इकाई एक

विकास नीतियाँ और अनुभव

(1947-90)


इस इकाई के दो अध्यायों के द्वारा हम स्वतंत्रता पूर्व से लेकर नियोजित विकास के चार दशकों तक के भारत द्वारा चुने गये पथ का समग्र रूप से अवलोकन करेंगे। तात्पर्य यह है कि भारत सरकार ने इसके लिए जो कठोर उपाय किये- जैसे-योजना आयोग का निर्माण तथा पंचवर्षीय योजनाओं की घोषणा आदि का अध्ययन। पंचवर्षीय योजनाओं के समग्र अवलोकन तथा नियोजित विकास की विशेषताओं तथा परिसीमाओं के मूल्यांकन का अध्ययन इस इकाई में किया गया है।

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स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय वर्ष 1947 में भारत की अर्थव्यवस्था की दशा के बारे में जानेंगे;

भारतीय अर्थव्यवस्था को अल्प विकास तथा गत्यावरोध की स्थिति में पहुँचा देने वाले कारकाें से परिचित होंगे।

भारत हमारे साम्राज्य की धुरी है। यदि हमारे साम्राज्य का कोई राज्य अलग हो जाता है तो हम जीवित रह सकते हैं, यदि हम भारत को खो देते हैं तो हमारे साम्राज्य का सूर्य अस्त हो जायेगा।

-विक्टर एलेक्जेंडर व्रूस, 1894 में ब्रिटिश इंडिया के वायसराय

1.1 परिचय

‘भारत का आर्थिक विकास’ विषयक इस पुस्तक का मूल उद्देश्य आपको भारतीय अर्थव्यवस्था की मूलभूत विशेषताओं की जानकारी देना और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हुए विकास से अवगत कराना है। यद्यपि, देश की वर्तमान अवस्था तथा भविष्य की संभावनाओं की चर्चा करते समय उसके आर्थिक अतीत पर ध्यान देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा, इसलिए हम अपनी चर्चा का आरंभ स्वतंत्रता से पूर्व देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति से कर रहे हैं। इसी क्रम में हम उन सब बातों की भी स्पष्ट पहचान करेंगे, जिन्होंने स्वतंत्र भारत के विकास की रणनीतियों का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान संरचना कोई आज की नहीं है। इसके मूल सूत्र तो इतिहास में बहुत गहरे हैं, विशेष रूप से उस अवधि में जब भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व दौ सौ वर्षाें तक ब्रिटिश शासन के अधीन था। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड में तेज़ी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल एक कच्चा माल प्रदायक तक ही सीमित रखना था। उस शासन की अधीनता के शोषक स्वरूप को समझे बिना स्वतंत्रता के बाद के पिछले छह दशकों में, भारत में हुए विकास का सही मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं।

1.2 औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत निम्न-स्तरीय आर्थिक विकास

अंग्रेज़ी शासन की स्थापना से पूर्व भारत की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी। यद्यपि जनसामान्य की आजीविका और सरकार की आय का मुख्य स्रोत कृषि था, फिर भी देश की अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की विनिर्माण गतिविधियाँ हो रही थीं। सूती व रेशमी वस्त्रों, धातु आधारित तथा बहुमूल्य मणि-रत्न आदि से जुड़ी शिल्पकलाओं के उत्कृष्ट केंद्र के रूप में भारत विश्व भर में सुविख्यात हो चुका था। भारत में बनी इन चीज़ों की विश्व के बाज़ारों में अच्छी सामग्री के प्रयोग तथा उच्च स्तर की कलात्मकता के आधार पर बड़ी प्रतिष्ठा थी। (बॉक्स 1.1 देखें)

बॉक्स 1.1 बंगाल का सूती उद्योग

मलमल एक विशेष प्रकार का सूती कपड़ा है। इसका मूल निर्माण क्षेत्र बंगाल, विशेषकर ढाका के आस-पास का क्षेत्र रहा है (यह नगर अब बांग्लादेश की राजधानी है)। ढाका के मलमल ने उत्कृष्ट कोटि के सूती वस्त्र के रूप में विश्व भर में बहुत ख्याति अर्जित की थी। यह बहुत ही महीन कपड़ा होता था। विदेशी यात्री इसे शाही मलमल या मलमल ख़ास भी कहते थे। इसका आशय यही था कि वे इस कपड़े को शाही परिवारों के उपयोग के योग्य मानते थे।

