Table of Contents
भाग-1
व्यवसाय के आधार
अधिगम उद्देश्य
इस अध्याय के अध्ययन के पश्चात् आपः
• एेतिहासिक अतीत में व्यापार और वाणिज्य के विकास की सहराहना कर सकेंगे;
• व्यापार और वाणिज्य में स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली का योगदान समझ सकेंगे;
• व्यवसाय की अवधारणा और उद्देश्यों को समझा सकेंगे;
• उद्योगों के प्रकारों की चर्चा करेंगे;
• वाणिज्य से संबंधित गतिविधियाँ समझाएँगे;
• व्यवसायिक जोखिमों की प्रकृति और उनके कारणों का वर्णन करेंगे; तथा
• व्यवसाय प्रारंभ करते समय विचारणीय बुनियादी घटकों की चर्चा करेंगें।
इमरान, मनप्रीत, जोसेफ और प्रियंका कक्षा दस में सहपाठी रहे हैं। परीक्षा समाप्त होने पर, वे अपनी मित्र रुचिका के घर पर मिले! वे अपने परीक्षा दिनों के अनुभवों पर चर्चा ही कर रहे थे, कि रुचिका के पिता रघुराज चौधरी ने बीच में आकर उनके हाल-चाल पूछे। उन्होंने उनके करियर की योजनाओं के बारे में भी पूछा लेकिन किसी के पासकोई निश्चित जवाब नहीं था। रघुराज (जो स्वयं एक सफल व्यवसायी हैं), ने व्यवसाय को करियर का एक अवसर बताया। जोसेफ इस विचार से उत्तेजित हो गया और बोला, ‘हाँ, बहुत सारा पैसा कमाने के लिए व्यवसाय वास्तव में बहुत अच्छा है।’ रघुराज ने उन्हें बताया कि व्यवसाय से केवल पैसा ही नहीं, बल्कि और भी बहुत कुछ है। उन्होंने कहा, व्यावसायिक गतिविधियाँ किसी भी देश में संवृद्धि और विकास को आगे बढ़ाती हैं। उन्होंने उन्हें आगे बताया कि व्यावसायिक गतिविधियों की जड़ों को प्राचीन काल में भी देखा जा सकता है कि कैसे व्यापार भारतीय उप-महाद्वीप की समृद्धि में मदद करता है। प्रियंका बोली कि उन्होंने अपनी इतिहास की पाठ्यपुस्तक में ‘रेशमी मार्ग’ के बारे में पढ़ा हैं। रघुराज फिर अपनी दैनिक गतिविधियों मेें व्यस्त हो जाते हैं। मगर, इन चार सहपाठियों ने सवाल उठाने प्रारम्भ कर दिये। चारों सहपाठियों का वार्तालाप इसी बात पर फोकस था कि प्राचीनकाल में व्यापारिक गतिविधियाँ कैसे होती थी। व्यापारिक गतिविधियों की जड़ें कितनी दूर तक देखी जा सकती हैं? भारतीय उप-महाद्वीप को उस समय के यात्रियों ने ‘स्वर्ण भारत और स्वर्णद्वीप’ क्यों कहा? किस कारण से कोलम्बस और वास्को-डी-गामा भारत की खोज के लिए निकले? उन्होंने व्यवसाय की प्रकृति, लक्ष्य, विकास और इस प्रकार के अनेक प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए अपने विद्यालय के वाणिज्य शिक्षक से मिलने का निश्चय किया।
1.1 विषय-प्रवेश
सभी मनुष्यों को, चाहे वे कहीं भी हों, अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की आवश्यकता होती है। वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति की इस आवश्यकता ने लोगों को दूसरों की ज़रूरत के अनुसार उत्पादन और विक्रय की गतिविधियों हेतु प्रेरित किया। सभी आधुनिक चिंतनशील सभ्यताओं में, व्यवसाय एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है, क्योंकि यह लोगों द्वारा आपेक्षित वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और विक्रय से जुड़ी है। अधिकतम व्यावसायिक गतिविधियों का लक्ष्य लोगों की वस्तुओं और सेवाओं की मांग को पूरा करके धन अर्जित करना होता है। व्यवसाय हमारे जीवन का केंद्र है। यद्यपि, आधुनिक समाज में हमारा जीवन अनेक अन्य संस्थाओं, जैसे-स्कूल, कॉलेज, चिकित्सालय, राजनैतिक पार्टियों, और धार्मिक निकायों से प्रभावित होता है। व्यवसाय का हमारे दैनिक जीवन पर बड़ा प्रभाव है इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम व्यवसाय की आवधारणा, प्रकृति और उद्देश्यों को समझें।
अध्याय दो खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड प्राचीन काल में व्यापार और वाणिज्य के इतिहास को बताता है तथा द्वितीय खण्ड व्यवसाय की आवधारण, प्रकृति और उद्देश्यों की विवेचना करता है।
खण्ड-1
व्यापार और वाणिज्य का इतिहास
किसी क्षेत्र का आर्थिक एवं वाणिज्यिक विकास उसके प्राकृतिक परिवेश पर निर्भर करता है। यह भारतीय उप-महाद्वीप, जिसका विस्तार उत्तर में हिमालय और दक्षिण में हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी तक है, के लिए भी सत्य है। व्यावसायिक मार्ग, जिन्हें लोकप्रिय रूप से ‘रेशमी राह’ कहा जाता है, सामान्य रूप में सम्पूर्ण विश्व और विशेष रूप से एशिया में आस-पास के विदेशी राज्यों और साम्राज्यों से व्यावसायिक और राजनैतिक सम्पर्क स्थापित करने में मदद करते हैं। भारत से मसाले के व्यापार में उपयोग किये गये पूर्व और पश्चिम को जोड़ने वाले समुद्री मार्गों को ‘मसाला मार्ग’ के रूप में जाना जाता था। प्राचीन भारत में इन्हीं मार्गों के कारण प्रमुख राज्य, महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र और औद्योगिक क्षेत्र निखरे, जिन्होंने बदले में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रगति को सुगम बनाया।
प्राचीन काल में, व्यापार और वाणिज्य ने भारतीय उप-महाद्वीप को आर्थिक जगत में एक महान निर्यातक केंद्र बनाने में महत्वपूर्ण भमिका अदा की। परातात्विक प्रमाणों ने प्रदर्शित किया है कि प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार भूमिगत और सामुद्रिक अंतर्देशीय व विदेशी व्यापार और वाणिज्य ही था। ईसा पूर्व तीसरी सहस्त्राब्दी में व्यापारिक केन्द्र भी आये, जिसके परिणामस्वरूप व्यापारियों और व्यापारिक समुदायों के वर्चस्व वाले भारतीय समाज का निर्माण हुआ। प्राचीन काल के दौरान राजनैतिक अर्थव्यवस्था और सैनिक सुरक्षा में अधिकांश संयुक्त भारतीय उप-महाद्वीप और व्यापार नियमों को ध्यान में लाकर योजनाएँ बनाई गई थी। इससे एक सामान्य आर्थिक-व्यवस्था बनी, मापन में एकरूपता आई तथा मुद्रा के रूप में सिक्कों के उपयोग ने व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ाया व बाज़ार को विस्तारित किया।
1.2 स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली
आर्थिक जीवन में प्रगति के साथ, मुद्रा के रूप में अन्य वस्तुओं के उपयोग को धातुओं ने अपनी विभाजकता और स्थायित्व के गुणों के कारण प्रतिस्थापित किया। जैसे ही मुद्रा ने मापन की इकाई और विनिमय के माध्यम के रूप में काम किया, धात्विक मुद्रा की शुरुआत हुई और इसके उपयोग से आर्थिक गतिविधियों में तेजी आई।
हुण्डी और चित्ति जैसे दस्तावेज़ों का उपयोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को द्रव्य के लेन-देन में होने लगा। प्रमुख विनिमय के साधन के रूप में उप-महाद्वीप में हुण्डी ने काम किया जो स्थानीय भाषा में थी और अनुबंध के द्वारा (1) बिना शर्त द्रव्य के भुगतान का वचन या आदेश अधिपत्र (वारण्ट) (2) वैध विनिमय द्वारा हस्तांतरण से परिवर्तनीय थी।
स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली ने मुद्रा उधार एवं साख पत्रों के माध्यम से घरेलू और विदेशी व्यापार के वित्तपोषण में महत्वपूर्ण योगदान किया। बैंकिंग के विकास के साथ लोगों ने बैंकरों के रूप में काम करने वाले व्यक्तियों या सेठों के साथ कीमती धातुओं को जमा करना शुरू किया और यह पैसा निर्माताओं को अधिक वस्तुओं का उत्पादन करने हेतु संसाधनों की आपूर्ति करने के लिए एक साधन बन गया।
कृषि और पशुपालन प्राचीन लोगों के आर्थिक जीवन के महत्वपूर्ण घटक थे। अनुकूल जलवायु परिस्थितियों के कारण वे एक साल में दो या कभी-कभी तीन-तीन फसलें भी उगा लेते थे। इसके अतिरिक्त सूती वस्त्रों की बुनाई, रंगाई, बर्तन, मिट्टी के बर्तन बनाना, कला और हस्तशिल्प, मूर्तिकला, कुटीर उद्योग, राजगीरी, यातायात-साधन (गाड़ियाँ, नौकाओं और जहा.जों) का निर्माण आदि से उन्हें अतिरिक्त आय हो जाती थी जिससे वे बचत और आगे निवेश कर पाते थे।
प्रसिद्ध वर्कशाप (कारखाने) थे, जहाँ कुशल कारीगर काम करते थे और कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तित करते थे, जिसकी बहुत मांग थी। परिवार-आधारित प्रशिक्षुता प्रणाली प्रचलन में थी और उसका व्यापार हेतु विशिष्ट कौशल प्राप्त करने में विधिवत पालन किया जाता था। कारीगर, शिल्पकार और विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के कुशल श्रमिक कौशल और ज्ञान को विकसित कर उसे एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को प्रदान करते जाते थे। इससे व्यापार और वाणिज्य के वित्तपोषण हेतु वाणिज्यिक और औद्योगिक बैंक बने तथा कृषकों को अल्प और दीर्घकालीन ऋण देने के लिए कृषि-बैंक अस्तित्व में आये।
1.2.1 मध्यस्थों का उदय
व्यापार के विकास में मध्यस्थों की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने व्यापार और विशेषकर विदेशी व्यापार का जोखिम वहन करने की ज़िम्मेदारी लेकर निर्माताओं को वित्तीय सुरक्षा प्रदान की। इसमें कमीशन एजेन्ट, दलाल और फुटकर दोनों प्रकार के माल के वितरक शामिल थे। विदेशी व्यापार बढ़ता हुआ एशिया में बड़ी मात्रा में सोना-चांदी और बहुमूल्य धातुएँ लाया और इसकी बड़ी राशि भारत की ओर रही।
‘जगतसेठ’ जैसी संस्था का भी विकास हुआ और मुगलकाल और ईस्ट इंडिया के दिनों में उनका बहुत प्रभाव रहा। बैंकरों ने न्यासों (ट्रस्टी) और अक्षयनिधि (एण्डॉमेंट) के निष्पादन के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया। विदेशी व्यापार का वित्तपोषण ऋण से होता था। यद्यपि लम्बी यात्राओं में विशाल जोखिम को देखते हुए ब्याज की दर को उच्च रखा गया था।
