Table of Contents
इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप
• पर्यावरण की अवधारणा को समझेंगे;
• ‘पर्यावरण अधोगति और संसाधन अपक्षय’ के कारणों तथा प्रभावों का विश्लेषण कर सकेंगे;
• भारत के समक्ष पर्यावरण चुनौतियों की प्रकृति को समझेंगे;
• पर्यावरण मुद्दों को धारणीय विकास के व्यापक संदर्भ से जोड़ सकेंगे।
पर्यावरण को यदि यथावत् छोड़ दिया जाये, तो वह निरंतर लाखों वर्षो तक जीवन का सहारा बन सकता है। इस योजना में एकमात्र सर्वाधिक अस्थिर और संभावित विनाशकारी शक्ति मानव प्रजाति है। मनुष्य आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से पर्यावरण में जाने-अनजाने दूरगामी और अपरिर्वतनीय बदलाव लाने की क्षमता रखता है।
– अनजान
9.1 परिचय
पिछले अध्यायों में हमने भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष प्रमुख आर्थिक मुद्दों पर चर्चा की है। अभी तक प्राप्त आर्थिक विकास की हमने भारी कीमत चुकाई है। इसके लिए हमें पर्यावरण की गुणवत्ता की बलि देनी पड़ी है। अब जैसे-जैसे हम वैश्वीकरण में जिसका संकल्प उच्च आर्थिक संवृद्धि है, प्रवेश करते हैं वैसे-वैसे हमें पहले के विकास पथ के पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव को ध्यान में रखना होगा और ध्यानपूर्वक धारणीय विकास के पथ को चुनना होगा। हमारे द्वारा अपनाये गये विकास के अधारणीय पथ और धारणीय विकास की चुनौतियों को समझने के लिए सबसे पहले हमें आर्थिक विकास में पर्यावरण के महत्व और योगदान को समझना होगा। इस बात को ध्यान में रखते हुए इस अध्याय को तीन भागों में बाँटा गया है। पहला भाग पर्यावरण के कार्यों व भूमिका से संबंधित है। दूसरे भाग में भारत में पर्यावरण की स्थिति पर चर्चा की गई है और तीसरे भाग में धारणीय विकास प्राप्त करने के लिए उठाये गये कदमों और युक्तियों पर विचार किया गया है।
9.2 पर्यावरण परिभाषा और कार्यः
पर्यावरण को समस्त भूमंडलीय विरासत और सभी संसाधनों की समग्रता के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसमें वे सभी जैविक और अजैविक तत्व आते हैं, जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। सभी जीवित तत्व-जैसे, पक्षी, पशु, पौधे, वन, मत्स्य आदि जैविक तत्व हैं जबकि हवा, पानी, भूमि, अजैविक तत्त्व हैं। चट्टान और सूर्य किरण पर्यावरण के अजैविक तत्व के उदाहरण हैं। पर्यावरण अध्ययन के अंतगत इन्हीं जैविक और अजैविक घटकों के बीच अंतर्संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण के कार्यः पर्यावरण चार आवश्यक कार्य करता है-(क) यह संसाधनों की पूर्ति करता है, जिसमें नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय दोनों प्रकार के संसाधन शामिल होते हैं। नवीनीकरण-योग्य संसाधन वे हैं जिनका उपयोग संसाधन के क्षय या समाप्त होने की आशंका के बिना किया जा सकता है, अर्थात् संसाधनों की पूर्ति निरंतर बनी रहती है। नवीकरणीय संसाधनों के उदाहरणों में, वनों में पेड़ और समुद्र में मछलियाँ हैं। दूसरी ओर, गैर-नवीनीकरण योग्य संसाधन वे हैं जो कि निष्कर्षण और उपयोग से समाप्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, जीवाश्म ईंधन। (ख) यह अवशेष को समाहित कर लेता है। (ग) यह जननिक और जैविक विवधिता प्रदान करके जीवन का पोषण करता है। यह सौदंर्य विषयक सेवाएँ भी प्रदान करता है, जैसे कि कोई सुंदर दृश्य।
