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अध्याय 9

लघु व्यवसाय एवं उद्यमिता



अधिगम उद्देश्य

इस अध्याय के अध्ययन के पश्चात् आप-

• लघु व्यवसाय के अर्थ तथा उसकी प्रकृति की व्याख्या कर सकेंगे।

• भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका की व्याख्या कर सकेंगे।

• उद्यमिता एवं प्रबंधन में अंतर तथा उद्यमिता के लक्षणों का विवेचन कर सकेंगे।

• उद्यमिता विकास की प्रक्रिया को अनुसरित करके उसे स्पष्ट कर सकेंगे।

• प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार का वर्णन कर सकेंगे।



मणिपुर के ‘रोमी बैग्स’ की कहानी

खुम्बोंगमयूम धनचन्द सिंह के जीवन में कुछ अधिक नहीं था। वह एक निर्धन दर्जी का बेटा था। उसने देखा कि उसके पिता अत्य‍ल्प आय अर्जित करने हेतु दिन-रात कार्यरत रहते हैं। उसने देखा कि धनी व्यक्ति तो और अधिक धनवान हो रहे हैं किन्तु निर्धन व्यक्ति निर्धन ही रह जाते हैं। वह लड़का जीवन में कुछ और करना चाहता था। वह निरंतर कपड़े सिलते रहना और अपने गुजारे हेतु केवल पर्याप्त आय अर्जित करके जीवन यापन के बारे में नहीं सोच सकता था। इम्फाल एक छोटा शहर है। कड़ी मेहनत करने वाले पुरुष तथा महिलाएँ अपने बच्चों को दूर के बड़े शहरों में भेजते हैं ताकि उन्हें प्रगति के अवसर मिल सकें। खुम्बोंगमयूम के पिता उसे भेजने अथवा उसकी शिक्षा का खर्च नहीं जुटा सके थे। उसे उन्होंने केवल वही सीखाया, जो वे स्वयं जानते थे - सिलाई। वह लड़का वस्त्र, सिलाई तथा विभिन्न परिधानों को देखते हुए बड़ा हुआ था। वहाँ केवल एक सिलाई मशीन थी, जिसे वह तब प्रयोग करता था, जब उसके पिता उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे होते थे। उसने इसे सीखा। परन्तु उसका मन इसमें नहीं लगता था।

कभी-कभी कोई घटना आपके जीवन में परिवर्तन ला सकती है। एेसा ही खुम्बोंगमयूम के साथ हुआ; जब उसने अपने पिता के बचे-खुचे कपड़ों के टुकड़ों से एक बटुआ सिल दिया। खुम्बोंगमयूम ने वह बटुआ अपने मित्र को भेंट कर दिया जो उसकी अनूठी अभिकल्पना पर आश्चर्यचकित हो गया। उस मित्र ने वह दिलचस्प बटुआ बारी-बारी से अन्य मित्रों को दिखाया। उन्होंने खुम्बोंगमयूम से पूछा कि क्या वह उनके लिए एेसे बटुए बना सकता है। इससे वह यह जानने को उत्सुक हो गया कि क्या उसकी अभिकल्पनाओं हेतु कोई बाजार हो सकता था और उसने जान लिया कि वह अप्रत्या‍शित रूप से अपने व्यवसाय उपक्रम की ओर चल पड़ा है। उसने एक व्यवसाय योजना बनायी तथा 1996 में ‘रोमी बैग्स’ नाम से बटुए बनाने वाली कंपनी प्रारम्भ की। खुम्बोंगमयूम एेसा व्यक्ति नहीं था जो अपनी मस्ती‍ के लिए कुछ भी करे। उसने अपने उत्पाद की मांग पर विचार किया तथा उसकी लागत, खर्च एवं अपेक्षित आय परिकलित कीं। उसने निंदकों एवं आलोचकों को नजरअंदाज किया। चूँकि वह पहली बार उद्यमी बना था, इसलिए उसे जो भी सामग्री मिली, उसकी गुणवत्ता पर विश्वास किया। यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी। निर्माण के लिए सामग्री की सस्ती किस्म उपभोक्ताओं द्वारा खारिज कर दी गई। माल वापस आने लगा तथा कारखाने में ढेर लगा रहने लगा। खुम्बोंगमयूम ने इस प्रकार अपना पहला सबक सीखा। वर्ष 2007 में उसने सूक्ष्म एवं मध्यम उपक्रमों हेतु ‘थैला निर्माण’ में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया। यद्यपि उसके लिए यह केवल एक शुरूआत थी। खुम्बोेंगमयूम धनचन्द्र सिंह ने नितान्त धैर्य, लगन तथा परिश्रम से अपना जीवन परिवर्तित कर लिया। आपको आगे बढ़ने से रोकने वाली किसी भी बाधा को नहीं आने देना चाहिए। वह विश्वास करता है कि सफलता हेतु कोई सरल मार्ग नहीं है।


9.1 प्रस्तावना

छोटे पैमाने के उद्योग, विकास प्रकिया में उल्लेखनीय योगदान देते हैं तथा उद्यमी आधार का विस्तार और स्थानीय कच्चे माल एवं स्वदेशी कौशल के प्रयोग द्वारा उत्पादन, रोजगार तथा औद्योगिकीकरण में महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। छोटे पैमाने के उद्योग, काफी बड़ी श्रम शक्ति तथा अद्भुत निर्यात संभावना के साथ देश के औद्योगिक परिदृश्य में अपना वर्चस्व रखते हैं।

भारत में ‘ग्रामीण एवं लघु उद्योग क्षेत्र’ में ‘परंपरागत’ तथा ‘आधुनिक’ लघु उद्योग, दोनों सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र के आठ उपसमूह हैं। ये हैं - हथकरघा, हस्तशिल्प, नारियल की जटा, रेशम उत्पादन, खादी एवं ग्रामोद्योग एवं छोटे पैमाने के उद्योग के अंतर्गत आते हैं जबकि अन्य परंपरागत उद्योगों के अंतर्गत आते हैं। ग्रामीण एवं लघु उद्योग मिलकर भारत में रोजगार के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध कराते हैं।


9.2 लघु व्यवसाय के प्रकार

यह जानना महत्वपूर्ण है कि लघु उद्योगों तथा लघु व्यवसाय प्रतिष्ठानों के संदर्भ में आकार को हमारे देश में किस प्रकार परिभाषित किया गया है। व्यवसाय इकाइयों के आकार को मापने हेतु कई मापदंड प्रयुक्त किये जा सकते हैं। इनमें व्यवसाय में नियुक्त व्यक्ति, व्यवसाय में विनियोजित पूँजी, उत्पादन की मात्रा अथवा व्यवसाय के उत्पादन का मूल्य तथा व्यवसाय क्रियाओं हेतु प्रयुक्त की गई ऊर्जा सम्मिलित है। यद्यपि, एेसा कोई मापदण्ड‍ नहीं है जिसकी सीमाएँ न हों। आवश्यकताओं के आधार पर पैमाने बदल सकते हैं।

लघु उद्योगों को विवेचित करने हेतु भारत सरकार द्वारा प्रयुक्त की गई परिभाषा संयंत्र एवं मशीनरी पर आधारित है। यह पैमाना भारत, जहाँ पूँजी कम तथा श्रम की प्रचुरता है, के सामाजिक-आर्थिक वातावरण को ध्यान में रखता है।

बड़े सेवा क्षेत्र के आविर्भाव ने सरकार को विवश किया कि वह अन्य उद्यमों, जिनमें छोटे पैमाने के उद्योगों तथा संबंधित सेवा इकाइयों को एक ही छत्र के अंतर्गत लाया जाए। छोटे पैमाने के उपक्रम अपने विस्तार होने के साथ-साथ मध्यम पैमाने के उपक्रमों में बदल गए तथा तेजी से वैश्वीकृत होती दुनिया की प्रतिस्‍पर्द्धा में टिके रहने हेतु उन्हें उच्च स्तर की प्रौद्योगिकी की आवश्यकता थी। इसलिए एेसे सूक्ष्म, लघु तथा मध्य‍म उपक्रमों के कामों पर ध्यान देना एवं उन्हें एक एकल कानूनी संरचना उपलब्ध कराना आवश्यक था। सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उपक्रम विकास अधिनियम, 2006, परिभाषा, साख, विपणन तथा प्रौद्योगिकी के स्तरोन्नयन पर ध्यान देता है। मध्यम पैमाने के उपक्रम विकास अधिनियम, 2006, अक्टू्बर 2006 से प्रभावी हुआ। तद्नुसार उपक्रमों को दो मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है - निर्माण तथा सेवाएँ।

9.2.1 निर्माण

उद्योग (विकास तथा विनियमन) अधिनियम, 1951 की प्रथम अनुसूची में विशिष्टीकृत किसी उद्योग से संबंधित वस्तुओं के निर्माण अथवा उत्पादन में संलग्न उपक्रमों के मामले में, उपक्रमों के तीन प्रकार होते हैं-

(क) सूक्ष्म उपक्रम- जिनमें संयंत्र एवं मशीनरी में 25 लाख रुपये से अधिक का विनियोग न हो।

(ख) लघु उपक्रम- जिनमें संयंत्र एवं मशीनरी में विनियोग 25 लाख रुपये से अधिक हो परंतु 5 करोड़ रुपये से अधिक न हो।

(ग) मध्यम उपक्रम-जिनमें संयंत्र एवं मशीनरी में निवेश 5 करोड़ रुपये से अधिक हो परंतु 10 करोड़ रुपये से अधिक न हो।

9.2.2 सेवाएँ

सेवाएँ उपलब्ध कराने में संलग्न उपक्रम तीन प्रकार के होते हैं-

(क) सूक्ष्म उपक्रम- जिनमें उपकरणों में 10 लाख रुपये से अधिक का विनियोग न हो।

(ख) लघु उपक्रम- जिनमें उपकरणों में विनियोग 10 लाख रुपये से अधिक हो परंतु 2 करोड़ रुपये से अधिक न हो।

(ग) मध्यम उपक्रम- जिनमें उपकरणों में विनियोग 2 करोड़ रुपये से अधिक हो परंतु 5 करोड़ से अधिक न हो।

9.2.3 ग्रामीण उद्योग

ग्रामीण उद्योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- विद्युत ऊर्जा प्रयोग करने वाला अथवा न करने वाला, ग्रामीण क्षेत्र में स्थित कोई उद्योग जो किसी वस्तु का उत्पादन करता है, कोई सेवा उपलब्ध कराता है तथा जिसमें केन्द्रीय सरकार द्वारा समय-समय पर विनिर्दिष्ट प्रति व्यक्ति अथवा प्रति कर्मचारी स्थायी पूँजी में निवेश हो।

9.2.4 कुटीर उद्योग

कुटीर उद्योगों को ग्रामीण उद्योग अथवा परंपरागत उद्योग भी कहा जाता है। छोटे पैमाने के अन्य उद्योगों की तरह इन्हें पूँजी निवेश कसौटी द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है। यद्यपि निम्न‍लिखित विशेषताओं द्वारा कुटीर उद्योगों को समझा जा सकता है-