औपनिवेशिक शासकों द्वारा रची गई आर्थिक नीतियों का ध्येय भारत का आर्थिक विकास नहीं बल्कि अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन ही था। इन नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था के स्वरूप के मूल रूप को बदल डाला। भारत, इंग्लैंड को कच्चे माल की पूर्ति करने तथा वहाँ के बने तैयार माल का आयात करने वाला देश बन कर रह गया।

स्वाभाविक ही था कि औपनिवेशिक शासकों ने कभी इस देश की राष्ट्रीय तथा प्रतिव्यक्ति आय का आकलन करने का भी ईमानदारी से कोई प्रयास नहीं किया। कुछ लोगों ने निजी स्तर पर आकलन किए, पर उनके अनुमानों में बहुत विसंगतियाँ और आपसी मतभेद भी रहे हैं। इन आकलनकर्त्ताओं में दादा भाई नौरोजी, विलियम डिग्बी, फिंडले शिराज, डॉ. वी.के.आर.वी.राव तथा आर.सी. देसाई प्रमुख रहे हैं। औपनिवेशिक काल के दौरान डॉ. राव द्वारा लगाए गए अनुमान बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। फिर भी, सभी अध्ययनकर्त्ता एक बात पर सहमत रहे हैं कि 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत की राष्ट्रीय आय की वार्षिक संवृद्धि दर 2 प्रतिशत से कम ही रही है तथा प्रतिव्यक्ति उत्पाद वृद्धि दर तो मात्र आधा प्रतिशत ही रह गई।

1.3 कृषि क्षेत्रक

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारत मूलतः एक कृषि अर्थव्यवस्था ही बना रहा। देश की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या, जो गाँवों में बसी थी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि के माध्यम से ही अपनी रोजी-रोटी कमा रही थी (बॉक्स 1.2 देखें)। एक बड़ी जनसंख्या का व्यवसाय होने के बाद भी कृषि क्षेत्रक में गतिहीन विकास की प्रक्रिया चलती ही रही - यही नहीं अनेक अवसरों पर उसमें अप्रत्याशित ह्रास या गिरावट भी अनुभव की गई। भले ही कृषि अधीन क्षेत्र के प्रसार के कारण कुल कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई हो, किंतु कृषि उत्पादकता में कमी आती रही। कृषि क्षेत्रक की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागू की गई भू-व्यवस्था प्रणालियों को ही माना जा सकता है। आज के समस्त पूर्वी भारत में, जो उस समय बंगाल प्रेसीडेंसी कहा जाता था, लागू की गई जमींदारी व्यवस्था में तो कृषि कार्यों से होने वाले समस्त लाभ को जमींदार ही हड़प जाते थे, किसानों के पास कुछ नहीं बच पाता था। यही नहीं, अधिकांश जमींदारों तथा सभी औपनिवेशिक शासकोंने कृषि क्षेत्रक की दशा को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। जमींदारों की रुचि तो किसानों की आर्थिक दुर्दशा की अनदेखी कर, उनसे अधिक से अधिक लगान संग्रह करने तक सीमित रहती थी। इसी कारण, कृषक वर्ग को नितांत दुर्दशा और सामाजिक तनावों को झेलने को बाध्य होना पड़ा। राजस्व व्यवस्था की शर्ताें का भी जमींदारों के इस व्यवहार के विकास में बहुत योगदान रहा है। राजस्व की निश्चित राशि सरकार के कोष में जमा कराने की तिथियाँ पूर्व निर्धारित थीं – उनके अनुसार रकम जमा नहीं करा पाने वाले जमींदारों से उनके अधिकार छीन लिए जाते थे। साथ ही, प्रौद्योगिकी के निम्न स्तर, सिंचाई सुविधाओं के अभाव और उर्वरकों का नगण्य प्रयोग भी कृषि उत्पादकता के स्तर को बहुत निम्न रखने के लिए उत्तरदायी था। किसानों की दुर्दशा को और बढ़ाने में इसका भी बड़ा योगदान रहा है। देश के कुछ क्षेत्रों में कृषि के व्यावसायीकरण के कारण नकदी-फसलों की उच्च उत्पादकता के प्रमाण भी मिलते हैं। किंतु, उस उच्च उत्पादकता के लाभ भारतीय किसानों को नहीं मिल पाते थे। क्योंकि, उन्हें तो खाद्यान्न की खेती के स्थान पर नकदी फसलों का उत्पादन करना पड़ता था, जिनका प्रयोग अंततः इंग्लैंड में लगे कारखानों में किया जाता था। सिंचाई व्यवस्था में कुछ सुधार के बावजूद भारत बाढ़ नियंत्रण एवं भूमि की उपजाऊ शक्ति के मामले में पिछड़ा हुआ था। जबकि किसानों के एक छोटे से वर्ग ने अपने फसल पैटर्न को परिवर्तित कर खाद्यान्न फसलों की जगह वाणिज्यिक फसलें उगाना आरंभ किया। काश्तकारों के एक बड़े वर्ग तथा छोटे किसानों के पास कृषि क्षेत्र में निवेश करने के लिए न ही संसाधन थे न तकनीक थी और न ही कोई प्रेरणा।