इन्हें कीजिए
► जल एक आर्थिक उपभोक्ता वस्तु क्यों बन गया है? चर्चा कीजिए।
► नीचे की सारणी में वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण के कारण होने वाले कुछ आम रोगों और बीमारियों के नाम भरें।
वायु प्रदूषण | जल प्रदूषण | ध्वनि प्रदूषण |
दमा | हैजा | |
पर्यावरण इन कार्यों को बिना किसी व्यवधान के तभी कर सकता है, जब तक कि ये कार्य उसकी धारण क्षमता की सीमा में हैं। इसका अर्थ है कि संसाधनों का निष्कर्षण इनके पुनर्जनन की दर से अधिक नहीं है और उत्पन्न अवशेष पर्यावरण की समावेशन क्षमता के भीतर है। जब एेसा नहीं होता, तो पर्यावरण जीवन पोषण का अपना तीसरा और महत्वपूर्ण कार्य करने में असफल हो जाता है और इससे पर्यावरण संकट पैदा होता है। पूरे विश्व में आज यही स्थिति है। विकासशील देशों की तेजी से बढ़ती जनसंख्या और विकसित देशों के समृद्ध उपभोग तथा उत्पादन मानकों ने पर्यावरण के पहले दो कार्यों पर भारी दबाव डाल डाला है। अनेक संसाधन विलुप्त हो गये हैं और सृजित अवशेष पर्यावरण के अवशोषी क्षमता के बाहर हैं। अवशोषी क्षमता का अर्थ पर्यावरण की अपक्षय को सोखने की योग्यता से है। इसके कारण ही आज हम पर्यावरण संकट की दहलीज पर खड़े हैं। विकास के क्रम में नदियाँ और अन्य जल स्रोत प्रदूषित हुए हैं और सूख गये हैं, इसने जल को एक आर्थिक वस्तु बना दिया है। इसके साथ ही नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय संसाधनों के गहन और विस्तृत निष्कर्षण से अनेक महत्वपूर्ण संसाधन विलुप्त हो गये हैं और हम नये संसाधनों की खोज में प्रौद्योगिकी व अनुसंधान पर विशाल राशि व्यय करने के लिए मजबूर हैं। इसके साथ जु\ड़ी है पर्यावरण अपक्षय की गुणवत्ता की स्वास्थ्य लागत। जल और वायु की गुणवत्ता की गिरावट (भारत में 70 प्रतिशत जल प्रदूषित है) से साँस और जल-संक्रामक रोगों की घटनाएँ बढ़ी हैं। परिणामस्वरूप, व्यय भी बढ़ता जा रहा है। वैश्विक पर्यावरण मुद्दों जैसे, वैश्विक उष्णता और ओजोन क्षय ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है, जिसके कारण सरकार को अधिक धन व्यय करना पड़ा। अतः यह स्पष्ट है कि नकारात्मक पर्यावरण प्रभावों की अवसर लागत बहुत अधिक है।
बॉक्स 9.1: वैश्विक उष्णता
वैश्विक उष्णता पृथ्वी और समुद्र के वातावरण के औसत तापमान में वृद्धि को कहते हैं। वैश्विक उष्णता औद्योगिकी क्रांति से ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि के परिणामस्वरूप पृथ्वी के निचले वायुमंडल के औसत तापमान में क्रमिक ब\ढ़ोत्तरी है। वर्त्तमान में और आने वाले दिनों में वैश्विक उष्णता में अधिकांश मानव-उत्प्रेरित है। यह मानव द्वारा वनविनाश तथा जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाइअॉक्साइड और अन्य ग्रीन हाऊस गैसों की वृद्धि के कारण होता है। वायुमंडल में कार्बन डाइअॉक्साइड, मिथेन गैस तथा दूसरी गैसेें (जिनमें गर्माहट को सोखने की क्षमता है) वातावरण में मिलने से हमारे भूमंडल की सतह गर्म होती जायेगी। 