(क) ये व्यक्तियों द्वारा अपने निजी संसाधनों से संगठित किए जाते हैं।

(ख) सामान्यतः परिवार के सदस्यों के श्रम तथा स्थानीय रूप से उपलब्ध प्रतिभा का प्रयोग होता है।

(ग) सरल उपकरण प्रयुक्त होते हैं।

(घ) पूँजी निवेश कम होता है।

(ङ) ये सामान्यतः अपने ही परिसरों में सरल उत्पादों का उत्पादन करते हैं।

(च) ये स्वदेशी प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके वस्तुओं का उत्पादन करते हैं।


9.3 भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका

देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में अपने योगदान के कारण छोटे पैमाने के उद्योग भारत में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। निम्नलिखित बिन्दु उनके योगदान को उजागर करते हैं-

(क) हमारे देश के संतुलित क्षेत्रीय विकास में लघु उद्योगों का योगदान उल्लेखनीय है। भारत में लघु उद्योग देश की औद्योगिक इकाइयों का 95% हैं।

(ख) लघु उद्योग कृषि के बाद मानव संसाधनों के दूसरे सबसे बड़े नियोक्ता हैं। बड़े उद्योगों की तुलना में ये पूँजी की प्रत्येक इकाई के प्रति रोजगार के अधिक अवसर पैदा करते हैं। इसलिए इन्हें अधिक श्रम तथा कम पूँजी नियोग वाला माना जाता है। भारत जैसे प्रचुर श्रम वाले देश के लिए ये एक वरदान हैं।

(ग) हमारे देश में लघु उद्योग कई प्रकार के उत्पादों की आपूर्ति करते हैं जिनमें कई उपभोक्ता वस्तुएँ, सिले-सिलाए वस्त्र, हौजरी का सामान, स्टेशनरी का सामान, साबुन व डिटर्जेंट, घरेलू बर्तन, चमड़ा, प्लास्टिक व रबर का सामान, संसाधित खाद्य वस्तुएँ व सब्जियाँ इत्यादि सम्मिलित हैं। निर्मित की गई जटिल वस्तुओं में बिजली तथा इलेक्ट्रानिक सामान, जैसे- टेलीविजन, कैलकुलेटर, इलेक्ट्रो चिकित्सीय उपकरण, इलेक्ट्रानिक शिक्षण सहायक सामग्री, जैसे-ओवरहेड प्रोजेक्टकर, वातानुकूलन उपकरण,औषधियाँ, कृषि औजार व उपकरण तथा कई अन्य इंजीनियरिंग उत्पाद सम्मिलित हैं। हथकरघा, हस्तशिल्प तथा परंपरागत ग्रामोद्योग के निर्यात मूल्य को देखते हुए ये विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

(घ) लघु उद्योग, जो सरल प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके सरल उत्पादों का उत्पादन करते हैं तथा स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों (सामग्री तथा श्रम दोनों) पर निर्भर होते हैं, देश में कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं। चूँकि ये बिना किसी स्थानीय बाधा के दूर-दूर तक फैले होते हैं, इसलिए औद्योगिकीकरण के लाभ प्रत्येक क्षेत्र द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। अतः देश के औद्योगिक विकास में ये महत्वपूर्ण योगदान निभाते हैं।

(ङ) उद्यमिता के विकास में लघु उद्योग प्रचुर अवसर उपलब्ध कराते हैं। लोगों के अविकसित कौशलों व प्रतिभा को व्यवसाय विचार की ओर विनिर्दिष्ट किया जा सकता है तथा इन्हें एक लघु व्यवसाय प्रारंभ करने हेतु अत्यल्प पूँजी निवेश तथा लगभग शून्य औपचारिकताओं के साथ वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सकता है।

(च) उत्पादन की कम लागत का लाभ भी लघु उद्योगों को मिलता है। स्थानीय उपलब्ध संसाधन कम खर्चीले होते हैं। कम उपरिव्ययों के कारण लघु उद्योगों की स्थापना एवं परिचालन लागत भी कम होती है। वास्तव में लघु उद्योगों को उत्पादन की कम लागतों का लाभ मिलता है, जिससे उनकी प्रतिस्पर्द्धात्मक क्षमता में वृद्धि होती है।

(छ) संगठनों का आकार छोटा होने के कारण, कई लोगों से सलाह किए बिना ही त्वरित व समय पर निर्णय लिए जा सकते हैं, परंतु बड़े आकार के संगठनों में एेसा नहीं होता। सही समय पर नये व्यवसाय अवसरों को जीता जा सकता है।


9.4 ग्रामीण भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका

परंपरागत रूप से, विकासशील देशों में ग्रामीण परिवार केवल कृषि में व्यस्त रहते थे। इसका ज्वलंत प्रमाण यह है कि ग्रामीण परिवारों की आय विभिन्न प्रकार के कई स्रोतों से आती है तथा ग्रामीण परिवार खेती-बाड़ी व कृषि मजदूरी की परंपरागत ग्रामीण गतिविधियों के साथ-साथ वाणिज्य, निर्माण तथा सेवाओं में सवेतन रोज़गार व स्वरोज़गार जैसी कई प्रकार की गैर-कृषि गतिविधियों में भागीदार बन सकते हैं तथा बनते भी हैं। कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन एवं बढ़ावा देने हेतु भारत सरकार द्वारा प्रारंभ की गई नीति को इससे काफी सहायता मिल सकती है।

ग्रामीण एवं छोटे पैमाने के उद्योगों को महत्व देना भारत की औद्योगिक नीति का सदैव, विशेष रूप से द्वितीय पंचवर्षीय योजना के पश्चात् अनिवार्य अंग रहा है। कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में, विशेषतः परंपरागत दस्तकारों तथा समाज के कमजोर वर्गों हेतु, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्रामीण एवं लघु उद्योगों का विकास, ग्रामीण जनसंख्या के रोजगार की खोज में शहरी क्षेत्रों में प्रवासन को भी रोक सकता है।

उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादक तथा अधिशेष श्रम के अवशोषी होने के कारण ग्रामीण एवं लघु उद्योग काफी महत्वपूर्ण हैं। इनसे गरीबी तथा बेरोजगारी की समस्या दूर करने में भी सहायता मिलती है। ये उद्योग कई अन्य सामाजिक-आर्थिक पहलुओं में भी योगदान देते हैं, जैसे- आय की असमानता को कम करना, उद्योगों का अलग-अलग क्षेत्रों में विकास तथा अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से संयोजन।

वास्तव में, ‘त्वरित औद्योगिक संवृद्धि’ एवं ‘ग्रामीण व पिछड़े क्षेत्रों में अतिरिक्त उत्पादक रोजगार संभावनाएँ पैदा करना’ जैसे समरूप उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु छोटे पैमाने के उद्योगों को बढ़ावा देना तथा ग्रामीण औद्योगिकीकरण को भारत सरकार द्वारा एक शक्तिशाली माध्यम माना गया है।

यद्यपि, आकार से संबंधित कई समस्याओं के कारण लघु उद्योगों की संभावनाएँ पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं हुई हैं। अब हम कुछ एेसी समस्याओं को जानेंगे जिनका लघु व्यवसाय, चाहे ग्रामीण क्षेत्रों में हों अथवा शहरी, अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों में सामना करते हैं।


9.5 लघु व्यवसाय की समस्याएँ

बड़े पैमाने के उद्योगों की तुलना में छोटे पैमाने के उद्योग विशेष प्रतिकूल परिस्थितियों में हैं। इनमें से कुछ हैं- प्रचालनों का पैमाना, वित्त की उपलब्धता, आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने का सामर्थ्य एवं कच्चे माल की उपलब्धता। इससे कई समस्याओं को बढ़ावा मिलता है।

इनमें से अधिकांश समस्याएँ इनके व्यवसाय के छोटे आकार के कारण होती हैं, जो इन्हें वे फायदा उठाने से रोकती हैं, जो बड़े व्यवसाय संगठनों के हिस्से में आते हैं। यद्यपि, लघु व्यवसायों की सभी श्रेणियों के सामने आने वाली समस्याएँ समान नहीं होतीं। दृष्टांत रूप में, छोटी गौण इकाइयों के मामले में, मुख्‍य समस्या‍ओं में विलंबित भुगतान, मूल इकाइयों से आदेश प्राप्ति की अनिश्चितता एवं उत्पादन प्रक्रिया में बार-बार परिवर्तन होना सम्मिलित है। छोटे पैमाने की परंपरागत इकाइयों की समस्याओं में, कम विकसित आधारभूत संरचना संबंधी सुविधाओं वाले दूरवर्ती स्थान पर अवस्थिति, प्रबंधकीय प्रतिभा का अभाव, घटिया किस्म, परंपरागत प्रौद्योगिकी तथा वित्त की अपर्याप्त उपलब्धता सम्मिलित है।

छोटे पैमाने की निर्यातक इकाइयों में, विदेशी बाजारों की पर्याप्त जानकारी का अभाव, बाज़ार सूचना का अभाव, विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव, गुणवत्ता मानक तथा पूर्व-नौभार वित्त सम्मिलित हैं। लघु व्यवसाय सामान्यतः निम्नलिखित समस्याओं का सामना करते हैं-

(क) वित्त- अपने प्रचालनों को पूर्ण करने हेतु ‘पर्याप्त वित्त की अनुपलब्धता’ छोटे पैमाने के उद्योगों के सामने आने वाली गंभीर समस्याओं में से एक है।
सामान्यतः एक लघु व्यवसाय का प्रारंभ एक छोटे पूँजी आधार के साथ होता है। लघु क्षेत्र की कई इकाइयों में पूँजी बाजारों से पूँजी प्राप्त करने हेतु साख-पात्रता का अभाव होता है। परिणामस्वरूप, ये स्थानीय वित्तीय स्रोतों पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं तथा बार-बार साहूकारों द्वारा किये गये शोषण का शिकार बनते हैं। इन इकाइयों को बार-बार पर्याप्त कार्यशील पूँजी का अभाव सहना पड़ता है, चाहे उन्हें प्राप्त होने वाले भुगतानों में विलंब के कारण हो अथवा बिना बिके माल में पूँजी के अवरुद्ध होने के कारण हो। बैंक भी पर्याप्त समपार्श्विक प्रतिभूति अथवा गारंटी तथा अतिरिक्त राशि, जो इनमें से कई उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं होते, के बिना धन उधार नहीं देते।

(ख) कच्चा माल- कच्चे माल को प्राप्त करना लघु व्यवसाय की एक अन्य मुख्य समस्या है। यदि आवश्यक मात्रा में कच्चा माल उपलब्ध हो तो उन्हें गुणवत्ता के साथ समझौता करना पड़ता है अथवा अच्छी किस्म का माल प्राप्त करने हेतु अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है। इनके द्वारा क्रय किये जाने वाले माल की मात्रा कम होने के कारण इनकी सौदेबाजी करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। ये अधिक मात्रा में क्रय करने का जोखिम भी नहीं उठा पाते क्योंकि इनके पास माल के भंडारण की सुविधा नहीं होती। अर्थव्यवस्था में धातुओं, रसायनों तथा निष्कार्षिक कच्चे माल के अभाव के कारण छोटे पैमाने का क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित होता है। इसका तात्पर्य यह भी है कि अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता बर्बाद होती है तथा अन्य इकाइयों की भी हानि होती है।

