Table of Contents
इकाई दो
आर्थिक सुधार
1991 से
नियोजित विकास के चालीस वर्षों के बाद, भारत एक सशक्त औद्योगिक आधार तथा खाद्यन्नों के उत्पादन में स्व-निर्भरता प्राप्त करने में सक्षम रहा है। इसके बावजूद, जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। 1991 में, भुगतान संकट के कारण भारत में आर्थिक सुधार का सूत्रपात हुआ। इस इकाई में सुधारों की प्रक्रिया तथा भारत के संदर्भ में उनके प्रयोग का मूल्यांकन किया गया है।
3
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण–एक समीक्षा
इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप
• 1991 में भारत में आरंभ की गई सुधार नीतियों की पृष्ठभूमि से परिचित होंगे;
• सुधार नीतियों को आरंभ किये जाने की प्रक्रिया को समझेंगे;
• वैश्वीकरण की प्रक्रिया और भारत के लिए इसके निहितार्थ से परिचित होंगे;
• विभिन्न क्षेत्रकों पर सुधार प्रक्रिया के प्रभावों को जानेंगे।
आज के विश्व में आम सहमति है कि केवल आर्थिक विकास ही सब कुछ नहीं है तथा सकल घरेलू उत्पाद ही समाज की प्रगति का एकमात्र अनिवार्य सूचक नहीं है।
-के.आर. नारायणन (भारत के पूर्व-राष्ट्रपति)
3.1 परिचय
आपने पिछले अध्याय में पढ़ा कि स्वतंत्रता के बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढाँचे को अपनाया। इसमें पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताओं के साथ समाजवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ एक साथ थीं। कुछ विद्वानों का तर्क है कि इन वर्षाें में इस व्यवस्था के नियमन और नियंत्रण के लिए इतने अधिक नियम-कानून बनाए गए कि उनसे आर्थिक संवृद्धि और विकास की समूची प्रक्रिया ही अवरुद्ध हो गई। अन्य विद्वानों का मत है कि भारत जिसने अपनी विकास-यात्रा लगभग गतिहीनता के स्तर से वही आरंभ की थी, जो बचत में संवृद्धि और विविधतापूर्ण औद्योगिक आधार है तथा जो विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करता है। साथ ही, कृषि उत्पादन की निरंतर वृद्धि द्वारा खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो चुकी है।
वर्ष 1991 में भारत को विदेशी ऋणों के मामले में संकट का सामना करना पड़ा। सरकार अपने विदेशी ऋण के भुगतान करने की स्थिति में नहीं थी। पेट्रोलियम आदि आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा रिज़र्व पंद्रह दिनों के लिए आवश्यक आयात का भुगतान करने योग्य भी नहीं बचा था। इस संकट को आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि ने और भी गहन बना दिया था। इन सभी कारणों से सरकार ने कुछ नई नीतियों को अपनाया और इसने हमारी विकास रण-नीतियों की संपूर्ण दिशा को ही बदल दिया। इस अध्याय में हम उस आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि, सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों पर उन नीतियों के प्रभावों पर विचार करेंगे।
3.2 पृष्ठभूमि
इस वित्तीय संकट का वास्तविक उद्गम स्रोत 1980 के दशक में अर्थव्यवस्था में अकुशल प्रबंधन था। सामान्य प्रशासन चलाने और अपनी विभिन्न नीतियों के क्रियान्वयन के लिए सरकार करों और सार्वजनिक उद्यम आदि के माध्यम से फंड जुटाती है। जब व्यय आय से अधिक हो तो सरकार बैंकों, जनसामान्य तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से उधार लेने को बाध्य हो जाती है। इस प्रकार वह अपने घाटे का वित्तीय प्रबंध कर लेती है। कच्चे तेल आदि के आयात के लिए हमें डॉलरों में भुगतान करना होता है और ये डॉलर हम अपने उत्पादन के निर्यात द्वारा प्राप्त करते हैं।
इस अवधि में सरकार की विकास नीतियों की आवश्यकता रही क्योंकि राजस्व कम होने पर भी बेरोजगारी, गरीबी और जनसंख्या विस्फोट के कारण सरकार को अपने राजस्व से अधिक खर्च करना पड़ा। यही नहीं, सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर होने वाले व्यय के कारण अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति भी नहीं हुई। जब सरकार को प्रतिरक्षा और सामाजिक क्षेत्रों पर अपने संसाधनों का एक बड़ा अंश खर्च करना पड़ रहा था और यह स्पष्ट था कि उन क्षेत्रों से किसी शीघ्र प्रतिफल की संभावना नहीं थी। इसकी आवश्यकता थी कि सरकार अपने बचे हुए राजस्व का बहुत ही सोच-विचार कर प्रयोग करती। बढ़ते हुए खर्चों की पूर्ति के लिये सार्वजनिक उद्यमों से भी अधिक आय अर्जित नहीं हो पा रही थी। कई बार तो अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों तथा अन्य देशों से उधार ली गई विदेशी मुद्रा को उपभोग कार्यों पर ही खर्च कर दिया गया।
इस प्रकार के अनावश्यक खर्चों को नियंत्रित करने का न तो कोई प्रयास किया गया, न ही निरंतर बढ़ते आयात के लिए वित्त जुटाने की दृष्टि से निर्यात संवर्धन पर ही पर्याप्त ध्यान दिया गया।
1980 के दशक के अंत तक सरकार का व्यय उसके राजस्व से इतना अधिक हो गया कि ऋण के द्वारा व्यय धारण क्षमता से अधिक माना जाने लगा। अनेक आवश्यक वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ने लगीं। आयात की वृद्धि इतनी तीव्र रही कि निर्यात की संवृद्धि से कोई तालमेल नहीं हो पा रहा था। जैसा कि हमने पहले भी कहा है, विदेशी मुद्रा के सुरक्षित भंडार इतने क्षीण हो गए थे कि देश की दो सप्ताह की आयात आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते थे। अंतर्राष्ट्रीय उधारदाताओं की ब्याज चुकाने के लिए भारत सरकार के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं बची थी। इतना ही नहीं कोई देश या अतंर्राष्ट्रीय निवेशक भी भारत में निवेश नहीं करना चाहता था।
उस स्थिति में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निमाण और विकास बैंक (आई.बी.आर.डी.) जिसे सामान्यतः ‘विश्व बैंक’ के नाम से भी जाना जाता है और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरवाजा खटखटाया। उनसे देश को 7 बिलियन डॉलर का ऋण उस संकट का सामना करने के लिए मिला। किंतु, उस ऋण को पाने के लिए इन संस्थाओं ने भारत सरकार पर कुछ शर्ते लगाईं; जैसे, सरकार उदारीकरण करेगी, निजी क्षेत्र पर लगे प्रतिबंधों को हटाएगी तथा अनेक क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम करेगी। साथ ही यह भी अपेक्षा की गई कि भारत और अन्य देशों के बीच विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध भी हटाए जायेंगे।
भारत ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ये शर्तें मान लीं और नई आर्थिक नीति की घोषणा की। इस नई आर्थिक नीति में व्यापक आर्थिक सुधारों को सम्मिलित किया गया। इन समस्त नीतियों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था में अधिक स्पर्धापूर्ण व्यावसायिक वातावरण की रचना करना तथा फर्मों के व्यापार में प्रवेश करने और उनकी संवृद्धि में आनेवाली बाधाओं को दूर करना था। इन नीतियों को दो उपसमूहों में विभाजित किया जा सकता हैः स्थायित्वकारी उपाय तथा संरचनात्मक सुधार के उपाय। स्थायित्वकारी उपाय अल्पकालिक होते हैं, जिनका उद्देश्य भुगतान संतुलन में आ गई कुछ त्रुटियों को दूर करना और मुद्रास्फीति का नियंत्रण करना था। सरल शब्दों में, इसका अर्थ पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार बनाए रखने और बढ़ती हुई कीमतों पर अंकुश रखने की आवश्यकता थी। दूसरी ओर, संरचनात्मक सुधार वे दीर्घकालिक उपाय हैं, जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था की कुशलता को सुधारना तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों की अनम्यताओं को दूर कर भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा क्षमता को संवर्धित करना है। इस दृष्टि से सरकार ने अनेक नीतियाँ प्रारंभ कीं। इनके तीन उपवर्ग हैंः उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण।