1750 की पूर्व-औद्योगिक स्तरों से अब तक कार्बन डाइअॉक्साइड और CH4 के वायुमंडलीय संकेंद्रण में क्रमशः 31 प्रतिशत और 149 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछली शताब्दी में वायुमंडलीय तापमान में 1.1f (0.6oC) की वृद्धि हुई है और समुद्र तल कई इंच ऊपर उठ गया है। वैश्विक उष्णता के कुछ दीर्घकालीन परिणाम हैं-ध्रुवीय हिम का पिघलना जिसके परिणामस्वरूप समुद्र स्तर में वृद्धि और बाढ़ का प्रकोप, हिम पिघलाव पर निर्भर पेयजल की पूर्ति में पारिस्थितिक अंसतुलन के कारण प्रजातियों की विलुप्ति; उष्ण कटिबंधीय तूफानों की बारंबारता और उष्णकटिबंधीय रोगों के प्रभाव में बढ़ोत्तरी।
वैश्विक उष्णता में योगदान करने वाले अन्य तत्व हैंः कोयला व पेट्रोल उत्पाद का प्रज्ज्वलन (ये कार्बन-डाइअॉक्साइड, मिथेन, नाइट्रस अॉक्साइड, ओजोन के स्रोत हैं), वनविनाश जो कि वातावरण में कार्बन डाइअॉक्साइड की मात्रा में वृद्धि करता है , जानवरों की अपशिष्ट से निकलने वाली मिथेन गैस और पशु की संख्या में वृद्धि जो कि वनविनाश, मिथेन उत्पादन और जीवाश्म ईंधन के प्रयोग में योगदान करती है। 1997 में क्योटो, जापान में जलवायु परिवर्तन पर एक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुआ जिसमें वैश्विक उष्णता का सामना करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौता हुआ। इस समझौते में औद्योगीकृत राष्ट्रों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने की माँग की गई।
स्रोतः www.witcipedia.org
बॉक्स 9.2: ओजोन अपक्षय
ओजोन अपक्षय का अर्थ समतापमंडल में ओजोन की मात्रा की कमी है। ओजोन अपक्षय की समस्या का कारण समतापमंडल में क्लोरीन और ब्रोमीन के ऊँचे स्तर हैं। इन यौगिकों के मूल है, क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFC) जिनका प्रयोग रेप्रिुजरेटर और एयरकंडीशन को ठंडा रखने वाले पदार्थ या एरासोल प्रोपेलेन्ट्स में तथा अग्निशामकों में प्रयुक्त किए जाने वाले ब्रोमोफ्लोरोकार्बन्स में होता है। ओजोन स्तर के अपक्षय के परिणामस्वरूप परा बैगनी विकिरण(UV) पृथ्वी की ओर आते हैं और जीवों को क्षति पहुँचाते हैं। एेसा लगता है कि विकारण से मनुष्यों में त्वचा कैंसर होता है, यह पादपप्लवक (फीटोप्लैंकटन) के उत्पादन को कम कर जलीय जीवों को प्रभावित करता है। यह स्थलीय पौधों की संवृद्धि को भी प्रभावित करता है। 1979 से 1990 के बीच ओजोन स्तर में लगभग 5 प्रतिशत की कमी आई। चूँकि ओजोन स्तर सर्वाधिक हानिकारक पराबैगनी किरणों को पृथ्वी के वायुमंडल में आने से रोकता है, इसलिए अनुमानित ओजोन में कमी विश्व भर में चिंता का विषय है। इसके कारण मांट्रियल प्रोटोकोल को अपनाना पड़ा। इसके तहत CFC यौगिकों तथा अन्य ओजोन अपक्षयक रसायनों के प्रयोग पर रोक लगाना पड़ा जैसेः कार्बन टेट्राक्लोराइड, ट्रिक्लोरोथेन (जिन्हें मिथाइल क्लोरोफॉर्म भी कहते हैं) तथा ब्रोमाइन यौगिक तत्व जिन्हें हैलोन कहा जाता है।
स्रोत: www.ceu.hu
