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ग्रामीण विकास
इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप
• ग्रामीण विकास और उससे जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों को समझ सकेंगे;
• ग्रामीण क्षेत्रों का विकास भारत के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से क्यों महत्वपूर्ण है, यह जानेंगे;
• ग्रामीण विकास में साख और विपणन की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझेंगे;
• आजीविका के स्थायित्व के लिए उत्पादक गतिविधियों में विविधता के महत्व को समझेंगे;
• धारणीय विकास में जैविक कृषि के महत्व को समझेंगे।
मिट्टी की जुताई करने वाले ही अधिकार के साथ जीते हैं, शृंखला के शेष लोग उनके आश्रय की रोटी खाते हैं।
-थिरुवलूवर
6.1 परिचय
अध्याय 4 में हमने पढ़ा कि किस प्रकार निर्धनता भारत के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती है। हमने यह भी जाना कि हमारे अधिकतर निर्धन देशवासी ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और वहाँ उन्हें जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ भी सुलभ नहीं हो पाती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रकों में कृषि ही आजीविका का मुख्य साधन है। कभी महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था कि भारत की वास्तविक प्रगति का तात्पर्य शहरी औद्योगिक केंद्रों के विकास से नहीं, बल्कि मुख्य रूप से गाँवों के विकास से है। ग्रामीण विकास ही राष्ट्रीय विकास का केंद्र है। यह विचार आज भी उतना ही प्रासंगिक है। एेसा क्यों है? हम अपने चारों ओर बड़े उद्योगों तथा सूचना-प्रौद्योगिकी केंद्रों से लैस शहरों को प्रगति करते हुए देखते हैं, फिर भी ग्रामीण विकास को ही इतना अधिक महत्व क्यों दिया जाता है? इसका उत्तर है कि आज भी भारत की दो-तिहाई जनसंख्या कृषि पर आश्रित है, जिसकी उत्पादकता अभी भी इतनी ही है कि उससे सबका निर्वाह भी नहीं हो पाता। इसी कारण से देश की एक-चौथाई जनता अभी भी घोर निर्धनता में रहती है। यदि हम भारत की वास्तविक उन्नति चाहते हैं, तो हमें विकसित ग्रामीण भारत का निर्माण करना होगा। ग्रामीण विकास से क्या तात्पर्य है?
6.2 ग्रामीण विकास क्या है?
‘ग्रामीण विकास’ एक व्यापक शब्द है। यह मूलतः ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उन घटकों के विकास पर ध्यान केंद्रित करने पर बल देता है जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सर्वांगीण विकास में पिछड़ गए हैं। भारत के विकास के लिए जिन क्षेत्रों में नई और सार्थक पहल करने की आवश्यकता बनी हुई है, वे इस प्रकार हैं;
मानव संसाधनों का विकास जिसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैंः
• साक्षरता, विशेषकर नारी साक्षरता, शिक्षा और कौशल का विकास।
• स्वास्थ्य, जिसमें स्वच्छता और जन-स्वास्थ्य दोनों शमिल हैं।
• भूमि-सुधार।
• प्रत्येक क्षेत्र के उत्पादक संसाधनों का विकास।
इन्हें कीजिए
► अपने क्षेत्र के समाचार पत्रों का अध्ययन कर मासिक आधार पर उनमें उठाई गई ग्रामीण समस्याओं से जुड़े प्रश्नों तथा सुझाए गए उपायों की जानकारी संग्रह करें। आप निकट के किसी गाँव में जाकर उस क्षेत्र के जन समुदाय की समस्याओं की पहचान करें। कक्षा में इसकी चर्चा करें।
► सरकार की वेबसाइट Https: www.rural.nic,in से हाल ही में प्रारंभ की गई योजनाओं तथा उनके उद्देश्यों की सूची तैयार करें।
• आधारिक संरचना का विकास जैसे- बिजली, सिंचाई, साख(ऋण), विपणन, परिवहन सुविधाएँ-ग्रामीण सड़कों के निर्माण सहित राजमार्ग की पोषक सड़कें बनाना, कृषि अनुसंधान विस्तार और सूचना प्रसार की सुविधाएँ।
• निर्धनता निवारण और समाज के कमजोर वर्गों की जीवन दशाओं में महत्वपूर्ण सुधार के विशेष उपाय, जिसमें उत्पादक रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
इसका अर्थ होगा कि ग्रामीण क्षेत्र के लोग जो कृषि एवं गैर कृषि गतिविधियों में संलगन हैं, उन्हें उत्पादकता बढ़ाने में विशेष सहायता देनी होगी। गैर-कृषि उत्पादक क्रियाकलापों जैसे, खाद्य-प्रसंस्करण, स्वास्थ्य सुविधाओं की अधिक उपलब्धता, घर और कार्यस्थल पर स्वच्छता संबंधी सुविधाएँ तथा सभी के लिए शिक्षा को सर्वाेच्च वरीयता ताकि तीव्र ग्रामीण विकास हो सके।
हमने पिछले अध्याय में यह भी देखा है कि यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान कम हो रहा है, किंतु कृषि पर आश्रित जनसंख्या अनुपात में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ। यही नहीं, नए सुधार कार्यक्रम के क्रियान्वयन के बाद तो 1991-2012 में कृषि की संवृद्धि दर घट कर 3 प्रतिशत ही रह गई, हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में अस्थिरता आई है, 2014-16 के दौरान कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन की सकल मूल्य की वृद्धि दर एक प्रतिशत से भी कम थी। जो पिछले वर्षों से भी कम है। अनेक अर्थशास्त्री 1991 के बाद से सार्वजनिक निवेश में आई गिरावट को इसका कारण मानते हैं। उनका यह भी विचार है कि अपर्याप्त आधारिक संरचना, उद्योग तथा सेवा क्षेत्रक में वैकल्पिक रोजगार के अवसरों के अभाव और अनियत रोजगार में वृद्धि आदि के कारण भी ग्रामीण विकास में बाधाएँ आ रही हैं। इन सभी परिघटनाओं के प्रभाव की झलक देश के किसानों में बढ़ती हुई दुर्दशा और असहायता के रूप में देखा जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में हम ग्रामीण भारत के साख और विपणन व्यवस्था, कृषि गतिविधियों के स्वरूप में विविधता तथा धारणीय विकास को ब\ढ़ावा देने में जैविक कृषि की भूमिका आदि महत्वपूर्ण आयामों पर आलोचनात्मक चर्चा करेंगे।