3.3 उदारीकरण
हमने प्रारंभ में चर्चा की है कि आर्थिक गतिविधियों के नियमन के लिए बनाए गए नियम-कानून ही संवृद्धि और विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गए। उदारीकरण इन्हीं प्रतिबंधों को दूर कर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को ‘मुक्त’ करने की नीति थी। वैसे तो औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली, आयात-निर्यात नीति, तकनीकी उन्नयन, राजकोषीय और विदेशी निवेश नीतियों में उदारीकरण 1980 के दशक में भी आरंभ किए गए थे। किंतु, 1991 में आरंभ की गई सुधारवादी नीतियाँ कहीं अधिक व्यापक थीं। आइए, हम कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में किए गए सुधारों की समीक्षा करें। ये क्षेत्र हैं-औद्योगिक क्षेत्रक, वित्तीय क्षेत्रक, कर-सुधार, विदेशी विनिमय बाज़ार, व्यापार तथा निवेश क्षेत्रक, जिनपर 1991 में तथा 1991 के बाद से विशेष ध्यान दिया गया था।
औद्योगिक क्षेत्रक का विनियमीकरण : भारत में नियमन प्रणालियों को अनेक प्रकार से लागू किया गया था (क) सबसे पहले औद्योगिक लाइसेंस की व्यवस्था थी, जिसमें उद्यमी को एक फर्म स्थापित करने, बंद करने या उत्पादन की मात्रा का निर्धारण करने के लिए किसी न किसी सरकारी अधिकारी की अनुमति प्राप्त करनी होती थी; (ख) अनेक उद्योगों में तो निजी उद्यमियों का प्रवेश ही निषिद्ध था; (ग) कुछ वस्तुओं का उत्पादन केवल लघु उद्योग ही कर सकते थे और सभी निजी उद्यमियों को कुछ औद्योगिक उत्पादों की कीमतों के निर्धारण तथा वितरण के बारे में भी अनेक नियंत्रणों का पालन करना पड़ता था।
1991 के बाद से आरंभ हुई सुधार नीतियों ने इनमें से अनेक प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया। एल्कोहल, सिगरेट, जोखिम भरे रसायनों, औद्योगिक विस्फोटकों, इलेक्ट्रोनिकी, विमानन तथा औषधि-भेषज; इन छः उत्पाद श्रेणियों को छोड़ अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अब सार्वजनिक क्षेत्रक के लिए सुरक्षित उद्योगों में भी केवल प्रतिरक्षा उपकरण के कुछ अंश, परमाणु ऊर्जा उत्पादन और रेल परिवहन ही बचे हैं। लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित अनेक वस्तुएँ भी अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई हैं। अनेक उद्योगों में अब बाज़ार को कीमतों के निर्धारण की अनुमति मिल गई है।
वित्तीय क्षेत्रक सुधार : वित्त के क्षेत्रक में व्यावसायिक और निवेश बैंक, स्टॉक एक्सचेंज तथा विदेशी मुद्रा बाज़ार जैसी वित्तीय संस्थाएँ सम्मिलित हैं। भारत में वित्तीय क्षेत्रक का नियमन रिजर्व बैंक का दायित्व है। भारतीय रिजर्व बैंक के विभिन्न नियम और कसौटियों के माध्यम से ही बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थानों के कार्यों का नियमन होता है। रिजर्व बैंक ही तय करता है कि कोई बैंक अपने पास कितनी मुद्रा जमा रख सकता है। यही ब्याज की दरों को नियत करता है। विभिन्न क्षेत्रकों को उधार देने की प्रकृति इत्यादि को भी यही तय करता है। वित्तीय क्षेत्रक सुधार नीतियों का एक प्रमुख उद्देश्य यह भी है कि रिजर्व बैंक को इस क्षेत्रक के नियंत्रक की भूमिका से हटाकर उसे इस क्षेत्रक के एक सहायक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया है। इसका अर्थ है कि वित्तीय क्षेत्रक रिजर्व बैंक से सलाह किए बिना ही कई मामलों में अपने निर्णय लेने मेें स्वतंत्र हो जाएगा।
सुधार नीतियों ने ही वित्तीय क्षेत्रक में भारतीय और विदेशी निजी बैंकों को भी पदार्पण करने का अवसर दिया। बैंकों की पूँजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 74 प्रतिशत कर दी गई। कुछ निश्चित शर्तों को पूरा करनेवाले बैंक अब रिज़र्व बैंक की अनुमति के बिना ही नई शाखाएँ खोल सकते हैं तथा पुरानी शाखाओं के जाल को अधिक युक्तिसंगत बना सकते हैं। यद्यपि बैंकों को अब देश-विदेश से और अधिक संसाधन जुटाने की भी अनुमति है- पर खाता धारकों और देश के हितों की रक्षा के उद्देश्य से कुछ नियंत्रक शक्ति अभी भी रिजर्व बैंक के पास ही हैं। विदेशी निवेश संस्थाओं(एफ.आई.आई) तथा व्यापारी बैंक, म्युचुअल फंड और पेंशन कोष आदि को भी अब भारतीय वित्तीय बाज़ारों में निवेश की अनुमति मिल गई है।
कर व्यवस्था में सुधार : इन सुधारों का संबंध सरकार की कराधान और सार्वजनिक व्यय नीतियों से है, जिन्हें सामूहिक रूप से राजकोषीय नीतियाँ भी कहा जाता है। करों के दो प्रकार होते हैंः प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर। प्रत्यक्ष कर व्यक्तियों की आय और व्यावसायिक उद्यमों के लाभ पर लगाए जाते हैं। 1991 के बाद से व्यक्तिगत आय पर लगाए गए करों की दरों में निरंतर कमी की गई है। इसके पीछे मुख्य धारणा यह थी कि उच्च कर दरों के कारण ही कर-वंचन होता है। अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि करों की दरें अधिक ऊँची नहीं हों, तो बचतों को बढ़ावा मिलता है और लोग स्वेच्छा से अपनी आय का विवरण दे देते हैं। निगम कर की दर, जो पहले बहुत अधिक थी, धीरे-धीरे कम कर दी गई है। अप्रत्यक्ष करों में भी सुधार के प्रयास किए जा रहे हैं जैसे, वस्तुओं और सेवाओं पर लगाये गये कर-ताकि सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए एक साझे राष्ट्रीय स्तर के बाज़ार की रचना की जा सके। वर्ष 2016 में, अप्र्रत्यक्ष कर प्र्रणाली को एकीकृत एवं सरल बनाने के लिए भारतीय संसद द्वारा वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम-2016 (जी. एस. टी.-2016) कानून को पारित किया गया। यह कानून जुलाई 2017 से लागू हुआ। इसके द्वारा सरकार को अतिरिक्त आय प्राप्त होने की, कर-वंचन कम होने की तथा ‘एक राष्ट्र, एक टैक्स, एक बाजार’ का निर्माण होने की आशा है। करदाताओं के द्वारा नियम पालन को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक प्रक्रियाओं को सरल बनाया गया है, साथ ही, कर की दरों में भी पर्याप्त रूप से कमी की गई है।
विदेशी विनिमय सुधारः विदेशी क्षेत्रक में पहला सुधार विदेशी विनिमय बाज़ार में किया गया था। 1991 में भुगतान संतुलन की समस्या के तत्कालिक निदान के लिए अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में रुपये का अवमूल्यन किया गया। इससे देश में विदेशी मुद्रा के आगमन में वृद्धि हुई। इसके अंर्तगत विदेशी विनिमय बाज़ार में रुपये के मूल्य के निर्धारण को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की पहल की गई। अब तो प्रायः बाज़ार ही विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति के आधार पर विनिमय दरों को निर्धारित कर रहा है।
व्यापार और निवेश नीति सुधारः अर्थव्यवस्था में औद्योगिक उत्पादों और विदेशी निवेश तथा प्रौद्योगिकी की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापार और निवेश व्यवस्थाओं का उदारीकरण प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का एक उद्देश्य स्थानीय उद्योगों की कार्यकुशलता को सुधारना और उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना भी था।
इन्हें कीजिए
► राष्ट्रीयकृत बैंक, निजी बैंक, निजी विदेशी बैंक, विदेशी निवेश संस्थान और म्युचुअल फंड का एक-एक उदाहरण दें।
► अपने अभिभावकों के साथ पास के किसी बैंक में जाएँ। देखें और पता करें कि वे किन कार्याें को करते हैं। अपने सहपाठियों से इस विषय में चर्चा करें और इनका एक चार्ट तैयार करें ।
► अपने अभिभावकों से ज्ञात करें कि क्या वे कर चुकाते हैं? यदि हाँ, तो वे एेसा क्यों और कैसे करते हैं?
