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अध्याय 11
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
अधिगम उद्देश्य
इस अध्याय के अध्ययन के पश्चात् आप :
• अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का अर्थ समझ सकेंगे;
• यह बता सकेंगे कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार घरेलू व्यापार से किस प्रकार से भिन्न है?
• अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र का वर्णन कर सकेंगे;
• अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों का वर्णन कर सकेंगे;
• निर्यात सौदों के क्रियान्वयन से संबद्ध विभिन्न महत्वपूर्ण प्रलेखों की चर्चा कर सकेंगे।
• अंतर्राष्ट्रीय इकाइयों को मिलने वाले विभिन्न प्रलोभनाें एवं योजनाओं की पहचान कर सकेंगे।
• विदेशी व्यापार के प्रवर्तन के लिए देश में स्थापित विभिन्न संगठनों की भूमिका की पहचान कर सकेंगे एवं उसे बता सकेंगे।
• विश्व स्तर के प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों एवं समझौतों को सूचीबद्ध कर सकेंगे तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं विकास के प्रवर्तन में उनकी भूमिका की व्याख्या कर सकेंगे।
श्री मनचंदा को यह ज्ञान नहीं है कि वह बाह्य व्यवसाय को कैसे जमाए। क्या उसे दूसरे देशों में बैठे ग्राहकों की पहचान कर उनसे संपर्क साधना चाहिए या उन्हें सीधे माल निर्यात कर देना चाहिए या फिर उसे अपना माल निर्यात ग्रहों के माध्यम से भेजना चाहिए जो कि दूसरे के निर्मित माल का निर्यात करने में विशिष्टता प्राप्त किये हुए हैं।
श्री मनचंदा का पुत्र, जो हाल ही में अमेरिका से एम.बी.ए. करने के पश्चात् लौटा है, ने सुझाव दिया कि उन्हें अपनी निजी फैक्टरी बैंकाक में लगानी चाहिए जिससे कि दक्षिण-पूर्व एशिया एवं मध्य-पूर्व के देशों के ग्राहकों को माल की आपूर्ति की जा सके। वहाँ कारखाना लगाने से भारत से माल भेजने पर परिवहन व्यय की बचत होगी। इससे उनकी विदेश में ग्राहकों से नजदीकियां भी बढ़ेंगी।
श्री मनचंदा पशोपेश में है कि क्या करें जैसा उनके मित्र ने विदेशों से व्यापार करने में आने वाली कठिनाइयों के संबंध में बताया। वह सोच रहा है कि क्या वास्तव में वैश्विक बाजार में प्रवेश किया जाए। उन्हें यह भी नहीं पता है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रवेश के कौन-कौन से मार्ग हैं तथा उनमें से कौन-सा श्रेष्ठतम है।
11.1 परिचय
पूरे विश्व के विभिन्न देशों में वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं उनके विक्रय के तरीकों में आधारभूत परिवर्तन आ रहे हैं। जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ अभी तक आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त करने में लगी थीं, अब उन्हें विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के एकत्रीकरण एवं आपूर्ति के लिए अधिक से अधिक दूसरों पर आश्रित होना पड़ रहा है। अपने देश की सीमाओं के पार व्यापार एवं विनियोग के बढ़ने के कारण अब देश अकेले नहीं पड़ रहे हैं।
इस क्रांतिकारी परिवर्तन का मुख्य कारण संप्रेषण, तकनीक, आधारभूत ढाँचा आदि के क्षेत्र में विकास है। नये-नये संप्रेषण के माध्यम एवं परिवहन के तीव्र एवं अधिक सक्षम साधनों के विकास ने विभिन्न देशों को एक-दूसरे के नज़दीक ला दिया है। जो देश भौगोलिक दूरी एवं सामाजिक, आर्थिक अंतर के कारण एक-दूसरे से कटे हुए थे, वे अब एक-दूसरे से संवाद कर रहे हैं। विश्व व्यापार संघ (डब्ल्यू.टी.ओ.) एवं विभिन्न देशों की सरकारों के द्वारा किये गये सुधारों का विभिन्न देशों के बीच संवाद एवं व्यावसायिक संबंध की वृद्धि में भारी योगदान रहा है।
आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं, उसमें वस्तु एवं व्यक्तियों की सीमा पार आवागमन में बाधाएँ बहुत कम हो गई हैं। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ आज सीमारहित होती जा रही हैं तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था में समाहित होती जा रही हैं। आश्चर्य नहीं कि आज पूरी दुनिया एक भूमंडलीय गाँव में बदल गई है। आज के युग में व्यवसाय किसी एक देश की सीमाओं तक सीमित नहीं रह गया है। अधिक से अधिक व्यावसायिक इकाइयाँ आज अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रवेश कर रही हैं, जहाँ उन्हें विकास एवं अधिक लाभ के अवसर प्राप्त हो रहे हैं।
भारत सदियों से अन्य देशों से व्यापार करता रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसने विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित होने एवं अपने विदेशी व्यापार एवं निवेश में वृद्धि की प्रक्रिया को पर्याप्त गति प्रदान की है। (देखें बॉक्स 1 भारत वैश्वीकरण की राह पर)।
11.1.1 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय/ व्यापार का अर्थ
जब व्यापारिक क्रियाएँ भौगोलिक सीमाओं की परिधि में होती हैं तो इसे घरेलू व्यापार अथवा राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं। इसे आंतरिक व्यापार अथवा घरेलू व्यापार भी कहते हैं। कोई देश अपनी सीमाओं से बाहर विनिर्माण एवं व्यापार करता है तो उसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय अथवा बाह्य व्यवसाय को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है- यह वह व्यावसायिक क्रिया है जो राष्ट्र की सीमाओं के पार की जाती है। इसमें न केवल वस्तु एवं सेवाओं का ही व्यापार सम्मिलित है बल्कि पूँजी, व्यक्ति, तकनीक, बौद्धिक संपत्ति, जैसे- पेटेंट्स, ट्रेडमार्क, ज्ञान एवं कॉपीराइट का आदान-प्रदान भी।
भारत वैश्वीकरण की राह पर
सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट सरकार के पतन एवं यूरोप तथा अन्यत्र में सुधार कार्यक्रमों के पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय ने उत्थान के नये युग में प्रवेश किया। भारत भी इस प्रगति में अलग-थलग नहीं रहा। उस समय भारत भारी ऋण के बोझ से दबा हुआ था। 1991 में भारत ने अपने भुगतान शेष के घाटे को पूरा करने के लिए कोष जुटाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) गुहार लगाई। आई.एम.एफ. भारत को इस शर्त पर ऋण देने को तैयार हो गया कि भारत ढाँचागत परिवर्तन करेगा जिससे कि ऋण के भुगतान को सुनिश्चित किया जा सके। भारत के पास इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। ये आई.एम.एफ. द्वारा लगाई गई शर्तें ही थीं जिसके कारण भारत को कमोबेश अपनी आर्थिक नीतियों में उदारीकरण के लिए बाध्य होना पड़ा। तभी से आर्थिक क्षेत्र में काफी बड़ी मात्रा में उदारीकरण आया है।
यद्यपि सुधार प्रक्रिया थोड़ी धीमी हो गई है फिर भी भारत वैश्वीकरण एवं विश्व अर्थव्यवस्था से पूरी तरह जुड़ जाने के मार्ग पर अग्रसर है। एक ओर कई बहुराष्ट्रीय निगम (एम.एन.सी.) अपनी वस्तुओं एवं सेवाओं की बिक्री का भारतीय बाजार में साहस कर रही हैं, वहीं भारतीय कंपनियों ने भी विदेशों में उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद एवं सेवाओं के विपणन हेतु अपने देश से बाहर कदम रखे हैं।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि बहुत-से लोग अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से लगाते हैं। लेकिन यह सत्य नहीं है। इसमें कोई शंका नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अर्थात् वस्तुओं का आयात एवं निर्यात एेतिहासिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का एक महत्त्वपूर्ण भाग रहा है। लेकिन पिछले कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। सेवाओं का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, जैसे- अंतर्राष्ट्रीय यात्रा एवं पर्यटन, परिवहन, संप्रेषण, बैंकिंग, भंडारण, वितरण एवं विज्ञापन काफी अधिक बढ़ गया है। उतनी ही महत्त्वपूर्ण प्रगति विदेशी निवेश में वृद्धि एवं विदेशों में वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन में हुई है। अब कंपनियाँ दूसरे देशों में अधिक विनियोग तथा वस्तु एवं सेवाओं का उत्पादन करने लगी हैं जिससे कि वे विदेशी ग्राहकों के और समीप आ सकें तथा कम लागत पर और अधिक प्रभावी ढंग से उनकी सेवा कर सकें। ये सभी गतिविधियाँ अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का भाग हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय एक व्यापक शब्द है, जो विदेशों से व्यापार एवं वहां वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से मिलकर बना है।
11.1.2 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के कारण
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का आधारभूत कारण है कि देश अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का भली प्रकार से एवं सस्ते मूल्य पर उत्पादन नहीं कर सकते। इसका कारण उनके बीच प्राकृतिक संसाधनों का असमान वितरण अथवा उनकी उत्पादकता में अंतर हो सकता है। उत्पादन के विभिन्न साधन जैसे श्रम, पूँजी एवं कच्चा माल, जिनकी विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के लिए आवश्यकता होती है, संसाधनों की उपलब्धता अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती है। वैसे विभिन्न राष्ट्रों में श्रम की उत्पादकता एवं उत्पादन लागत में भिन्नता विभिन्न सामाजिक-आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक कारणों से होती है। इन्हीं कारणों से यह कोई असाधारण बात नहीं है कि कोई एक देश अन्य देशों की तुलना में श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली वस्तुओं एवं कम लागत पर उत्पादन की स्थिति में हो। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कुछ देश कुछ चुनिंदा वस्तुओं एवं सेवाओं के लाभ में उत्पादन करने की स्थिति में होते हैं जबकि इन्हीं को अन्य देश उतने ही प्रभावी एवं क्षमता से उत्पादन नहीं कर सकते। इसी कारण से प्रत्येक देश के लिए उन वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन अधिक लाभप्रद रहता है जिनका वह अधिक कुशलतापूर्वक उत्पादन कर सकते हैं तथा शेष वस्तुओं को वह व्यापार के माध्यम से उन देशों से ले सकते हैं जो उन वस्तुओं का उत्पादन कम लागत पर कर सकते हैं। संक्षेप में किसी एक देश का दूसरे देश से व्यापार का यही कारण है और इसी व्यापार को अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय कहते हैं।
आज का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार काफी हद तक ऊपर वर्णित भौगोलिक विशिष्टीकरण का परिणाम है। मूल रूप से किसी एक देश में इसके विभिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों के बीच घरेलू व्यापार का कारण भी यही है। किसी एक देश के विभिन्न राज्य या फिर क्षेत्र उन्हीं वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के विशेषज्ञ हो जाते हैं जिनके उत्पादन के लिए वह सर्वथा उपयुक्त हैं। उदाहरण के लिए, भारत में पश्चिम बंगाल यदि जूट से तैयार वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता लिए हुए है, तो महाराष्ट्र में मुम्बई एवं इसके आस-पास के क्षेत्र सूती वस्त्रों के उत्पादन में अधिक संलग्न हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी क्षेत्रीय श्रम विभाजन इसी सिद्धांत के आधार पर होता है। अधिकांश विकासशील देश जिनके पास श्रम शक्ति काफी अधिक है सिले/सिलाए वस्त्रों के उत्पादन एवं निर्यात में विशिष्टता लिए हुए हैं। इन देशों के पास पूँजी एवं तकनीकी ज्ञान की कमी है। इसीलिए यह टैक्सटाइल मशीनें विकसित देशों से आयात करते हैं जो इन मशीनों का उत्पादन अधिक कुशलता से करने की स्थिति में हैं।
जो एक देश के लिए सत्य है, वह व्यावसायिक इकाइयों के लिए भी सत्य है। विभिन्न फर्म भी अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से जुड़कर उन वस्तुओं का आयात करती हैं जिन्हें वह दूसरे देशों से कम मूल्य पर प्राप्त कर सकती हैं तथा दूसरे देशों को उन वस्तुओं का निर्यात करती हैं जहाँ उन्हें अपनी वस्तुओं का अधिक मूल्य प्राप्त हो सकता है। राष्ट्रों एवं फर्मों को अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से केवल मूल्य का ही लाभ नहीं मिलता है बल्कि और भी बहुत-से लाभ प्राप्त होते हैं। ये दूसरे लाभ भी राष्ट्रों एवं फर्मों को अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय करने के लिए प्रेरित करते हैं। इन लाभों का वर्णन हम बाद के एक अनुभाग में करेंगे।
11.1.3 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बनाम घरेलू व्यवसाय
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का संचालन एवं प्रबंधन घरेलू व्यवसाय को चलाने से कहीं अधिक जटिल है। विदेशों की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक वातावरण की विविधताओं के कारण व्यावसायिक इकाइयों के लिए घरेलू व्यवसाय में अपनाई जाने वाली रणनीति को विदेशी बाजार में प्रयोग नहीं किया जा सकता। घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में विभिन्न पहलुओं पर अंतर नीचे दिये गये हैं-
(क) क्रेताओं एवं विक्रेताओं की राष्ट्रीयता- व्यावसायिक सौदों के मुख्य पक्षों (क्रेता एवं विक्रेता) की राष्ट्रीयता घरेलू व्यवसाय व अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायों में अलग-अलग होती है। घरेलू व्यवसाय में क्रेता एवं विक्रेता दोनों एक ही देश के वासी होते हैं। इसीलिए दोनों पक्ष एक दूसरे को भली-भांति समझते हैं तथा व्यावसायिक लेन-देन करते हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में क्रेता एवं विक्रेता दो भिन्न देशों के होते हैं। भाषा, रुझान, सामाजिक रीतियाँ एवं व्यावसायिक उद्देश्य एवं व्यवहार में अंतर के कारण एक-दूसरे से संवाद एवं व्यावसायिक सौदों को अंतिम रूप देना अपेक्षाकृत अधिक कठिन होता है।
(ख) अन्य हितार्थियों की राष्ट्रीयता- घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अन्य हितार्थी, जैसे- कर्मचारी, आपूर्तिकर्ता, अंशधारक/साझीदार एवं सामान्य जनता जिनका व्यावसायिक इकाइयों से वास्ता पड़ता है, उनकी राष्ट्रीयता भी भिन्न होती है। घरेलू/आंतरिक व्यवसाय में यह सभी अदाकार एक ही देश के होते हैं इसलिए इनके मूल्यों एवं व्यवहार में अपेक्षाकृत अधिक अनुरूपता होती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में इकाइयों को अलग देशों के हितार्थियों के मूल्यों एवं आकांक्षाओं को ध्यान में रखना होता है।
(ग) उत्पादन के साधनों में गतिशीलता- देश की सीमाओं की तुलना में अन्य देशों के बीच श्रम एवं पूँजी जैसे उत्पादन के साधनों की गतिशीलता कम होती है। ये साधन देश की सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता से गतिमान रहते हैं जबकि एक देश से दूसरे देश के बीच इनके आवागमन पर कई प्रकार की रोक लगी होती हैं। इनमें कानूनी रोक तो होती है। इनके अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण, भौगोलिक प्रभाव एवं आर्थिक स्थिति में भिन्नता भी इनके स्वतंत्र परिगमन में बाधक होते हैं। यह श्रम के लिए विशेष रूप से सत्य है क्योंकि इनके लिए अपने आपको जलवायु, आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकूल ढालना कठिन होता है जोकि हर देश की अलग-अलग होती हैं।
(घ) विदेशी बाजारों मेेें ग्राहक- अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रेता अलग-अलग देशों से आते हैं इसलिए उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी भिन्न होती है। उनकी रुचि, फैशन, भाषा, विश्वास एवं रीतिरिवाज़, रुझान एवं वस्तुओं को प्राथमिकता में अंतर के कारण न केवल वस्तु एवं सेवाओं की मांग में भिन्नता होती है बल्कि उनके संप्रेषण स्वरूप एवं क्रय व्यवहार में विविधता होती है। सामाजिक- सांस्कृतिक भिन्नता के कारण ही चीन के लोग जहाँ साइकिल पसंद करते हैं, वहीं इसके विपरीत जापानी मोटरसाइकिल की सवारी पसंद करते हैं। इसी प्रकार, जहाँ भारत के लोग दायीं ओर बैठकर कार चलाते हैं, वहीं अमेरिका के लोग उन कारों को बाँयी ओर चलाते हैं जिनमें स्टीयरिंग, ब्रेक आदि बाँयी ओर लगे होते हैं। अमेरिका में लोग अपने टेलीविज़न, मोटर साइकिल या अन्य उपभोग की स्थायी वस्तुओं को क्रय के पश्चात् दो से तीन वर्ष में बदल लेते हैं, वहीं भारत के लोग इनके स्थान पर दूसरी इकाई तब तक नहीं खरीदते जब तक कि वर्तमान इकाइयाँ पूरी तरह से घिस न जाएँ।
इन्हीं विभिन्नताओं के कारण दूसरे देशों के ग्राहकों को ध्यान में रखकर वस्तुओं को तैयार किया जाता है एवं रणनीति तैयार की जाती है। यद्यपि किसी एक देश के ग्राहकों की रुचि एवं पसंद में भी अंतर हो सकते हैं लेकिन विदेशों में अपेक्षाकृत अधिक होते हैं।