6.3 ग्रामीण क्षेत्रकों में साख और विपणन
साखः कृषि अर्थव्यवस्था की संवृद्धि समय-समय पर कृषि और गैर-कृषि कार्यों में उच्च उत्पादकता प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से पूँजी के प्रयोग पर निर्भर करती है। खेतों में बीजारोपण से फसल पकने के बाद आमदनी होने तक की अवधि बहुत लंबी होती है। इसी कारण किसानों को बीज, उर्वरक, औजार आदि के लिए ऋण लेने पड़ते हैं। यही नहीं, उन्हें अपने पारिवारिक निर्वाह खर्च और शादी, मृत्यु तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कर्ज़ का ही आसरा रहता है।
केरल प्रांत में महिलाओं की ओर उन्मुख एक निर्धनता निवारक सामुदायिक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसका नाम ‘कुटुंब श्री’ है। 1995 में सरकारी बचत एवं साख सोसायटी के रूप में गरीब महिलाओं के लिए इस बचत बैंक की स्थापना की गई थी। इस बचत एवं साख सोसायटी ने छोटी-छोटी बचतों को मिलाकर एक करो\ड़ रुपये की विशाल राशि एकत्र कर ली। इसे अब सदस्य संख्या और संगठित बचत के आधार पर एशिया का विशालतम अनौपचारिक बैंक माना जाता है।
स्वतंत्रता के समय तक महाजन और व्यापारी छोटे/सीमांत किसानों और भूमिहीन मजदूरों से बहुत ऊँची दर से ब्याज वसूलने और ऋण-खाते में हेराफेरी का एेसा कुचक्र चला रहे थे, कि वे कभी भी ऋणपाश से मुक्त नहीं हो पाते थे। भारत ने 1969 में सामाजिक बैंकिग आरंभ कर इस व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव लाने का प्रयास किया। ग्रामीण साख आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहु-संस्था व्यवस्था का सहारा लिया गया। आगे चलकर 1982 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की गई। यह बैंक संपूर्ण ग्रामीण वित्त व्यवस्था के समन्वय के लिए एक शीर्ष संस्थान है। हरित क्रांति ने भी ग्रामीण साख व्यवस्था में बहुत ब\ड़े परिवर्तन का सूत्रपात किया है, क्योंकि इसने ग्रामीण विकास के विभिन्न घटकों को उत्पादक ऋणों की ओर उन्मुख कर विविधता प्रदान की।
इन्हें कीजिए
► आप अपने आस-पास के क्षेत्र में पाएँगे कि कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ ऋणों का प्रावधान कर रही हैं। इनकी कुछ बैठकों में जाएँ। इस संस्था के कार्यकलापों पर एक विवरण तैयार करें। इस विवरण में आप उल्लेख करें कि संस्था कब आरम्भ हुई थी, इसमें कितने सदस्य हैं, कितनी बचत राशि है, किस तरह के ऋण प्रदान किए जाते हैं और इस ऋण का उपयोग कैसे होता है।
► आप यह भी पाएँगे कि स्वरोजगार के लिए प्रदत्त ऋणों का उपयोग कुछ लोग अन्य कार्याें में कर रहे हैं। एेसे कुछ कर्जदारों से मिलें और उनके द्वारा स्वरोजगार संबंधी क्रियाकलाप आरंभ न करने के कारणों की पहचान कर कक्षा में चर्चा करें।
आज ग्रामीण बैंक की संस्थागत संरचना में अनेक बहु-एजेन्सी संस्थान जैसे, व्यावसायिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, (आर.आर.बी.)सहकारी तथा भूमि विकास बैंक सम्मिलित हैं। ये सस्ती ब्याज दरों पर पर्याप्त ऋण की पूर्ति करना चाहती हैं। हाल ही में औपचारिक साख व्यवस्था में रह गई कमियों को दूर करते हुए स्वयं सहायता समूहों (एस.एच.जी.) का भी ग्रामीण साख व्यवस्था में प्रादुर्भाव हुआ है, क्योंकि औपचारिक साख व्यवस्था न केवल अपर्याप्त थी, बल्कि ग्रामीण सामाजिक तथा सामुदायिक विकास में पूरी तरह समन्वित साबित हुई है। चूँकि इसके लिए ऋणाधार की आवश्यकता थी, अतः बहुसंख्य ग्रामीण परिवारों का एक बड़ा अनुपात इससे अपने आप वंचित रह गए। अपने प्रत्येक सदस्य में न्यूनतम अंशदान द्वारा सदस्यों में कम अनुपात में मितव्ययिता की भावना बढ़ाता है।
इस प्रकार एकत्र राशि में से जरूरतमंद सदस्यों को ऋण दिया जाता है। उस ऋण की राशि छोटी-छोटी (आसान) किश्तों में लौटाई जाती है। ब्याज की दर भी उचित रखी जाती है। मई, 2019 तक 54 लाख महिला स्वयं सहायता समूह (SHG) में लगभग 6 करोड़ महिला सदस्य हैं। लगभग 10,000-15,000 रुपये प्रति SHG और इसके अतिरिक्त 2.5 लाख प्रति SHG को परिक्रमी निधि के रूप में सामुदायिक निवेश सहायता कोष (CISF) का सृजन किया जाता है। जिसके फलस्वरूप आय सृजन हेतु महिला सदस्य स्वरोजगार को अपना सकती है। इस प्रकार कीे साख उपलब्धता को अतिलघु साख कार्यक्रम भी कहा जाता है। इस प्रकार से स्वयं सहायता समूहों ने महिलाओं के सशक्तीकरण में सहायता की है। इन ऋण-सुविधाओं का प्रयोग किसी न किसी प्रकार के उपभोग के लिए ही हो रहा है- कर्जदार उत्पादन उद्देश्य के लिए व्यय क्यों नहीं करते हैं?