बॉक्स 1.2 पूर्व ब्रिटिश काल में कृषि

सत्रहवीं शताब्दी में भारत आए फ्रांसीसी यात्री बर्नीयर ने तत्कालीन बंगाल का इस प्रकार वर्णन किया है- "अपने दो बार के भ्रमण के दौरान बंगाल के विषय में संगृहीत जानकारी के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि यह क्षेत्र मिश्र देश से कहीं अधिक समृद्ध है। यहाँ से सूती-रेशमी वस्त्र, चावल, शक्कर और मक्खन का प्रचुर मात्रा में निर्यात होता है। यहाँ अपने आंतरिक उपभोग के लिए भी गेहूँ, सब्जियाँ, अनाज, मुर्गे/मुर्गियाँ, बत्तख आदि का भरपूर उत्पादन होता है। यहाँ सूअरों के बड़े-बड़े झुंड तथा भेड़-बकरियों के विशाल झुंड भी विद्यमान हैं। इस क्षेत्र में हर प्रकार की मछलियाँ प्रचुरता में उपलब्ध हैं। राजमहल से लेकर समुद्र तक अतीत में परिवहन तथा सिंचाई के लिए गंगा नदी से (बहुत यत्न और श्रमपूर्वक) काट कर बनाई गई नहरों का जाल-सा बिछा हुआ है।"


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चित्र 1.1 : ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारत में कृषि में गतिहीनता

सत्रहवीं शताब्दी में अपने देश की कृषि समृद्धि के बारे में लिखिए। लगभग 200 वर्ष बाद जब ब्रिटिश भारत को छोड़कर गए, उस समय की कृषि की गतिहीनता के साथ इसकी तुलना कीजिए।


1220.pngइन्हें कीजिए

स्वतंत्र भारत के मानचित्र की, अंग्रेज़ी शासन के भारत के मानचित्र से तुलना कर पता लगाइए कि देश का कौन-सा क्षेत्र पाकिस्तान का हिस्सा बन गया? यह क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से भारत के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण था? (इस संदर्भ में डॅा. राजेंद्र प्रसाद की पुस्तक ‘इंडिया डिवाइडेड’ का अध्ययन उपयोगी होगा)।

अंग्रेज़ों ने भारत में किस प्रकार की राजस्व व्यवस्था लागू की? देश के किस क्षेत्र में कौन-सी राजस्व व्यवस्थाएँ लागू की गईं और वहाँ उसके क्या प्रभाव रहे? आपको उन राजस्व व्यवस्थाओं की आज के भारत में कृषि परिदृश्य पर क्या छाप दिखाई देती है? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए आप रमेशचंद्र दत्त की दो खंडों में प्रकाशित पुस्तक ‘इकनॉमिक हिस्ट्री अॉफ इंडिया’ का सहारा ले सकते हैं। बी.एच. बेडेन पावेल की पुस्तकः ‘द लैंड सिस्टम अॉफ ब्रिटिश इंडिया’ भी उपयोगी रहेगी। इसके भी दो खंड हैं। इस विषय को अधिक अच्छी तरह से समझने के लिए आप ब्रिटिश भारत का एक कृषि-मानचित्र बनाने का प्रयास करें। अपने विद्यालय में लगे कंप्यूटर का भी आप इस कार्य में प्रयोग कर सकते हैं। स्मरण रखिए, किसी भी विषय को भली प्रकार समझने-समझाने में मानचित्र का अंकन बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है।