(ङ) व्यवसाय पद्धतियों एवं आचरण में अंतर- कई देशों को लें तो उनमें व्यवसाय पद्धतियों एवं आचरणों में बहुत अधिक अंतर पाएंगे जबकि एक ही देश के भीतर इतना अंतर नहीं होगा। दो देश सामाजिक-आर्थिक विकास, उपलब्धता, आर्थिक आधारभूत ढाँचा एवं बाजार समर्थित सेवाएँ एवं व्यवसाय संबंधी रीति एवं आचरण के क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक वातावरण एवं एेतिहासिक अवसरों के कारण एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। अंतर के इन्हीं कारणों से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश की इच्छुक व्यावसायिक इकाइयाँ अपनी उत्पादन, वित्त, मानव संसाधन एवं विपणन योजनाओं को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्याप्त परिस्थितियों के अनुसार ढालती हैं।
(च) राजनीतिक प्रणाली एवं जोखिमें- सरकार, राजनीतिक दल प्रणाली, राजनीतिक विचारधारा, राजनीतिक जोखिमें आदि जैसे- राजनीतिक तत्व व्यवसाय प्रचालन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं।
एक व्यवसायी अपने देश के राजनीतिक वातावरण से भली-भांति परिचित होता है तथा इसे वह समझता है तथा व्यावसायिक गतिविधियों पर इसके प्रभाव का अनुमान लगा सकता है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में एेसा नहीं है। अलग-अलग देशों का राजनीतिक वातावरण अलग-अलग होता है। राजनीतिक वातावरण की भिन्नता एवं व्यवसाय पर पड़ने वाले उनके प्रभाव को समझने के लिए विशेष प्रयत्न करना होता है। चूँकि राजनैतिक वातावरण बदलता रहता है इसलिए जिस देश से व्यापार करना है, उसमें समय-समय पर हो रहे राजनैतिक परिवर्तनों पर नज़र रखनी आवश्यक है तथा विभिन्न राजनैतिक जोखिमों का सामना करने के लिए रणनीति बनायी जाती है।
किसी अन्य बाहर के देश के राजनैतिक वातावरण की सबसे बड़ी समस्या है कि यह देश अपने ही देश के उत्पाद एवं सेवाओं को अन्य देशों की वस्तुओं एवं सेवाओं की अपेक्षा पसंद करते हैं। अपने ही देश में व्यवसाय कर रही फर्मों के लिए यह कोई समस्या नहीं है लेकिन जो फर्में दूसरे देशों को वस्तु एवं सेवाएँ निर्यात करना चाहती हैं या फिर दूसरे देश में अपने संयंत्र लगाना चाहती हैं, यह बहुत बड़ी कठिनाई पैदा करती है।
(छ) व्यवसाय के नियम एवं नीतियाँ- प्रत्येक देश अपने सामाजिक-आर्थिक वातावरण एवं राजनीतिक विचारधारा के अनुसार व्यवसाय के नियम एवं कानून बनाता है। ये नियम कानून एवं आर्थिक नीतियाँ देश की सीमाओं में लगभग समान रूप से लागू होती हैं लेकिन कई देशों को लेते हैं तो इनमें बहुत अधिक अंतर होता है। किसी एक देश के सीमा शुल्क एवं कर संबंधी नीतियाँ, आयात कोटा प्रणाली, आर्थिक सहायता एवं अन्य नियंत्रण अन्य देशों के समान नहीं होते हैं तथा विदेशी वस्तुओं, सेवाओं एवं पूँजी के साथ भेदभाव बरतते हैं।
(ज) व्यावसायिक लेन-देनों के लिए प्रयुक्त मुद्रा- आंतरिक एवं बाह्य व्यवसाय में एक और महत्वपूर्ण अंतर है। बाह्य देशों की मुद्राएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। विनिमय दर अर्थात् किसी एक देश की मुद्रा का मूल्य परिवर्तित होता रहता है। इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में कार्यरत फर्म के लिए अपनी वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करना एवं विदेशी विनिमय के जोखिमों से सुरक्षा कठिन हो जाती है।
11.1.4 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का क्षेत्र
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक होता है। इसमें न केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (वस्तु एवं सेवाओं का आयात एवं निर्यात) सम्मिलित है बल्कि और भी बहुत-से कार्य हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय की प्रमुख क्रियाएं निम्नलिखित हैं-
(क) वस्तुओं का आयात एवं निर्यात- व्यापार की वस्तुओं से अभिप्राय उन मूर्त वस्तुओं से है, अर्थात् जिन्हें हम देख सकते हैं एवं स्पर्श कर सकते हैं। जब हम इस संदर्भ में देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यापार वस्तुओं के निर्यात का अर्थ है- मूर्त वस्तुओं को अन्य देशों को भेजना तथा इनके आयात का अर्थ है- मूर्त वस्तुओं को बाह्य देश से अपने देश में लाना। व्यापारिक वस्तुओं के आयात-निर्यात, अर्थात् वस्तुओं के व्यापार में मूर्त वस्तुएँ ही सम्मिलित होती हैं तथा सेवाओं में व्यापार का भाग नहीं होता है।
(ख) सेवाओं का आयात एवं निर्यात- सेवाओं के आयात निर्यात में अमूर्त वस्तुओं का व्यापार होता है। इसी अमूर्त लक्षण के कारण सेवाओं में व्यापार को अदृश्य व्यापार भी कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक सेवाओं का व्यापार होता है, जिनमें सम्मिलित हैं- पर्यटन एवं यात्रा, भोजनालय एवं विश्राम (होटल एवं जलपान गृह) मनोरंजन, परिवहन, पेशागत सेवाएँ (जैसे- प्रशिक्षण, भर्ती, परामर्श देना एवं अनुसंधान), संप्रेषण (डाक, टेलीफोन, फैक्स, कूरियर एवं अन्य श्रव्य दृश्य), निर्माण एवं इंजीनियरिंग, विपणन (थोक विक्रय, फुटकर विक्रय, विज्ञापन, विपणन अनुसंधान एवं भंडारण), शैक्षणिक एवं वित्तीय सेवाएँ (जैसे- बैंकिग एवं बीमा)। इनमें से पर्यटन एवं परिवहन व्यावसायिक सेवाओं के विश्व व्यापार के प्रमुख अंग हैं।
(ग) लाइसेंस एवं फ्रैंचाइजी- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश का एक और मार्ग है किसी दूसरे देश में वहीं के व्यवसासी को कुछ फीस के बदले आपके अपने ट्रेडमार्क, पेटेंट या कॉपी-राइट के अंतर्गत वस्तुओं के उत्पादन एवं विक्रय की अनुमति देना। लाइसेंस प्रणाली के अंतर्गत ही विदेशों में स्थानीय पेप्सी एवं कोकाकोला उत्पादन एवं विक्रय करते हैं। फ्रैंचाइजी भी लाइसेंस प्रणाली के समान है लेकिन यह सेवाओं के संदर्भ में प्रयुक्त होती है। उदाहरणार्थ मैकडोनाल्ड्स फ्रैंचाइजी प्रणाली के द्वारा ही पूरे विश्व में त्वरित खाद्य जलपान गृह चलाते हैं।
तालिका 11.1 घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में कुछ प्रमुख अंतर
आधार | घरेलू व्यवसाय | अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय |
1. क्रेता एवं विक्रेताओं | घरेलू व्यावसायिक लेन-देन में एक ही देश के व्यक्ति अथवा संगठन भाग लेते हैं। | अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में विभिन्न देशों की राष्ट्रीयता प्राप्त लोग एवं संगठन भाग लेते हैं। |
2. अन्य हितार्थियों की राष्ट्रीयता | अनेकों दूसरे हितार्थी जैसे आपूर्तिकर्ता, कर्मचारी, मध्यस्थ, अंशधारक एवं साझेदार सामान्यतः एक ही देश के नागरिक होते हैं। | अन्य दूसरे हितार्थी आपूर्तिकर्त्ता, कर्मचारी, मध्यस्थ, अंशधारक एवं साझेदार अलग-अलग देशों से होते हैं। |
3. उत्पादन के साधनों की गतिशीलता | एक देश की सीमाओं में उत्पादन के साधन जैसे श्रम एवं पूँजी अपेक्षाकृत अधिक गतिशील होते हैं। | विभिन्न देशों के बीच उत्पादन के साधन जैसे- श्रम एवं पूँजी अपेक्षाकृत कम गतिशील होते हैं। |
4. बाजार में ग्राहकों के स्वरूप में भिन्नता | घरेलू बाजार में अपेक्षाकृत अधिक समरूपता पाई जाती है। | अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भाषा प्राथमिकताओं रीति-रिवाजों आदि की भिन्नता के कारण समरूपता का अभाव रहता है। |
5. व्यवसाय की प्रणालियों एवं व्यवहार में भिन्नता | एक देश की सीमाओं के भीतर व्यवसाय की प्रणालियों एवं व्यवहार में अधिक समरूपता पाई जाती है। | विभिन्न देशों में व्यवसाय की पद्धतियाँ एवं व्यवहार भी भिन्न होते हैं। |
6. राजनैतिक प्रणालियाँ एवं जोखिमें | घरेलू व्यवसाय को एक ही देश की राजनैतिक प्रणाली एवं जोखिमों से वास्ता पड़ता है। | अलग-अलग देशों की राजनैतिक प्रणालियों के स्वरूप एवं जोखिमों की सीमा अधिक होती है जो कभी-कभी अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में बाधक हो जाती है। |
7. व्यवसाय संबंधित नियम एवं नीतियाँ | घरेलू व्यवसाय में, एक ही देश के नियम, कानून, नीतियाँ एवं कर प्रणाली लागू होती हैं। | अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में लेन-देन पर बहुत से देशोें के नियम, कानून एवं नीतियाँ सीमा शुल्क एवं कोटा आदि लागू होते हैं। |
8. व्यवसाय में प्रयुक्त मुद्रा | अपने देश की मुद्रा प्रयोग की जाती है। | अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में लेन-देन एक से अधिक देशों की मुद्रा में होता है। |
(घ) विदेशी निवेश- विदेशों में निवेश करना अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का एक और महत्वपूर्ण प्रकार है। विदेशी निवेश में कुछ वित्तीय प्रतिफल के बदले विदेशों में धन का निवेश किया जाता है। विदेशी निवेश दो प्रकार के हो सकते हैं– प्रत्यक्ष एवं पेटिका निवेश।
प्रत्यक्ष निवेश में एक कंपनी किसी देश में वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन एवं विपणन के लिए वहाँ संयंत्र एवं मशीनों जैसी परिसंपत्तियों में प्रत्यक्ष निवेश करती है। प्रत्यक्ष निवेश निवेशक को विदेशी कंपनी में नियंत्रण का अधिकार देता है। इसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अर्थात् एफ.डी.आई. कहते हैं। जब किसी एक या अधिक विदेशी व्यवसायी के साथ उत्पादन एवं विपणन में धन लगाया जाता है तो इस क्रिया को संयुक्त उपक्रम कहते हैं। यदि कोई कंपनी चाहती है तो वह विदेशी उपक्रम में 100 प्रतिशत निवेश कर पूर्ण रूप से अपने स्वामित्व में एक सहायक कंपनी की स्थापना कर सकती है। इस प्रकार से उस सहायक कंपनी के विदेशों में व्यवसाय पर इसका पूरा नियंत्रण होगा। दूसरी ओर, एक पेटिका निवेश एक कंपनी का दूसरी कंपनी में उसके शेयर खरीद या फिर ऋण के रूप में निवेश होता है। निवेशक कंपनी को लाभांश या ऋण पर ब्याज के रूप में आय होती है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के समान पेटिका निवेश में निवेशक उत्पादन एवं विपणन क्रियाओं में लिप्त नहीं होता है। इसमें विदेशों में शेयर, बाँड, बिल या नोट में निवेश कर या विदेशी व्यावसायिक फर्मों को ऋण देकर उनसे आय प्राप्त होती है।
11.1.5 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के लाभ
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अनेक जटिलताओं एवं जोखिमों के होते हुए भी यह राष्ट्रों एवं व्यावसायिक फर्मों के लिए महत्वपूर्ण है। इससे उन्हें अनेक लाभ हैं। पिछले वर्षों में प्राप्त इन लाभों के कारण ही विभिन्न राष्ट्रों के बीच व्यापार एवं निवेश का विस्तार हुआ है। परिणामस्वरूप वैश्वीकरण में आशातीत वृद्धि हुई है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के विभिन्न देशों एवं फर्मों के लाभों का वर्णन नीचे किया गया है-
राष्ट्रों को लाभ
(क) विदेशी मुद्रा का अर्जन- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से एक देश को विदेशी मुद्रा के अर्जन में सहायता मिलती है जिसे वह पूँजीगत वस्तुओं एवं उर्वरक, फार्मास्यूटिकल उत्पाद एवं अन्य बहुत-सी एेसी उपभोक्ता वस्तुएँ जो अपने देश में उपलब्ध नहीं हैं, उनके आयात पर व्यय करता है।
(ख) संसाधनों का अधिक क्षमता से उपयोग- जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का संचालन एक सरल सिद्धांत पर किया जाता है– उन वस्तुओं का उत्पादन करें जिसे आपका देश अधिक क्षमता से कर सकता है तथा आधिक्य उत्पादन को दूसरे देशों के उन उत्पादों से विनिमय कर लें जिनका वे अधिक क्षमता से उत्पादन कर सकते हैं। जब राष्ट्र इस सिद्धांत पर व्यापार करते हैं तो वे यदि सभी वस्तु एवं सेवाओं का स्वयं ही उत्पादन करें, तो इससे अधिक उन वस्तुओं का उत्पादन कर सकेंगे जिनका वह भली-भाँति उत्पादन कर सकते हैं। इस प्रकार से सभी देशों की वस्तु एवं सेवाओं को एकत्रित कर उसे समानता के आधार पर उनमें वितरित कर दिया जाए तो इससे व्यापार कर रहे सभी देशों को लाभ होगा।
(ग) विकास की संभावनाओं एवं रोजगार के अवसरों में सुधार- यदि उत्पादन केवल घरेलू उपभोग के लिए किया जाएगा तो इससे देश के विकास एवं रोजगार की संभावनाओं में रुकावट पैदा होगी। अनेक देश, विशेषतः विकासशील देश बड़े पैमाने पर उत्पादन की अपनी योजनाओं को इसलिए कार्यान्वित नहीं कर सके क्योंकि घरेलू बाजार में आधिक्य उत्पादन की खपत नहीं थी इसीलिए वह रोजगार के अवसर भी पैदा नहीं कर सके।
कुछ समय बाद कुछ देश, जैसे- सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं चीन ने विदेशों में अपने माल की बिक्री पर ध्यान दिया तथा निर्यात करो एवं फलो-फूलो की रणनीति अपनाई एवं शीघ्र ही संसार के नक्शे में चोटी के निष्पादक बन गये। इससे न केवल उनके विकास के अवसर बढ़े बल्कि इनके देशवासियों के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा हुए।
(घ) जीवन स्तर में वृद्धि- यदि वस्तु एवं सेवाओं का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नहीं होता तो विश्व समुदाय के लिए दूसरे देशों में उत्पादित वस्तुओं का उपभोग संभव नहीं होता। आज वह इनका उपभोग कर स्वयं भी उच्च जीवन स्तर का आनन्द ले रहे हैं।
फर्मों को लाभ
(क) उच्च लाभ की संभावनाएँ- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में घरेलू व्यवसाय की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त होता है। जब घरेलू बाजार में मूल्य कम हो तो उन देशों में माल बेचकर लाभ कमाया जा सकता है जिनमें मूल्य अधिक है।
(ख) बढ़ी हुई क्षमता का उपयोग- कई इकाइयाँ घरेलू बाजार में उनकी वस्तुओं की मांग से कहीं अधिक क्षमता स्थापित कर लेती हैं। बाह्य विस्तार एवं अन्य देशों के ग्राहकों से आदेश प्राप्त करने की योजना के द्वारा वह अपनी अतिरिक्त उत्पादन क्षमता के उपयोग की सोच सकते हैं तथा व्यवसाय की लाभप्रदता को बढ़ा सकते हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं जिससे उत्पादन लागत में कमी आती है तथा प्रति इकाई लाभ में वृद्धि होती है।
(ग) विकास की संभावनाएँ- व्यावसायिक इकाइयों में उस समय निराशा व्याप्त हो जाती है, जब घरेलू बाजार में उनके उत्पादों की मांग में ठहराव आने लगता है। एेसी इकाइयाँ विदेशी बाजार में प्रवेश कर अपने विकास के अवसर काफी हद तक बढ़ा सकती हैं। यही कारण है जिसने विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विकासशील देशों के बाजार में प्रवेश के लिए प्रेरित किया है। जब उनके अपने देश में मांग लगभग परिपूर्णता पर पहुँच गयी, तभी विकसित देशों में उनकी वस्तुओं को बहुत पसंद किया जाने लगा तथा वहाँ इनकी मांग बड़ी तेजी से बढ़ी।
(घ) आंतरिक बाजार में घोर प्रतियोगिता से बचाव- जब आंतरिक बाजार में गहन प्रतियोगिता हो, तब पर्याप्त विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार ही एकमात्र उपाय है। घरेलू बाजार में गहन प्रतियोगिता के कारण कई कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए बाजार की तलाश में विदेशों को पलायन करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय इस प्रकार से उन फर्मों के लिए विकास की सीढ़ी का काम करता है जिन्हें घरेलू बाजार में भारी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।
(ङ) व्यावसायिक दृष्टिकोण- कई कंपनियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का विकास उनकी व्यावसायिक नीतियों अथवा रणनीतिगत प्रबंधन का एक भाग है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायी बनने की आकांक्षा, विकास की तीव्र इच्छा, अधिक प्रतियोगी होने की आवश्यकता, विविधिकरण की आवश्यकता एवं अंतर्राष्ट्रीयकरण के लाभ प्राप्ति का परिणाम है।
11.2 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश की विधियाँ
सरल शब्दों में विधि का अर्थ है- कैसे या किस मार्ग से। इसलिए ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश की विधि’ वाक्य खंड का अर्थ है- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के विभिन्न तरीके। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ एवं क्षेत्र की परिचर्चा करते समय हमने अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के कुछ मार्गों के संबंध में बताया। आगे के अनुभाग में हम अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश की कुछ महत्त्वपूर्ण प्रणालियों पर उनके लाभ एवं सीमाओं सहित परिचर्चा करेंगे। इस चर्चा से आप यह जान जाएँगे कि किन परिस्थितियों में कौन-सी प्रणाली अधिक उपयुक्त है।
11.2.1 आयात एवं निर्यात
