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 अध्याय 18

शरीर द्रव तथा परिसंचरण


18.1 रुधिर

18.2 लसीका (ऊतक द्रव्य)

18.3 परिसंचरण पथ

18.4 द्विपरिसंचरण

18.5 हृद क्रिया का नियंत्रण

18.6 परिसंचरण से संबंधित रोग

अब तक आप यह सीख चुके हैं कि जीवित कोशिकाओं को अॉक्सीजन पोषण अन्य आवश्यक पदार्थ उपलब्ध होने चाहिए ऊतकों के सुचारु कार्य हेतु अपशिष्ट या हानिकारक पदार्थ जैसे कार्बनडाइअॉक्साइड  (CO2 का लगातार निष्कासन आवश्यक है अतः इन पदार्थों के कोशिकाओं तक से चलन हेतु एक प्रभावी क्रियाविधि का होना आवश्यक था विभिन्न प्राणियाें में इस हेतु अभिगमन के विभिन्न तरीके विकसित हुए हैं सरल प्राणी जैसे स्पंज व सिलेंट्रेट बाहर से अपने शरीर में पानी का संचरण शारीरिक गुहाओं में करते हैं, जिससे कोशिकाओं के द्वारा इन पदार्थों का आदान-प्रदान सरलता से हो सके जटिल प्राणी इन पदार्थों के परिवहन के लिए विशेष तरल का उपयोग करते हैं मनुष्य सहित उच्च प्राणियों में रक्त इस उद्देश्य में काम आने वाला सर्वाधिक सामान्य तरल है एक अन्य शरीर द्रव लसीका भी कुछ विशिष्ट तत्वों के परिवहन में सहायता करता है इस अध्याय में आप रुधिर एवं लसीका (ऊतक द्रव्य) के संघटन एवं गुणों के बारे में पढ़ेंगे इसमें रुधिर के परिसंचरण को भी समझाया गया है


18.1 रुधिर

रक्त एक विशेष प्रकार का ऊतक है, जिसमें द्रव्य आधात्री (मैट्रिक्स) प्लाज्मा (प्लैज्मा) तथा अन्य संगठित संरचनाएं पाई जाती हैं


18.1.1 प्लाज्मा (प्लैज्मा)

प्रद्रव्य एक हल्के पीले रंग का गाढ़ा तरल पदार्थ है, जो रक्त के आयतन लगभग 55 प्रतिशत होता है प्रद्रव्य में 90-92­ प्रतिशत जल तथा 6-8 प्रतिशत प्रोटीन पदार्थ होते हैं फाइब्रिनोजन, ग्लोबुलिन तथा एल्बूमिन प्लाज्मा में उपस्थित मुख्य प्रोटीन हैं फाइब्रिनोजेन की आवश्यकता रक्त थक्का बनाने या स्कंदन में होती है ग्लोबुलिन का उपयोग शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र तथा एल्बूमिन का उपयोग परासरणी संतुलन के लिए होता हैै प्लाज्मा में अनेक खनिज आयन जैसे Na+, Ca++, Mg++,HCO3,Cl– इत्यादि भी पाए जाते हैं शरीर में संक्रमण की अवस्था में होने के कारण ग्लूकोज, अमीनो अम्ल तथा लिपिड भी प्लाज्मा में पाए जाते हैं रुधिर का थक्का बनाने अथवा स्कंदन के अनेक कारक प्रद्रव्य के साथ निष्क्रिय दशा में रहतेे हैं बिना थक्का /स्कंदन कारकों के प्लाज्मा को सीरम कहते हैं I

18.1.2 संगठित पदार्थ

लाल रुधिर कणिका (इरिथ्रोसाइट),श्वेताणु (ल्युकोसाइट) तथा पट्टिकाणु (प्लेटलेट्स) को संयुक्त रूप से संगठित पदार्थ कहते हैं (चित्र 18.1) और ये रक्त के लगभग 45 प्रतिशत भाग बनाते हैं I

इरिथ्रोसाइट (रक्ताणु) या लाल रुधिर कणिकाएं अन्य सभी कोशिकाओं से संख्या में अधिक होती है एक स्वस्थ मनुष्य में ये कणिकाएं लगभग 50 से 50 लाख प्रतिघन मिमी. रक्त (5 से 5.5 मिलियन प्रतिघन मिमी.) होती हैं वयस्क अवस्था में लाल  रुधिर कणिकाएं लाल अस्थि मज्जा में बनती हैं अधिकतर स्तनधारियों की लाल रुधिर कणिकाओेें में केंद्रक नहीं मिलते हैं तथा इनकी आकृति उभयावतल (बाईकोनकेव) होती है इनका लाल रंग एक लौहयुक्त जटिल प्रोटीन हीमोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण है एक स्वस्थ मनुष्य में प्रति 100 मिली. रक्त में लगभग 12 से 16 ग्राम हीमोग्लोबिन पाया जाता है इन पदार्थों की श्वसन गैसों के परिवहन में महत्वपूर्ण भूमिका है लाल रक्त कणिकाओं की औसत आयु 120 दिन होती है तत्पश्चात इनका विनाश प्लीहा (लाल रक्त कणिकाओं की कब्रिस्तान) में होता है I

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चित्र 18.1 रक्त में संगठित पदार्थ