यहाँ सबसे ब\ड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या पर्यावरण समस्याएँ इस शताब्दी के लिए नई हैं? यदि एेसा है तो क्यों? इस प्रश्न के उत्तर के लिए कुछ विस्तार में जाने की आवश्यकता है। प्रारंभ के दिनों में जब सभ्यता शुरू ही हुई थी या जनसंख्या में इस असाधारण वृद्धि के पूर्व और देशों द्वारा औद्योगीकरण अपनाने के पहले पर्यावरण संसाधनों की माँग और सेवाएँ उनकी पूर्ति से बहुत कम थी। इसका अर्थ हुआ कि प्रदूषण, पर्यावरण की अवशोषी क्षमता के भीतर था और संसाधन निष्कर्षण की दर इन संसाधनों के पुनः सर्जन की दर से कम थी। इसलिए, पर्यावरण समस्याएँ उत्पन्न नहीं हुई थी। लेकिन, जनसंख्या विस्फोट और जनसंख्या की ब\ढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए औद्योगिक क्रांति के आगमन से स्थिति बदल गई। परिणामस्वरूप उत्पादन और उपभोग के लिए संसाधनों की माँग संसाधनों की पुनः सर्जन की दर से बहुत अधिक हो गई; पर्यावरण की अवशोषी क्षमता पर दबाव बुरी तरह से ब\ढ़ गया। यह प्रवृत्ति आज भी जारी है। इस तरह से, पर्यावरण की गुणवत्ता के मामले में माँग-पूर्ति संबंध पूरी तरह से उलट गये हैं-अब हमारे सामने पर्यावरण संसाधनों और सेवाओं की माँग अधिक है, लेकिन उनकी पूर्ति सीमित है। जिसके कारण अधिक उपयोग और दुरूपयोग हैं। इसीलिए, अवशिष्ट सृजन और प्रदूषण के पर्यावरण मुद्दे आजकल बहुत गंभीर हो गये हैं।
9.3 भारत की पर्यावरण स्थिति
भूमि की उच्च गुणवत्ता, सैंकड़ों नदियाँ व उप नदियाँ, हरे-भरे वन, भूमि के सतह के नीचे बहुतायत में उपलब्ध खनिज-पदार्थ, हिन्द महासागर का विस्तृत क्षेत्र, पहाड़ों की श्रृंखला आदि के रूप में भारत के पास पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन हैं। दक्षिण के पठार की काली मिट्टी विशिष्ट रूप से कपास की खेती के लिए उपयुक्त है। इसके कारण ही इस क्षेत्र में कपड़ा उद्योग केंद्रित है। अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक गंगा का मैदान है, जो कि विश्व के अत्यधिक उर्वर क्षेत्रों में से एक है और विश्व में सबसे गहन खेती और घनत्व जनसंख्या वाला क्षेत्र है। भारतीय वन वैसे तो असमान रूप से वितरित हैं, फिर भी वे उसकी अधिकांश जनसंख्या को हरियाली और उसके वन्य-जीवन को प्राकृतिक आवरण प्रदान करते हैं। देश में लौह-अयस्क, कोयला और प्राकृतिक गैस के भारी भंडार हैं। भारत में ही विश्व के समस्त लौह-अयस्क भंडार का 8 प्रतिशत उपलब्ध है। हमारे देश के विभिन्न भागों में बॉक्साइट, तांबा, क्रोमेट, हीरा, सोना, सीसा, भूरा कोयला, मैंगनीज, जिंक, यूरेनियम इत्यादि भी मिलते हैं। लेकिन, भारत में विकास गतिविधियों के फलस्वरूप उसके सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पड़ रहा है। इसके साथ-साथ मानव स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि पर भी उसका असर पड़ रहा है। भारत के पर्यावरण को दो तरफा खतरा है-एक तो गरीबी के कारण पर्यावरण का अपक्षय और दूसरा खतरा साधन-संपन्नता और तेजी से बढ़ते हुए औद्योगिक क्षेत्रक के प्रदूषण से है। भारत की अत्यधिक गंभीर पर्यावरण समस्याओं में वायु प्रदूषण, दूषित जल, मृदा-क्षरण, वन्य-कटाव और वन्य-जीवन की विलुप्ति है। इनमें से प्रमुख ये है-(क) भूमि अपक्षय, (ख) जैविक विविधता की हानि, (ग) शहरी क्षेत्रों में वाहन प्रदूषण से उत्पन्न वायु प्रदूषण, (घ) ताजे पानी का प्रबंधन और (ङ) ठोस अपशिष्ट प्रबंधन। भारत में भूमि का अपक्षय विभिन्न मात्रा और रूपों में हुआ है, जो कि मुख्य रूप से अस्थिर प्रयोग और अनुपयुक्त (प्रबंधन) कार्य-प्रणाली का परिणाम है।
बॉक्स 9.3: चिपको या अप्पिको-नाम में क्या रखा है?