इन्हें कीजिए
► यदि आप ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, तो संभवतः आपके पास-पड़ोस में भी एेसी कोई त्रासदी हुई हो -या आप दूरदर्शन या समाचार-पत्रों के माध्यम से किसानों द्वारा पिछले कुछ वर्षों में आत्महत्या किए जाने की घटनाओं से परिचित अवश्य होंगे। इनमें से अधिकांश किसानों ने कृषि और अन्य प्रयोजन के लिए ऋण ले रखे थे। फसल खराब होने, आय अपर्याप्त रहने तथा वैकल्पिक रोजगार का सहारा नहीं होने पर जब वे ऋण चुका पाने में असमर्थ हो गए, तो उन्होंने जीवन को ही समाप्त कर उस ऋण से छुटकारा पाने का प्रयास किया। एेसे मामलों के बारे में जानकारी एकत्र कर कक्षा में चर्चा करें।
► ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कर रहे बैंकों में जाएँ। ये प्राथमिक कृषि सहकारी बैंक, भूमि विकास बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक या जिला सहकारी बैंक हो सकते हैं। इनसे जानकारी एकत्र करें कि कितने ग्रामीण परिवारों ने इनसे ऋण लिया हुआ है। सामान्यतः कितनी राशि उधार ली जाती है, किस प्रकार के लोग ऋण लेते हैं, ब्याज दर कितनी रहती है और अभी तक कुल कितनी राशि बकाया है।
► जिन किसानों ने सहकारी बैंकों से ऋण लिए हैं, यदि वे फसल बर्बाद होने या अन्य कारणों से उन्हें लौटा नहीं पा रहे हाें तो उनका ऋण माफ कर देना चाहिए, नहीं तो किसान आत्महत्या जैसा कठोर निर्णय ले सकते हैं। क्या आप इससे सहमत हैं? चर्चा करें।
ग्रामीण बैंकिंगः एक आलोचनात्मक मूल्यांकनः बैंकिंग व्यवस्था के त्वरित प्रसार का ग्रामीण कृषि और गैर कृषि उत्पादन, आय और रोजगार पर सकारात्मक प्रभाव रहा है, विशेष रूप से हरित क्रांति के बाद से किसानों को साख सेवाएँ और सुविधाएँ देने तथा उनकी उत्पादन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के ऋण देने में इन्होंने सहायता दी है। अब तो अकाल बीते युग की बात हो गई है; हम खाद्य सुरक्षा की उस मंजिल पर पहुँच चुके हैं कि हमारे अपने सुरक्षित भंडार भी बहुत पर्याप्त माने जा रहे हैं। किंतु, अभी भी हमारी बैंकिंग व्यवस्था उचित नहीं बन पाई है।
संभवतः व्यावसायिक बैंकाें को छोड़कर अन्य सभी औपचारिक साख संस्थाएँ जमा प्रवाह की संस्कृति को विकसित नहीं कर पायी हैं। न ये सही ऋण चाहने वालों को ऋण दे पाती हैं और न ही इनकी कोई प्रभावपूर्ण ऋण वसूली व्यवस्था बन पाई है। कृषि ऋणों की वसूली नहीं हो पाने की समस्या बहुत गंभीर है।
कृषि ऋण का भुगतान न कर पाने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। किसान ऋण का भुगतान करने में क्यों असफल रहे हैं? स्पष्ट है कि किसान बड़े पैमाने पर ऋण अदा करने से इन्कार कर रहे हैं। इसका क्या कारण हो सकता है?
इसलिए, सुधारों के बाद से बैंकिंग क्षेत्रक के प्रसार एवं उन्नति में कमी हुई है। स्थिति में सुधार लाने के लिए यह बैंकों को अपनी कार्य-प्रणाली में बदलाव लाने की \ज़रूरत है, ताकि वे केवल ऋणदाता और ऋण लेने वालों के बीच में एक सेतु का काम करें। उन्हें किसानों को मितव्ययिता के बारे में बताना चाहिए, जिससे कि वे अपने वित्तीय स्रोतों का कुशलतम प्रयोग कर सकें।
6.4 कृषि विपणन व्यवस्था
कभी आपने सोचा है, कि हम जो अनाज, फल सब्जियाँ आदि रोज खाते हैं वे देश के अलग-अलग क्षेत्रों से किस प्रकार नियमित रूप से हम तक पहुँचाये जाते हैं? इन्हें हम तक पहुँचाने का माध्यम बाज़ार व्यवस्था है। कृषि विपणन वह प्रक्रिया है जिससे देश भर में उत्पादित कृषि पदार्थों का संग्रह, भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, पैकिंग, वर्गीकरण और वितरण आदि किया जाता है।
स्वतंत्रतापूर्व व्यापारियों को अपना उत्पादन बेचते समय किसानों को तोल में हेरा फेरी तथा खातों में गड़बड़ी का सामना करना पड़ता था। प्रायः किसानों को बाज़ार में प्रचलित भावों का पता नहीं होता था और उन्हें अपना माल बहुत कम कीमत पर बेचना पड़ता था। उनके पास अपना माल रखने के लिए अच्छी भंडारण सुविधाएँ नहीं होती थीं, अतः वे अच्छे दाम मिलने तक माल की बिक्री को स्थगित नहीं रख पाते थे। क्या आप जानते हैं कि आज भी 10 प्रतिशत से अधिक कृषि उत्पादन भंडारण सुविधाओं के अभाव के कारण क्षतिग्रस्त हो रहा है? इसीलिए सरकार को निजी व्यापारियों को नियंत्रित करने के लिए बाज़ार में हस्तक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा है।
इन्हें कीजिए
► अपने आस-पास की फल-सब्जी मंडी में जाएँ। उस मंडी की विशेषताओं को ध्यान से देखें और पहचानें। कम से कम दस अलग-अलग फलों व सब्जियों के मूल उत्पादन क्षेत्र तथा वहाँ से मंडी तक की दूरी की जानकारी प्राप्त करें। यह भी जानने का प्रयास करें कि वे चीजें किस प्रकार के परिवहन साधनों द्वारा आप तक पहुँचती हैं और इन परिवहन की लागतों का उनकी कीमतों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