► क्या आप जानते हैं कि काफी समय तक दुनिया के सभी देश, विदेशी भुगतानों के लिए सोने और चाँदी के भंडार जमा रखते थे? ज्ञात करें कि आज हम अपने विदेशी विनिमय रिज़र्व को किस रूप में रखते हैं? आर्थिक सर्वेक्षण, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के माध्यम से यह भी जानने का प्रयास करें कि भारत के पास पिछले साल विदेशी विनिमय रिज़र्व कितने थे? निम्न देशों की मुद्राओं के नाम तथा नवीनतम रुपयों में उनकी विनिमय दरों की जानकारी भी प्राप्त करें।
देश | मुद्रा | भारतीय रुपयों में विदेशी मुद्रा की एक इकाई का मूल्य |
संयुक्त राज्य अमेरिका | ||
इंग्लैंड | ||
जापान | ||
चीन | ||
कोरिया | ||
सिंगापुर | ||
जर्मनी |
भारत आंतरिक उद्योगों के संरक्षण के लिए आयात के परिमाण को सीमित रखने की नीतियाँ अपना रहा था। इसके लिए आयात पर क\ड़े नियंत्रणों और उच्च प्रशुल्कों का प्रयोग होता था। ये नीतियाँ कुशलता और स्पर्धा क्षमता को कम करती थीं, जिससे देश में विनिर्माण उद्योगों की संवृद्धि दर कम हुई। व्यापार नीतियों के सुधारों के लक्ष्य थे : (क) आयात और निर्यात पर परिमाणात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति, (ख) प्रशुल्क दरों में कटौती और (ग) आयातों के लिए लाइसेंस प्रक्रिया की समाप्ति। हानिकारक और पर्यावरण संवेदी उद्योगों के उत्पादों को छोड़, अन्य सभी वस्तुओं पर से आयात लाइसेंस व्यवस्था समाप्त कर दी गई। अप्रैल, 2001 से कृषि पदार्थों और औद्योगिक उपभोक्ता पदार्थों के आयात भी मात्रात्मक प्रतिबंधों से मुक्त कर दिए गए। भारतीय वस्तुओं का अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में स्पर्धा शक्ति बढ़ाने के लिए उन्हें निर्यात शुल्क से मुक्त कर दिया गया है।
बॉक्स 3.1 ‘नवरत्न’ और सार्वजनिक उद्यम नीतियाँ
आपने बचपन में सम्राट विक्रमादित्य के राज-दरबार के नवरत्नों के विषय में पढ़ा होगा जो कला, साहित्य और विद्वता के क्षेत्रों के गणमान्य विशिष्ट्जन थे। नवउदारवादी वातावरण में सार्वजनिक उपक्रमों की कुशलता बढ़ाने, उनके प्रबंधन में व्यावसायीकरण लाने और उनकी स्पर्धा क्षमता में प्रभावी सुधार लाने के लिए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का चयन कर उन्हें ‘महारत्न, नवरत्न और लघुरत्न’ घोषित कर दिया। उन्हें कंपनी के कुशलतापूर्वक संचालन और लाभ में वृद्धि करने के लिए प्रबंधन और संचालन कार्यों में अधिक स्वायत्तता दी गई थी। लाभ कमा रहे उपक्रमों को भी अधिक परिचालन, वित्तीय और प्रबंधकीय स्वायत्तता प्रदान कर दी गई।
केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्रक उद्योगों को भिन्न पद प्रदान किये गए हैं। भिन्न पद वाले सार्वजनिक उद्योगों के उदाहरण इस प्रकार हैंः (i) महारत्न- (अ) इंडियन अॉयल कॉरपोरेशन लिमिटेड और (ब) स्टील अॉथोरिटी अॉफ इंडिया लिमिटेड (ii) नवरत्न (अ) हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमिटेड, (ब) महानगर टेलिफोन निगम लिमिटेड (iii) लघुरत्न- (अ) भारत संचार निगम लिमिटेड, (ब) एयरपोर्ट अॉथोरिटी अॉफ इण्डिया और (स) इंडियन रेलवे केटरिंग और टूरिज़्म कॉरपोरेशन लिमिटेड।
लाभ अर्जित कर रहे अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना पहली बार 1950 और 1960 के दशकों में उस समय की गई, जब सभी सार्वजनिक नीतियाँ आत्मनिर्भरता के विचार से प्रेरित थीं। उनकी स्थापना का ध्येय आधारभूत सुविधाओं का विस्तार और प्रत्यक्ष रोजगार का सृजन करना था, ताकि जनसामान्य तक उनका उच्च गुणवत्ता युक्त उत्पादन नाममात्र लागत पर पहुँचाया जा सके। इस प्रकार, इन कंपनियों को सभी पणधारियों के प्रति उत्तरदायी बनाया गया था।
इस नाम के अलंकरण के बाद से इन कंपनियों के निष्पादन में निश्चय ही सुधार आया है। विद्वानों का कहना है कि सार्वजनिक उपक्रमों के प्रसार को बढ़ावा देकर इन्हें विश्व-स्तरीय निकाय बनाने में सहायता देने के स्थान पर सरकार ने विनिवेश द्वारा आंशिक रूप से इनका निजीकरण कर दिया है। अभी कुछ समय पहले सरकार ने इन्हें सार्वजनिक स्वामित्व में ही रखने का निर्णय किया है और उन्हें वित्तीय बाज़ार से स्वयं संसाधन जुटाने और विश्व बाज़ारों में अपना विस्तार करने के योग्य बनाया है।
इन्हें कीजिए
► कुछ विद्वान विनिवेश को सार्वजनिक उद्यमों की कुशलता बढ़ाने के लिए निजीकरण की विश्वव्यापी लहर का नाम दे रहे हैं, तो कुछ का विचार यह है कि ये तो सार्वजनिक संपत्ति का निहित स्वार्थों को बिक्री मात्र हैं। आपका क्या विचार है?
► समाचार पत्रों से नवरत्नों से संबंधित एेसी 10-15 कतरने एकत्र करें जिन्हें आप महत्वपूर्ण मानते हैं तथा एक पोस्टर बनायें। इन सार्वजनिक उपक्रमों के विज्ञापन और शब्द चिह्न (Logos) एकत्र करें। उन्हें अपनी कक्षा के सूचना-पट पर लगाकर उनके विषय में चर्चा करें।
► क्या आपके विचार से केवल घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रम का निजीकरण होना चाहिए? क्यों?