उधार सौदों के अभ्युदय तथा ऋण व अग्रिमों की उपलब्धता ने गतिविधियों को बढ़ाया। भारतीय उप-महाद्वीप ने अनुकूल व्यापार संतुलन के फल का लाभ/आनन्द लिया, जिसमें निर्यात बड़े अन्तर से आयात से अधिक होते थे। स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली ने निर्माताओं, व्यापारियों और सौदागरों को विस्तार और विकास के लिए अधिक पूंजी कोषों से लाभान्वित किया।
1.3 परिवहन
प्राचीन काल में जल और स्थल परिवहन लोकप्रिय थे। व्यापार .जमीन और समुद्र दोनों ही माध्यमों से होता था। संचार के साधन के रूप में सड़कें विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया, खासतौर पर स्थल और अन्तर्देशीय व्यापार में बुनियादी महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। उत्तरी सड़क मार्ग मूल रूप में असम से तक्षशिला तक फैला माना जाता था। दक्षिण में भी पूर्व से पश्चिम तक फैले व्यापारिक मार्ग संरचनात्मक रूप से व्यापक थे तथा गति और सुरक्षा के लिए भी उपयुक्त थे।
सामुद्रिक व्यापार, वैश्विक व्यापार नेटवर्क की एक अन्य महत्वपूर्ण शाखा थी। मालाबार तट, जिस पर मुजीरिस स्थित है, का अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक व्यापार में पुराना इतिहास रहा है, जो रोमन साम्राज्य के युग तक जाता है। काली मिर्च विशेष रूप से रोमन साम्राज्य में मूल्यवान थी और ‘काले सोने’ के नाम जानी जाती थी। सदियों तक, इस व्यापार के लिए मार्ग पर हावी होने के लिए विभिन्न साम्राज्यों और व्यापार शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष का कारण बनी रही। इन मसालों के लिए ही भारत के वैकल्पिक मार्ग की तलाश में पंद्रहवी शताब्दी के अंतिम वर्षों में कोलम्बस ने अमेरिका की खोज की और 1498 में मालाबार के किनारे वास्को-डी-गामा भी आया।
कालीकट एेसा व्यस्ततम विक्रय-केंद्र था कि मध्य-पूर्व से लोबार (आवश्यक तेल) और गंधार (परफ्यूम में उपयोगी सुगंधित रेजिन, दवाइयाँ) लेने के लिए यहाँ चीनी जहाज़ भी आते थे और साथ ही साथ भारत से काली मिर्च, हीरे, मोती और कपास भी ले जाते थे। पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दक्षिणी या कोरोमण्डल तट पर पुलिकट प्रमुख बन्दरगाह था। पुलिकट बन्दरगाह से दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए कपड़ा प्रमुख निर्यात था।
1.4 मज़बूत व्यापारी समुदाय
देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग समुदाय व्यवसाय में आये। पंजाबी और मुल्तानी व्यापारियों ने उत्तरी क्षेत्र में कारोबार संभाला, जबकि भट्ट ने गुजरात और राजस्थान के राज्यों में व्यापार का प्रबन्धन किया। पश्चिमी भारत में इन समूहों को ‘महाजन’ कहा गया। अहमदाबाद जैसे शहरी क्षेत्रों में व्यवसायियों का सामूहिक रूप से मुखिया ‘नगरसेठ’ के नाम से जाना जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग, जैसे-हकीम और वैद्य (चिकित्सक), वकील (विधिवक्ता), पंडित या मुल्ला (शिक्षक), चित्रकार, संगीतकार, सुलेखक आदि शामिल थे।
1.4.1 मर्चेन्ट कॉरपोरेशन
व्यापारिक समुदाय ने गिल्ड से अपनी प्रतिष्ठा और ताकत प्राप्त की, जो अपने हितों की रक्षा के लिए स्वायत्त निगम थे। ये निगम औपचारिक रूप से संगठित हुए, अपने स्वयं के सदस्यों के लिए नियम और व्यावसायिक आचार संहिता बनाई जिसे राजा भी स्वीकारते और सम्मान करते थे। उद्योग और व्यापार पर कर भी राजस्व के प्रमुख साधन थे। व्यापारियों को चुंगी करों का भुगतान करना होता था, जो अधिकांश प्रमुख वस्तुओं पर अलग-अलग दर पर लगाए जाते थे। उनका भुगतान नगद या वस्तुओं के रूप में होता था।
वस्तुओं के अनुसार सीमा शुल्कों में भिन्नता पाई जाती थी। सीमा शुल्क दरें विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग थीं। नौका-कर आय का एक अन्य स्रोत था। इसका भुगतान यात्रियों, सामान, मवेशियों और गाड़ियों के लिए किया जाता था। श्रम-कर वसूलने का अधिकार आमतौर पर स्थानिकों को हस्तांतरित किया गया था।
रजा या कर संग्रहकों से गिल्ड प्रमुख का सीधे व्यवहार हुआ करता था तथा वे अपने साथी व्यापारियों की तरफ से निश्चित राशि पर मार्केट टोल का समाधान कर लिया करते थे। गिल्ड व्यवसायी धार्मिक हितों के संरक्षक के रूप में भी कार्य करते थे। अपने सदस्यों पर निगम-कर लगाकर उन्होंने मन्दिर निर्माण का कार्य भी किया। इस प्रकार, वाणिज्यिक गतिविधियों ने बड़े व्यापारियों को समाज में सत्ता हासिल करने में सक्षम बनाया।
1.4.2 प्रमुख व्यापारिक केंद्र
सभी प्रकार के नगर जैसे कि बंदरगाह-कस्बे, निर्माणी नगर, व्यापारिक नगर, पवित्र और तीर्थयात्रा आदि के शहर थे। उनका अस्तित्व व्यापारी समुदाय और पेशेवर वर्गों की समृद्धि का सूचक है।
प्राचीन भारत में निम्नलिखित प्रमुख व्यापार-केंद्र थे-
1. पाटलीपुत्र- आजकल पटना के नाम से जाना जाता है। यह केवल व्यापारिक नगर ही नहीं था बल्कि निर्यातक केन्द्र भी था, विशेषकर नगीनों का।
2. पेशावर- यह घोड़ों के आयात और ऊन का एक प्रमुख निर्यातक केंद्र था। प्रथम शताब्दी ईसवी में इसका भारत, चीन और रोम के बीच वाणिज्यिक लेन-देनों में बहुत बड़ा हिस्सा था।
3. तक्षशिला- यह भारत और मध्य एशिया के बीच महत्वपूर्ण भूमि-मार्ग पर एक प्रमुख केंद्र के रूप में कार्य करता था। यह वित्तीय वाणिज्यिक बैंकों का शहर भी था। बौद्धकाल में शहर को एक महत्वपूर्ण विद्वता केंद्र का स्थान प्राप्त था। प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय यहाँ विकसित हुआ, जिसमें चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य एशिया से अध्येता आते थे।
4. इन्द्रप्रस्थ- यह शाही सड़क पर वाणिज्यिक जंक्शन था जहाँ पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में जाने वाले अधिकांश मार्गों का एकीकरण हुआ था।
5. मथुरा- यहाँ लोगों ने वाणिज्य पर काम किया तथा यह व्यापार का एक विक्रय केंद्र था। दक्षिण भारत को जाने वाले कई मार्ग मथुरा और भरूच से होकर जाते थे।
6. वाराणसी- यह गंगा मार्ग और पूर्व के साथ उत्तर को जोड़ने वाले मार्ग, दोनों पर स्थित होने से अच्छे स्थान पर था। यह कपड़ा उद्योग के एक बड़े केंद्र के रूप में उभरा और सुन्दर सुनहरे रेशम के कपड़े और चन्दन की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध हो गया। यह तक्षशिला, भरूच और काजीवरम से भी जुड़ता था।
7. मिथिला- मिथिला के व्यापारी बंगाल की खाड़ी में नाव से समुद्र पार करके दक्षिण चीन सागर एवं जावा-सुमात्रा और बोर्निया के द्वीपों पर बंदरगाहों के साथ कारोबार करते थे। मिथिला ने प्रथम शताब्दी ईसवी के शुरुआती वर्षों में दक्षिण चीन में और विशेष रूप से यूनान में व्यापारिक कालोनियों की स्थापना की।
8. उज्जैन- सुमेलानी व कार्नेलियन पत्थर, मलमल और मालों का कपड़ा उज्जैन से विभिन्न केंद्रों में निर्यात किया जाता था। तक्षशिला और पेशावर के थल मार्गों से इसके पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी थे।
9. सूरत- मुगल काल में यह पश्चिमी व्यापार का विक्रय केंद्र था। सूरत का कपड़ा जरी के सुनहरे बॉर्डर के लिए मशहूर था। यह उल्लेखनीय है कि सूरत की हुण्डियाँ मिस्र, ईरान और बेलि्.जयम के दूरदराज के बाजारों में भी चलती थीं।
10. कांची- इसे आजकल कांजीवरम के नाम से जाना जाता है। यहाँ पर चीनी लोग विदेशी जहाज़ों में मोती, काँच और दुर्लभ पत्थरों को खरीदने के लिए आया करते थे और बदले में सोना और रेशम बेच जाते थे।
11. मदुरै- यह मन्नार की खाड़ी के मोती मत्स्य पालन को नियंत्रित करता था और मोती, गहने और फैन्सी कपड़े का एक प्रमुख निर्यातक केंद्र था। इसने सामुद्रिक व्यापार चलाने के लिए विदेशी व्यापारियों, विशेषकर रोमनों को आकर्षित किया।
12. भरूच- यह पश्चिमी भारत का महानतम वाणिज्यिक शहर था। यह नर्मदा नदी पर स्थित था तथा सड़क मार्ग से सभी महत्वपूर्ण मंडियों से जुड़ा हुआ था।
13. कावेरीपट्ट- इसे कावेरीपटनम् के नाम से भी जाना जाता था। शहर के रूप में यह अपनी बनावट में काफी वैज्ञानिक था तथा माल की ढुलाई इत्यादि के लिए उत्तम सुविधाएँं प्रदान करने के लिए इसका उपयोग किया जाता था। विदेशी व्यापारी इस शहर में अपने मुख्यालय रखते थे। मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और सुदूर पूर्व से व्यापार करने के लिए यह सुविधाजनक स्थान था। यह सौन्दर्य प्रसाधन, इत्र, पाउडर, रेशम, ऊन, कपास, मोती, मुगा, सोने और कीमती नगीनों के लिए व्यापार का केंद्र था। यह नगर जहाज़ निर्माण के लिए भी प्रसिद्ध था।
14. ताम्रलिप्ति- यह पश्चिमी और सुदूर पूर्व के साथ समुद्री और थलमार्गों से जुड़े सबसे बड़े बन्दरगाहों में से एक था। यह सड़क मार्ग से बनारस और तक्षशिला से तथा सुसा के माध्यम से सुदूर देशों के साथ कालासागर तक जुड़ा हुआ था।
1.4.3 प्रमुख निर्यात और आयात
निर्यात में मसाले, गेहूँ, चीनी, नील, अफीम, तिल का तेल, कपास, रेशम, तोते, जीवित मवेशी, और पशु-उत्पाद-खालें, फर, सींग, चमड़ा, कछुआ-कवच, मोती, नीलमणि, चमकीले पत्थर, क्रिस्टल, लैपेस-लाजुली, ग्रेनाइट, फिरोजा और तांबा आदि शामिल थे।
आयातों में घोड़े, पशु-उत्पाद, चीनी, सिल्क, फ्लेक्स और लेनिन, मणि, सोना, चांदी, टिन, तांबा, सीसा, मणिक, पुखराज, मूँगा, काँच और एम्बर शामिल थे।
1.5 भारतीय उप-महाद्वीप की विश्व अर्थव्यवस्था में स्थिति (1 ई. से 1191 ई. तक)