► प्रायः सभी छोटे कस्बों में नियमित मंडी परिसर होते हैं। किसान वहाँ जाकर अपनी उपज बेच सकते हैं। वे कुछ समय तक उस परिसर में अपनी उपज रख भी सकते हैं। किसी एेसी एक मंडी में जाएँ और उसकी कार्यप्रणाली का अध्ययन कर यह जानने का प्रयास करें कि वहाँ किस प्रकार की चीजें बिक्री के लिए आती हैं और उनके कीमतों का निर्धारण किस तरह किया जाता है। एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करें और कक्षा में उस पर चर्चा करें।
आइए, हम कृषि विपणन के विभिन्न पहलुओं को सुधारने के लिए किए गए चार प्रमुख उपायों को विस्तारपूर्वक समझने का प्रयास करें। पहला कदम व्यवस्थित एवं पारदर्शी विपणन की दशाओं का निर्माण करने के लिए बाज़ार का नियमन करना था। इस नीति से बहुत दूर तक कृषक और उपभोक्ता, दोनों ही वर्ग लाभांवित हुए हैं। हालाँकि, लगभग 27,000 ग्रामीण क्षेत्रों में अनियत मंडियों को विकसित किए जाने की आवश्यकता है, ताकि ग्राम्य क्षेत्रों की मंडियों की वास्तविक क्षमताओं का लाभ उठा पाना संभव हो। दूसरा महत्वपूर्ण उपाय सड़कों, रेलमार्गों, भंडारगृहों गोदामों, शीतगृहों और प्रसंस्करण इकाइयों के रूप में भौतिक आधारिक संरचनाओं का प्रावधान किया जाना है। किंतु, अभी तक वर्तमान आधारिक सुविधाएँ बढ़ती माँग को देखते हुए नितांत अपर्याप्त सिद्ध हुई हैं, जिन्हें सुधारने की आवश्यकता है। सरकार के तीसरे उपाय में सरकारी विपणन द्वारा किसानों को अपने उत्पादों का उचित मूल्य सुलभ कराना है। गुजरात तथा देश के अन्य कई भागों में दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियों ने ग्रामीण अंचलों के सामाजिक तथा आर्थिक परिदृश्य का कायाकल्प कर दिया है। किंतु, अभी भी कुछ स्थानों पर सहकारिता आंदोलन में कुछ कमियाँ दिखाई देती हैं। इनके कारण हैंः सभी कृषकों को सहकारिताओं में शामिल नहीं कर पाना, विपणन और प्रसंस्करण सहकारी समितियों के बीच संबंध सूत्रों का नहीं होना और अकुशल वित्तीय प्रबंधन। चौथे उपाय के अंतर्गत नीतिगत साधन हैं– जैसेः (क) कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन कीमत सुनिश्चित करना; (ख) भारतीय खाद्य निगम द्वारा गेहूँ और चावल के सुरक्षित भंडार की रख रखाव और (ग) सार्वजनिक वितरण प्रणाली (राशन व्यवस्था) के माध्यम से खाद्यान्नों और चीनी का वितरण। इन साधनों का ध्येय क्रमशः किसानों को उपज के उचित दाम दिलाना तथा गरीबों को सहायिकी युत्तη (subsidised) कीमत पर वस्तुएँ उपलब्ध कराना रहा है। यद्यपि सरकार के इन सभी प्रयासों के बाद भी आज तक कृषि मंडियों पर निजी व्यापारियों, (साहूकारों, ग्रामीण राजनीतिज्ञ सामंतों, ब\ड़े व्यापारियों तथा अमीर किसानों) का वर्चस्व बना हुआ है। इसके लिए जरूरी है सरकार की मध्यस्थता, खासकर जब कृषि उत्पाद बड़े हिस्से पर निजी क्षेत्रक का नियंत्रण होता है। सरकारी संस्थाएँ और सहकारिताएँ सकल कृषि उत्पादन के मात्र 10 प्रतिशत अंश के आदान-प्रदान में सफल हो पा रही हैं- शेष अभी भी निजी व्यापारियों के हाथों में ही हैं।
इन्हें कीजिए
►अपने आस-पास स्थित किसानों द्वारा प्रयोग की जा रही किसी वैकल्पिक विपणन प्रणाली को देखें। यह नियमित मंडी परिसर से किस प्रकार भिन्न है? क्या उन्हें सरकारी समर्थन और प्रोत्साहन मिलना चाहिए? यह क्यों होना चाहिए तथा कैसे दिया जाना चाहिए? चर्चा कीजिए।
सरकार की मध्यस्थता ने कृषि विपणन व्यवस्था को अनेक रूपों में प्रभावित किया है। वैश्वीकरण के इस युग में कृषि के त्वरित कुछ विद्वानों का कहना है कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि का व्यावसायीकरण हो बशर्ते कि इसमें सरकार की मध्यस्थता न हो। इसके बारे में आपकी क्या राय है?
वैकल्पिक क्रय-विक्रय माध्यमों का प्रादुर्भावः अब यह बात सभी अनुभव कर रहे हैं कि यदि किसान स्वयं ही उपभोक्ता को अपना उत्पादन बेच सकें तो उसे अधिक आय प्राप्त होगी। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में अपनी मंडी, पुणे की हाड़पसार मंडी, आंध्र प्रदेश और तेलंगाणा की रायथूबाज नामक फल सब्जी मंडियाँं तथा तमिलनाडु की उझावरमंडी के कृषक बाज़ार, इस प्रकार से विकसित हो रहे वैकल्पिक क्रय विक्रय माध्यम के कुछ उदाहरण हैं। ये सब कुछ वैकल्पिक विपणन संरचनाओं के उदाहरण हैं। यही नहीं, अनेक राष्ट्रीय/बहुराष्ट्रीय त्वरित खाद्य पदार्थ (फास्ट फूड)बनाने वाली कंपनियाँ भी अब किसानों के साथ कृषि-उत्पाद की खेती (फल-सब्जियों) के लिए उत्पादकाें सेे अनुबंध कर रही हैं। ये किसानाें को उचित बीज तथा अन्य आगत तो उपलब्ध कराती ही हैं; उन्हें पूर्व-निर्धारित कीमतों पर माल खरीदने का आश्वासन भी देती हैं। यह कहा जाता है कि एेसी व्यवस्थाएँ किसानों की कीमत विषयक आशंकाओं और जोखिमों का निवारण करेंगी। साथ ही इनसे कृषि पदार्थों के बाज़ारों का भी विस्तार होगा। क्या इस प्रकार की व्यवस्था से छोटे किसानों की आय में वृद्धि होगी?
