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गजानन माधव मुक्तिबोध
(सन् 1917-1964)
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म श्योपुर कस्बा, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनके पिता पुलिस विभाग में सब-इंस्पेक्टर थे। बार-बार पिता की बदली होते रहने के कारण मुक्तिबोध की पढ़ाई का क्रम टूटता-जुड़ता रहा, इसके बावजूद उन्होंने सन् 1954 में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। पिता के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण उनमें ईमानदारी, न्यायप्रियता और दृढ़ इच्छाशक्ति के गुण विकसित हुए। लंबे समय तक नया खून (साप्ताहिक) का संपादन करने के बाद उन्होंने दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव (मध्य प्रदेश) में अध्यापन कार्य किया।
मुक्तिबोध नयी कविता के प्रमुख कवि हैं। उनकी संवेदना और ज्ञान का दायरा अत्यंत व्यापक है। गहन विचारशीलता और विशिष्ट भाषा-शिल्प के कारण उनके साहित्य की एक अलग पहचान है। स्वतंत्र भारत के मध्यवर्ग की ज़िंदगी की विडंबनाओं और विद्रूपताओं का चित्रण उनके साहित्य में है और साथ ही एक बेहतर मानवीय समाज-व्यवस्था के निर्माण की आकांक्षा भी। मुक्तिबोध के साहित्य की एक बड़ी विशेषता है आत्मालोचन की प्रवृत्ति।
मुक्तिबोध के काव्य-संग्रह हैं – चाँद का मुँह टेढ़ा है तथा भूरी-भूरी खाक धूल। नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, कामायनी : एक पुनर्विचार, एक साहित्यिक की डायरी आदि उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ हैं। छह खंडों में प्रकाशित मुक्तिबोध रचनावली में उनकी सारी रचनाएँ अब एक साथ उपलब्ध हैं। यहाँ उनकी प्रसिद्ध पुस्तक एक साहित्यिक की डायरी का एक निबंध प्रस्तुत है।
नए की जन्म कुंडली: एक में लेखक ने व्यक्ति और समाज के बाहरी तथा आंतरिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त चेतना को ‘नए’ के संदर्भों में देखने की कोशिश की है। लेखक का मानना है कि सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त यथार्थ की वैज्ञानिक चेतना को ही ‘नया’ मानना चाहिए। लेखक का यह भी कहना है कि ‘संघर्ष और विरोध’ के निष्कर्ष को व्यावहारिकता में न जीने के कारण ही हम पुराने को तो छोड़ देते हैं, किंतु ‘नए’ को वास्तविक रूप से अपना नहीं पातेे।
नए की जन्म कुंडली: एक
मैं एक एेसे व्यक्ति को जानता हूँ, जिसे (क्षमा कीजिए) मैं एक ज़माने में बहुत बुद्धिमान समझता था। मुझे उससे बहुत आशाएँ थीं कि वह आगे चलकर एक मेधावी, प्रतिभाशाली पुरुष निकलेगा। लोग समझते थे कि मैं उस व्यक्ति को अनुचित महत्त्व दे रहा हूँ। मुझे लगता था कि वह व्यक्ति हमारी भारतीय परंपरा का एक विचित्र परिणाम है। वह अपने विचारों को अधिक गंभीरतापूर्वक लेता था। वे उसके लिए धूप और हवा जैसे स्वाभाविक प्राकृतिक तत्त्व थे। शायद इससे भी अधिक। दरअसल, उसके लिए न वे विचार थे, न अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, ज़मीन, नदियाँ, झरने, जंगल और रेगिस्तान थे। मुझे यह भान होता रहता कि वह व्यक्ति अपने को प्रकट करते समय, स्वयं की सभी इंद्रियों से काम लेते हुए, एक आंतरिक यात्रा कर रहा है। वह अपने विचारों या भावों को केवल प्रकट ही नहीं करता था, बल्कि उन्हें स्पर्श करता था, सूँघता था, उनका आकार-प्रकार, रंग-रूप और गति बता सकता था, मानो उसके सामने वे प्रकट साक्षात और जीवंत हों। उसका दिमाग लोहे का एक शिकंजा था या सुनार की एक छोटी-सी चिमटी, जो बारीक-से-बारीक और बड़ी-से-बड़ी बात को सूक्ष्म रूप से और मज़बूती से पकड़कर सामने रख देती है।
लेकिन यह बात पुरानी हो गई। अब मुझे लगता है कि मैं भी बुद्धिमान हो गया हूँ। मुझे एेसा लगता कि मेरे दोस्त की बुद्धिमत्ता का कारण उसकी ज़िंदगी ही ज़्यादा थी, न कि केवल मस्तिष्क-तंतुओं की हलचल।
बारह वर्षों बाद जब एकाएक मेरी उससे मुलाकात हुई, तब आनंद और आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। आनंद से भी ज़्यादा आश्चर्य। नदियों की दो धाराओं के बीच इतने बड़े-बड़े पहाड़ आ गए थे कि उन्होंने हमारी दिशाएँ भी बदल दी थीं। जब फिर से मुलाकात हुई तो स्वभावतः हमारा ध्यान इन पहाड़ों की लंबाई-चौड़ाई, ऊँचाई-नीचाई पर गया। बारह वर्ष बाद, अब जो हम दो हो गए हैं, तो किस तरह?