पहली और सत्रहवीं शताब्दी के बीच, भारतवर्ष के प्राचीन और मध्ययुगीन दुनिया की लगभग तिहाई या चौथाई दौलत को नियन्त्रित करने वाली सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का अनुमान था। मेगस्तनीज, फाह्यान, ह्वेन सांग, अलबरूनी (11वीं शताब्दी), इब्नबतूता (11वीं शताब्दी), फ्रांसीसी फ्रेंकोइस (17वीं शताब्दी) और अन्य लोग जो विभिन्न अंतरालों पर आए, जिन्होंने देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक, वाणिज्यिक और राजनैतिक संरचना और समृद्धि की बात की और अपने लेखन में इसे स्वर्णभूमि और स्वर्णद्वीप कहा।
स्रोतः एंगस मैडिसन (2001 और 2003), दी वर्ल्ड इकोनामी-द मिलेनियल परस्पेक्टिव, ओ.ई.सी.डी., पेरिस; एंगस मैडिसन, दी वर्ल्ड इकोनामी, हिस्टोरीकल स्टेटिस्टिक्स।
पूर्व-औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को समृद्धि का स्वर्णयुग माना जाता है और इसी ने यूरोपियों को खोज की महान यात्रा हेतु प्रेरित किया। प्रारम्भ में वे लूटने के लिए आये, किंतु शीघ्र ही उन्हें सोने और चांदी के बदले व्यापार के पुरस्कार का एहसास हुआ। बढ़ते वाणिज्यिक क्षेत्र के बावजूद, यह स्पष्ट है कि 18वीं सदी का भारत प्रौद्योगिकी, नवाचार और विचारों में पश्चिमी यूरोप के पीछे था।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के बढ़ते नियन्त्रण से आज़ादी में कमी आई और कोई कृषि और वैज्ञानिक क्रान्ति नहीं हुई, जनसंख्या वृद्धि, शिक्षा की आमजन तक सीमित पहुँच और मानवीय कौशल के स्थान पर मशीनों के प्राथमिकता ने मिलकर भार को एक एेसा देश बना दिया, जो समृद्ध था, किन्तु इसके निवासी गरीब थे।
अठारहवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटिश शाही साम्राज्य का उत्थान आरंभ हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने नियमों के अधीन प्रान्तों द्वारा उत्पन्न राजस्व का उपयोग भारतीय कच्चे माल, मसालों और वस्तुओं को खरीदने में किया। अतः विदेशी व्यापार से होने वाले सोने-चाँदी और बहुमूल्य धातुओं का सतत् प्रवाह रुक गया। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा बदल गई। जो तैयार माल का निर्यातक था, वह कच्चे माल का निर्यातक और विनिर्मित माल का खरीददार बन गया।
1.5.1 भारत में पुनरौद्योगीकरण
आज़ादी के बाद, अर्थव्यवस्था के पुनर्निमाण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और भारत में केंद्रीकृत नियोजन की शुरुआत हुई। 1952 में पहली पंचवर्षीय योजना कार्यान्यवन में आई। योजनाओं में आधुनिक उद्योगों, आधुनिक प्रौद्योगिकी और वैज्ञानिक संस्थानों, अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों की स्थापना को महत्व दिया गया। इन प्रयासों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से विकसित नहीं हो सकी। पूंजी विनिर्माण में कमी, जनसंख्या में वृद्धि, रक्षा पर भारी व्यय, अपर्याप्त बुनियादी संरचना इसके प्रमुख कारण थे। परिणामस्वरूप, भारत विदेशी स्रोतों से उधार लेने पर अत्यधिक निर्भर था और अन्त में 1991 में आर्थिक उदारीकरण पर सहमत हुआ।
भारतीय अर्थव्यवस्था आज दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और एक पसंदीदा प्रत्यक्ष विदेशी विनिमय निवेश का गन्तव्य है। बढ़ती आय, बचत, निवेश के अवसर, घरेलू खपत में बढ़ोत्तरी और युवा जनसंख्या मिलकर आने वाले दशकों में विकास सुनिश्चित करेंगे। उच्च विकास क्षेत्रों की पहचान की गई है, जोकि दुनिया भर में तेज़ी से बढ़ रहे हैं और भारत सरकार की हाल की पहलों, जैसे-‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘डिजिटल इण्डिया’ और भारत की नवनिर्मित विदेश व्यापार नीति, 2015-20 से भारतीय अर्थव्यवस्था को निर्यात व आयात और व्यापार सन्तुलन के मामले में मदद मिलने की उम्मीद है।
1850 के बाद भारतीय उद्यमियों ने अपनी आधुनिक कपड़ा मिलों की स्थापना प्रारम्भ की और धीरे-धीरे घरेलू बाज़ार का पुनर्ग्रहण करना शुरू किया। 1896 में भारतीय मिल कपड़ा उपभोग के 8 प्रतिशत की पूर्ति करते थे, 1913 में 20 प्रतिशत, 1936 में 62 प्रतिशत और 1945 में 76 प्रतिशत। इस प्रकार, 1913-1938 के बीच भारतीय निर्माताओं का उत्पादन 5.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ा, जो वैश्विक प्रतिशत 3.3 से अधिक था। अंततः ब्रिटिश सरकार ने 1920 के दशक से टैरिफ संरक्षण प्रदान किया जिससे उद्यमियों को विस्तार और विविधता लाने में मदद मिली। 1947 में आज़ादी में समय तक, भारतीय उद्यमी काफी मज़बूत थे और जाने वाले अंग्रेज़ों के कारोबार खरीदने की स्थिति में थे। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में उद्योगों का हिस्सा, 1913 में 3.8 से बढ़कर 1947 में 7.5 प्रतिशत, अर्थात् दो-गुना हो गया और निर्यात में विनिर्माताओं की हिस्सेदारी 1913 और 1947 के वर्षों में क्रमशः 22.4 से बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई। स्रोतः बी.आर. तोमलीसन, दी इकॉनोमी अॉफ इंडिया 1870-1970, द न्यू कैम्ब्रिज हिस्ट्री अॉफ इंडिया, वॉल्यूम 3.3. द कैम्बिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1996. |
खण्ड-2
व्यवसाय की प्रकृति और अवधारणा
1.6 व्यवसाय की अवधारणा
व्यवसाय शब्द की व्युत्पत्ति व्यस्त रहने से हुई है। अतः व्यवसाय का अर्थ व्यस्त रहना है। तथापि विशेष संदर्भ में, व्यवसाय का अर्थ एेसे किसी भी धंधे से है, जिसमें लाभार्जन हेतु व्यक्ति विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में नियमित रूप में संलग्न रहते हैं। वे क्रियाएँ अन्य लोगों की आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु वस्तुओं के उत्पादन, क्रय-विक्रय या विनिमय और सेवाओं की आपूर्ति से संबंधित हो सकती हैं।
प्रत्येक समाज में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु अनेकों प्रकार की क्रियाएँ करते हैं। ये क्रियाएँ विस्तृत रूप से दो समूहों में वर्गीकृत की जा सकती हैं- आर्थिक एवं अनार्थिक। आर्थिक क्रियाएँ, वे क्रियाएँ हैं जिनके द्वारा हम अपने जीवन यापन के लिए धन कमाते हैं जबकि अनार्थिक क्रियाएँ प्रेमवश, सहानुभूति के लिए, भावुकतावश या देशभक्ति आदि के लिए की जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक श्रमिक द्वारा फैक्टरी में काम करना, एक डॉक्टर द्वारा अपने क्लीनिक में कार्य करना, एक प्रबंधक द्वारा अपने कार्यालय में काम करना तथा एक शिक्षक का विद्यालय में अध्यापन कार्य करना आदि उदाहरणों में, सभी अपनी जीविका उपार्जन के लिए कार्य कर रहे हैं। अतः ये सभी आर्थिक क्रियाओं में संलग्न हैं। दूसरी ओर एक गृहणी द्वारा अपने परिवार के लिए भोजन पकाना या एक वृद्ध व्यक्ति को सड़क पार कराने में एक बालक द्वारा सहायता करना अनार्थिक क्रियाएँ हैं क्योंकि ये क्रियाएँ या तो प्रेमवश या सहानुभूतिवश की जा रही हैं।
स्वयं करके देखें-
क्या निम्नलिखित एक आर्थिक क्रिया है-
1. एक कृषक अपने उपभोग हेतु चावल उगाता है। हाँ/नहीं
2. एक कारखाने का स्वामी बाज़ार में विक्रय हेतु बस्तों का उत्पादन करता है। हाँ/नहीं
3. एक व्यक्ति ट्रैफिक चौराहे पर भीख माँगने में व्यस्त है। हाँ/नहीं
4. नियोक्ता के मकान पर घरेलू कार्य कर रहे घरेलू सहायक की सेवाएँ। हाँ/नहीं
5. घर पर घरेलू कार्य कर रही गृहणी की सेवाएँ। हाँ/नहीं
आर्थिक क्रियाओं को भी आगे तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जैसे- व्यवसाय, धंधा या रोज़गार। अतः व्यवसाय को एक आर्थिक क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें वस्तुओं का उत्पादन व विक्रय तथा सेवाओं को प्रदान करना सम्मिलित है। उपरोक्त क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य समाज में मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करके धन कमाना है।
1.6.1 व्यावसायिक क्रियाओं की विशेषताएँ
समाज में व्यावसायिक क्रियाएँ अन्य क्रियाओं से किस प्रकार भिन्न हैं, यह समझने के लिए व्यवसाय की प्रकृति अथवा इसके आधारभूत लक्षणों को इसकी अद्वितीय विशेषताओं के संदर्भ में स्पष्ट करना चाहिए, जो निम्नलिखित हैं-
(क) यह एक आर्थिक क्रिया है- व्यवसाय को एक आर्थिक क्रिया समझा जाता है क्योंकि यह लाभ कमाने के उद्देश्य से या जीवन यापन के लिए किया जाता है, न कि प्रेम के कारण अथवा मोह, सहानुभूति या किसी अन्य भावुकता के कारण।
(ख) वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन अथवा उनकी प्राप्ति- वस्तुओं को उपभोक्ताओं के उपभोग के लिए सुलभ कराने से पूर्व व्यावसायिक इकाइयों द्वारा या तो इनका उत्पादन किया जाता है या फिर इनका क्रय किया जाता है। अतः प्रत्येक व्यावसायिक इकाई जिन वस्तुओं में व्यापार करती है, उनका या तो स्वयं उत्पादन करती है या आपूर्ति करने के लिए उत्पादकों से प्राप्त करती है। वस्तुएँ या तो उपभोक्ता वस्तुएँ हो सकती हैं, जो प्रतिदिन काम आती हैं, जैसे- चीनी, पेन, नोट बुक या पूंजीगत वस्तुएँ, जैसे- मशीन, फर्नीचर आदि। सेवाओं में यातायात, बैंक तथा विद्युत की आपूर्ति आदि को सम्मिलित किया जा सकता है, जो उपभोक्ताओं की सुविधाओं के रूप में सुलभ करायी जाती हैं।
