Table of Contents
अध्याय 7
प्राणियो मे संरचनात्मक संगठन
7.1 प्राणी ऊतक
7.2 अंग एवअंग तंत्र
7.3 केंचुआ
7.4 कॉकरोच
7.5 मेंढक
आपने पिछले अध्याय मेप्राणि जगत के अनेक एक कोशिकीय (unicellular) व बहुकोशिकीय (multicellular) जीवोका अध्ययन किया एक कोशिकीय प्राणियोमेजीवन की समस्त जैविक क्रियाएजैसे- पाचन, श्वसन तथा जनन, एक ही कोशिका द्वारा संपन्न होती हैं बहुकोशकीय प्राणियोके जटिल शरीर मेउपर्युक्त आधारभूत क्रियाएभिन्न-भिन्न कोशिका समूहोद्वारा व्यवस्थित रूप से संपन्न की जाती है सरल प्राणी हाइड्रा का शरीर विभिन्न प्रकार की कोशिकाओका बना हुआ है, जिनमें प्रत्येक कोशिका की संख्या हजारोमेहोती है मानव का शरीर अरबोकोशिकाओका बना हुआ है, जो विविध कार्य संपन्न करता है ये कोशिकाएशरीर मेएक साथ कैसे काम करती हैं? बहुकोशिकीय प्राणियोमेसमान कोशिकाओका समूह, अंतरकोशिकीय पदार्थोसहित एक विशेष कार्य करता है, कोशिकाओका एेसा संगठन ऊतक (tissue) कहलाता है
आपको आश्चर्य हो सकता है कि सभी जटिल प्राणियोका शरीर केवल चार प्रकार के आधारभूत ऊतकोका बना हुआ है ये सब ऊतक एक विशेष अनुपात एवप्रतिरूप से संगठित होकर अंगों का निर्माण करते हैं, जैसे- आमाशय, फुप्फुस (lungs), हृदय और वृक्क (kidney) जब दो या दो से अधिक अंग अपनी भौतिक एवरासायनिक पारस्परिक-क्रिया से एक निश्चित कार्य को संपन्न कर अंग-तंत्र का निर्माण करते हैजैसे-पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र इत्यादि समस्त शरीर की जैविक क्रियाएं, कोशिका, ऊतक, अंग तथा अंग तंत्र मेश्रम विभाजन के द्वारा संपन्न होती हैऔर पूरे शरीर को जीवित रखने के लिए योगदान देती हैं
7.1 प्राणि ऊतक
कोशिका की संरचना उसके कार्य के अनुसार बदलती रहती है इस प्रकार ऊतक भिन्न-भिन्न होते हैं और उन्हेमोटे तौर पर निम्नलिखित से चार प्रकारोमें वर्गीकृत किया गया है- (1) उपकला ऊतक (2) संयोजी ऊतक (3) पेशी ऊतक (4) तंत्रिका ऊतक
7.1.1 उपकला ऊतक
हम उपकला ऊतक को सामान्यतः उपकला ही कहते हैइस ऊतक मेएक मुक्त स्तर होता है जो एक ओर तो देह-तरल (body fluid) और दूसरी ओर बाह्य वातावरण के संपर्क मेरहता है और इस प्रकार देह का आवरण अथवा आस्तर (lining) का निर्माण करता है कोशिकाएअंतराकोशिकीय आधात्री (intercellular matrix) द्वारा दृढतापूर्वक जुड़ी रहती हैउपकला ऊतक दो प्रकार के होते है- 1. सरल उपकला तथा संयुक्त उपकला सरल उपकला एक ही स्तर का बना होता है तथा यह देहगुहाओं, वाहिनियों, और नलिका का आस्तर है संयुक्त उपकला कोशिकाओं की दो या दो से अधिक स्तरोकी बनी होती है और इसका कार्य रक्षात्मक है जैसे कि हमारी त्वचा कोशिका के सरंचनात्मक रूपांतरण के आधार पर सरल उपकला ऊतक तीन प्रकार के हैं-
शल्की (squamous) उपकला, घनाकार (cuboid) उपकला तथा स्तंभाकार (columnar) (चित्र 7.1)
चित्र 7.1 सरल उपकला (अ) शल्की (ब) घनाकार (स) स्तंभाकार (द) पक्ष्माभ धारी स्तंभाकार कोशिकाएं
शल्की उपकला ऊतक यह एक चपटी कोशिकाओके पतले स्तर से बनता है जिसके किनारे अनियमित होेते हैयह ऊतक रक्त वाहिकाओकी भित्ति मेतथा फेफड़े के वायु कोश (air sac) मेपाया जाता है और यह विसरण सीमा का कार्य करती है घनाकार उपकला यह ऊतक एक स्तरीय घन जैसी कोशिकाओसे बना होता है यह सामान्यतः वृक्कोके वृक्कको(nephrons) के नलिकाकार भागोतथा ग्रंथियोकी वाहिनियोमेपाया जाता है इनका मुख्य कार्य स्रवण और अवशोषण है वृक्क मेवृक्ककोकी समीपस्थ वलयित (concoluted) सूक्ष्म नलिका की उपकला मेसूक्ष्मांकुर (microvilli) होते हैस्तंभाकर उपकला लंबी एवं पतली कोशिकाओके एक स्तर का बना होता है केंद्रक प्रायः कोशिका के आधारी भाग मेहोता है मुक्त सतह पर प्रायः सूक्ष्मांकुर पाए जाते हैसूक्ष्मांकुर आमाशय, आंत्र तथा आंतरिक आस्तर मेपाए जाते है और यह स्रवण ओर अवशोषण मेसहायक देते हैयदि इन स्तंभाकार या घनाकार कोशिकाओकी मुक्त सतह पर पक्ष्माभ होते हैतो इसे पक्ष्माभी (ciliated) उपकला (चित्र 7.1घ) कहते हैइनका कार्य कणोअथवा श्लेष्मा को उपकला की सतह पर एक निश्चित दिशा मेले जाना है यह मुख्यतः श्वसनिका (broncheol) तथा डिंबवाहिनी नलिकाओ(fallopiam tubes) जैसे खोखले अंगोकी भीतरी सतह मेपाए जाते हैI
कुछ स्तंभाकार या घनाकार कोशिकाओमेस्रवण की विशेषता होती है और एेसी उपकला को उपकला ग्रंथिल (glandular epithrlium) कहते हैं (चित्र 7.2) इसे दो समूहोमेवर्गीकृत किया जा सकता है- एक कोशिक जो पृथक ग्रंथिल कोशिकाओका बना होता है, जैसे आहार नाल की कलश कोशिका (goblet cell) तथा बहुकोशिक जो कोशिकाओके पुंज (उदाहरण -लार ग्रंथि) का बना होता है स्रावी कोशिका मेस्राव के निष्कासन के आधार पर ग्रंथियोको दो भागों मेविभाजित किया जाता है, जिन्हेबहिःस्रावी (eocrine) ग्रंथि तथा अंतः स्रावी ग्रंथि (endocrine) कहते हैबहिःस्रावी ग्रंथि से श्लेष्मा, लार, कर्ण मोम (earwax) तेल, दुग्ध, आमाशय एंजाइम तथा अन्य कोशिका उत्पाद स्रावित होते हैये सब वाहिनियोअथवा नलिकाओके माध्यम से निर्मुक्त होते हैइसके विपरीत अंतःस्रावी ग्रंथियोमेनलिकाएनहीहोती हैइसके उत्पाद हार्माेन हैजो सीधे उस तरल मेछोड़े जाते हैं, जिसमेग्रंथि स्थित होती है
संयुक्त उपकला एक से ज्यादा कोशिका स्तरो(बहु-स्तरित) की बनी होती है और इस प्रकार स्रवण और अवशोषण मेइसकी भूमिका सीमित है (चित्र 7.3) इसका मुख्य कार्य रासायनिक व यांत्रिक प्रतिबलो(stresses) से रक्षा करना है यह त्वचा की शुष्क सतह, मुख गुहा की नम सतह पर, ग्रसनी, लार ग्रंथियोऔर अग्नाशयी की वाहिनियोके भीतरी आस्तर को ढकता है
