसत्ता में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर उनका साप्ताहिक स्तंभ वामा बहुचर्चित रहा। महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों के प्रति उनकी सक्रियता एवं समर्थन जारी है। महिलाओं पर ही केंद्रित औरत की दुनिया बनाम दुनिया की औरत लेखों का संग्रह है। ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’ द्वारा उन्हें विश्ेाष पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

सुधा अरोड़ा मूलतः कथाकार हैं। उनके यहाँ स्त्री विमर्श का रूप आक्रामक न होकर सहज और संयत है। सामाजिक और मानवीय सरोकारों को वे रोचक ढंग से विश्लेषित करती हैं।

पाठ्यपुस्तक में संकलित ज्योतिबा फुले की जीवनी में लेखिका ने ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी द्वारा समाज में किए गए शिक्षा और समाज सुधार संबंधी कार्यों का महत्त्व बताया है। सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों का विरोध कर उन्होंने दलितों, शोषितों और स्त्रियों की समानता के हक की लड़ाई लड़ी। इसके कारण समाज का व्यापक विरोध भी उन्हें झेलना पड़ा। उस दौर की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उनका संघर्ष निर्णायक महत्त्व रखता है।



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ज्योतिबा फुले

यह अप्रत्याशित नहीं है कि भारत के सामाजिक विकास और बदलाव के आंदोलन में जिन पाँच समाज-सुधारकों के नाम लिए जाते हैं, उनमें महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम का शुमार नहीं है। इस सूची को बनानेवाले उच्चवर्णीय समाज के प्रतिनिधि हैं। ज्योतिबा फुले ब्राह्मण वर्चस्व और सामाजिक मूल्यों को कायम रखनेवाली शिक्षा और सुधार के समर्थक नहीं थे। उन्होंने पूँजीवादी और पुरोहितवादी मानसिकता पर हल्ला बोल दिया। उनके द्वारा स्थापित ‘सत्यशोधक समाज’ और उनका क्रांतिकारी साहित्य इसका प्रमाण है। जब ब्राह्मणों ने कहा – ‘विद्या शूद्रों के घर चली गई’ तो फुले ने तत्काल उत्तर दिया – ‘सच का सबेरा होते ही वेद डूब गए, विद्या शूद्रों के घर चली गई, भू-देव (ब्राह्मण) शरमा गए।’

महात्मा ज्योतिबा फुले ने वर्ण, जाति और वर्ग-व्यवस्था में निहित शोषण-प्रक्रिया को एक-दूसरे का पूरक बताया। उनका कहना था कि राजसत्ता और ब्राह्मण आधिपत्य के तहत धर्मवादी सत्ता आपस में साँठ-गाँठ कर इस सामाजिक व्यवस्था और मशीनरी का उपयोग करती है। उनका कहना था कि इस शोषण-व्यवस्था के खिलाफ़ दलितों के अलावा स्त्रियों को भी आंदोलन करना चाहिए।

महात्मा ज्योतिबा फुले के मौलिक विचार ‘गुलामगिरी’, ‘शेतकर्यांचा आसूड’ (किसानों का प्रतिशोध) ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ आदि पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। आदर्श परिवार के बारे में उनकी अवधारणा है – ‘जिस परिवार में पिता बौद्ध, माता ईसाई, बेटी मुसलमान और बेटा सत्यधर्मी हो, वह परिवार एक आदर्श परिवार है।’

आधुनिक शिक्षा के बारे में फुले कहते हैं – ‘यदि आधुनिक शिक्षा का लाभ सिर्फ़ उच्च वर्ग को ही मिलता है, तो उसमें शूद्रों का क्या स्थान रहेगा? गरीबों से कर जमा करना और उसे उच्चवर्गीय लोगों के बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना – किसे चाहिए एेसी शिक्षा?’