निर्यात से अभिप्राय वस्तु एवं सेवाओं को अपने देश से दूसरे देश को भेजने से है। इसी प्रकार से आयात का अर्थ है विदेशों से माल का क्रयकर अपने देश में लाना। एक फर्म आयात और निर्यात दो तरीकों से कर सकती है प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात। प्रत्यक्ष आयात/निर्यात में फर्म स्वयं विदेशी क्रेता/आपूर्तिकर्ता तक पहुँचती है तथा आयात/निर्यात से संबंधित सभी औपचारिकताओं, जिनमें जहाज में लदान एवं वित्तीयन भी सम्मिलित है, को स्वयं ही पूरा करती है। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात वह है जिसमें फर्म की भागीदारी न्यूनतम होती है तथा वस्तुओं के आयात/निर्यात से संबंधित अधिकांश कार्य को कुछ मध्यस्थ करते हैं जैसे अपने ही देश में स्थित निर्यात गृह या विदेशी ग्राहकों से क्रय करने वाले कार्यालय तथा आयात के लिए थोक आयातक। इस प्रकार की फर्में निर्यात की स्थिति में विदेशी ग्राहकों से एवं आयात में आपूर्तिकर्त्ताओं से सीधे व्यवहार नहीं करती हैं।
लाभ
निर्यात के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैंः–
(क) प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश की आयात/निर्यात सबसे सरल पद्धति है। यह संयुक्त उपक्रमों की स्थापना एवं प्रबंधन से या विदेशों में स्वयं के स्वामित्व वाली सहायक इकाइयों की तुलना में कम जटिल क्रिया है।
(ख) आयात/निर्यात में संबद्धता कम होती है अर्थात् इसमें व्यावसायिक इकाइयों को उतना धन एवं समय लगाने की आवश्यकता नहीं है जितना कि संयुक्त उपक्रम में सम्मिलित होने या फिर मेहमान देश में विनिर्माण संयंत्र एवं सुविधाओं को स्थापित करने में लगाया जाता है।
(ग) क्योंकि आयात/निर्यात में विदेशों में अधिक निवेश की आवश्यकता नहीं होती है इसीलिए विदेशों में निवेश की जोखिम शून्य होता है या फिर अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में यह बहुत ही कम होता है।
आयात/निर्यात की सीमाएँ
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश माध्यम के रूप में आयात/निर्यात की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैंः
(क) आयात/निर्यात में वस्तुओं को भौतिक रूप से एक देश से दूसरे देश को लाया ले जाया जाता है। इसलिए इन पर पैकेजिंग, परिवहन एवं बीमा की अतिरिक्त लागत आती है। विशेष रूप से यदि वस्तुएँ भारी हैं तो परिवहन व्यय आयात/निर्यात में बाधक होता है। दूसरे देश में पहुँचने पर इन पर सीमा शुल्क एवं अन्य कर लगते हैं एवं खर्चे होते हैं। इन सभी खर्चो के प्रभाव स्वरूप उत्पाद की लागत में काफी वृद्धि हो जाती है तो वह कम प्रतियोगी हो जाते हैं।
(ख) जब किसी देश में आयात पर प्रतिबंध लगा होता है तो वहाँ निर्यात नहीं किया जा सकता है। एेसी स्थिति में फर्मों के पास केवल अन्य माध्यमों का ही विकल्प रह जाता है जैसे लाइसेंसिंग/फ्रैंचाइजिंग या फिर संयुक्त उपक्रम। इनके कारण दूसरे देशों में स्थानीय उत्पादन एवं विपणन के माध्यम से उत्पादों को उपलब्ध कराना संभव हो जाता है।
(ग) निर्यात इकाइयाँ मूलरूप से अपने गृह देश से प्रचालन करती हैं। वे अपने देश में उत्पादन कर उन्हें दूसरे देशों में भेजती हैं। निर्यात फर्मों के कार्यकारी अधिकारियों का अपनी वस्तुओं के प्रवर्तन के लिए अन्य देशों की गिनी चुनी यात्राओं को छोड़कर इनका विदेशी बाजार से और अधिक संपर्क नहीं हो पाता। इससे निर्यात इकाइयाँ स्थानीय निकायों की तुलना में घाटे की स्थिति में रहती है क्योंकि स्थानीय निकाय ग्राहकों के काफी समीप होते हैं तथा उन्हें भली-भांति समझते भी हैं।
उपरोक्त सीमाओं के होते हुए सभी जो फर्में अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय को प्रारंभ कर रहीं हैं उनके लिए आयात/निर्यात ही पहली पसंद है। जैसाकि साधारणतः होता है व्यावसायिक इकाइयाँ विदेशों से व्यापार पहले आयात/निर्यात से ही प्रारंभ करते हैं और जब वह विदेशी बाजार से परिचित हो जाते हैं तो अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय प्रचालन के अन्य स्वरूपों को अपनाने लगते हैं।
11.2.2 संविदा विनिर्माण
संविदा विनिर्माण अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का वह स्वरूप है जिसमें एक फर्म विदेशों में अपनी आवश्यकता के अनुसार घटक एवं वस्तुओं के उत्पादन के लिए स्थानीय विनिर्माता अथवा विनिर्माताओं से अनुबंध कर लेते हैं। ठेके पर विनिर्माण को बाह्य स्रोतीकरण भी कहते हैं। इसके तीन प्रमुख प्रकार होते हैंः
(क) कुछ घटकों का उत्पादन जैसे स्वचालित वाहनों का घटक या फिर जूतों के ऊपर के भाग। इन घटकों को बाद में कार एवं जूते बनाने में प्रयोग में लाया जाता है।
(ख) घटकों को समुच्चय कर अंतिम उत्पाद में परिवर्तित करना जैसे हार्डडिस्क, मदरबोर्ड, फ्लॉपी डिस्क ड्राइव तथा मॉडम चित्त का समुच्चय कर कंप्यूटर बनाना।
(ग) कुछ वस्तुओं का पूर्ण रूप से उत्पादन जैसे सिले सिलाए वस्त्र।
वस्तुओं का उत्पादन अथवा संमुच्चयीकरण विदेशी कंपनियों द्वारा प्रदत्त तकनीक एवं प्रबंध दिशानिर्देश के अनुसार स्थानीय उत्पादकों के द्वारा किया जाता है। इन उत्पादित अथवा समुच्चय की गई वस्तुओं को यह स्थानीय उत्पादक अंतर्राष्ट्रीय फर्मों को सौंप देते हैं जो इन्हें या तो अपने अंतिम उत्पादों के लिए प्रयोग में लाते हैं या फिर अपने गृह देश, मेहमान देश एवं अन्य देशों में अपने ब्रांड के नाम से विक्रय करते हैं। जितने भी प्रमुख ब्रांड हैं जैसे नाइक, री बॉक, लीविस एवं रैंगलर यह सभी अपने उत्पाद अथवा घटकों का उत्पादन विकासशील देशों में ठेके पर ही कराते हैं।
लाभ
ठेके पर उत्पादन के अंतर्राष्ट्रीय कंपनी एवं विदेशों एवं स्थानीय उत्पादक दोनों को अनेक लाभ हैं। जो इस प्रकार हैंः
(क) इससे अंतर्राष्ट्रीय फर्में बिना उत्पादन सुविधाओं की स्थापना में पूँजी लगाए बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन करा लेती हैं। यह फर्में दूसरे देशों में पहले से ही उपलब्ध उत्पादन सुविधाओं का उपयोग करती हैं।
(ख) बाह्य देशों में इनकी कोई पूँजी नहीं लगी होती या फिर बहुत कम लगी होती है इसलिए बाह्य देशों में निवेश मे कोई जोखिम नहीं उठानी पड़ती।
(ग) ठेके पर उत्पादन का अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को एक और लाभ कम लागत पर उत्पादन या एकत्रीकरण है विशेष रूप से यदि स्थानीय उत्पादनकर्ता एेसे देशों के हैं जहाँ कच्चामाल एवं श्रम सस्ता है।
(घ) बाह्य देशों के स्थानीय उत्पादकों को भी ठेके पर उत्पादन का लाभ मिलता है। यदि उनकी उत्पादन क्षमता उपयोग में नहीं आ रही है तो ठेके पर उत्पादन का काम एक प्रकार से उन्हें उनके उत्पादों के लिए तैयार बाजार देता है तथा उनकी उत्पादन क्षमताओं के अधिक उपयोग को सुनिश्चित करता है। गोदरेज समूह भारत में ठेका उत्पादन से इसी प्रकार लाभांवित हो रहा है। यह अनुबंध के अधीन कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नहाने के साबुन का उत्पादन कर रहा है जैसे रैकिट एंड कोलमैन के लिए डिटोल साबुन। इससे इसकी साबुन का उत्पादन के अतिरिक्त क्षमता को उपयोग करने में सहायता मिल रही है।
(ङ) स्थानीय उत्पादक को भी अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में सम्मिलित होने का अवसर मिलता है तथा यदि अंतर्राष्ट्रीय निकाय इन उत्पादित वस्तुओं की अपने देश को आपूर्ति करते हैं या फिर किसी अन्य देश को भेजते हैं तो निर्यात फर्मों को मिलने वाले प्रोत्साहन का लाभ भी मिलता है।
सीमाएँ
संविदा विनिर्माण की अंतर्राष्ट्रीय निकायों स्थानीय उत्पादकों को प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैंः
(क) स्थानीय फर्में यदि उत्पादन डिजाइन एवं गुणवत्ता मान के अनुरूप कार्य नहीं करती हैं तो इससे अंतर्राष्ट्रीय फर्म को गुणवत्ता उत्पादन की कठिन समस्या पैदा हो सकती है।
(ख) बाह्य देश के स्थानीय उत्पादक का उत्पादन प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं रहता क्योंकि वस्तुओं का उत्पादन अनुबंध में निर्धारित शर्तों एवं विशिष्ट वर्णन के अनुसार किया जाता है।
(ग) संविदा विनिर्माण के अंतर्गत उत्पादन करने वाली स्थानीय इकाई अपनी इच्छानुसार इस माल को नहीं बेच सकती। इसे अपने माल को अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को पूर्व निर्धारित मूल्य पर ही बेचना होगा। खुले बाजार में इन वस्तुओं की मूल्य यदि अुनबंधित मूल्य से अधिक है तो स्थानीय फर्म को इससे कम लाभ प्राप्त होगा।
11.2.3 अनुज्ञप्ति लाइसैंस एवं मताधिकारी
लाइसैंस प्रदान करना एक एेसी अनुबंधीय व्यवस्था है जिसमें एक फर्म बाह्य देश की दूसरी फर्म को फीस, जिसे रॉयल्टी कहते हैं, के बदले में अपने पेटेंट अधिकार, व्यापार के रहस्य या फिर तकनीक दे देता है। जो फर्म दूसरी फर्म को इस प्रकार का लाइसैंस प्रदान करती है वह लाइसैंस प्रदानकर्ता एवं बाह्यदेश की जो फर्म इस प्रकार के अधिकार प्राप्त करती है को केवल तकनीक का ही अुनज्ञप्ति लाइसेंस नहीं दिया जाता बल्कि फैशन उद्योग में कई डिजाइन कर्ता अपने नाम के प्रयोग करने का लाइसेंस दे देते हैं। कभी-कभी दो इकाइयों के बीच तकनीक का आदान-प्रदान भी होता है। इसी प्रकार से दो फर्मों के बीच ज्ञान, तकनीक एवं पेटेंट अधिकार का पारस्परिक विनिमय होता है। इसे प्रति अनुज्ञप्ति लाइसैंस कहते हैं।
मताधिकारी अनुज्ञप्ति लाइसैंस से बहुत मिलता जुलता है। दोनों में एक प्रमुख अंतर है कि पहले का प्रयोग वस्तुओं उत्पादन एवं विनिमय के लिए होता है तो मताधिकारी का प्रयोग सेवाओं के संदर्भ में किया जाता है। दूसरा अंतर है कि विशेषाधिकार अनुज्ञप्ति से अधिक कठोर होता है। विशेषाधिकार प्रदानकर्ता साधारणतया विशेषाधिकार प्राप्तकर्ताओं अपने व्यवसाय का प्रचालन किस प्रकार से करना चाहिए। इस संबंध में सख्त नियम एवं शर्तें रखते हैं। इन दो अंतरों को छोड़कर विशेष अधिकार अनुज्ञप्ति के समान ही है। जैसा कि अुनज्ञप्ति में होता है विशेषाधिकार समझौते में भी एक पक्ष दूसरे पक्ष को तकनीक, ट्रैडमार्क एवं पेटेन्ट को एक तय प्रतिफल के बदले निश्चित समय के लिए उपयोग करने का अधिकार देता है। अविभावक कंपनी को विशेषाधिकार प्रदानकर्त्ता एवं समझौते के दूसरे पक्ष को विशेषाधिकार प्राप्तकर्ता कहते हैं। फ्रैंचाइजर कोई भी सेवा प्रदान करने वाला जैसे एक जलपान गृह, होटल, यात्रा एजेंसी, बैंक, थोक विक्रेता या फिर फुटकर विक्रेता हो सकता है जिसने कि अपने नाम या ट्रैडमार्क के अधीन सेवाओं के निर्माण एवं विपणन के विशेष तकनीक का विकास किया हो। विशिष्ट तकनीक के कारण ही फ्रैचांइजर अपने प्रतियोगियों से अधिक श्रेष्ठ हो जाता है तथा इससे संभावित सेवा प्रदानकर्ता विशेषाधिकार प्रणाली में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो जाते हैं। मैक्डोनाल्ड, पीज़ाहट एवं वॉलमार्ट कुछ अग्रणी विशेषाधिकार प्रदानकर्ता (फ्रैंचाइजर) हैं जो पूरे विश्व में प्रचालन कर रहे हैं।
लाभ
संयुक्त उपक्रम एवं पूर्णस्वामित्व सहायक इकाइयाें की तुलना में अनुज्ञप्ति/फ्रैंचाइजिंग विदेशी व्यापार में प्रवेश का सबसे सरल मार्ग है जिसमें परखा हुआ माल/तकनीक होता है तथा जिसमें न अधिक जोखिम है और न ही अधिक निवेश की आवश्यकता। अनुज्ञप्ति के कुछ विशिष्ट लाभ निम्नलिखित हैं।
(क) अनुज्ञप्ति/फ्रैंचाइजिंग प्रणाली में अनुज्ञप्तिदाता/ फ्रैंचाइजर व्यवसाय को स्थापित करता है एवं इसमें अपनी पूँजी लगाता है। अर्थात् अनुज्ञप्तिदाता/फ्रैंचाइजर एक प्रकार से दूसरे देशों में निवेश करता है। इसीलिए इसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश का एक महंगा माध्यम माना गया है।
(ख) बहुत ही कम विदेशी निवेश के कारण अनुज्ञप्तिदाता/फ्रैंचाइजर को विदेशी व्यापार से होने वाली हानि में कोई भागीदारी नहीं होती।
(ग) अनुज्ञप्ति धारक/फ्रैंचाइजी से तब तक पूर्व निर्धारित फीस का भुगतान मिलता रहेगा जब तक कि उसकी व्यावसायिक इकाई में उत्पादन अथवा विक्रय होता रहेगा।
(घ) बाह्य देश के व्यवसाय का प्रबंध अनुज्ञप्ति धारक/फ्रैंचाइजी के द्वारा किया जाता है जो कि एक स्थानीय व्यक्ति होता है। इसीलिए सरकार द्वारा व्यवसाय के अधिग्रहण अथवा उसमें हस्तक्षेप का जोखिम कम होता है।
(ङ) अनुज्ञप्ति धारक/फ्रैंचाइजी क्योंकि एक स्थानीय व्यक्ति होता है। उसे बाजार का अधिक ज्ञान होता है तथा उसके संपर्क सूत्र भी अधिक होते हैं। इसका लाभ अुनज्ञप्ति दाता/फ्रैंचाइजर को अपने विपणन कार्य को सफलतापूर्वक चलाने में मिलता है।
(च) अनुज्ञप्ति/फ्रैंचाइजिंग के अनुबंध की शर्तों के अनुसार इस अनुबंध के पक्षों को ही अुनज्ञप्ति दाता/फ्रैंचाइजर के कॉपीराइट, पेटेंट एवं ब्रांड के नाम का बाह्य देशों में उपयोग करने का कानूनी अधिकार होता है। परिणामस्वरूप अन्य फर्मों, ट्रेडमार्क एवं पेटेंट्स का उपयोग नहीं कर सकती।
सीमाएँ
एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के साधन के रूप में अनुज्ञप्ति/विशेषाधिकार (फ्रैंचाइजिंग) की कुछ कमियाँ हैं जो निम्नलिखित हैंः
(क)अनुज्ञप्तिधारक/फ्रैंचाइजी जब आधिकारित वस्तुओं के विनिर्माण एवं विपणन में निपुणता प्राप्त कर लेता है तो उसके द्वारा समान उत्पाद के थोड़े भिन्न ब्रांड के नाम में व्यापार करने का खतरा रहता है। इससे अनुज्ञप्ति दाता/फ्रैंचाइजर को भारी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ सकता है।
(ख) यदि व्यापार के रहस्यों को भली प्रकार से गुप्त नहीं रखा गया तो विदेशी बाजार में दूसरों को इनका ज्ञान हो जायेगा। अनुज्ञप्ति धारक/ फ्रैंइचाइजी की इस चूक के कारण अनुज्ञप्ति दाता/फ्रैंचाइजर को भारी हानि हो सकती है।
(ग) कुछ अवधि के पश्चात् अनुज्ञप्ति दाता/ फ्रैंचाइजर एवं अनुज्ञप्ति धारक/फ्रैंचाइजी के बीच खातों के रखने, रॉयल्टी का भुगतान एवं गुणवत्ता उत्पादों के उत्पादन के संबंध में मानकों का पालन न करना जैसे मामलों पर मतभेद पैदा हो जाते हैं। इन मतभेदों के कारण मुकदमें शुरू हो जाते हैं जिससे दोनों पक्षों को हानि होती है।
11.2.4 संयुक्त उपक्रम
संयुक्त उपक्रम बाह्य बाजार में प्रवेश का एक सामान्य माध्यम है। संयुक्त उपक्रम का अर्थ होता है दो या दो से अधिक स्वतंत्र इकाइयों के संयुक्त स्वामित्व में एक फर्म की स्थापना। व्यापक अर्थो में यह भी संगठन का वह स्वरूप है जिसमें एक लंबी अवधि के लिए सहयोग की अपेक्षा की जाती है। एक संयुक्त स्वामित्व उपक्रम को तीन प्रकार से बनाया जा सकता हैः
(क) विदेशी निवेशक द्वारा स्थानीय कंपनी में हिस्सेदारी का क्रय।
(ख) स्थानीय फर्म द्वारा पूर्व स्थापित विदेशी फर्म में हिस्सा प्राप्त कर लेना।
(ग) विदेशी एवं स्थानीय उद्यमी दोनों ही मिलकर एक न एक उद्यम की स्थापना कर लें।
लाभ
संयुक्त उपक्रम के कुछ प्रमुख लाभ इस प्रकार हैंः
(क) इस प्रकार के उपक्रमों की समता पूँजी में स्थानीय साझी का भी योगदान होता है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय फर्म पर विश्वव्यापी विस्तार में कम वित्तीय भार पड़ेगा।
(ख) संयुक्त उपक्रमों के कारण बड़ी पूँजी एवं श्रमशक्ति वाली बड़ी योजनाओं को कार्यान्वित करना संभव हो पाता है।
(ग) विदेशी व्यावसायिक इकाइयों को स्थानीय साझी के मेहमान देश की प्रतियोगी परिस्थितियों, संस्कृति, भाषा, राजनीतिक प्रणाली एवं व्यावसायिक पद्धतियों के संबंध में जानकारी का पूरा लाभ प्राप्त होता है।
(घ) कई मामलों में विदेशी व्यापार में प्रवेश करना खर्चीला एवं जोखिम भरा भी होता है। संयुक्त उपक्रम करार के द्वारा इस प्रकार की लागत एवं जोखिम को बाँटने के माध्यम से इनसे बचा जा सकता है।
सीमाएँ
संयुक्त उपक्रम की प्रमुख सीमाओं का वर्णन नीचे किया गया हैः
(क) विदेशी फर्में जो संयुक्त उपक्रम में साझा करती हैं वह अपनी प्रौद्योगिकी एवं व्यापार के राज विदेशी स्थानीय फर्म के साथ बाँटती है इससे प्रौद्योगिकी एवं व्यापार के राज दूसरों को उजागर किये जाने का भय रहता है।
(ख) द्विस्वामित्व व्यवस्था में विरोधाभास की संभावना रहती है जिससे निवेशक इकाइयों के बीच नियंत्रण की लड़ाई हो सकती है।
11.2.5 संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक इकाइयाँ/कंपनियाँ
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का यह माध्यम उन कंपनियों की पंसद होती है जो अपने विदेशों में परिचालन पर पूर्ण नियंत्रण चाहते हैं। जनक कंपनी अन्य देश में स्थापित कंपनी में 100 प्रतिशत पूँजी निवेश कर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेती है। संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी की स्थापना दो प्रकार से की जा सकती है-
(क) विदेशों में परिचालन प्रारंभ के लिए एक बिलकुल ही नई कंपनी स्थापित करना। इसे ‘हरित क्षेत्र उपक्रम’ भी कहते हैं।