उपकला की सभी कोशिकाएएक दूसरे से अंतरकोशिकीय पदार्थोसे जुड़ी रहती हैलगभग सभी प्राणि ऊतकोमेकोशिकाओके विशेष जोड़ व्यक्तिगत (individual ) कोशिकाओको संरचनात्मक एवकार्यात्मक संधि प्रदान करते हैउपकला और अन्य ऊतकोमेतीन प्रकार की संधि (junctions) पाई जाती हैये हैं-दृढ़, आंसजी एवअंतराली संधि दृढ़ संधि पदार्थोको ऊतक से बाहर निकलने से रोकती है अांसजी
संधियोपड़ोसी कोशिकाओके कोशिका द्रव्य को एक दूसरे से जोड़ने का काम करती हैं अंतराली संधियोआयनोतथा छोटे अणुओं एवकभी-कभी बड़े अणुओं के तुरंत स्थांतरित करने मेसहायता करती हैवे एेसा संलग्न कोशिकाओके कोशिकाद्रव को आपस मेजोड़कर करती हैं
7.1.2 संयोजी ऊतक
जटिल प्राणियोके शरीर में संयोजी ऊतक बहुतायत एवविस्तृत रूप से फैला हुआ पाया जाता है संयोजी ऊतक नाम शरीर के अन्य ऊतकोएवं अंग को एक दूसरे से जोड़ने तथा आलंबन के आधार पर दिया गया है संयोजी ऊतक मेकोमल ऊतक से लेकर विशेष प्रकार के ऊतक जैसे- उपास्थि, अस्थि, वसीय ऊतक तथा रक्त सम्मिलित हैरक्त को छोड़कर सभी संयोजी ऊतकों मेकोशिका संरचनात्मक प्रोटीन का तंतु स्रावित करती हैं, जिसे कोलेजन या इलास्टिन कहते हैये ऊतक को शक्ति, प्रत्यास्थता एवलचीलापन प्रदान करते हैये कोशिका रूपांतरित पॉलिसेकेराइड भी स्रावित करती है, जो कोशिका और तंतु के बीच में जमा होकर आधात्री का कार्य करता है संयोजी ऊतक को तीन प्रकारो मे विभक्त किया गया है (i) लचीले संयोजी ऊतक, (ii) संघन संयोजी ऊतक एव(iii) विशिष्टकृत संयोजी ऊतक I
चित्र 7.4 ढीला संयोजी ऊतक (अ) एरियोलर ऊतक (ब) वसा ऊतक
शिथिल संयोजी ऊतक मेकोशिका एवतंतु एक दूसरे से अर्धतरल आधारीय पदार्थ मेशिथिलता से जुड़े रहते हैं, उदाहरण-त्वचा गर्तिका ऊतक जो त्वचा के नीचे पाया जाता है (चित्र 7.4) यह प्रायः उपकला के लिए आधारीय ढाँचे का कार्य करता है इस संयोजी ऊतक मेप्रायः तंतु कोरक (जो तंतु को जन्म देता है), महाभक्षकाणु एवमास्ट कोशिकाएहोती हैवसा ऊतक दूसरा शिथिल संयोजी ऊतक है जो मुख्यतया त्वचा के नीचे स्थिति होता है इस ऊतक की कोशिकाएं वसा संग्रहण के लिए विशिष्ट होती हैभोजन के जो पदार्थ प्रयोग मेनहीआते, वे वसा के रूप मेपरिवर्तित कर इस ऊतक में संग्रहित कर लिए जाते हैंI
चित्र 7.5 घना संयोजी ऊतक (अ) घना नियमित (ब) घना अनियमित
सघन संयोजी ऊतकोमेतंतु एवतंतु कोशिकाएदृढ़ता से व्यवस्थित रहती हैअभिविन्यास के आधार पर तंतु तथा तंतुकोरक सघन संयोजी ऊतक को नियमित संयोजी ऊतक तथा अनियमित संयोजी ऊतक मेविभाजित किया गया है सघन नियमित ऊतक मेतंतु कोरक समानांतर तंतु के गुच्छोके बीच मेकतार मेउपस्थित होते हैकंडराएजो कंकाल पेशी को अस्थि से जोड़ती हैतथा स्नायु, जो एक अस्थि को दूसरी अस्थि से जोड़ती हैइसका उदाहरण है कोलैजन तंतु का गुच्छा कंडराओको प्रतिरोधी क्षमता प्रदान करता है और इसे टूटने से बचाता है सघन नियमित संयोजी ऊतक लचीली स्नायु (ligament) मेपाया जाता है सघन अनियमित ऊतक मे तंतु तथा तंतुकोरक होते है(तंतु मेअधिकांश कोलेजन होता है) (चित्र 7.5) जिनका अभिविन्यास अलग होता है यह ऊतक त्वचा मेपाया जाता है उपास्थि, अस्थि एवरक्त विशेष प्रकार के संयोजी ऊतक हैं
उपास्थि का अंतराकोशिक पदार्थ ठोस, विशिष्ट आनम्य एवसंपीडन रोधी होता है इस ऊतक को बनाने वाली कोशिकाए(उपास्थि अणु) स्वयद्वारा स्रावित आधात्री मेछोटी छोटी गुहिकाओमेबंद हो जाती है (चित्र 7.6 अ) कशेरुकी भ्रूण मेविद्यमान अधिकांश उपास्थियां, वयस्क अवस्था मेअस्थि द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती हैवयस्क मेकुछ उपास्थि नाक की नोंक, बाह्य कान संधियों, मेरुदंड की आस पास की अस्थियोके मध्य तथा पैर और हाथ मेपाई जाती है
अस्थि खनिज युक्त ठोस संयोजी ऊतक है, इसका आनम्य आधात्री कॉलेजन तंतु एवं कैल्सियम लवण युक्त होता है जो अस्थि को मजबूती प्रदान करता है (चित्र 7.6 ब) यह शरीर का मुख्य ऊतक है जो कि शरीर के कोमल अंगोका संरचनात्मक ढाँचा बनाता है तथा ऊतकोको सहारा एवसुरक्षा देता है अस्थि कोशिकाएआधात्री के अंदर रिक्तिकाओमेउपस्थित रहती हैं पैर की अस्थि जैसे आपकी लंबी अस्थि भार वहन का कार्य करती है अस्थि कंकाल पेशी से जुड़कर परस्पर क्रिया द्वारा गति प्रदान करती है कुछ अस्थियोमेअस्थि मज्जा, रक्त कोशिकाओका उत्पादन करती है I
रक्त तरलः संयोजी ऊतक होता है जिसमेजीवद्रव्य, लाल रुधिर कणिकाएं, सफेद रुधिर कणिकाएऔर पट्टिकाणु (platlets) पाए जाते है(चित्र 7.6 स) रक्त मुख्य परिसंचारी तरल है जो कि विभिन्न पदार्थोके परिवहन मेसहायता करता है इसके बारे मेआप विस्तृत रूप से अध्याय 17 और 18 मे पढ़ेंगे I
7.1.3 पेशी ऊतक
पेशी ऊतक अनेक लंबे, बेलनाकार तंतुओ(रेशों) से बना होता है जो समानांतर-पंक्ति मेसजे रहते हैयह तंतु कई सूक्ष्म तंतुकोसे बना होता है जिसे पेशी तंतुक (myofibril) कहते हैसमस्त पेशी तंतु समन्वित रूप से उद्दीपन के कारण संकुचित हो जाते हैतथा पुनः लंबा होकर अपनी असंकुचित अवस्था मेआ जाते हैपेशीय ऊतक की क्रिया से शरीर वातावरण मेहोने वाले परिवर्तनोके अनुसार गति करता है तथा शरीर के विभिन्न अंगोकी स्थिति को संभाले रखता है सामान्यतया शरीर की सभी गतियोमेपेशियाप्रमुख भूमिका निभाती हैपेशीय ऊतक तीन प्रकार के होते हैं- (1) कंकाल पेशी (2) चिकनी पेशी (3) हृदय पेशी
कंकाल पेशी मुख्य रूप से कंकाली अस्थि से जुड़ी रहती है प्रारूप (typical) पेशी जैसे द्विशिरस्का (biceps) (दो सिर वाली) पेशी मेरेखीय कंकाल पेशी तंतु एक समूह मेएक साथ समानांतर रूप मेपाए जाते हैपेशी ऊतक के समूह के चारोओर कठोर संयोजी ऊतक का आवरण होता है (चित्र 7.7 अ) (इसके बारे मेआप अध्याय 20 मेविस्तार से पढ़ेंगे)