स्वाभाविक है कि विकसित वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले और सर्वांगीण समाज-सुधार न चाहनेवाले तथाकथित संभ्रान्त समीक्षकों ने महात्मा फुले को समाज-सुधारकों की सूची में कोई स्थान नहीं दिया – यह ब्राह्मणी मानसिकता की असलियत का भी पर्दाफ़ाश करता है। 1883 में ज्योतिबा फुले अपने बहुचर्चित ग्रंथ ‘शेतकर्यांचा आसूड’ के उपोद्घात में लिखते हैं –

‘विद्या बिना मति गई

मति बिना नीति गई

नीति बिना गति गई

गति बिना वित्त गया

वित्त बिना शूद्र गए

               इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए।’

महात्मा ज्योतिबा फुले ने लिखा है – ‘स्त्री-शिक्षा के दरवाज़े पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे हैं कि वह मानवीय अधिकारों को समझ न पाए, जैसी स्वतंत्रता पुरुष लेता है, वैसी ही स्वतंत्रता स्त्री ले तो? पुरुषों के लिए अलग नियम और स्त्रियों के लिए अलग नियम – यह पक्षपात है।’ ज्योतिबा ने स्त्री-समानता को प्रतिष्ठित करनेवाली नयी विवाह-विधि की रचना की। पूरी विवाह-विधि से उन्होंने ब्राह्मण का स्थान ही हटा दिया। उन्होंने नए मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जानेवाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह-विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करनेवाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएँ। उनके स्थान पर एेसे मंत्र हों, जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। ज्योतिबा ने जिन मंगलाष्टकों की रचना की, उनमें वधू वर से कहती है – ‘स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे।’ यह आकांक्षा सिर्फ़ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहनेवाली हर स्त्री की थी। स्त्री के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ज्योतिबा फुले ने हर संभव प्रयत्न किए।

1888 में जब ज्योतिबा फुले को ‘महात्मा’ की उपाधि से सम्मानित किया गया तो उन्होंने कहा – "मुझे ‘महात्मा’ कहकर मेरे संघर्ष को पूर्णविराम मत दीजिए। जब व्यक्ति मठाधीश बन जाता है तब वह संघर्ष नहीं कर सकता। इसलिए आप सब साधारण जन ही रहने दें, मुझे अपने बीच से अलग न करें।" महात्मा ज्योतिबा फुले की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जो कहते थे, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारकर दिखाते थे। इस दिशा में अग्रसर उनका पहला कदम था – अपनी पत्नी सावित्री बाई को शिक्षित करना। ज्योतिबा ने उन्हें मराठी भाषा ही नहीं, अंग्रेज़ी लिखना-पढ़ना और बोलना भी सिखाया। सावित्री बाई की भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी और उनकी ग्राह्य-शक्ति तेज़ थी। उनके बचपन की एक घटना बहुत प्रसिद्ध है, छह-सात साल की उम्र में वह हाट-बाज़ार अकेली ही चली जाती थी। एक बार सावित्री शिखल गाँव के हाट में गई। वहाँ कुछ खरीदकर खाते-खाते उसने देखा कि एक पेड़ के नीचे कुछ मिशनरी स्त्रियाँ और पुरुष गा रहे हैं। एक लाट साहब ने उसे खाते हुए और रुककर गाना सुनते देखा तो कहा, "इस तरह रास्ते में खाते-खाते घूमना अच्छी बात नहीं है।" सुनते ही सावित्री ने हाथ का खाना फेंक दिया। लाट साहब ने कहा – "बड़ी अच्छी लड़की हो तुम। यह पुस्तक ले जाओ। तुम्हें पढ़ना न आए तो भी इसके चित्र तुम्हें अच्छे लगेंगे।" घर आकर सावित्री ने वह पुस्तक अपने पिता को दिखाई। आगबबूला होकर पिता ने उसे कूड़े में फेंक दिया, "ईसाइयों से एेसी चीज़ें लेकर तू भ्रष्ट हो जाएगी और सारे कुल को भ्रष्ट करेगी। तेरी शादी कर देनी चाहिए।" सावित्री ने वह पुस्तक उठाकर एक कोने में छुपा दी। सन्् 1840 में ज्योतिबा फुले से विवाह होने पर वह अपने सामान के साथ उस किताब को सहेजकर ससुराल ले आई और शिक्षित होने के बाद वह पुस्तक पढ़ी।