ल्युकोसाइट को हीमोग्लोबिन के अभाव के कारण तथा रंगहीन होने से श्वेत रुधिर कणिकाएं भी कहते हैं इसमेें केंद्रक पाए जाते हैं तथा इनकी संख्या लाल रक्त कणिकाओेें की अपेक्षा कम, औसतन 6000-8000 प्रति घन मिमी. रक्त होती है सामान्यतः ये कम समय तक जीवित रहती हैं इनको दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है-कणिकाणु (ग्रेन्यूलोसाइट) तथा अकण कोशिका (एग्रेन्यूलोसाइट) न्यूट्रोफिल, इओसिनोफिल व बेसोफिल कणिकाणुओं के प्रकार हैं, जबकि लिंफोसाइट तथा मोनोसाइट अकणकोशिका के प्रकार हैं श्वेत रुधिर कोशिकाओं में न्यूट्रोफिल संख्या में सबसे अधिक (लगभग 60-65 प्रतिशत) तथा बेसोफिल संख्या में सबसे कम (लगभग 0.5-1 प्रतिशत) होते हैं न्यूट्रोफिल तथा मोनोसाइट (6-8 प्रतिशत) भक्षण कोशिका होती है जो अंदर प्रवेश करने वाले बाह्य जीवों को समाप्त करती है बेसोफिल, हिस्टामिन, सिरोटोनिन, हिपैरिन आदि का स्राव करती है तथा शोथकारी क्रियाओं में सम्मिलित होती है इओसिनोफिल (2-3 प्रतिशत) संक्रमण से बचाव करती है तथा एलर्जी प्रतिक्रिया में सम्मिलित रहती है लिंफोसाइट (20-25 प्रतिशत) मुख्यतः दो प्रकार की हैं - बी तथा टी बी और टी दोनों प्रकार की लिंफोसाइट शरीर की प्रतिरक्षा के लिए उत्तरदायी हैं

पट्टिकाणु (प्लेटलेट्स) को थ्रोम्बोसाइट भी कहते हैं, ये मैगाकेरियो साइट (अस्थि मज्जा की विशेष कोशिका) के टुकड़ों में विखंडन से बनती हैं रक्त में इनकी संख्या 1.5 से 3.5 लाख प्रति घन मिमी. होती हैं प्लेटलेट्स कई प्रकार के पदार्थ स्रवित करती हैं जिनमें अधिकांश रुधिर का थक्का जमाने (स्कंदन) में सहायक हैं प्लेटलेट्स की संख्या में कमी के कारण स्कंदन (जमाव) में विकृति हो जाती है तथा शरीर से अधिक रक्त स्राव हो जाता है

18.1.3 रक्त समूह (ब्लड ग्रुप)

जैसा कि आप जानते हैं कि मनुष्य का रक्त एक जैसा दिखते हुए भी कुछ अर्थों में भिन्न होता है रक्त का कई तरीके से समूहीकरण किया गया है इनमें से दो मुख्य समूह ABO तथा Rh का उपयोग पूरे विश्व में होता है

18.1.3.1 ABO समूह

तालिका 18.1 रक्त समूह तथा रक्तदाता सुयोग्यता

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ABO समूह मुख्यतः लाल रुधिर कणिकाओं की सतह पर दो प्रतिजन/एंटीजन की उपस्थिति या अनुपस्थित पर निर्भर होता है ये एेंटीजन A और B हैं जो प्रतिरक्षा अनुक्रिया को प्रेरित करते हैं इसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों में दो प्रकार के प्राकृतिक प्रतिरक्षी/एंटीबोडी (शरीर प्रतिरोधी) मिलते हैं प्रतिरक्षी वे प्रोटीन पदार्थ हैं जो प्रतिजन के विरुद्ध पैदा होते हैं चार रक्त समूहों, A, B, AB, और O में प्रतिजन तथा प्रतिरक्षी की स्थिति को देखते हैं, जिसको तालिका 18.1 में दर्शाया गया है I

दाता एवं ग्राही/आदाता के रक्त समूहों का रक्त चढाने से पहले सावधानीपूर्वक मिलान कर लेना चाहिए जिससे रक्त स्कंदन एवं RBC के नष्ट होने जैसी गंभीर परेशानियां न हों दाता संयोज्यता (डोनर कंपेटिबिलिटी) तालिका 18.1 में दर्शायी गई है I

उपरोक्त तालिका से यह स्पष्ट है कि रक्त समूह O एक सर्वदाता है जो सभी समूहों को रक्त प्रदान कर सकता है रक्त समूह AB सर्व आदाता (ग्राही) है जो सभी प्रकार के रक्त समूहों से रक्त ले सकता है I

18.1.3.2 Rh समूह

एक अन्य प्रतिजन/एंटीजन Rh है जो लगभग 80 प्रतिशत मनुष्यों में पाया जाता है तथा यह Rh एंटीजेन रीसेस बंदर में पाए जाने वाले एंटीजेन के समान है एेसे व्यक्ति को जिसमें Rh एंटीजेन होता है, को Rh सहित (Rh+ve) और जिसमें यह नहीं होता उसे Rh हीन (Rh-ve) कहते हैं यदि Rh रहित (Rh-ve) के व्यक्ति के रक्त को आर एच सहित (Rh+ve) पॉजिटिव के साथ मिलाया जाता है तो व्यक्ति मेे Rh प्रतिजन Rh-ve के विरूद्ध विशेष प्रतिरक्षी बन जाती हैं, अतः रक्त आदान-प्रदान के पहले Rh समूह को मिलना भी आवश्यक है एक विशेष प्रकार की Rh अयोग्यता को एक गर्भवती (Rh-ve) माता एवं उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण के Rh+ve के बीच पाई जाती है अपरा द्वारा पृथक रहने के कारण भ्रूण का Rh एंटीजेन सगर्भता में माता के Rh-ve को प्रभावित नहीं कर पाता, लेकिन फिर भी पहले प्रसव के समय माता के Rh-ve रक्त से शिशु के Rh+ve रक्त के स्ांपर्क में आने की संभावना रहती है एेसी दशा में माता के रक्त में Rh प्रतिरक्षी बनना प्रारंभ हो जाता है ये प्रतिरोध में एंटीबोडीज बनाना शुरू कर देती है यदि परवर्ती गर्भावस्था होती है तो रक्त से (Rh-ve) भ्रूण के रक्त (Rh+ve) मेें Rh प्रतिरक्षी का रिसाव हो सकता है और इससे भ्रूण की लाल रुधिर कणिकाएं नष्ट हो सकती हैं यह भ्रूण के लिए जानलेवा हो सकती हैं या उसे रक्ताल्पता (खून की कमी) और पीलिया हो सकता है एेसी दशा को इरिथ्रोव्लास्टोसिस फिटैलिस (गर्भ रक्ताणु कोरकता) कहते हैं इस स्थिति से बचने के लिए माता को प्रसव के तुरंत बाद Rh प्रतिरक्षी का उपयोग करना चाहिए I