► ‘सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के घाटे की भरपाई सरकारी बजट से होनी चाहिए।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? चर्चा करें।
3.4 निजीकरण
इसका तात्पर्य है, किसी सार्वजनिक उपक्रम के स्वामित्व या प्रबंधन का सरकार द्वारा त्याग। सरकारी कंपनियाँ निजी क्षेत्रक की कंपनियों में दो प्रकार से परिवर्तित हो रही हैंः (क) सरकार का सार्वजनिक कंपनी के स्वामित्व और प्रबंधन से बाहर होना तथा (ख) सार्वजनिक क्षेत्रक की कपंनियों को सीधे बेच दिया जाना।
किसी सार्वजनिक क्षेत्रक के उद्यमों द्वारा जनसामान्य को इक्विटी की बिक्री के माध्यम से निजीकरण को विनिवेश कहा जाता है। सरकार के अनुसार, इस प्रकार की बिक्री का मुख्य ध्येय वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना था। यह भी अपेक्षा की गई थी कि निजी पूँजी और प्रबंधन क्षमताओं का उपयोग इन सार्वजनिक उद्यमों के निष्पादन को सुधारने में प्रभावोत्पादक सिद्ध होगा। सरकार को यह भी आशा थी कि निजीकरण से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतर्वाह को भी बढ़ावा मिलेगा।
सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को प्रबंधकीय निर्णयों में स्वायत्तता प्रदान कर उनकी कार्यकुशलता को सुधारने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए, कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को ‘महारत्न’, ‘नवरत्न’ और ‘लघुरत्न’ का विशेष दर्जा दिया गया है (देखें बॉक्स 3.1)।
बॉक्स 3.2 विश्वस्तरीय पद-छाप
वैश्वीकरण के कारण, अब अनेक भारतीय कंपनियाँ भी विदेशों में अपने पैर फैलाने लगी हैं। उदाहरण के लिए, ओएनजीसी विदेश, भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र की एक सहायक तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम है जो तेल और गैस की खोज में लगी हुई है और 16 देशों में इसकी उत्पादन परियोजनाएं हैं। टाटा स्टील, 1907 में स्थापित एक निजी कंपनी है, जो 26 देशों में कार्यरत है और 50 देशों में अपने उत्पादों को बेचने के लिए दुनिया की शीर्ष दस वैश्विक स्टील कंपनियों में से एक है। यह अन्य देशों में लगभग 50,000 लोगों को रोजगार देती है। एचसीएल टैक्नोलॉजीज, भारत में शीर्ष पांच आईटी कंपनियों में से एक है जिसके 31 देशों में कार्यालय हैं और लगभग 15,000 व्यक्ति विदेश में कार्यरत हैं। डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज, शुरू में बड़ी भारतीय कंपनियों को दवा के सामान की आपूर्ति के लिए एक छोटी-सी कंपनी थी, आज इसके दुनिया भर में विनिर्माण संयंत्र और अनुसंधान केन्द्र हैं
3.5 वैश्वीकरण
यद्यपि वैश्वीकरण किसी अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण के रूप में जाना जाता है, जो एक जटिल परिघटना है। यह उन सभी नीतियों का परिणाम है, जिनका उद्देश्य है विश्व को परस्पर निर्भर और अधिक एकीकृत करना। इसके अंतर्गत आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक सीमाओं के अतिक्रमण की गतिविधियों और नेटवर्क का सृजन होता है। वैश्वीकरण एेसे संपर्क सूत्रों की रचना का प्रयास है, जिससे मीलों दूर हो रही घटनाओं के प्रभाव भारत के घटनाक्रम पर भी स्पष्ट दिखाई देने लगे। यह समग्र विश्व को एक बनाने या सीमामुक्त विश्व की रचना करने का प्रयास है।
बाह्य प्रापण : वैश्वीकरण की प्रक्रिया का यह एक विशिष्ट् परिणाम है। इसमें कंपनियाँ किसी बाहरी स्रोत (संस्था) से नियमित सेवाएँ प्राप्त करती हैं। अधिकांशतः अन्य देशों से, जिन्हें पहले देश के भीतर ही प्रदान किया जाता था जैसे कि कानूनी सलाह, कंप्यूटर सेवा, विज्ञापन, सुरक्षा आदि। संचार के माध्यमों में आई क्रांति, विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार ने अब इन सेवाओं को ही एक विशिष्ट आर्थिक गतिविधि का स्वरूप प्रदान कर दिया है। इसी कारण, विदेशों से इन सेवाओं को प्राप्त करने (बाह्य प्रापण) की प्रवृत्ति बहुत सशक्त हो गई है। अब तो ध्वनि आधारित व्यावसायिक प्रक्रिया प्रतिपादन, अभिलेखांकन, लेखांकन, बैंक सेवाएँ, संगीत की रिकॉर्डिंग, फिल्म संपादन, पुस्तक शब्दांकन, चिकित्सा संबंधी परामर्श और यहाँ तक कि शिक्षण कार्य भी बाह्य स्रोतों के सुपुर्द किया जाने लगा है। अनेक विकसित देशों की कंपनियाँ भारत की छोटी-छोटी संस्थाओं से ये सेवाएँ प्राप्त कर रही हैं। आधुनिक संचार साधनों के माध्यमों जैसे, इंटरनेट आदि से इन सेवाओं से जुड़ी रचनाओं, ध्वनियों और दृश्यों की जानकारी को तुरंत शून्य से नौ तक की संख्याओं में परिवर्तित कर देश ही नहीं बल्कि महाद्वीपों के बाहर तक प्रसारित कर दिया जाता है। अब तो अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ अनेक छोटी बड़ी कंपनियाँ भारत से ये सेवाएँ प्राप्त करने लगी हैं, क्योंकि भारत में इस तरह के कार्य बहुत कम लागत में और उचित रूप से निष्पादित हो जाते हैं। भारत की निम्न मजदूरी दरें तथा कुशल श्रम शक्ति की उपलब्धता ने सुधारोपरांत इसे विश्व स्तरीय ‘बाह्य प्रापण’ का एक गंतव्य बना दिया है।
विश्व व्यापार संगठनः व्यापार और सीमा शुल्क महासंधि (GATT) के परवर्ती विश्व व्यापार संगठन (WTO) का गठन 1995 में किया गया। उस महासंधि की रचना विश्व व्यापार प्रशासक के रूप में 23 देशों ने मिलकर 1948 में की थी। उसका ध्येय सभी देशों को विश्व व्यापार में समान अवसर सुलभ कराना था। विश्व व्यापार संगठन का ध्येय एेसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना है, जिसमें कोई देश मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़ी नहीं कर पाए। साथ ही, इसका ध्येय सेवाओं के सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन देना भी है, ताकि विश्व के संसाधनों का इष्टतम स्तर पर प्रयोग हो और पर्यावरण का भी संरक्षण हो सके। विश्व व्यापार संगठन की संधियों में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ाने हेतु इसमें वस्तुओं के साथ-साथ सेवाओं के विनिमय को भी स्थान दिया गया है। एेसा सभी सदस्य देशों के प्रशुल्क और अप्रशुल्क अवरोधकों को हटाकर तथा अपने बाज़ारों को सदस्य देशों के लिए खोलकर किया गया है।
इन्हें कीजिए
► अनेक विद्वानों का तर्क है कि वैश्वीकरण एक चेतावनी है- इससे अनेक क्षेत्रों में राष्ट्रीय सरकार का महत्व ही समाप्त हो जाता है। दूसरे, इसके विरोध में यह तर्क देते हैं कि वैश्वीकरण एक सुअवसर है क्योंकि यह बाज़ारों को आपस में प्रतिस्पर्धा का और किसी एक देश को अपना वर्चस्व बनाने का अवसर प्रदान करता है। इस विषय में अपनी कक्षा में वाद-विवाद करें।
► भारत में व्यापारिक सेवाएँ प्रदान करने वाली पाँच कंपनियों की सूची और उनके मुनाफे का चार्ट तैयार करें।
► एक दैनिक समाचार पत्र में छपे इस समाचार को पढ़ें, जो अब एक सामान्य बात हो गई है-
"एक दिन सुबह 7 बजे से कुछ मिनट पहले, ग्रीष्मा अपना हैंड सेट पहने अपने कंप्यूटर के सामने बैठी थी। उसने अंग्रेजी में विशिष्ट शैली में कहा, ‘हैलो डेनियला’। कुछ ही क्षणों में उसे उत्तर मिला ‘हैलो, ग्रीष्मा।’ कुछ देर दोनों में बड़ी गर्मजोशी से बातें होती रही और फिर ग्रीष्मा ने कहा, आज हम ‘सर्वनाम’ के विषय में बातचीत करेंगे। इसमें कोई विचित्र बात नहीं लगती। पर है अवश्य। 22 वर्षीया ग्रीष्मा कोची में अपने घर पर बैठी थी जबकि उसकी 13 वर्षीया छात्रा डेनियला केलिफोर्निया के मैलीबू में। अपने-अपने कंप्यूटरों पर कृत्रिम श्वेत पट्ट को प्रयोगकर (वे कंप्यूटर इंटरनेट के माध्यम से जुड़ी हैं) तथा डेनियला की पाठ्यपुस्तक अपने सामने रख ग्रीष्मा उस किशोरी को संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि की जटिलताएँ समझा रही थी। मलयालम भाषा को ही पढ़ते और बोलते हुए युवा हुई ग्रीष्मा डेनियला को अंग्रेजी व्याकरण और पठन तथा लेखन का प्रशिक्षण दे रही थी।"
यह सब कैसे संभव हो पाया है? डेनियला को यह शिक्षा देने वाले उसके अपने देश में क्यों नहीं मिल पाते?