(ग) मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विक्रय या विनिमय- प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यवसाय में मूल्य के बदले वस्तुओं और सेवाओं का हस्तांतरण व विनिमय सम्मिलित है। यदि वस्तुओं का उत्पादन, उत्पादक द्वारा स्वयं के उपभोग के लिए किया जाता है, तो एेसी क्रिया व्यावसायिक क्रिया नहीं कहलाती है। घर में परिवार के सदस्यों के लिए भोजन पकाना व्यवसाय नहीं हैं लेकिन किसी रेस्तराँ में अन्य व्यक्तियों को बेचने के लिए भोजन पकाना व्यवसाय है। इस प्रकार व्यवसाय की यह एक आवश्यक विशेषता है कि वस्तुओं या सेवाओं का क्रय-विक्रय या विनिमय होना चाहिए।
(घ) नियमित रूप से वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय- व्यवसाय की एक विशेषता यह है कि इसमें नियमित रूप से वस्तुओं और सेवाओं का लेन-देन होता है। एक बार का क्रय या विक्रय साधारणतः व्यवसाय नहीं कहलाता। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति अपना घरेलू रेडियो चाहे लाभ पर ही बेचे मगर यह व्यावसायिक क्रिया नहीं कहलाएगी, लेकिन यदि वह अपनी दुकान पर या घर से नियमित रूप से रेडियो बेचता है तो यह एक व्यावसायिक क्रिया कहलाएगी।
(ङ) लाभ अर्जन- प्रत्येक व्यावसायिक क्रिया लाभ के रूप में आय अर्जित करने के उद्देश्य से की जाती है। बिना लाभ कमाए कोई भी व्यवसाय लंबे समय तक कार्यरत नहीं रह सकता। इसीलिए व्यवसायकर्ता विक्रय की मात्रा बढ़ाकर या लागत कम करके अधिकतम लाभ कमाने का हरसंभव प्रयास करता है।
(च) प्रतिफल की अनिश्चितता- प्रतिफल की अनिश्चितता से तात्पर्य व्यावसायिक क्रियाओं के संचालन से एक निश्चित समय में होने वाले लाभ की अस्थिरता से है। प्रत्येक व्यवसाय में परिचालन हेतु कुछ धन (पूँजी) के विनियोग की आवश्यकता होती है। व्यवसाय में विनियोजित पूंजी पर लाभ पाने की आशा तो होती है, लेकिन यह निश्चित नहीं होता कि लाभ कितना होगा। बल्कि सतत् प्रयासों के बावजूद भी हानि की आशंका सदैव बनी ही रहती है।
(छ) जोखिम के तत्त्व- जोखिम एक अनिश्चितता है, जो व्यावसायिक हानि की ओर इंगित करती है, जिनका कारण कुछ प्रतिकूल अथवा अवांछित घटक होते हैं। जोखिमों का संबंध कुछ व्यावसायिक घटनाओं से है, जैसे- उपभोक्ताओं की पसंद या फैशन में परिवर्तन, उत्पादन विधियों में परिवर्तन, कार्यस्थल पर हड़ताल या तालेबंदी, बाज़ार-प्रतिस्पर्धा, आग, चोरी, दुर्घटनाएँ, प्राकृतिक आपदाएँ आदि। कोई भी व्यवसाय जोखिमों से अछूता नहीं रहता।
उद्यम स्तर पर व्यावसायिक कर्त्तव्य
व्यवसाय में निहित विभिन्न प्रकार के कार्यों को विभिन्न प्रकार के संगठनों द्वारा संपन्न किया जाता है, जिन्हें व्यावसायिक इकाई या फर्म कहा जाता है। व्यवसाय के संचालन हेतु उद्यम चार मुख्य प्रकार के काम करते हैं, ये हैं- वित्त व्यवस्था, उत्पादन, विपणन तथा मानव संसाधन प्रबंधन। वित्त व्यवस्था का संबंध, व्यवसाय के संचालन के लिए वित्त जुटाने तथा उसका सही उपयोग करने से है। उत्पादन का अर्थ कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तित करने या सेवाओं को उत्पन्न करने से है। विपणन से तात्पर्य उन संपूर्ण क्रियाओं से है, जो वस्तुओं तथा सेवाओं के आदान-प्रदान में, उत्पादक से उन व्यक्तियों तक, उस स्थान व समय पर तथा उस कीमत पर उपलब्ध कराने से है जो वे चुकाने को तैयार हाें एवं जिन्हें उनकी आवश्यकता हो। मानव संसाधन प्रबंधन उद्यम में विभिन्न प्रकार के कार्यों को पूरा करने का कौशल रखने वाले व्यक्तियों की उपलब्धता को सुनिश्चित करता है।
सारणी 1.1 व्यवसाय, पेशा तथा रोज़गार में तुलना
क्र.सं. | आधार | व्यवसाय | पेशा | रोज़गार |
1. | स्थापना की विधि | उद्यमी का निर्णय तथा अन्य कानूनी औपचारिकताएँ, यदि आवश्यक हों | किसी व्यावसायिक संस्था की सदस्यता तथा व्यावहारिक योग्यता का प्रमाण-पत्र | नियुक्ति-पत्र तथा सेवा समझौता |
2. | कार्य की प्रकृति | जनता की वस्तुओं तथा सेवाओं की सुलभता | व्यक्तिगत विशेषज्ञ सेवाएँ प्रदान करना | सेवा समझौता या सेवा के नियमोें के अनुसार कार्य करना |
3. | योग्यता | किसी न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता नहीं | विशेष क्षेत्र में प्रशिक्षण तथा विशेष योग्यता | नियोक्ता द्वारा निर्धारित योग्यता एवं प्रशिक्षण |
4. | प्रतिफल | अर्जित लाभ | फीस | वेतन या मज़दूरी |
5. | पूँजी निवेश | व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार के अनुसार पूँजीनिवेश आवश्यक | स्थापना के लिए सीमित पूँजी आवश्यक | पूंजी की आवश्यकता नहीं |
6. | जोखिम | लाभ अनिश्चित तथा अनियमित जोखिम सदैव | फीस नियमित एवं निश्चित, कुछ जोखिम भी | निश्चित एवं नियमित |
7. | हित-हस्तांतरण | कुछ औपचारिकताओं के साथ हित-हस्तांतरण संभव | संभव नहीं | संभव नहीं |
8. | आचार संहिता | कोई आचार संहिता निर्धारित नहीं | पेशेवर आचार संहिता का पालन आवश्यक | व्यवहार के लिए नियोक्ता द्वारा निर्धारित नियमों का पालन आवश्यक |
1.6.2 व्यवसाय, पेशा तथा रोजगार में तुलना
जैसे पहले बताया जा चुका है कि आर्थिक क्रियाओं को तीन मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- व्यवसाय, पेशा, और रोज़गार। इन तीन वर्गों की भिन्नताओं को सारणी 1.1 में दर्शाया गया है।
1.7 व्यावसायिक क्रियाओं का वर्गीकरण
विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं को दो विस्तृत वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-उद्योग एवं वाणिज्य। उद्योग से तात्पर्य वस्तुओं का उत्पादन अथवा प्रक्रिया है। वाणिज्य में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं, जो वस्तुओं के आदान-प्रदान, संभरण तथा वितरण को संभव बनाती हैं। इन दो वर्गों के आधार पर हम व्यावसायिक फर्मों को औद्योगिक उद्यम तथा वाणिज्यिक उद्यम की श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। अब हमें व्यावसायिक क्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करना है।
1.7.1 उद्योग
उद्योग से अभिप्राय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनका संबंध संसाधनों को उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तित करना हैै। उद्योग शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं के लिए किया जाता है, जिनमें यांत्रिक-उपकरण एवं तकनीकी कौशल का प्रयोग होता है। इनमें वस्तुओं का उत्पादन अथवा प्रक्रिया तथा पशुओं के प्रजनन एवं पालन से संबंधित क्रियाएँ सम्मिलित हैं। व्यापक अर्थों में उद्योग का अर्थ समान वस्तुओं अथवा संबंधित वस्तुओं के उत्पादन में लगी इकाइयों के समूह से है। उदाहरण के लिए, रुई अथवा कपास से सूती वस्त्र आदि बनाने वाली सभी इकाइयों को उद्योग कहते हैं। इन्हीं के समकक्ष बैंकिंग, बीमा आदि की सेवाएँ भी उद्योग कहलाती हैं, जैसे- बैंकिंग उद्योग, बीमा उद्योग आदि। उद्योगों को तीन व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- प्राथमिक उद्योग, द्वितीयक या माध्यमिक उद्योग एवं तृतीयक या सेवा उद्योग।
(क) प्राथमिक उद्योग- इन उद्योगों में, वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जिनका संबंध प्राकृतिक संसाधनों के खनन एवं उत्पादन तथा पशु एवं वनस्पति के विकास से है। इन उद्योगों को पुनः इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-
(i) निष्कर्षण उद्योग- ये उद्योग उत्पादों को प्राकृतिक स्रोतों से निष्कर्षित करते हैं। निष्कर्षण उद्योग आधारभूत कच्चे माल की आपूर्ति करते हैं, जो प्रायः भूमि से प्राप्त किये जाते हैं। इन उद्योगों के उत्पादों को दूसरे विनिर्माणी उद्योगों द्वारा बहुत-सी उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तित किया जाता है। मुख्य निष्कर्षण उद्योगों में खेती करना, उत्खनन, इमारती लकड़ी, शिकार तथा मछली पकड़ना आदि को सम्मिलित किया जाता है।
(ii) जननिक उद्योग- इन उद्योगों का मुख्य कार्य पशु-पक्षियों का प्रजनन एवं पालन तथा वनस्पति उगाना है, ताकि उनका उपयोग आगे विभिन्न उत्पादों के लिए किया जा सके। जननिक उद्योग, पौधों के प्रजनन के लिए ‘बीज तथा पौधा संवर्धन (नर्सरी) कंपनियाँ’ इसके विशेष उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त पशु प्रजनन फार्म, मुर्गी पालन, मछली पालन आदि जननिक उद्योगों के अन्य उदाहरण हैं।
(ख) द्वितीयक या माध्यमिक उद्योग- इन उद्योगों में खनन उद्योगों द्वारा निष्कर्षित माल को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है। इन उद्योगों द्वारा निर्मित माल या तो अंतिम उपभोग के लिए उपयोग में लाया जाता है या दूसरे उद्योगों में आगे की प्रक्रिया में उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ- कच्चा लोहा खनन, प्राथमिक उद्योग है, तो स्टील का निर्माण करना द्वितीयक या माध्यमिक उद्योग है। माध्यमिक उद्योगों को आगे निम्न श्रेणियों में विभक्त किया सकता जाता है।
(i) विनिर्माण उद्योग- इन उद्योगों द्वारा कच्चे माल को प्रक्रिया में लेकर उन्हें अधिक उपयोगी बनाया जाता है। इस प्रकार ये प्रारूप उपयोगिता का सृजन करते हैं। ये उद्योग कच्चे माल से तैयार माल बनाते हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं। विनिर्माणी उद्योगों को उत्पादन प्रक्रिया के आधार पर निम्न चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
• विश्लेषणात्मक उद्योग- ये उद्योग एक ही उत्पाद के विश्लेषण एवं पृथकीकरण द्वारा तत्त्वों को उत्पादित करते हैं, जैसे- तेल शोधक कारखाने।
• कृत्रिम उद्योग- ये उद्योग विभिन्न संघटकों को एकत्रित करके प्रक्रिया द्वारा एक नये उत्पाद का रूप देते हैं, जैसे- सीमेंट उद्योग।