18.1.4 रक्त-स्कंदन (रक्त का जमाव)

किसी चोट या घात की प्रतिक्रिया स्वरूप रक्त स्कंदन होता है यह क्रिया शरीर से बाहर अत्यधिक रक्त को बहने से रोकती है क्या आप जानते हैं एेसा क्यों होता है? आपने किसी चोट घात या घाव पर कुछ समय बाद गहरे लाल व भूरे रंग का झाग सा अवश्य देखा होगा यह रक्त का स्कंदन या थक्का है, जो मुख्यतः फाइब्रिन धागे के जाल से बनता है इस जाल में मरे तथा क्षतिग्रस्त संगठित पदार्थ भी उलझे हुए होते हैं फाइब्रिन रक्त प्लैज्मा मेें उपस्थित एंजाइम थ्रोम्बिन की सहायता से फाइब्रिनोजन से बनती है थ्रोम्बिन की रचना प्लाज्मा में उपस्थित निष्क्रिय प्रोथोबिंन से होती है इसके लिए थ्रोंबोकाइनेज एंजाइम समूह की आवश्यकता होती है यह एंजाइम समूह रक्त प्लैज्मा में उपस्थित अनेक निष्क्रिय कारकों की सहायता से एक के बाद एक अनेक एंजाइमी प्रतिक्रिया की शृंखला (सोपानी प्रक्रम) से बनता है एक चोट या घात रक्त में उपस्थित प्लेटलेट्स को विशेष कारकों को मुक्त करने के लिए प्रेरित करती है जिनसे स्कंदन की प्रक्रिया शुरू होती है क्षतिग्रस्त ऊतकों द्वारा भी चोट की जगह पर कुछ कारक मुक्त होते हैं जो स्कंदन को प्रारंभ कर सकते हैं इस प्रतिक्रिया में कैल्सियम आयन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है

18.2 लसीका (ऊतक द्रव)

रक्त जब ऊतक की कोशिकाओं से होकर गुजरता है तब बड़े प्रोटीन अणु एवं संगठित पदार्थों को छोड़कर रक्त से जल एवं जल में घुलनशील पदार्थ कोशिकाओं से बाहर निकल जाते हैं इस तरल को अंतराली द्रव या ऊतक द्रव कहते हैं इसमें प्लैज्मा के समान ही खनिज लवण पाए जाते हैं रक्त तथा कोशिकाआें के बीच पोषक पदार्थ एवं गैसों का आदान प्रदान इसी द्रव से होता है वाहिकाओं का विस्तृत जाल जो लसीका तंत्र (लिंफैटिक सिस्टम) कहलाता है इस द्रव को एकत्र कर बड़ी शिराओं में वापस छोड़ता है लसीका तंत्र में उपस्थित यह द्रव/तरल को लसीका कहते हैं

लसीका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशिष्ट लिंफोसाइट मिलते हैं लिंफोसाइट शरीर की प्रतिरक्षा अनुक्रिया के लिए उत्तरदायी है लसीका पोषक पदार्थ, हार्मोन आदि के संवाहन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं आंत्र अकुंर में उपस्थित लैक्टियल वसा को लसीका द्वारा अवशोषित करते हैं I

18.3 परिसंचरण पथ

परिसंचरण दो तरह का होता है, जो खुला एवं बंद होता है खुला परिसंचरण तंत्र आर्थोपोडा (संधिपाद) तथा मोलस्का में पाया जाता है जिसमें हृदय द्वारा रक्त को रक्त वाहिकाओं में पंप किया जाता है, जो कि रक्त स्थान (कोटरों) में खुलता है एक कोटर वस्तुतः देहगुहा होती है एेनेलिडा तथा कशेरुकी में बंद प्रकार का परिसंचरण तंत्र पाया जाता है, जिसमें हृदय से रक्त का प्रवाह एक दूसरे से जुड़ी रक्त वाहिनियों के जाल में होता है इस तरह का रक्त परिसंचरण पथ ज्यादा लाभदायक होता है क्योंकि इसमें रक्त प्रवाह आसानी से नियमित किया जाता है I