चिकनी पेशी-चिकनी पेशीय ऊतक की संकुचनशील कोशिका के दोनोकिनारे पतले होते हैतथा इनमेरेखा या धारियाँ नहीहोती है(चित्र 7.7 ब) कोशिका संधियाउन्हेएक साथ बाँधेरखती हैतथा ये संयोजी ऊतक के आवरण से ढके समूह रहते हैआंतरिक अंगोजैसे- रक्त नलिका, अग्नाशय तथा आँत की भित्ति में इस प्रकार का पेशी ऊतक पाया जाता है चिकनी पेशी का संकुचन ‘‘अनैच्छिक’’ होता है; क्योंकि इनकी क्रियाविधि पर सीधा नियंत्रण नहीहोता है जैसा कि हम कंकाल पेशियोके बारे मेकर सकते हैं, चिकनी पेशी को मात्र सोचने भर से हम संकुचित नहीकर सकते हैं
हृदय पेशी- संकुचनशील ऊतक है जो केवल हृदय मेही पाई जाती है हृदय पेशी की कोशिकाए कोशिका संधियोद्वारा द्रव्य कला से एकरूप होकर चिपकी रहती है(चित्र 7.7 स) संचार संधियों अथवा अंतर्विष्ट डिस्क (intercalated disc) के कुछ संगलन बिंदुओपर कोशिका एक इकाई रूप मेसंकुचित होती है जैसे कि जब एक कोशिका संकुचन के लिए संकेत ग्रहण करती है तब दूसरी पास की कोशिका भी संकुचन के लिए उद्दीपित होती है
चित्र 7.7 पेशी ऊतक (अ) कंकालीय (रेखित) पेशी ऊतक (ब) चिकनी पेशी ऊतक (स) हृद-पेशी ऊतक
7.1.4 तंत्रिका ऊतक
तंत्रिका ऊतक मुख्य रूप से परिवर्तित अवस्थाओ के प्रति शरीर की अनुक्रियाशीला (responsiveness) के नियंत्रण के लिए उत्तरदायी होता है तंत्रिका कोशिकाएउत्तेजनशील कोशिकाएहैं, जो तंत्रिका तंत्र की संचार इकाई है (चित्र 7.8) तंत्रिबंध (Neuroglial) कोशिका बाकी तंत्रिका तंत्र को संरचना प्रदान करती है तथा तंत्रिका कोशिकाओको सहारा तथा सुरक्षा देती है हमारे शरीर मेतंत्रिबध कोशिकाएतंत्रिका ऊतक का आयतन के अनुसार
आधा से ज्यादा हिस्से बनाता है
जब एक तंत्रिका कोशिका को उपयुक्त रूप से उद्दीपित किया जाता है या वह स्वयहोती है तो विभिन्न वैद्युत परिवर्तन उत्पन्न होता है, जो बहुत तेजी से कोशिका झिल्ली पर गमन करता है तंत्रिका कोशिका जब उत्तेजित होती है तब विभव परिवर्तन तंत्रिका कोशिका के अंतिम छोर पर पहुँचता है तथा आस-पास की तंत्रिकोशिका (neuron) एवअन्य कोशिकाओको या तो उद्दीपित करता है अथवा उन्हेउद्दीपित होने से रोकता है (आप इसके बारे मेअध्याय 21 मेविस्तार से पढ़ेंगे)
7.2 अंग और अंगतंत्र
बहुकोशीय प्राणियोमेउपर्युक्त वर्णित ऊतक संगठित होकर अंग और अंगतंत्र की रचना करते हैइस तरह का संगठन लाखोकोशिकाओद्वारा निर्मित जीव की सभी क्रियाओको अधिक दक्षतापूर्वक एवसमन्वित रूप से चलाने के लिए आवश्यक होता है शरीर के प्रत्येक अंग एक या एक से अधिक प्रकार के ऊतकोसे बना होता हैउदाहरणार्थ, हृदय मेचारोतरह के ऊतक होते हैं, उपकला, संयोजी, पेशीय तथा तंत्रकीय ऊतक ध्यान पूर्वक अध्ययन के बाद हम यह देखते हैकि अंग और अंगतंत्र की जटिलता एक निश्चित इंद्रियगोचर प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है यह इंद्रियगोचर प्रवृत्ति एक विकासीय प्रवृत्ति कहलाती है (इसके बारे मेआप कक्षा 12 में विस्तार से पढ़ेंगे)
यहाँ पर आपको तीन जीवोके विभिन्न विकासीय स्तर के बारे मेबताया जा रहा है, जिसमेआपको शारीर (anatomy) और आकारिकी (mortphology) के संगठन एवक्रियाविधि के बारे मेजानकारी प्राप्त होगी आकारिकी आपको जीवोकी बाह्य संरचना या बाह्य दिखने वाले आकार का अध्ययन कराती है पौधों या सूक्ष्म जीवोके संदर्भ में, आकारिकी शब्द का वस्तुतः मतलब यही है प्राणियोके संबंध मेआकारिकी का मतलब शरीर के बाह्य अंगोकी बनावट या शरीर के बाह्य भागोका अध्ययन है प्राणियोमेशारीर का पारंपरिक मतलब आंतरिक अंगोकी संरचना के अध्ययन से है अब आप केंचुए, कॅाकरोच तथा मेंढक के आकारिकी एवशारीरकी का अध्ययन करेंगे जो अकशेरुकी तथा कशेरुकी का क्रमशः प्रतिनिधित्व करते हैं
7.3 केंचुआ
केंचुए लाल भूरे रंग के स्थलीय अकशेरुकी प्राणी होते हैं, जो कि नम मिट्टी की ऊपरी सतह मेनिवास करते हैदिन के समय ये जमीन के अंदर स्थित बिलोमेरहते हैं, जो कि ये मिट्टी को छेदकर और निगलकर बनाते हैबगीचोमेये अपने द्वारा एकत्रित उत्सर्जी मल पदार्थोके बीच ढूँढ़े जा सकते हैइन उत्सर्जी मल पदार्थ को कृमि क्षिप्ति (worm casting) कहते हैफेरेटिमा व लम्ब्रिकस (Pheretrima and Lumbricus) सामान्य भारतीय केंचुए हैं
7.3.1 आकारिकी
इनका शरीर लंबा, और लगभग 100 - 120 समान समखंडो(metameres) मेबँटा होता है पृष्ठ तल पर एक गहरी मध्यरेखा (पृष्ठ रक्त वाहिका) दिखाई देती है अधरतल पर जनन छिद्र पाए जाते हैं, जिसकी वजह से यह पृष्ठ तल से विभेदित किया जा सकता है शरीर के अग्र भाग पर मुख एवपुरोमुख (Prossomium) होते हैपुरोमुख एक पालि (lobe) है जो मुख को ढकने वाली एक फाननुमा संरचना है यह फान मृदा दरारोको खोलकर कृमि को उसमेरेंग कर जाने मेमदद करती है पुरोमुख एक संवेदी संरचना है शरीर का पहला खंड परितुंड (peristomium) या मुखखंड होता है, जिसमेमुख उपस्थित होता है एक परिपक्व कृमि में एक चौड़ी ग्रंथिल गोलाकार पट्टी चौदहवेसे सोलहवेखंड को घेरे रहती है इन ग्रंथिल ऊतक वाले खंडोको पर्याणिक (clitellum) कहते हैइस प्रकार शरीर तीन प्रमुख भागों-अग्र-पर्याणिका, पर्याणिक और पश्च पर्याणिक खंडों मेविभक्त होता है (चित्र 7.9)
5-9 खंडोमेअंतरखंडीय खांचोके अधर-पार्श्वीय भाग मेचार जोड़ी शुक्रग्रहिका रंध्र (spermathecal apertures) स्थित होते हैएकल मादा जनन छिद्र चौदहवेखंड की मध्य अधर रेखा पर स्थित होता है एक जोड़ा नर जनन छिद्र अठारवेखंड के अधर-पार्श्व मेस्थित होते हैबहुत से छोटे छिद्र जिन्हेवृक्कक रंध्र कहते हैं, अधर तल पर लगभग संपूर्ण शरीर पर पाए जाते हैं इन छिद्रोके द्वारा उत्सर्गिकाएशरीर के बाहर की ओर खुलती हैशरीर के प्रथम, अंतिम एवपर्याणिका खंडोको छोड़कर समस्त देहखंडोमेS आकार के शूक (setae) पाए जाते हैं, जो प्रत्येक खंड के मध्य मेस्थित उपकला गर्त मेधँसे रहते हैशूक छोटी बाल के समान संरचना होती है, जो कि फैल तथा सिकुड़ सकती है तथा गति मेमहत्वपूर्ण भूमिका अदा निभाती है