(ख) दूसरे देश में पहले से ही स्थापित संगठन का अधिग्रहण कर लेना तथा मेहमान देश में इसी इकाई के माध्यम से अपने उत्पादों का उत्पादन एवं संवर्धन करना।
लाभ
विदेश में एक संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी के कुछ प्रमुख लाभ नीचे दिए गए हैंः
(क) जनक कंपनी अपने विदेश की क्रियाओं पर पूरा नियंत्रण रख सकती है।
(ख) जनक कंपनी क्योंकि अपनी विदेशी सहायक कंपनी के प्रचलन पर नज़र रखती है इससे इसके प्रौद्योगिकी एवं व्यापार के राज दूसरों पर नहीं खुलते।
सीमाएँ
किसी अन्य देश में पूर्ण रूप से अपने स्वामित्व में सहायक कंपनी की स्थापना की सीमाएँ निम्नलिखित हैंः
(क) जनक कंपनी को विदेशी सहायक कंपनी की पूँजी में 100 प्रतिशत निवेश करना होगा। इस प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय छोटी एवं मध्य आकार की इकाइयों के लिए उपयुक्त नहीं हैं जिनके पास विदेशों में निवेश के लिए पर्याप्त धन नहीं है।
(ख) अब क्योंकि जनक कंपनी को ही विदेशी सहायक कंपनी की 100 प्रतिशत समता पूँजी में धन लगाया होता है इसीलिए यदि इसकी विदेशी व्यापारिक कार्य असफल रहते हैं तो उसकी पूरी हानि इसी को वहन करनी होगी।
विदेश व्यापार नीति 2015–20
भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और व्यापारिक असंतुलन में कमी लाने के लिए विदेश व्यापार नीति 2015-20 को लागू किया गया है ताकि वस्तुओं एवं सेवाओं के विदशी व्यापार के लिए स्थिर एवं सतत वातावरण तैयार हो सके। इस नीति में आयात और निर्यात हेतु नियम और सुविधाओं को इस प्रकार जोड़ा गया है कि ‘कौशल भारत’ जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को प्रोत्साहन मिल सके और निर्यात संवर्धन एवं विविधता से भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मक मदद मिल सके। इस नीति के अंतर्गत दो प्रमुख योजनाएँ हैं-
1. भारत से वस्तुओं के निर्यात की योजना (MEIS) जिसके कृषि उत्पाद, फल, फूल, सब्जी, चाय, कॉफी, मसाले, हस्तशिल्प, जूट उत्पाद, वस्त्र एवं परिधान, औषधि, शल्य, जड़ी-बूटी (हर्बल), अॉटो-पुर्जे, टेलीकॉम, यातायात, रेलवे, चमड़ा उत्पाद, कागज आदि सम्मिलित हैं।
2. भारत से सेवाओं के निर्यात की योजना (SEIS) जिनमें न्यायिक, लेखांकन, वास्तुकला, अभियंत्रण, शैक्षिक, अस्पताल सेवा 5 प्रतिशत पर, होटल और जलपान गृह, यात्रा अभिकरण और यात्रा-परिचालक तथा 3 प्रतिशत की दर पर अन्य व्यापारिक सेवाएँ।
(ग) कुछ देश अपने देश में अन्य देश के व्यक्तियों द्वारा शतप्रतिशत स्वामित्व वाली सहायक कंपनी की स्थापना के विरुद्ध होते हैं। इस प्रकार से विदेशों में व्यवसाय संचालन को बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाना पड़ता है।
11.3 आयात-निर्यात प्रक्रिया
आंतरिक एवं बाह्य व्यवसाय परिचालन में प्रमुख अंतर बाह्य व्यवसाय की जटिलता है। वस्तुओं का आयात एवं निर्यात उतना सीधा एवं सरल नहीं है जितना कि घरेलू बाजार में क्रय एवं विक्रय, क्योंकि विदेशी व्यापार में माल देश की सीमा के पार भेजा जाता है तथा इसमें विदेशी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है, इसलिए अपने देश की सीमा को पार करने तथा दूसरे देश की सीमा में प्रवेश करने से पूर्व कई औपचारिकताओं को पूरा करना होता है। आगे के अनुभागों में आयात-निर्यात सौदों को पूरा करने से संबंधित प्रमुख चरणों की चर्चा करेंगे।
11.3.1 निर्यात प्रक्रिया
अलग-अलग निर्यात लेन-देनों के विभिन्न चरणों की संख्या एवं जिस क्रम में यह चरण उठाए जाते हैं, अलग-अलग होते हैं। एक प्रारूपिक निर्यात लेन-देन के निम्नलिखित चरण होते हैंः
(क) पूछताछ प्राप्त करना एवं निर्ख भेजना- संभावित क्रेता विभिन्न निर्यातकोें को पूछताछ का पत्र भेजता है जिसमें वह उनसे माल के मूल्य, गुणवत्ता एवं निर्यात से संबंधित शर्तों के संबंध में सूचना भेजने के लिए प्रार्थना करता है। आयातक इस प्रकार विज्ञापन की पूछताछ के संबंध में निर्यातकों को समाचार पत्रों में विज्ञापन के माध्यम से भी सूचित कर सकता है। निर्यातक इस पूछताछ का उत्तर निर्ख के रूप में भेजता है जिसे प्रारूप बीजक कहते हैं। प्रारूप बीजक में उस मूल्य के संबंध में सूचना होती है जिस पर निर्यातक माल को बेचने के लिए तैयार है। इसमें गुणवत्ता, श्रेणी, आकार, वजन, सुपुर्दगी की प्रणाली, पैकेजिंग का प्रकार एवं भुगतान की शर्तों आदि की भी सूचना दी होती है।
(ख) आदेश अथवा इंडैंट की प्राप्ति- यदि संभावित क्रेता (अर्थात् आयातक फर्म) के लिए निर्यात का मूल्य एवं अन्य शर्तें स्वीकार्य हैं, तो वह वस्तुओं को भेजने का आदेश देगा। इस आदेश में जिसे इंडैंट भी कहते हैं, आदेशित वस्तुओं का विवरण, देय मूल्य, सुपुर्दगी की शर्तें, पैकिंग एवं चिह्नांकन का ब्यौरा एवं सुपुर्दगी संबंधी निर्देश होते हैं।
(ग) आयातक की साख का आँकलन एवं भुगतान की गारंटी प्राप्त करना- इंडैंट की प्राप्ति के पश्चात् निर्यातक, आयातक की साख के संबंध में आवश्यक पूछताछ करता है। इस पूछताछ का उद्देश्य माल के आयात के गंतव्य स्थान पर पहुँचने पर आयातक द्वारा भुगतान न करने के जोखिम का आँकलन करता है। इस जोखिम को कम से कम करने के लिए अधिकांश निर्यातक, आयातक से साख पत्र की माँग करते हैं। साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा जारी किया जाता है जिसमें वह निर्यातक के बैंकों को एक निश्चित राशि तक के निर्यात बिलों के भुगतान की गारंटी देता है। अंतर्राष्ट्रीय लेन-देनोें के निपटान के लिए भुगतान की सर्वाधिक उपयुक्त एवं सुरक्षित विधि है।
(घ) निर्यात लाइसेंस प्राप्त करना- भुगतान के संबंध में आश्वस्त हो जाने के पश्चात् निर्यातक फर्म निर्यात संबंधी नियमों के पालन की दिशा में कदम उठाती है। भारत में वस्तुओं के निर्यात पर सीमा नियम लागू होते हैं जिनके अनुसार निर्यातक फर्म को निर्यात करने से पहले निर्यात लाइसेंस प्राप्त कर लेना चाहिए। निर्यात लाइसेंस प्राप्त करने के पूर्व महत्त्वपूर्ण अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं :
• भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अधिकृत किसी भी बैंक में खाता खोलना एवं खाता संख्या प्राप्त करना।
• विदेशी व्यापार महानिदेशालय (डी.जी.एफ.टी.)अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेंसिग प्राधिकरण से आयात-निर्यात कोड (आई.ई.सी.) संख्या प्राप्त करना।
• उपर्युक्त निर्यात संवर्द्धन परिषद् के यहाँ पंजीयन कराना।
• निर्यात साख एवं गारंटी निगम (एक्सपोर्ट क्रेडिट एंड गारंटी काउंसिल, ई.सी.जी.सी.) भुगतान प्राप्त न होने के कारण होने वाले जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा हेतु पंजीकरण कराना।
एक निर्यातक फर्म को आयात-निर्यात कोड (आई.ई.सी.) संख्या अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए क्योंकि इसे कई आयात/निर्यात विलेखों में लिखना होता है। आई.ई.सी. नंबर प्राप्त करने के लिए निर्यातक फर्म को महानिदेशक विदेशी व्यापार (डाइरेक्टर जनरल फॅार फॉरेन ट्रेड, डी.जी.एफ.टी.) के पास आवेदन करना होता है जिसके साथ वह कुछ प्रलेख संलग्न करता है जो इस प्रकार हैं– निर्यात खाता, आपेक्षित फीस की बैंक रसीद, बैंक से एक फार्म पर प्रमाण पत्र, बैंक द्वारा अनुप्रमाणित फोटोग्राफ, गैर आवासी हित का विस्तृत ब्यौरा एवं जिन फर्मों से सावधान रहना हैं उनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं है, इस आशय की घोषणा। प्रत्येक निर्यातक के लिए उपयुक्त निर्यात संवर्द्धन परिषद् के यहाँ पंजीयन कानूनी बाध्यता है। भारत सरकार द्वारा विभिन्न वर्गों के उत्पादों के संवर्द्धन एवं विकास के लिए कई निर्यात संवर्द्धन परिषदों की स्थापना की गई है, जैसे कि इंजीनियरिंग निर्यात संवर्द्धन परिषद् (ई.ई.पी.सी.) एवं अपैरल निर्यात संवर्द्धन परिषद (ए.ई.पी.सी.) के संबंध में चर्चा आगे एक अनुभाग में की जाएगी। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि किसी भी निर्यातक के लिए किसी उपयुक्त निर्यात संवर्द्धन परिषद् का सदस्य बनना एवं पंजीयन-सदस्यता प्रमाण पत्र (आर.सी.एम.सी.) प्राप्त करना जरूरी है, तभी वह सरकार से निर्यातक फर्मों को मिलने वाले लाभों को प्राप्त कर पाएगा।
विदेशों से भुगतान को राजनीतिक एवं वाणिज्यिक जोखिमों से संरक्षण के लिए ई.सी.जी.सी. के पास पंजीकरण कराना आवश्यक है। पंजीकरण करा लेने पर निर्यातक फर्मों को व्यापारिक बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों से वित्तीय सहयोग भी प्राप्त हो जाता है।
(ङ) माल प्रेषण से पूर्व वित्त करना- आदेश होने एवं साख-पत्र की प्राप्ति के पश्चात् निर्यातक माल के प्रेषण से पूर्व के वित्त हेतु अपने बैंक के पास जाता है जिससे कि वह निर्यात के लिए उत्पादन कर सके। प्रेषण-पूर्व वित्त वह राशि है जिसकी निर्यातक को कच्चा माल एवं अन्य संबंधित चीजों का क्रय करने, वस्तुओं के प्रक्रियन एवं अन्य संबंधित चीजों का क्रय करने, वस्तुओं के प्रक्रियन एवं पैकेजिंग तथा वस्तुओं के माल लदान बंदरगाह तक परिवहन के लिए आवश्यकता होती है।
(च) वस्तुओं का उत्पादन एवं अधिप्राप्ति- माल के लदान से पूर्व बैंक से वित्त की प्राप्ति हो जाने पर निर्यातक आयातक के विस्तृत वर्णन के अनुसार माल को तैयार करेगा। फर्म या तो इन वस्तुओं का स्वयं उत्पादन करेगी अथवा इन्हें बाजार से क्रय करेगी।
(छ) जहाज लदान निरीक्षण- भारत सरकार ने यह सुनिश्चित करने की दिशा में कई कदम उठाए हैं कि देश से केवल अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं का ही निर्यात हो। इनमें से एक कदम सरकार द्वारा मनोनीत सर्वथा योग्य एजेन्सी द्वारा कुछ वस्तुओं का अनिवार्य निरीक्षण है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सरकार ने ‘निर्यात गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण अधिनियम-1963’ पारित किया। सरकार ने कुछ एजेंसियों को निरीक्षण एजेंसी के रूप में अधिकृत किया। यदि निर्यात किया जाने वाला माल इस वर्ग के अंतर्गत आता है तो उसे निर्यात निरीक्षण एजेंसी (ई.आई.ए.) अथवा अन्य मनोनीत की गई एजेंसी से संपर्क कर निरीक्षण प्रमाणपत्र प्राप्त करना होगा। इस निरीक्षण अनुवेदन को निर्यात के अवसर पर अन्य निर्यात प्रलेखों के साथ जमा कराया जाएगा। यदि माल का निर्यात सितारा निर्यात गृहों, निर्यात प्रक्रिया अंचल/विशेष आर्थिक अंचल (ई.पी.जेड./एस.ई.जेड.) एवं शत् प्रतिशत निर्यात मूलक इकाइयों (ई.ओ.यू.) के द्वारा किया जा रहा है तो इस प्रकार का निरीक्षण अनिवार्य नहीं होगा। हम इन विशिष्ट प्रकार की निर्यात फर्म के संबंध में आगे के अनुभाग में चर्चा करेंगे।
(ज) उत्पाद शुल्क की निकासी- केंद्रीय उत्पादन शुल्क अधिनियम (सेंट्रल एक्साइज टैरिफ एक्ट) के अनुसार वस्तुओं के विनिर्माण में प्रयुक्त माल पर उत्पादन शुल्क का भुगतान करना होता है। निर्यातक को इसीलिए संबंधित क्षेत्रीय उत्पादन शुल्क कमिश्नर को आवेदन करना होता है। यदि कमिश्नर संतुष्ट हो जाता है तो वह उत्पादन शुल्क की छूट का प्रमाण पत्र दे देगा। लेकिन कुछ मामलों में यदि उत्पादित वस्तुएँ निर्यात के लिए होती हैं तो सरकार उत्पादन शुल्क से छूट प्रदान कर देती है अथवा इसे लौटा देती है। इस प्रकार की छूट अथवा वापसी का उद्देश्य निर्यातक को और अधिक निर्यात के लिए प्रोत्साहित करना एवं निर्यात उत्पादों को विश्व बाजार में और अधिक प्रतियोगी बनाना है। उत्पादन शुल्क की वापसी को शुल्क की वापसी कहते हैं। शुल्क फिरौती योजना को आजकल वित्त मंत्रालय के अधीनस्थ फिरौती/वापसी निदेशालय प्रशासित करता है। यही विभिन्न उत्पादों के फिरौती की दर को निश्चित करता है। वापसी का अनुमोदन एवं भुगतान बंदरगाह/हवाई अड्डे/स्थल सीमा स्टेशन, जिससे माल का निर्यात किया गया है, उसके कस्टम, कमिश्नर अथवा केंद्रीय उत्पाद इंचार्ज के द्वारा किया जाता है।
(झ) उद्गम प्रमाण-पत्र प्राप्त करना- कुछ आयातक देश, किसी विशेष देश से आ रहे माल पर शुल्क की छूट अथवा अन्य कोई छूट देते हैं। इनका लाभ उठाने के लिए आयातक निर्यातक से उद्गम प्रमाण पत्र की माँग कर सकता है। यह प्रमाण पत्र इस बात को प्रमाणित करता है कि वस्तुओं का उत्पादन उसी देश में हुआ है जिस देश ने इसका निर्यात किया है। इस प्रमाण पत्र को निर्यातक के देश में स्थित वाणिज्य दूतावास अधिकारी से प्राप्त किया जा सकता है।
(ञ) जहाज में स्थान का आरक्षण- निर्यातक फर्म जहाज में स्थान के लिए प्रावधान हेतु जहाजी कंपनी को आवेदन करती है। इसे निर्यात के माल का प्रकार, जहाज में लदान की संभावित तिथि एवं गंतव्य बंदरगाह को घोषित करना होता है। जहाज पर लदान के आवेदन की स्वीकृति, के पश्चात् जहाजी कंपनी जहाजी आदेश पत्र जारी करती है। जहाजी आदेश-पत्र जहाज के कप्तान के नाम आदेश होता है कि वह निर्धारित वस्तुओं को नामित बंदरगाह पर सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा निकासी होने पर जहाज पर माल का लदान करा ले।
(ट) पैकिंग एवं माल को भेजना- माल की उचित ढंग से पैकिंग कर उन पर आवश्यक विवरण देंगें, जैसे- आयातक का नाम एवं पता, सकल एवं शुद्ध भार, भेजे जाने वाले एवं गंतव्य बंदरगाहों के नाम एवं उद्गम देश का नाम आदि। निर्यातक तत्पश्चात् माल को बंदरगाह तक ले जाने की व्यवस्था करता है। रेल के डिब्बे में माल का लदान कर लेने के पश्चात् रेल अधिकारी ‘रेलवे रसीद’ जारी करते हैं जो माल के मालिकाना अधिकार का काम करता है। निर्यातक इस रेलवे रसीद को अपने एजेंट के नाम को बेचान कर देता है जिससे कि वह बंदरगाह के शहर के स्टेशन पर माल की सुपुर्दगी ले सके।
(ठ) वस्तुओं का बीमा- वस्तुओं को मार्ग में समुद्री जोखिमोें के कारण, माल के खो जाने अथवा टूट-फूट जाने के जोखिम से संरक्षण प्रदान करने के लिए निर्यातक बीमा कंपनी से वस्तुओं का बीमा करा लेता है।
(ड) कस्टम निकासी- जहाज में लदान से पहले वस्तुओं की कस्टम से निकासी अनिवार्य है। कस्टम से निकासी प्राप्त करने के लिए निर्यातक जहाजी बिल तैयार करता है। यह मुख्य प्रलेख होता है जिसके आधार पर कस्टम कार्यालय निर्यात की अनुमति प्रदान करता है। जहाजी बिल में निर्यात किये जाने वाले माल, जहाज का नाम, बंदरगाह जहाँ माल उतारना है, अंतिम गंतव्य देश, निर्यातक का नाम एवं पता आदि का विवरण दिया जाता है तत्पश्चात् जहाजी बिल की पाँच प्रति एवं नीचे दिये गए प्रलेख कस्टम घर में तैनात कस्टम मूल्यांकन अधिकारी के पास जमा करा दिए जाते हैं। ये प्रलेख हैं-
• निर्यात अनुबंध अथवा निर्यात आदेश,
• साख पत्र,
• वाणिज्यिक बीजक,
• उद्गम प्रमाण पत्र,
• निरीक्षण प्रमाण पत्र, यदि आवश्यक है तो
• समुद्री बीमा पॉलिसी, एवं
• अधीक्षक।
इन प्रलेखों को जमा करने के पश्चात्, संबंधित बंदरगाह न्यास के पास माल को ढो ले जाने का आदेश प्राप्त करने के लिए जाया जाएगा। ढो ले जाने का आदेश बंदरगाह के प्रवेश द्वार पर तैनात कर्मचारियों के नाम, डॉक में माल के प्रवेश की अनुमति देने के लिए आदेश होता है। ढो ले जाने के आदेश की प्राप्ति माल को बंदरगाह क्षेत्र में ले जाकर उपयुक्त शैड में संगृहित कर दिया जाएगा। निर्यातक को इन सभी औपचारिकताओं की पूर्ति के लिए हर समय उपस्थिति संभव नहीं है, इसीलिए यह कार्य एक एजेंट को सौंप दिया जाता है जिसे निकासी एवं माल भेजने वाला एजेंट कहते हैं।
(ढ) जहाज के कप्तान की रसीद (मेट्स रिसीप्ट) प्राप्त करना- वस्तुओं का अब जहाज पर लदान किया जाएगा जिसके बदले जहाज का कारिंदा अथवा कप्तान/मेट्स रसीद /बंदरगाह अधीक्षक को जारी करेगा। मेट्स रसीद जहाज के नायक के कार्यालय द्वारा जहाज पर माल के लदान पर जारी की जाती है जिसमें जहाज का नाम, माल लदान की तिथि,, पेटींबधन (पैकेज) का विवरण, चिन्ह एवं संख्या, जहाज पर प्राप्ति के समय माल की दशा आदि की सूचना दी जाती है। बंदरगाह का अधीक्षक बंदरगाही शुल्क की प्राप्ति के पश्चात् मेट्स रसीद को निकासी एवं प्रेषक एजेंट को साैंप देता है।
(ण) भाड़े का भुगतान एवं जहाजी बिल्टी का बीमा- भाड़े की गणना हेतु निकासी एवं प्रेषक एजेंट मेट्स रसीद को जहाजी कंपनी को सौंप देगा। भाड़े के भुगतान के पश्चात् जहाजी कंपनी जहाजी बिल्टी जारी करेगी जो इस बात का प्रमाण है कि जहाजी कंपनी ने माल को नामित गंतव्य स्थान तक ले जाने के लिए स्वीकार कर लिया है। यदि माल हवाई जहाज के द्वारा भेजा जा रहा है तो इस प्रलेख को एयर वे बिल कहेंगे।
(त) बीजक बनाना- माल को भेज देने के पश्चात्, भेजे गए माल का बीजक तैयार किया जाएगा। बीजक भेजे गए माल की मात्रा एवं आयातक द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि लिखी होती है। निकासी एवं प्रेषक एजेंट इसे कस्टम अधिकारी से सत्यापित कराएगा।