• उसे अंग्रेजी भी उन भारतवासियों से क्यों सीखनी पड़ रही है, जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है?
• भारत उदारीकरण और विश्व बाज़ारों के एकीकरण होने से लाभांवित हो रहा है। क्या आप सहमत हैं?
► क्या ‘कॉल सेंटरों में रोजगार स्थायी रूप धारण कर सकता है? नियमित आय कमाने के लिए इन कॉल सेंटरों में काम करने वाले को किस प्रकार के कौशल सीखने होंगे?
► यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत जैसे देशों से इसी प्रकार सेवा प्राप्त करती हैं तो उन देशों के वासियों का क्या होगा, जहां यें कंपनियां स्थित हैं? चर्चा करें।
विश्व व्यापार संगठन के एक महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में भारत विकासशील विश्व के हितों का संरक्षण करते हुए न्यायपूर्ण विश्वस्तरीय व्यापार व्यवस्था के नियमों तथा सुरक्षात्मक व्यवस्थाओं की रचना में सक्रिय भागीदार रहा है। भारत ने व्यापार के उदारीकरण की अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखा है। इसके लिए इसने आयात पर से अनेक परिमाणात्मक प्रतिबंध हटाए हैं और प्रशुल्क दरों को भी बहुत कम किया है।
कुछ विद्वानों को आशंका है कि विश्व व्यापार संगठन में भारत की सदस्यता का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि विश्व व्यापार का अधिकांश भाग तो विकसित देशों के बीच ही होता है। उनका यह भी मानना है कि विकसित देश अपने देशों में जहाँ कृषि सहायिकी दिये जाने को लेकर शिकायत करते हैं, वहीं विकासशील देश अपने बाज़ारों को विकसित देशों के लिए खोले जाने को मजबूर करने को लेकर छला हुआ महसूस करते हैं। वे देश विकासशील देशों को अपने बाज़ारों में किसी न किसी बहाने प्रवेश करने से रोकने का प्रयास भी करते रहते हैं। क्या आपको एेसा लगता है कि विश्व व्यापार संगठन तो गरीब देशों को छलने की व्यवस्था मात्र है?
सारणी 3.1
सकल घरेलू उत्पाद और प्रमुख क्षेत्रकों की संवृद्धि दरें (प्रतिशत में)
क्षेत्रक | 1980-91 | 1992-01 | 2002-07 | 2007-12 | 2012-13 | 2013-14 | 2014-15 |
कृषि उद्योग सेवाएँ | 3.6 7.1 6.7 | 3.3 6.5 8.2 | 2.3 9.4 7.8 | 3.2 7.4 10.0 | 1.5 3.6 8.1 | 4.2 5.0 7.8 | -0.2* 7.0* 9.8* |
कुल योग | 5.6 | 6.4 | 7.8 | 8.2 | 5.6 | 6.6 | 7.4 |
3.6 सुधारकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था–एक समीक्षा
अब तो सुधार कार्यक्रम को आरंभ हुए तीन दशक हो चुके हैं। आइए, इस अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था के निष्पादन की समीक्षा करें। अर्थशास्त्री किसी अर्थव्यवस्था की संवृद्धि का मापन सकल घरेलू उत्पाद द्वारा करते हैं। सारणी 3.1 को देखें। 1991 के बाद से भारत में दो दशकों तक सकल घरेलू उत्पाद की लगातार वृद्धि होती रही। सकल घरेलू उत्पाद 1980-91 में 5.6 प्रतिशत से बढ़कर 2007-2012 में 8.2 प्रतिशत हो गई। आर्थिक सुधारों की अवधि में कृषि की वृद्धि में कमी आयी। जहाँ औद्योगिक क्षेत्रक में उतार-चढ़ाव हुए, वहीं सेवा क्षेत्रक में वृद्धि बढ़ गई। इससे यह पता चलता है कि वृद्धि मुख्यतः सेवा-क्षेत्रक में वृद्धि के कारण हुई है। 2012-15 की अवधि में विभिन्न क्षेत्रकों में 1991 के बाद से होने वाली वृद्धि दरों में रुकावट आयी। जहाँ 2013-14 में कृषि की वृद्धि दर में बढ़ोतरी आयी, वहीं बाद के वर्षों में इस क्षेत्रक की वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई। सेवा क्षेत्रक में ऊँची वृद्धि दर बनी रही, जो 2014-15 के समग्र सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से भी अधिक थी। इस क्षेत्रक में अबतक का उच्च वृद्धि दर 9.8 प्रतिशत रेकार्ड किया गया। औद्योगिक क्षेत्रक में 2012-13 में तेज गिरावट आई, तत्पश्चात् बाद के वर्षों में बढ़ने लगा।
इन्हें कीजिए
► पिछले अध्याय में आपने कृषि सहित अनेक क्षेत्रकों में आर्थिक सहायता दिये जाने के विषय में पढ़ा होगा। कुछ विद्वानों का कहना है कि कृषि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्पर्धाशील बनाने के लिए इस क्षेत्रक को मिल रही सहायिकी को बंद किया जाना चाहिए। क्या आप सहमत हैं? यदि हाँ, तो यह कार्य कैसे किया जाना चाहिए? कक्षा में चर्चा करें।
► इस अनुच्छेद को ध्यान से पढ़ें और कक्षा में इस पर चर्चा करेंः
मूँगफली आंध्र प्रदेश की एक प्रमुख तेलहन फसल है। आंध्र के अनंतपुर जिले का एक किसान महादेव अपनी आधा एकड़ भूमि पर मूँगफली की खेती पर 10,000 रुपये खर्च किया करता था। इस लागत में बीज, उर्वरक, श्रम, बैलशक्ति और सामान्य हल पर हुए सभी खर्च सम्मिलित होते थे। औसतन महादेव को दो कि्ंवटल उत्पादन प्राप्त हो जाता था, जिसे बेचकर वह 7,000 रुपये प्राप्त कर लेता था। अतः वह 10,000 का खर्च कर 14,000 की कमाई कर लेता था। अनंतपुर जिले में अक्सर अकाल पड़ते रहते थे। आर्थिक सुधारों के बाद तो सरकार ने वहाँ किसी बड़ी सिंचाई योजना पर काम करने का विचार भी नहीं किया। अभी कुछ समय पहले अनंतपुर में मूँगफली की फसल किसी बीमारी की चपेट में आ गई। सरकारी व्यय में कमी के कारण अब उस दिशा में शोध और प्रसार कार्य भी शिथिल हो चुके हैं। महादेव और उसके मित्रों ने कई बार सरकारी अधिकारियों का इस जवाबदेही की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। बीज, उर्वरक आदि पर सहायिका भी घटा दी गई। महादेव की उत्पादन लागतों में इस कारण भी वृद्धि हुई। यहीं नहीं, स्थानीय बाज़ार में आयात किए गए सस्ते खाद्य तेलों की तो जैसे बाढ़ सी आ गई है-यह आयात प्रतिबंध हटाने का परिणाम है। महादेव अब अपना उत्पादन बाज़ार में नहीं बेच पाता-बाज़ार की कीमतें उसकी उत्पादन की लागत को भी पूरा नहीं कर पातीं। महादेव जैसे किसान को घाटे को कम करने के लिए क्या करना चाहिए? कक्षा में चर्चा करें।