7.3.2 आंतरिक आकारिकी
केंचुए का शरीर एक पतली अकोशिकीय परत से ढका रहता है जिसे उपत्वचा कहते हैइसके नीचे अधिचर्म, दो पेशीय (गोलाकार व लंबवत्) परतेतथा सबसे अंदर की ओर देहगुहीय उपकला पाई जाती है अधिचर्म स्तंभाकार उपकला कोशिकाओं की एक स्तर की बनी हुई होती है, जिसमेअन्य प्रकार की कोशिकाएजैसे स्रावी ग्रंथि कोशिकाएभी सम्मिलित हैं I
आहारनाल शरीर के प्रथम से अंतिम खंड तक एक लंबी, सीधी नली के रूप मेउपस्थित होती है (चित्र 7.10) प्रथम खंड पर उपस्थित मुख, प्रथम से तृतीय खंड मेफैली मुखगुहा मेखुलता है, जो ग्रसनी की ओर अग्रसर होती है और चौथे खंड मेखुलती है ग्रसनी एक छोटी संकरी नलिका मेखुलती है, जिसे ग्रसिका कहते हैं, यह पाँचवे से सातवेखंड तक पाई जाती है, तथा एक पेशीय पेषणी (gizzard) आठवेऔर नवेखंड तक चलती है यह सड़ी पत्तियोऔर मिट्टी आदि के कणोको पीसने मेमदद करती है आमाशय नौ से चौदह खंड तक स्थित होता है केंचुए का भोजन सड़ी-गली पत्तियाँ और मिट्टी मेमिश्रित कार्बनिक पदार्थ होते हैआमाशय मेस्थित केल्सीफेरस ग्रंथियाँ ह्यूमस मेउपस्थित- ह्यूमिक अम्लोको उदासीन बना देती है आंत्र पंद्रहवेखंड से प्रारंभ होकर अंतिम खंड तक एक लंबवत नलिका के रूप मेमिलती है छब्बीसवें खंड मेआंत्र से एक जोड़ी छोटी और शंक्वाकार आंत्रिक अंधनाल निकलती हैैआंत्र का विशिष्ट गुण जो 26 खण्ड से प्रारंभ होता है तथा अन्तिम 23-25 खण्डोको छोड़कर आंत्र की पृष्ठ सतह मेआंतरिक वलन, भित्तिभंज का पाया जाता है, जिसे आंत्रवलन (typhlosole) कहते हैयह वलन अांत्र मेअवशोषण के प्रभावी क्षेत्र मेवृद्धि कर देता है आहार नाल, शरीर के अंतिम खंड पर एक छोटे छिद्र के रूप मेखुलती है जिसे गुदा (anus) कहते हैं केंचुआ कार्बनिक पदार्थोसे भरपूर मृदा को भोजन के रूप मेनिगलता है, आहारनाल से गुजरते समय, पाचक रस एंजाइमोका स्राव होता है जो कि पदार्थोके साथ घुल-मिल जाता है ये एंजाइम जटिल भोज्य कणोको सूक्ष्म अवशोषण योग्य कणोमें बदल देते हैये सरल अणु (molecules) आहारनाल-झिल्ली द्वारा अवशोषित करके उपयोग मेलाए जाते हैंI
फेरिटिमा (केंचुए) का रुधिर परिसंचरण तंत्र बंद प्रकार का होता है, जिसमेरुधिर वाहिकाएं, केशिकाएं, हृदय होता है (चित्र 7.11) बंद रुधिर परिसंचरण तंत्र के कारण रुधिर का (vessels) हृदय तथा रक्त वाहिनियोतक ही सीमित रहता है संकुचन रक्त परिसंचरण को एक दिशा मेरखता है सूक्ष्म रुधिर वाहिकाएरक्त को आहारनाल, तंत्रिका रज्जु और शरीर भित्ति तक पहुँचाती हैरुधिर ग्रंथियाँ चौथे, पाँचवेऔर छठे देह खंड पर पाई जाती हैये ग्रंथियाँ हीमोग्लोबिन तथा रुधिर कोशिकाओका निर्माण करती हैजो रुधिर प्लाज्मा में घुल जाती हैइनकी प्रकृति भक्षकाण्विक होती है केंचुए मेविशिष्ट श्वसन तंत्र नहीहोता श्वसन (गैस) विनिमय शरीर की आर्द्र सतह से उनकी रुधिर धारा मेसंपन्न होता है
उत्सर्जी अंग खंडोमेव्यवस्थित और वलयित नलिकाओके बने होते हैं, जिन्हेवृक्कक (nephridia) कहते हैये वृक्कक तीन प्रकार के होते है(i) पटीय (septal) वृक्कक 15 वेखंड से अंतिम खंड के दोनोओर अंतर खंडीय पटोपर पाए जाते हैतथा ये आंत्र मेखुलते है(ii) अध्यावरणी वृक्कक जो शरीर की देह भित्ति के आंतरिक आस्तर पर तीसरे खंड से अंतिम खंड तक चिपके रहते हैतथा शरीर की सतह पर खुलते है(iii) ग्रसनीय वृक्कक चौथे, पाँचवेएवछठे खंड मेतीन युग्मित गुच्छोके रूप मेपाए जाते हैं, (चित्र 7.12) ये विभिन्न प्रकार के वृक्कक संरचना मेमूलतः समान होते हैं
वृक्कक शरीर तरल के आयतन एवसंगठन का नियमन करते हैं वृक्कक कीपनुमा सिरे से प्रारंभ होता है, जो गुहीय कक्ष से अतिरिक्त द्रव को संचित करता है कीप वृक्कक के नलिकीय भाग से जुड़ा रहता है, जो उत्सर्जी पदार्थोको छिद्र द्वारा शरीर से एकत्र कर आहार नाल मेबाहर डालता हैI
तंत्रिका तंत्र मूलतः खंडीय गुच्छिकाओ(ganglia) के रूप मेदोहरी अधर तंत्रिका रज्जु पर व्यवस्थित होते हैबहुत सी तंत्रिका कोशिकाएइकट्ठी होकर गुच्छिका का निर्माण करती हैअग्र सिरे पर (तीसरे व चौथे खंड में) तंत्रिका रज्जु दो सिरोमेविभक्त होकर पार्श्वतः ग्रसिका को घेरते हुए पृष्ठ सतह पर प्रमस्तिष्क-गुच्छिका (cerebral ganglia) से मिलती है इस प्रकार तंत्रिका वलय बन जाता है तंत्रिका वलय, प्रमस्तिष्क गुच्छिका के साथ मिलकर मस्तिष्क का निर्माण करती है प्रमस्तिष्क गुच्छिका, वलय की अन्य तंत्रिकाओके साथ मिलकर संवेदी आवेगोऔर पेशीय अनुक्रियाओ(responses) को समाकालित करती हैI
संवेदी तंत्र मेआँखोका अभाव होता है; लेकिन इसमेकुछ प्रकाश और स्पर्श संवेदी अंग (ग्राही कोशिकाएं) विकसित होते हैं, जो प्रकाश की तीव्रता के अंतर को महसूस कर सकते हैतथा पृथ्वी के कंपन को भी महसूस कर लेते हैकेंचुए मेविशेष प्रकार के रसायन संवेदी अंग, स्वादग्राही (tasterceptor) होते हैं, जो कि रासायनिक उद्दीपनोके लिए प्रतिक्रिया करते हैये संवेदी अंग कृमि के अग्र भाग में पाए जाते हैंI
केंचुए उभयलिंगी (heremophrodite) होते हैअर्थात् एक ही प्राणी मेवृषण (नर) एवअंडाशय (मादा) दोनोजनन अंग मिलते हैइनमे10वेव 11वेखंड मे2 जोड़ी वृषण (testes) होते है(चित्र 7.13) इनकी शुक्र-वाहिकाएअठारहवे(vasa deferentia) खंड तक जाती हैजहाँ ये प्रोस्टेट वाहिनी (duct) से जुड़ जाती हैदो जोड़ी सहायक अतिरिक्त ग्रंथियाँ, सत्रहवेतथा उन्नीसवेखंड मेपाई जाती हैसंयुक्त प्रोस्टेट (spermatic) और शुक्राणु वाहिनी अठारहवेखंड के अधरपार्श्व मेएक जोड़ा नर जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलती है साथ ही छठे से नौवेखंड तक प्रत्येक खंड मेएक छोटे थैलेनुमा संरचनाएचार जोड़े शुक्राणु - धानियाँ पाई जाती हैयह मैथुन के दौरान शुक्राणुओको प्राप्त कर संग्रहित करती हैएक जोड़ी अंडाशय बारहवेऔर तेरहवेखंड के अांतरखंडीय पट पर स्थित होते है अंडाशय के नीचे अंडवाहिनी मुखिका पाई जाती है, जो अंडवाहिनी तक होती है ये आपस मेजुड़ कर चौदहवेखंड के अधरतल पर मात्र एक मादा जनन - छिद्र के रूप मेबाहर खुलती है