(थ) भुगतान प्राप्त करना- माल के जहाज से भेज देने के पश्चात् निर्यातक इसकी सूचना आयातक को देगा। माल के आयातक के देश में पहुँच जाने पर उसे माल पर अपने स्वामित्व के अधिकार का दावा करने के लिए एवं उनकी कस्टम से निकासी के लिए विभिन्न प्रलेखों की आवश्यकता होती है, ये प्रलेख हैंः बीजक की सत्यापित प्रति, जहाजी बिल्टी, पैकिंग सूची, बीमा पॉलिसी, उद्गम प्रमाण-पत्र एवं साख-पत्र। निर्यातक इन प्रलेखों को अपने बैंक के माध्यम से इन निर्देशों के साथ भेजता है कि इन प्रलेखों को आयातक को तभी सौंपा जाए जब वह विनिमय विपत्र को स्वीकार कर ले जिसे ऊपर लिखे प्रलेखों के साथ भेजा जाता है। प्रासंगिक प्रलेखों को बैंक को भुगतान प्राप्ति के उद्देश्य से सौंपना प्रलेखों का विनिमयन कहलाता है।
विनिमय विपत्र आयातक को एक निश्चित राशि का निश्चित व्यक्ति अथवा आदेशित व्यक्ति अथवा विलेख के धारक को भुगतान करने का आदेश होता है। यह दो प्रकार का हो सकता है- अधिकार पत्र प्राप्ति पर भुगतान (दर्श विपत्र) अथवा अधिकार प्राप्ति पर स्वीकृति (मुद्दती विपत्र)। दर्श विपत्र में अधिकार पत्रों को आयातक को भुगतान पर ही सौंपा जाता है। जैसे ही आयातक दर्श विपत्र पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो जाता है, संबंधित प्रलेखों को उसे सौंप दिया जाता है। दूसरी ओर, मियादी विपत्र में आयातक द्वारा बिल को स्वीकार करने, जिसमें एक निश्चित अवधि जैसे कि तीन मास की समाप्ति पर भुगतान करना होता है, उसे अधिकार प्रलेख सौंपे जाते हैं। विनिमय विपत्र की प्राप्ति पर दर्श विपत्र के होने पर आयातक भुगतान कर देता है और यदि मियादि विपत्र है तो वह विपत्र की भुगतान तिथि पर भुगतान के लिए इसे स्वीकार करता है। निर्यातक का बैंक आयातक के बैंक के माध्यम से भुगतान प्राप्त करता है, तत्पश्चात उसे निर्यातक के खाते के जमा में लिख देता है।
निर्यातक को आयातक द्वारा भुगतान करने का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। निर्यातक अपने बैंक को प्रलेख सौंपकर एवं क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर तुरंत भुगतान कर सकता है। क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर निर्यातक आयातक से भुगतान की प्राप्ति न होने की स्थिति में बैंक को यह राशि ब्याज सहित भुगतान करने का दायित्व लेता है।
निर्यात के बदले में भुगतान प्राप्त कर लेने पर निर्यातक को बैंक से भुगतान प्राप्ति का प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा। यह प्रमाण पत्र यह प्रमाणित करता है कि एक निश्चित निर्यात प्रेषण से संबंधित प्रलेखों (विनिमय विपत्र को सम्मिलित कर) का प्रक्रमण कर लिया गया है (आयातक को भुगतान के लिए प्रस्तुत कर दिया गया है) एवं विनिमय नियंत्रण नियमों के अनुरूप भुगतान प्राप्त कर लिया गया है।
निर्यात लेन-देन में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख प्रलेख(क) वस्तुओं से संबंधित प्रलेखनिर्यात बीजक : निर्यात बीजक विक्रेता का विक्रय माल बिल होता है जिसमें बेचे गए माल के संबंध में सूचना दी होती है, जैसे- मात्रा, कुल मूल्य, पैकेजोें की संख्या, पैकिंग पर चिन्ह, गंतव्य बंदरगाह, जहाज का नाम, जहाजी बिल्टी संख्या, सुपुर्दगी संबंधित शर्तें एवं भुगतान आदि। पैकिंग सूची : पैकिंग सूची, पेटियों अथवा गांठों की संख्या एवं इनमें रखे गए माल का विवरण है। इसमें निर्यात किए गए माल की प्रकृति एवं इनके स्वरूप का विवरण दिया होता है। उद्गम का प्रमाण पत्र : यह वो प्रमाण पत्र है जो इस बात का निर्धारण करता है कि माल का उत्पादन किस देश में हुआ है। इस प्रमाण पत्र से आयातक को कुछ पूर्व निर्धारित देशों में उत्पादित वस्तुओं पर शुल्क पर छूट या फिर अन्य छूट, जैसे- कोटा प्रतिबंध का लागू न होना प्राप्त हो जाती है। जब कुछ चुनिंदा देशों से कुछ विशेष वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध हो, तब भी इस प्रमाण पत्र की आवश्यकता होती है क्योंकि वस्तुएँ यदि प्रतिबंधित देश में उत्पादित नहीं हैं, तभी उन्हें आयातक देश में आने दिया जाएगा। निरीक्षण प्रमाण पत्र : उत्पादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने कुछ उत्पादों का किसी अधिकृत एजेंसी द्वारा निरीक्षण अनिवार्य कर दिया है। भारतीय निर्यात निरीक्षण परिषद् (ई.आई.सी.आई.) एक एेसी ही एजेंसी है जो इस प्रकार का निरीक्षण करती है एवं इस आशय का प्रमाण पत्र जारी करती है कि प्रेषित माल का ‘निर्यात गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण अधिनियम-1963’ के तहत निरीक्षण कर लिया गया है एवं यह इस पर लागू गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण शर्तों को पूरा करता है एवं यह निर्यात के सर्वथा योग्य है। प्रमाण पत्र को अपने देश में आयातित वस्तुओं के लिए अधिकृत रूप से अनिवार्य कर दिया गया है। (ख) जहाज लदान से संबंधित प्रलेखमेट्स रसीद : यह रसीद जहाज के नायक द्वारा जहाज पर माल के लदान के पश्चात् निर्यातक को दी जाती है। मेट्स रसीद में जहाज का नाम, बर्थ, माल भेजने की तिथि, पैकेजों का विवरण, चिन्ह एवं संख्या, जहाज पर माल प्राप्ति के समय में माल की स्थिति आदि। जहाजी कंपनी तब तक जहाजी बिल्टी जारी नहीं करती जब तक की यह मेट्स रसीद प्राप्त नहीं कर लेती। जहाजी बिल : यह मुख्य प्रलेख है। इसी के आधार पर कस्टम कार्यालय निर्यात की अनुमति प्रदान करता है। जहाजी बिल में निर्यात किए जा रहे माल का विवरण, जहाज का नाम, बंदरगाह जिस पर माल उतारा जाना है, अंतिम गंतव्य देश, निर्यातक का नाम, पता आदि होता है। जहाजी बिल्टी : यह एक एेसा प्रलेख है जो जहाजी कंपनी द्वारा जारी जहाज पर माल प्राप्ति की रसीद है तथा साथ ही गंतव्य बंदरगाह तक उन्हें ले जाने की शपथ भी। यह वस्तु और स्वामित्व का अधिकार प्रलेख है इसीलिए यह बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा स्वतंत्र रूप से हस्तांतरणीय है। वायुमार्ग विपत्र : जहाजी बिल्टी के समान वायुमार्ग विपत्र भी एक प्रलेख है जो एयरलाइन कंपनी की हवाई जहाज पर माल की प्राप्ति की विधिवत् रसीद होती है तथा जिसमें वह गंतव्य हवाई अड्डे तक उन्हें ले जाने का वचन देती है। यह भी माल पर मालिकाना हक का प्रलेख है एवं यह बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा स्वतंत्र रूप से हस्तांतरणीय है। समुद्री बीमा पॉलिसी : यह एक बीमा अनुबंध का प्रमाण पत्र होता है जिसमें बीमा कंपनी बीमाकृत को प्रतिफल, जिसे प्रीमियम कहते हैं, के भुगतान के बदले किसी समुद्री जोखिम से हानि की क्षतिपूर्ति का वचन देता है। गाड़ी टिकट : इसे गाड़ी चिट, वाहन अथवा गेट पास भी कहते हैं। इसे निर्यातक तैयार करता है तथा इसमें निर्यात सामान का विस्तृत विवरण होता है, जैसे कि माल भेजने वाले का नाम, पैकेजों की संख्या, जहाजी बिल संख्या, गंतव्य बंदरगाह, एवं माल ढोने वाले वाहन का नंबर। (ग) भुगतान संबंधी प्रलेखसाख पत्रः साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा दी जाने वाली गारंटी है जिसमें वह निर्यातक के बैंक को एक निश्चित राशि तक के निर्यात बिल के भुगतान की गारंटी देता है। यह अंतर्राष्ट्रीय सौदों के निपटान के लिए भुगतान का सबसे उपयुक्त एवं सुरक्षित साधन है। विनिमय विपत्र : यह एक लिखित प्रपत्र है जिसमें इसको जारी करने वाला दूसरे पक्ष को एक निश्चित राशि, एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को भुगतान का आदेश देता है। आयात निर्यात लेन-देन के संदर्भ में विनिमय विपत्र निर्यातक द्वारा आयातक पर लिखा जाता है जिसमें वह आयातक को एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को एक निश्चित राशि के भुगतान के लिए कहता है। निर्यात किए माल पर मालिकाना अधिकार देने वाले प्रलेखों को आयातक को केवल उस दशा में ही सौंपा जाता हैं जबकि वह बिल में दिए गए आदेश को स्वीकार कर लेता है। बैंक का भुगतान संबंधित प्रमाण पत्र : यह प्रमाण पत्र यह प्रमाणित करता है कि एक निश्चित निर्यात प्रेषण से संबंधित प्रलेखों (विनिमय विपत्र को सम्मिलित कर) का प्रक्रमण कर लिया गया है (आयात को भुगतान के लिए प्रस्तुत कर दिया गया है) एवं विनिमय नियंत्रण नियमोें के अनुरूप भुगतान प्राप्त कर लिया गया है। |
11.3.2 आयात प्रक्रिया
आयात व्यापार से अभिप्राय बाह्य देश से माल के क्रय से है। आयात प्रक्रिया भिन्न-भिन्न देशों के संबंध में भिन्न-भिन्न होती है जो देश की आयात एवं कस्टम संबंधी नीतियों एवं अन्य वैधानिक आवश्यकताओं पर निर्भर करती है। आगे के परिच्छेदों में भारत की सीमाओं के भीतर माल लाने के लिए सामान्य आयात लेन-देनों के विभिन्न चरणों की विवेचना की गई है।
(क) व्यापारिक पूछताछ- सर्वप्रथम आयातक फर्म उन देशों एवं फर्मों के संबंध में सूचना एकत्रित करेगी जो उत्पाद विशेष का निर्यात करते हैं। यह सूचना उसे व्यापार निर्देशिका अथवा व्यापार संघ एवं व्यापार संगठनों से प्राप्त हो सकती है। निर्यातक फर्मों एवं देशों की पहचान करने के पश्चात् आयातक फर्म निर्यातक फर्मों से उनके व्यापारिक पूछताछ के द्वारा निर्यात मूल्यों एवं निर्यात की शर्तों की सूचना प्राप्त करती है। व्यापारिक पूछताछ आयातक फर्म द्वारा निर्यातक फर्म के नाम लिखित प्रार्थना पत्र है जिसमें वह उस मूल्य एवं विभिन्न शर्तों की सूचना देने के लिए प्रार्थना करता है जिन पर निर्यातक माल का निर्यात करने के लिए तैयार है।
व्यापारिक पूछताछ का उत्तर आने के पश्चात् निर्यातक निर्ख तैयार करता है एवं इसे आयातक को भेज देता है। इस निर्ख को प्रारूप बीजक कहते हैं। प्रारूप बीजक एक एेसा विलेख है जिसमें निर्यात की वस्तुओं की गुणवत्ता, श्रेणी, स्वरूप, आकार, वजन एवं मूल्य तथा निर्यात की शर्तें लिखी होती हैं।
(ख) आयात लाइसेंस प्राप्त करना- कुछ वस्तुओं को स्वतंत्रतापूर्वक आयात किया जा सकता है जबकि अन्य के लिए लाइसेंस की आवश्यकता होती है। यह जानने के लिए कि जिन वस्तुओं का वह आयात करना चाहता है, उन पर आयात लाइसेंस लागू होता है अथवा नहीं, आयातक वर्तमान आयात निर्यात नीति (ई.एक्स.आई.एम.) को देखेगा। यदि उन वस्तुओं के आयात के लिए लाइसेंस की आवश्यकता है तो वह आयात लाइसेंस प्राप्त करेगा। भारत में प्रत्येक आयातक (निर्यातक के लिए भी) के लिए विदेशी व्यापार महानिदेशक अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेसिंग प्राधिकरण के पास पंजीयन कराना एवं आयात निर्यात कोड नंबर प्राप्त करना आवश्यक है। इस नंबर को अधिकांश आयात संबंधी प्रलेखों पर लिखना अनिवार्य होता है।
(ग) विदेशी मुद्रा का प्रबंध करना- आयात लेन-देन से संबंधित आपूर्तिकर्ता विदेश में रहता है, वह भुगतान विदेशी मुद्रा में करना चाहेगा। विदेशी मुद्रा में भुगतान के लिए भारतीय मुद्रा का विदेशी मुद्रा में विनिमय करना होगा। भारत में सभी विदेशी विनिमय संबंधित लेन-देनों का भारतीय रिजर्व बैंक के विनिमय नियंत्रण विभाग द्वारा नियमन होता है। नियमों के अनुसार प्रत्येक आयातक के लिए विदेशी मुद्रा का अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक है। इस अनुमोदन को प्राप्त करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अधिकृत बैंक के पास विदेशी मुद्रा जारी करने के लिए आवेदन करना होगा। यह आवेदन एक निर्धारित फार्म भरकर आयात लाइसेंस के साथ विनिमय नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार करना होता है। आवेदन की भली भाँति जाँच कर लेने के पश्चात् बैंक आयात सौदे के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का अनुमोदन कर देता है।
(घ) आदेश अथवा इंडैंट भेजना- लाइसेंस प्राप्त होने के पश्चात् आयातक निर्धारित वस्तुओं की आपूर्ति हेतु निर्यातक के पास आयात आदेश अथवा इंडैंट भेजेगा। आयात आदेश में आदेशित वस्तुओं का मूल्य, मात्रा माप, श्रेणी एवं गुणवत्ता एवं पैकिंग, माल का लदान बंदरगाह, जहाँ से माल को ले जाया जाएगा एवं जहाँ ले जाया जायेगा की सूचना दी जाती है। आयात आदेश को ध्यान से तैयार करना चाहिए जिससे कि किसी प्रकार का संशय न रहे जिसके कारण आयातक एवं निर्यातक के बीच मतभेद पैदा हो सकते हैं।
(ङ) साख पत्र प्राप्त करना- आयातक एवं विदेशी आपूर्तिकर्ता के बीच भुगतान की शर्तों में साख पत्र तय किया गया है तो आयातक को अपने बैंक से साख पत्र प्राप्त करना होगा जिसे वह आगे आपूर्तिकर्ता को भेज देगा। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा जारी की जाने वाली गारंटी है जिसमें वह निर्यातक के बैंक को निश्चित राशि तक के निर्यात बिल के भुगतान की गारंटी देता है।
यह अंतर्राष्ट्रीय सौदों के निपटान के लिए भुगतान का सबसे उपयुक्त एवं सुरक्षित साधन है। निर्यातक को इस प्रपत्र की आवश्यकता यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि भुगतान न होने का कोई जोखिम नहीं है।
(च) वित्त की व्यवस्था करना- माल के बंदरगाह पर पहुँचने पर निर्यातक को भुगतान करने के लिए आयातक को इसकी अग्रिम व्यवस्था करनी चाहिए। भुगतान न किए जाने के कारण बंदरगाह से निकासी न होने की दशा में भारी विलंब शुल्क (अर्थात् जुर्माना) देना होता है। इससे बचने के लिए आयात के वित्तीयन के लिए अग्रिम योजना बनानी आवश्यक है।
(छ) जहाज से माल भेज दिए जाने की सूचना की प्राप्ति- जहाज में माल के लदान कर देने के पश्चात् विदेशी आपूर्तिकर्ता आयातक को माल भेजने की सूचना भेजता है। माल प्रेषण सूचना पत्र में जो सूचनाएँ दी होती हैं वे हैं– बीजक संख्या, जहाजी बिल्टी/वायु मार्ग बिल नंबर एवं तिथि, जहाज का नाम एवं तिथि, निर्यात बंदरगाह, माल का विवरण एवं मात्रा तथा जहाज के प्रस्थान की तिथि।
(ज) आयात प्रलेखों को छुड़ाना- माल रवानगी के पश्चात् विदेशी आपूर्तिकर्ता अनुबंध एवं साख पत्र की शर्तों को ध्यान में रखकर आवश्यक प्रलेखों का संग्रह तैयार करता है तथा उन्हें अपने बैंक को भेज देता है जो उन्हें आगे साख पत्र में निर्धारित रीति से भेजता है एवं प्रक्रमण करता है। इस संग्रह में सामान्यतः विनिमय विपत्र, वाणिज्यिक बीजक, जहाजी बिल्टी/वायुमार्ग बिल पैंकिग सूची उद्गम स्थान प्रमाणपत्र, समुद्री बीमा पॉलिसी आदि सम्मिलित होते हैं।
इन प्रलेखों के साथ जो विनिमय विपत्र भेजा जाता है, उसे प्रलेखीय विनिमय विपत्र कहते हैं। जैसा कि पहले ही निर्यात प्रक्रिया में बताया जा चुका है, प्रलेखीय विनिमय विपत्र दो प्रकार का हो सकता है– भुगतान के बदले प्रलेख (दर्श विपत्र) एवं स्वीकृति के बदले प्रलेख (मुद्दती विपत्र)। दर्श विपत्र में लेखक आदेशक बैंक को भुगतान प्राप्त हो जाने पर ही आयातक को आवश्यक प्रलेखों को सौंपने का आदेश देता है। लेकिन मुद्दती विपत्र की दशा में वह बैंक को प्रलेखों को आयातक द्वारा विनिमय विपत्र के स्वीकार किए जाने पर ही सौंपने का आदेश देता है। प्रलेखों को प्राप्त करने के लिए विनिमय विपत्र की स्वीकृति को आयात प्रलेखों का भुगतान कहते हैं। भुगतान हो जाने के पश्चात् आयात संबंधी प्रलेखों को आयातक को सौंप देता है।
(झ) माल का आगमन- विदेशी आपूर्तिकर्ता माल को अनुबंध के अनुसार जहाज से भेजता है। वाहन (जहाज अथवा हवाई जहाज) का अभिरक्षक गोदी अथवा हवाई अड्डे पर तैनात देख-रेख अधिकारी को माल के आयातक देश में पहुँच जाने की सूचना देता है। वह उन्हें एक विलेख सौंपता है जिसे आयातित माल की सामान्य सूची कहते हैं। यह वह प्रलेख है जिसमें आयातित माल का विस्तृत विवरण दिया होता है। इसी विलेख के आधार पर ही माल को उतरवाया जाता है।
(ञ) सीमा शुल्क निकासी एवं माल को छुड़ाना- भारत में आयातित माल को भारत की सीमा में प्रवेश के पश्चात् सीमा शुल्क निकासी से गुजरना होता है। सीमा शुल्क निकासी एक जटिल प्रक्रिया है तथा इसके लिए कई औपचारिकताओं को पूरा करना होता है। इसलिए उचित यही रहेगा कि आयातक निकासी एवं लदानें वाले एजेंट की नियुक्ति करें क्योंकि यह इन औपचारिकताओं से भली-भाँति परिचित होता है एवं सीमा शुल्क से माल की निकासी में इनकी अहम् भूमिका होती है।
सर्वप्रथम आयातक सुपुर्दगी आदेश पत्र प्राप्त करेगा जिसे सुपुर्दगी के लिए बेचान भी कहते हैं। सामान्यतः जब जहाज बंदरगाह पर पहुँचता है तो आयातक जहाजी बिल्टी के पृष्ठ भाग पर बेचान करा लेता है। यह बेचान संबंधित जहाजी कंपनी के द्वारा किया जाता है। कुछ मामलों में जहाजी कंपनी बिल का बेचान करने के स्थान पर एक आदेश पत्र जारी कर देती है। यह आदेश पत्र आयातक को माल की सुपुर्दगी को लेने का अधिकार देता है। यह बात अलग है कि आयातक को माल के अपने अधिकार में लेने से पहले भाड़ा चुकाना होगा। (यदि इसका भुगतान निर्यातक ने नहीं किया है।)