अर्थव्यवस्था के खुलने से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विदेशी विनिमय रिज़र्व में तेजी से वृद्धि हुई है। विदेशी निवेश (जिसमें प्रत्यक्ष और संस्थागत विदेशी निवेश दोनों ही सम्मिलित हैं) 1990-91 में 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ऊपर उठकर 2017-18 में 30 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुँच गया है। भारत के विनिमय रिज़र्व का आकार भी 1990-91 में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2018-19 में 413 बिलियन डॉलर हो गया है। 2011 में भारत विदेशी विनिमय रिज़र्व का सातवाँ सबसे बड़ा धारक माना जाता है।
अब भारत वाहन, कल-पुर्जों, इंजीनियरी उत्पादों, सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों और वस्त्रादि के एक सफल निर्यातक के रूप में विश्व बाज़ार में जम गया है। बढ़ती हुई कीमतों पर भी नियंत्रण रखा गया है।
दूसरी ओर, सुधार कार्यक्रमों द्वारा अपने देश की अनेक मूलभूत समस्याओं का समाधान खोज पाने में विफलता के कारण कड़ी आलोचना भी होती रही है। ये समस्याएँ विशेषकर रोजगार सृजन, कृषि, उद्योग, आधारभूत सुविधाओं के विकास तथा राजकोषीय प्रबंधन से जुड़ी हैं।
संवृद्धि और रोजगार : यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर में वृद्धि हुई है, फिर भी अनेक विद्वानों ने इस बात पर ध्यान दिलाया है कि सुधार प्रेरित संवृद्धि ने देश में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं किया है। आपको रोजगार और संवृद्धि के विभिन्न आयामों के अंतर्संबंध अगले अध्याय में विस्तार से समझाए जाएँगे।
कृषि में सुधार : सुधार कार्यों से कृषि को कोई लाभ नहीं हो पाया है और कृषि की संवृद्धि दर कम होती जा रही है।
सुधार अवधि में कृषि क्षेत्रक में सार्वजनिक व्यय विशेषकर आधारिक संरचना अर्थात् सिंचाई, बिजली, सड़क निर्माण, बाज़ार संपर्कों और शोध-प्रसार आदि पर व्यय में काफी कमी आई है (ध्यान रहे कि हरित क्रांति में इसकी महत्वूपूर्ण भूमिका रही थी)। साथ ही, उर्वरक सहायिकी की आंशिक समाप्ति ने भी उत्पादन लागतों को बढ़ा दिया है। इसका छोटे और सीमांत किसानों पर बहुत ही गंभीर प्रभाव पड़ा है। इसके साथ ही, कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क में कटौती, कम न्यूनतम समर्थन मूल्यों और इन पदार्थों के आयात पर परिमाणात्मक प्रतिबंध हटाए जाने के कारण इस क्षेत्रक की नीतियों में कई परिवर्तन हुए। इसके कारण भारत के किसानों को विदेशी स्पर्धा का भी सामना करना पड़ा है, जिसका उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
दूसरी तरफ, उत्पादन व्यवस्था निर्यातोन्मुखी हो रही है। आंतरिक उपभोग की खाद्यान्न फसलों के स्थान पर निर्यात के लिए नकदी फसलों पर बल दिया जा रहा है। इससे देश में खाद्यान्नों की कीमतों पर दबाव बढ़ रहा है।
उद्योगों में सुधार : औद्योगिक संवृद्धि की दर में भी कुछ शिथिलता आई है। यह औद्योगिक उत्पादों की गिरती हुई माँग के कारण है। माँग में गिरावट के कई कारण हैं जैसे, सस्ते आयात, आधारित संरचना में अपर्याप्त निवेश आदि। वैश्वीकरण की व्यवस्था में विकासशील देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित देशों की वस्तुओं और पूँजी प्रवाहों को प्राप्त करने के लिए खोल देने को बाध्य हुए हैं तथा उन्होंने अपने उद्योगों का आयतित वस्तुओं से प्रतिस्पर्धा का खतरा मोल ले लिया। सस्ते आयातों ने घरेलू वस्तुओं की माँग को प्रतिस्थापित कर दिया है। निवेश में कटौती के कारण, बिजली सहित, आधारिक संरचनाओं की पूर्ति अपर्याप्त ही बनी हुई है। इसी कारण, प्रायः यह समझा जा रहा है कि विदेशियों के माल में बेरोक-टोक आवागमन को सहज बनाकर गरीब देशों के स्थानीय उद्योगों और रोजगार की संभावनाओं के लिए वैश्वीकरण पूरी तरह से बर्बाद करने वाली परिस्थितियों की रचना कर रहा है।
यही नहीं, भारत जैसे गरीब देशों को अभी विकसित देशों में विद्यमान उच्च अप्रशुल्क अवरोधकों के कारण उनके बाज़ारों में प्रवेश के उपयुक्त अवसर भी नहीं मिल पा रहे हैं। यद्यपि भारत में वस्त्र-परिधान आदि के व्यापार से सभी कोटा आदि के प्रतिबंध हटा दिए हैं, पर अभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत और चीन से इनके आयातों से अपने कोटा प्रतिबंध नहीं हटाए हैं।
विनिवेश : प्रतिवर्ष सरकार सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश के कुछ लक्ष्य निर्धारित करती है। वर्ष 1991-92 में उसने विनिवेश द्वारा 2500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था। सरकार उस लक्ष्य से 3040 करोड़ अधिक जुटा पाने में सफल रही। वर्ष 2017-18 में लक्ष्य तो लगभग 1,00,000 करोड़ के विनिवेश का था, पर उपलब्धि लगभग 1,00,057 करोड़ की रही। इस प्रक्रिया के आलोचकों का कहना है कि सार्वजनिक उपक्रमों की परिसंपत्तियों को औने-पौने दामों में निजी व्यापारियों को बेचा जा रहा है। दूसरे शब्दों में, इस प्रक्रिया से सरकार को बहुत घाटा उठाना पड़ रहा है। साथ ही, विनिवेश से प्राप्त राशि का उपक्रमों के विकास के लिए प्रयोग नहीं किया गया, न ही इसे सामाजिक आधारिक संरचनाओं के निर्माण पर खर्च किया गया। यह राशि सरकार के बजट के राजस्व घाटे को कम करने में ही लग गई। क्या आप सोचते हैं कि सरकारी कंपनियों की कार्य कुशलता में सुधार लाने का सबसे अच्छा रास्ता उनकी परिसंपत्तियों के हिस्सों को बेचना है?
