देव

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(सन् 1673-1767)

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महाकवि देव का जन्म इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। औरंगज़ेब के पुत्र आलमशाह के संपर्क में आने के बाद देव ने अनेक आश्रयदाता बदले, किंतु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपत्ति दान की। अनेक आश्रयदाता राजाओं, नवाबों, धनिकों से संबद्ध रहने के कारण राजदरबारों का आडंबरपूर्ण और चाटुकारिता भरा जीवन देव ने बहुत निकट से देखा था। इसीलिए उन्हें एेसे जीवन से वितृष्णा हो गई थी।

रीतिकालीन कवियों में देव बड़े प्रतिभाशाली कवि थे। दरबारी अभिरुचि से बँधे होने के कारण उनकी कविता में जीवन के विविध दृश्य नहीं मिलते, किंतु उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के मार्मिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। अनुप्रास और यमक के प्रति देव में प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा उन्होंने सुंदर ध्वनिचित्र खींचे हैं। ध्वनि-योजना उनके छंदों में पग-पग पर प्राप्त होती है।
शृंगार के उदात्त रूप का चित्रण देव ने किया है।

देव कृत कुल ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिलविनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीपिका आदि प्रमुख हैं।

देव के कवित्त-सवैयों में प्रेेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है। यहाँ उनकी छोटी-छोटी तीन कविताएँ दी गई हैं।

हँसी की चोट विप्रलंभ शृंगार का अच्छा उदाहरण है। कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपियाँ हँसना ही भूल गई हैं। वे कृष्ण को खोज-खोज कर हार गई हैं। अब तो वे कृष्ण के मिलने की आशा पर ही जीवित हैं। उनके शरीर के पंच तत्त्वों में से अब केवल आकाश तत्त्व ही शेष रह गया है।

सपना में कृष्ण स्वप्न में गोपी को अपने साथ झूला झूलने को कहते हैं। तभी गोपी की नींद टूट जाती है, और उसका स्वप्न खंडित हो जाता है। इसमें संयोग-वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है। दरबार में पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था पर देव ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।

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हँसी की चोट


साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।

तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि।।

‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि,

जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।।


सपना

झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,

घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।

आनि कह्यो स्याम मो सौं ‘चलौ झूलिबे को आज’

फूली न समानी भई एेसी हौं मगन मैं।।

चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,

सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।

आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनश्याम,

वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्वै दृगन में।।

 

दरबार

साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।

भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो।।

भेष न सूझ्यो, कह्यो समझ्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।

‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो।।


प्रश्न-अभ्यास

1. ‘हँसी की चोट’ सवैये में कवि ने किन पंच तत्त्वों का वर्णन किया है तथा वियोग में वे किस प्रकार विदा होते हैं?

2. नायिका सपने में क्यों प्रसन्न थी और वह सपना कैसे टूट गया?

3. ‘सपना’ कवित्त का भाव-सौंदर्य लिखिए।

4. ‘दरबार’ सवैये में किस प्रकार के वातावरण का वर्णन किया गया है?

5. दरबार में गुणग्राहकता और कला की परख को किस प्रकार अनदेखा किया जाता है?

6. भाव स्पष्ट कीजिए–

(क) हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।

(ख) सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।

(ग) वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्वै दृगन में।

(घ) साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी।

7. देव ने दरबारी चाटुकारिता और दंभपूर्ण वातावरण पर किस प्रकार व्यंग्य किया है?

8. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या करिए–

(क) साँसनि ही......तनुता करि।

(ख) झहरि......गगन में।

(ग) साहिब अंध......बाच्यो।

9. देव के अलंकार प्रयोग और भाषा प्रयोग के कुछ उदाहरण पठित पदों से लिखिए।


योग्यता-विस्तार

1. ‘दरबार’ सवैये को भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी’ के समकक्ष रखकर विवेचना कीजिए।

2. देव के समान भाषा प्रयोग करने वाले किसी अन्य कवि की रचनाओं का संकलन कीजिए।


शब्दार्थ और टिप्पणी

तनुता - कृशता, दुबलापन

हेरी - देखकर

हरि - हरने वाला, कृष्ण

झहरि - बरसाती बूँदों की झड़ी लगना

निगोड़ी - निर्दयी

मुसाहिब - राजा के दरबारी

औघट - कठिन, दुर्गम मार्ग

निबरे नट - अपनी कला या प्रतिभा से भटका हुआ कलाकार

मूक - चुप

सगरी - संपूर्ण