आयातक को गोदी व्यय (डॉक व्यय) का भी भुगतान करना होगा जिसके बदले उसे बंदरगाह न्यास शुल्क की रसीद मिलेगी। इसके लिए आयातक अवतरण एवं जहाजी शुल्क कार्यालय में एक फार्म को भरकर उसकी दो प्रति जमा करानी होती है। इसे आयात आवेदन कहते हैं। अवतरण एवं जहाजी शुल्क कार्यालय गोदी अधिकारियों की सेवाओं के बदले शुल्क लगाती है जिसे आयातक वहन करता है। डॉक व्यय को भुगतान कर देने पर आवेदन की एक प्रति, जो प्राप्ति की रसीद होती है, आयातक को लौटा दी जाती है। इस रसीद को बंदरगाह न्यास शुल्क रसीद कहते हैं। आयातक इसके पश्चात् आयात शुल्क निर्धारण हेतु प्रवेश बिल (बिल अॉफ एंट्री) फार्म भरेगा। एक मूल्यांकनकर्ता सभी विलेखों का ध्यान से अध्ययन कर निरीक्षण के लिए आदेश देगा। आयातक मूल्यांकनकर्ता के द्वारा तैयार विलेख को प्राप्त करेगा और यदि सीमा शुल्क देना है तो उसका भुगतान करेगा। आयात शुल्क का भुगतान कर देने के पश्चात् प्रवेश बिल को गोदी अधीक्षक के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। अधीक्षक इसे चिन्हित करेगा तो निरीक्षक से आयातित माल का भौतिक रूप में निरीक्षण करने के लिए कहेगा। निरीक्षक प्रवेश बिल पर ही अपना अनुवेदन लिख देगा। आयातक अथवा उसका प्रतिनिधि इस प्रवेश बिल को बंदरगाह अधिकारियोें के समक्ष प्रस्तुत करेगा। आवश्यक शुल्क ले लेने के पश्चात् वह अधिकारी माल की सुपुर्दगी का आदेश दे देगा।
आयात लेन-देनों में प्रयुक्त प्रमुख प्रलेख
व्यापारिक पूछताछ : यह आयातक की ओर से निर्यातक को एक लिखित आग्रह होता है, जिसमें वह निर्यातक द्वारा निर्यात की वस्तुओं के मूल्य एवं विभिन्न शर्तों की सूचना प्रदान करने के लिए कहता है।
प्रारूप बीजक : यह वह प्रलेख है जिसमें निर्यात के माल के मूल्य, गुणवत्ता, श्रेणी, डिजाइन, माप, भार तथा निर्यात की शर्तों का विस्तृत वर्णन होता है।
आयात आदेश अथवा इंडैंट : यह वह विलेख है जिसमें क्रेता (आयातक) आपूर्तिकर्ता (निर्यातक) को इसमें मांगी गई वस्तुओं की आपूर्ति का आदेश देता है। इस आदेश इंडैंट में आयात की वस्तुओं, मात्रा एवं गुणवत्ता, मूल्य, माल लदान की पद्धति, पैकिंग की प्रकृति भुगतान का माध्यम आदि के संबंध में सूचना दी जाती है।
साख पत्र : साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा निर्यातक बैंक को एक निश्चित राशि के निर्यातक बिल के भुगतान की गारंटी है। इसे निर्यातक आयातक को वस्तुओं के निर्यात के बदले मेें जारी करता है।
माल प्रेषण की सूचना : यह निर्यातक द्वारा आयातक को भेजा जाने वाला प्रलेख है जिसमें वह सूचित करता है कि माल का लदान करा दिया गया है। माल लदान/प्रेषण सूचना-पत्र में बीजक नंबर, जहाजी बिल्टी/वायुमार्ग बिल संख्या एवं तिथि, जहाज का नाम एवं तिथि, निर्यातक बंदरगाह, माल का विवरण एवं मात्रा एवं जहाज की यात्रा प्रारंभ तिथि होती है।
जहाजी बिल्टी : यह जहाज के नायक द्वारा तैयार एवं हस्ताक्षरयुक्त विलेख होता है जिसमें वह माल के जहाज पर प्राप्ति को स्वीकार करता है। इसमें माल को निर्धारित बंदरगाह तक ले जाने से संबंधित शर्तें दी हुई होती हैं।
हवाई मार्ग बिल : जहाजी बिल्टी के समान वायु मार्ग विपत्र भी एक प्रलेख है जो एयरलाइन कंपनी की हवाई जहाज पर माल प्राप्ति की विधिवत् रसीद होती है तथा जिसमें वह माल को गंतव्य हवाई अड्डे तक ले जाने का वचन देती हैं। यह भी माल पर मालिकाना हक का प्रलेख है एवं यह भी बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा स्वतंत्र रूप से हस्तांतरणीय है।
प्रवेश बिल : यह सीमा शुल्क कार्यालय द्वारा आयातक को दिया जाने वाला एक फॉर्म होता है जिसे आयातक माल की प्राप्ति पर भरता है। इसकी तीन प्रतियाँ होती हैं तथा इसे सीमा शुल्क कार्यालय में जमा कराया जाता है। इसमें जो सूचना दी हुई होती है, वह है- आयातक का नाम एवं पता, जहाज का नाम, पैकेजों की संख्या, पैकेज पर चिन्ह, माल की मात्रा एवं मूल्य, निर्यातक का नाम एवं पता, गंतव्य बंदरगाह एवं देय सीमा शुल्क।
विनिमय विपत्र : यह एक लिखित प्रपत्र है जिसमें इसको जारी करने वाला दूसरे पक्ष को एक निश्चित राशि एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को भुगतान के लिए कहता है। आयात निर्यात लेन-देन के संदर्भ में यह निर्यातक द्वारा आयातक को लिखा जाता है जिसमें वह आयातक को एक निश्चित राशि एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को भुगतान करने का आदेश देता है। निर्यात किए गए माल पर मालिकाना अधिकार देने वाले प्रलेखों को आयातक को केवल उस दशा में ही सौंपा जाता है जब वह बिल में दिए गए आदेश को स्वीकृति प्रदान कर दे।
दर्श बिल : यह विनिमय विपत्र का वह प्रकार है जिसमें इसका लेखक बैंक को आयातक को संबंधित प्रलेख बिल का भुगतान कर देने पर ही देने का आदेश देता है।
मुद्दती बिल : यह विनिमय विपत्र का वह प्रकार है जिसमें इसका लेखक बैंक को आयातक को संबंधित प्रलेख मुद्दती बिल को स्वीकार कर देने पर ही सौंपने के आदेश देता है।
आयातित माल की सूची : यह वह प्रलेख है जिसमें आयातित माल का विस्तृत विवरण दिया होता है। इसी के आधार पर माल को जहाज से उतरवाया जाता है।
डॉक चालान : सीमा शुल्क संबंधी औपचारिकताओं की पूर्ति पर डॉक व्यय का भुगतान किया जाता है। डॉक/गोदी व्यय का भुगतान करते समय आयातक अथवा उसका निकासी एजेंट डॉक व्यय की राशि एक चालान अथवा फार्म में दर्शाता है जिसे डॉक चालान कहते हैं।
11.4 विदेशी व्यापार प्रोन्नति-प्रोत्साहन एवं संगठनात्मक समर्थन
निर्यात में प्रतिस्पर्द्धा की योग्यता में वृद्धि के लिए व्यावसायिक फर्मों की सहायता के लिए देश में कई प्रेरणा एवं योजनाएँ प्रचलित हैं। समय-समय पर सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में संलग्न फर्मों को विपणन में सहायता एवं बुनियादी ढाँचागत समर्थन प्रदान करने के लिए संगठन स्थापित किए हैं। आगे के अनुभागों में प्रमुख विदेशी व्यापार प्रोन्नति योजनाओं एवं संगठनों पर चर्चा की गई है।
11.4.1 विदेशी व्यापार प्रोन्नति विधियाँ एवं योजनाएँ
व्यावसायिक फर्मों के कार्यों को सुगम बनाने के लिए सरकार अपनी आयात-निर्यात नीति में विभिन्न व्यापार प्रोन्नति उपायों एवं योजनाओं की घोषणा करती है। वर्तमान में प्रचलित प्रमुख व्यापार प्रोन्नति उपाय (विशेषतः निर्यात से संबंधित) निम्नलिखित हैं :
(क) शुल्क वापसी योजना- निर्यात की वस्तुओं को देश के भीतर उपभोग नहीं किया जाता। इन पर किसी प्रकार का उत्पादन शुल्क एवं सीमा शुल्क का भुगतान नहीं करना होता। निर्यात की वस्तुओं पर यदि किसी प्रकार के शुल्क का भुगतान कर दिया गया है तो उसे निर्यातक को लौटा दिया जायेगा लेकिन इसके लिए उसे संबंधित अधिकारियों को निर्यात का प्रमाण देना होगा। इस प्रकार की वापसी को शुल्क वापसी कहते हैं। कुछ प्रमुख शुल्क वापसियों में निर्यात के लिए वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क, कच्चे माल एवं निर्यात हेतु उत्पादन के लिए आयातित मशीनों पर सीमा शुल्क का भुगतान सम्मिलित है। अंतिम वापसी को सीमा शुल्क वापसी भी कहते हैं।
(ख) बाँड योजना के अंतर्गत निर्यात हेतु विनिर्माण- इस सुविधा के अनुसार फर्में वस्तुओं का उत्पादन शुल्क अथवा अन्य कोई शुल्क देय कर सकती हैं। जो फर्में इस सुविधा का लाभ उठाना चाहती हैं उन्हें वचन (अर्थात् बांड) देना होता है कि वे वस्तुओं का उत्पादन निर्यात के उद्देश्य से कर रहे हैं तथा वे इनका वास्तव में निर्यात करेंगे।
(ग) विक्रय कर के भुगतान से छूट- निर्यात की वस्तुओं पर विक्रय कर नहीं लगता। यही नहीं, काफी लंबी अवधि तक निर्यात क्रियाओं से अर्जित आय पर आयकर भी नहीं देना होता था। अब आयकर से छूट केवल 100 प्रतिशत निर्यात मूलक इकाइयों एवं निर्यात प्रवर्तन क्षेत्रों/विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रोें में स्थापित इकाइयों को ही कुछ चुने हुये वर्षों के लिए ही मिलती है। आगे के परिच्छेदों में हम इन इकाइयों की विवेचना करेंगे।
(घ) अग्रिम लाइसेंस योजना- इस योजना के अंतर्गत निर्यातक को निर्यात के लिए वस्तुओं के उत्पादन घरेलू एवं आयातित आगत की बिना किसी शुल्क का भुगतान किए आपूर्ति की छूट है। निर्यातक को निर्यात के लिए वस्तुओं के विनिर्माण हेतु वस्तुओं के आयात पर सीमा शुल्क नहीं देना होता। अग्रिम लाइसेंस दोनों प्रकार के निर्यातकों को उपलब्ध है– जो नियमित रूप से निर्यात करते हैं एवं जो तदर्थ निर्यात करते हैं। नियमित निर्यातक अपने उत्पादन कार्यक्रम के आधार पर इस प्रकार का लाइसेंस प्राप्त कर सकते हैं। कभी-कभी निर्यात करने वाली फर्में भी विशिष्ट निर्यात आदेशों के विरुद्ध इस प्रकार का लाइसेंस प्राप्त कर सकती हैं।
(ङ) निर्यात संवर्द्धन पूँजीगत वस्तुएँ योजना- इस योजना का मुख्य उद्देश्य निर्यात उत्पादन के लिए पूँजीगत वस्तुओं के आयात को प्रोत्साहन देना है। यह योजना निर्यात फर्मों को पूँजीगत वस्तुओं के आयात का प्रोत्साहन देती है। यह योजना निर्यात फर्मों को पूँजीगत वस्तुओं को नीची दर अथवा शून्य सीमा शुल्क पर आयात की अनुमति देती है। लेकिन शर्त है कि वह वास्तविक उपयोगकर्ता होना चाहिए तथा वह कुछ विशिष्ट निर्यात अनुग्रहों को पूरा करता हो। यदि विनिर्माता इन शर्तों को पूरा करता है तो वह पूँजीगत वस्तुओं को या तो शून्य अथवा रियायती दर पर आयात कर चुकाकर आयात कर सकता है। समर्थक विनिर्माता एवं सेवा प्रदानकर्ता भी इस योजना के अंतर्गत पूँजीगत वस्तुओं के आयात के लिए योग्य हैं। यह योजना विशेष रूप से उन औद्योगिक इकाइयों के लिए उपयोगी है जो अपने वर्तमान संयंत्र एवं मशीनरी के आधुनिकीकरण एवं संवर्द्धन में रूचि रखते हैं। अब सेवा निर्यात फर्म भी, निर्यात के लिए सॉफ्टवेयर विकसित करने के लिए कंप्यूटर सॉफ्टवेयर प्रणाली जैसी वस्तुओं के आयात के लिए इस सुविधा का लाभ उठा सकती हैं।
(च) निर्यात फर्मों को निर्यात गृह एवं सुपरस्टार व्यापार गृहोें के रूप में मान्यता देने की योजना- भली-भाँति स्थापित निर्यातकों को प्रोन्नति एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उनके उत्पादों के विपणन में सहायता के लिए सरकार कुछ चुनिंदा निर्यातक फर्मों को निर्यात गृह, व्यापार गृह एवं सुपरस्टार व्यापार गृह के स्तर की मान्यता देती है। यह सम्मानजनक स्थान किसी फर्म को तब दिया जाता है, जब वह पिछले कुछ चुने हुए वर्षों में निर्धारित औसत निर्यात निष्पादन को प्राप्त कर लेती है। न्यूनतम पिछले औसत निर्यात निष्पादन को प्राप्त करने के साथ-साथ एेसी निर्यातक फर्मों को आयात-निर्यात नीति में उल्लिखित अन्य शर्तों को भी पूरा करना होगा। निर्यात संवर्द्धन के लिए विपणन मौलिक ढाँचा एवं विशेषज्ञता के विकास को ध्यान में रखते हुए विभिन्न वर्गों के निर्यात गृहों को मान्यता प्रदान की गई है। निर्यात संवर्द्धन के लिए इन गृहों को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी गई है। इन्हें उच्च श्रेणी के पेशेवर एवं गतिशील संस्थानों के रूप में कार्य करना होता है तथा यह निर्यात के उत्थान के लिए एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में कार्य करते हैं।
(छ) निर्यात सेवाएँ- निर्यात सेवाओं को प्रोत्साहन देने के लिए विभिन्न श्रेणी के निर्यात गृहों को मान्यता दी गई है। इनको मान्यता सेवा प्रदानकर्ताओं के निर्यात निष्पादन के आधार पर दी गई है। इन्हें इनके निर्यात निष्पादन के आधार पर सेवा निर्यात गृह अंतर्राष्ट्रीय सेवा निर्यात गृह, अंतर्राष्ट्रीय स्टार सेवा निर्यात गृह के नाम दिए गए हैं।
(ज) निर्यात वित्त- निर्यातकों को वस्तुओं के उत्पादन के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। माल का लदान कर देने के पश्चात् भी वित्त की आवश्यकता होती है क्योंकि आयातक से भुगतान आने मेें कुछ समय लग सकता है। इसीलिए अधिकृत बैंकों द्वारा निर्यातकों को दो प्रकार का निर्यात वित्त उपलब्ध कराया जाता है। इन्हें लदान-पूर्व वित्त या पैकेजिंग साख एवं लदान के पश्चात् वित्त कहते हैं। जहाज में लदान से पूर्व वित्त में निर्यातक को वित्त/क्रय, प्रक्रियण, विनिर्माण अथवा पैकेजिंग के लिए उपलब्ध कराया जाता है। माल लदान-पश्चात् वित्त योजना के अंतर्गत, निर्यातक को वित्त माल लदान के पश्चात् साख की तिथि को बढ़ाने से उपलब्ध कराया जाता है। निर्यातकों को वित्त ब्याज की रियायती दरों पर उपलब्ध रहता है।
(झ) निर्यात प्रवर्तन क्षेत्र- निर्यात प्रवर्तन क्षेत्र, वे औद्योगिक परिक्षेत्र होते हैं जो राष्ट्रीय सीमा शुल्क क्षेत्र में अंतःक्षेत्र का सृजन करते हैं। ये सामान्यतः समुद्री बंदरगाह अथवा हवाई अड्डे के समीप स्थित होते हैं। इनका उद्देश्य कम लागत पर निर्यात उत्पादन के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मक शुल्क रहित वातावरण प्रदान करना है। इससे निर्यात प्रवर्तन क्षेत्रों (ई.पी.जेड.) के उत्पाद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गुणवत्ता एवं मूल्य दोनों में प्रतिस्पर्धा योग्य किए गए हैं जिनमें प्रमुख हैं : कांदला (गुजरात), सांताक्रुज (मुंबई), फाल्टा (पश्चिमी बंगाल), नोएडा (उ.प्र.), कोचीन (केरल), चेन्नई (तमिलनाडु) एवं विशाखापट्टनम (आंध्र प्रदेश)।
सांताक्रूज क्षेत्र केवल इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं एवं हीरा एवं जेवरात की मदों के लिए है। अन्य ई.पी.जेड. क्षेत्र अनेकों प्रकार की वस्तुओं का व्यापार करते हैं। हाल ही में ई.पी.जैड. को विशेष आर्थिक क्षेत्र (स्पेशल इकोनॉमिक जोन ई.पी.जेड.) में परिवर्तित कर दिया गया है जो निर्यात प्रवर्तन क्षेत्रों का और अधिक उन्नत स्वरूप है। ई.पी.जेड. आयात निर्यात को शासित करने वाले नियमों, श्रम एवं बैंकिंग से संबंधित को छोड़कर मुक्त हैं। सरकार ने ई.पी.जेड. को विकसित करने के लिए निजी, राज्य अथवा संयुक्त क्षेत्रों को अनुमति दे दी है। निजी ई.पी.जेड. के लिए गठित अंतः मंत्रालय कमेटी पहले ही मुंबई, सूरत एवं कांचीपुरम में निजी ई.पी.जेड. स्थापित करने के प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दे चुकी है।
(ञ) 100 प्रतिशत निर्यात परक इकाइयाँ (100 प्रतिशत ई.ओ.यू.)- 100 प्रतिशत निर्यात परक इकाइयाँ योजना को 1981 में ई.पी.जेड. योजना की पूरक के रूप में लागू किया गया। यह उत्पादन के समान क्षेत्रों को ही अपनाता है लेकिन स्थानीय करार की दृष्टि से वृहत विकल्प देता है जिनका संबंध जिन निर्धारक तत्वों से होता है, वे हैं- कच्चे माल के स्रोत, बंदरगाह, पृष्ठ प्रदेश सुविधाएँ, प्रौैद्योगिकी में दक्षता की उपलब्धता, औद्योगिक आधार का होना एवं इस परियोजना के लिए भूमि के बड़े क्षेत्र की आवश्यकता। ई.ओ.यू. की स्थापना निर्यात के लिए अतिरिक्त उत्पादन क्षमता पैदा करने की दृष्टि से की गई है। इसके लिए उचित नीतिगत कार्य ढाँचा, परिचालन में लोचपूर्णता एवं प्रेरणा उपलब्ध कराई जाती है।
11.4.2 संगठन समर्थन
भारत सरकार हमारे देश में विदेशी व्यापार की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए समय-समय पर विभिन्न संस्थानों की स्थापना करती रही है। कुछ महत्त्वपूर्ण संस्थान निम्न हैंः
वाणिज्य विभाग- भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में वाणिज्य विभाग सर्वोच्च संस्था है जो देश के विदेशी व्यापार एवं इससे संबंधित सभी मामलों के लिए उत्तरदायी है। इस पर दूसरे देशों के साथ वाणिज्यिक संबंध बढ़ाने, राज्य व्यापार, निर्यात प्रोन्नति उपाय एवं निर्यात परक उद्योगों एवं वस्तुओं के नियमन का उत्तरदायित्व होता है। यह विभाग विदेशी व्यापार के लिए नीतियाँ निर्धारित करता है, विशेष रूप से देश की आयात-निर्यात नीति बनाता है।
निर्यात प्रोन्नति परिषद् (ई.पी.सी.)- निर्यात प्रोन्नति परिषद् गैर-लाभ संगठन होते हैं जिनको कंपनी अधिनियम अथवा समिति पंजीयन अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत कराया जाता है। इन परिषदों का मूल उद्देश्य इनके अधिकार क्षेत्र के विशिष्ट उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देना एवं विकसित करना है। वर्तमान में 21 ई.पी.सी. हैं जो विभिन्न वस्तुओं में व्यवहार करते हैं।
सामग्री बोर्ड- ये वे बोर्ड हैं जिनकी स्थापना भारत सरकार द्वारा परंपरागत वस्तुओं के उत्पादन के विकास एवं उनके निर्यात के लिए की गई है। ये ई.पी.सी के पूरक होते हैं। इनके कार्य भी ई.पी.सी. के कार्यों के समान होते हैं। आज भारत में सात सामग्री बोर्ड हैं, ये हैं- कॉफी बोर्ड, रबड़ बोर्ड, तंबाकू बोर्ड, मसाले बोर्ड, केंद्रीय सिल्क बोर्ड, चाय बोर्ड एवं कॉयर बोर्ड।
