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सुमित्रानंदन पंत
(सन् 1900-1978)
सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा, उत्तरांचल के कौसानी गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। सन् 1919 में गांधी जी के एक भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने बिना परीक्षा दिए ही अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हो गए।
पंत जी ने बचपन से ही काव्य-रचना शुरू कर दी थी। लेकिन उनका वास्तविक कविकर्म बाद में प्रारंभ हुआ। उनका काव्य-संग्रह पल्लव और उसकी भूमिका हिंदी कविता में युगांतकारी महत्त्व रखते हैं। उन्होंने सन् 1938 में रूपाभ नामक पत्रिका निकाली, जिसकी प्रगतिशील साहित्य-चेतना के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पंत जी प्रकृति-प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं। छायावादी कवियों में वे सबसे अधिक भावुक तथा कल्पनाशील कवि के रूप में चर्चित रहे हैं। उनकी कविताओं में पल-पल परिवर्तित होने वाली प्रकृति के गत्यात्मक, मूर्त और सजीव चित्र मिलते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही पंत मानव सौंदर्य के भी कुशल चितेरे हैं। कल्पनाशीलता के साथ-साथ रहस्यानुभूति और मानवतावादी दृष्टि उनके काव्य की मुख्य विशेषताएँ हैं।
पंत का संपूर्ण साहित्य आधुनिक चेतना का वाहक है। उन्होंने आधुनिक हिंदी कविता को अभिव्यंजना की नयी पद्धति और काव्य-भाषा को नवीन दृष्टि से समृद्ध किया है। पंत की कविता में भाषा और संवेदना के सूक्ष्म और अंतरंग संबंधों की पहचान है, जिससे हिंदी काव्य-भाषा में नए सौंदर्य-बोध का विकास हुआ है। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी की काव्य-भाषा की व्यंजना शक्ति का विकास किया और उसे भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अधिक सक्षम बनाया, इसीलिए उन्हें शब्द-शिल्पी कवि भी कहा जाता है।
सुमित्रानंदन पंत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए थे, जिनमें – सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रमुख हैं।
पंत जी की महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियाँ हैं – वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, उत्तरा, कला और बूढ़ा चाँद, चिदंबरा आदि। पंत जी ने छोटी कविताओं और गीतों के साथ परिवर्तन जैसी लंबी कविता और लोकायतन नामक महाकाव्य की रचना भी की है।
पाठ्यपुस्तक में संकलित कविता संध्या के बाद उनके ग्राम्या संकलन से ली गई है। ग्राम्या का मूल स्वर ग्रामीण जन-जीवन के विविध सामाजिक यथार्थ से जुड़ता है। इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है, जिसमें वृद्धाएँ, विधवाएँ, खेत से घर लौटते किसान और पशु-पक्षियों का चित्रण उल्लेखनीय है।
संध्या के बाद
सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद् जिह्म विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!
धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
शंख घंट बजते मंदिर में
लहरों में होता लय कंपन,
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठाें का स्वर!
लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर,
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर!
जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!
माली की मँड़ई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी!
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर अाँगन,
भूल गये लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
सकुची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रहीं ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!
दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण!
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?
घुसे घरौंदों में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या एेसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का?
दरिद्रता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आई जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
प्रश्न-अभ्यास
1. संध्या के समय प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, कविता के आधार पर लिखिए।
2. पंत जी ने नदी के तट का जो वर्णन किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।
3. बस्ती के छोटे से गाँव के अवसाद को किन-किन उपकरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है?
4. लाला के मन में उठनेवाली दुविधा को अपने शब्दों में लिखिए।
5. सामाजिक समानता की छवि की कल्पना किस तरह अभिव्यक्त हुई है?
6. ‘कर्म और गुण के समान...........हो वितरण’ पंक्ति के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहा है?
7. निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
8. आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ताम्रपर्ण, पीपल से, शतमुख/झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
(ख) दीप शिखा-सा ज्वलित कलश/ नभ में उठकर करता नीराजन!
(ग) सोन खगों की पाँति/आर्दΡ ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
(घ) मन से कढ़ अवसाद श्रांति/आँखों के आगे बुनती जाला!
(ड.) क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों/गोपन मन को दे दी हो भाषा!
(च) बिना आय की क्लांति बन रही/उसके जीवन की परिभाषा!
(छ) व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी/दोषी जन के दुःख क्लेश की।
योग्यता-विस्तार
1. ग्राम्य जीवन से संबंधित कविताओं का संकलन कीजिए।
2. कविता में निम्नलिखित उपमान किसके लिए आए हैं, लिखिए –
(क) ज्योति स्तंभ-सा – ..................................................
(ख) केंचुल-सा – ..................................................
(ग) दीपशिखा-सा – ..................................................
(घ) बगुलों-सी – ..................................................
(ङ) स्वर्ण चूर्ण-सी – ..................................................
(च) सनन् तीर-सा – ..................................................
शब्दार्थ और टिप्पणी
तरुशिखर - वृक्ष का ऊपरी हिस्सा
ताम्रपर्ण - ताँबे की तरह लाल रंग के पत्ते
विश्लथ - थका हुआ सा
जिह्म - मंद
ऊर्मियों - लहरों
लोड़ित - मथित (मथा हुआ)
सिकता - रेत, बालू
आर्द्र - नम
गोरज - गोधूलि
मँड़ई - झोपड़़ी, कुटिया
ढिबरी - मिट्टी के तेल से जलनेवाला छोटा-सा दीपक
खपरा - छत बनाने के लिए पकाई हुई मिट्टी की आकृति
कथड़ी - पुराने कपड़े से बनाया गया लेवा, गुदड़ी
अधिवास - निवास-स्थान, घर