बॉक्स 3.3 ‘सिरीसिला त्रासदी’
विद्युत क्षेत्र में सुधार बहुत से भारतीय राज्य में नहीं हुये हैैं। उन्हें अनुदानित दरों पर बिजली की पूर्ति नहीं की जा रही है। बल्कि बिजली की दरों में बढ़ोतरी ही हुई है। इसका प्रभाव लघु उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों पर पड़ा है। इसका एक उदाहरण आंध्रप्रदेश का हथकरघा उद्योग है। इन उद्योगों में काम कर रहे बुनकरों की मजदूरी बुने गए कपड़े की मात्रा पर आधारित होती है। अतः बिजली में कटौती का अर्थ ऊँची दरों की मार झेल रहे बुनकरों की मजदूरी में भी कटौती है। इससे तो बुनकरों की अजीविका ही संकट में पड़ गई। कुछ वर्षों पहले आंध्र के एक छोटे से कस्बे सिरीसीला में विद्युत करघों पर काम करने वाले 50 बुनकरों को आत्महत्या करने को बाध्य होना पड़ा।
क्या बिजली की दरें नहीं बढ़ानी चाहिए?
सुधारों से प्रभावित लघु उद्योगों को पुनःचालू करने के लिए आप क्या सुझाव देंगे?
सुधार और राजकोषीय नीतियाँ : आर्थिक सुधारों ने सामाजिक क्षेत्रकों में सार्वजनिक व्यय की वृद्धि पर विशेष रूप से रोक लगा दी है। इस अवधि में कर घटाकर और कर वंचना नियंत्रित कर राजस्व संग्रह बढ़ाने की नीतियों के यथोचित सकारात्मक प्रभाव भी नहीं मिल पाए हैं। यही नहीं, सीमाशुल्क दरों में कटौती तो सुधार कार्यों का आवश्यक अंग है। अतः उन दरों को बढ़ाकर अधिक राजस्व जुटाने का मार्ग बंद हो चुका है। विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए निवेशकों को कई प्रकार के कर प्रोत्साहन दिए गए हैं, इससे भी कर राजस्व को बढ़ा पाने की संभावनाएँ क्षीण हो गई हैं। इन सबका विकास और जनकल्याण आदि पर होने वाले व्यय पर नकारात्मक प्रभाव प\ड़ रहा है।
3.7 निष्कर्ष
उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के माध्यम से वैश्वीकरण के भारत सहित अनेक देशों पर सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि वैश्वीकरण को एक सुअवसर की भाँति देखा जाना चाहिए क्योंकि विश्व बाज़ारों में बेहतर पहुँच तथा तकनीकी उन्नयन द्वारा विकासशील देशों के बड़े उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘महत्वपूर्ण’ बनने का अवसर प्रदान कर रहा है।
दूसरी ओर, आलोचकों का मत है कि वैश्वीकरण तो अमीर देशों द्वारा विकासशील देशों के आंतरिक बाज़ारों पर कब्जा करने की साजिश है। इनके अनुसार, वैश्वीकरण से गरीब देशवासियों का कल्याण ही नहीं वरन् उनकी पहचान भी खतरे में पड़ गई है। यह भी बताया जा रहा है कि बाज़ार प्रेरित वैश्वीकरण से विभिन्न देशों और जन समुदायों के बीच की खाई और विस्तृत हो रही है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में किए गए अनेक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि भारत के 1990 का वित्तीय संकट उसकी आंतरिक संरचना में कई भीषण विषमताओं का ही परिणाम था। उस संकट के निदान के लिए बाहरी शक्तियों के परामर्श पर सरकार द्वारा प्रारंभ नीतियों ने उन विषमताओं को और भी गहन बना दिया है। इन्होंने केवल उच्च आयवर्ग की आमदनी और उपभोग स्तर का उन्नयन किया है तथा सारी संवृद्धि कुछ इने-गिने क्षेत्रों तक सीमित रही है। ये क्षेत्र हैं-दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, वित्त, मनोरंजन, पर्यटन और परिचर्या सेवाएँ, भवन निर्माण और व्यापार आदि। कृषि, विनिर्माण जैसे आधारभूत क्षेत्रक (जो देश के करोड़ों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं) इन सुधारों से लाभान्वित नहीं हो पाए हैं।
पुनरावर्तन
► भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी विनिमय भंडार में कमी, निर्यात में कमी के साथ-साथ आयात में वृद्धि और उच्च मुद्रास्फीति की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। फलस्वरूप, उत्पन्न वित्तीय संकट के निदान के लिए विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता माँगने पर उनके दबाव के कारण भारत सरकार को 1991 में अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ा।
► आंतरिक दृष्टि से उद्योग और वित्तीय क्षेत्रकों में व्यापक और दूरगामी सुधार आरंभ किए गए। बाह्य दृष्टि से प्रमुख सुधार विदेशी विनिमय विनियंत्रण में कमी और आयात उदारीकरण रहे।
► सार्वजनिक क्षेत्रक की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए इसकी भूमिका को सीमित करने और इसमें निजी उद्यमियों को प्रवेश के अवसर प्रदान करने पर सहमति बनी। इस कार्य के लिए उदारीकरण और विनिवेश की नीतियाँ अपनाई गईं।
► वैश्वीकरण तो उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का प्रत्यक्ष प्रभाव ही है। इसका अर्थ आंतरिक अर्थव्यवस्था को शेष विश्व से और बेहतर जोड़ना है।
► बाह्य प्रापणः बाहरी देशों से व्यावसायिक सेवाओं की प्राप्ति एक उदीयमान व्यापारिक गतिविधि है।
► विश्व व्यापार संगठन का ध्येय एेसी नियम आधारित विश्व व्यवस्था की रचना करना है, जिसमें विश्व भर के संसाधनों का इष्टतम उपयोग संभव हो सके।
► सुधारकाल में कृषि और उद्योगों की संवृद्धि दर में कुछ गिरावट आई है और सेवाओं में उछाल आया है।
► सुधारों से कृषि को लाभ नहीं पहुँचा है। इस क्षेत्रक में सार्वजनिक निवेश में निश्चय ही कमी आई है।
► औद्योगिक क्षेत्रक में भी निवेश में कमी और सस्ते आयातों की बहुतायत के कारण शिथिलता ही आई है।
अभ्यास
1. भारत में आर्थिक सुधार क्यों आरंभ किए गए?
2. विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना क्यों आवश्यक है?
3. भारतीय रिज़र्व बैंक ने वित्तीय क्षेत्र में नियंत्रक की भूमिका से अपने को सुविधाप्रदाता की भूमिका अदा करने में क्यों परिवर्तित किया?
4. रिज़र्व बैंक व्यावसायिक बैंकों पर किस प्रकार नियंत्रण रखता है?
5. रुपयों के अवमूल्यन से आप क्या समझते हैं?
6. इनमें भेद करेंः
(क) युक्तियुक्त और अल्पांश विक्रय
(ख) द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार
(ग) प्रशुल्क एवं अप्रशुल्क अवरोधक
7. प्रशुल्क क्यों लगाए जाते हैं?
8. परिमाणात्मक प्रतिबंधों का क्या अर्थ होता है?
9. ‘लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण कर देना चाहिए’? क्या आप इस विचार से सहमत हैं? क्यों?
10. क्या आपके विचार में बाह्य प्रापण भारत के लिए अच्छा है? विकसित देशों में इसका विरोध क्यों हो रहा है?
11. भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ विशेष अनुकूल परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण यह विश्व का बाह्य प्रापण केंद्र बन रहा है। अनुकूल परिस्थितियाँ क्या हैं?
12. क्या भारत सरकार की नवरत्न नीति सार्वजनिक उपक्रमों के निष्पादन को सुधारने में सहायक रही है? कैसे?
13. सेवा क्षेत्रक के तीव्र विकास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारक कौन-से रहे हैं?
14. सुधार प्रक्रिया से कृषि क्षेत्रक दुष्प्रभावित हुआ लगता है? क्यों?
15. सुधार काल में औद्योगिक क्षेत्रक के निराशाजनक निष्पादन के क्या कारण रहे हैं?