• प्रक्रियायी या प्रक्रमीय उद्योग- वे उद्योग जो पक्के माल के निर्माण के लिए विभिन्न क्रमिक चरणों से गुजरते हैं। उदाहरणार्थ- चीनी तथा कागज़ उद्योग।
• सम्मेलित उद्योग- जो उद्योग एक नया उत्पाद तैयार करने के लिए विभिन्न पुर्जों को जोड़ते हैं। उदाहरणार्थ- टेलीविज़न, कार तथा कंप्यूटर आदि।
(ii) निर्माण उद्योग- एेसे उद्योग, भवन, बांध, पुल, सड़क, सुरंग तथा नहरों जैसे निर्माण में संलग्न रहते हैं। इन उद्योगों में अभियांत्रिकी तथा वास्तुकलात्मक चातुर्य महत्वपूर्ण अंग होते हैं।
(ग) तृतीयक या सेवा उद्योग- इस प्रकार के उद्योग प्राथमिक तथा द्वितीयक उद्योगों को सहायक सेवाएँ सुलभ कराने में संलग्न होते हैं तथा व्यापारिक क्रियाकलापों को संपन्न कराते हैं। ये उद्योग सेवा-सुविधा सुलभ कराते हैं। व्यावसायिक क्रियाओं में, ये उद्योग वाणिज्य के सहायक अंग समझे जाते हैं क्योंकि ये उद्योग व्यापार की सहायता करते हैं। इस वर्ग में यातायात, बैंकिंग, बीमा, माल-गोदाम, दूरसंचार, डिब्बा-बंदी तथा विज्ञापन आदि आते हैं।
"मेक इन इंडिया"देशीय एवं बहुद्देशीय कंपनियों को भारत में निर्माण कार्य प्रोत्साहित करने हेतु भारत सरकार द्वारा 25 सितम्बर, 2014 को ‘मेक इन इंडिया’ की पहल की गई। ‘मेक इन इंडिया’ पहल के मुख्य उद्देश्यों में अर्थव्यवस्था के 25 चयनित क्षेत्रों में रोज़गार सृजन एवं कौशल विकास को बढ़ावा देना है। | ||
‘मेक इन इंडिया’ निम्नलिखित 25 क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है- | ||
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1.7.2 वाणिज्य
वाणिज्य में दो प्रकार की क्रियाएँ सम्मिलित हैं, पहली वे जो माल की बिक्री अथवा विनिमय के लिए की जाती हैं, इन्हें व्यापार कहते हैं। दूसरी वे विभिन्न सेवाएँ जो व्यापार में सहायक होती हैं। इन्हें सेवाएँ अथवा व्यापार सहायक क्रियाएँ कहते हैं, जिनमें परिवहन, बैंकिंग, बीमा, दूरसंचार, विज्ञापन, पैकेजिंग एवं गोदाम व्यवस्था आदि सम्मिलित होती हैं। वाणिज्य, उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की आवश्यक कड़ी का काम करता है। इसमें वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, जो वस्तु एवं सेवाओं के अबाध प्रवाह को बनाए रखने के लिए आवश्यक होती हैं। अतः वाणिज्य को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है कि ये वे क्रियाएँ हैं, जो विनिमय में आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं। विनिमय संबंधी बाधा को व्यापार दूर करता है, जो वस्तुओं को उत्पादक से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचाता है। परिवहन स्थान संबंधी बाधा को दूर करता है, जो वस्तुओं को उत्पादन स्थल से बिक्री स्थल तक ले जाता है। संग्रहण एवं भंडारण, समय संबंधी रुकावट को दूर करते हैं। इसमें माल को गोदाम में बिक्री के समय तक रखा जाता है। गोदाम में रखे माल एवं स्थानांतरण के समय मार्ग में माल की चोरी, आग, दुर्घटना आदि जोखिमों से हानि हो सकती है। इन जोखिमों से माल का बीमा कर सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। इन सभी क्रियाओं के लिए आवश्यक पूँजी, बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थानों से प्राप्त होती है। विज्ञापन के द्वारा उत्पादक एवं व्यापारी, उपभोक्ताओं को बाज़ार में उपलब्ध वस्तुओं एवं सेवाओं के संबंध में सूचना देते हैं। अतः वाणिज्य से अभिप्राय उन क्रियाओं से है जो वस्तु एवं सेवाओं के विनिमय में आने वाली व्यक्ति, स्थान, समय, वित्त एवं सूचना संबंधी बाधाओं को दूर करती हैं।
1.7.3 व्यापार
व्यापार, वाणिज्य का अनिवार्य अंग है। इसका अर्थ - बिक्री, हस्तांतरण अथवा विनिमय से है। यह उत्पादित वस्तुओं को अंतिम उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराता है। आज के युग में, वस्तुओं का उत्पादन वृहद् पैमाने पर किया जाता है, लेकिन उत्पादकों के लिए अपनी वस्तुओं की बिक्री प्रत्येक उपभोक्ता को अलग-अलग कर पाना दुष्कर है। व्यापारी मध्यस्थ के रूप में व्यापारिक क्रियाएँ करते हुए विभिन्न बाज़ारों में उपभोक्ताओं को वस्तुएँ उपलब्ध कराते हैं। व्यापार व्यक्ति, अर्थात् उत्पादक तथा उपभोक्ता संबंधी बाधा को दूर करता है। व्यापार की अनुपस्थिति में बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव नहीं हो सकता है।
व्यापार को दो बड़े वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- आंतरिक और बाह्य। आंतरिक अथवा देशी व्यापार में वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान एक ही देश की भौगोलिक सीमाओं के अंदर किया जाता है। इसी को आगे थोक और फुटकर व्यापार में विभाजित किया जा सकता है। जब वस्तुओं का क्रय-विक्रय भारी मात्रा में किया जाता है, तो उसे थोक व्यापार तथा जब वस्तुओं का क्रय-विक्रय अपेक्षाकृत कम मात्रा में किया जाता है, तो उसे फुटकर व्यापार कहा जाता है। बाह्य एवं विदेशी व्यापार में वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान दो या दो से अधिक देशों के व्यक्तियों अथवा संगठनों के मध्य किया जाता है। यदि वस्तुओं का क्रय दूसरे देश से किया जाता है, तो उसे आयात व्यापार कहते हैं तथा जब वस्तुओं का विक्रय दूसरे देशों को किया जाता है, तो उसे निर्यात व्यापार कहते हैं। जब वस्तुओं का आयात किसी अन्य देश को निर्यात करने के लिए किया जाता है, तो उसे पुनर्निर्यात या आयात-निर्यात व्यापार कहते हैं।
1.7.4 व्यापार के सहायक
व्यापार में सहायक क्रियाओं को व्यापार का सहायक कहते हैं। इन क्रियाओं को सेवाएँ भी कहते हैं क्योंकि ये उद्योग एवं व्यापार में सहायक होती हैं। परिवहन, बैंकिंग, बीमा, भंडारण एवं विज्ञापन व्यापार के सहायक कार्य हैं, अर्थात् ये वे क्रियाएँ हैं जो सहायक की भूमिका निभाती हैं। वास्तव में, ये क्रियाएँ न केवल व्यापार में सहायक होती हैं, बल्कि उद्योग में भी सहायक होती हैं और इस प्रकार से पूरे व्यवसाय के लिए सहायक होती हैं। वास्तव में सहायक क्रियाएँ पूरे व्यवसाय का तथा विशेष रूप से वाणिज्य का अभिन्न अंग हैं। ये क्रियाएँ वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने में सहायक होती हैं। परिवहन, माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में सहायक होता है। बैंकिंग, व्यापारियों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है। बीमा, विभिन्न प्रकार के जोखिमों से सुरक्षा प्रदान करता है। भंडारण, संग्रहण व्यवस्था के द्वारा समय की उपयोगिता का सृजन करता है। विज्ञापन के माध्यम से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। दूसरे शब्दों में, ये क्रियाएँ माल के स्थानांतरण, संग्रहण, वित्तीयन, जोखिम से सुरक्षा एवं माल की बिक्री, संवर्धन को सरल बनाती हैं। सहायक कार्यों का संक्षेप में वर्णन निम्न है-
(क) परिवहन एवं संप्रेषण- वस्तुओं का उत्पादन कुछ विशिष्ट जगहों पर होता है, उदाहरणार्थ- चाय असम में, रुई गुजरात तथा महाराष्ट्र में, जूट पश्चिम बंगाल और ओडिशा में, चीनी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा महाराष्ट्र आदि में, लेकिन उपभोग के लिए इन वस्तुओं की आवश्यकता देश के सभी भागों में होती है। स्थान संबंधी बाधा को सड़क परिवहन, रेल परिवहन या तटीय जहाज़रानी द्वारा दूर किया जाता है। परिवहन के द्वारा कच्चा माल उत्पादन स्थल पर लाया जाता है तथा तैयार माल को कारखाने से उपभोग के स्थान तक ले जाया जाता है। परिवहन के साथ संप्रेषण माध्यमों की भी आवश्यकता होती है जिससे कि उत्पादक, व्यापारी एवं उपभोक्ता एक-दूसरे से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकें। अतः डाक एवं टेलीफोन सेवाएँ भी व्यावसायिक क्रियाओं की सहायक मानी जाती हैं।
(ख) बैंकिंग एवं वित्त- धन के बिना व्यवसाय का संचालन संभव नहीं, क्योंकि धन की आवश्यकता परिसंपत्तियों को क्रय करने तथा नित्य-प्रति के व्ययों को पूरा करने के लिए होती है। व्यवसायी आवश्यक धन राशि बैंक से प्राप्त कर सकते हैं। बैंक वित्त की समस्या का समाधान कर व्यवसाय की सहायता करते हैं वाणिज्यिक बैंक अधिविकर्ष एवं नकद साख, ऋण एवं अग्रिम के माध्यम से राशि उधार देते हैं। बैंक चैकों की वसूली धन अन्य स्थानों पर भेजने तथा व्यापारियों की ओर से बिलों को भुनाने का कार्य भी करते हैं। विदेशी व्यापर में, वाणिज्यिक बैंक आयातकों एवं निर्यातकों दोनों की ओर से भुगतान की व्यवस्था भी करते हैं। वाणिज्यिक बैंक जनसाधारण से पूंजी एकत्रित करने में भी कंपनी प्रवर्तकों की सहायता करते हैं।
(ग) बीमा- व्यवसाय में अनेकों प्रकार के जोखिम होते हैं। कारखाने की इमारत, मशीन, फर्नीचर आदि का आग, चोरी एवं अन्य जोखिमों से बचाव आवश्यक है। माल एवं अन्य वस्तुएँ चाहे गोदाम में हों या मार्ग में, उनके खोने अथवा क्षतिग्रस्त हो जाने का भय रहता है। कर्मचारियों की भी दुर्घटना अथवा व्यावसायिक जोखिमों से सुरक्षा आवश्यक है। बीमा इन सभी को सुरक्षा प्रदान करता है। एक साधारण से प्रीमियम की राशि का भुगतान कर बीमा कंपनी से हानि अथवा क्षति की राशि की एवं शारीरिक दुर्घटनावश चोट से होने वाली क्षति की पूर्ति कराई जा सकती है।
