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काव्य-खंड
कबीर
(सन् 1398-1518)
कबीर का जन्म काशी में हुआ था। कहा जाता है कि वे स्वामी रामानंद के शिष्य थे। कबीर ने अपनी रचनाओं में स्वयं को जुलाहा और काशी का निवासी कहा है। जीवन के अंतिम समय में वे मगहर चले गए और वहीं अपना शरीर त्यागा।
कबीर ने विधिवत शिक्षा नहीं पाई थी। उन्होंने कहा भी है कि ‘मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ’, किंतु वे प्रारंभ से ही संतों और फ़कीरों की संगति में रहे थे। अतः उनके पास उच्चकोटि के ज्ञान के साथ-साथ मौलिक चिंतन की विलक्षण प्रतिभा भी थी।
निर्गुण भक्त कवियों की ज्ञानमार्गी शाखा में कबीर का सर्वोच्च स्थान है। उनके काव्य में धर्म के बाह्याडंबरों का विरोध है और राम-रहीम की एकता की स्थापना का प्रयत्न भी। उन्होंने जातिगत और धार्मिक पक्षपात का बार-बार खंडन किया है। वे हर प्रकार के भेदभाव से मुक्त मनुष्य की मनुष्यता को जगाने का प्रयत्न करते हैं।
कबीर के काव्य में गुरु-भक्ति, ईश्वर-प्रेम, ज्ञान तथा वैराग्य, सत्संग और साधु-महिमा, आत्म-बोध और जगत-बोध की अभिव्यक्ति है। उनकी कविता अनुभव के ठोस धरातल पर टिकी होने के कारण विश्वसनीय और प्रामाणिक है। कबीर की कविता की भाषा में जनभाषा की सहजता के साथ-साथ भावों की गहराई भी है। उनकी काव्यभाषा में दार्शनिक चिंतन को सहज रूप में व्यक्त करने की शक्ति है।
कबीर ने मूलतः साखी, सबद, और रमैनी रचे। उनकी रचनाएँ मुख्यतः कबीर ग्रंथावली में संगृहीत हैं, किंतु कबीर पंथ में बीजक का विशेष महत्त्व है। कबीर की कुछ रचनाएँ गुरुग्रंथ साहब में भी संकलित हैं। पाठ्यपुस्तक में कबीर के दो पद दिए गए हैं। पहले पद में हिंदू और मुसलमान दोनों के धर्माचरण पर प्रहार करते हुए बाह्याडंबरों और कुरीतियों की आलोचना की गई है।
दूसरे पद में कबीर ने खुद को विरहिणी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रियतम से घर लौटने की आकांक्षा व्यक्त की है। दाम्पत्य प्रेम और घर की महत्ता इस पद के केंद्र में है। कबीर के ये दोनों पद पारसनाथ तिवारी द्वारा संपादित कबीर वाणी से लिए गए हैं।
1
अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनों भाई साधो कौन राह ह्वै जाई।।
2
बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई एेसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।।
प्रश्न-अभ्यास
1. ‘अरे इन दोहुन राह न पाई’ से कबीर का क्या आशय है और वे किस राह की बात कर रहे हैं?
2. इस देश में अनेक धर्म, जाति, मज़हब और संप्रदाय के लोग रहते थे किंतु कबीर हिंदू और मुसलमान की ही बात क्यों करते हैं?
3. ‘हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई’ के माध्यम से कबीर क्या कहना चाहते हैं? वे उनकी किन विशेषताओं की बात करते हैं?
4. ‘कौन राह ह्वै जाई’ का प्रश्न कबीर के सामने भी था। क्या इस तरह का प्रश्न आज समाज में मौजूद है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
5. ‘बालम आवो हमारे गेह रे’ में कवि किसका आह्वान कर रहा है और क्यों?
6. ‘अन्न न भावै नींद न आवै’ का क्या कारण है? एेसी स्थिति क्यों हो गई है?
7. ‘कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे’ से कवि का क्या आशय है? स्पष्ट कीजिए।
8. कबीर निर्गुण संत परंपरा के कवि हैं और यह पद (बालम आवो हमारे गेह रे) साकार प्रेम की ओर संकेत करता है। इस संबंध में आप अपने विचार लिखिए।
9. उदाहरण देते हुए दोनों पदों का भाव-सौंदर्य और शिल्प-सौंदर्य लिखिए।
योग्यता-विस्तार
1. कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।
2. कबीर के पद लोकगीत और शास्त्रीय परंपरा में समान रूप से लोकप्रिय हैं और गाए जाते हैं। कुछ प्रमुख गायकाें के नाम यहाँ दिए जा रहे हैं। इनके कैसेट्स अपने विद्यालय में मँगवाकर सुनिए और सुनाइए –
• कुमार गंधर्व
• प्रह्लाद सिंह टिप्पाणियाँ
• भारती बंधु
शब्दार्थ और टिप्पणी
पाइन–तर – पैरों पर, पैरों के पास
पीर – गुरु, आध्यात्मिक शिक्षक, साधना में मार्गदर्शक, अल्लाह का पैगंबर
औलिया – संत, महात्मा, फ़कीर
खाला – मौसी, माँ की बहन
जेंवन – जीमना, भोजन करना
तुरकन – कबीर के समय में जो लोग बाहर से हिंदुस्तान में आए, खासतौर से मुसलमान शासक
गेह – घर
कामिन – प्रेमिका
(कबीर पर आधारित सी.आई.टी., एन.सी.ई.आर.टी. ने श्रव्य-दृश्य कार्यक्रम तैयार किया है, आप उसे देखें)