(ग) प्रबन्धकीय कौशल- लघु व्यवसाय सामान्यतः एकल व्यक्ति द्वारा प्रारंभ तथा प्रचालित किया जाता है, जिसमें व्यवसाय चलाने हेतु आवश्यक समस्त प्रबन्धकीय कौशल नहीं होते। कई लघु व्यवसाय उद्यमियों के पास अच्छा तकनीकी ज्ञान होता है लेकिन उत्पादन के विपणन में वे कम सफल रहते हैं। इसके अतिरिक्त समस्त कार्यालय गतिविधियों हेतु इनके पास पर्याप्त समय भी नहीं होता। इसके साथ-साथ ये इस स्थिति में भी नहीं होते कि ये पेशेवर प्रबंधकों की सेवाएँ लेने का खर्च उठा सकें।

(घ) श्रम- लघु व्यवसाय फर्में कर्मचारियों को अधिक वेतन देने का खर्च वहन नहीं कर सकतीं, जिससे कर्मचारियों की कड़ी मेहनत तथा अधिक उत्पादन करने की इच्छाशक्ति प्रभावित होती है। इसलिए प्रति कर्मचारी उत्पादकता अपेक्षाकृत कम तथा कर्मचारी आवर्त सामान्यतः अधिक रहती है। लघु व्यवसाय संगठनों में कम पारिश्रमिक दिये जाने के कारण प्रतिभाशाली लोगों को आकर्षित करना एक मुख्य समस्या है। कम पारिश्रमिक हेतु अकुशल श्रमिक पदभार ग्रहण करते हैं परंतु उन्हें प्रशिक्षण देने की प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। और, बड़े संगठनों के विपरीत, इनमें श्रम-विभाजन को व्यवहार में नहीं लाया जा सकता, जिसके परिणामस्वरूप विशेषज्ञता एवं तन्मयता का अभाव रहता है।

(ङ) विपणन- विपणन सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रियाओं में से एक है क्योंकि इससे आगम उत्पन्न होता है। प्रभावी विपणन हेतु ग्राहकों की आवश्यकताओं तथा अपेक्षाओं की पूर्ण समझ का होना आवश्यक है। अधिकांश मामलों में विपणन, लघु संगठनों की एक कमजोर कड़ी है। इसलिए ये संगठन मध्य‍स्थों पर अत्यधिक निर्भर रहते हैं, जो कई बार कम मूल्य तथा विलंबित भुगतान द्वारा इनका शोषण करते हैं। इसके अतिरिक्त लघु व्यवसाय फर्मों द्वारा प्रत्यक्ष विपणन करना संभव नहीं हो पाता क्योंकि इनके पास आवश्यक आधारभूत सुविधाओं का अभाव होता है।

(च) गुणवत्ता- कई लघु व्यवसाय संगठन गुणवत्ता के वांछित मानकों का पालन नहीं करते। इसके बजाय ये लागत घटाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तथा मूल्यों को कम रखते हैं। गुणवत्ता शोध में निवेश हेतु तथा उद्योग के मानकों को बनाये रखने हेतु इनके पास न तो पर्याप्त साधन हैं और न ही प्रौद्योगिकी के उन्नयन हेतु दक्षता है। वास्तव में, वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्द्धा करते समय गुणवत्ता को बनाये रखना इनका निर्बलतम बिन्दु है।

(छ) क्षमता उपयोग- विपणन कौशल के अभाव अथवा माँग की कमी के कारण कई लघु व्यवसाय फर्मों को पूर्ण सामर्थ्य शक्ति से कम पर प्रचालन करना पड़ता है जिससे उनकी प्रचालन लागतें बढ़ जाती हैं। धीरे-धीरे यह व्यवसाय को रुग्णता तथा समापन की ओर ले जाता है।

(ज) प्रौद्योगिकी- लघु उद्योगों के मामले में अप्रचलित तकनीक के प्रयोग को प्रायः एक गंभीर कमी कहा जाता है। परिणामस्वरूप, निम्न उत्पादकता तथा अतिव्ययी उत्पादन होता है।

(झ) रुग्णता- लघु उद्योगों में रुग्णता की व्याकपकता, नीति निर्माताओं तथा उद्यमियों, दोनों के लिए एक चिंता का विषय बन चुकी है। रुग्णता के कारण आंतरिक एवं बाह्य दोनों हैं। आंतरिक समस्याओं में कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का अभाव और प्रबंधकीय व विपणन कौशल सम्मिलित है। कुछ बाह्य समस्याओं में विलंबित भुगतान, कार्यशील पूँजी का अभाव, अपर्याप्त ऋण तथा उनके उत्पादों की माँग का अभाव सम्मिलित है।

(ञ) वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा- उपरोक्त समस्याओं के अतिरिक्त लघु व्यवसाय, पूरी दुनिया के कई देशों द्वारा अपनायी जाने वाली उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियों के वर्तमान संदर्भ में, निर्भय नहीं हैं। स्मरण रहे कि भारत ने भी 1991 में उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण का मार्ग अपनाया था। आइए, उन क्षेत्रों पर एक नजर डालें, जहाँ वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के आक्रमण को लघु व्यवसाय चेतावनी के रूप में महसूस करता है-

(अ) प्रतिस्पर्द्धा केवल मध्यम एवं बड़े उद्योगों से नहीं है, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों से भी है जो अपने आकार तथा व्यवसाय की मात्रा की दृष्टि से अति-विशाल हैं। छोटे पैमाने की इकाइयों के व्यापार प्रारंभ करते ही गला काट प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती है।

(ब) बड़े उद्योगों तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुणवत्ता मानकों, तकनीकी कौशलों,वित्तीय साख क्षमता, प्रबंधकीय एवं विपणन क्षमताओं के सामने टिक पाना कठिन होता है।

(स) ISO 9000 जैसे गुणवत्ता प्रमाणन की सख्त अपेक्षाओं के कारण विकसित देशों के बाजारों तक इनकी सीमित पहुँच है।


9.6 लघु व्यवसाय इकाइयों को सरकारी सहायता

रोजगार निर्माण, देश के संतुलित क्षेत्रीय विकास तथा निर्यात की वृद्धि में लघु व्यवसाय के योगदान को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार की नीतियों ने लघु व्यवसाय क्षेत्र, विशेषतः ग्रामीण उद्योगों एवं पिछड़े क्षेत्रों में कुटीर व ग्रामीण उद्योगों की स्थापना वृद्धि तथा विकास पर बल दिया है। आधारभूत संरचना, वित्त, प्रौद्योगिकी, प्रशिक्षण, कच्चा माल तथा विपणन के संबंध में सहायता उपलब्ध कराकर केन्द्र तथा राज्य, दोनों स्तर पर सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार के अवसरों को बढ़ावा देने में सक्रिय रूप से भाग लिया है। ग्रामीण उद्योगों के विकास हेतु सरकारी सहायता की विभिन्न नीतियाँ तथा योजनाएँ स्थानीय संसाधनों, कच्चे माल तथा स्थानीय रूप से उपलब्ध मानवशक्ति के उपयोग पर बल देती हैं। ये सब विभिन्न अभिकरणों, विभागों, निगमों इत्यादि, जो सब उद्योग विभाग की सीमा के अंतर्गत आते हैं, के माध्यम से क्रिया में अनुदित की जाती हैं। ये सब मुख्यतः लघु एवं ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देने से संबंधित हैं।

लघु एवं ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देने हेतु लागू किए गए कुछ प्रोत्साहन व कार्यक्रम निम्नलिखित हैं-

1. राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड)

एकीकृत ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने हेतु 1982 में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण बैंक स्थापित किया गया था। कृषि के साथ-साथ ये लघु उद्योगों, कुटीर एवं ग्रामीण उद्योगों तथा दस्तकारों (साख का प्रयोग करने वाले तथा न करने वाले) की सहायता करता है। ये सलाह एवं परामर्श सेवाएँ उपलब्ध कराता है तथा ग्रामीण उद्यमियों हेतु शिक्षण एवं विकास कार्यक्रम आयोजित करता है।

2. ग्रामीण लघु व्यवसाय विकास केन्द्र (आर.एस.बी.डी.सी.)

ग्रामीण लघु व्यवसाय विकास केन्द्र नाबार्ड द्वारा प्रायोजित है। यह सामाजिक तथा आर्थिक अलाभप्रद व्यक्तियों एवं समूहों की भलाई हेतु कार्य करता है। अपने कार्यक्रमों के माध्यम से ये विभिन्न व्यापारों, जिनमें खाद्य प्रसंस्करण, सौम्य खिलौने बनाना, सिले-सिलाये वस्त्र बनाना, मोमबत्ती बनाना, अगरबत्ती बनाना, दोपहिया मरम्मत व सर्विसिंग, केंचुआ खाद तथा गैर परंपरागत भवन-निर्माण सामग्री निर्माण सम्मिलित हैं, में बड़ी संख्या में ग्रामीण बेरोजगारों व महिलाओं को शामिल करते हैं।

3. राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (एन.एस.आई.सी.)

देश में लघु व्यवसाय इकाइयों की संवृद्धि को बढ़ावा, सहायता तथा प्रोत्साहन की दृष्टि से 1995 में राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम स्थापित किया गया। यह निम्न कार्यों के वाणिज्यिक पहलू पर ध्यान केन्द्रित करता है-

(क) आसान किराया-क्रय शर्तों पर स्वदेशी एवं आयातित मशीनों की आपूर्ति।

(ख) स्वदेशी तथा आयातित कच्चे माल की प्राप्ति, आपूर्ति तथा वितरण।

(ग) लघु व्यवसाय इकाइयों के उत्पादों का निर्यात तथा निर्यात योग्यता का विकास।

(घ ) सलाहकारी एवं परामर्शदात्री सेवाएँ।

• प्रौद्योगिकी व्यवसाय ऊष्मायित्र के रूप में सेवा प्रदान करना।

• प्रौद्योगिकी उन्नयन के बारे में जागरूकता पैदा करना।

• सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी पार्कों तथा प्रौद्योगिकी अंतरण केन्द्रों का विकास करना।

4. ग्रामीण एवं महिला उद्यमिता विकास (आर.डब्ल्यू.ई.डी.)