शुक्राणुओके आपस मेआदान-प्रदान की प्रक्रिया मैथुन के द्वारा होती है जब एक कृमि दूसरे कृमि को पाता है तथा उनके जनद द्वार (gonadal opening) एक दूसरे के सानिध्य मेआते हैतो वे अपने शुक्राणुओसे भरे थैलोको जिन्हेशुक्राणुधर कहते हैबदल लेते हैपर्याणिका की ग्रंथि कोशिकाओद्वारा (ककून) उत्पन्न कोकूनोमेपरिपक्व शुक्राणु व अंड कोशिकाओतथा तरल जमा किया जाता है निषेचन एवपरिवर्धन कोकून के अंदर होता है जिसे कृमि मृदा मेछोड़ देता है अंड व शुक्राणु कोशिकाओका कोकून के अंदर ही निषेचन हो जाता है कृमि इन्हेअपने शरीर से अलग कर देता है व मृदा (नम स्थान) के ऊपर या अंदर छोड़ देता है कृमि भ्रूण कोकून मेरहते हैलगभग तीन सप्ताह के बाद लगभग चार की औसत से कोकून 2-20 शिशु कृमि का निर्माण करता है कृमि मेपरिवर्धन प्रत्यक्ष होता है अर्थात् लार्वा अवस्था नहीहोती है
केंचुआ किसानोका मित्र कहलाता है यह मिट्टी मेछोटे-छोटे बिल बनाता है, जिससे मिट्टी छिद्रित हो जाती है और बढ़ते पौधोकी जड़ोके लिए वायु की उपलब्धता और उनका नीचे की ओर बढ़ना सुगम हो जाता है इस प्रकार केंचुओद्वारा मिट्टी को उपजाऊ बनाने की विधि या मिट्टी की उर्वर शक्ति बढ़ाने की विधि को कृमि कंपोस्ट खाद निर्माण कहते हैकेंचुए मछली पकड़ने के लिए प्रलोभक के रूप मेप्रयोग मेभी लिए जाते हैं
7.4 कॉकरोच (तिलचट्टा)
कॉकरोच चमकदार भूरे अथवा काले रंग के सपाट शरीर वाले प्राणी हैं; जिन्हेकि संघ (फाइलम) आर्थोपोडा (संधिपाद) की वर्ग इन्सेक्टा (कीटवर्ग) मेसम्मिलित किया गया है उष्णकटिबंधीय भाग मेचमकीले पीले, लाल तथा हरे रंग के कॉकरोच अक्सर दिखाई दे जाते हैइनका आकार 1/4-3 इंच (0.6-7.6 सेमी.) होता है इनमेलंबी शृंगिका (antenna) पैर तथा ऊपरी शरीर भित्ति मेचपटी वृद्धि होती है जो कि सिर को ढके रहती है समस्त संसार मेये रात्रिचर, सर्वभक्षी प्राणी हैतथा नम जगह पर मिलते हैं ये मनुष्योके घर मेरहकर गंभीर पीड़क एवअनेक प्रकार के रोगोके वाहक हैंI
7.4.1 बाह्य आकारिकी
सामान्य वयस्क कॅाकरोच, जाति पेरिप्लेनेटा अमेरिकाना का 34-53 मिमी. लंबा तथा पंखोवाला होता है, पंख नर मेउदर के आखिरी छोर से भी आगे बढ़े होते हैं
कॉकरोच का शरीर मुख्य रूप से खंडों मेबँटा होता है, तथा इसके तीन मुख्य भाग होते हैसिर, वक्ष तथा उदर (चित्र 7.14) इसका पूरा शरीर मजबूत काईटिन युक्त बाह्य कंकाल (भूरे रंग का) का बना होता है प्रत्येक खंड में, बाह्य कंकाल मेमजबूत पट्टिकाएहोती हैजिन्हेकठक (sclerites) (पृष्ठवाली-पृष्ठकांश और अधरवाली-
अधरकांश) कहते हैं, ये खंड आपस मेएक पतली (महीन) व लचीली झिल्ली से जुड़े होते हैं, जिसे संधिकारी-झिल्ली या संधि झिल्ली कहते हैं
शरीर के अग्र भाग मेस्थित सिर त्रिकोणीय होता है शरीर के अनुदैर्घ्य अक्ष के साथ लगभग समकोण बनाता है यह छः खंडोके मिलने से बनता है तथा अपनी लचीली गर्दन के कारण सभी दिशाओमेघूम सकता है सिर संपुटिका पर एक जोड़ी संयुक्त नेत्र होते हैं आँखोके आगे झिल्लीयुक्त सॉकेट से धागे जैसी एक जोड़ी शृंगिका निकलती है शृंगिका मेसंवेदी ग्राही उपस्थित होते हैं, जो वातावरणीय दशाओको मापने का काम करते हैसिर के आगे वाले छोर पर उपांग लगे होते हैं, जिनसे काटने व चबाने वाले मुखांग बनते हैमुखांग मेएक जोड़ी ऊर्ध्वोष्ठ ऊपरी जबड़ा, एक जोड़ी चिबुकास्थि, एक जोड़ी जंभिका, एक अधारोष्ठ होता है एक मध्य लचीली पालि जिसे अधोग्रसनी (hypophyanx) कहते हैजिह्वा का कार्य करती है जो कि मुखांगोसे घिरी गुहा मेउपस्थित होती है (चित्र 7.15) वक्ष मुख्यतः तीन भागोमेबँटा होता है अग्रवक्ष, मध्यवक्ष व पश्चवक्ष सिरवक्ष से अग्रवक्षक एक छोटे प्रसार द्वारा जुड़ा रहता है जिसे गर्दन कहते हैप्रत्येक वक्षीय खंड मेएक जोड़ी टांगेपाई जाती हैकक्षांग (coxa), शिखरक (trochanter) ऊर्विका (femur), अंतर्जघिका (tibia) व गुल्फ (tarsus) पंखोका प्रथम जोड़ा मध्यवक्ष से निकलता है तथा दूसरा पश्चवक्ष से अग्र पंख (मध्यवक्षीय) जिन्हें प्रवार (tegmen) आच्छद कहते हैअपारदर्शी, गहरे रंग के होते हैं तथा विश्राम अवस्था मेपश्चवक्ष पंखोसे ढके रहते हैं पश्चपंख पारदर्शी झिल्लीनुमा होते हैतथा यह उड़ने मेमदद करते हैंI
नर व मादा दोनोमेउदर दस खंडीय होता है सातवाँ अधरक नौकाकार होता है तथा आठवाव नवाअधरक के साथ मिलकर एक जनन-कोष्ठ या जननिक कोष्ठ बनाता है जिसके अग्र भाग मेमादा जनन छिद्र, स्पर्मेथिकल छिद्र व संपार्श्विक ग्रंथियाँ होती हैनर मेकेवल आठवाँ पृष्ठक ही सातवेखंड द्वारा ढका रहता है नर-मादा दोनोमेदसवेखंड पर एक जोड़ी संधियुक्त तंतुमय गुदीय लूम (cerci) होते हैइन लूमोके नीचे की ओर नर के नवेखंड मेएक जोड़ी छोटे व धागे के समान गुदा शूक (anal stylels) होते हैमादा मेशूक अनुपस्थित होते हैंI
7.4.2 आंतरिक आकारिकी