सभी कशेरुकी में कक्षों से बना हुआ पेशी हृदय होता है मछलियों में दो कक्षीय हृदय होता है, जिसमें एक अलिंद तथा एक निलय होता है उभयचरों तथा सरीसृपाें रेप्टाइल का (मगरमच्छ को छोड़कर) हृदय तीन कक्षों से बना होता है, जिसमें दो अलिंद तथा एक निलय होता है जबकि मगरमच्छ, पक्षियों तथा स्तनधारियों में हृदय चार कक्षों का बना होता है जिसमें दो अलिंद तथा दो निलय होते हैं मछलियों में हृदय विअॉक्सीजनित रुधिर बाहर को पंप करता है जो क्लोम द्वारा अॉक्सीजनित होकर शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाया जाता है तथा वहाँ से विअॉक्सीजनित रक्त हृदय में वापस आता है इस क्रिया को एकलपरिसंचरण कहते हैं उभयचरों व सरीसृपों में बांया अलिंद क्लोम / फेफड़ों / त्वचा से अॉक्सीजन युक्त रक्त प्राप्त करता है तथा दाहिना आलिंद शरीर के दूसरे भागों से विअॉक्सीजनित रुधिर प्राप्त करता है, लेकिन वे रक्त को निलय में मिश्रित कर बाहर की ओर पंप करते हैं इस क्रिया को अपूर्ण दोहरा परिसंचरण कहते हैं पक्षियों एवं स्तनधारियों में अॉक्सीजनित विअॉक्सीजनित रक्त क्रमशः बाएं व दाएं आलिंदों में आता है, जहाँ से वह उसी क्रम से बाएं दाएं एवं बाएं निलयों में जाता है निलय बिना रक्त को मिलाए इन्हें पंप करता है अर्थात् दो तरह के परिसंचरण पथ इन प्राणियों में मिलते हैं अतः इन प्राणियों में दोहरा परिसंचरण पाया जाता है अब हम मानव के परिसंचरण तंत्र का अध्ययन करते हैं 

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चित्र 18.2 एक मानव हृदय का काट


18.3.1 मानव परिसंचरण तंत्र

मानव परिसंचरण तंत्र जिसे रक्तवाहिनी तंत्र भी कहते हैं जिसमें कक्षों से बना पेशी हृदय, शाखित बंद रक्त वाहिनियों का एक जाल, रक्त एवं तरल समाहित होता हैं (रक्त इनमें बहने वाला एक तरल है जिसके बारे में आप विस्तृत रूप से इस अध्याय के पूर्ववर्ती पृष्ठों में पढ़ चुके हैं)

हृदय- की उत्पत्ति मध्यजन स्तर (मीसोडर्म) से होती है तथा यह दोनों फेफड़ों के मध्य, वक्ष गुहा में स्थित रहता है यह थोडा सा बाईं तरफ झुका रहता है यह बंद मुट्ठी के आकार का होता है यह एक दोहरी भित्ति के झिल्लीमय थैली, हृदयावरणी द्वारा सुरक्षित होता है जिसमें हृदयावरणी द्रव पाया जाता है हमारे हृदय में चार कक्ष होते हैं जिसमें दो कक्ष अपेक्षाकृत छोटे तथा ऊपर को पाए जाते हैं जिन्हें अलिंद (आर्ट्रिया) कहते हैं तथा दो कक्ष अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिन्हें निलय (वेंट्रिकल) कहते हैं एक पतली पेशीय भित्ति जिसे अंतर अलिंदी (पट) कहते हैं, दाएं एवं बाएं आलिंद को अलग करती है जबकि एक मोटी भित्ति, जिसे अंतर निलयी (पट) कहते हैं, जो बाएं एवं दाएं निलय को अलग करती है (चित्र 18.2) अपनी-अपनी ओर के आलिंद एवं निलय एक मोटे रेशीय ऊतक जिसे अलिंदं निलय पट द्वारा पृथक रहते हैं हालांकि; इन पटों में एक-एक छिद्र होता है, जो एक ओर के दोनों कक्षों को जोड़ता है दाहिने आलिंद और दाहिने निलय के (रंध्र) पर तीन पेशी पल्लों या वलनों से (फ्लैप्स या कप्स) से युक्त एक वाल्व पाया जाता है इसे ट्राइकसपिड (त्रिवलनी) कपाट या वाल्व कहते हैं बाएं अलिंद तथा बाएं निलय के रंध्र (निकास) पर एक द्विवलनी कपाट / मिट्रल कपाट पाया जाता है दाएं तथा बाएं निलयों से निकलने वाली क्रमशः फुप्फुसीय धमनी तथा महाधमनी का निकास द्वार अर्धचंद्र कपाटिकर (सेमील्युनर वाल्व) से युक्त रहता है हृदय के कपाट रुधिर को एक दिशा में ही जाने देते हैं अर्थात् अलिंद से निलय और निलय से फुप्फुस धमनी या महाधमनी कपाट वापसी या उल्टे प्रवाह को रोकते हैं I