1.4 औद्योगिक क्षेत्रक

कृषि की ही भाँति औपनिवेशिक व्यवस्था के अंतर्गत भारत एक सुदृढ़ औद्योगिक आधार का विकास भी नहीें कर पाया। देश की विश्व प्रसिद्ध शिल्पकलाओं का पतन हो रहा था, किंतु उस प्रतिष्ठित परंपरा का स्थान ले सकने वाले किसी आधुनिक औद्योगिक आधार की रचना नहीं होने दी गई। भारत के इस वि-औद्योगीकरण के पीछे विदेशी शासकों का दोहरा उद्देश्य था। एक तो वे भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे। दूसरे, वे उन उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत को ही एक विशाल बाज़ार भी बनाना चाहते थे। इस प्रकार, उन उद्योगों के प्रसार के सहारे वे अपने देश (ब्रिटेन) के लिए अधिकतम लाभ सुनिश्चित करना चाहते थे। एेसे आर्थिक परिदृश्य में भारतीय शिल्पकलाओं के पतन से जहाँ एक ओर भारी स्तर पर बेरोजगारी फैल रही थी, वहीं स्थानीय उत्पाद से वंचित भारतीय बाज़ारों में माँग का भी प्रसार हो रहा था। इस माँग को इंग्लैंड से सस्ते निर्मित उत्पादों के लाभपूर्ण आयात द्वारा पूरा किया गया।

यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लगी थी, किंतु उनकी उन्नति बहुत धीमी ही रही। प्रारंभ में तो यह विकास केवल सूती वस्त्र और पटसन उद्योगों को आरंभ करने तक ही सीमित था। सूती कपड़ा मिलें प्रायः भारतीय उद्यमियों द्वारा ही लगाई गई थीं और ये देश के पश्चिमी क्षेत्रों (आज के महाराष्ट्र और गुजरात) में ही अवस्थित थीं। पटसन उद्योग की स्थापना का श्रेय विदेशियों को दिया जा सकता है। यह उद्योग केवल बंगाल प्रांत तक ही सीमित रहा। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में लोहा और इस्पात उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ। टाटा आयरन स्टील कंपनी (TISCO) की स्थापना 1907 में हुई। दूसरे विश्व युद्ध के बाद चीनी, सीमेंट, कागज़ आदि के कुछ कारखाने भी स्थापित हुए।

किंतु, भारत में भावी औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने हेतु पूँजीगत उद्योगों का प्रायः अभाव ही बना रहा। पूंँजीगत उद्योग वे उद्योग होते हैं जो तत्कालिक उपभोग में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिए मशीनों और कलपुर्जों का निर्माण करते हैं। यत्र-तत्र कुछ कारखानों की स्थापना से देश की पारंपरिक शिल्प कला आधारित निर्माणशालाओं के पतन की भरपाई नहीं हो पाईं। यही नहीं, नव औद्यागिक क्षेत्रक की संवृद्धि दर बहुत ही कम थी और सकल घरेलूू (देशीय) उत्पाद या सकल वर्धित मूल्य में इसका योगदान भी बहुत कम रहा। इस नए उत्पादन क्षेत्रक की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कमी यह थी कि इसमें सार्वजनिक क्षेत्रक का कार्यक्षेत्र भी बहुत कम रहा। वास्तव में, ये क्षेत्रक प्रायः रेलों, विद्युत उत्पादन, संचार, बंदरगाहों और कुछ विभागीय उपक्रमों तक ही सीमित थे।


1220.pngइन्हें कीजिए

एक तालिका बना कर दर्शाएँ कि भारत में अन्य आधुनिक उद्योग सबसे पहले कहाँ और कब स्थापित हुआ था। क्या आप यह जानते हैं कि किसी आधुनिक उद्योग की स्थापना के लिए आधारभूत आवश्यकताएँ क्या होती हैं? उदाहरण के लिए, टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी की स्थापना जमशेदपुर में ही क्यों की गई? (यह अब झारखंड राज्य में है)।

आज भारत में कितने लौह और इस्पात कारखाने हैं? क्या ये लौह और इस्पात कारखाने विश्व के श्रेष्ठ संयंत्रों में गिने जाते हैं? क्या इन कारखानों की पुनर्रचना और तकनीकी उन्नयन की आवश्यकता है? यदि हाँ, तो यह कार्य किस प्रकार हो सकेगा? आजकल यह तर्क दिया जा रहा है कि जो उद्योग अर्थव्यवस्था के लिए अति महत्त्वपूर्ण नहीं है, उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस विषय में आपके क्या विचार हैं?

भारत के मानचित्र पर उन सूती कपड़ ा और पटसन मिलों को अंकित करें, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय विद्यमान थीं।

1.5 विदेशी व्यापार

प्राचीन समय से ही भारत एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक देश रहा है, किंतु औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार की संरचना, स्वरूप और आकार पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप भारत कच्चे उत्पाद जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील और पटसन आदि का निर्यातक होकर रह गया। साथ ही यह सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्रों जैसी अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं और इंग्लैंड के कारखानों में बनी हल्की मशीनों आदि का आयातक भी हो गया। व्यावहारिक रूप से इंग्लैंड ने भारत के आयात-निर्यात व्यापार पर अपना एकाधिकार जमाए रखा। भारत का आधे से अधिक व्यापार तो केवल इंग्लैंड तक सीमित रहा। शेष कुछ व्यापार चीन, श्रीलंका और ईरान से भी होने दिया जाता था। स्वेज नहर का व्यापार मार्ग खुलने से तो भारत के व्यापार पर अंग्रेज़ी नियंत्रण और भी सख्त हो गया (देखें बॉक्स 1.3)।