ग्रामीण एवं महिला उद्यमिता विकास कार्यक्रम का उद्देश्य है कि सहायक व्यवसाय वातावरण को बढ़ावा दिया जाये तथा संस्थागत व मानवीय सामर्थ्यों का निर्माण किया जाए जिससे ग्रामीण लोगों तथा महिलाओं की उद्यमिता पहलों को प्रोत्साहन एवं सहायता मिले। ग्रामीण एवं महिला उद्यमिता विकास निम्नलिखित सेवाएँ उपलब्ध कराता है-

(क) एेसे व्यवसाय वातावरण का निर्माण करना, जो ग्रामीण एवं महिला उद्यमियों की पहलों को प्रोत्साहित करे।

(ख) उद्यमी उत्साह व उत्पादकता बढ़ाने हेतु आवश्यक मानवीय एवं संस्थागत क्षमताओं को बढ़ावा देना।

(ग) महिला उद्यमियों को प्रशिक्षण पुस्तिका उपलब्ध कराना तथा उन्हें प्रशिक्षण देना।

(घ) कोई अन्य परामर्शदात्री सेवाएँ उपलब्ध कराना।

5. परंपरागत उद्योगों के पुनरुद्धार हेतु निधि की योजना (स्फूर्ति)

परंपरागत उद्योगों को और उपयोगी तथा प्रतिस्पर्द्धी बनाने हेतु तथा उनके संपोषणीय विकास को सुगम बनाने हेतु, केन्द्र सरकार ने वर्ष 2005 में यह योजना प्रारंभ की। इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्न हैं-

(क) देश के विभिन्न भागों में परंपरागत उद्योगों के समूह विकसित किये जायें।

(ख) इन्हें प्रतिस्पर्द्धी, लाभप्रद तथा संपोषणीय बनाने हेतु अभिनव व परंपरागत कौशल निर्माण करना, प्रौद्योगिकी में सुधार करना तथा सार्वजनिक-निजी भागीदारी विकसित करना, बाजार सूचना विकसित करना इत्यादि।

(ग) परंपरागत उद्योगों में संपोषणीय रोजगार अवसरों का निर्माण करना।

6. जिला उद्योग केन्द्र (डी.आई.सी.)

जिला स्तर पर एकीकृत प्रशासनिक संरचना उपलब्ध कराने की दृष्टि से 1 मई 1978 को जिला उद्योग केन्द्र प्रारंभ किये गये, जो जिला स्तर पर औद्योगिकीकरण की समस्याओं को एक सम्मिलित रूप में देखते हैं। उपयुक्त योजनाओं की पहचान, व्यवहार्यता रिपोर्ट तैयार करना, साख हेतु व्य‍वस्था करना, मशीनें व उपकरण, कच्चे माल का प्रावधान तथा अन्य विस्तार सेवाएँ, इन केन्द्रों द्वारा की जाने वाली मुख्य क्रियाएँ हैं।

7. उद्यमिता विकास

किसी व्यक्ति द्वारा अपना व्यवसाय प्रारंभ करने की प्रक्रिया उद्यमिता कहलाती है, क्योेंकि यह किसी अन्य आर्थिक क्रिया, रोजगार अथवा किसी पेशे को अपनाने से भिन्न है। जो व्यक्ति अपना व्यवसाय स्थापित करता है, वह उद्यमी कहलाता है। इस प्रक्रिया के परिणाम, अर्थात् व्यवसाय इकाई को एक उपक्रम कहते हैं। ध्यान देने की रोचक बात यह है कि उद्यमी को स्वरोजगार उपलब्ध कराने के साथ-साथ उद्यमिता अन्य दोनों आर्थिक क्रियाओं, रोजगार व पेशा, को भी काफ़ी हद तक सृजन तथा विस्तार के अवसर उपलब्ध कराती है। और, इस तरह से उद्यमिता एक देश के संपूर्ण आर्थिक विकास हेतु महत्वपूर्ण बन जाती है। जब आप इस विकल्प को चुनते हैं तो आप नौकरी खोजने वाले की बजाय नौकरी उपलब्ध कराने वाले बन जाते हैं। एक उद्यमी के रूप में जन्म लेने की तुलना में उद्यमी बनने की महत्वाकांक्षा के साथ उद्यमिता को अपनाना निश्चित रूप से बेहतर है। ग्राहकों को मूल्य की सुपुर्दगी, निवेशकों हेतु प्रत्यय तथा जोखिमों एवं व्यवसाय से जुड़ी अनिश्चितताओं के अनुरूप स्व‍यं के लिए लाभ की दृष्टि से किसी आवश्यकता को पहचानने, संसाधनों को गतिशील करने तथा उत्पादन करने की एक सुव्यवस्थित, उद्देश्यपूर्ण एवं रचनात्मक क्रिया के रूप में हम उद्यमिता को परिभाषित करना चाहेंगे। उद्यमशीलता सहज रूप से प्रकट नहीं होती। काफी हद तक यह व्यक्ति तथा वातावरण के बीच बातचीत की गतिशील प्रक्रिया का परिणाम है। अंततोगत्वा जीविका के रूप में उद्यमशीलता का चुनाव व्यक्ति को करना होता है, अभी तक वह इसे अनिवार्य रूप से एक वांछनीय तथा व्यवहार-साध्य विकल्प के रूप में देखता है। इस संबंध में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि वांछनीय तथा व्यवहार-साध्य के बारे में वातावरण एवं व्यक्ति के दृष्टिकोण दोनों कारकों को ध्यान में रखा जाए।

9.7.1 उद्यमिता की विशेषताएँ

प्रत्येक देश, चाहे विकसित हो अथवा विकासशील, को उद्यमियों की आवश्यकता होती है। एक विकासशील देश को विकास की प्रक्रिया की शुरूआत करने के लिए उद्यमियों की आवश्यकता होती है जबकि एक विकसित देश को इसे बनाये रखने के लिए उद्यमिता की आवश्यकता होती है। वर्तमान भारतीय संदर्भ में, जहाँ एक ओर सार्वजनिक क्षेत्र तथा बड़े पैमाने के क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वैश्वीकरण से बहुत सारे अवसर अपने उपयोग हेतु प्रतीक्षारत हैं; उद्यमिता भारत को एक बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की ऊँचाइयों की ओर ले जा सकती है। अतः आर्थिक विकास की प्रक्रिया के संबंध में तथा व्यवसाय उपक्रम के संबंध में उद्यमियों द्वारा किये जाने वाले कार्यों से ही उद्यमिता की आवश्यकता उत्पन्न होती है।

उद्यमिता की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(क) सुव्यवस्थित क्रिया-उद्यमिता कोई रहस्यपूर्ण उपहार अथवा मोहक तथा संयोग से होने वाली कोई घटना नहीं है। यह एक सुव्यवस्थित, क्रमशः एवं उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। इसका निश्चित स्वभाव, कौशल व अन्य ज्ञान तथा योग्यता आवश्यकताएँ होती हैं जिन्हें औपचारिक शैक्षिक व व्यावसायिक प्रशिक्षण के साथ-साथ प्रेक्षण तथा कार्यानुभव द्वारा अभिग्रहित, सीखा तथा विकसित किया जा सकता है। उद्यमिता की प्रक्रिया की यह समझ इस मिथक को दूर करने में महत्वपूर्ण है कि उद्यमी जन्म लेते हैं, बनाये नहीं जाते।

(ख) वैध एवं उद्देश्यपूर्ण क्रिया-उद्यमिता का उद्देश्य है - वैध व्यवसाय करना। इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि कोई व्यक्ति अवैध कार्यों को वैध ठहराने का प्रयास कर सकता है, केवल इस आधार पर कि उद्यमिता में जोखिम आवश्यक है, अतः अवैध व्यवसाय किये जायें। उद्यमिता का उद्देश्य है निजी लाभ हेतु मूल्यों का सृजन तथा सामाजिक फायदा।

(ग) नवप्रवर्तन-फर्म के दृष्टिकोण से नवप्रवर्तन, लागत घटाता है अथवा आगम बढ़ाता है। यदि यह दोनों कार्य करता है, तो यह सोने पे सुहागा है। यहाँ तक कि यदि यह कुछ भी करे, तो भी यह सुखद है क्योंकि नवप्रवर्तन अवश्य ही एक आदत बन जाती है। उद्यमिता इस अर्थ में रचनात्मक है, क्योंकि यह मूल्य-निर्माण में संलग्न है। उत्पादन के विभिन्न साधनों के संयोजन द्वारा, उद्यमी उन वस्तुओं तथा सेवाओं को उत्पादित करते हैं, जो समाज की इच्छाओं तथा आकांक्षाओं को पूरा करती हैं। प्रत्येक उद्यमशील कार्य का परिणाम आय तथा सम्पत्ति का उत्पादन होता है। उद्यमिता इस अर्थ में भी रचनात्मक है कि यह नवप्रवर्तन (नए उत्पादों का प्रारंभ, नए बाजारों तथा आगतों की आपूर्ति के नए स्रोतों की खोज, प्रौद्योगिकी की दृष्टि से महत्वपूर्ण खोज) के साथ-साथ कार्यों को बेहतर, मितव्ययी, तीव्र तथा वर्तमान संदर्भ में वातावरण को कम नुकसान पहुँचाने वाले तरीकों से करने हेतु नये-नये संगठनात्मक प्रारूप प्रारंभ करती है।

(घ) उत्पादन के संसाधनों का संगठन- उत्पादन का तात्पर्य है, उत्पादन के विभिन्न साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रौद्योगिकी) का संयुक्त रूप से प्रयोग करके रूप, स्थान, समय तथा व्यक्तिगत उपयोगिता की रचना करना। व्यवसाय अवसर को देखते हुए एक उद्यमी इन संसाधनों को एक लाभकारी उपक्रम अथवा फर्म का रूप देता है। यह उल्लेखनीय है कि उद्यमी के पास इनमें से किसी भी संसाधन का होना आवश्यक नहीं है; उसके पास केवल एक योजना होनी चाहिए जिसे वह संसाधन-प्रदाताओं के बीच प्रचारित कर सके। भली प्रकार विकसित वित्तीय तंत्र वाली अर्थव्यवस्था में उसे वित्त-प्रदाता संस्थानों को केवल अपनी बात समझानी है तथा व्यवस्थित की गई पूँजी से उपकरण, सामग्री, उपयोगिताएँ (जैसे- जल तथा विद्युत) एवं प्रौद्योगिकी की आपूर्ति हेतु अनुबन्ध करने हैं। उत्पादन के संसाधनों के संगठन में सबसे महत्वपूर्ण है कि संसाधनों की उपलब्धता तथा अवस्थिति के साथ-साथ उन्हें संयोजित करने की अनुकूलतम विधि की भी जानकारी हो। उपक्रम के सर्वाेत्तम हित में इन संसाधनों को प्राप्त करने हेतु एक उद्यमी में मोल-भाव करने की कुशलता होनी आवश्यक है।