14 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ निवासी भिड़े के बाड़े में पहली कन्याशाला की स्थापना हुई। पूरे भारत में लड़कियों की शिक्षा की यह पहली पाठशाला थी। भारत में 3000 सालों के इतिहास में इस तरह का काम नहीं हुआ था। शूद्र और शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक के बाद एक पाठशालाएँ खोलने में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई को लगातार व्यवधानों, अड़चनों, लांछनों और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। ज्योतिबा के धर्मभीरू पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मजबूर किया। सावित्री जब पढ़ाने के लिए घर से पाठशाला तक जाती तो रास्ते में खड़े लोग उसे गालियाँ देते, थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। दोनों पति-पत्नी सारी बाधाओं से जूझते हुए अपने काम में डटे रहे। 1840-1890 तक पचास वर्षों तक, ज्योतिबा और सावित्री बाई ने एक प्राण होकर अपने मिशन को पूरा किया। कहते हैं – एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने हर मुकाम पर कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया – मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर लड़कियों को पाठशाला भेजने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबंधक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाज़े खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की एक घूँट पानी पीकर प्यास बुझाने की तकलीफ़ देखकर अपने घर के पानी का हौद सभी जातियों के लिए खोल देना – हर काम पति-पत्नी ने डंके की चोट पर किया और कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर दलितों-शोषितों के हक में खड़े हुए। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक समय में, जब प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिष्ठित जाने-माने दंपती साथ रहने के कई बरसों के बाद अलग होते ही एक-दूसरे को संपूर्णतः नष्ट-भ्रष्ट करने और एक-दूसरे की जड़ें खोदने पर आमादा हो जाते हैं, महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का एक-दूसरे के प्रति और एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक आदर्श दांपत्य की मिसाल बनकर चमकता है।


प्रश्न-अभ्यास

1. ज्योतिबा फुले का नाम समाज सुधारकों की सूची में शुमार क्यों नहीं किया गया? तर्क सहित उत्तर लिखिए।

2. शोषण-व्यवस्था ने क्या-क्या षड्यंत्र रचे और क्यों?

3. ज्योतिबा फुले द्वारा प्रतिपादित आदर्श परिवार क्या आपके विचारों के आदर्श परिवार से मेल खाता है? पक्ष-विपक्ष में अपने उत्तर दीजिए।

4. स्त्री-समानता को प्रतिष्ठित करने के लिए ज्योतिबा फुले के अनुसार क्या-क्या होना चाहिए?

5. सावित्री बाई के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किस प्रकार आए? क्रमबद्ध रूप में लिखिए।

6. ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई के जीवन से प्रेरित होकर आप समाज में क्या परिवर्तन करना चाहेंगे?

7. उनका दांपत्य जीवन किस प्रकार आधुनिक दंपतियों को प्रेरणा प्रदान करता है?

8. फुले दंपति ने स्त्री समस्या के लिए जो कदम उठाया था, क्या उसी का अगला चरण ‘बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम है?

9. निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए –

(क) सच का सबेरा होते ही वेद डूब गए, विद्या शूद्रों के घर चली गई, भू-देव (ब्राह्मण) शरमा गए।

(ख) इस शोषण-व्यवस्था के खिलाफ़ दलितों के अलावा स्त्रियों को भी आंदोलन करना चाहिए।

10. निम्नलिखित गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए –

(क) स्वतंत्रता का अनुभव.............हर स्त्री की थी।

(ख) मुझे ‘महात्मा’ कहकर.............अलग न करें।


योग्यता-विस्तार

1. अपने आसपास के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत कर उसके आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।

2. क्या आज भी समाज में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव किया जाता है? कक्षा में चर्चा कीजिए।

3. सावित्री बाई और महात्मा फुले ने समाज-हित के जो काम किए उनकी सूची बनाइए।

 

शब्दार्थ और टिप्पणी

शुमार – गिनती, शामिल

उच्चवर्गीय – ऊँची जाति के

वर्चस्व – दबदबा, प्रधानता

कायम रखना – बनाए रखना, स्थिर रखना

पूँजीवादी – जो पूँजी को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है

पर्दाफ़ाश – भंडाफोड़, तथ्य उजागर करना

गुलामगिरी – लोगों से गुलामी कराना, लोगों के साथ दासों जैसा व्यवहार करना

पूर्णविराम – किसी बात को खत्म करना

मठाधीश – जो धर्म तथा वर्ग के नाम पर समूह बनाते हैं और अपना निर्णय दूसरों पर थोपते हैं

आमादा होना – किसी कार्य को करने के लिए दृढ़ होना

मिसाल – उदाहरण, आदर्श