देहगुहा मेस्थित आहारनाल तीन भागों-अग्रांत्र, मध्यांत्र एवपश्चांत्र मेबँटी होती है (चित्र 7.16) मुख एक छोटी नलिकाकार ग्रसनी मेखुलता है, जिससे एक सीधी और संकरी नली ग्रसिका निकलती है ग्रसिका एक पतले भित्ती वाले कोष मेखुलती है, जिसे अन्नपुट कहते हैं, जिसमेभोजन संग्रहीत रहता है इसके पीछे ग्रंथिल जठर (proventriculus) अथवा पेषणी होती है इसमेबाहर एक मोटा वर्तुल पेशी स्तर होता है तथा स्तर की उपत्वचा छः स्थानोपर मोटी होकर उपत्वचीय दांत बनाती है ये दांत भोजन के मोटे कणोको पीसने मेसहायक होते हैपूरा अग्रांत्र अंदर से उपत्वचा (क्यूटिकल) से आस्तरित रहता है मध्यांत्र एक संकरी एवसमान व्यास की नलिका होती है, जिसमें उपत्वचा का आस्तर नहीहोता है अग्रांत्र व मध्यांत्र के संधिस्थल पर अंगुली के समान छह से आठ अंध-नलिकाएलगी रहती हैं, जिनके सिरे बंद रहते हैइनको यकृतीय या जठरीय अंधनाल कहते हैं, ये पाचकरस बनाती हैमध्यांत्र व पश्चांत्र के संधि स्थल पर लगभग 100-150 पतली पीले रंग की नलिकाएहोती है जिन्हेमैलपीगी नलिकाएकहते हैये हीमोलिंफ से उत्सर्जी पदार्थोके उत्सर्जन में सहायक होती हैपश्चांत्र, मध्यांत्र से थोड़ा चौड़ा होता है तथा क्षुदांत्र, वृहदांत्र एवमूत्राशय मेविभक्त रहता है मलाशय बाहर की ओर गुदा द्वारा खुलता हैI
तिलचट्टे मेखुले प्रकार का परिसंचरण तंत्र होता है (चित्र 7.17) इसकी रुधिर वाहिनियाँ अल्पविकसित होती हैऔर रुधिरगुहा मेखुलती हैतथा उसी मेसभी अंतरंग अंग डूबे रहते हैं, जिसे रुधिरलसीका कहते हैरुधिरलसीका (हीमोलिंफ) रंगहीन प्लाज्मा व रुधिराणुओसे बना होता है कॉकरोच का हृदय एक लंबी पेशीय नली होती है जो रुधिरगुहा मेवक्ष और अधर की मध्य-पृष्ठीय रेखा के साथ-साथ स्थित है हृदय कीपाकार कोष्ठकोमेविभेदित होता है और दोनोतरफ आस्य (ostia) होते हैंI
श्वसन तंत्र शाखित श्वास नालो(trachea) के जाल का बना होता है श्वासनाल, श्वास छिद्रोद्वारा खुलती हैहवा 10 जोड़ी श्वास छिद्रोद्वारा अंदर प्रवेश करती है जो कि शरीर की पार्श्व सतह पर व्यवस्थित होते हैश्वासनाल पुनः विभाजित होकर श्वासनलिकाएबनाती हैयह हवा को श्वास नलिकाओं द्वारा शरीर के सभी भागोतक पहुँचाती हैश्वास छिद्राें का खुलना अवरोधनी द्वारा नियमित होता है श्वासनलिकाओपर गैसों का आदान प्रदान विसरण विधि द्वारा होता हैI
तिलचट्टे में उत्सर्जन मैलपीगी नलिकाओद्वारा होता है प्रत्येक नलिका ग्रंथिल एवं रोमयुक्त उपकला द्वारा आस्तरित रहती है ये नाइट्रोजनी-अपशिष्ट पदार्थोका अवशोषण करके उन्हेजैव रासायनिक क्रिया द्वारा यूरिक अम्ल में परिवर्तित कर देती है यूरिक अम्ल पश्चांत्र द्वारा उत्सर्जित कर दिया जाता है अतः यह कीट यूरिकाम्ल उत्सर्गी कहलाता है इनके साथ-साथ वसापिंड वृक्काणु उपत्वचा और यूरेकोस ग्रंथियाभी उत्सर्जन मेसहायक होती हैI
तिलचट्टा मेतंत्रिका तंत्र एक श्रेणी बद्ध खंडीय व्यवस्थित गुच्छिकाओं का बना होता है, जो अधर तल पर युग्मित (paired) अनुदैर्घ्य संयोजक से जुड़ी रहती हैं तीन गुच्छिकाएवक्ष मेऔर छः उदर मेस्थित होती हैकॅाकरोच का तंत्रिका तंत्र पूरे शरीर मेफैला रहता है सिर मे तंत्रिका तंत्र का थोड़ा सा हिस्सा रहता है जबकि बाकी भाग शरीर के दूसरे भागोके अधर तल मेउपस्थित रहता है, अब तक आप यह जान चुके होंगे कि कॅाकरोच का सिर काटने के बाद भी एक सप्ताह तक जीवित क्योरहता है? सिर मेमस्तिष्क अधिग्रसिका गुच्छिका द्वारा निरूपितत (represent) किया जाता है, जो कि शृंगिकाओएवसंयुक्त नेत्र को तंत्रिकाएभेजता है तिलचट्टे मेसंवेदन अंग, शृंगिका, आँख, मैक्सिलरी स्पर्शक, लेबियल स्पर्शक तथा गुदा रोमक इत्यादि होते हैशृंगिका, स्पर्शक ओर रोमक स्पर्श संवेदी होते हैसिर के पृष्ठ सतह पर एक जोड़ी संयुक्त नेत्र पाए जाते हैप्रत्येक संयुक्त नेत्र मेलगभग 2000 षटकोणीय नेत्राशंक (ommatia) होते हैकई नेत्रांशकोकी मदद से तिलचट्टा एक ही वस्तु की कई प्रतिछायाएदेख सकता है इस प्रकार की दृष्टि को मोजेक दृष्टि कहते हैं, जिसकी सुग्राहिता अधिक परंतु विभेदन कम होता है, यह सामान्यतया रात के समय होती है, अतः इसे रात्रि दृष्टि कहा जाता हैI
तिलचट्टा द्विलिंगी होता है तथा दोनोलिंगों मेपूर्ण विकसित जनन अंग होते है(चित्र 7.18) नर जननांग एक जोड़ी वृषण के रूप मेविद्यमान होते हैं, जो चौथे से छठे उदरीय खंड के पार्श्व मेव्यवस्थित होते हैप्रत्येक वृषण से एक पतली नलिका जिसे शुक्रवाहिनी कहते हैं, शुक्राशय से होते हुए स्खलनीय वाहिनी मेखुलती है ये स्खलनीय वाहिनी नर-जनन छिद्र मेखुलती है जो गुदा के अधर मेहोता है एक विशिष्ट छत्रक रूपी ग्रंथि उदर के छठे एवं सातवेखंड मेहोती है, जो सहायक जनन-ग्रंथि का कार्य करती है I
बाह्य जननेन्द्रिय नर गोनोफोफिसस (युग्मनप्रवर्ध) अथवा शिश्नखंड के रूप मेहोती है जननरंध्र के चारोओर काइटिनी असममितीय संरचना है शुक्राणु, शुक्राशय में संग्रहित रहते हैऔर पुंज के रूप मेआपस में चिपके रहते हैइन पुंजोको शुक्राणुधर कहते हैमैथुन के समय ये विसर्जित कर दिए जाते हैमादा जनन तंत्र मेदो बृहद् आकार के अंडाशय होते हैं, जो उदर के दो से छठे खंड के पार्श्व मेस्थित होते हैप्रत्येक अंडाशय आठ अंडाशयी नलिका अथवा अंडाशयकोका बना हेाता है, जिसमेपरिवर्धित हो रहे अंडोकी एक शृंखला होती है दोनोतरफ के अंडाशयोकी अंडवाहिनियामिलकर एक मध्य अंडवाहिनी का निर्माण करती है, जिसे योनि कहते हैजो जनन कोष्ठ मेखुलती है छठे खंड में एक जोड़ी शुक्राणुधानी होती है, जो जनन कक्ष मेखुलती हैI
शुक्राणु, शुक्राणुधर के द्वारा स्थानांतरित होते हैइनके निषेचित अंडेएक संपुट मेसंकोशित होते हैं, जिसे अंडकवच कहते हैअंडकवच गहरे लाल रंग से काले भूरे रंग का 3/8 इंच (8 मिमी.) लंबा संपुट (केप्स्यूल) होता है ये संपुट दरारोएवआर्द्रता युक्त तथा भोजन वाले स्थानोपर चिपका दिए जाते हैऔसतन एक मादा 9-10 अंडकवच उत्पन्न करती है और प्रत्येक में 14-16 अंडे होते हैपी.अमेरिकाना (P. americana) का परिवर्धन मेपौरोमेटाबोलस प्रकार का होता हैअर्थात् इनके परिवर्धन मेअर्भक (निंफ्स) अवस्था मुख्य रूप से पाई जाती है अर्भक वयस्क के समान दिखते हैअर्भक मेवृद्धि कायांतरण के द्वारा होती है तथा लगभग तेरह निर्मोचन के बाद यह वयस्क मेबदल जाता है अंतिम अर्भक अवस्था से पहली अवस्था मेपक्षतल्प (wing pad) पाए जाते हैI