(ङ) जोखिम उठाना-यह एक सामान्य मान्यता है कि उद्यमी काफी जोखिम उठाते हैं। हाँ, जो व्यक्ति उद्यमशीलता को एक जीवन वृत्ति के रूप में अपनाते हैं, नौकरी अथवा पेशे को व्यवहार में लाने की तुलना में एक बड़ा जोखिम उठाते हैं क्योंकि इसमें कोई निश्चित भुगतान प्राप्त नहीं होता। उदाहरणार्थ, जब कोई व्यक्ति अपना व्यवसाय प्रारंभ करने हेतु अपनी नौकरी छोड़ता है तो वह यह परिकलित करने का प्रयास करता है कि वह आय का वही स्तर प्राप्त करने में समर्थ होगा अथवा नहीं। एक प्रेक्षक को, एक सुदृढ़ एवं आशाजनक जीवनवृत्ति को छोड़ने का जोखिम, एक ‘उच्च’ जोखिम प्रतीत होता है, परंतु किसी व्यक्ति द्वारा किया गया एेसा कार्य, एक परिकलित जोखिम है। वे अपनी क्षमताओं के बारे में आश्वस्त हैं कि वे अपने 50 प्रतिशत संयोगों को 100 प्रतिशत सफलता में परिवर्तित कर पायेंगे। ये उच्चतर जोखिम वाली परिस्थितियों को टालते हैं; क्योंकि अन्य व्यक्तियों की भाँति इन्हेें असफलताएँ नापसंद हैं; ये कम जोखिम वाली स्थितियों को भी नापसंद करते हैं क्याेंकि व्यवसाय एक मजाक बनकर समाप्त हो जाता है। जोखिम, वित्तीय हित से बढ़कर एक निजी हित का मामला बन जाता है, जहाँ अपेक्षा से कम निष्पादन का होना, अप्रसन्नता एवं व्यथा का कारण बनता है।


9.8 स्टार्ट अप इंडिया योजना

स्टार्ट अप इंडिया भारत सरकार की एेसी सर्वोत्कृष्ट पहल है जो देश में नवप्रवर्तन तथा स्टार्ट अप को प्रोत्साहन देने हेतु एक मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र को तराशने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई है। यह अभियान स्थायी आर्थिक संवृद्धि का मार्ग प्रशस्त‍ करेगा तथा बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उत्पन्न करेगा। भारत सरकार का उद्देश्य नवप्रवर्तन तथा अभिकल्प के माध्यम से संवृद्धि करने हेतु स्टार्ट अप को बल देना है। इस योजना के कुछ विशिष्ट उद्देश्य हैं-

(i) उद्यमिता संस्कृति को बढ़ावा देना तथा समाज में उद्यमिता मूल्यों को अंतर्निविष्ट करना एवं उद्यमशीलता के प्रति लोगों की मानसिकता को प्रभावित करना।

(ii) एक उद्यमी बनने हेतु आकर्षण तथा उद्यमशीलता की प्रकिया, विशेष रूप से युवाओं में, के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना।

(iii) लाभप्रद, अधिमानी तथा व्यवहार्य जीविका के रूप में उद्यमशीलता का ध्यान करने हेतु शिक्षित युवाओं, वैज्ञानिकों तथा शिल्प विज्ञानियों को अभिप्रेरित करके अति सक्रिय स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करना।

(iv) स्टा‍र्ट अप से पूर्व, प्रारंभिक स्तर तथा स्टार्ट अप के पश्चात् सहित उद्यमशीलता विकास के प्रारंभिक चरण को बल देना तथा उपक्रमों की संवृद्धि करना।

क्या हो यदि, आपका विचार केवल एक विचार भर न हो।

क्या हो यदि, आपका विचार कार्यान्वित हो जाए।

क्या हो यदि, यह वास्तव में जन्म ले ले।

क्या हो यदि, आपको इस पर विश्वास करने तथा इसे प्रोत्साहित करने वाला कोई मिल जाए।

क्या हो यदि, आप उस पर चलने हेतु मार्ग तय कर लें।

क्या हो यदि, यह बढ़े और खिले।

क्या हो यदि, दुनिया आपके विचार को स्वेच्छा से स्वीकारे।

क्या हो यदि, आपका विचार भविष्य की पीढ़ियों हेतु दुनिया को सुरक्षित, प्रसन्न तथा समृद्ध बनाने के लिए विकसित हो।

(www.startupindia.gov.in से अंगीकृत)

(v) कम प्रतिनिधित्व वाले लक्षित समूहों, जैसे- महिलाओं, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े समाजों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करके उद्यमों संबंधी आपूर्ति का विस्तृत आधार देना और कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों को सम्मिलित करने हेतु सूची स्तंभ के सबसे निचले स्तर पर जनसंख्या की आवश्यकताओं को समझने हेतु स्थायी विकास करना।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की दिनांक 17 फरवरी, 2017 को जारी अधिसूचना के अनुसार स्टार्ट अप का अभिप्राय है-

(i) भारत में सम्मिलित अथवा पंजीकृत एक इकाई।

(ii) पाँच वर्ष से अधिक पुरानी न हो।

(iii) पिछले किसी भी वर्ष में वार्षिक आवर्त 25 करोड़ से अधिक न हो।

(iv) नवप्रवर्तन की दिशा में कार्य करना, तकनीक से प्रेरित उत्पादों/सेवाओं/प्रक्रियाओं का विकास अथवा वाणिज्यीकरण करना अथवा प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार तथा स्वत्वाधिकार।

9.8.1 स्टा‍र्ट अप इंडिया की शुरुआत-कार्य बिन्दु

(i) सरलीकरण एवं हस्तस्थ- स्टार्ट अप को अनुकूल तथा लोचशील बनाने के अनुपालन में सरलीकरण घोषित किए गए।

(ii) स्टार्ट अप इंडिया केन्द्र- इसका उद्देश्य है कि समस्त स्टार्ट अप पारिस्थितिकी हेतु एकल संपर्क केन्द्र बनाना तथा ज्ञान विनिमय व निधिकरण तक पहुँच को सक्षम बनाना।

(iii) कानूनी सहायता तथा स्वत्वाधिकार जाँच को तेज करना- स्वत्वाधिकारों, व्यापार चिह्नों तथा अभिनव व संबद्ध स्टार्ट अप के अभिकल्पों की सुरक्षा को सुलभ कराने हेतु प्राज्ञ सम्पत्ति सुरक्षा स्टार्ट अप की योजना पर विचार किया गया।

(iv) सरल बहिर्गमन- व्यवसाय के असफल होने तथा प्रचालनों के समापन की दशा में पूँजी एवं संसाधनों का अधिक उत्पादक कार्यों में पुनरावंटन करने हेतु कार्यविधियाँ अंगीकृत की गईं। इससे जटिल तथा लंबी बहिर्गमन प्रक्रिया के डर के बिना ही नए तथा अभिनव विचारों के प्रयोगों को बढ़ावा मिलेगा।

(v) ऊष्मायित्र लगाने हेतु निजी क्षेत्र को साथ में लेना- सरकार द्वारा प्रायोजित/निधिकृत ऊष्मायित्रों का पेशेवर प्रबंधन सुनिश्चित करने हेतु सरकार पूरे देश में पी.पी.पी. के माध्यम से ऊष्मायित्रों की स्थापना पर विचार कर रही है।

(vi) कर छूट- स्टार्ट अप इकाइयों के लाभ तीन वर्षों की अवधि तक आय कर से मुक्त हैं।

9.8.2 निधि स्टार्ट अप के तरीके

स्टार्ट अप पूँजी एवं बैंक ऋण उपलब्ध कराने की सरकारी योजनाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित तरीकों से भी स्टार्ट अप हेतु निधिकरण प्राप्त किया जा सकता है-

(i) स्व संसाधनों का प्रयोग- इसे सामान्यतया स्व वित्तीयन के रूप में जाना जाता है। इसे प्रथम निधिकरण विकल्प भी मानते हैं क्योंकि अपनी निजी बचतों एवं संसाधनों को फैलाकर, आप अपने व्यवसाय से सहबद्ध हो जाते हैं तथा बाद में निवेशक इसे आपका गुण समझते हैं। यद्यपि, केवल प्रारंभिक आवश्यकता छोटी होने की दशा में यह निधिकरण का एक अच्छा विकल्प है।

(ii) जनता निधिकरण- जनता निधिकरण का अभिप्राय लोगों के एक समूह द्वारा एक समान लक्ष्य हेतु संसाधनों का एकत्रीकरण करना है। जनता निधिकरण, भारत में कोई नई प्रणाली नहीं है। संगठनों द्वारा निधिकरण हेतु आम लोगों के पास जाने के कई उदाहरण हैं। यद्यपि, भारत में जनता-निधिकरण को बढ़ावा देने वाले मंचों को हाल ही में स्थापित किया गया है। ये मंच स्टार्ट अप अथवा लघु व्यवसायों की निधिकरण आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

(iii) दिव्य निवेशक- दिव्य निवेशक वे व्यक्ति हैं जिनके पास अतिरिक्त धन है तथा वे आने वाले स्टार्ट अप में निवेश करने में दिलचस्पी रखते हैं। वे पूँजी के साथ-साथ अनुभवी परामर्श भी उपलब्ध कराते हैं।

(iv) उपक्रम पूँजी- यह पेशेवर प्रबंधित निधियाँ हैं जो अत्यधिक संभावनाओं वाली कंपनियों में निवेश की जाती हैं। उपक्रम पूँजीपति व्यवसाय संगठनों को दक्षता तथा अनुभवी परामर्श उपलब्ध कराते हैं, तथा निरंतरता व मापक्रमणीयता के दृष्टिकोण से व्यवसाय संगठन के विकास की परीक्षण जाँच करते हुए उसका मूल्यांकन करते हैं।

(v) व्यवसाय ऊष्मायित्र तथा उत्प्रेरक- प्रारंभिक चरण के व्यवसाय को निधिकरण विकल्प के रूप में ऊष्मायित्र तथा उत्प्रेरक कार्यक्रम माना जा सकता है। ये कार्यक्रम प्रत्येक वर्ष सैकड़ों स्टार्ट अप व्यवसायों की सहायता करते हैं। ये दोनों सामान्य तथा विनियमपूर्वक प्रयुक्त होते हैं, यद्यपि ऊष्मायित्र एक अभिभावक की तरह है जो व्यवसाय का पालन-पोषण करता है, जबकि उत्प्रेरक व्यवसाय को चलाने में सहायता करते हैं। ऊष्मायित्र तथा उत्प्र्रेरक स्टार्ट अप को अनुभवी परामर्शदाताओं, निवेशकों तथा साथी स्टार्ट अप से जोड़ते हैं।

(vi) सूक्ष्म वित्त तथा गैर बैंकिंग वित्तीय निगम- सूक्ष्म वित्त मूलतः उन्हें वित्तीय सेवाएँ उपलब्ध कराता है जिनकी पहुँच परंपरागत बैंकिंग सेवाओं तक नहीं थी अथवा वे बैंक ऋण हेतु योग्य नहीं थे। इसी प्रकार, गैर बैंकिंग वित्तीय निगम, एक बैंक की कानूनी आवश्यकताओं को पूरा किए बिना ही बैंकिंग सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं।


9.9 प्राज्ञ सम्प‍त्ति अधिकार

पिछले दो दशकों के दौरान सम्प‍त्ति अधिकार वहाँ तक बढ़े हैं जहाँ ये वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में मुख्य भूमिका निभाते हैं। प्राज्ञ सम्पत्ति सभी जगह हैं, उदाहरणार्थ, आप जो संगीत सुनते हैं, प्रौद्योगिकी जिससे आपका फोन कार्य करता है, आपकी मनपसंद कार का अभिकल्प, आपके जू‍तों पर लगा चिह्न इत्यादि।