यह हृद पेशीयों से बना है निलयों की भित्ति अलिंदों की भित्ति से बहुत मोटी होती है एक विशेष प्रकार की हृद पेशीन्यास, जिसे नोडल ऊतक कहते हैं, भी हृदय में पाया जाता है (चित्र 18.2) इस ऊतक का एक धब्बा दाहिने अलिंद के दाहिने ऊपरी कोने पर स्थित रहता है, जिसे शिराअलिंदंपर्व (साइनों-आट्रियल नॉड san) कहते हैं इस ऊतक का दूसरा पिण्ड दाहिने अलिंद में नीचे के कोने पर अलिंद निलयी पट के पास में स्थित होता है जिसे अलिंद निलय पर्व (आट्रियो-वेटीकुलर नॉड/ avn) कहते हैं नोडल (ग्रंथिल) रेशों का एक बंडल, जिसे अलिंद निलय बंडल (AV बंडल) भी कहते हैं अंतर निलय पट के ऊपरी भाग में अलिंद निलय पर्व से प्रारंभ होता है तथा शीघ्र ही दो दाईं एवं बाईं शाखाओं मेें विभाजित होकर अंतर निलय पट के साथ पश्च भाग में बढ़ता है इन शाखाओं से संक्षिप्त रेशे निकलते हैं जो पूरे निलयी पेशीविन्यास में दोनों तरफ फैले रहते हैं, जिसे पुरकिंजे तंतु कहते हैं नोडल ऊतक बिना किसी बाह्य प्रेरणा के क्रियाविभव पैदा करने में सक्षम होते हैं इसे स्वउत्तेजनशील (आटोएक्साइटेबल) कहते हैं हालांकि; एक मिनट में उत्पन्न हुए क्रियाविभव की संख्या नोडल तंत्र के विभिन्न भागों में घट-बढ़ सकती है I

शिराअलिंदपर्व (गांठ) सबसे अधिक क्रियाविभव पैदा कर सकती है यह एक मिनट में 70-75 क्रियाविभव पैदा करती है तथा हृदय का लयात्मक संकुचन (रिदमिक कांट्रेक्शन) को प्रारंभ करता है तथा बनाए रखता है इसलिए इसे गतिप्रेरक (पेश मेकर) कहते हैं इससे हमारी सामान्य हृदय स्पंदन दर 70-75 प्रति मिनट होती है (औसतन 72 स्पंदन प्रति मिनट)

18.3.2 हृद चक्र

हृदय काम कैसे करता है? आओ हम जानें प्रारंभ में माना कि हृदय के चारों कक्ष शिथिल अवस्था में हैं अर्थात् हृदय अनुशिथिलन अवस्था में है इस समय त्रिवलन या द्विवलन कपाट खुले रहते हैं, जिससे रक्त फुप्फुस शिरा तथा महाशिरा से क्रमशः बाएं तथा दाएं अलिंद से होता हुआ बाएं तथा दाएं निलय में पहुँचता है अर्ध चंद्रकपाटिका इस अवस्था में बंद रहती है अब शिराअलिंदपर्व (san) क्रियाविभव पैदा करता है, जो दोनों अलिंदों को प्रेरित कर अलिंद प्रकुंचन (atrial systole) पैदा करती है इस क्रिया से रक्त का प्रवाह निलय में लगभग 30 प्रतिशत बढ़ जाता है निलय में क्रियाविभव का संचालन अलिंद निलय (पर्व) तथा अलिंद निलय बंडल द्वारा होता है जहाँ से हिज के बंडल इसे निलयी पेशीन्यास (ventricular musculatire) तक पहुँचाता है इसके कारण निलयी पेशियों में संकुचन होता है अर्थात् निलय प्रकुंचन इस समय अलिंद विश्राम अवस्था में जाते हैं इसे अलिंद को अनुशिथिलन कहते हैं जो अलिंद प्रकुंचन के साथ-साथ होता है निलयी प्रकुंचन, निलयी दाब बढ़ जाता है, जिससे त्रिवलनी व द्विवलनी कपाट बंद हो जाते हैं, अतः रक्त विपरीत दिशा अर्थात् अलिंद में नहीं आता है जैसे ही निलयी दबाव बढ़ता है अर्ध चंद्रकपाटिकाएं जो फुप्फुसीय धमनी (दाईं ओर) तथा महाधमनी (बाईं ओर) पर स्थित होते हैं, खुलने के लिए मजबूर हो जाते हैं जिसके रक्त इन धमनियों से होता हुआ परिसंचरण मार्ग में चला जाता है निलय अब शिथिल हो जाते हैं तथा इसे निलयी अनुशिथिलन कहते हैं इस तरह निलय का दाब कम हो जाता है जिससे अर्धचंद्रकपाटिका बंद हो जाती है, जिससे रक्त का विपरीत प्रवाह निलय में नहीं होता निलयी दाब और कम होता है, अतः अलिंद में रक्त का दाब अधिक होने के कारण त्रिवलनी कपाट तथा द्विवलनी कपाट खुल जाते हैं इस तरह शिराओं से आए हुए रक्त का प्रवाह अलिंद से पुनः निलय में शुरू हो जाता है निलय तथा अलिंद एक बार पुनः (जैसा कि ऊपर लिखा गया है), शिथिलावस्था में चले जाते हैं शिराआलिंदपर्व (कोटरालिंद गांठ) पुनः क्रियाविभव पैदा करती है तथा उपरोक्त वर्णित से सारी क्रिया को दोहराती है जिससे यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है I

एक हृदय स्पंदन के आरंभ से दूसरे स्पंदन के आरंभ (एक संपूर्ण हृदय स्पंदन) होने के बीच के घटनाक्रम को हृद चक्र (cardiac cycle) कहते हैं तथा इस क्रिया में दोनों अलिंदों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है कि हृदय स्पंदन एक मिनट में 72 बार होता है अर्थात् एक मिनट में कई बार हृद चक्र होता है इससे एक चक्र का समय 0.8 सेकेंड निकाला जा सकता है प्रत्येक हृद चक्र में निलय 70 मिली. रक्त पंप करता है, जिसे प्रवाह आयतन कहते हैं प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर हृद निकास कहलाता है, इसलिए हृद निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा को प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है, जो एक स्वस्थ मात्रा में औसतन 5 हजार मिली. या 5 लीटर होती है हम प्रवाह आयतन तथा हृदय दर को बदलने की क्षमता रखते हैं इससे हृदनिकास भी बदलता है उदाहरण के तौर पर खिलाड़ी/धावकों का हृद निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है I