1220.pngइन्हें कीजिए

ब्रिटिश काल की उन वस्तुओं की सूची तैयार करें, जिनका भारत से निर्यात और आयात होता था।

भारत सरकार के वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित विभिन्न वर्षाें के आर्थिक सर्वेक्षण से भारत के आयात और निर्यात से संबंधित विभिन्न वस्तुओं की सूचना एकत्रित करें। इन आयातों और निर्यातों की तुलना स्वतंत्रता-पूर्व अवधि से करें। उन सभी प्रमुख पत्तनों के नाम भी लिखें, जो अब भारत के अधिकांश विदेशी व्यापार को सँभालते हैं।

विदेशी शासन के अंतर्गत भारतीय आयात-निर्यात की सबसे बड़ी विशेषता निर्यात अधिशेष का बड़ा आकार रहा। किंतु, इस अधिशेष की भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत भारी लागत चुकानी पड़ी। देश के आंतरिक बाज़ारों में अनाज, कपड़ा और मिट्टी का तेल जैसी अनेक आवश्यक वस्तुएँ मुश्किल से उपलब्ध हो पाती थीं। यही नहीं, इस निर्यात अधिशेष का देश में सोने और चाँदी के प्रवाह पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वास्तव में, इसका प्रयोग तो अंग्रेजों की भारत पर शासन करने के लिए गढ़ी गई व्यवस्था का खर्च उठाने में ही हो जाता था। अंग्रेज़ी सरकार के युद्धों पर व्यय तथा अदृश्य मदों के आयात पर व्यय के द्वारा भारत की संपदा का दोहन हुआ।


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चित्र 1.2 स्वेज नहरः भारत और इंग्लैंड के बीच राजमार्ग के रूप में प्रयुक्त स्वेज नहर

बॉक्स 1.3 स्वेज नहर के माध्यम से व्यापार

स्वेज नहर उत्तर-पूर्वी मिस्र में स्वेज स्थल-संधि के आर-पार उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होने वाला कृत्रिम जलमार्ग है। यह भूमध्य सागर की मिस्र पत्तन पोर्ट सईद को लाल सागर की एक प्रशाखा स्वेज की खाड़ी से जोड़ता है। इस नहर से अमेरिका और यूरोप से आने वाले जलयानों को दक्षिण एशिया, पूर्वी अफ्रीका तथा प्रशांत महासागर तटवर्ती देशों के लिए एक छोटा और सीधा जलमार्ग सुलभ हो गया है। अब उन्हें अफ्रीका के दक्षिणी छोर की परिक्रमा नहीं करनी पड़ती। स्वेज नहर आज आर्थिक और सामरिक दृष्टि से विश्व का सबसे महत्त्वपूर्ण जलमार्ग है। वर्ष 1869 में इसके खुल जाने से परिवहन लागतें बहुत कम हो गईं और भारतीय बाज़ार तक पहुँचना सुगम हो गया।


1.6 जनांकिकीय परिस्थिति

ब्रिटिश भारत की जनसंख्या के विस्तृत ब्यौरे सबसे पहले 1881 की जनगणना के तहत एकत्रित किए गए। यद्यपि इसकी कुछ सीमाएँ थीं, फिर भी इसमें भारत की जनसंख्या संवृद्धि की विषमता बहुत स्पष्ट थी। बाद में, प्रत्येक दस वर्ष बाद जनगणना होती रही। वर्ष 1921 के पूर्व का भारत जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम सोपान में था। द्वितीय सोपान का आरंभ 1921 के बाद माना जाता है। किंतु, उस समय तक न तो भारत की जनसंख्या बहुत विशाल थी और न ही उसकी संवृद्धि दर बहुत अधिक थी।