उसके बाल सफ़ेद हो गए थे। लेकिन यह कहना मुश्किल था कि वह नौजवान नहीं है। यों कहिए की वह भूतपूर्व नौजवान था। मतलब यह कि प्रभाव उसके वर्तमान रंग-रूप का न होकर उसके भूतपूर्व रंग-रूप का होता था। मुझे वह प्रभाव अच्छा लगता। जी चाहता कि उसके बारे में रोमैंटिक कल्पना की जाए। लेकिन यह कहना मुश्किल था कि उसकी सुंदरता उसके रूप की थी, या उसके माथे पर पड़ी हुई रेखाओं की। कम-से-कम मुझे तो वे लकीरें अच्छी लगतीं। खूबसूरत कागज़ सुंदर तो होता ही है, लेकिन यदि वह कोरा हुआ, और उसमें कोई मर्म-वचन लिखा हुआ न रहे तो, सौंदर्य में रहस्य ही क्या रहा? सौंदर्य में रहस्य न हो तो वह एक खूबसूरत चौखटा है।
सामने पीपल का वृक्ष है। चाँदनी में उसके पत्ते चमचमाते काँप रहे हैं। चाँदनी और उसमें चित्रित हुई छायाएँ हमारे मनोलोक को एक नई दिशा दे रही हैं। मुझे मालूम था कि मेरे मित्र के लिए शैले की ‘ओड टु वैस्ट विंड’ उतनी ही दूर है जितना मेरे लिए ‘स्क्वेअर रूट अॉफ़ माइनस वन’ लेकिन इसके बावजूद वे दूरियाँ हमारी पहचानी हुई थीं, और शायद इसीलिए वे प्रिय भी थीं।
जब-जब मुझे दूरियों का भान होता है, तब मुझे अच्छा भी लगता है और बुरा भी। अच्छा इसलिए कि दूरी हमारी गति को एक चुनौती है और बुरा इसलिए कि मित्रों के बीच दूरी खटकती है। हम एक ही भाषा का उपयोग तो करते हैं लेकिन अभिधार्थ एक होते हुए भी ध्वन्यार्थ और व्यंग्यार्थ अलग-अलग हो जाते हैं।
यह दूरी के कारण है। दूरी पर विजय पाना मानव-स्वभाव है। वह एक साहस-रोमांस है। अब हमें एक-दूसरे को फिर से खोजना-पाना है।
एक तरह से मुझे खुशी भी थी कि मैं उसे कतई भूल गया था और उससे बहुत दूर निकल गया था। शायद यह आवश्यक भी था। नहीं तो मैं उससे आच्छन्न हो जाता। मेरी अपनी दृष्टि से वह असाधारण और असामान्य था। एक असाधारणता और क्रूरता भी उसमें थी। निर्दयता भी उसमें थी। वह अपनी एक धुन, अपने एक विचार या एक कार्य पर सबसे पहले खुद को, और उसके साथ लोगों को कुर्बान कर सकता था। इस भीषण त्याग के कारण, उसके अपने आत्मीयों का उसके विरुद्ध युद्ध होता, तो वह उसकी क्षति भी बरदाश्त कर लेता। उसकी ज़िंदगी के इस बुनियादी तथ्य से मैंने हमेशा वैर किया। जब वह राजनीति में उतरा तो मैंने उसके घरवालों के सामने गरजकर यह आरोप लगाया कि वह उसका पलायन है, अपना उत्तरदायित्व वहन न करने की प्रवृत्ति है। मैंने उससे यह भी कहा कि वह राजनीतिक व्यक्ति है ही नहीं। राजनीति के साथ जब वह साहित्य में उतरा तब मुझे कुछ अच्छा लगा। लेकिन तब तक उसकी हालत बिगड़ चुकी थी। घर के विरोध और बाहर के विरोध से वह जर्जर हो गया था। लेकिन बेहद ज़िद्दी होने के सबब वह अड़ा रहा। और तब से हम एक दूसरे से दूर-दूर होते चले गए।
