नरेंद्र शर्मा

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(सन् 1923-1989)

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नरेंद्र शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर ज़िले के जहाँगीरपुर गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई, बाद में प्रयाग विश्वविद्यालय से उन्होंने एम.ए. किया। वे शुरू से ही राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। इसी सक्रियता के कारण उन्हेें सन् 1940 से 1942 तक जेल में रहना पड़ा। 1943 में वे मुंबई चले गए और फ़िल्मों के लिए गीत और संवाद लिखने लगे तथा अंतिम समय तक फ़िल्मों से ही जुड़े रहे।

नरेंद्र शर्मा के प्रसिद्ध काव्य-संग्रह – प्रभात फेरी, प्रवासी के गीत, पलाशवन, मिट्टी और फूल, हंसमाला, रक्तचंदन आदि हैं।

नरेंद्र शर्मा मूलतः गीतकार हैं। उनके अधिकांश गीत यथार्थवादी दृष्टिकोण से लिखे गए हैं। वे प्रगतिवादी चेतना से प्रभावित थे। उन्होंने प्रकृति के सुंदर चित्र उकेरे हैं। व्याकुल प्रेम की अभिव्यक्ति और प्रकृति के कोमल रूप के चित्रण में उन्हें विशेष सफलता मिली है। अंतिम दौर की रचनाएँ आध्यात्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि लिए हुए हैं। फ़िल्मों के लिए लिखे गए उनके गीत साहित्यिकता के कारण अलग से पहचाने जाते हैं। नरेंद्र शर्मा की भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। संगीतात्मकता और स्पष्टता उनके गीतों की विशेषता है।

पाठ्यपुस्तक में नरेंद्र शर्मा की कविता नींद उचट जाती है दी गई है। इस कविता में कवि ने एक एेसी लंबी रात का वर्णन किया है जो समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है और कवि को प्रकाश की कोई किरण भी नहीं दिखाई दे रही है। कविता का यह अँधेरा दो स्तरों पर है, व्यक्ति के स्तर पर यह दुःस्वप्न और निराशा का अँधेरा है तथा समाज के स्तर पर विकास, चेतना और जागृति के न होने का अँधेरा है। कवि जागरण के द्वारा इन दोनों अँधेरों से मुक्त होने और प्रकाश का कपाट खोलने की बात करता है।

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नींद उचट जाती है


जब-तब नींद उचट जाती है

पर क्या नींद उचट जाने से

रात किसी की कट जाती है?

 

देख-देख दुःस्वप्न भयंकर,

चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;

पर भीतर के दुःस्वप्नों से

अधिक भयावह है तम बाहर!

आती नहीं उषा, बस केवल

आने की आहट आती है!

 

देख अँधेरा नयन दूखते,

दुश्चिंता में प्राण सूखते!

सन्नाटा गहरा हो जाता,

जब-जब श्वान शृगाल भूँकते!

भीत भावना, भोर सुनहली

नयनों के न निकट लाती है!

 

मन होता है फिर सो जाऊँ,

गहरी निद्रा में खो जाऊँ;

जब तक रात रहे धरती पर,

चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ!

उस करवट अकुलाहट थी, पर

नींद न इस करवट आती है!

करवट नहीं बदलता है तम,

मन उतावलेपन में अक्षम!

जगते अपलक नयन बावले,

थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!

साँस आस में अटकी, मन को

आस रात भर भटकाती है!

जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,

नहीं गई भव-निशा अँधेरी!

अंधकार केंद्रित धरती पर,

देती रही ज्योति चकफेरी!

अंतर्नयनों के आगे से

शिला न तम की हट पाती है!


प्रश्न-अभ्यास

1. कविता के आधार पर बताइए कि कवि की दृष्टि में बाहर का अँधेरा भीतरी दुःस्वप्नों से अधिक भयावह क्यों है?

2. अंदर का भय कवि के नयनों को सुनहली भोर का अनुभव क्यों नहीं होने दे रहा है?

3. कवि को किस प्रकार की आस रातभर भटकाती है और क्यों?

4. कवि चेतन से फिर जड़ होने की बात क्यों कहता है?

5. अंधकार भरी धरती पर ज्योति चकफेरी क्यों देती है? स्पष्ट कीजिए।

6. निम्नलिखित पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए –

(क) आती नहीं उषा, बस केवल

आने की आहट आती है!

(ख) करवट नहीं बदलता है तम,

मन उतावलेपन में अक्षम!

7. जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,

नहीं गई भव-निशा अँधेरी!

उक्त पंक्तियों में ‘जागृति’, ‘अनिद्रा’ और ‘भव-निशा अँधेरी’ से कवि का सामाजिक संदर्भों में क्या अभिप्राय है?

8. ‘अंतर्नयनों के आगे से शिला न तम की हट पाती है’ पंक्ति में ‘अंतर्नयन’ और ‘तम की शिला’ से कवि का क्या तात्पर्य है?


योग्यता-विस्तार

1. क्या आपको लगता है कि बाहर का अँधेरा भीतर के अँधेरे से ज़्यादा घना है? चर्चा करें।

2. संगीत शिक्षक की सहायता से इस गीत को लयबद्ध कीजिए।


शब्दार्थ और टिप्पणी

दुश्चिंता - दुख देनेवाली चिंता

भीत भावना - भय और शंका की भावना

निमिष - क्षण, पल

भव-निशा - संसार रूपी भयावह रात

चकफेरी - चारों ओर चक्कर काटना

अंतर्नयन - अंतर्दृष्टि