6.5 उत्पादक गतिविधियाें का विविधीकरण
विविधीकरण के दो पहलू हैंः एक पहलू तो फसलों के उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन से संबंधित है। दूसरा पहलू श्रम शक्ति को खेती से हटाकर अन्य संबंधित कार्यों (जैसे पशुपालन, मुर्गी और मत्स्य पालन आदि) तथा गैर-कृषि क्षेत्रक में लगाना है। इस विविधीकरण की आवश्यकता इसलिए उत्पन्न हो रही है, क्योंकि सिर्फ खेती के आधार पर आजीविका कमाने में जोखिम बहुत अधिक हो जाता है। अतः विविधीकरण द्वारा हम न केवल खेती से जोखिम को कम करने में सफल होंगे बल्कि ग्रामीण जन समुदाय को उत्पादक और वैकल्पिक धारणीय आजीविका के अवसर भी उपलब्ध हो पाएँगे। देश में अधिकांश कृषि रोजगार खरीफ की फसल से जु\ड़ा रहता है, किंतु रबी की फसल के मौसम में तो जहाँ पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ नहीं हैं, उन क्षेत्रों में लाभप्रद रोजगार दुर्लभ हो जाता है। अतः अन्य प्रकार की उत्पादक और लाभप्रद गतिविधियों में प्रसार के माध्यम से ही हम ग्रामीण जनसमुदाय को अधिक आय कमाकर गरीबी तथा अन्य विषम परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ बना पाएँगे। अतः जरूरत संबद्ध गतिविधियों, गैर कृषि रोजगार तथा नये वैकल्पिक आजीविका स्रोतों के विकास पर ध्यान देने की है। वैसे अब ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक नए धारणीय आजीविका विकल्पों का विकास हो रहा है।
बॉक्स 6.2 (TANWA) तमिलनाडु में कृषि कार्यों में लगी महिलाएँ
तमिलनाडु में महिलाओं को नवीनतम कृषि तकनीकों का प्रशिक्षण देने के लिए तनवा नामक परियोजना प्रारंभ की गई है। यह महिलाओं को कृषि उत्पादकता और पारिवारिक आय की वृद्धि के लिए सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करती है। थिरूचिरापल्ली में एंथोनीअम्मल द्वारा संचालित प्रशिक्षित महिला समूह कृमिखाद बनाकर बेच रहा है और इस कार्य से आय कमा रहा है। अनेक कृषक महिला समूह अतिलघु साख व्यवस्था का सहारा लेकर अपने सदस्यों की बचतों को बढ़ावा देने में सक्रिय हैं। इस प्रकार संचित बचत का प्रयोग कर वे पारिवारिक कुटीर उद्योग गतिविधियाँ जैसे मशरूम की खेती, साबुन तथा गुड़िया बनाने आदि अनेक प्रकार के आय बढ़ाने वाले कार्याें को प्रोत्साहित कर रही हैं।
कृषि क्षेत्र पर तो पहले ही से बहुत बोझ है। अतः बढ़ती हुई श्रम शक्ति के लिए अन्य गैर-कृषि कार्यों में वैकल्पिक रोजगार के अवसरों की आवश्यकता है। गैर-कृषि अर्थतंत्र में अनेक घटक होते हैं। कुछ घटकों में पर्याप्त गतिशील अंतर्संबंध होते हैं और उनमें ‘स्वस्थ’ संवृद्धि की संभावनाएँ रहती हैं, किंतु अनेक घटक तो निम्न उत्पादकता वाले निर्वाह मात्र की व्यवस्था कर पाते हैं। गतिशील उपघटकों में कृषि-प्रसंस्करण उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, चर्म उद्योग तथा पर्यटन आदि सम्मिलित हैं। कुछ एेसे क्षेत्रक भी हैं जिनमें संभावनाएँ तो विद्यमान हैं, पर जिनके लिए संरचनात्मक सुविधाएँ तथा अन्य सहायक कार्यों का नितांत अभाव है। इस वर्ग में हम परंपरागत गृह उद्योगों को रख सकते हैं जैसे, मिट्टी के बर्तन बनाना, शिल्प कलाएँ, हथकरघा आदि। यद्यपि, अधिकांश ग्रामीण महिलाएँ कृषि में रोजगार प्राप्त करती हैं, जबकि पुरुष गैर-कृषि रोजगार की तलाश में है। किंतु, हाल के वर्षाें में ग्रामीण महिलाएँ भी गैर कृषि कार्यों की ओर अग्रसर होने लगी हैं (देखें बॉक्स 6.2)।
पशुपालनः भारत के किसान समुदाय प्रायः मिश्रित कृषि पशु धन व्यवस्था का अनुसरण करते हैं। इसमें गाय-भैंस, बकरियाँ और मुर्गी-बत्तख आदि बहुतायत में पाई जाने वाली प्रजातियाँ हैं। मवेशियों के पालन से परिवार की आय में अधिक स्थिरता आती है। साथ ही खाद्य सुरक्षा, परिवहन, ईंधन, पोषण आदि की व्यवस्था भी परिवार की अन्य खाद्य उत्पादक (कृषक) गतिविधियों में अवरोध के बिना प्राप्त हो जाती हैं। आज पशुपालन क्षेत्रक देश के 7 करोड़ छोटे व सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों को आजीविका कमाने के वैकल्पिक साधन सुलभ करा रहे हैं। इस क्षेत्रक में महिलाएँ भी बहुत बड़ी संख्या में रोजगार पा रही हैं। चार्ट 6.1 में भारत में पशुधन का वितरण दिखाया गया है। इसमें सबसे बड़ा अंश 58 प्रतिशत तो मुर्गी पालन का है। अन्य पशुओं में ऊँट, गधे, घोड़े आते हैं। सबसे निम्न स्तर खच्चरों तथा टट्टुओं का है। 2012 में भारत में 300 मिलियन मवेशी थे, उनमें से 108 मिलियन भैंसें थीं। पिछले तीन दशकों में भारत के डेयरी उद्योग ने बहुत शानदार प्रगति दिखाई है, 1951-2016 की अवधि में देश में दुग्ध उत्पादन लगभग दस गुना बढ़ गया है। इसका मुख्य श्रेय ‘अॉपरेशन फ्लड’ (दूध की बाढ़) को दिया जाता है। यह एक एेसी प्रणाली है जिसके अंतर्गत सभी किसान अपना विक्रय योग्य दूध एकत्रित कर, उसकी गुणवत्ता के अनुसार प्रसंस्करण करते हैं और फिर उसे शहरी केंद्रों में सहकारिताओं के माध्यम से बेचा जाता है। जैसा कि पहले बताया गया था, गुजरात प्रदेश ने दुग्ध सहकारिताओं का एक विलक्षण प्रतिमान विकसित किया है- देश के अन्य अनेक प्रांतों में उसी का अनुकरण किया जा रहा है। गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और राजस्थान प्रमुखतः दुग्ध उत्पादक राज्य हैं। अब मांस, अंडे तथा ऊन आदि भी उत्पादन क्षेत्र के विविधीकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण सह-उत्पाद सिद्ध हो रहे हैं।