लेकिन आज मैं यह सोचता हूँ कि सांसारिक समझौते से ज़्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं– खास तौर पर वहाँ, जहाँ किसी अच्छी महत्त्वपूर्ण बात करने के मार्ग में अपने या अपने जैसे लोग और पराए लोग आड़े आते हों। जितनी ज़बरदस्त उनकी बाधा होगी, उतनी ही कड़ी लड़ाई भी होगी, अथवा उतना ही निम्नतम समझौता होगा।
इस भीषण संघर्ष की हृदय भेदक प्रक्रिया में से गुज़रकर उस व्यक्ति का निजत्व कुछ एेंड़ा-वेंड़ा, कुछ विचित्र अवश्य हो गया था। किंतु सबसे बड़ी बात यह थी कि उसकी बाज़ू सही थी। इसलिए वह असामान्य था।
दूसरे शब्दों में, मैं सामान्य उसको समझता हूँ, जिसमें अपने भीतर के असामान्य के उग्र आदेश का पालन करने का मनोबल न हो। मैं अपने को एेसा ही आदमी समझता हूँ। मैं मात्र सामान्य हूँ (मैं नामी-गिरामी हूँ, यह बात अलग है)। और चूँकि वह व्यक्ति हमेशा मेरे भीतर के असामान्य को उकसा देता था, इसीलिए अपने भीतर के उस उकसे हुए असामान्य की रोशनी में, मैं एक ओर स्वयं को हीन अनुभव करता, तो दूसरी ओर ठीक वही असामान्य मेरी कल्पना और भावना को उत्तेजित करके मुझे, अपने से वृहत और व्यापक जो भी है, उसमें डुबो देता– चाहे वह इंटीग्रल केलक्युलस हो, सुदूर नेब्यूला हो, या कोई एेतिहासिक कांड हो, अथवा कोई दार्शनिक सिद्धांत हो या विशाल सामाजिक लक्ष्य हो। इसलिए मैं अपने और अपने मित्र के ज़रिए असामान्य के अंतःचरित्र और सामान्य के दबाव को भली-भाँति जानता था।
लेकिन मेरी गति और दृष्टि कुछ और थी। जब मैं कोई काम करता, तो इसलिए कि उससे लोग खुश होते हैं। वह काम करता तो सिर्फ़ इसलिए कि एक बार कोई काम हाथ में लेने पर उसे अधिकारी ढंग से भली-भाँति कर ही डालना चाहिए। मेरी व्यावहारिक सामान्य बुद्धि थी। उसकी कार्य-शक्ति, आत्मप्रकटीकरण की एक निर्द्वंद्व शैली। हम दोनों में दो ध्रुवों का भेद था। ज़िंदगी में मैं सफल हुआ, वह असफल। प्रतिष्ठित, भद्र और यशस्वी मैं कहलाया। वह नामहीन और आकारहीन रह गया। लेकिन अपनी इस हालत की उसे कतई परवाह नहीं थी। इसका मुझे बहुत बुरा लगता, क्योंकि वस्तुतः वह मेरी यशस्विता को भी बड़ी सत्ता के रूप में स्वीकार न कर पाता।
इतने वर्षों बाद मेरी ज़िंदगी में जब वह वापस आया, तो मुझे लगा कि यह उस उल्का पिंड की भाँति है जो सैकड़ों वर्षों के अवकाश के बाद सूर्य के पास आकर एक चक्कर लगा लेता है, और पुनः अपने आकाशमार्ग पर निकल जाता है। इस सुदूर यात्रा के उसके अनुभव की कीमत मैं जानता हूँ, भले ही किन्हीं अप्रत्याशित संघर्षों में टूट-फूटकर, वह धूल बनता हुआ खरबों मील दूर के किसी अँधेरे शून्य में खो जाए।
किंतु आज उसने मुझसे कहा कि उसकी पूरी ज़िंदगी भूल का एक नक्शा है। मैं उसके विषाद को समझ गया। वह ज़िंदगी में छोटी-छोटी सफलताएँ चाहता था। उसके पास तो सिर्फ़ एक भव्य असफलता है (यह मेरी टिप्पणी है, उसकी नहीं) मैंने सिर्फ़ इतना ही जवाब दिया, "लेकिन नक्शा तो है! यहाँ तो न गलत का नक्शा है, न सही का!"