16. सामाजिक न्याय और जन-कल्याण के परिप्रेक्ष्य में भारत के आर्थिक सुधारों पर चर्चा करें।
अतिरिक्त गतिविधियाँ
1. इस सारणी में 2004-2005 के कीमत स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर के आँकड़े दिए गए हैं। आपने अर्थशास्त्र के लिए सांख्यिकी विश्लेषण में आँकड़ों की प्रस्तुति की तकनीकों का अध्ययन किया है। इस सारणी के आँकड़ों का प्रयोग कर एक रेखीय आरेख अंकित कर उसका निर्वचन करें।
वर्ष | स.घ.उ. संवृद्धि दर(%) |
2005-06 | 9.5 |
2006-07 | 9.6 |
2007-08 | 9.3 |
2008-09 | 6.7 |
2009-10 | 8.9 |
2010-11 | 8.9 |
2011-12 | 6.7 |
2012-13 | 5.4 |
2013-14 | 6.4 |
2014-15 | 7.4 |
2. अपने आस-पास ध्यान दें : आप के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बिजली की पूर्ति राज्य विद्युत मंडल और अनेक निजी कंपनियाँ कर रही होंगी। सरकारी बस सेवा के साथ-साथ निजी बसें भी सड़कों पर दौड़ती दिखाई देती हैं।
(क) सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रकों के सह-अस्तित्वपूर्ण दोहरी व्यवस्था के बारे में आपका क्या विचार है?
(ख) इस प्रकार के दोहरी पद्धति के गुण-दोषों का विवेचन करें?
3. अपने अभिभावकों और दादा-नाना के समवयस्कों की सहायता से उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सूची बनाएँ, जो स्वतंत्रता के समय भारत में काम कर रही थीं। उनमें से जो अभी भी यहाँ पर हैं उनके सामने () तथा जो अब नहीं है उनके सामने (X) का चिह्न अंकित करें। क्या एेसी कंपनियाँ भी हैं, जिन्होंने अपने नाम बदल लिए हों? नए नाम, उद्गम के देश, उत्पाद की प्रकृति और उनके शब्द चिह्नों की जानकारी एकत्र कर चार्ट तैयार करें और कक्षा में प्रदर्शित करें।
4. इनके उपयुक्त उदाहरण दें।
उत्पाद की प्रकृति | किसी विदेशी कंपनी का नाम |
बिस्कुट | |
जूूते | |
कंप्यूटर | |
कारें | |
टेलिविजन और रेफ्रिजरेटर | |
लेखन सामग्री |
यह भी पता करें कि क्या ये कंपनियाँ 1991 से पहले भी भारत में काम कर रही थीं या नई आर्थिक नीति के बाद ही इनका आगमन हुआ है। इसके लिए अपने शिक्षकों, अभिभावकों, दादा-दादी और दुकानदारों की सहायता ले सकते हैं।
5. विश्व व्यापार संगठन की बैठकों से संबंधित कुछ समाचारों की कतरनें एकत्र करें। इन बैठकों में चर्चित मुद्दों पर विचार-विमर्श करें और पता करें कि विश्व व्यापार संगठन (WTO) किस प्रकार व्यापार को बढ़ावा देती है।
6. क्या भारत के लिए विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आग्रह पर आर्थिक सुधार आरंभ करना आवश्यक था? क्या सरकार के पास भुगतान संतुलन की समस्या को सुलझाने के लिए कोई और विकल्प नहीं था? कक्षा में चर्चा करें।
संदर्भ पुस्तकें
आचार्य शंकर 2003. इंडियाज इकॉनोमीः सम इश्यूज एंड आनसर्ज, एकेडेमिक फाउंडेशन, नयी दिल्ली।
आल्टरनेटिव सर्वे ग्रुप 2005. आल्टरनेटिव इक्नॉमिक सर्वे, इंडिया 2004-05, डिसइक्विलाइजिंग ग्रोथ, दानिश बुक्स दिल्ली।
अहलूवालिया, आई.जे.एंड आठ.एम.डी. लिटिल, 1998. इंडियान इकॉनॉमिक रिफोर्मस एंड डेवलमंट, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली।
बर्धन प्रनव 1998. द पांलिटिकल इकॉनामी अॉफ डेवलपमेंट इन इंडिया, एक्सपेंडेड एडीसन विथ एन एेपीलॉग ओन द पॉलिटिकल इकोनोमी अॉफ रिफार्म इन इंडिया, अॉक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
भादुरी अमित और दीपक नायर 1996. द इंटेलिजेंट परसंस गाईड टू लिब्रलाजेशन, पेंग्युइन, दिल्ली।
भगवती, जगदीश, 1992. इंडिया इन ट्रांजीशनः प्रुीइंग द इकॉनॉमी अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
बायरस टिरेन्स जे 1997. द स्टेट, डेवेलमेंट प्लानिंग एंड लिब्रलाइजेशन इन इंडिया, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
चढा जी.के. 1994. पॉलिसी परसपेक्टिव इन इंडियन इकोनोमिक डेवेलेपमेंट, हर आनंद दिल्ली।
चेलय्याह राजा जे. 1996. टूवार्डस ससटेनेबल ग्रोथ, एसयेज इन फिसकल सेंटर रिफार्मस इन इंडिया, अॉक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
देवराय विवेक और राहुल मुखर्जी (संपादित) 2004. द पॉलिटिकल इकॉनोमी अॉफ रिफोर्म्स, बुकवेल पब्लिकेशन, नई दिल्ली।
ड्रेजी जीन और अमर्त्य सेन 1996. इंडिया इकोनोमिक डेवेलेपमेंट एंड सोशल अॉपरच्यूनिटी, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
दत्त रूद्र और के.पी.एस सुन्दरम 2005. इंडियन इकोनामी, एस.चंद एंड कंपनी, नई दिल्ली।
गुहा अशोक (एेडीटेड) 1990. इकोनोमिक लिबरलाइेजेशन, इंडस्ट्रियल स्ट्रक्चर एंड ग्रोथ इन इंडिया, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
जालान विमल 1993. इंडियाज इकोनोमिक क्राइसिसः द वे अहेड, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
जालान विमल 1996. इंडियाज इकोनोमिक पोलिसीः प्रिपेरिंग फोरद ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी, बाइकिंग, दिल्ली।
जोशी विजय एंड आई.एम.डी. लिट्टिल 1996. इंडियाज इकोनोमिक रिफार्मस 1991-2001, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
कपिला उमा 2005. अंडरस्टैंडिग प्रौबल्मस अॉफ इंडियन इकोनोमी, एकेडेमिक फाउंडेशन, नई दिल्ली।
महाजन वी.एस. 1994. इंडियन इकॉनामी टुवड्ρस 2000, ए डी दीप एंड दीप, दिल्ली।
पारिख, किरिट एंड राधाकृष्णा, 2002, इंडिया डेवलपमेंट रिपोर्ट 2001-02 अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली।
राव सी.एच. हनुमंथा. एंड हंस लिन्नेमन 1996. इकनॉमिक रिफोर्म्स एंड पावर्टी एलिविएशन इन इंडिया, सेज, दिल्ली।
सेचस जैफ्रे डी. आशुतोष वार्ष्णेय और निरूपम वाजपेयी (एेडीटेड) 1999. अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली।
सरकारी रिपोर्टें और वेबसाइट्स
आर्थिक सर्वेक्षण (विभिन्न वर्षों के), वित्त मंत्रालय, भारत सरकार, अॉक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रैस नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित।
एप्रेसल डाक्यूमेंट अॉफ ट्वेल्फ्थ फाइव इयर प्लान, (2012-17), नीति आयोग, भारत सरकार https://dipan.gov.in
दसवीं पंचवर्षीय योजना 1997-2002, खंड एक (वॉल्यूम I), योजना आयोग, भारत सरकार।
हेडबुक अॉफ स्टेटिस्किल अॉन इंडियन इकानामी, रिजर्व बैंक अॉफ इंडिया, फॉर वेरियस ईयर्स, मुंबई।