निर्यात निरीक्षण परिषद् (ई.आई.सी)- निर्यात निरीक्षण परिषद् की स्थापना भारत सरकार द्वारा निर्यात गुणवत्ता, नियंत्रण एवं निरीक्षण अधिनियम-1963 की धारा 3 के अंतर्गत की गई थी। इस परिषद का उद्देश्य गुणवत्ता नियंत्रण एवं लदान पूर्व निरीक्षण के माध्यम से निर्यात व्यवसाय का संवर्द्धन करना है। निर्यात की वस्तुओं के गुणवत्ता नियंत्रण एवं पूर्व लदान निरीक्षण संबंधी क्रियाओं पर नियंत्रण हेतु यह सर्वोच्च संस्था है। कुछ वस्तुओं को छोड़कर शेष सभी निर्यात की वस्तुओं के लिए ई.आई.सी. की स्वीकृति लेनी अनिवार्य है।
भारतीय व्यापार प्रोन्नति संगठन (आई.टी.पी.ओ)- इस संगठन की स्थापना भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय द्वारा कंपनी अधिनियम-1956 के अंतर्गत जनवरी 1992 में की गई थी। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। आई.टी.पी.ओ का निर्माण दो पूर्व एजेंसियों- व्यापार विकास प्राधिकरण एवं भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण को मिलाकर किया गया था। आई.टी.पी.ओ. एक सेवा संगठन है जो व्यापार, उद्योग एवं सरकार से नियमित एवं नजदीकी आदान-प्रदान है। यह देश के अंदर तथा देश से बाहर व्यापार मेलों एवं प्रदर्शनियों का आयोजन कर औद्योगिक क्षेत्र की सेवा करता है। यह निर्यात फर्मों को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले एवं प्रदर्शनियों में भाग लेने में सहायता करता है, नई वस्तुओं के निर्यात को विकसित करता है, वाणिज्य व्यवसाय संबंधी आज तक की सूचना उपलब्ध कराता है एवं सामर्थ्य प्रदान करता है। इसके पाँच क्षेत्रीय कार्यालय हैं जो मुंबई, बंगलुरु कोलकाता, कानपुर एवं चेन्नई में हैं तथा चार अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय हैं जो जर्मनी जापान, यू.ए.ई. एवं अमेरिका में स्थित हैं।
भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान- भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान की स्थापना 1963 में भारत सरकार ने समिति पंजीयन अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत स्वायत्त संस्था के रूप में की थी। इसका मूल उद्देश्य देश के विदेशी व्यापार प्रबंध को एक पेशे का स्वरूप प्रदान करना है। इसे हाल ही में मानद विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। यह संस्थान अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रशिक्षण देता है, अंर्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान करता है एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं निवेश संबंधित आंकड़ों का विश्लेषण एवं प्रसार करता है।
भारतीय पैकेजिंग संस्थान (आई.आई.पी.)- भारतीय पैकेजिंग संस्थान की स्थापना 1966 में भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय एवं भारतीय पैकेजिंग उद्योग एवं संबंधित हितों के संयुक्त प्रयास से एक राष्ट्रीय संस्थान के रूप में की गई थी। इसका मुख्यालय एवं प्रमुख प्रयोगशाला मुंबई में एवं तीन क्षेत्रीय प्रयोगशालाएँ कोलकाता, दिल्ली एवं चेन्नई में स्थित हैं। यह पैकेजिंग एवं जाँच का प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान है। इसके पास अद्भुत आधारगत सुविधाएँ हैं जो पैकेज विनिर्माण एवं पैकेज उपयोग उद्योगों की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। यह राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार की पैकेजिंग की जरूरतों को पूरा करता है। यह तकनीकी सलाह देने, पैकेजिंग के विकास की जाँच सेवाएँ, प्रशिक्षण एवं शैक्षणिक कार्यक्रम संवर्द्धन इनामी प्रतियोगिता, सूचना सेवाएँ एवं अन्य सहायक क्रियाएँ करता है।
राज्य व्यापार संगठन- बड़ी संख्या में भारत की घरेलू फर्मों के लिए विश्व बाजार की प्रतियोगिता में टिकना कठिन था। इसके साथ ही, वर्तमान व्यापार मार्ग/माध्यम निर्यात प्रोन्नति एवं यूरोपीय देशों को छोड़कर अन्य देशों के साथ व्यापार में विविधता लाने के लिए अनुपयुक्त थे। इन परिस्थितियों में मई 1956 में राज्य व्यापार संगठन की स्थापना की गई थी। एस.टी.सी. का मुख्य उद्देश्य विश्व के विभिन्न व्यापार में, भागीदारों में व्यापार को, विशेषतः निर्यात को बढ़ावा देना है। बाद में सरकार ने एेसे कई अन्य संगठनों की स्थापना की जैसे मैटल एवं मिनरल व्यापार निगम (एम.एम.टी.सी), हैंडलूम एवं हैंडीक्राफ्ट निर्यात निगम (एच.एच.ई.सी) की स्थापना की।
11.5 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संस्थान एवं व्यापार समझौते
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) एवं द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के पश्चाम् पूरे विश्व में जीवन एवं संपत्ति की भारी तबाही हुई। विश्व की लगभग सभी अर्थव्यवस्थाएँ इससे बुरी तरह प्रभावित हुईं। संसाधनों की कमी के कारण कोई राष्ट्र पुनर्निमाण एवं विकास कार्य करने की स्थिति में नहीं थे। विश्व की मुद्रा प्रणाली में व्यवधान के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा। विनिमय दर की कोई सर्वमान्य प्रणाली नहीं थी। एेसे हालात में 44 देशों के प्रतिनिधि जे.एम. कीन्स-जो एक नामी अर्थशास्त्री थे, उनकी अगुआई में विश्व में शांति एवं सामान्य वातावरण की पुनः स्थापना के लिए उपाय ढूँढ़ने के लिए ब्रैटनवुड्, न्यू हैम्पशायर में एकत्रित हुए।
बैठक का समापन तीन अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना के साथ हुआ, जिनके नाम हैं- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.), पुर्ननिर्माण एवं विकास का अंतर्राष्ट्रीय बैंक (आई.बी.आर.डी.) एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन (आई.टी.ओ.)। वे इन तीन संगठनों को विश्व के आर्थिक विकास के तीन स्तंभ मानते थे। विश्व बैंक को युद्ध के कारण नष्ट अर्थव्यवस्थाओं, विशेषतः यूरोप के पुनर्निमाण का कार्य सौंपा गया तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को विश्व व्यापार के विस्तार का मार्ग प्रशस्त करने के लिए विनिमय दरों में स्थिरता लाने का दायित्व सौंपा गया। आई.टी.ओ. का मुख्य कार्य, जिसकी कल्पना उन्होंने उस समय की थी, सदस्य देशों के बीच उस समय व्यवहार में लाई जाने वाली विभिन्न प्रतिबंध एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर अधिकार प्राप्त कर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देना एवं सुगम बनाना था।
प्रथम दो संस्थान, अर्थात् आई.बी.आर.डी. एवं आई.एम.एफ. तुरंत अस्तित्व में आ गए लेकिन आई.टी.ओ. के विचार को अमेरिका के विरोध के कारण मूर्त रूप प्रदान नहीं किया जा सका। एक संगठन के स्थान पर ऊँचे सीमा शुल्क तथा अन्य प्रतिबंधों से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को मुक्त करने की व्यवस्था उभरकर आई। इस व्यवस्था को जनरल फॉर टैरिफ एंड ट्रेड का नाम दिया गया। भारत इन तीन संस्थाओं के संस्थापक सदस्यों में से एक है। इन तीन संस्थाओं के प्रमुख उद्देश्य एवं कार्यों की विस्तार से विवेचना आगे के अनुभागों में की गई है।
11.5.1 विश्व बैंक
पुनर्निमाण एवं विकास का अंतर्राष्ट्रीय बैंक (आई.बी.आर.डी.) जिसे विश्व बैंक भी कहते हैं, वो ब्रैटन वुड्स कॉन्फ्रेंस का परिणाम था। इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य युद्ध से प्रभावित यूरोप के देशों की अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण एवं विश्व के अविकसित देशों को विकास के कार्य में सहायता प्रदान करना था। प्रारंभ के कुछ वर्ष विश्व बैंक यूरोप के युद्ध से तबाह देशों को इससे उबारने के कार्य में जुटा रहा। 1950 तक वह इस कार्य में सफलता प्राप्त कर लेने के पश्चात् विश्व बैंक ने अविकसित देशों के विकास पर ध्यान देना प्रारंभ किया। इसने यह माना कि जितना अधिक इन देशों में निवेश करेंगे। विशेष रूप से सामाजिक क्षेत्रों, जैसे कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा में, उतना ही अधिक विकासशील देशों में आवश्यक सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव लाना संभव होगा। अविकसित देशों में निवेश की इस पहल को मूर्त रूप देने के लिए 1960 में अंतर्राष्ट्रीय विकास संघ (आई.डी.ए.) का निर्माण किया गया। आई.डी.ए. की स्थापना का मुख्य उद्देश्य उन देशों को रियायती दरों पर ऋण उपलब्ध कराना था जिनकी प्रति व्यक्ति आय नाजुक स्तर से भी नीचे थी। रियायती शर्तों से अभिप्राय है :
(क) ऋण को लौटाने की अवधि आई.बी. आर.डी. की निर्धारित अवधि से भी कहीं अधिक लंबी है।
(ख) ऋण लेने वाले देश के लिए इन ऋणों पर ब्याज देने की आवश्यकता नहीं है।
इस प्रकार से आई.डी.ए. गरीब देशों को ब्याज मुक्त दीर्घ अवधि ऋण देता है लेकिन यह वाणिज्यिक दर से ब्याज लेता है। कालांतर में विश्व बैंक की छत्रछाया में अतिरिक्त संगठनों की स्थापना की गई। आज विश्व बैंक पाँच अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का समूह है जो विभिन्न देशों को वित्त प्रदान करते हैं। यह समूह एवं इसकी सहयोगी संस्थाओं, जिनका मुख्यालय वाशिंगटन डी.सी. में है एवं जो विभिन्न वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, की सूची बॉक्स 11.1 में दी गई है।
11.5.2 अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.)
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व बैंक के बाद दूसरा अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। आई.एम.एफ. जो 1945 में अस्तित्व में आया, उसका मुख्यालय वाशिंगटन डी.सी. में स्थित है। 2005 में 91 देश इसके सदस्य थे। आई.एम.एफ की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य एक व्यवस्थित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली का विकास करना है, अर्थात् अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली को सुविधाजनक बनाना एवं राष्ट्रीय मुद्राओं में विनिमय दर को समायोजित करना।
आई.एम.एफ के उद्देश्य
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
• एक स्थाई संस्था के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा सहयोग को बढावा देना।
• अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के संतुलित विकास के विस्तार को सुगम बनाना एवं उच्च स्तरीय रोजगार एवं वास्तविक आय में वृद्धि एवं अनुरक्षण में योगदान देना।
• सदस्य देशों के बीच नियमानुसार विनिमय व्यवस्था के उद्देश्य से विनिमय स्थिरता को बढ़ाना।
• देशों के बीच वर्तमान लेन-देनों के संदर्भ में भुगतान की बहु आयामी प्रणाली की स्थापना में सहायता करना।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्य
इस संगठन के द्वारा उपर्युक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अनेकों कार्य किए जाते है। इसके कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-
• एक लघु अवधि साख संस्था के रूप में कार्य करना;
• विनिमय दर के नियम के अनुसार समायोजन के लिए तंत्र की रचना करना;
• सभी सदस्य देशों की मुद्राओं के कोष के रूप में कार्य करना जिसमें से कोई भी देश दूसरे देश की मुद्रा में ऋण ले सकता है;
• विदेशी मुद्रा एवं वर्तमान लेन-देनों के ऋणदात्री संस्था का कार्य।
• किसी भी देश की मुद्रा का मूल्य निर्धारण करना करना अथवा आवश्यकता पड़ने पर उसमें परिवर्तन करना जिससे कि सदस्य देशों में विनिमय दरों में सुव्यवस्थित समायोजन किया जा सके।
• अंतर्राष्ट्रीय विचार-विमर्श के लिए तंत्र की व्यवस्था करना।
11.5.3 विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ) एवं प्रमुख समझौते
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक की तर्ज पर ब्रैटन वुड् सम्मेलन में प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संघ की स्थापना का निर्णय लिया गया। इसका उद्देश्य सदस्य देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देना एवं सुविधाजनक बनाना तथा उस समय व्याप्त विभिन्न प्रतिबंध एवं पक्षपात पर काबू पाना था। लेकिन यह विचार अमेरिका के कड़े विरोध के कारण व्यवहार में नहीं आ सका। लेकिन इस विचार को पूर्ण रूप से त्याग देने के स्थान पर जो देश ब्रैटन वुड्स सम्मेलन में भाग ले रहे थे, उन्होंने विश्व को ऊँचे सीमा शुल्क एवं उस समय लागू अन्य दूसरे प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्त करने के लिए आपस में कोई व्यवस्था करना तय किया। यह व्यवस्था शुल्क एवं व्यापार का साधारण समझौता (जनरल एग्रीमेंट फॉर टैरिफ्स एंड ट्रेड, जी.ए.टी.टी.) कहलाया।
जी.ए.टी.टी 01 जनवरी 1948 को अस्तित्व में आया तथा दिसंबर 1994 तक कार्यरत रहा। इसके सानिध्य में सीमा शुल्क एवं अन्य बाधाओं को कम करने के लिए बातचीत के कई दौर हो चुके हैं। अंतिम दौर, जिसे उरूग्वे दौर कहा जाता है, जिसमें सर्वाधिक संख्या में समस्याओं पर विचार किया गया एवं जिसकी अवधि भी सबसे लंबी रही जोकि 1986 से 1994 तक की सात वर्ष की थी।
जी.ए.टी.टी में विचार-विमर्श के उरूग्वे दौर की प्रमुख उपलब्धियों में से एक है विभिन्न देशों में स्वतंत्र एवं संतोषजनक व्यापार की प्रोन्नति पर ध्यान देने के लिए एक स्थायी संस्था की स्थापना का निर्णय। इस निर्णय के परिणाम स्वरूप जी.ए.टी.टी को 1 जनवरी 1995 से विश्व व्यापार संगठन में परिवर्तित कर दिया गया। इसका मुख्यालय जिनेवा, स्विट्जरलैंड में स्थित है। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना लगभग 50 वर्ष पूर्व के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन (आई.टी.ओ.) की स्थापना के मूल प्रस्ताव का क्रियान्वयन है।
यद्यपि विश्व व्यापार संगठन जी.ए.टी.टी. का उत्तराधिकारी है तथापि यह उससे अधिक शक्तिशाली संगठन है। यह न केवल वस्तुओं बल्कि सेवाओं एवं बौद्धिक संपदा अधिकार में व्यापार को शासित करता है। जी.ए.टी.टी. से हटकर यह एक स्थायी संगठन है जिसकी स्थापना अंतर्राष्ट्रीय समझौते से हुई है तथा जिसे सदस्य देशों की सरकारों एवं विधान मंडलों ने प्रमाणित किया है। वैसे भी यह एक सदस्यों द्वारा संचालित नियमों पर आधारित संगठन है क्योंकि इसमें सभी निर्णय सदस्य सरकारों द्वारा आम राय से लिए जाते हैं। विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक समस्याओं के समाधान की प्रधान अंतर्राष्ट्रीय संस्था एवं बहु आयामी व्यापारिक पराक्रमण का मंच होने के नाते इसका आई.एम.एफ. एवं विश्व बैंक के समान वैश्विक स्तर है। भारत विश्व व्यापार संगठन का संस्थापक सदस्य है। 11 दिसंबर 2005 को इसके 149 सदस्य थे।
विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य
विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य वही हैं जो जी.ए.टी.टी. के हैं, अर्थात् आय में वृद्धि एवं जीवन स्तर में सुधारपूर्ण रोजगार सुनिश्चित करना, उत्पादन एवं व्यापार का विस्तार एवं विश्व के संसाधनों का समुचित उपयोग। दोनों के उद्देश्यों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य अधिक सुनिश्चित हैं तथा इसके कार्यक्षेत्र में सेवाओं का व्यापार भी आता है। विश्व व्यापार संगठन का एक उद्देश्य विश्व के संसाधनों के समुचित उपयोग के द्वारा टिकाऊ विकास करना है जिससे कि पर्यावरण को सुरक्षा एवं संरक्षण को सुनिश्चित किया जा सके। उपर्युक्त परिचर्चा को ध्यान में रखते हुए हम अधिक स्पष्ट रूप में कह सकते हैं कि विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं :
• विभिन्न देशों द्वारा लगाए शुल्क एवं अन्य व्यापारिक बाधाओं में कमी को सुनिश्चित करना;
• एेसे कार्य करना जो जीवन स्तर में सुधार लाए, रोजगार पैदा करे, आय एवं प्रभावी मांग में वृद्धि करे एवं अधिक उत्पादन एवं व्यापार को सुगम बनाए;
• टिकाऊ विकास के लिए विश्व संसाधनों के उचित उपयोग को सुगम बनाना;
• एकीकृत, अधिक व्यावहारिक एवं टिकाऊ व्यापार प्रणाली का प्रवर्तन।
विश्व व्यापार संगठन के कार्य
विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं-
• एक एेसे वातावरण को बल देना जो इसके सदस्य देशों को अपनी शिकायतों को दूर करने के लिए डब्ल्यू.टी.ओ. के पास आने के लिए प्रोत्साहित करे;
• एक सर्वमान्य आचार संहिता बनाना जिससे कि व्यापार की बाधाओं, जैसे- सीमा शुल्क को कम किया जा सके एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संबंधों में पक्षपात को समाप्त किया जा सके;
• विवादों को हल करने वाली संस्था के रूप में कार्य;
• यह सुनिश्चित करना कि सभी सदस्य देश अपने आपसी विवादों को हल करने के लिए अधिनियम द्वारा निर्धारित सभी नियम एवं कानूनों का पालन करें;
