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धूमिल
(सन् 1936-1975)
सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ का जन्म वाराणसी के पास खेवली नामक गाँव में हुआ। हाई स्कूल पास करके रोज़ी की फ़िक्र में पड़ गए। सन् 1958 में आई.टी.आई. वाराणसी से विद्युत डिप्लोमा किया और वहीं पर अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। असमय ही ब्रेन ट्यूमर से धूमिल की मृत्यु हो गई।
धूमिल की अनेक कविताएँ समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं, कुछ अभी तक अप्रकाशित भी हैं। संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र उनके काव्य-संग्रह हैं। धूमिल को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धूमिल के काव्य-संस्कारों के भीतर एक खास प्रकार का गँवईपन है, एक भदेसपन, जो उनके व्यंग्य को धारदार और कविता को असरदार बनाता है। उन्होंने अपनी कविता में समकालीन राजनीतिक परिवेश में जी रहे जागरूक ‘व्यक्ति’ की तसवीर पेश की है और 1960 के बाद के मोहभंग को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। संघर्षरत मनुष्यों के प्रति धूमिल के मन में अगाध करुणा है। उन्हें एेसा लगता है कि समकालीन परिवेश इस करुणा का शत्रु है। इसीलिए उनकी कविता में यह करुणा कहीं आक्रोश का रूप धारण कर लेती है तो कहीं व्यंग्य और चुटकुलेबाज़ी का। साठोत्तरी कविता के इसी आक्रोश और ज़मीन से जुड़ी मुहावरेदार भाषा के कारण धूमिल की कविताएँ अलग से पहचानी जा सकती हैं।
धूमिल की काव्य भाषा और काव्य शिल्प में एक ज़बर्दस्त गरमाहट है – एेसी गरमाहट जो बिजली के ताप से नहीं, जेठ की दुपहरी से आती है।
पाठ्यपुस्तक में उनकी कविता घर में वापसी दी गई है। यह धूमिल की एक प्रमुख कविता है जिसमें गरीबी से संघर्षरत परिवार की व्यथा-कथा है। मनुष्य संसार की भागमभाग भरे जीवन से राहत पाने के लिए स्नेह, ममत्व, अपनत्व और सुरक्षा भरे माहौल में घर बनाता है और उसमें रहता है। यहाँ विडंबना यह है कि तमाम रिश्ते-नातों, स्नेह और अपनत्व के बीच गरीबी की दीवार खड़ी है। गरीबी से लड़ते-लड़ते अब इतनी भी ताकत नहीं रही कि रिश्तों में ऊर्जा का संचार पैदा करने हेतु कोई चाबी बनाई जा सके और इस जटिल ताले को खोला जा सके।
कविता में एक एेसे घर की आकांक्षा है जहाँ गरीबी दीवार की तरह बाधक न हो। माँ-पिता, बेटी, पत्नी आदि का स्नेहिल वातावरण हो ताकि जीवन-संघर्ष में घर का सुख प्राप्त हो सके।
घर में वापसी
मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं
माँ की आँखें पड़ाव से पहले ही
तीर्थ-यात्रा की बस के
दो पंचर पहिए हैं।
पिता की आँखें –
लोहसाँय की ठंडी शलाखें हैं
बेटी की आँखें मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिए हैं।
पत्नी की आँखें आँखें नहीं
हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं
वैसे हम स्वजन हैं, करीब हैं
बीच की दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं।
रिश्ते हैं; लेकिन खुलते नहीं हैं
और हम अपने खून में इतना भी लोहा
नहीं पाते,
कि हम उससे एक ताली बनवाते
और भाषा के भुन्ना-सी ताले को खोलते,
रिश्तों को सोचते हुए
आपस में प्यार से बोलते,
कहते कि ये पिता हैं,
यह प्यारी माँ है, यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते – तू मेरी
हमसफ़र है,
हम थोड़ा जोखिम उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते
यह मेरा घर है।
प्रश्न-अभ्यास
1. घर एक परिवार है, परिवार में पाँच सदस्य हैं, किंतु कवि पाँच सदस्य नहीं उन्हें पाँच जोड़ी आँखें क्यों मानता है।
2. ‘पत्नी की आँखें आँखें नहीं हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं’ से कवि का क्या अभिप्राय है?
3. ‘वैसे हम स्वजन हैं, करीब हैं....क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं’ से कवि का क्या आशय है? अगर अमीर होते तो क्या स्वजन और करीब नहीं होते?
4. ‘रिश्ते हैं; लेकिन खुलते नहीं’ – कवि के सामने एेसी कौन सी विवशता है जिससे आपसी रिश्ते भी नहीं खुलते हैं?
5. निम्नलिखित का काव्य सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) माँ की आँखें पड़ाव से पहले ही तीर्थ-यात्रा की बस के दो पंचर पहिए हैं।
(ख) पिता की आँखें लोहसाँय की ठंडी शलाखें हैं।
योग्यता-विस्तार
1. घर में रहनेवालों से ही घर, घर कहलाता है। पारिवारिक रिश्ते खून के रिश्ते हैं फिर भी उन रिश्तों को न खोल पाना कैसी विवशता है! अपनी राय लिखिए।
2. आप अपने पारिवारिक रिश्तों-संबंधों के बारे में एक निबंध लिखिए।
3. ‘यह मेरा घर है’ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि आपका अपना घर है।
शब्दार्थ और टिप्पणी
पड़ाव - फ़ेज़, चरण
लोहसाँय - लोहे के औज़ार बनानेवाली भट्टी
शलाखें - लोहे की छड़ (सलाखें)
दीवट - दीया रखने के लिए बनाया गया स्थान
भुन्ना-सी - जटिल
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