सामाजिक विकास के विभिन्न सूचक भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं थे। कुल मिलाकर साक्षरता दर तो 16 प्रतिशत से भी कम ही थी। इसमें महिला साक्षरता दर नगण्य, केवल 7 प्रतिशत आँकी गई थी। जन-स्वास्थ्य सेवाएँ तो अधिकांश को सुलभ ही नहीं थीं। जहाँ ये सुविधाएँ उपलब्ध थीं भी, वहाँ नितांत ही अपर्याप्त थीं। परिणामस्वरूप, जल और वायु के सहारे फैलने वाले संक्रमण रोगों का प्रकोप था, उनसे व्यापक जन-हानि होना एक आम बात थी। कोई आश्चर्य नहीं कि उस समय सकल मृत्यु दर बहुत ऊँची थी। विशेष रूप से शिशु मृत्यु दर अधिक चाैंकाने वाली थी। आज भले ही हमारे देश में शिशु मृत्यु दर 33 प्रति हजार हो गई है, पर उस समय तो ये दर 218 प्रति हजार थी। जीवन प्रत्याशा स्तर भी आज के 69 वर्ष की तुलना में केवल 44 वर्ष ही था। विश्वस्त आँकड़ों के अभाव में यह कह पाना कठिन है कि उस समय गरीबी का प्रसार कितना था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में अत्यधिक गरीबी व्याप्त थी, परिणामस्वरूप भारत की जनसंख्या की दशा और भी बदतर हो गई।

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चित्र 1.3 भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग मूल आवश्यकता जैसे कि घर से वंचित था।

 1220.pngइन्हें कीजिए

►क्या आप स्वतंत्रता पूर्व भारत में बारंबार अकाल पड़ने का कारण बता सकते हैं? इस विषय में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘गरीबी और अकाल’ बहुत उपयोगी होगी।

►स्वतंत्रता के समय भारत की जनसंख्या के व्यावसायिक विभाजन का पाई चार्ट बनाइए।

1.7 व्यावसायिक संरचना

औपनिवेशिक काल में विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रकों में लगे कार्यशील श्रमिकों के आनुपातिक विभाजन में कोई परिवर्तन नहीं आया। कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था, जिसमें 70-75 प्रतिशत जनसंख्या लगी थी। विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों में क्रमशः 10 प्रतिशत तथा 15-20 प्रतिशत जन-समुदाय को रोजगार मिल पा रहा था। क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि एक बड़ी विलक्षणता रही। उस समय की मद्रास प्रेसीडेंसी (आज के तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक और केरल प्रांतों के क्षेत्रों), मुंबई और बंगाल के कुछ क्षेत्रों में कार्यबल की कृषि क्षेत्रक पर निर्भरता में कमी आ रही थी, विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों का महत्त्व तदनुरूप बढ़ रहा था। किंतु उसी अवधि में पंजाब, राजस्थान और उड़ीसा के क्षेत्रों में कृषि में लगे श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि आँकी गई।

1.8 आधारिक संरचना

औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत देश में रेलों, पत्तनों, जल परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ। इसका ध्येय जनसामान्य को अधिक सुविधाएँ प्रदान करना नहीं था। ये कार्य तो औपनिवेशिक हित साधन के ध्येय से किए गए थे। अंग्रेज़ी शासन से पहले बनी सड़कें आधुनिक यातायात साधनों के लिए उपयुक्त नहीं थीं। जो सड़कें उन्होंने बनाईं, उनका ध्येय भी देश के भीतर उनकी सेनाओं के आवागमन की सुविधा तथा देश के भीतरी भागों से कच्चे माल को निकटतम रेलवे स्टेशन या पत्तन तक पहुँचाने में सहायता करना मात्र था। इस प्रकार, माल को इंग्लैंड या अन्य लाभकारी बाज़ारों तक पहुँचाना आसान हो जाता था। ग्रामीण क्षेत्रों तक माल पहुँचाने में सक्षम सभी मौसम में उपयोग होने वाले सड़क मार्गों का अभाव निरंतर बना ही रहा। वर्षाकाल में तो यह अभाव और भी भीषण हो जाता था। स्वाभाविक ही था कि प्राकृतिक आपदाओं और अकाल आदि की स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों में बसे देशवासियों का जीवन कठिनाइयों के कारण दूभर हो जाता था।

अंग्रेज़ों ने 1850 में भारत में रेलों का आरंभ किया। यही उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है। रेलों ने भारत की अर्थव्यवस्था की संरचना को दो महत्त्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित किया। एक तो इससे लोगों को भूक्षेत्रीय एवं सांस्कृतिक व्यवधानों को कम कर आसानी से लंबी यात्राएँ करने के अवसर प्राप्त हुए, तो दूसरी ओर भारतीय कृषि के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिला। किंतु, इस व्यावसायीकरण का भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं के आत्मनिर्भरता के स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़ा। भारत के निर्यात में निःसंदेह विस्तार हुआ, परंतु इसके लाभ भारतवासियों को मुश्किल से ही प्राप्त हुए। इस प्रकार जनसामान्य को मिले सांस्कृतिक लाभ, व्यापक होते हुए भी देश की आर्थिक हानि की भरपाई नहीं कर पाए।