मत्स्य पालनः मछुआरों के समुदाय तो प्रत्येक जलागार को ‘माँ’ या ‘दाता’ मानते हैं। सागर-महासागर, सरिताएँ, झीलें, प्राकृतिक तालाब, प्रवाह आदि सभी जलागार मछुआरों के समाज के लिए निश्चित जीवन दीपक स्रोत बन जाते हैं। भारत में बजटीय प्रावधानों में वृद्धि और मत्स्य पालन एवं जल कृषिकी में नवीन प्रौद्यागिकी के प्रवेश के बाद से मत्स्य उद्योग ने विकास की नई मंजिलें तय की हैं। आजकल देश के समस्त मत्स्य उत्पादन का 65 प्रतिशत अंतर्वर्ती क्षेत्रों से तथा 35 प्रतिशत महासागरीय क्षेत्रों से प्राप्त हो रहा है। यह मत्स्य उत्पादन सकल घरेलू उत्पाद का 0.9 प्रतिशत है। मत्स्य उत्पादकों में प्रमुख राज्य पं. बंगाल, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु हैं। मछुआरों के परिवारों का एक बड़ा हिस्सा निर्धन है। इस वर्ग में व्याप्त निम्न रोजगार, निम्न प्रतिव्यक्ति आय, अन्य कार्यों की ओर श्रम के प्रवाह का अभाव, उच्च निरक्षरता दर तथा गंभीर ऋण-ग्रस्तता इन मछुआरा समुदाय से आजकल जूझ रहे हैं। यद्यपि महिलाएँ मछलियाँ पकड़ने के काम में नहीं लगी हैं, पर 60 प्रतिशत निर्यात और 40 प्रतिशत आंतरिक मत्स्य व्यापार का संचालन उन्हीं के हाथों में है। विपणन के लिए आवश्यक पूँजी जुटाने में मछुआरा समुदाय की महिलाओं की सहायता के लिए सहकारिताओं और स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से साख सुविधाओं का विस्तार किए जाने की आवश्यकता अब अनुभव हो रही है।
उद्यान विज्ञान (बागवानी): प्रकृति ने भारत को ऋतुओं और मृदा की विविधता से संपन्न किया है। उसी के आधार पर भारत ने अनेक प्रकार के बागान उत्पादों को अपना लिया है। इनमें प्रमुख हैं–फल-सब्जियाँ, रेशेदार फसलें, औषधीय तथा सुगंधित पौधे, मसाले, चाय, कॉफी इत्यादि। ये सभी फसलें रोजगार के साथ-साथ भोजन और पोषण उपलब्ध कराने में भी बड़ा योगदान दे रही हैं। भारत में बागवानी क्षेत्रक समस्त कृषि उत्पाद का लगभग एक तिहाई और सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत है। भारत आम, केला, नारियल, काजू जैसे फलों और अनेक मसालों के उत्पादन में तो आज विश्व का अग्रणी देश माना जाता है। कुल मिलाकर फल-सब्जियों के उत्पादन में हमारा विश्व में दूसरा स्थान है। बागवानी में लगे कितने ही कृषकों की आर्थिक दशा में बहुत सुधार हुआ है। ये उद्योग अब अनेक वंचित वर्गों के लिए आजीविका को बेहतर बनाने में सहायक हो गए हैं। पुष्परोपण, पौधशाला की देखभाल, संकर बीजों का उत्पादन, ऊतक -संवर्धन, फल फूलों का संवर्धन और खाद्य प्रसंस्करण ग्रामीण महिलाओं के लिए अब अधिक आय वाले रोजगार बन गए हैं।
यद्यपि संख्याबल की दृष्टि से तो हमारा पशुधन बहुत ही प्रभावशाली दिखाई देता है, पर अन्य देशों की तुलना में उसके उत्पादक का स्तर बहुत ही न्यून है। यहाँ भी पशुओं की नस्ल सुधारने तथा उत्पादकता वृद्धि के लिए नई उन्नत प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जाना चाहिए। छोटे व सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों को बेहतर पशुधन उत्पादन के माध्यम से भी धारणीय रोजगार विकल्प का स्वरूप प्रदान किया जा सकता है। मछली पालन में पहले से ही पर्याप्त वृद्धि हो चुकी है तथापि मछली पालन के आधिक्य से संबंधित प्रदूषण की समस्या को नियमित और नियंत्रित करना आवश्यक है। मछुआरा समुदाय के कल्याण कार्यों की इस प्रकार पुनर्रचना करनी होगी कि उनके लाभ दीर्धकालिक हों और उनकी आजीविका का साधन बन सकें। बागवानी एक धारणीय रोजगार विकल्प के रूप में उभरा है और इसे महत्वपूर्ण प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसे और बढ़ावा देने के लिए बिजली, शीतगृह व्यवस्था, विपणन माध्यमों के विकास, लघु स्तरीय प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना और प्रौद्योगिकी के उन्नयन और प्रसार के लिए आधारिक संरचनाओं में निवेश की आवश्यकता है।
बॉक्स 6.3 सांसदों द्वारा गाँव के दत्तक ग्रहण
अक्तूबर, 2014 में, भारत सरकार ने सांसदों के निर्वाचन क्षेत्रों से सांसद आदर्श ग्राम योजना (SAGY) नामक एक नई योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत भारत के सांसदों को एक गाँव की पहचान करने और विकसित करने की जरूरत है। शुरू करने के लिए, सांसद वर्ष 2016 तक एक मॉडल गाँव के रूप में एक गाँव को विकसित कर सकते हैं और 2019 तक दो और गाँव विकसित करने हैं, भारत में 2,500 से अधिक गाँवों को सम्मिलित करने की योजना है। योजना के मुताबिक, गाँव के मैदानी इलाकों में 3,000-5,000 और पहाड़ी इलाकों में 1,000-3,000 की आबादी हो सकती है और सांसदों का खुद का या अपने पति/पत्नी का गाँव नहीं होना चाहिए। सांसदों द्वारा एक गाँव के विकास योजना की उम्मीद कर रहे हैं कि वो ग्रामीणों को गतिविधियों को लेने के लिए प्रेरित करने और स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने के लिए प्रेरित करेंगे।
अन्य रोजगार/आजीविका विकल्पः सूचना प्रौद्योगिकी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के अनेक क्षेत्रकों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। 21वीं शताब्दी में देश में खाद्य सुरक्षा और धारणीय विकास में सूचना प्रौद्योगिकी निर्णायक योगदान दे सकती है। सूचनाओं और उपयुक्त सॉफ्टवेयर का प्रयोग कर सरकार सहज ही खाद्य असुरक्षा की आशंका वाले क्षेत्रों का समय रहते पूर्वानुमान लगा सकती है। इस तरह से, समाज एेसी विपत्तियों की संभावनाओं को कम या पूरी तरह से समाप्त करने में भी सफल हो सकता है। कृषि क्षेत्र में तो इसके विशेष योगदान हो सकते हैं। इस प्रौद्योगिकी द्वारा उदीयमान तकनीकों, कीमतों, मौसम तथा विभिन्न फसलों के लिए मृदा की दशाओं की उपयुक्तता की जानकारी का प्रसारण हो सकता है। अपने आप में सूचना प्रौद्योगिकी कुछ भी नहीं बदल सकती, किंतु यह समाज में सृजनात्मक संभाव्यता और उनके ज्ञान संचय के यंत्र के रूप में कार्य कर सकती है। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े स्तर पर रोजगार के अवसरों को उत्पन्न करने की संभाव्यता भी है। भारत के अनेक भागों में सूचना प्रोद्योगिकी का प्रयोग ग्रामीण विकास के लिए हो रहा है (देखें बॉक्स 6.3)।