मैंने उसका दिल बँधाने की कोशिश की और मैं कर ही क्या सकता था! मनुष्य के लिए यह स्वाभाविक ही है कि वह थोड़ी-बहुत सांसारिक सफलता की इच्छा रखे। किन्हीं असावधान क्षणों में ही, उसने मुझसे कहा कि वह स्वयं भूल का एक नक्शा है। वरना वह एेसा नहीं कहता। लेकिन आज का ज़माना कैसा है, जबकि बुलबुल भी यह चाहती है कि वह उल्लू क्यों न हुई!
चाँदनी में एक जादू होता है। लेकिन यह जादू अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग है। न मालूम हमारी बात कहाँ से शुरू हुई। मैं डर-डरकर उससे बात करता जा रहा था। कहीं एेसा न हो कि उसे जाने-अनजाने मुझसे कोई चोट पहुँचे क्योंकि उसने अपने विचारों के लिए खून बहाया है, ज़िंदगी खत्म की है। इसीलिए मैं धीरे-धीरे उसकी बात सुनता जा रहा था। और जहाँ मतभेद व्यक्त करना हो वहाँ मैं, अपनी आदत के अनुसार उत्तेजित होने के बजाय, मुसकराकर बात कह देता!
मैंने उससे पूछा, "पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना कौन-सी है?"
एक मिनट तक उसने मेरी तरफ़ देखा और फिर छूटते ही कहा, "संयुक्त परिवार का ह्रास!"
मैं स्तब्ध हो गया।
उसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर खिलखिलाते हुए कहा, "और इस तथ्य का साहित्य से बहुत बड़ा संबंध है।"
चारों ओर चाँदनी की रहस्यमय मधुरता फैली हुई थी। चारों ओर ठंडा एकांत फैला हुआ था। मेरी अजीब मनोस्थिति हो गई। मैं अपने पड़ोसियों की ज़िंदगियाँ ढूँढ़ने लगा, अपने परिचितों का जीवन तलाशने लगा। एक अनइच्छित बेचैनी मुझमें फैल गई। हाँ, यह सही है कि ज़िंदगी और ज़माना बदलता जा रहा था। किंतु मैं परिवर्तन के परिणामों को देखने का आदी था, परिवर्तन की प्रक्रिया को नहीं।
एक बात कह दूँ – आजकल की आवश्यकताओं के अनुसार मैं चित्रकला और नृत्यकला से लेकर मानववंश शास्त्र तक, सबकी जानकारी रखता हूँ। इस संबंध में बहुतेरे दिलचस्प तथ्य मेरे दिलो दिमाग के पिछले पॉकिट में रखे हुए हैं। इसलिए मुझसे कोई ज़्यादा गड़बड़ नहीं कर सकता। जब मेरे मित्र ने एकदम संयुक्त परिवार की बात कही तो मैंने उसका इम्तिहान लेने की ज़िद करके उससे पूछा, "और इन वर्षों में सबसे बड़ी भूल कौन सी हुई?"
एक मिनट के लिए वह चुप रहा, फिर उसने जवाब दिया, "राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यत्रुम न होना। साहित्य के पास सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा कि हम जनरल (सामान्य) बातें करके, सिर्फ़ और एकमात्र राजनीतिक या साहित्यिक आंदोलन के ज़रिए, वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे। फलतः सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप दिया गया...।"
"देखते नहीं हो, आज़ादी के मिलने के बाद जातिवाद का उदय क्यों हुआ - खासकर राजनीतिक संस्थाओं के भीतर!...सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप देने के कारण ही साहित्य में भी गड़बड़ है।"
उसकी यह उक्ति मुझे बड़ी हास्यास्पद प्रतीत हुई। उसमें मुझे मूर्खता के विशाल दृश्य दिखाई देने लगे। उसने अपनी बात को रबर – जैसा तान दिया है – एेसा मुझे लगा।
उसने अविश्वास से मेरी आँखों की तरफ देखा। शायद यह सही है कि मैं उसे बेवकूफ़ मान रहा हूँ।
रात में, और वह भी चाँदनी रात में, सामने के सेमल के झाड़ पर बैठे हुए कुछ कौवे चौंक पड़े। शायद किसी चमगादड़ ने वहाँ झपट्ठा मारा हो। कुछ कौवे उड़े, पेड़ के आसपास कुछ देर मँडराए और फिर किसी डाल पर जाकर बैठ गए।
लेकिन मेरा मित्र तैश में था। उसने कहा, "समाज में वर्ग हैं, श्रेणियाँ हैं। श्रेणियों में परिवार हैं। समाज की एक बुनियादी इकाई परिवार भी है। समाज की अच्छाई-बुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है। मनुष्य के चरित्र का विकास परिवार में होता है। बच्चे पलते हैं, उन्हें सांस्कृतिक शिक्षा मिलती है। वे अपनी सारी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ वहाँ से लेते हैं। हमारे साहित्य तथा राजनीति के पास एेसी कोई दृष्टि नहीं है जो परिवार को लागू हो..."