सड़कों तथा रेलों के विकास के साथ-साथ औपनिवेशिक व्यवस्था ने आंतरिक व्यापार तथा समुद्री जलमार्गों के विकास पर भी ध्यान दिया। किंतु ये उपाय बहुत संतोषजनक नहीं थे। उस समय के आंतरिक जलमार्ग अलाभकारी सिद्ध हुए। उड़ीसा की तटवर्ती नहर इसका विशेष उदाहरण है। यद्यपि इस नहर का निर्माण सरकारी कोष से किया गया था, तथापि यह रेलमार्ग से स्पर्धा नहीं कर पाई। नहर के समानांतर रेलमार्ग विकसित होने के बाद अंततः उस जलमार्ग को छोड़ दिया गया। भारत में विकसित की गई मँहगी तार व्यवस्था का मुख्य ध्येय तो कानून व्यवस्था को बनाए रखना ही था। दूसरी ओर डाक सेवाएँ अवश्य जनसामान्य को सुविधा प्रदान कर रही थीं, किंतु वे बहुत ही अपर्याप्त थीं। आधारिक संरचनाओं की वर्तमान अवस्था के विषय में आपको अध्याय-8 में विस्तृत जानकारी दी जाएगी।

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चित्र 1.4 मुंबई तथा थाणे को जोड़ने वाला पहला रेल पुल, 1854

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चित्र 1.5 टाटा एयरलाइंस :टाटा संस के विभाग के रूप में इस कंपनी की स्थापना से 1932 में भारत में उड्डयन क्षेत्र की नींव रखी गई

 

1.9 निष्कर्ष

स्वतंत्रता प्राप्ति तक, 200 वर्षों के विदेशी शासन का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक आयाम पर अपनी पैठ बना चुका था। कृषि क्षेत्रक पहले से ही अत्यधिक श्रम-अधिशेष के भार से लदा था। उसकी उत्पादकता का स्तर भी बहुत कम था। औद्योगिक क्षेत्रक भी आधुनिकीकरण वैविध्य, क्षमता संवर्धन और सार्वजनिक निवेश में वृद्धि की माँग कर रहा था। विदेशी व्यापार तो केवल इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति को पोषित कर रहा था। प्रसिद्ध रेलवे नेटवर्क सहित सभी आधारिक संरचनाओं में उन्नयन, प्रसार तथा जनोन्मुखी विकास की आवश्यकता थी। व्यापक गरीबी और बेरोजगारी भी सार्वजनिक आर्थिक नीतियों को जनकल्याणोन्मुखी बनाने का आग्रह कर रही थीं। संक्षेप में, देश में सामाजिक और आर्थिक चुनौतियाँ बहुत अधिक थीं।


क्रियात्मक गतिविधियाँ

अभी भी कुछ क्षेत्रों में यह धारणा व्याप्त है कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए लाभकारी ही था। इस धारणा के बारे में जानकारियों पर आधारित चर्चा की आवश्यकता है। आपका इस धारणा के प्रति क्या दृष्टिकोण होगा? अपनी कक्षा में इस विषय पर चर्चा आयोजित करेंः क्या अंग्रे\ज़ी शासन भारत के लिए अच्छा था?


पुनरावर्तन

स्वतंत्रता के बाद की आर्थिक विकास की उपलब्धियों को सही रूप में समझ पाने के लिए स्वतंत्रता पूर्व की अर्थव्यवस्था की सही जानकारी की आवश्यकता है।

औपनिवेशिक शासकों की आर्थिक नीतियाँ शासित देश और वहाँ के लोगों के आर्थिक विकास से प्रेरित नहीं थीं, उनका ध्येय तो इंग्लैंड के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन था।

भले ही भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ ा भाग कृषि से ही अपनी आजीविका पाता था, किंतु कृषि क्षेत्रक गतिहीन ही रहा-इसमें ह्रास के ही प्रमाण मिले हैं।

भारत की अंग्रे\ज़ी सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण भारत के विश्व प्रसिद्ध हस्तकला उद्योगों का पतन होता रहा और उनके स्थान पर किसी आधुनिक औद्योगिक आधार की रचना नहीं हो पाई।

पर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, बार-बार प्राकृतिक आपदाओं और अकाल ने जनसामान्य को बहुत ही निर्धन बना डाला और इसके कारण उच्च मृत्युदर का सामना करना पड़ ा।

यद्यपि अपने औपनिवेशिक हितों से प्रेरित होकर विदेशी शासकों ने आधारिक सरंचना
सुविधाओं को सुधारने के प्रयास किए थे, परंतु इन प्रयासों में उनका निहित स्वार्थ था। यद्यपि स्वतंत्र भारत की सरकार ने योजनाओं के द्वारा यह आधार बनाया।


अभ्यास

1. भारत में औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीतियों का केंद्र बिंदु क्या था? उन नीतियों के क्या प्रभाव हुए?