तिलचट्टाेकी बहुत सी जंगली जातिया पाई जाती हैतथा इनका कोई आर्थिक महत्व ज्ञात नहीहै कुछ जातियामनुष्य के वास-स्थान मेअथवा उसके आस-पास फलती-फूलती होती हैये पीड़क के रूप मेकार्य करते हैं; क्योंकि ये खाद्य पदार्थोको नष्ट कर देते हैतथा अपने दुर्गंधयुक्त उत्सर्ग द्वारा संदूषित कर देते हैभोज्य पदार्थोको संदूषित कर अनेक जीवाष्पीय बीमारियोको फैलाते हैंI
7.5 मेंढक
मेंढक वह प्राणी है जो मीठे जल तथा धरती दोनोपर निवास करता है तथा कशेरुकी संघ के एंफीबिया वर्ग से संबंधित होता है भारत मेपाई जाने वाली मेंढक की सामान्य जाति राना टिग्रीना है
इसके शरीर का ताप स्थिर नहीहोता है शरीर का ताप वातावरण के ताप के अनुसार परिवर्तित होता रहता है इस प्रकार के प्राणियोको असमतापी या अनियततापी कहते हैमेंढक के रंग को परिवर्तित होते हुए आपने अवश्य देखा होगा, जिस समय ये घास तथा नम जमीन पर होते हैक्या आप बता सकते हो, एेसा क्योहोता है? उनमेअपने शत्रुओसे छिपने के लिए रंग परिवर्तन की क्षमता होती है, जिसे छद्मावरण कहा जाता है इस रक्षात्मक रंग परिवर्तन क्रिया को अनुहरण (minimicry) कहते हैआपने यह भी देखा होगा कि मेंढक शीत व ग्रीष्म ऋतु मेनहीदिखते इस अंतराल मेये सर्दी तथा गर्मी से अपनी रक्षा करने के लिए गहरे गड्ढोमेचले जाते हैइस प्रक्रिया को क्रमशः शीत निष्क्रियता (hibernation) व ग्रीष्म निष्क्रियता (aestivation) कहते हैं
7.5.1 बाह्य आकारिकी
क्या आपने कभी मेंढक की त्वचा को छुआ है? मेंढक की त्वचा श्लेषमा (म्युकस) से ढकी होने के कारण चिकनी तथा फिसलनी होती है इसकी त्वचा सदैव आर्द्र रहती है मेंढक की ऊपरी सतह धानी हरे रंग की होती है, जिसमेअनियमित धब्बे होते हैं, जबकि नीचे की सतह हल्की पीली होती है मेंढक कभी पानी नहीं पीता; बल्कि त्वचा द्वारा इसका अवशोषण करता है
मेंढक का शरीर सिर व धड़ मेविभाजित रहता है (चित्र 7.19) पूंछ व गर्दन का अभाव होता है मुख के ऊपर एक जोड़ी नासिका द्वार खुलते हैआँखेबाहर की ओर निकली व निमेषकपटल से ढकी होती हैताकि जल के अंदर आँखोका बचाव हो सके आँखोके दोनोओर (कान) टिम्पैनम या कर्ण पटह उपस्थित होते हैं, जो ध्वनि संकेतोको ग्रहण करने का कार्य करते हैअग्र व पश्चपाद चलने, फिरने, टहलने व गड्ढा बनाने का काम करते हैअग्र पाद मेचार अंगुलियाँ होती हैं; जबकि पश्चपाद मेपाँच होती हैतथा पश्चपाद लंबेव मांसल होते हैपश्च पाद की झिल्लीयुक्त अंगुलि जल मेतैरने मेमहत्वपूर्ण भूमिका निभाती है मेंढक मेलैंगिक द्विरूपता देखी जाती है नर मेंढक मेआवाज उत्पन्न करने वाले वाक् कोष (vocal sacs) के साथ-साथ अग्रपाद की पहली अंगुलि मेमैथुनांग होते हैये अंग मादा मेंढक मेनहीमिलते हैं
7.5.2 आंतरिक आकारिकी
मेंढक की देह गुहा में पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, तंत्रिका तंत्र, संचरण तंत्र, जनन तंत्र पूर्ण अच्छी तरह परिवर्धित संरचनाओएवकार्योयुक्त होते हैं मेंढक का पाचन तंत्र आहार नाल तथा आहर ग्रंथि का बना होता है (चित्र 7.20) मेंढक मांसाहारी है, अतः इसकी आहारनाल लंबाई मेछोटी होती है इसका मुख, मुखगुहिका में खुलता है जो ग्रसनी से होते हुए ग्रसिका तक जाती है ग्रसिका एक छोटी नली है जो आमाशय मेखुलती है आमाशय आगे चलकर आंत्र, मलाशय और अंत मेअवस्कर (cloaca) द्वारा बाहर खुलता है इसका मुँह मुखगुहिका द्वारा ग्रसनी मेखुला है जो ग्रसिका तक जाती हैI
यकृत पित्त रस स्रावित करता है जो पित्ताशय मेएकत्रित रहता है अग्नाश्य जो एक पाचक ग्रंथि है, जो अग्नाशयी रस स्रवित करता है जिसमेपाचक एंजाइम होते हैमेंढक अपनी द्विपालित जीभ से भोजन का शिकार पकड़ता है इसके भोजन का पाचन आमाशय की दीवारोद्वारा स्रवित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा पाचक रसोद्वारा होता है अर्धपाचित भोजन काइम कहलाता है जो आमाशय से ग्रहणी में जाता है ग्रहणी पित्ताशय से पित्त और अग्नाशय से अग्नाशयी रस मूल पित्त वाहिनी द्वारा प्राप्त करती है पित्तरस वसा तथा अग्नाशयी रस कार्बोहाइड्रेटोतथा प्रोटीन का पाचन करता है पाचन की अंतिम प्रक्रिया आँत मेहोती है पाचित भोजन आँत के अंदर अंकुर और सूक्ष्मांकुरोद्वारा अवशोषित होते हैअपाचित भोजन अवस्कर द्वार से बाहर निष्कासित कर दिया जाता हैI
मेंढक जल व थल दोनोस्थानोपर दो विभिन्न विधियोद्वारा श्वसन कर सकते हैइसकी त्वचा एक जलीय श्वसनांग का कार्य करती है इसे त्वचीय श्वसन कहते हैं विसरण द्वारा पानी मेघुली हुई अॉक्सीजन का विनिमय होता है जल के बाहर त्वचा, मुख गुहा और फेफड़े वायवीय श्वसन अंगोका कार्य करते हैफेफड़ोके द्वारा श्वसन फुप्फसीय श्वसन कहलाता है फेफेड़े एक लंबेअंडाकार गुलाबी रंग की थैलीनुमा संरचनाएहोती हैं, जो देहगुहा के वक्षीय भाग मेपाई जाती हैवायु नासा छिद्रोसे होकर मुख गुहा तथा फेफड़ोमेपहुँचती है ग्रीष्म निष्क्रियता व शीत निष्क्रियता के दौरान मेंढक त्वचा से श्वसन करते हैंI