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चित्र 18.3 मानव ईसीजी का रेखांकित चित्रण

हृद चक्र के दौरान दो महत्वपूर्ण ध्वनियाँ स्टेथेस्कोप द्वारा सुनी जा सकती है प्रथम ध्वनि (लब) त्रिवलनी तथा द्विवलनी कपाट के बंद होने से संबंधित है, जबकि दूसरी ध्वनि (डब) अर्ध चंद्रकपाट के बंद होने से संबंधित है इन दोनों ध्वनियों का चिकित्सीय निदान में बहुत महत्व है

18.3.3 विद्युत हृद लेख (इलैक्ट्रोकार्डियोग्राफ)

आप शायद अस्पताल के टेलीविजन के दृश्य से चिरपरिचित होंगे जब कोई बीमार व्यक्ति हृदयाघात के कारण निगरानी मशीन (मोनीटरिंग मशीन) पर रखा जाता है तब आप पीप.. पीप... पीप और पीपीपी की आवाज सुन सकते हैं इस तरह की मशीन (इलैक्ट्रोकार्डियोग्राफ) का उपयोग विद्युत हृद लेख (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम) (ईसीजी) प्राप्त करने के लिए किया जाता है (चित्र 18.3) ईसीजी हृदय के हृदयी चक्र की विद्युत क्रियाकलापों का आरेखीय प्रस्तुतीकरण है बीमार व्यक्ति के मानक ईसीजी से प्राप्त करने के लिए मशीन से रोगी को तीन विद्युत लीड से (दोनों कलाईयाँ तथा बाईं ओर की एड़ी) जोड़कर लगातार निगरानी करके प्राप्त कर सकते हैं I

हृदय क्रियाओं के विस्तृत मूल्यांकन के लिए कई तारों (लीड्स) को सीने से जोड़ा जाता है यहाँ हम केवल मानक ईसीजी के बारे में बताएंगे I

ईसीजी के प्रत्येक चर्मोत्कर्ष को P (पी) से T (टी) तक दर्शाया जाता है, जो हृदय की विशेष विद्युत क्रियाओं के प्रदर्शित करता है पी तरंग को आलिंद के उद्दीपन/विध्रुवण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे दोनों अलिंदों का संकुचन होता है QRS (क्यूआरएस) सम्मिश्र निलय के अध्रुवण को प्रस्तुत करता है जो निलय के संकुचन को शुरू करता है संकुचन क्यू तरंग के तुरंत बाद शुरू होता है जो प्रकुंचन (सिस्टोल) की शुरुआत का द्योतक है ‘टी’ तरंग निलय का उत्तेजना से सामान्य अवस्था में वापिस आने की स्थिति को प्रदर्शित करता है टी तरंग का अंत प्रकुंचन अवस्था की समाप्ति का द्योतक है I

स्पष्टतया, एक निश्चित समय में QRS सम्मिश्र की संख्या गिनने पर एक मनुष्य के हृदय स्पंदन दर भी निकाली जा सकती है यद्यपि तरह-तरह के व्यक्तियों की ईसीजी संरचना एवं आकृति सामान्य होती है इस आकृति में कोई परिवर्तन किसी संभावित असामान्यता अथवा बीमारी को इंगित करती हैं अतः यह इसकी चिकित्सीय महत्ता बहुत ज्यादा है I

18.4 द्विसंचरण (डबल सरकुलेशन)

रक्त अनिवार्य रूप से एक निर्धारित मार्ग से रक्तवाहिनियों - धमनी एवं शिराओं में बहता है मूल रूप से प्रत्येक धमनी और शिरा में तीन परतें होती हैं - अंदर की परत शल्की अंतराच्छादित ऊतक - अंतःस्तर कंचुक, चिकनी पेशियों एवं लचीले रेशे से युक्त मध्य कंचुक एवं कोलेजन रेशे से युक्त रेशेदार संयोजी ऊतक - बाह्य कंचुक शिराओं में मध्य कंचुक अपेक्षाकृत पतला होता है (चित्र 18.4)

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि दाहिने निलय द्वारा पंप किया गया रक्त फुप्फुसीय धमनियों में जाता है जबकि बाएं निलय से रक्त महाधमनी में जाता है अॉक्सीजन रहित रक्त, फेफड़ाें में अॉक्सीजन युक्त होकर फुप्फुस शिराओं से होता हुआ बाएं अलिंद में आता है यह संचरण पथ फुप्फुस संचरण कहलाता है अॉक्सीजनित रक्त महाधमनी से होता हुआ धमनी, धमनिकाओं तथा केशिकाओं (केपिलरीज) से होता हुआ ऊतकों तक जाता है और वहाँ से अॉक्सीजन रहित होकर शिरा, शिराओं तथा महाशिरा से होता हुआ दाहिने अलिंद में आता है यह एक क्रमबद्ध परिसंचरण है यह क्रमबद्ध परिसंचरण पोषक पदार्थ, अॉक्सीजन तथा अन्य जरूरी पदार्थों को ऊतकों तक पहुँचाता है तथा वहाँ से कार्बनडाइअॉक्साइड (CO2) तथा अन्य हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने के लिए ऊतकों से दूर ले जाता है एक अनूठी संवहनी संबर्द्धता आहार नाल तथा यकृत के बीच उपस्थित होती है जिसे यकृत निवाहिका परिसंचरण तंत्र (हिपेटिकपोर्टल सिस्टम) कहते हैं यकृत निवाहिका शिरा रक्त को इसके पहले कि वह क्रमबद्ध परिसंचरण में आंत्र से यकृत तक पहुँचाती है हमारे शरीर में एक विशेष हृद परिसंचरण तंत्र (कोरोनरी सिस्टम) पाया जाता है, जो रक्त सिर्फ को हृद पेशी न्यास तक ले जाता है तथा वापस लाता है I