2. औपनिवेशिक काल में भारत की राष्ट्रीय आय का आकलन करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्रियों के नाम बताइए।

3. औपनिवेशिक शासनकाल में कृषि की गतिहीनता के मुख्य कारण क्या थे?

4. स्वतंत्रता के समय देश में कार्य कर रहे कुछ आधुनिक उद्योगों के नाम बताइए।

5. स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेज़ों द्वारा भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण के दोहरे ध्येय क्या थे?

6. अंग्रेज़ी शासन के दौरान भारत के परंपरागत हस्तकला उद्योगों का विनाश हुआ। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कारण बताइए।

7. भारत में आधारिक सरंचना विकास की नीतियों से अंग्रेज़ अपने क्या उद्देश्य पूरा करना चाहते थे?

8. ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा अपनाई गई औद्योगिक नीतियों की कमियों की आलोचनात्मक विवेचना करें।

9. औपनिवेशिक काल में भारतीय संपत्ति के निष्कासन से आप क्या समझते हैं?

10. जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम से द्वितीय सोपान की ओर संक्रमण का विभाजन वर्ष कौन-सा माना जाता है?

11. औपनिवेशिक काल में भारत की जनांकिकीय स्थिति का एक संख्यात्मक चित्रण प्रस्तुत करें।

12. स्वतंत्रता पूर्व भारत की जनसंख्या की व्यावसायिक सरंचना की प्रमुख विशेषताएँ समझाइए।

13. स्वतंत्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियों को रेखांकित करें।

14. भारत में प्रथम सरकारी जनगणना किस वर्ष में हुई थी?

15. स्वतंत्रता के समय भारत के विदेशी व्यापार के परिमाण और दिशा की जानकारी दें।

16. क्या अंग्रेज़ों ने भारत में कुछ सकारात्मक योगदान भी दिया था? विवेचना करें।

अतिरिक्त गतिविधियाँ

1. स्वतंत्रता के पूर्व भारत में ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में लोगों को उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं की सूची बनाइए। उस सूची की आज के उपभोग स्वरूप से तुलना करें। इस प्रकार जन-सामान्य के जीवन स्तर में आए परिवर्तनों का आकलन करें।

2. अपने आस-पास के गाँवों और शहरों के स्वतंत्रता पूर्व के चित्र संग्रहित करें। उन्हें आज के परिदृश्यों से मिला कर देखें। आप उसमें क्या परिवर्तन देखते हैं? क्या इनमें आए परिवर्तन सुखद हैं या दुखद? चर्चा करें।

3. अपने शिक्षक के सहयोग से इस विषय पर परिचर्चा करें :  क्या भारत में जमींदारी प्रथा का सचमुच उन्मूलन हो गया है? यदि आपका सामान्य मत नकारात्मक है, तो आपके विचार से इसे समाप्त करने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए और क्यों?

4. स्वतंत्रता के समय हमारे देश की जनता अपनी आजीविका के लिए क्या-क्या कार्य करती थी? आज जनता के मुख्य व्यवसाय क्या हैं? देश में चल रहे आर्थिक सुधारों को ध्यान में रखकर वर्ष 2035 में आप किस प्रकार के व्यावसायिक परिदृश्य की कल्पना करेंगे? 

संदर्भ

बेड़न-पॉवल बी.एच 1892. द लेंड सिस्टम अॉफ ब्रिटिश इंडिया, खंड एक, दो और तीन अॉक्सफोर्ड क्लेरेंडन प्रेस, अॉक्सफोर्ड।

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चंद्र बिपिन 1993. द कालोनियल लीगेसी, संकलित बिमल जालान (संपादक)।

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दत्त रमेश चंद्र 1963. इकनॉमिक हिस्ट्री अॉफ इंडिया, खंड 1,2 सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नयी दिल्ली।

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प्रसाद राजेंद्र 1946. इंडिया डिवाइडेड, हिंद किताब, मुंबई।

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आर्थिक सर्वेक्षण (विभिन्न वर्षों के), वित्त मंत्रालय, भारत सरकार।