यह उन सभी वस्तुओं में विद्यमान है, जिन्हें आप देख सकते हैं- मानव रचनात्मक एवं कौशल के सभी उत्पाद, जैसे-आविष्कार, पुस्तकें, चित्रकारी, गीत, प्रतीक-चिन्ह, नाम, चित्र अथवा व्यवसाय में प्रयुक्त अभिकल्प इत्यादि। रचनाओं के सभी अविष्कार एक ‘कल्प‍ना’ से प्रारम्भ होते हैं। एक बार जब कोई कल्पना वास्तविक उत्पाद बन जाती है, अर्थात् प्राज्ञ सम्पत्ति, तो कोई व्यक्ति उसकी सुरक्षा हेतु भारत सरकार के संबंधित प्राधिकरण को आवेदन जमा कर सकता है। एेसे उत्पादों पर प्रदत्त कानूनी अधिकारों को ‘प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार’ कहते हैं। अतः प्राज्ञ सम्पत्ति का तात्पर्य मानवीय विचारों के उत्पादों से है, इसलिए सम्पत्तियों के अन्य प्रकारों की भाँति इनके स्वामी प्राज्ञ सम्प‍त्तियों को अन्य लोगों को किराये पर दे सकते हैं अथवा बेच सकते हैं।

विशेष रूप से, प्राज्ञ सम्पत्ति का तात्पर्य मानवीय विचारों से जन्मी रचनाओं से है, जैसे- आविष्का‍र, साहित्यिक तथा कलात्मक कार्य, प्रतीक, नाम तथा व्यवसाय में प्रयुक्त चित्र एवं अभिकल्प। प्राज्ञ सम्पत्ति को दो मुख्यतः श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है- औद्योगिक सम्पत्ति, जिसमें आविष्कार (एकस्व), व्यापार चिह्न, औद्योगिक अभिकल्प एवं भौगोलिक संकेत सम्मिलित हैं जबकि दूसरे हैं स्वत्वाधिकार, जिसमें साहित्यिक व कलात्मक कार्य, जैसे- उपन्यास, कविताएँ, नाटक, फिल्में, संगीतमय कार्य, अभिरेखन, चित्रकारी, फोटोग्राफी, मूर्तिकला व वास्तुशिल्पीय अभिकल्प सम्मिलित होते हैं।

प्राज्ञ सम्पत्ति तथा सम्पत्ति के अन्य स्वरूपों में सुस्प‍ष्ट अंतर है। प्राज्ञ सम्पत्ति अमूर्त है, अर्थात् इसे इसके अपने भौतिक मापदंडों द्वारा परिभाषित अथवा निर्धारित नहीं किया जा सकता। प्राज्ञ सम्पंत्ति के क्षेत्र तथा परिभाषा में प्रारंभ से ही नये स्वरूपों के समावेशन के साथ-साथ निरंतर विकास हो रहा है। अभी हाल ही में प्राज्ञ सम्पत्ति के अंतर्गत भौगोलिक संकेत, पौधों की प्रजातियों की सुरक्षा, अर्ध-चालकों व समा‍कलित परिपथों की सुरक्षा एवं अप्रकटित सूचना को लाया गया है। भारत में निम्नलिखित प्रकार के प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों को मान्यता दी गयी है- स्वत्वाधिकार, व्यापार चिह्न, भौगोलिक संकेत, एकस्व अभिकल्प, पौध-विविधता, अर्धचालक समाकलित परिपथ अभिन्यास अभिकल्प। इसके अतिरिक्त परंपरागत ज्ञान भी प्राज्ञ संपत्तियों में आता है।

इतिहास में, आपने एेतिहासिक ‘हल्दी-घाटी के युद्ध’ के बारे में अवश्य पढ़ा होगा, जो सन् 1567 ई. में मेवाड़ (राजस्थान) के उस समय के राजपूत शासक राणा प्रताप सिंह तथा मुगल सम्राट अकबर के बीच लड़ा गया था। उसी प्रकार हल्दी-घाटी का एक युद्ध वर्ष 1997 में उग्रतापूर्वक लड़ा गया था। मुद्दा था ‘यू.एस. पेटेंट आफिस’ द्वारा हल्दी को घाव उपचारात्मक गुणों हेतु 1995 में मिसीसिपी विश्वविद्यालय के चिकित्सा केन्द्र को एकस्व प्रदान करना; यह बताया गया कि यह एक नयी खोज है, जबकि हम चिरकाल से घावों के उपचार हेतु हल्दी का प्रयोग करते आ रहे हैं। भारत सरकार ने जोरदार ढंग से इस एकस्व का विरोध किया तथा अंततोगत्वा भारत ने यह लड़ाई जीती और यह एकस्व रद्द किया गया।

आपने किसी बीमारी को ठीक करने हेतु कोई घरेलू उपचार अवश्य किया होगा जिसका ज्ञान आपको अपने दादा-दादी अथवा नाना- नानी से मिला होगा। ये घरेलू उपचार परंपरागत दवाएँ हैं जो पिछली कई शताब्दियों से भारत में प्रचलित हैं। इन्हें ‘परंपरागत ज्ञान’ के रूप में भी जानते हैं। भारतीय परंपरागत औषधीय प्रणाली के कुछ उदाहरण हैं- आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध तथा योग। परंपरागत ज्ञान का तात्पर्य संपूर्ण विश्व में स्थानीय समुदायों के बीच प्रचलित ज्ञान, प्रणालियों, नवप्रवर्तनों एवं व्यवहारों से है। ये ज्ञान कई वर्षों में विकसित तथा संचित हुआ है और प्रयुक्त किया जाता रहा है व कई पीढ़ियों के हाथों से गुजरा है। भारत सरकार द्वारा एक ‘परंपरागत ज्ञान डिजिटल पुस्तकालय’ विकसित किया गया है, जो अनिवार्य रूप से परंपरागत ज्ञान का एक डिजिटल ज्ञान कोष है जो हमारी प्राचीन सभ्यता में विशेषतः औषधीय पौधों तथा भारतीय औषधि प्रणाली में प्रयुक्त निरूपणों के बारे में, विद्यमान है। प्रचुर ज्ञान की यह संस्था हमारे परंपरागत ज्ञान के अनाधिकृत एकस्वीकरण को रोकने में सहायता करती है।

एक अन्य प्रकार की प्राज्ञ सम्पत्ति है- व्यापारिक भेद। आपने लोकप्रिय पेय कोका कोला के बारे में अवश्य सुना होगा। परंतु क्या आप जानते हैं कि इस पेय का नुस्खा, संपूर्ण विश्व में केवल तीन लोग जानते हैं। इस गुप्त‍सूचना को एक ‘व्यापारिक भेद’ कहते हैं। व्यापारिक भेद मूलतः एक गोपनीय सूचना है जो तीव्र प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देती है। भारत में व्यापारिक भेद ‘भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872’ के अंतर्गत संरक्षित किये गये हैं।

9.9.1 उद्यमियों हेतु प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार क्यों महत्वपूर्ण हैं?

यह नये पथ-खंडन आविष्कारों, जैसे- कैंसर उपचार औषधि की रचना को प्रोत्साहन देता है। यह आविष्कारों, लेखकों, रचयिताओं इत्यादि को उनके कार्य हेतु प्रोत्साहित करता है। यह किसी व्यक्ति द्वारा किये गये कार्य को केवल उसकी अनुमति से जनता को वितरित एवं संप्रेषित करने की अनुमति देता है। इसलिए यह आय की हानि को रोकने में सहायता करता है। यह लेखकों, रचयिताओं, विकासकों तथा स्वामियों को उनके कार्य हेतु पहचान उपलब्ध कराने में सहायता करता है।

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) की स्‍थापना के साथ व्यापार संबंधी प्राज्ञ सम्पत्ति प्रणाली समझौते (टी.आर.आई.पी.एस.) के अंतर्गत प्राज्ञ सम्पत्ति सुरक्षा का महत्व तथा भूमिका सुस्पष्ट हो गयी है। डब्ल्यू.टी.ओ.की स्थापना तथा व्यापार संबंधी पहलुओं पर समझौते (टी.आर.आई.पी.एस.) पर भारत द्वारा हस्ताक्षरकर्ता बनने पर अंतर्राष्ट्रीय आबंधों को पूरा करने हेतु प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई अधिनियम पारित किये गये। इनमें सम्मिलित हैं- व्या‍पार चिह्न अधिनियम 1999; वस्तुओं का भौगोलिक संकेतन (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम 1999; अभिकल्प अधिनियम 2000; पौध-प्रजातियों की सुरक्षा तथा कृषक अधिकार अधिनियम 2001; एकस्व अधिनियम 2005 तथा प्रतिलिप्याधिकार (संशोधन) अधिनियम 2012।

9.9.2 प्राज्ञ सम्पत्तियों के प्रकार

एक राष्ट्र की आर्थिक संवृद्धि में रचनात्मकता तथा योगदान को प्रोत्साहित करने हेतु प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार नितांत आवश्यक हैं। एेसे अधिकार रचयिताओं तथा आविष्कारकों को उनकी रचनाओं व आविष्का‍रों पर नियंत्रण प्रदान करते हैं। ये अधिकार कलाकारों, उद्यमियों तथा आविष्कारकों को नई प्रौद्योगिकी एवं रचनात्मक कार्यों में और आगे अनुसंधान, विकास व विक्रय करने हेतु वचनबद्ध करने में प्रेरकों का कार्य करते हैं। बदलती हुयी वैश्विक अर्थव्यवस्था मानव विकास में निरंतर प्रगति हेतु अभूतपूर्व चुनौतियों तथा अवसरों का निर्माण कर रही है। प्राज्ञ सम्पत्तियों के विक्रय हेतु विश्व भर में व्यावसायिक अवसर उपलब्ध हैं। भौगोलिक सीमाएँ कोई बाधा खड़ी नहीं करतीं - लगभग सब कुछ उपभोक्ताओं की तुरंत पहुँच में है। एेसे रोमांचक समय में, यह समीक्षात्मक है कि हम प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों के महत्व तथा हमारे दैनिक जीवन पर इसके प्रभावों के बारे में जागरूक हों। प्राज्ञ सम्पत्तियों में तीन भिन्न पहलू आते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

(क) कानून- प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार रचयिताओं/प्राज्ञ सम्पत्ति स्वामियों को प्रदत्त वे कानूनी अधिकार हैं जो संरक्षित विषय सामग्री को दूसरों के द्वारा प्रयोग करने पर रोक लगाते हैं। यह ज्ञान का कानूनी रक्षक है।

(ख) प्रौद्योगिकी- प्राज्ञ सम्पत्ति की पूर्वापेक्षा है कि रचना मौलिक होनी चाहिए। रचयिता द्वारा ‘कुछ नया’ अस्तित्व में लाया जाना होता है। प्रौद्योगिकी के संदर्भ में प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों के अंतर्गत सूचना प्रौद्योगिकी आटोमोबाइल्स, फार्मास्यूटिकल्स तथा बायोटेक्नोलॉजी के विभिन्न पहलू आते हैं।

(ग) व्यवसाय एवं अर्थशास्त्र- प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों के मूल तत्व उद्योग के विकास तथा व्यवसायों की सफलता में सहायता करते हैं। प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार व्यवसायों के स्वामियों को अधिकार प्रदान करते हैं।
आइए, अब प्रत्येक प्राज्ञ सम्पत्ति को समझें।


प्रतिलिप्याधिकार

प्रतिलिप्याधिकार ‘प्रतिलिपि न बनाने’ का अधिकार है। रचयिता अथवा लेखक द्वारा कोई मूल विचार अभिव्यक्त करने पर यह प्रस्तुत किया जाता है। यह अधिकार, साहित्यिक, कलात्मक, संगीतमय, ध्वन्यालेखन तथा फिल्मों के चलचित्रण के रचयिताओं को प्रदत्त किया जाता है। प्रतिलिप्याधिकार रचयिता का एक विशेषाधिकार है जो विषय-सूची, जिसमें विषय सामग्री की प्रतियों का पुनरुत्पादन तथा वितरण सम्मिलित है, के अनाधिकृत प्रयोग को प्रतिषेध करता है। प्रतिलिप्याधिकार की अनूठी विशेषता यह है कि जैसे ही कार्य अस्तित्व में आता है, कार्य का सरंक्षण स्वतः ही उदित हो जाता है। विषय-सूची का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है परंतु उल्लंघन होने की दशा में विशेषाधिकार का प्रयोग करने हेतु आवश्यक है।


प्रतिलिप्याधिकार के अंतर्गत क्या संरक्षित किया जाता है?