बॉक्स 6.4 जैविक भोजन
विश्व में जैविक भोजन की लोकप्रियता बढ़ रही है। अनेक देश अब तक खाद्य उत्पाद व्यवस्था का 10 प्रतिशत जैविक कृषि द्वारा उत्पन्न करते हैं। अनेक खुदरा व्यापार शृंखलाएँ और सुपर बाज़ार अब जैविक खाद्य पदार्थों की बिक्री के आधार पर ‘हरित स्थिति’ प्रमाण चिन्हों से अंलकृत हो चुके हैं। साथ ही, जैविक खाद्य पदार्थों की कीमत परंपरागत पदार्थों की तुलना में 10-100 प्रतिशत तक अधिक होती है।
6.6 धारणीय विकास और जैविक कृषि
कुछ वर्षों से रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के हमारे स्वास्थ्य पर हो रहे हानिकारक प्रभावों के विषय में जागरूकता का प्रसार हुआ है। भारत में परंपरागत कृषि पूरी तरह से रासायनिक उर्वरकों और विषजन्य कीटनाशकों पर आधारित है। ये विषाक्त तत्व हमारी खाद्य पूर्ति व जल स्रोतों में निःसरित हो जाते हैं और हमारे पशुधन को हानि पहुँचाते हैं। साथ ही इनके कारण मृदा की उर्वरता क्षीण हो जाती है और हमारे प्राकृतिक पर्यावरण का विनाश हो जाता है। अतः विकास की धारणीयता के लिए पर्यावरण-मित्र प्रौद्योगिकीय विकास के प्रयास अनिवार्य हो गए हैं। एेसी ही एक प्रौद्योगिकी को ‘जैविक कृषि’ कहा जाता है। संक्षेप में जैविक कृषि, खेती करने की वह पद्धति है जो पर्यावरणीय संतुलन को पुनः स्थापित करके उसका संरक्षण और संवर्धन करती है। विश्व भर में सुरक्षित आहार की पूर्ति बढ़ाने के लिए जैविक विधा से उत्पादित खाद्य पदार्थों की माँग में वृद्धि हो रही है। (देखें बॉक्स 6.4)।
बॉक्स 6.5 महाराष्ट्र में जैविक विधि से उत्पादित कपास
जब 1995 में ‘प्रकृति’ नामक गैर-सरकारी संगठन के किशन मेहता ने यह सुझाव दिया कि रासायनिक कीट का सर्वाधिक प्रयोग करने वाली कपास की खेती भी जैविक विधि से हो सकती है, तो नागपुर के केंद्रीय कपास शोध संस्थान के निर्देशक ने अपनी अति प्रसिद्ध टिप्पणी की थीः ‘‘क्या आप सारे भारत को वस्त्र-विहीन कर देना चाहते हैं?’’ इस समय तक के 130 किसान 1200 हेक्टेयर भूमि पर अंतर्राष्ट्रीय जैविक कृषि आंदोलन संघ के मानकों के अनुरूप जैविक विधि से कपास उगाने को प्रतिबद्ध हो चुके हैं। इनके उत्पादन को जर्मनी द्वारा मान्यता प्राप्त संस्था एग्रेको ने परीक्षण के बाद उच्च कोटि का पाया है। किशन मेहता का कहना है कि भारत के 78 प्रतिशत किसान 0.8 हेक्टेयर के छोटे खेतों के स्वामी सीमांत किसान ही हैं। इनकी समस्त भूमि देश के कृषि क्षेत्र का 20 प्रतिशत है। अतः दीर्घकाल में एेसे किसानों के लिए मौद्रिक तथा मृदा संरक्षण की दृष्टि से जैविक कृषि ही अधिक लाभकारी सिद्ध होगी। अपने क्षेत्र के किसी एेसे खेत में जाएँ, जहाँ जैविक खाद का उपयोग किया जाता है, और खेती से संबंधित तरीकों से जु\ड़े मुद्दों पर चर्चा करें तथा अपनी कक्षा में रिपोर्ट पेश करें।
जैविक कृषि के लाभः जैविक कृषि महँगे आगतों (संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों) के स्थान पर स्थानीय रूप से बने जैविक आगतों के प्रयोग पर निर्भर होती है। ये आगत सस्ते रहते हैं और इसी कारण इन पर निवेश से प्रतिफल अधिक मिलता है। विश्व बाज़ारों में जैविक कृषि उत्पादों की बढ़ती हुई माँग के कारण इनके निर्यात से भी अच्छी आय हो सकती है। अनेक देशों में हुए अध्ययनों से सिद्ध हुआ है, रासायनिक आगतों से उत्पादित खाद्य की तुलना में जैविक विधि से उत्पादित भोज्य पदाथाेंρ में षोषक तत्व भी अधिक होते हैं। अतः जैविक कृषि हमें अधिक स्वास्थ्यकर भोजन उपलब्ध कराती है। चूँकि जैविक कृषि में श्रम आगतों का प्रयोग परंपरागत कृषि की अपेक्षा अधिक होता है-अतः भारत जैसे देश में यह अधिक आकर्षक होगा। अंततः ये उत्पाद विषाक्त रसायनों से मुक्त तथा पर्यावरण की दृष्टि से धारणीय विधियों द्वारा उत्पादित होते हैं (देखें बॉक्स 6.5)।
जैविक कृषि की लोकप्रियता के लिए नई विधियों का प्रयोग करने में किसानों की इच्छाशक्ति और जागरूकता आवश्यक है। जैविक कृषि संवर्धन के लिए उपयुक्त नीतियों के अभाव के साथ-साथ उनके विपणन की समस्या पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। ये समस्याएँ इस विधि को प्रोत्साहन देने में बाधक हैं। यह देखा गया है कि प्रारंभिक वर्षाें में जैविक कृषि की उत्पादकता रासायनिक कृषि से कम रहती है। अतः बहुत ब\ड़े स्तर पर छोटे और सीमांत किसानों के लिए इसे अपनाना कठिन होगा। यही नहीं, जैविक उत्पादों के रासायनिक उत्पादों की अपेक्षा शीघ्र खराब होने की भी संभावना रहती है। बे-मौसमी फसलों का जैविक कृषि में उत्पादन बहुत सीमित होता है। फिर भी जैविक कृषि धारणीय कृषि के विकास में सहायक है और भारत तो निश्चय ही घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों के लिए इनका उत्पादन कर लाभांवित हो सकता है।
क्या आप बता सकते हैं कि खाद्य तथा गैर-खाद्य वस्तुओं का जैविक कृषि विधि का उपयोग कर उत्पादन करना सस्ता होगा?