एक मिनट के लिए वह चुप रहा और फिर आगे बढ़ता गया।
"ज़मानेे के साथ, संयुक्त सामंती परिवार का ह्रास हुआ। उन विचारों और संस्कारों के प्रति विद्रोह भी किया गया, जो सामंती परिवार में पाए जाते थे।"
"लेकिन उसके बाद क्या हुआ? लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में खेलते, और घर आकर वैसा ही सोचते या करते, जो सोचा या किया जाता रहा। समाज में, बाहर, पूँजी या धन की सत्ता से विद्रोह की बात की गई, लेकिन घर में नहीं। वह शिष्टता और शील के बाहर की बात थी। मतलब यह कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं, घर के बाहर दी गई। घर का संघर्ष कठिन था। उसमें भावनाओं की टकराहट उन्हीं से होती थी, जो अपने प्राण के अंश थे। इसीलिए न केवल उस संघर्ष को टाल दिया गया, वरन एक अजीब ढंग का समझौता किया गया। यह हुआ! मैं कहता हूँ, यह हुआ! मानो इसे!"
मुझे लगा कि वह मुझे गाली दे रहा है! एक ठंडी लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई। फिर भी चूँकि मुझे लगा कि उसकी बात अभी अधूरी ही है, इसलिए मैं चुप रहा।
वह बोला, "इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े में हमारे परिवारों में पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति इस प्रकार एक बहुत भयानक अवसरवादी दृष्टि अपनाई गई है। इसीलिए सिर्फ़ एक सप्रश्नता है। प्रश्न है, वैज्ञानिक पद्धति का अवलंबन करके उत्तर खोज निकालने की न जल्दी है, न तबीयत है, न कुछ। मैं मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।"
"जो पुराना है, अब वह लौटकर आ नहीं सकता। लेकिन नए ने पुराने का स्थान नहीं लिया। धर्म-भावना गई, लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आई। धर्म ने हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष को अनुशासित किया था। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन ने, वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने, धर्म का स्थान नहीं लिया इसलिए केवल हम अपनी अंतःप्रवृत्तियों के यंत्र से चालित हो उठे। उस व्यापक, उच्चतर, सर्वतोमुखी मानवीय अनुशासन की हार्दिक सिद्धि के बिना हम ‘नया-नया’ चिल्ला तो उठे, लेकिन वह – ‘नया’ क्या है – हम नहीं जान सके! क्यों? मान-मूल्य, नया इंसान परिभाषाहीन और निराकार हो गए। वे दृढ़ और नया जीवन, नए व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण न कर सके। वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।"
प्रश्न-अभ्यास
1. लेखक ने व्यक्ति को हमारी भारतीय परंपरा का विचित्र परिणाम क्यों कहा है?
2. ‘सौंदर्य में रहस्य न हो तो वह एक खूबसूरत चौखटा है।’ व्यक्ति के व्यक्तित्व के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
3. सामान्य-असामान्य तथा साधारण-असाधारण के अंतर को व्यक्ति और लेखक के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
4. ‘उसकी पूरी ज़िंदगी भूल का एक नक्शा है।’ इस कथन द्वारा लेखक व्यक्ति के बारे में क्या कहना चाहता है?
5. पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना संयुक्त परिवार का ह्रास है – क्यों और कैसे?
6. इन वर्षों में सबसे बड़ी भूल है, ‘राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना’ – इस संदर्भ में आप अपने विचार लिखिए।
7. ‘अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं, घर के बाहर दी गई।’ – इससे लेखक का क्या अभिप्राय है?