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चित्र 18.4 मानव रक्त परिसंचरण का आरेखीय चित्र


18.5 हृद क्रिया का नियमन

हृदय की सामान्य क्रियाओं का नियमन अंतरिम होता है अर्थात् विशेष पेशी ऊतक (नोडल ऊतक) द्वारा स्व नियमित होते हैं, इसलिए हृदय को पेशीजनक (मायोजनिक) कहते हैं मेड्यूला ओबलांगाटा के विशेष तंत्रिका केंद्र स्वायत्त तंत्रिका के द्वारा हृदय की क्रियाओं को संयमित कर सकता है अनुकंपीय तंत्रिकाओं से प्राप्त तंत्रीय संकेत हृदय स्पंदन को बढ़ा देते हैं व निलयी संकुचन को सुदृढ़ बनाते हैं, अतः हृद निकास बढ़ जाता है दूसरी तरफ परानुकंपी तंत्रिकय संकेत (जो स्वचालित तंत्रिका केंद्र का हिस्सा है) हृदय स्पंदन एवं क्रियाविभव की संवहन गति कम करते हैं अतः यह हृद निकास को कम करते हैं अधिवृक्क अंतस्था (एडीनल मेड्यूला) का हार्मोन भी हृद निकास को बढ़ा सकता है I

18.6 परिसंचरण की विकृतियाँ

उच्च रक्त दाब (अति तनाव) : अति तनाव रक्त दाब की वह अवस्था है, जिसमें रक्त चाप सामान्य (120/80) से अधिक होता है इस मापदंड में 120 मिमी. एच जी (मिलीमीटर में मर्करी दबाव) को प्रकुंचन या पंपिंग दाब और 80 मिमी. एच जी को अनुशिथिलन या विराम काल (सहज) रक्त दाब कहते हैं यदि किसी का रक्त दाब बार-बार मापने पर भी व्यक्ति 140/90 या इससे अधिक होता है तो वह अति तनाव प्रदर्शित करता है उच्च रक्त चाप हृदय की बीमारियों को जन्म देता है तथा अन्य महत्वपूर्ण अंगों जैसे मस्तिष्क तथा वृक्क जैसे अंगों को प्रभावित करता है I

हृद धमनी रोग (CAD) : हृद धमनी बीमारी या रोग को प्रायः एथिरोकाठिंय (एथिरोस सक्लेरोसिस) के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसमें हृदय पेशी को रक्त की आपूर्ति करने वाली वाहिनियाँ प्रभावित होती हैं यह बीमारी धमनियों के अंदर कैल्सियम, वसा तथा अन्य रेशीय ऊतकों के जमा होने से होता है, जिससे धमनी की अवकाशिका संकरी हो जाती है I

हृदशूल (एंजाइना) : इसको एंजाइना पेक्टोरिस (हृदशूल पेक्टोरिस) भी कहते हैं हृद पेशी में जब पर्याप्त अॉक्सीजन नहीं पहुँचती है तब सीने में दर्द (वक्ष पीड़ा) होता है जो एंजाइना (हृदशूल) की पहचान है हृदशूल स्त्री या पुरुष दोनों में किसी भी उम्र में हो सकता है, लेकिन मध्यावस्था तथा वृद्धावस्था में यह सामान्यतः होता है यह अवस्था रक्त बहाव के प्रभावित होने से होती है I

हृदपात (हार्ट फेल्योर) : हृदपात वह अवस्था है जिसमें हृदय शरीर के विभिन्न भागों को आवश्यकतानुसार पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पाता है इसको कभी-कभी संकुलित हृदपात भी कहते हैं, क्योंकि फुप्फुस का संकुलन हो जाना भी उस बीमारी का प्रमुख लक्षण है हृदपात ठीक हृदघात की भाँति नहीं होता (जहाँ हृदघात में हृदय की धड़कन बंद हो जाती है जबकि, हृदपात में हृदयपेशी को रक्त आपूर्ति अचानक अपर्याप्त हो जाने से यकायक क्षति पहुँचती है

 


 सारांश

कशेरुकी रक्त (द्रव संयोजी ऊतक) को पूरे शरीर में संचारित करते हैं जिसके द्वारा आवश्यक पदार्थ कोशिकाओं तक पहुँचाते हैं तथा वहाँ से अवशिष्टों को शरीर से बाहर निकालते हैं दूसरा द्रव, जिसे लसीका ऊतक द्रव कहते हैं, भी कुछ पदार्थों को अभिगमित करता है I

रक्त, द्रव आधात्री (मैट्रिक्स) प्लैज्मा (प्लाज्मा) तथा संगठित पदार्थों से बना होता है लाल रुधिर कणिकाएं (RBcs/इरिथ्रोसाइट), श्वेत रुधिर कणिकाएं (ल्यूकोसाइट) और प्लेट्लेट्स (थ्रोम्बोसाइट), संगठित पदार्थों का हिस्सा है मानव का रक्त चार समूहों A, B, AB, O में वर्गीकृत किया गया है इस वर्गीकरण का आधार लाल रुधिर कणिकाओं की सतह पर दो एंटीजेन A अथवा B का उपस्थित अथवा अनुपस्थित होना है दूसरा वर्गीकरण लाल रुधिर कणिकाओं की सतह पर Rh घटक की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति पर किया गया है ऊतक की कोशिकाओं के मध्य एक द्रव पाया जाता है जिसे ऊतक द्रव कहते हैं इस द्रव को लसीका भी कहते हैं जो रक्त के समान होता है, परंतु इसमें प्रोटीन कम होती है तथा संगठित पदार्थ नहीं होते हैं I