साहित्यिक कार्य

पुस्तिकाएँ, विवरण पुस्तिकाएँ, उपन्यास, पुस्तकें, कविताएँ, गीत, कम्प्यूटर प्रोग्राम

कलात्मक कार्य

चित्ररेखण, चित्रकारी, शिल्पकला, वास्तु-शिल्पीेय रेखण, प्रौद्योगिकीय रेखण, मानचित्र, चिह्न

नाटकीय कार्य

नृत्य अथवा मूक अभिनय, चलचित्र नाटक, संगीतमय कार्य, ध्वन्यालेखन, चलचित्रण


व्यापार चिह्न

व्यापार चिह्न कोई शब्द‍, नाम अथवा प्रतीक (अथवा उनका संयोजन) है जिससे हम किसी व्यक्ति, कंपनी संगठन इत्यादि द्वारा बनाये गए माल को पहचानते हैं। व्यापार चिह्नों से हम एक कंपनी के माल तथा दूसरे कंपनी के माल में अंतर्भेद भी करते हैं। केवल एक छाप अथवा चिह्न में, व्यापार चिह्न आपको एक कंपनी की प्रतिष्ठा, ख्याति, उत्पादों तथा सेवाओं के बारे में कई बातों की जानकारी दे सकते हैं। व्यापार चिह्न, बाजार में प्रतिस्पर्द्धियों के उसी प्रकार के उत्पादों से अंतर करने में सहायता करते हैं। प्रतिस्पर्द्धी बाजार में अपने उत्पाद को बेचने हेतु समान व्यापार चिह्न का प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि एेसा करना भ्रामक समानता की अवधारणा के अंतर्गत आता है जिसे ध्वन्यात्मक, संरचनात्मक अथवा दृश्यात्मक समानता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। व्यापार चिह्नों को निम्नलिखित में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(i) परंपरागत व्यापार चिह्न- शब्द., रंग-संयोजन, नाम-पत्र, चिह्न, पैकेजिंग, माल की आकृति, इत्यादि।

(ii) गैर-परंपरागत व्यापार चिह्न- इस श्रेणी में वे व्यापार चिह्न सम्मिलित किए गए हैं जो पहले श्रेणी में सम्मिलित नहीं हैं परंतु समय व्यतीत होने के साथ-साथ अपनी पहचान बना रहे हैं, जैसे- ध्वनि चिह्न, गत्यात्मक चिह्न, इत्यादि।

इसके अलावा दुनिया के कई भागों में महक तथा स्वाद भी व्यापार-चिह्नों के रूप में सुविचारित किए जाते हैं, परंतु भारत में इन्हेें व्यापार चिह्नों के रूप में मान्यता नहीं दी जाती। व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 के अंतर्गत व्यापार चिह्न का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, परंतु व्यापार चिह्न का पंजीकरण चिह्न पर विशेषाधिकार स्था‍पित करने में सहायता करता है। चिह्न का पंजीकरण कराने हेतु आप http://www.ipindia.nic.in पर जा सकते हैं जो इंडियन ट्रेडमार्क रजिस्ट्री की वेबसाइट है।


भौगोलिक संकेत

भौगोलिक संकेत मुख्यतः एक संकेत है जो कृषिक, प्राकृतिक अथवा निर्मित उत्पादों (हस्तशिल्प, औद्योगिक माल तथा खाद्य पदार्थ) की एक निश्चित भू-भाग से उत्पत्ति की पहचान करता है, जहाँ एक निश्चित गुणवत्ता, प्रतिष्ठा अथवा अन्य विशेषताएँ अनिवार्य रूप से उसके भौगोलिक मूल के कारण हैं। भौगोलिक संकेत हमारी सामूहिक तथा बौद्धिक धरोहर का भाग हैं जिन्हें संरक्षित करने तथा बढ़ावा देने की आवश्यकता है। भौगोलिक संकेतों के रूप में संरक्षित एवं पंजीकृत किये गये माल को कृषिक उत्पादों, प्राकृतिक, हस्तशिल्प, निर्मित माल तथा खाद्य पदार्थाें में श्रेणीकृत किया गया है। भौगोलिक संकेतों के कुछ उदाहरण हैं- नागा मिर्चा, मिज़ोचिली, शैफी लैन्फी, मोइरंग फी व चखेसंग शॉल, बस्तर ढोकरा, वर्ली चित्रकारियाँ, दार्जिलिंग चाय, कांगड़ा चित्रकारी, नागपुरी संतरा, बनारस ज़री एवं साड़ियाँ और कश्मीरी पश्मीना। पिछले कुछ दशकों में भौगोलिक संकेतों का महत्व काफी बढ़ गया है।

भौगोलिक संकेत एक भौगोलिक क्षेत्र की सामूहिक ख्याति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कई शताब्दियों में अपने आप बनी है। आज उपभोक्ता, उत्पादों के भौगोलिक मूल पर अधिकाधिक ध्यान दे रहे हैं तथा वे क्रय किये जाने वाले उत्पादों में विद्यमान विशिष्ट विशेषताओं पर काफी ध्यान देते हैं। कुछ मामलों में, ‘मूल स्थान’ तथा ‘भौगोलिक संकेतों’ में अंतर होता है जो उपभोक्ताओं को सुझाव देता है कि उत्पाद में एक विशेष गुणवत्ता अथवा विशेषता होगी, जिसे उन्हें महत्व देना चाहिए।


एकस्व

एकस्व, प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों का एक प्रकार है जो एेसी वैज्ञानिक खोजों (उत्पाद तथा/अथवा प्रक्रिया) को संरक्षित करता है जो पहले से ही ज्ञात उत्पादों के बारे में तकनीकी प्रगति को दर्शाती हैं। एकस्व सरकार द्वारा प्रदान किया गया एक विशेषाधिकार है जो अन्य सभी का ‘अपवर्जन करने का विशेष अधिकार’ उपलब्ध कराता है और उन्हें इस खोज को निर्मित करने, प्रयुक्त करने, विक्रय हेतु प्रस्तुत करने, विक्रय करने अथवा आयात करने से प्रतिषेध करता है।

किसी आविष्कार का एकस्वीकरण कराने हेतु यह आवश्यक है कि वह नया हो, किसी भी एेसे व्यक्ति को पता न हो जो प्रौद्योगिकी के संबंधित क्षेत्र में कुशल हो तथा औद्योगिक अनुप्रयोग में सक्षम हो।

(i) यह अनिवार्य रूप से नया हो, अर्थात् यह दुनिया में कहीं भी वर्तमान ज्ञान में पहले से ही विद्यमान नहीं होना चाहिए, अर्थात् एकस्व आवेदन जमा करने से पूर्व किसी भी रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं होना चाहिए (विलक्षणता)।

किसका एकस्वीकरण नहीं किया जा सकता?

पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 3 तथा 4 के अंतर्गत एकस्वीकरण न की जा सकने वाली कुछ खोजें हैं- वैज्ञानिक सिद्धांत, सुव्यवस्थित प्राकृतिक नियमों के विपरीत, संक्षिप्त सिद्धांत का निरूपण, छोटे-मोटे आविष्कार, नैतिकता हेतु हानिकारक अथवा जनस्वास्थ्य हेतु हानिकारक, कृषि अथवा उद्यानी की विधि, उपचार की विधि, मिलावट, परंपरागत ज्ञान, वृद्धि संबंधी खोजें (प्रभावोत्पादकता में वृद्धि को छोड़कर) तथा परमाणु ऊर्जा से संबंधित खोजें।

(ii) किसी भी एेसे व्यक्ति को पता न हो जो प्रौद्योगिकी के संबंधित क्षेत्र में कुशल हो, अर्थात् मानक रूप में एेसा व्यक्ति, जो अध्ययन के उस क्षेत्र में समुचित रूप से कुशल हो (आविष्कारी कदम)।

(iii) अंत में यह अनिवार्य रूप से औद्योगिक अनुप्रयोग में समर्थ हो, अर्थात् उद्योग में प्रयुक्त अथवा निर्मित किए जाने में सक्षम हो।

एक आविष्कार पर अधिकार प्राप्त करने हेतु एकस्व का आवेदन किया जा सकता है परंतु खोज पर नहीं। न्यूटन ने सेब को गिरते देखकर गुरुत्वाकर्षण की खोज की, जिसे एक खोज माना गया। जबकि दूरभाष के जनक एलेक्जेेंडर ग्राह्म बेल ने दूरभाष का आविष्कार किया। इस प्रकार जब किसी नयी वस्तु की रचना करने अथवा किसी विलक्षण वस्तु को अस्तित्व में लाने हेतु हम अपने सामर्थ्य का उपयोग करते हैं तो यह एक आविष्कार कहलाता है, जबकि पहले से विद्यमान किसी वस्तु‍/बात की विद्यमानता को उजागर करने की प्रक्रिया को खोज कहा जाता है।

एकस्व का उद्देश्य वैज्ञानिक क्षेत्र में नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित करना है। एकस्व, आविष्कार को 20 वर्ष की अवधि हेतु विशेषाधिकार प्रदान करता है, जिसके दौरान किसी को भी, जो एकस्वीकृत की गई विषय सामग्री का प्रयोग करना चाहता है, उस आविष्कार का वाणिज्यिक उपयोग करने हेतु निश्चित लागत का भुगतान करके एकस्वाधिकारी से अनुमति लेनी आवश्यक होती है। एक शुल्क के प्रतिफलस्वरूप एकस्वाधिकारी के विशेषाधिकारों को प्रयोग करने की प्रक्रिया को अनुक्षप्तिकरण कहते हैं। एकस्व, अस्थायी एकाधिकार उत्पन्न करते हैं। एकस्व की अवधि समाप्त होने पर वह आविष्कार सार्वजनिक क्षेत्र में आ जाता है, अर्थात् लोग उसका प्रयोग करने हेतु स्वतंत्र होते हैं। यह एकस्वाधिकारी को प्रतिस्पर्द्धा विरोधी गतिविधियों, जैसे-एकाधिकार की स्थिति उत्पन्न‍ करना इत्यादि, में संलिप्त होने से रोकता है ।