(घ) भंडारण- प्रायः वस्तुओं के उत्पादन के तुरंत पश्चात् ही उनका उपयोग या विक्रय नहीं होता। उन्हें आवश्यकता पड़ने पर सुलभ कराने के लिए गोदामों में सुरक्षित रखा जाता है। माल को क्षति से बचाने के लिए उसकी सुरक्षा आवश्यक होती है। इसलिए उसके सुरक्षित संग्रहण की विशेष व्यवस्था की जाती है। भंडारण व्यावसायिक इकाइयों को संग्रहण की कठिनाई को हल करने में सहायता प्रदान करता है तथा वस्तुओं को उस समय उपलब्ध कराता है, जब उनकी आवश्यकता होती है। वस्तुओं की लगातार आपूर्ति द्वारा मूल्यों को उचित स्तर पर रखा जा सकता है।
(ङ) विज्ञापनः विज्ञापन वस्तुओं के संवर्धन की महत्वपूर्ण विधियों में से एक है। विशेष रूप से उपभोक्ता वस्तुओं जैसे- इलैक्ट्रोनिक वस्तुएँ, स्वचालित वाहन, साबुन, डिटरजेंट पाउडर आदि। इनमें से अधिकांश का निर्माण एवं बाज़ार में आपूर्ति अनेकों छोटी-बड़ी इकाइयों द्वारा की जाती है। उत्पादकों एवं व्यापारियों का प्रत्येक उपभोक्ता से व्यक्तिगत रूप में मिलना संभव नहीं होता। विक्रय बढ़ाने हेतु विभिन्न उत्पादों (उनकी विशेषताएँ व मूल्य आदि) की सूचना प्रत्येक संभावित ग्राहक तक पहुँचाना आवश्यक होता है। साथ ही उपभोक्ता को वस्तुओं के प्रयोग, गुणवत्ता तथा मूल्य आदि के संबंध में स्पर्धात्मक जानकारी देकर अपने उत्पाद खरीदने को लुभाने के लिए वस्तुओं का विज्ञापन आवश्यक है। इस प्रकार विज्ञापन बाज़ार में उपलब्ध वस्तुओं के संबंध में सूचना देने एवं उपभोक्ता को वस्तु विशेष को क्रय करने के लिए तत्पर करने में सहायक होता है।
1.8 व्यवसाय के उद्देश्य
व्यवसाय का प्रारंभ बिंदु कोई उद्देश्य होता है। सभी व्यवसाय कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रति अभिमुख होते हैं। ये उद्देश्य उस ओर संकेत करते हैं कि व्यवसायी अपने कार्यों के बदले क्या प्राप्त करना चाहते हैं। साधारणतया यह समझा जाता है कि व्यवसाय का संचालन केवल लाभ कमाने के लिए होता है। व्यवसायी स्वयं भी यह दर्शाते हैं कि वस्तुओं अथवा सेवाओं के उत्पादन या वितरण करने में उनका मुख्य लक्ष्य लाभ कमाना ही है। प्रत्येक व्यवसायी का सामान्यतः यह प्रयास रहता है कि उसे नियोजित राशि से अधिक लाभ प्राप्त हो सके। दूसरे शब्दों में, व्यवसाय का उद्देश्य लाभ अर्जित करना है, जो लागत पर आगम का आधिक्य है। आज के युग में, यह सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया है कि व्यावसायिक इकाइयाँ समाज का एक अंग हैं और उनके कुछ उद्देश्य, सामाजिक उत्तरदायित्वों सहित होने चाहिए ताकि वे लंबे समय तक चल सके तथा प्रगति कर सकें। लाभ, अग्रणी उद्देश्य होता है, लेकिन एकमात्र नहीं।
यद्यपि लाभ कमाना ही व्यवसाय का एक उद्देश्य नहीं हो सकता, लेकिन इसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रत्येक व्यवसाय का प्रयत्न होता है कि जो कुछ भी उसने निवेश किया है उससे अधिक प्राप्त किया जाए। लागत से आगम का आधिक्य लाभ कहलाता है। लाभ को विभिन्न कारणों से व्यवसाय का एक आवश्यक उद्देश्य माना जा सकता है-
- (i) यह व्यवसायी के लिए आय का स्रोत है,
- (ii) यह व्यवसाय के विचार के लिए आवश्यक वित्त का स्रोत हो सकता है,
- (iii) यह व्यवसाय की कुशल कार्यशैली का द्योतक होता है,
- (iv) यह व्यवसाय का समाज के लिए उपयोगी होने की स्वीकारोक्ति भी हो सकता है, तथा
- (v) यह एक व्यावसायिक इकाई की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है।
फिर भी, एक अच्छे व्यवसाय के लिए केवल लाभ पर बल देना तथा दूसरे उद्देश्यों को भुला देना खतरनाक साबित हो सकता है। यदि व्यवसाय के प्रबंधक केवल लाभ के मनोग्रस्त हो जाएँ, तो वे ग्राहकों, कर्मचारियों, विनियोजकों तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भुला सकते हैं तथा तत्काल लाभ कमाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों का शोषण भी कर सकते हैं। इसका नतीजा यह हो सकता है कि प्रभावित लोग उस व्यावसायिक इकाई के साथ असहयोग करें या उसके दुराचरण का विरोध करें। फलस्वरूप इकाई का धंधा चौपट हो सकता है। यही कारण है कि एेसा व्यवसाय मुश्किल से ही मिलता है जिसका उद्देश्य केवल अधिक से अधिक लाभ कमाना हो।
1.9 व्यवसाय के बहुमुखी उद्देश्य
किसी उद्यम के लाभ में लगातार वृद्धि समाज को उपयोगी सेवाएँ प्रदान करने के कारण हो सकती है। वास्तव में उद्देश्य हर उस क्षेत्र में वांछनीय है जो प्रत्येक क्षेत्र में व्यवसाय को जीवित रखते हैं तथा समृद्धि को प्रभावित करते हैं। यदि किसी व्यवसाय को आवश्यकता तथा लक्ष्य में संतुलन रखना है तो उसे बहुमुखी उद्देश्यों को भी अपने सम्मुख रखना होगा। वह केवल एक लक्ष्य को सामने रखकर महारथ हासिल नहीं कर सकता। उद्देश्य प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट तथा व्यवसाय के अनुरूप होने चाहिए। उदाहरणार्थ-विक्रय मात्रा का निर्धारण होना चाहिए, जो पूंजी एकत्रित करनी है उसका अनुमान होना चाहिए तथा उत्पाद की इकाइयों का लक्ष्य भी निर्धारित होना चाहिए। उद्देश्य यह बताते हैं कि व्यवसाय निश्चित रूप से यह कार्य करने जा रहा है ताकि वह अपने क्रियाकलापों का विश्लेषण कर सके तथा अपने कार्य के निष्पादन में सुधार ला सके। व्यवसाय के लिए उद्देश्यों की आवश्यकता प्रत्येक उस क्षेत्र में होती है, जहाँ निष्पादन परिणाम व्यवसाय के जीवित रहने और समृद्धि को प्रभावित करते हैं। उनमें से कुछ क्षेत्रों का वर्णन नीचे किया गया है-
(क) बाज़ार स्थिति- बाज़ार स्थिति से तात्पर्य एक उद्यम की उसके प्रतियोगियों से संबंधित अवस्था से है। एक उद्यम को अपने उपभोक्ताओं को प्रतियोगी उत्पाद उपलब्ध करवाने तथा उन्हें संतुष्ट रखने के लिए अपने पैरों पर मज़बूती से खड़े रहना चाहिए।
(ख) नवप्रवर्तन- नवप्रवर्तन से तात्पर्य नए विचारों का समावेश या जिस विधि से कार्य किया जाता है, उसमें कुछ नवीनता लाने से है। प्रत्येक व्यवसाय में नवप्रवर्तन की दो विधियाँ हैं-
• उत्पाद अथवा सेवा में नवप्रवर्तन; तथा
• उनकी पूर्ति में निपुणता व सक्रियता में नवप्रवर्तन की आवश्यकता।
कोई भी व्यवसाय आधुनिक प्रतियोगिता के युग में बिना नवप्रवर्तन के फल-फूल नहीं सकता। अतः नवप्रवर्तन एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
(ग) उत्पादकता- उत्पादकता का मूल्यांकन उत्पादन के मूल्य की निवेश के मूल्य से तुलना करके किया जाता है। इसका प्रयोग कुशलता के माप के रूप में किया जाता है। लंबे समय तक चलते रहने तथा प्रगति के लिए प्रत्येक उद्यम को उपलब्ध स्रोतों का अधिकतम सदुपयोग करते हुए विशाल उत्पादकता की ओर लक्ष्य रखना चाहिए।
(घ) भौतिक एवं वित्तीय संसाधन- प्रत्येक व्यवसाय को संयंत्र (प्लांट), मशीन तथा कार्यालय इत्यादि जैसे भौतिक स्रोतों तथा वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है। इन कोषों की सहायता से संसाधनों, वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करके उपभोक्ताओं तक पहुँचा जा सकता है। व्यावसायिक इकाइयों को इन स्रोतों को अपनी आवश्यकतानुसार प्राप्त कर उनका दक्षतापूर्ण प्रयोग करना चाहिए।
(ङ) लाभार्जन- लाभार्जन से तात्पर्य विनियोजित पूँजी पर लाभार्जन से है। प्रत्येक व्यवसाय का एक मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। लाभ व्यवसाय की सफलता का एक सुदृढ़ परीक्षण है।
(च) प्रबंध निष्पादन एवं विकास- प्रत्येक उद्यम की अपने प्रबंधक से यह अपेक्षा रहती है कि वह व्यावसायिक क्रियाओं में उचित आचार संहिता तथा सामंजस्य स्थापित करें। अतः प्रबंध निष्पादन एवं विकास बहुत ही महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं। इस उद्देश्य के लिए उद्यमों को सक्रियता से कार्य करना चाहिए।
(छ) कर्मचारी निष्पादन एवं मनोवृत्ति- किसी भी (कर्त्तव्य) व्यवसाय की उत्पादकता तथा लाभार्जन क्षमता में योगदान की मात्रा कर्मचारियों द्वारा कार्य का निष्पादन एवं उनकी मनोवृत्ति निर्धारित करती है। अतः प्रत्येक व्यवसाय को कर्मचारियों द्वारा किए हुए कार्यों में सुधार लाना और कर्मचारियों के प्रति सकारात्मक व्यवहार का आश्वासन देने का प्रयत्न करना चाहिए।
(ज) सामाजिक उत्तरदायित्व- सामाजिक उत्तरदायित्व से तात्पर्य व्यावसायिक फर्मों के दायित्व से है, वे समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए आवश्यक स्रोत जुटाएँ तथा आवश्यकतानुसार सामाजिक सेवा का कार्य करें। अतः एक व्यावसायिक उपक्रम को विभिन्न व्यक्तियों तथा समुदायों के हित में अपने उत्तरदायित्व तथा उनकी समृद्धि के लिए अग्रसर रहना चाहिए।
1.10 व्यावसायिक जोखिम
व्यावसायिक जोखिम से आशय अपर्याप्त लाभ या फिर हानि होने की उस संभावना से है जो नियंत्रण से बाहर अनिश्चितताओं या आकस्मिक घटनाओं के कारण होती है। उदाहरणार्थ- किसी वस्तु विशेष की माँग में कमी, उपभोक्ताओं की रुचि या प्राथमिकताओं में परिवर्तन या उसी प्रकार के उत्पाद बेचने वाली प्रतियोगी संस्थाओं में प्रतिस्पर्धा अधिक होने से लाभ में कमी, बाज़ार में कच्चे माल की कमी के कारण मूल्यों में वृद्धि आदि। जो फर्म एेसे कच्चे माल को उपयोग में ला रही हैं, उन्हें इसे क्रय करने के लिए अधिक राशि का भुगतान करना पड़ता है। परिणामतः लागत मूल्य बढ़ जाता है जिस कारण लाभ में कमी आ सकती है। व्यवसायों को निश्चित रूप से दो प्रकार के जोखिमों का सामना करना पड़ता है-अनिश्चित जोखिम और शुद्ध जोखिम। अनिश्चित जोखिमों में दोनों संभावनाएँ विद्यमान होती हैं- लाभ की भी तथा हानि की भी। संदिग्ध हानियाँ, बाज़ार की दशा जिसमें माँग व पूर्ति में उतार-चढ़ाव शामिल हैं तथा इस कारण मूल्यों में आए परिवर्तन से या ग्राहकों की रुचि या फैशन में परिवर्तन होने के कारण होती हैं। यदि बाज़ार की दशा व्यवसाय के पक्ष में है तो लाभ हो सकता है। दशा विपरीत होने की अवस्था में हानि की संभावना रहती है। शुद्ध हानियों में या तो हानि होगी अथवा हानि नहीं होगी। आग लगना, चोरी होना या हड़ताल होना, शुद्ध हानियों के उदाहरण हैं। यदि ये घटनाएँ घटित होती हैं तो हानि होगी तथा इन घटनाओं के घटित न होने पर हानि नहीं होगी।