सभी कशेरुकियों तथा कुछ अकशेरुकियों में बंद परिसंचरण तंत्र होता है हमारे परिसंचरण तंत्र के अंतर्गत पेशीय पंपिंग अवयव, हृदय, वाहिकाओं का जाल तंत्र तथा द्रव, रक्त आदि सम्मिलित होते हैं हृदय में दो आलिंद) तथा दो निलय होते हैं हृद पेशीन्यास स्व-उत्तेजनीय होता है शिराअलिंद पर्व (कोटरालिंद गाँठ SAN अधिकतम संख्या में प्रति मिनट (70/75 मिनट) क्रियविभव को उत्पन्न करती है और इस कारण यह हृदय की गतिविधियों की गति निर्धारित करती है इसलिए इसे पेश मेकर (गति प्रेरक) कहते हैं आलिंद द्वारा पैदा किया विभव और इसके बाद निलयों की आकुंचन (प्रकुंचन) का अनुकरण अनुशिथिलन द्वारा होता है यह प्रकुंचन रक्त के अलिंद से निलयों की ओर बहाव के लिए दबाव डालता है और वहाँ से फुप्फुसीय  धमनी और महाधमनी तक ले जाता है हृदय की इस क्रमिक घटना को एक चक्र के रूप में बार-बार दोहराया जाता है जिसे हृद चक्र कहते हैं एक स्वस्थ व्यक्ति प्रति मिनट एेसे 72 चक्रों को प्रदर्शित करता है एक हृद चक्र के दौरान प्रत्येक निलय द्वारा लगभग 70 मिली रक्त हर बार पंप किया जाता है इसे स्ट्रोक या विस्पंदन आयतन कहते हैं हृदय के निलय द्वारा प्रति मिनट पंप किए गए रक्त आयतन को हृद निकास कहते हैं और यह स्ट्रोक आयतन तथा स्पंदन दर के गुणक बराबर होता है यह प्रवाह आयतन प्रति मिनट हृदय दर (लगभग 5 लीटर) के बराबर होता है हृदय में विद्युत क्रिया का आलेख इलैक्ट्रोकार्डियोग्राफ (विद्युत हृद आलेख मशीन) के द्वारा किया जा सकता है तथा विद्युत हृद आलेख को ECG कहते हैं, जिसका चिकित्सीय महत्व है I

हम पूर्ण दोहरा संचरण रखते हैं अर्थात् दो परिसंचरण पथ मुख्यतः फुप्फुसीय तथा दैहिक होते हैं फुप्फुसीय परिसंचरण में अॅाक्सीजनरहित रक्त को दाहिने निलय से फेफड़ों में पहुँचाया जाता है, जहाँ पर यह रक्त अॉक्सीजनित होता है तथा, फुप्फुसीय शिरा द्वारा बांए अलिंद में पहुँचता है दैहिक परिसंचरण में बाएं निलय से अॅाक्सीजन युक्त रक्त को महाधमनी द्वारा शरीर के ऊतकों तक पहुँचाया जाता है तथा वहाँ से अॅाक्सीजन रहित रक्त को ऊतकों से शिराओं के द्वारा दाहिने अलिंद में वापस पहुँचाया जाता है यद्यपि हृदय स्व उत्तेज्य होता है, लेकिन इसकी क्रियाशीलता को तंत्रिकीय तथा होर्मोन की क्रियाओं से नियमित किया जा सकता है I

अभ्यास

1. रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन करें तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखें

2. प्लाज्मा (प्लैज्मा) प्रोटीन का क्या महत्व है?

3. स्तंभ I का स्तंभ II से मिलान करें

स्तंभ I स्तंभ II

(i) इयोसिनोफिल्स (क) रक्त जमाव (स्कंदन)

(ii) लाल रुधिर कणिकाएं (ख) सर्व आदाता

(iii) AB रक्त समूह (ग) संक्रमण प्रतिरोधन

(iv) पट्टिकाणु प्लेट्लेट्स (घ) हृदय सकुंचन

(v) प्रकुंचन (सिस्टोल) (च) गैस परिवहन (अभिगमन)

4. रक्त को एक संयोजी ऊतक क्यों मानते हैं?

5. लसीका एवं रुधिर में अंतर बताएं?

6. दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है?

7. भेद स्पष्ट करें-

(क) रक्त एवं लसीका

(ख) खुला व बंद परिसंचरण तंत्र

(ग) प्रकुंचन तथा अनुशिथिलन

(घ) P तरंग तथा T तरंग

8. कशेरुकी के हृदयों में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन करें?

9. हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक) क्यों कहते हैं?

10. शिरा अलिंद पर्व (कोटरालिंद गाँठ SAN) को हृदय का गति प्रेरक (पेशमेकर) क्यों कहा जाता है?

11. अलिंद निलय गाँठ (AVN) तथा आलिंद निलय बंडल (AVB) का हृदय के कार्य में क्या महत्व है

12. हृद चक्र तथा हृदनिकास को पारिभाषित करें?

13. हृदय ध्वनियों की व्याख्या करें

14. एक मानक ईसीजी को दर्शाएं तथा उसके विभिन्न खंडों का वर्णन करें