8. ‘जो पुराना है, अब वह लौटकर आ नहीं सकता। लेकिन नए ने पुराने का स्थान नहीं लिया।’ इस नए और पुराने के अंतर्द्वंद्व को स्पष्ट कीजिए।
9. निम्नलिखित गद्यांशों की व्याख्या कीजिए–
(क) इस भीषण संघर्ष की हृदय भेदक.............इसलिए वह असामान्य था।
(ख) लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में.............घर के बाहर दी गई।
(ग) इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े.............शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।
(घ) मान-मूल्य, नया इंसान.............वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।
10. निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए–
(क) सांसारिक समझौते से ज़्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं।
(ख) बुलबुल भी यह चाहती है कि वह उल्लू क्यों न हुई!
(ग) मैं परिवर्तन के परिणामों को देखने का आदी था, परिवर्तन की प्रक्रिया को नहीं।
(घ) जो पुराना है, अब वह लौटकर आ नहीं सकता।
योग्यता-विस्तार
1. ‘विकास की ओर बढ़ते चरण और बिखरते मानव-मूल्य’ विषय पर कक्षा में परिचर्चा कीजिए।
2. ‘आधुनिकता की इस दौड़ में हमने क्या खोया है और क्या पाया है?’ – अपने विद्यालय की पत्रिका के लिए इस विषय पर अध्यापकों का साक्षात्कार लीजिए।
3. ‘सौंदर्य में रहस्य न हो तो वह एक खूबसूरत चौखटा है।’ लेखक के इस वाक्य को केंद्र में रखते हुए ‘सौंदर्य क्या है’ इस पर चर्चा करें।
शब्दार्थ और टिप्पणी
शिकंजा - जकड़
मस्तिष्क-तंतु - मस्तिष्क की शिराएँ
रोमैंटिक कल्पना – एेसी कल्पना जिनमें प्रेम और रोमांच हो
‘ओड टु वैस्ट विंड’ - अंग्रेज़ी कवि शैले की रचना
स्क्वेअर रूट अॉफ़ माइनस वन - गणित का एक सूत्र
अभिधार्थ - शब्द का सामान्य अर्थ, तीन शब्द शक्तियों* में से एक का बोध करानेवाली
ध्वन्यार्थ - वह अर्थ जिसका बोध व्यंजना शब्द शक्ति से होता है
व्यंग्यार्थ - किसी शब्द या वाक्य का उसके साधारण अर्थ से भिन्न, वह अर्थ जो उसकी व्यंजना शक्ति से निकलता है, जैसे यदि हम किसी से व्यंग्यपूर्वक कहें - आपने हम पर बहुत कृपा की, तो इसका व्यंग्यार्थ होगा कि आपने हमारे साथ बहुत अनुचित व्यवहार किया।
आच्छन्न - छिपा हुआ, ढँका हुआ
हृदयभेदक प्रक्रिया - हृदय को भीतर तक प्रभावित करनेवाली क्रिया
निजत्व - स्वयं का, अपनी विशेषता
एेंड़ा-वेंड़ा - टेढ़ा-मेढ़ा
इंटीग्रल (अंग्रेज़ी शब्द) - अभिन्न
आत्मप्रकटीकरण - अपने मन की वास्तविकता प्रकट करना, मन की बात कहना
यशस्विता - प्रतिष्ठा, अत्यधिक यश, प्रसिद्धि
उल्कापिंड - एेसे पत्थरनुमा टुकड़े जो अंतरिक्ष से पृथ्वी के वायुुमंडल में प्रवेश करते हैं
अप्रत्याशित - अनसोचा, जिसकी आशा न हो, उम्मीद न हो
खरब - भारतीय गणना में सौ अरब की संख्या
वस्तुस्थिति - वास्तविक स्थिति
सप्रश्नता - प्रश्न के साथ, जिसके साथ प्रश्न जुड़ा हुआ हो
सर्वतोमुखी - सभी ओर से, सभी दिशाओं में
* शब्द शक्तियाँ
अभिधा - शब्दों की वह शक्ति जिससे उनके नियत अर्थ ही निकलते हैं। कोई शब्द सुनते ही उसके अर्थ का जो बोध होता है वह इसी शक्ति के द्वारा होता है। इसे वाच्यार्थ भी कहते हैं।
लक्षणा - शब्द की वह शक्ति जो मुख्य अर्थ के बाधित होने पर किसी विशेष प्रायोजन के लिए मुख्य अर्थ से संबद्ध किसी लक्ष्यार्थ का बोध कराती है।
व्यंजना - शब्द की वह शक्ति जिससे वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ (अर्थात अभिधा और लक्षणा-शक्ति से निकलने वाले अर्थों) के अतिरिक्त ध्वनि के रूप में कुछ विशेष अर्थ निकलता है।