1.10.1 व्यावसायिक जोखिमों की प्रकृति
व्यावसायिक जोखिमों को समझने के लिए इनकी विशिष्ट विशेषताओं का ज्ञान आवश्यक है-
(क) व्यावसायिक जोखिम अनिश्चितताओं के कारण होते हैं- अनिश्चितता से तात्पर्य भविष्य में होने वाली घटनाओं की अनभिज्ञता से है। प्राकृतिक आपदाएँ, माँग और मूल्य में परिवर्तन, सरकारी नीति में परिवर्तन, तकनीक में सुधार आदि एेसे उदाहरण हैं जिनसे अनिश्चितता बनी रहती है, ये परिवर्तन व्यवसाय के लिए जोखिम के कारण हो सकते हैं। इन कारणों का पहले से ज्ञान नहीं हो सकता है।
(ख) जोखिम प्रत्येक व्यवसाय का आवश्यक अंग होता है- प्रत्येक व्यवसाय में जोखिम होता है। कोई भी व्यवसाय इससे अछूता नहीं है। यद्यपि व्यवसाय में हानि की मात्रा भिन्न हो सकती है। जोखिम को कम किया जा सकता है, लेकिन समाप्त नहीं किया जा सकता।
(ग) जोखिम की मात्रा मुख्यतः व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार पर निर्भर करती है- व्यवसाय की प्रकृति (उत्पादित एवं विक्रित वस्तुओं और सेवाओं के प्रकार) तथा व्यवसाय का आकार (उत्पादन एवं विक्रय की मात्रा) मुख्य घटक हैं, जो व्यवसाय में जोखिम की मात्रा का निर्धारण करते हैं। उदाहरणार्थ- जो व्यवसाय फैशन की चीज़ों में लेन-देन करते हैं, उनमें जोखिम की मात्रा अधिक होती है। उसी प्रकार वृहद् स्तरीय व्यवसाय में लघु स्तरीय व्यवसाय की अपेक्षा जोखिम अधिक होता है।
(घ) जोखिम उठाने का प्रतिफल लाभ होता है- ‘जोखिम नहीं तो लाभ नहीं’ एक पुराना सिद्धांत है, जो सभी प्रकार के व्यवसायों में लागू होता है। किसी व्यवसाय में अधिक जोखिम होने पर लाभ अधिक होने का अवसर होता है। कोई भी उद्यमी भविष्य में अधिक लाभ पाने की लालसा में ही अधिक जोखिम उठाता है।
1.10.2 व्यावसायिक जोखिमों के कारण
व्यावसायिक जोखिमों के अनेकों कारण होते हैं, जिनको निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(क) प्राकृतिक कारण- प्राकृतिक आपदाएँ जैसे-बाढ़, भूचाल, बिजली गिरना, भारी वर्षा, अकाल आदि पर मनुष्य का लगभग नहीं के बराबर नियंत्रण है। व्यवसाय में इनसे संपत्ति एवं आय की भारी हानि हो सकती है।
(ख) मानवीय कारण- मानवीय कारणों में कर्मचारियों की बेईमानी, लापरवाही या अज्ञानता को सम्मिलित किया जा सकता है। बिजली फेल हो जाना, हड़ताल होना, प्रबंधकों की अकुशलता आदि भी मानवीय कारणों के उदाहरण हैं।
(ग) आर्थिक कारण- इन कारणों में माल की माँग में अनिश्चितता, प्रतिस्पर्धा, मूल्य, ग्राहकों से देय राशि, तकनीक में परिवर्तन या उत्पादन की विधि में परिवर्तन आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। वित्तीय समस्याओं में ऋण पर ब्याज दर में वृद्धि, करों की भारी उगाही आदि भी इस प्रकार के कारणों की श्रेणी में आते हैं। परिणामतः व्यवसाय संचालन लागत (व्यय) असंभावित रूप से अधिक हो जाती है।
(घ) अन्य कारण- इनमें अदृश्य घटनाएँ जैसे- राजनैतिक उथल-पुथल, मशीनों में खराबी, बॉयलर का फट जाना, मुद्रा विनिमय दर में उतार-उढ़ाव आदि हैं जिनके कारण व्यवसाय में जोखिमों की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।
1.11 व्यवसाय का आरंभ - मूल घटक
किसी व्यवसाय को प्रारंभ करना ठीक उसी प्रकार का काम है, जैसे मनुष्य विभिन्न संसाधनों का उपयोग कर अपने प्रयत्नों से किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करे। नए व्यवसाय की सफलता मुख्यतः उसके उद्यमी अथवा प्रवर्तक की इस योग्यता पर निर्भर करता है कि वह संभावित समस्याओं का पूर्वानुमान लगाने तथा कम से कम लागत में उनका समाधान करने में कितना सक्षम है। आज के व्यावसायिक जगत में यह इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा है और जोखिम भी अधिक है। कुछ समस्याएँ जिनसे व्यावसायिक फर्मों को जूझना ही पड़ता है, वे बुनियादी प्रकृति की हैं। एक फैक्ट्री खोलने के लिए उसकी योजना बनाने तथा उसके क्रियान्वयन में व्यवसाय का स्थान, संभावित ग्राहक, साजो-सामान तथा उनकी किस्में, विन्यास, क्रय तथा वित्तीय समस्याएँ तथा कर्मचारियों के चयन आदि समस्याओं का ध्यान रखना। बड़े व्यवसाय में समस्याएँ और भी अधिक जटिल हो जाती हैं, फिर भी कुछ मूल घटक एेसे हैं जिनका किसी व्यवसायी को व्यवसाय प्रारम्भ करते समय ध्यान रखना चाहिए। ये निम्नलिखित हैं-
जोखिमों से व्यवहार की विधियाँ
यद्यपि कोई भी व्यावसायिक उद्यम जोखिम से बचा हुआ नहीं है फिर भी बहुत सी एेसी विधियाँ जिनके द्वारा जोखिम भरी परिस्थितियों से आसानी से निबटा जा सकता है। उदाहरण के लिए- उद्यम द्वारा (अ) अति जोखिम भरे सौदों को न करना; (ब) जोखिम कम करने के लिए अग्निशमन उपकरणों का सुरक्षात्मक उपयोग; (स) जोखिम का बीमा कंपनी को हस्तांरण करने के लिए बीमा पॉलिसी क्रय करना; (द) चालू वर्ष की आय में कुछ संभावित जोखिमों के लिए आयोजन करना- जैसा कि डूबते एवं संदिग्ध ऋणों के लिए आयोजन; अथवा (य) अन्य उद्यमों से जोखिमों को आपस में बाँटना जैसे- उत्पादक तथा थोक व्यापारी द्वारा कीमतों के कम होने से हुई हानि को विभाजित करने के लिए सहमत होना।
(क) व्यवसाय के स्वरूप का चयन- किसी भी उद्यमी को नए व्यवसाय को प्रारंभ करने से पूर्व उसकी प्रकृति तथा प्रकार पर ध्यान देना चाहिए। स्वतः ही वह उस प्रकार के उद्योग या सेवा को चुनना पसंद करेगा जिसमें अधिक लाभ अर्जित करने की आशा हो, लेकिन यह निर्णय बाज़ार में ग्राहकों की आवश्यकता तथा उद्यमी के तकनीकी ज्ञान एवं उत्पाद विशेष के निर्माण में उसकी रुचि से प्रभावित होगा।
(ख) फर्म का आकार- व्यवसाय आरम्भ करते समय व्यवसाय का आकार या उसका विस्तार, एेसा दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए। कुछ घटक बड़े आकार के पक्ष में होते हैं, तो अन्य उसे सीमित रखने के पक्ष में। यदि उद्यमी को यह विश्वास हो कि उसके उत्पाद की माँग बाज़ार में अच्छी होगी तथा वह व्यवसाय के लिए आवश्यक पूँजी का प्रबंध कर सकता है तो वह बड़े पैमाने पर व्यवसाय प्रारंभ करेगा। यदि बाज़ार की दशा अनिश्चित है तथा जोखिम अत्यधिक है तो छोटे पैमाने का व्यवसाय ही बेहतर रहेगा।
(ग) स्वामित्व के स्वरूप का चुनाव- स्वामित्व के संबंध में संगठन का रूप एकाकी व्यापार, साझेदारी या संयुक्त पूँजी कंपनी का हो सकता है। उपयुक्त स्वामित्व स्वरूप का चुनाव पूँजी की आवश्यकता, स्वामियों के दायित्व, लाभ के विभाजन, विधिक औपचारिकताएँ, व्यवसाय की निरंतरता, हित-हस्तांतरण आदि पर निर्भर करेगा।
(घ) उद्यम का स्थान- व्यवसाय प्रारंभ करते समय ध्यान में रखने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है वह स्थान, जहाँ व्यावसायिक क्रियाओं का संचालन होगा। इसके संबंध में किसी भी त्रुटि का परिणाम ऊँची उत्पादन लागत, उचित प्रकार के उत्पादन निवेशों की प्राप्ति से असुविधा तथा ग्राहकों को अच्छी सेवा देने में कठिनाई के रूप में होगा। उद्यम के स्थान का चुनाव करने में कच्चे माल की उपलब्धि, श्रम, बिजली आपूर्ति, बैंकिंग, यातायात, संप्रेषण, भंडारण आदि महत्वपूर्ण विचारणीय घटक हैं।
(ङ) प्रस्थापन की वित्त व्यवस्था- वित्त व्यवस्था से अभिप्राय प्रस्तावित व्यवसाय को प्रारंभ करने तथा उसकी निरंतरता के लिए आवश्यक पूँजी की व्यवस्था करना है। पूँजी की आवश्यकता स्थायी संपत्तियों, जैसे- भूमि, भवन, मशीनरी तथा साजो-सामान तथा चालू संपत्तियों, जैसे- कच्चा माल, देनदार (पुस्तक ऋण), तैयार माल का स्टॉक आदि में निवेश करने के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है। दैनिक व्ययों का भुगतान करने के लिए भी पूंजी की आवश्यकता होती है। समुचित वित्तीय योजना-(i) पूँजी की आवश्यकता; (ii) स्रोत, जहाँ से पूँजी प्राप्त हो सकेगी; तथा (iii) फर्म में पूँजी के सर्वोत्तम उपयोग की निश्चित रूपरेखा बनाई जानी चाहिए।
(च) भौतिक सुविधाएँ- व्यवसाय प्रारंभ करते समय भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि का भी ध्यान रखना चाहिए, जिसमें मशीन तथा साजो-सामान, भवन एवं सहायक सेवाएँ शामिल हैं। महत्वपूर्ण घटक का निर्णय व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार-वित्त की उपलब्धता तथा उत्पादन प्रक्रिया पर निर्भर करेगा।
(छ) संयंत्र अभिन्यास (प्लांट लेआउट)- जब भौतिक सुविधाओं की आवश्यकताएँ निश्चित हो जाएँ, तो उद्यमी को संयंत्र का एेसा नक्शा बनाना चाहिए, जिसमें सभी आवश्यक सुविधाएँ शामिल हों। अभिन्यास (नक्शा) से आशय प्रत्येक उस वस्तु की व्यवस्था करने से है, जो किसी उत्पाद के निर्माण के लिए आवश्यक हो, जैसे- मशीन, मानव, कच्चा माल तथा निर्मित माल की भौतिक व्यवस्था।
(ज) सक्षम एवं वचनबद्ध कामगार बल- प्रत्येक उद्यम को विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए सक्षम एवं वचनबद्ध कामगार बल की आवश्यकता होती है ताकि भौतिक तथा वित्तीय संसाधनों को वांछित उत्पाद में परिवर्तित किया जा सके। कोई भी उद्यमी सभी कार्यों को स्वयं नहीं कर सकता, अतः उसे कुशल और अकुशल श्रमिकों तथा प्रबंधकीय कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पहचानना चाहिए। कर्मचारी अपने कार्य श्रेष्ठ तरीके से कर सकें, इसके लिए प्रशिक्षण तथा उत्प्रेरण की समुचित व्यवस्था भी करनी होगी।