इन्हें कीजिए
► भारत में जैविक विधि से उत्पादित पाँच लोकप्रिय वस्तुओं की सूची बनाइए।
► अपने आस-पास किसी सुपर बाज़ार, सब्जियों की दुकान या विभागीय भंडार में जाएँ। जैविक और रासायनिक विधि से उत्पादित कुछ वस्तुओं की कीमतों की जानकारी के साथ-साथ यह जानकारी भी प्राप्त करें कि वे कितने समय तक खराब हुए बिना रह सकती हैं और उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए किस प्रकार से उनका प्रचार किया जाता है।
► अपने आस-पास की बस्ती में किसी बागवानी फार्म पर जाएँ। वहाँ उत्पादित वस्तुओं की सूची बनाएँ। क्या उन्होंने कुछ समय पहले ही अपने कृषि स्वरूप का विविधीकरण किया है? उनसे विविधीकरण के लाभ और हानियों पर चर्चा करें।
6.7 निष्कर्ष
एक बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि जब तक कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं होगा, ग्रामीण क्षेत्रक में पिछड़ापन बना रहेगा। आज ग्रामीण क्षेत्रों को अनेक प्रकार के उत्पादक कार्याें की ओर उन्मुख कर वहाँ एक नए उत्साह और स्फूर्ति का संचार करना आवश्यक हो गया है। ये कार्य हो सकते हैंः डेरी उद्योग, मुर्गी पालन, मत्स्य पालन, फल सब्जी उत्पादन और ग्रामीण उत्पादन केंद्रों व शहरी बाज़ारों (विदेशी निर्यात बाज़ारों सहित) के बीच संपर्क सूत्रों की रचना। इस प्रकार, कृषि उत्पादन में लगे निवेश पर अधिक प्रतिलाभ अर्जित करना संभव हो पाएगा। यही नहीं, आधारिक संरचना जैसे, साख एवं विपणन, कृषक-हित-नीतियाँ तथा कृषक समुदायों एवं राज्य कृषि विभागों के बीच निरंतर संवाद और समीक्षा इस क्षेत्रक की पूर्ण क्षमता को प्राप्त करने में सहायक है।
आज हम पर्यावरण और ग्रामीण विकास को दो पृथक-पृथक विषय मान कर व्यवहार नहीं कर सकते। नई पर्यावरण-मित्र प्रौद्योगिकी विकल्पों के अविष्कार या प्राप्ति की भी आवश्यकता है, ताकि विभिन्न परिस्थितियों का सामना होने पर भी हम धारणीय विकास की ओर अग्रसर हो पाएँ। इन विकल्पों में से प्रत्येक ग्राम्य समुदाय अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप चयन कर सकता है। अतः हमारा पहला काम तो सभी उपलब्ध विधियों में से सर्वश्रेष्ठ की पहचान कर उसे चुनना ही होगा (तात्पर्य ग्रामीण विकास के प्रयोग की उन सफल कहानियों से है, जो देश में विभिन्न क्षेत्रों में हो चुकी हैं), ताकि इस ‘व्यावहारिक प्रशिक्षण’ प्रक्रिया को और गति प्रदान की जा सके।
पुनरावर्तन
► ग्रामीण विकास अपने आप में एक बहुत विस्तृत शब्द है। पर मूल रूप से इसे सामाजिक आर्थिक विकास में पिछड़ रहे ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की एक सुनियोजित कार्यविधि माना जा सकता है।
► ग्रामीण क्षेत्रों की वास्तविक संभाव्यता को पाने के लिए बैंकिंग, विपणन, भंडारण, परिवहन, संचार आदि की आधारिक संरचना के परिमाण और गुणवत्ता को सुधारना होगा।
► पशुपालन, मत्स्य-पालन और अनेक गैर-कृषि कार्यों को अपनाया जाना चाहिए। इस विविधीकरण से न केवल कृषि के जोखिम कम होंगे बल्कि साथ ही हमारे विशाल ग्रामीण जनसमुदाय को उत्पादक धारणीय आजीविका के नए विकल्प भी सुलभ हो पाएँगे।
► पर्यावरणीय दृष्टि से धारणीय उत्पादन प्रक्रिया के रूप में आज जैविक कृषि का महत्व निरंतर बढ़ रहा है - इसे और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अभ्यास
1. ग्रामीण विकास का क्या अर्थ है? ग्रामीण विकास से जुड़े मुख्य प्रश्नों को स्पष्ट करें।
2. ग्रामीण विकास में साख के महत्व पर चर्चा करें।
3. गरीबों की ऋण आवश्यकताएँ पूरी करने में अतिलघु साख व्यवस्था की भूमिका की व्याख्या करें।
4. सरकार द्वारा ग्रामीण बाज़ारों के विकास के लिए किए गए प्रयासों की व्याख्या करें।
5. आजीविका को धारणीय बनाने के लिए कृषि का विविधीकरण क्यों आवश्यक है?
6. भारत के ग्रामीण विकास में ग्रामीण बैंकिग व्यवस्था की भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
7. कृषि विपणन से आपका क्या अभिप्राय है?
8. कृषि विपणन प्रक्रिया की कुछ बाधाएँ बताइए।
9. कृषि विपणन की कुछ उपलब्ध वैकल्पिक माध्यमों की उदाहरण सहित चर्चा करें।
10. ‘स्वर्णिम क्रांति’ तथा ‘हरित क्रांति’ में अंतर स्पष्ट करें।
11. क्या सरकार द्वारा कृषि विपणन सुधार के लिए अपनाए गए विभिन्न उपाय पर्याप्त हैं? व्याख्या कीजिए।
12. ग्रामीण विविधीकरण में गैर-कृषि रोजगार का महत्व समझाइए।
13. विविधीकरण के स्रोत के रूप में पशुपालन, मत्स्यपालन और बागवानी के महत्व पर टिप्पणी करें।
14. ‘सूचना प्रौद्योगिकी, धारणीय विकास तथा खाद्य सुरक्षा की प्राप्ति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान करती है।’ टिप्पणी करें।
15. जैविक कृषि क्या है? यह धारणीय विकास को किस प्रकार बढ़ावा देती है?
16. जैविक कृषि के लाभ और सीमाएँ स्पष्ट करें।
17. जैविक कृषि का प्रयोग करने वाले किसानों को प्रारंभिक वर्षों में किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?
संदर्भ
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