अभिकल्प

अभिकल्प में आकृति, नमूना तथा पंक्तियों की व्यवस्था अथवा रंग संयोजन, जो किसी वस्तु पर अनुप्रयुक्त होता है, सम्मिलित है। यह कलात्मक प्रकटन अथवा ध्यान आकर्षित करने वाली विशेषताओं को दिया गया संरक्षण है। एक अभिकल्प के संरक्षण की अवधि 10 वर्ष होती है, जिसके समाप्त होने के पश्चात् और आगे 5 वर्षाें हेतु नवीकृत की जा सकती है, जिसके दौरान एक पंजीकृत अभिकल्पाें का प्रयोग, उसके स्वामी से अनुज्ञप्ति प्राप्त करके ही किया जा सकता है और वैधता अवधि समाप्त होने के पश्चात् वह अभिकल्प सार्वजनिक क्षेत्र में आ जाता है।


पौध-प्रजाति

पौध-प्रजाति अनिवार्य रूप से, पौधों का उनकी वानस्पतिक विशेषताओं के आधार पर श्रेणियों में समूहीकरण करना है। यह प्रजाति का एक प्रकार है जो कृषकों द्वारा उगाया तथा विकसित किया जाता है। यह‍ पौधों के आनुवांशिक संसाधनों को संरक्षित करने, सुधारने तथा उपलब्ध कराने में सहायता करता है। उदाहरणार्थ, आलू का संकरित रूप। यह संरक्षण अनुसंधान एवं विकास में निवेश को बढ़ावा देता है, भारतीय कृषकों को काश्तकार, संरक्षक व प्रजनक के रूप में मान्यता देने के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता के बीज तथा कृषि उपकरण सुलभ कराता है। यह बीज उद्योग की वृद्धि में सहायता करता है।


अर्द्धचालक एकीकृत परिपथ अभिन्यास अभिकल्प

क्या आपने कभी कम्प्यूटर चिप देखी है? क्या आप एकीकृत परिपथ, जिसे ‘IC’ भी कहते हैं, से परिचित हैं? अर्द्धचालक, प्रत्येक कम्प्यूटर का एक अनिवार्य अंग है। कोई भी उत्पाद जिसमें ट्रांजिस्टर तथा अन्य विद्युत परिपथ तंत्र के तत्व प्रयुक्त किये गये हैं और वह अर्द्धचालक सामग्री पर, विद्युत-रोधी सामग्री के रूप में अथवा अर्द्धचालक सामग्री के भीतर बना हो। इलेक्ट्रानिक विद्युत परिपथ तंत्र प्रकार्य को निष्पादित करने हेतु ही इसका अभिकल्प एेसा है।


प्राज्ञ सम्पत्ति तथा व्यवसाय

हम प्राज्ञ सम्पत्ति के महत्व तथा इसे संरक्षित करने के तरीके के रूप में प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों की चर्चा पहले ही कर चुके हैं। आइए, अब देखते हैं कि यह व्यवसाय की कैसे सहायता करता है। एक पुरानी कहावत ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ का स्मरण कीजिए। यदि हम पाषाण युग से पहिये के विकास को देखें तो पाएँगे कि गोल पहिये की खोज की गयी क्योंकि कार्यकुशलता बढ़ाने हेतु इसकी आवश्यकता महसूस की गई थी। इस पहिये ने विभिन्न प्रौद्योगिकी उन्नयनों को देखा और आज हम सिएट, जे.के. टायर्स, ब्रिजस्टोकन इत्यादि जैसे- विशाल व सफल व्यवसायों के बारे में जानते हैं।

व्यवसाय को आगे बढ़ाने में यह समीक्षात्मक है कि क्या कोई व्यवसाय, बाजार में अपने आपको स्थापित कर रहा है, अथवा वह पहले से ही अपनी प्राज्ञ सम्पत्ति को सुदृढ़, संरक्षित एवं सुव्यवस्थित कर रहा है। किसी भी व्यवसाय को निरंतर नवप्रवर्तन तथा आगे के बारे में सोचना होता है, अन्यथा वह एेसे ही निष्क्रिय तथा क्षीण हो जायेगा। दूसरों की प्राज्ञ सम्पत्तियों का सम्माान, न केवल नैतिक आधार पर बल्कि कानूनी आधार पर भी करना अनिवार्य है। अंततः दूसरों की प्राज्ञ सम्पत्ति के सम्मान से ही अपनी प्राज्ञ सम्पत्ति का मान होता है।

स्टार्ट अप एक उद्यमीय उपक्रम है, जो लक्षित समूहों हेतु नये उत्पादों, प्रक्रियाओं तथा सेवाओं का विकास, सुधार व नवप्रवर्तन करके लाभ उठाता है। आज स्टार्ट अप कई विघटनकारी प्रौद्योगिकियों, जिन्होंने हमारे सोचने तथा जीने के तरीके बदल दिये हैं, हेतु उत्तरदायी हैं। 20,000 से अधिक स्टार्ट अप के साथ भारत को विश्व का तीसरा बड़ा स्टार्ट अप वातावरण वाला देश कहा जाता है।

स्टार्ट अप इंडिया पहल, भारतीयों में उद्यमीय दौर पर पकड़ बनाने, तथा नौकरी ढूंढ़ने वालों की बजाय नौकरी उपलब्ध कराने वालों का राष्ट्र बनाने हेतु प्रयासरत है। प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों द्वारा संरक्षण छत्र के विस्तार द्वारा नये उपक्रमों की सहायता करने, उनकी योजनाओं को पूँजी प्रदान करने तथा बाजार में प्रतिस्पर्द्धा स्थापित करने में प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार समीक्षात्मक हो सकते हैं।


मुख्य शब्दावली

छोटे पैमाने के उद्योग                               कुटीर उद्योग                                अति-सूक्ष्म उद्योग

सूक्ष्म व्यवसाय उपक्रम                             खादी उद्योग                                 उद्यमशीलता


सारांश

भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका- छोटे पैमाने के उद्योग देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये उद्योग कुल औद्योगिक इकाइयों के 95 प्रतिशत हैं और सकल औद्योगिक मूल्य में 40 प्रतिशत तक तथा कुल निर्यात में 45 प्रतिशत योगदान करते हैं। छोटे पैमाने के उद्योग, कृषि के बाद, मानव संसाधनों के दूसरे सबसे बड़े नियोक्ता हैं तथा अर्थव्यवस्था हेतु उत्पादों के कई प्रकारों का उत्पादन करते हैं। स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री तथा स्वदेशी प्रौद्योगिकी का उपयोग करके ये इकाइयाँ देश के संतुलित क्षेत्रीय विकास में योगदान करती हैं। ये उद्यमिता हेतु विशाल कार्यक्षेत्र उपलब्ध कराते हैं; उत्पादन की कम लागत का लाभ उठाते हैं; त्वरित निर्णय व त्वरित अनुकूलनशीलता और ग्राहक के अनुसार उत्पादन करने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त हैं।

ग्रामीण भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका- लघु व्यवसाय इकाइयाँ, गैर-कृषि क्रियाओं की विशाल शृंखला में आय के कई स्रोत उपलब्ध कराती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों में, विशेषतः परंपरागत दस्तकारों एवं समाज के कमजोर वर्गों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं।

लघु उघोगों को सरकारी सहायता- सहायता उपलब्ध कराने वाले कुछ मुख्य संस्थान हैं- राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक, ग्रामीण लघु व्यवसाय विकास केन्द्र, राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम, भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक, असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों हेतु राष्ट्रीय निगम, ग्रामीण एवं महिला उद्यमिता विकास, लघु एवं मध्यम उपक्रमों हेतु विश्व संघ, परंपरागत उद्योगों की पुनरुत्पत्ति हेतु निधि योजना तथा जिला औद्योगिक केन्द्र।

उद्यमीः ‘उद्यमी’, ‘उद्यमिता’ तथा ‘उद्यम’ को हिन्दी भाषा के वाक्य निर्माण के साथ‍ समानता रखकर समझा जा सकता है। उद्यमी एक व्यक्ति (कर्ता) है, उद्यमिता एक प्रक्रिया (क्रिया) है तथा उद्यम, व्यक्ति की रचना अथवा प्रक्रिया का निर्गत (कर्म) है।


अभ्यास

लघु उत्त‍रीय प्रश्न

1. व्‍यवसाय के आकार को मापने हेतु विभिन्न मापदंड क्या हैं?

2. छोटे पैमाने के उद्योगों हेतु भारत सरकार द्वारा कौन-सी परिभाषा प्रयुक्त की जाती है?

3. एक गौण इकाई तथा एक अति-सूक्ष्म इकाई के बीच आप कैसे अंतर्भेद करेंगे?

4. कुटीर उद्योगों की विशेषताएँ बताइए।

5. ‘उद्यमी’, ‘उद्यमिता’ तथा ‘उद्यम’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

6. उद्यमिता को एक रचनात्मक क्रिया क्यों माना जाता है?

7. "उद्यमी औसत दर्जे का जोखिम उठाते हैं।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।

8. अपनी प्रिय पुस्तक/फिल्म, गीत का नाम लिखिए। पता लगाइए कि उसका मूल रचयिता कौन है तथा प्रत्येक रचना हेतु प्रतिलिप्याधिकार का स्वामी कौन है?

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. छोटे पैमाने के उद्योग भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार योगदान करते हैं?

2. ग्रामीण भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका की व्याख्या कीजिए।

3. छोटे पैमाने के उद्योगों के सामने आने वाली समस्याओं की चर्चा कीजिए।

4. छोटे पैमाने के क्षेत्र में वित्त एवं विपणन की समस्या को हल करने हेतु सरकार द्वारा क्या उपाय किये गये हैं?

5. पिछड़े एवं पहाड़ी क्षेत्रों में उद्योगों हेतु सरकार द्वारा कौन-कौन से प्रेरक उपलब्ध कराये गये हैं?

6. एक नये व्यवसाय को प्रारंभ करने से संबद्ध चरणों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

7. उद्यमिता एवं आर्थिक विकास के बीच संबंध की प्रकृति की जाँच कीजिए।

8. स्पष्ट कीजिए कि एक व्यक्ति द्वारा उद्यमिता को जीवनवृत्ति के रूप में चुनने के निर्णय को अभिप्रेरणा तथा सामर्थ्य कैसे प्रभावित करते हैं।

9. भारत सरकार की स्टार्ट अप योजना की विशेषताओं की चर्चा कीजिए।

10. प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार की व्याख्या करें। इसके विभिन्न तत्वों को विस्तार से बताएँ।