(झ) कर संबंधी योजना- आजकल कर संबंधी योजना एक आवश्यक कार्य बन गया है क्योंकि विविध कानून व्यवसाय की कार्यविधि के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करते हैं। व्यवसाय के प्रवर्तक को विभिन्न कर कानूनों के अंतर्गत कर दायित्व तथा व्यावसायिक निर्णयों पर उनके प्रभाव के संबंध में पहले से सोचकर चलना चाहिए।
(ण) उद्यम प्रवर्तन- उपरोक्त घटकों के विषय में निर्णय लेने के उपरांत, एक उद्यमी एक उद्यम के वास्तविक प्रवर्तन के लिए कार्यवाही कर सकता है। इसका तात्पर्य विभिन्न संसाधनों को गतिशीलता प्रदान करना, आवश्यक कानूनी औपचारिकताओं की पूर्ति करना, उत्पादन प्रक्रिया आरंभ करना तथा विक्रय प्रवर्तन अभियान को प्रोत्साहन देना होगा।
मुख्य शब्दावली
आर्थिक क्रियाएँ उद्योग जोखिम व्यवसाय
व्यापार पेशा वाणिज्य रोज़गार
लाभ
सारांश
व्यवसाय की अवधारणा तथा विशेषताएँ-
व्यवसाय से आशय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनमें समाज में मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं और सेवाओं का सृजन एवं विक्रय किया जाता है। इसकी विशिष्ट विशेषताएँ हैं- 1. आर्थिक क्रिया; 2. वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन एवं प्राप्ति; 3. मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विक्रय एवं विनिमय; 4. नियमित रूप से वस्तुओं और सेवाओं का लेन-देन; 5. लाभ अर्जन; 6. प्रतिफल की अनिश्चितता एवं; 7. जोखिम के तत्व।
व्यवसाय, पेशा तथा रोजगार में तुलना-
व्यवसाय का अभिप्राय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनका संबंध लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं का उत्पादन, या क्रय-विक्रय, या सेवाओं की पूर्ति से हो। पेशे में वे क्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनमें विशेष ज्ञान व दक्षता की आवश्यकता होती है और व्यक्ति इनका प्रयोग अपने धंधे में करता है। रोज़गार का अभिप्राय उन धंधों से है, जिनमें लोग नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। इन तीनों की तुलना स्थापना की विधि, कार्य की प्रकृति, आवश्यक योग्यता, पुरस्कार या प्रतिफल, पूँजी विनियोजन, जोखिम, हित हस्तांतरण तथा आचार संहिता के आधार पर किया जाता सकता है।
व्यावसायिक क्रियाओं का वर्गीकरण-
व्यावसायिक क्रियाओं को दो विस्तृत वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- उद्योग और वाणिज्य। उद्योग से तात्पर्य वस्तुओं एवं पदार्थों का उत्पादन अथवा संशोधित करना है। उद्योग प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक सेवा उद्योग हो सकते हैं। प्राथमिक उद्योगों में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनका संबंध प्राकृतिक संसाधनों के खनन एवं उत्पादन तथा पशु एवं वनस्पति के विकास से है। प्राथमिक उद्योग निष्कर्षण (जैसे- खनन) अथवा जननिक (जैसे- मुर्गी पालन) प्रकार के हैं। द्वितीयक या माध्यमिक उद्योगों में निष्कर्षण उद्योगों द्वारा निष्कर्षित माल को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है। ये उद्योग विनिर्माणी या रचनात्मक कहलाते हैं। विर्निर्माणी उद्योगों को विश्लेषणात्मक, कृत्रिम प्रक्रिया तथा व्यवस्थित के रूप में विभाजित किया जा सकता है। तृतीयक या सेवा उद्योग प्राथमिक तथा द्वितीयक उद्योगों को सहायक सेवाएँ सुलभ कराने में संलग्न रहते हैं तथा व्यापार संबंधित कार्यों में भी सहायता करते हैं।
वाणिज्य से तात्पर्य व्यापार और व्यापार की सहायक क्रियाओं से है। व्यापार का संबंध वस्तुओं के विक्रय, हस्तांतरण अथवा विनिमय से है। उसको आंतरिक (देशीय) तथा बाह्य (विदेशी) व्यापार के रूप में विभाजित किया जाता है। आंतरिक व्यापार को पुनः थोक व्यापार या फुटकर व्यापार में विभाजित किया जाता है। एक अन्य विभाजन बाह्य व्यापार, आयात, निर्यात अथवा पुनर्निर्यात व्यापार के रूप में भी हो सकता है। व्यापार की सहायक क्रियाएँ वे हैं, जो व्यापार को सहायता प्रदान करती हैं। इनमें परिवहन तथा संचार, बैंकिंग एवं वित्त, बीमा, भंडारण तथा विज्ञापन सम्मिलित हैं।
व्यवसाय के उद्देश्य- यद्यपि केवल लाभ कमाना ही व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य समझा जाता है। व्यवसाय के लिए उद्देश्यों की आवश्यकता प्रत्येक उस क्षेत्र में होती है, जो निष्पादन परिणाम व्यवसाय के जीवन और समृद्धि को प्रभावित करते हैं। उद्देश्यों में से कुछ हैं- क्षेत्र बाज़ार स्थिति, नवप्रवर्तन, उत्पादकता, भौतिक एवं वित्तीय संसाधन, लाभार्जन, प्रबंध निष्पादन एवं विकास, कर्मचारी निष्पादन एवं अभिवृत्ति तथा सामाजिक उत्तरदायित्व।
व्यावसायिक जोखिम- व्यावसायिक जोखिमों से आशय अपर्याप्त लाभ या फिर हानि होने की संभावना से है, जो अनिश्चितताओं या असंभावित घटनाओं के कारण होती है। इनकी प्रकृति को इनकी विशिष्ट विशेषताओं की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है, जो निम्न हैं-
1. व्यावसायिक जोखिम अनिश्चितताओं के कारण होते हैं;
2. जोखिम प्रत्येक व्यवसाय का अंग होता है;
3. जोखिम की मात्रा मुख्यतः व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार पर निर्भर करती है; तथा
4. जोखिम उठाने का प्रतिफल लाभ होता है;
व्यावसायिक जोखिमों के अनेकों कारण होते हैं, जिनको निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है, जैसे– प्राकृतिक, मानवीय, आर्थिक तथा अन्य कारण।
व्यवसाय का आरंभ- मूल घटक जिनका एक व्यवसायी को जो एक व्यवसाय प्रारंभ करने के पूर्व ध्यान में रखना चाहिए, वे व्यवसाय के स्वरूप का चयन, फर्म का आकार, स्वामित्व के रूप का चुनाव, उद्यम का स्थान, वित्त व्यवस्था प्रस्तावना, भौतिक सुविधाएँ, संयंत्र अभिन्यास तथा वचनबद्ध कामगार बल का आयोजन तथा उद्यम प्रवर्तन हो सकते हैं।
अभ्यास
बहु-विकल्पीय प्रश्न
1. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया व्यावसायिक गतिविधि का चरित्र-चित्रण नहीं करती है?
(क) वस्तुओं एवं सेवाओं का सृजन
(ख) जोखिम की विद्यमानता
(ग) वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री अथवा विनिमय
(घ) वेतन अथवा मज़दूरी
2. तेल शोधक कारखाने तथा चीनी मिलें किस उद्योग की विस्तृत श्रेणी में आते हैं?
(क) प्राथमिक (ख) द्वितीयक
(ग) तृतीयक (घ) किसी में नहीं
3. निम्नलिखित में से किसे व्यापार के सहायक की श्रेणी में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता?
(क) खनन (ख) बीमा
(ग) भंडारण (घ) यातायात
4. एेसे धंधे को किस नाम से पुकारते हैं जिसमें लोग नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं-
(क) व्यवसाय (ख) रोज़गार
(ग) पेशा (घ) इनमें से कोई नहीं
5. एेसे उद्योगों को क्या कहते हैं, जो दूसरे उद्योगों को समर्थन सेवा सुलभ करते हैं-
(क) प्राथमिक उद्योग (ख) द्वितीयक उद्योग
(ग) तृतीयक उद्योग (घ) इनमें से कोई नहीं
6. निम्नलिखित में से किसको व्यावसायिक उद्देश्य की श्रेणी में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता-
(क) विनियोग (ख) उत्पादकता
(ग) नवप्रवर्तन (घ) लाभदायकता
7. व्यावसायिक जोखिम होने की संभावना नहीं होती है-
(क) सरकारी नीति में परिवर्तन से (ख) अच्छे प्रबंध से
(ग) कर्मचारियों की बेईमानी से (घ) बिजली गुल होने से
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ बताइए।
2. व्यवसाय को एक आर्थिक क्रिया क्यों समझा जाता है?
3. व्यवसाय का अर्थ बताइए?
4. व्यावसायिक क्रियाकलापों को आप कैसे वर्गीकृत करेंगे?
5. उद्योगों के विभिन्न प्रकार क्या हैं?
6. एेसी किन्हीं दो व्यावसायिक क्रियाओं को स्पष्ट कीजिए जो व्यापार की सहायक होती हैं।
7. व्यवसाय में लाभ की क्या भूमिका होती है?
8. व्यावसायिक जोखिम क्या होता है? इसकी प्रकृति क्या है?
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. व्यवसाय को परिभाषित कीजिए। इसकी महत्वपूर्ण विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
2. व्यवसाय की तुलना पेशा तथा रोज़गार से कीजिए।
3. उद्योग को परिभाषित कीजिए। विभिन्न प्रकार के उद्योगों को उदाहरण सहित समझाइए।
4. वाणिज्य से संबंधित क्रियाओं का वर्णन कीजिए।
5. व्यवसाय के किन्हीं पाँच उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए।
6. व्यावसायिक जोखिमों की अवधारणा को समझाइए तथा इनके कारणों को भी स्पष्ट कीजिए।
7. कोई व्यवसाय प्रारंभ करते समय कौन-कौन से महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखना चाहिए? समझाकर लिखिए।
परियोजना कार्य/क्रियाकलाप
1. अपने आस-पास किसी व्यावसायिक इकाई का दौरा कीजिए। व्यवसाय प्रारम्भ करने के चरणों को जानने हेतु स्वामी से वार्तालाप कीजिए। अपने दौरे की परियोजना रिपोर्ट तैयार कीजिए।
2. भारतीय अर्थव्यवस्था के किन्हीं पाँच क्षेत्रों का चयन करें जिन पर ‘मेक इन इंडिया’ केंद्रित है। चयनित क्षेत्रों पर गत दो वर्षों में निवेशित धनराशि की सूचना एकत्रित करें, साथ ही उन सम्भावित कारणों को लिखें जिनसे इन चयनित क्षेत्रों में निवेशकों का रुझान रहा है।
अपनी रिपोर्ट को नीचे दिए गए प्रारूप के अनुसार तैयार करें-
क्षेत्र | प्रथम वर्ष में निवेश | द्वितीय वर्ष में निवेश | परिवर्तन के मुख्य कारण |