• आई.एम.एफ. एवं आई.बी.आर.डी. एवं इससे संबद्ध एजेंसियों से विचार-विमर्श करना जिससे कि वैश्विक आर्थिक नीति के निर्माण में और श्रेष्ठ समझ एवं सहयोग का समावेश किया जा सके; एवं
• वस्तुओं, सेवाओं एवं व्यापार से संबंधित बौद्धिक अधिकारों के संबंध में संशोधित समझौते एवं सरकारी घोषणाओं के परिचालन का नियमित पर्यवेक्षण करना।
विश्व व्यापार संगठन के लाभ
1995 में स्थापना के समय से ही विश्व व्यापार संगठन ने वर्तमान बहुआयामी व्यापार प्रणाली की वैधानिक एवं संस्थागत आधारशिला तैयार करने के लिए एक लंबा सफर तय किया है। यह न केवल व्यापार को सुगम बनाने बल्कि जीवन स्तर में सुधार एवं सदस्य देशों में पारस्परिक सहयोग में मददगार रहा है। विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख लाभ निम्न हैं-
• विश्व व्यापार संगठन अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देता है एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय को सुगम बनाता है।
• सदस्य देशों के बीच विवादों को आपसी बातचीत से निपटाता है।
• नियम अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं संबंधों को मृदु एवं संभाव्य बनाते हैं।
• स्वतंत्र व्यापार के कारण विभिन्न प्रकार की अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं को प्राप्त करने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं।
• स्वतंत्र व्यापार के कारण आर्थिक विकास में तीव्रता आई है।
• यह प्रणाली श्रेष्ठ शासन को प्रोत्साहित करती है।
• विश्व व्यापार संगठन विकासशील देशों के विकास का, व्यापार से संबंधित मामलों में विशेष ध्यान रखकर प्राथमिकता के आधार पर व्यवहार कर पोषण करने में सहायक होता है।
सारांश
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय/व्यापार का अर्थ : कोई देश अपनी सीमाओं से बाहर विनिर्माण एवं व्यापार करता है तो उसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय, अथवा बाह्य व्यवसाय को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। यह वह व्यावसायिक क्रियाएँ हैं जो राष्ट्र की सीमाओं के पार की जाती हैं। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि बहुत से लोग अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से लगाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय एक व्यापक शब्द है, जो विदेशों से व्यापार एवं वहां वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से मिलकर बना है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के कारण : अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का आधाारभूत कारण है कि दे"ा अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का भली प्रकार से एवं सस्ते मूल्य पर उत्पादन नहीं कर सकते। इसका कारण उनके बीच प्राकृतिक संसाधानों का असमान वितरण अथवा उनकी उत्पादकता में अंतर हो सकता है। वैसे विभिन्न राष्ट्रों में श्रम की उत्पादकता एवं उत्पादन लागत में भिन्नता विभिन्न सामाजिक-आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक कारणों से होती है। इन्हीं कारणों से यह कोई असाधारण बात नहीं है कि कोई एक देश अन्य देशों की तुलना में श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली वस्तुओं एवं कम लागत पर उत्पादन की स्थिति में हो।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बनाम घरेलू व्यवसाय : अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का संचालन एवं प्रबंधन घरेलू व्यवसाय को चलाने से कहीं अधिक जटिल है। घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में विभिन्न पहलूओं पर अंतर नीचे दिये गये हैं। (क) क्रेता एवं विक्रेताओं की राष्ट्रीयता (ख) अन्य हितार्थियों की राष्ट्रीयता (ग) उत्पादन के साधनों में गतिशीलता (घ) जीवन स्तर में वृद्धि (ड़) व्यवसाय पद्धतियों एवं आचरण में अंतर (च) राजनीतिक प्रणाली एवं जोखिमें (छ) व्यवसाय के नियम एवं नीतियाँ (ज) व्यावसायिक लेन-देनों के लिए प्रयुक्त मुद्रा।
आयात निर्यात प्रक्रिया : आंतरिक एवं बाह्य व्यवसाय परिचालन में प्रमुख अंतर की जटिलता है। वस्तुओं का आयात एवं निर्यात उतना सीधाा एवं सरल नहीं है जितना कि घरेलू बाजार मे क्रय एवं विक्रय, क्योंकि विदेशी व्यापार में माल देश की सीमा के पार भेजा जाता है तथा इसमें विदेशी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
निर्यात प्रक्रिया : निर्यात लेन-देन के अलग-अलग होते हैं। एक प्रति रूपक निर्यात लेन-देन के निम्नलिखित चरण होते हैंः (क) पूछताछ प्राप्त करना एवं निर्ख भेजना (ख) आदेश अथवा इंडैंट की प्राप्ति (ग) आयातक की साख का आंकलन एवं भुगतान की गारंटी प्राप्त करना (घ) निर्यात लाइसेंस प्राप्त करना (ड़) माल प्रेषण से पूर्व वित्त करना (च) वस्तुओं का उत्पादन एवं अधिाप्राप्ति (छ) जहाज लदान निरीक्षण (ज) उत्पाद शुल्क की निकासी (झ) उद्गम प्रमाणपत्र प्राप्त करना (ञ) जहाज में स्थान का आरक्षण (ट) पैकिंग एवं माल को भेजना (ठ) वस्तुओं का बीमा (ड) कस्टम निकासी (ढ) जहाज के कप्तान की रसीद (मेट्स रिसीप्ट) प्राप्त करना (ण) भाड़े का भुगतान एवं जहाजी बिल्टी का बीमा (त) बीजक बनाना (थ) भुगतान प्राप्त करना।
आयात प्रक्रिया : (क) व्यापारिक पूछताछ (ख) आयात लाइसेंस प्राप्त करना (ग) विदेश मुद्रा का प्रबंध करना (घ) आदेश अथवा इंडैंट भेजना (ड़) साख पत्र प्राप्त करना (च) वित्त की व्यवस्था करना (छ) जहाज से माल भेज दिए जाने की सूचना की प्राप्ति (ज) आयात प्रलेखों को छुड़ाना (झ) माल का आगमन (ञ) सीमा शुल्क निकासी एवं माल को छुड़ाना।
अभ्यास
बहु-विकल्पीय प्रश्न
दिए गए विकल्पों में से सही ( ✔) पर निशान लगाएं।
1. प्रवेश के निम्न माध्यमों में से किसमें घरेलू विनिर्माता फीस के बदले अन्य देश के विनिर्माता को अपनी बौद्धिक परिसंपत्तियों, जैसे पेटेंट एवं ट्रेडमार्क, को प्रयोग करने का अधिकार देता है।
(क) अनुज्ञप्ति (ख) अनुबंध
(ग) संयुक्त उपक्रम (घ) इनमें से कोई भी नहीं
2. दो अथवा दो से अधिक फर्मों द्वारा मिलकर एक नई व्यावसायिक इकाई का निर्माण, जोकि अपनी जनक इकाइयों से कानूनी रूप से स्वतंत्र एवं पृथक है, को कहते हैं।
(क) ठेके पर विनिर्माण (ख) फ्रैंचाइजिंग
(ग) संयुक्त उपक्रम (घ) अनुज्ञप्ति
3. निम्न में से कौन-सा निर्यात व्यापार का लाभ नहीं है?
(क) अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश का सरल मार्ग (ख) तुलना में कम जोखिम
(ग) विदेशी बाजारों में सीमित उपस्थिति (घ) निवेश की आवश्यकता कम।
4. प्रवेश के निम्न मार्गों में से किसमें जोखिम अधिक है?
(क) अनुज्ञप्ति (ख) फ्रैंचाइजिंग
(ग) ठेके पर विनिर्माण (घ) संयुक्त उपक्रम
5. निम्न में से कौन-सी मद भारत की प्रमुख निर्यात मदों में से एक नहीं है?
(क) कपड़ा एवं वस्त्र (ख) रत्न एवं जेवरात
(ग) तेल एवं पैट्रोलियम (घ) बासमती चावल।
6. निम्न में से कौन-सी मद भारत की प्रमुख आयात मदों में से एक नहीं है?
(क) आयुर्वेदिक दवाइयाँ (ख) तेल एवं पैट्रोलियम उत्पाद
(ग) मोती एवं कीमती पत्थर (घ) मशीनरी
7. निम्न में से कौन-सा देश भारत का प्रमुख व्यापारिक साझेदार नहीं है?
(क) यू.एस.ए (ख) यू.के
(ग) जर्मनी (घ) न्यूजीलैंड
8. निर्यात लाइसेंस प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित में से कौन से प्रलेखों की आवश्यकता नहीं होती।
(क) आई.ई.सी. नंबर (ख) साख पत्र
(ग) पंजीयन संग सदस्यता प्रमाण पत्र (घ) बैंक खाता संख्या
9. निम्न में से कौन सा शुल्क वापसी योजना का अंग नहीं है?
(क) उत्पादन शुल्क की वापसी (ख) सीमा शुल्क की वापसी
(ग) निर्यात कर की वापसी (घ) लदान बंदरगाह पर बंदरगाही
10. निम्न में से कौन-सा निर्यात संबंधित प्रलेखों में सम्मिलत नहीं है?
(क) वाणिज्यिक बीजक (ख) उद्गम स्थान प्रमाण पत्र
(ग) प्रवेश बिल (घ) कारिंदे की रसीद
11. जब माल का जहाज पर लदान करा दिया जाता है तो जहाज के कप्तान द्वारा जारी रसीद को कहते हैं-
(क) जहाजरानी रसीद (ख) कारिंदे की रसीद
(ग) नौभार माल रसीद (घ) जहाज के किराए की रसीद
12. निम्न में से कौन-सा प्रलेख निर्यातक द्वारा बनाया जाता है जिसमें जहाज से माल भेजने से संबंधित विवरण होता है जैसे भेजने वाले का नाम, पैकेजों की संख्या, जहाजी बिल, गंतव्य बंदरगाह, जहाज का नाम आदिः
(क) जहाजी बिल (ख) पैकेजिंग सूची
(ग) कारिंदे की रसीद (घ) विनियम पत्र
13. प्रलेख जिसमें बैंक द्वारा उस पर निर्यातक द्वारा लिखे बिल के भुगतान की गारंटी दी होती है। वह है-
(क) बंधक पत्र (ख) साख पत्र
(ग) जहाजी बिल्टी (घ) विनिमय पत्र
14. टी.आर.आई.पी. विश्व व्यापार समझौते में से एक है जो संबंधित है।
(क) कृषि व्यापार (ख) सेवा व्यापार
(ग) व्यापार संबंधिात निवेश उपाय (घ) इनमें से कोई नहीं
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अंतर्भेद कीजिए।
2. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के किन्हीं तीन लाभों की व्याख्या कीजिए।
3. दो देशों की बीच व्यापार के प्रमुख कारण क्या हैं?
4. एेसा क्यों कहा जाता है कि अनुज्ञप्ति वैश्विक विस्तार का सरल मार्ग है।
5. विदेशों में ठेका उत्पादन एवं संपूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कंपनी के अंतर्भेद कीजिए।
6. निर्यात लाइसेंस लेने के लिए औपचारिकताओं की विवेचना कीजिए।
7. निर्यात प्रोन्नति परिषद् में पंजीयन कराना क्यों आवश्यक है?
8. एक निर्यात फर्म के लिए लदान-पूर्व निरीक्षण कराना क्यों आवश्यक है?
9. माल को उत्पादन शुल्क विभाग से अनुमति के लिए प्रक्रिया की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
10. जहाजी बिल क्या है?
11. साख पत्र क्या है? निर्यातक को इस प्रलेख की क्या आवश्यकता है?
12. निर्यात का भुगतान प्राप्त करने की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक है। विवेचना कीजिए।
2. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से व्यावसायिक इकाइयों को क्या लाभ हैं?
3. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश हेतु निर्यात किस प्रकार से विदेशों में संपूर्ण स्वामित्व कंपनियों की स्थापना से श्रेष्ठतर माध्यम है?
4. रेखा गारमैंट्स को आस्ट्रेलिया में स्थित स्विफ्ट इम्पोटर्स लि. को 2000 पुरूष पैंट के निर्यात का आदेश प्राप्त हुआ है। इस निर्यात आदेश को क्रियान्वित करने में रेखा गारमेंट्स को किस प्रक्रिया से गुजरना होगा? विवेचना कीजिए।
5. आपकी फर्म कनाडा से कपड़ा मशीनरी के आयात की योजना बना रही है। आयात प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
6. देश के विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने जिन संगठनों की स्थापना की है। उनके नाम दीजिए।
7. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष क्या है? इसके विभिन्न उद्देश्यों एवं कार्यों की विवेचना कीजिए।
8. विश्व व्यापार संगठन की विशेषताओं ढाँचा उद्देश्य एवं कार्य संचालन पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
परियोजना कार्य/क्रियाकलाप
विश्व व्यापार में भारत की स्थिति
नीचे दिये गए आँकड़ों को ध्यानपूर्वक पढ़ें। यह आँकड़े विश्व व्यापार में भारत के निष्पादन को व्याख्या करते हैं। भारत सरकार द्वारा लिये गए 8 नवीन कदम जैसे कि ‘मेक इन इंडिया’, ‘कौशल भारत’ और विदेशी व्यापार नीति 2015-20 और ‘डिजीटल इंडिया’ आदि के माध्यम से भारतीय अर्थव्यवस्था में आयात निर्यात और व्यापार तुलन को बढ़ावा मिला है।
1. तालिका 1: विश्व की विस्तृत अर्थव्यवस्थाओं में भारत की स्थिति दर्शाती है।
क्रम सं. | देश | विश्व व्यापार में प्रतिशत अंश |
1. | संयुक्त राज्य अमेरिका | 24.3 |
2. | चीन | 14.8 |
3. | जापान | 5.9 |
4. | जर्मनी | 4.5 |
5. | यूनाइटेड किंगडम | 3.9 |
6. | फ्रांस | 3.3 |
7. | इंडिया | 2.8 |
8. | इटली | 2.5 |
9. | ब्राजील | 2.4 |
10. | कनाडा | 2.1 |
स्रोत: विश्व बैंक-2017
इसके संदर्भ में प्रवृत्ति रिपोर्ट तैयार करें, जोकि भारत की स्थिति को वर्ष 2015 से वर्ष 2017 तक दिखाए।
2. तालिका 2: इसमें विश्व व्यापार में भारत के प्रधाान साझेदारों का ब्यौरा है।
भारत के व्यापारिक सहयोगी एवं कुल व्यापार (2014-15) | (राशि अमेरिकी डॉलर में) | ||||
क्रम सं. | देश | निर्यात | आयात | कुल व्यापार | व्यापार का संतुलन |
1. | चीन | 9.01 | 61.71 | 70.72 | (52.70) |
2. | संयुक्त राज्य अमेरिका | 40.34 | 62.12 | 62.12 | 18.55 |
3. | संयुक्त अरब अमीरात | 30.29 | 49.74 | 49.74 | 10.84 |
4. | सऊदी अरब | 6.39 | 20.32 | 26.72 | (13.93) |
5. | जर्मनी | .98 | 12.09 | 20.33 | (5.25) |
6. | दक्षिण कोरिया | 3.52 | 13.05 | 18.13 | (8.93) |
7. | मलेष्ठिाया | 3.71 | 9.08 | 16.93 | (5.30) |
8. | सिंगापुर | 7.72 | 7.31 | 16.93 | 2.68 |
9. | नाइजीरिया | 2.22 | 9.95 | 16.36 | (11.00) |
10. | बेल्जियम | 5.03 | 8.26 | 16.33 | (5.29) |
11. | कतर | .90 | 9.02 | 15.66 | (13.55) |
12. | जापान | 4.66 | 9.85 | 15.52 | (4.75) |
13. | यूनाइटेड किंगडम | 8.83 | 5.19 | 14.34 | 4.30 |
केवल चयनित देश |
इन आँकड़ों के आधार पर चर्चा करें कि किस प्रकार व्यापारिक क्रियाओं द्वारा विश्व में शांति और सद्भावना स्थापित की जा सकती है।
3. तालिका 3 में दिये गए आयात एवं निर्यात संबंधी आँकड़ों को चित्रात्मक रूप से प्रदर्शित कीजिए।
व्यापारिक माल | |||
वर्ष | निर्यात | आयात | व्यापार का संतुलन |
2006-2007 | 571779 | 840506 | (268727) |
2007-2008 | 655864 | 1012312 | (356448) |
2008-2009 | 840755 | 1374438 | (533680) |
2009-2010 | 845534 | 1363736 | (518202) |
2010-2011 | 1136954 | 1683487 | (546503) |
2011-2012 | 1465959 | 2345463 | 879504) |
2012-2013 | 1634318 | 2669162 | (1034844) |
2013-2014 | 1905011 | 2715434 | (810423) |
2014-2015 | 1896348 | 2737087 | (840738) |
2015-2016 (अनंतिम) | 1716378 | 2490298 | (773920) |
2016-2017 (अनंतिम) अक्तूबर तक | 1039797 | 1396352 | (356554) |
वार्षिक रिपोर्ट, 2016-17 वाणिज्य मंत्रालय |
4. तालिका 4: भारत के आयात एवं निर्यात की वृद्धि दर को दर्शाता है।
वर्ष | निर्यात वृद्धि दर % | आयात वृद्धि दर % |
2006-2007 | 25.28 | 27.27 |
2007-2008 | 14.71 | 20.44 |
2008-2009 | 28.19 | 35.77 |
2009-2010 | 0.57 | (0.78) |
2010-2011 | 34.47 | 23.45 |
2011-2012 | 28.94 | 39.32 |
2012-2013 | 11.48 | 13.8 |
2013-2014 | 16.58 | 1.73 |
2014-2015 | (0.45) | 0.8 |
2015-2016 (अनंतिम) | (6.49) | (9.02) |
2016.2017 (अनंतिम) अक्तूबर तक | 4.17 | (6.99) |
2016-17 का वार्षिक रिपोर्ट, वाणिज्य मंत्रालय |
5. तालिका 5: उन वस्तुओं की सूची प्रस्तुत करती है जिन्हें भारत विश्व बाजार में आयात/निर्यात करता है। आपको आपेक्षित है कि वाणिज्य मंत्रालय को वार्षिक रिपोर्ट (2016-17) से इस सूची को पढ़ें और किन्हीं पाँच वस्तुओं का चुनाव कर ‘पाई चार्ट’ पर दर्शायें।
क्रम सं. | वस्तु | वस्तु | निर्यात (अमेरिकी डॉलर में) | अंश प्रतिशत | आयात (अमेरिकी डॉलर में) | अंश प्रतिशत |
1. | वृक्षारोपण | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 1503 1563 895
| .58 | 1034 895 524 | 0.25 |
2. | कृषि एवं समबद्ध उत्पाद | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 30147 24522 13420
| 8.64 | 19004 20673 12189
| 5.84 |
3. | खनिज और अयस्क | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 2410 2015 1412 | .91 | 26918 20684 12941 | 5.08 |
4. | चमड़ा एवं चमड़ा उत्पाद | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 6195 5554 3158 | 2.03 | 1093 1031 606 | 0.28 |
5. | खेल एवं आभूषण | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 41266 39283 26458 | 17.02 | 62351 56509 33845 | 12.80 |
6. | रासायनिक एवं संबंधित उत्पाद | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 31731 32169 18740.56 | 12.06 | 31731 32169 18740 | 12.06 |
7. | प्लास्टिक और रबर | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 6615 6416 3683 | 2.32 | 6615 6416 3682 | 2.37 |
8. | इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 6009 5690 3270 | 2.10 | 6009 5690 3270 | 2.10 |
9. | वस्त्र एवं सम्बद्ध उत्पाद | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 37141 35953 19593 | 12.61 | 37141 35953 19594 | 12.61 |
10. | कच्चा तेल एवं उत्पाद | 2014-2015 2015-2016 2016-2017 (अनंतिम) अप्रैल-अक्तूबर, 2017 | 56794 30583 19597 | 11.32 | 56794 30583 17597 | 11.32 |