मेंढक का परिसंचरण तंत्र, सुविकसित बंद प्रकार का होता है इसमेलसीका परिसंचरण भी पाया जाता है अर्थात् अॉक्सीजनित अथवा विअॉक्सीजनित रक्त हृदय मेमिश्रित हो जाते हैरुधिर परिसंचरण तंत्र हृदय, रक्त वाहिकाओऔर रुधिर से मिलकर बनता है लसीका तंत्र लसीका, लसीका नलिकाओऔर लसीका ग्रंथियोका बना होता है हृदय एक त्रिकोष्ठीय मांसल संरचना है, जो कि देह गुहा के ऊपरी भाग में स्थित है यह पतली पारदर्शी झिल्ली, हृदय-आवरण (पेरीकार्डियम) द्वारा ढका रहता है एक त्रिकोष्ठीय संरचना, जिसे शिराकोटर (साइनस वेनोसस) कहते हैं, हृदय के दाहिने अलिंद से जुड़ा रहता है तथा महाशिराओसे रक्त प्राप्त करता है हृदय की अधर सतह पर दाएअलिंद के ऊपर एक थैलानुमा रचना धमनी शंकु होता है, जिसमेनिलय (ventricle) खुलता है हृदय से रक्त धमनियोद्वारा शरीर के सभी भागोमेभेजा जाता है इसे धमनी तंत्र कहते हैशिराएशरीर के विभिन्न भागोसे रक्त एकत्रित कर हृदय मेपहुँचाती हैं, यह शिरा-तंत्र कहलाता है मेंढक मेविशेष संयोजी शिराएयकृत तथा अाँतोके मध्य वृक्क तथा शरीर के निचले भागोके मध्य पाई जाती है इन्हेक्रमशः यकृत निवाहिका तंत्र एवं वृक्कीय निवाहिका तंत्र कहते हैरक्त प्लेज्मा तथा रक्त-कणिकाओसे मिलकर बना है रक्त कणिकाएहैं- लाल रुधिर कणिकाए(रक्ताणु) एवश्वेत रुधिर कणिकाए(श्वेताणु) एवपट्टिकाणु (प्लेटलेट) लाल रुधिर कणिकाओमेलाल रंग का श्वसन रंजक हीमोग्लोबिन पाया जाता है इन कणिकाओमेकेंद्रक पाया जाता है लसीका रुधिर से भिन्न होता है; क्योंकि इसमेकुछ प्रोटीन व लाल रुधिर कणिकाएअनुपस्थित होती हैपरिसंचरण के दौरान रक्त पोषकों गैसोव जल को नियत स्थानोतक ले जाता है रुधिर परिसंचरण मांसल हृदय की पंपन क्रिया द्वारा होता हैI
नाइट्रोजनी अपशिष्ट को शरीर से बाहर निकालने के लिए मेंढक मेपूर्ण विकसित उत्सर्जी तंत्र होता है उत्सर्जी अंग में मुख्यतः एक जोड़ी वृक्क, मूत्रवाहिनी, अवस्कर द्वार तथा मूत्राशय होते हैये गहरे लाल रंग के सेम के आकार के होते हैऔर देहगुहा मेथोड़ा सा पीछे की ओर केशेरुक दंड के दोनोओर स्थित होते हैप्रत्येक वृक्क कई सरंचनात्मक व क्रियात्मक इकाइयों, मूत्रजन नलिकाओया वृक्काओका बना होता है नर मेंढक मेमूत्र नलिका वृक्क से मूत्र जनन नलिका के रूप मेबाहर आती है मूत्रवाहिनी अवस्कर द्वार मेखुलती है मादा मेंढक मेमूत्र वाहिनी एवअंडवाहिनी अवस्कर द्वार मेअलग-अलग खुलती हैएक पतली दीवार वाला मूत्राशय भी मलाशय के अधर भाग पर स्थित होता है, जो कि अवस्कर में खुलता है मेंढक यूरिया का उत्सर्जन करता है इसलिए यूरिया-उत्सर्जी प्राणी कहलाता है उत्सर्जी अपशिष्ट रक्त द्वारा वृक्क मेपहुँचते हैं, जहाँ पर ये अलग कर दिए जाते हैऔर उनका उत्सर्जन कर दिया जाता हैI
नियंत्रण व समन्वय तंत्र मेंढक मेपूर्ण विकसित होता है इनमेअंतः स्रावी ग्रंथियाँ (endocrine system) व तंत्रिका तंत्र दोनोपाए जाते हैविभिन्न अंगोमेआपसी समन्वयन कुछ रसायनोद्वारा होता है जिन्हें हॅार्मोन कहते हैये अंतःस्रावी ग्रंथियोद्वारा स्रावित होते हैमेंढक की मुख्य अंतःस्रावी ग्रंथियाँ है- पीयूष (पिट्यूटरी), अवटु (थॉइराइड), परावटु (पैराथाइॅराइड), थाइमस, पीनियल काय, अग्नाशयी द्वीपकाएं, अधिवृक्क (adrenal) और जनद (gonad) तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क तथा मेरु रज्जु) केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, परिधीय तंत्रिका तंत्र (कपालीय व मेरु तंत्र) और स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (ओटोनोमिक नर्वस सिस्टम) अनुकंपी और परानुकंपी (सिंपेथेटिक व पैरासिंपेथिटक) तंत्र का बना होता है मस्तिष्क से 10 जोड़ी कपाल तंत्रिकाएनिकलती है मस्तिष्क, हड्डियोसे निर्मित मस्तिष्क बॉक्स अथवा कपाल के अंदर बंद रहता है यह अग्र मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क और पश्च मस्तिष्क मेविभाजित होता है अग्र मस्तिष्क मेघ्राण पालियाँ, जुड़वाँ, युग्मित, प्रमस्तिष्क गोलार्ध और केवल एक अग्रमस्तिष्क पश्च (diencephalon) होते हैं मध्य मस्तिष्क एक जोड़ा दृक पालियोका बना होता है पश्च मस्तिष्क, अनुमस्तिष्क एवं मेडूला अॉब्लांगेटा का बना होता है मेडूला अॉब्लांगेटा महारंध्र से निकलकर मेरुदंड मेस्थित मेरुरज्जु से जुड़ा रहता हैI
मेंढक मेभिन्न प्रकार के संवेदी अंग पाए जाते हैजैसे- स्पर्श अंग (संवेदी पिप्पल) स्वाद अंग (स्वाद कलिकाएं) गंध (नासिका उपकला) दृष्टि (नेत्र) व श्रवण (कर्ण पटह और आंतरिक कर्ण) इन सब मेआँखेऔर आंतरिक कर्ण सुव्यवस्थित होते हैं और बचे हुए दूसरे संवेदी अंग केवल तंत्रिका सिरोपर कोशिकाओके गुच्छे होते हैं मेंढक मेएक जोड़ी गोलाकार नेत्र गड्ढोमेस्थित होते हैये साधारण नेत्र होते हैमेंढक मेबाह्य कर्ण अनुपस्थित होता है केवल कर्णपट ही बाहर से दिखाई देता है कर्ण एक एेसा अंग है जो सुनने के साथ-साथ संतुलन का काम भी करता हैI
मेंढक मेमादा व नर जनन तंत्र अलग एवं पूर्ण सुव्यवस्थित होते हैं नर जननांग एक जोड़ी पीले अंडाकार वृषण होते हैजो, वृक्क के ऊपरी भाग से पेरिटोनियम के दोहरीवलय, मेजोर्कियम नामक झिल्ली द्वारा चिपके रहते है(चित्र 7.21) शुक्र वाहिकाएसंख्या में 10-12 होती हैजो वृषण से निकलने के बाद अपनी ओर के वृक्क मेधंस जाती हैवृक्क मेये विडर नाल मेखुलती हैं, जो अंत मेमूत्रवाहिनी मेखुलती है अब मूत्रवाहिनी मूत्र-जनन वाहिनी कहलाती है, जो वृक्क से बाहर आकर अवस्कर में खुलती है अवस्कर एक छोटा मध्यकक्ष होता है, जो कि उत्सर्जी पदार्थ, मूत्र तथा शुक्राणुओको बाहर भेजने का कार्य करता हैI
मादा मेवृक्क के पास एक जोड़ी अंडाशय उपस्थित होते है(चित्र 7.22) लेकिन इनका वृक्क से कोई क्रियात्मक संबंध नहीहोता है एक जोड़ी अंडवाहिनियाँ अवस्कर में अलग-अलग खुलती हैएक परिपक्व मादा एक बार मे2,500 से 3,000 अंडे दे सकती है इनमेबाह्य निषेचन पानी मेहोता है भ्रूण परिवर्धन लार्वा के माध्यम से होता है, लार्वा टैडपोल कहलाता हैI
मेंढक मनुष्य के लिए लाभदायक प्राणी है यह कीटोको खाता है और इस तरह फसलोकी रक्षा करता है मेंढक वातावरण संतुलन बनाए रखते हैं; क्योंकि यह पारिस्थितिकी तंत्र की एक महत्वपूर्ण भोजन शृंखला की एक कड़ी है कुछ देशोमेमांसल पाद मनुष्यों द्वारा भोजन के रूप मेइस्तेमाल किए जाते हैI