आप चिपको आंदोलन के बारे में जानते होंगे, जिसका उद्देश्य हिमालय पर्वत में वनों का संरक्षण करना है। कर्नाटक में एक एेसे ही आंदोलन ने एक दूसरा नाम लिया-अप्पिकोे, जिसका अर्थ है बाहों में भरना। 8 सितंबर, 1983 को सिरसी जिले के सलकानी वन में वृक्ष काटे जा रहे थे। तब 160 स्त्री-पुरूष, और बच्चों ने पेड़ों को बाहों में भर लिया और लकड़ी काटने वालों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। वे अगले 6 सप्ताह तक वन की पहरेदारी करते रहे। इन स्वयंसेवकों ने वृक्षों को तभी छोड़ा, जब वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि वृक्ष वैज्ञानिक आधार पर और जिले की वन संबंधी कार्य योजना के तहत काटे जाएँगे।
जब ठेकेदार द्वारा वाणिज्यिक कटाई से अनेक प्राकृतिक वनों को हानि पहुँची, तो वृक्षों को बाहों में भर लेने के विचार ने लोगों में यह आशा और विश्वास उत्पन्न किया कि वे वनों का संरक्षण कर सकते हैं। उस विशेष घटना से जब वृक्षों की कटाई रूक गई, लोगों के द्वारा 12,000 वृक्षों को बचाया गया। कुछ ही महीनों में यह आंदोलन पास के कई जिलों में भी फैल गया।
ईधन की लकड़ी और औद्योगिकी प्रयोग के लिए पेड़ों की बेरोक-टोक कटाई से अनेक पर्यावरण समस्याओं का जन्म हुआ। उत्तर कनारा क्षेत्र में एक कागज मिल बनने के 12 साल बाद उस क्षेत्र में बाँस विलुप्त हो गये। एक किसान ने यह बतलाया कि बड़ी-बड़ी पत्तियों वाले पेड़, जो कि भूमि को वर्षा के प्रत्यक्ष आक्रमण से रक्षा करते थे, समाप्त कर दिये गये। इससे मिट्टी वर्षा जल के साथ बह गई और अब सिर्फ कंकड़ वाली मिट्टी रह गई। अब घास के अलावा वहाँ कुछ भी नहीं पैदा होता। किसान यह भी शिकायत करते हैं कि नदियाँ और उप नदियाँ जल्दी सूख रही हैं और वर्षा की मात्रा भी अनियमित हो गई है। एेसी बीमारियाँ और कीटाणु जो पहले नहीं थे, फसलों को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
अप्पिको स्वयंसेवक, ठेकेदारों और वन अधिकारियों से यह चाहते हैं कि वे कुछ नियमों तथा प्रतिबंधों का पालन करें। उदाहरण के लिए, वे चाहते हें कि काटने के लिए वृक्षों को चिह्नित करने के पूर्व स्थानीय जनता से परामर्श लिया जाए और किसी जल स्रोत के 100 मीटर क्षेत्र में और 30 डिग्री और उसके ऊपर की ढलान के वृक्षोें को न काटा जाए।
क्या आप जानते हैं कि उद्योगों को सरकार वन भूमि प्रदान करती है, ताकि वे औद्योगिक उत्पादों के लिए वनों को कच्चे माल उपलब्ध करा सकें। भले ही एक कागज मिल 10,000 मजदूरों को और एक प्लाईवुड फैक्टरी 800 लोंगों को नौकरी देती हो, परंतु यदि यह दस लाख लोगों को उनकी दैनिक आवश्यकताओं से वंचित कर देती हैै, तो क्या यह स्वीकार्य है? आप क्या सेाचते हैं?
भूमि के अपक्षय के लिए उत्तरदायी कुछ प्रमुख कारण हैंः (क) वन विनाश के फलस्वरूप वनस्पति की हानि (ख) अधारणीय जलाऊ लकड़ी और चारे का निष्कर्षण (ग) खेती-बारी (घ) वन-भूमि का अतिक्रमण (ङ) वनों में आग और अत्यधिक चराई (च) भू-संरक्षण हेतु समुचित उपायों को न अपनाया जाना (छ) अनुचित फसल चक्र (ज) कृषि-रसायन का अनुचित प्रयोग जैसे, रासायनिक खाद और कीटनाशक (झ)सिंचाई व्यवस्था का नियोजन तथा अविवेवकपूर्ण प्रबंधन (ट) भूमि जल का पुनः पूर्ण क्षमता से अधिक निष्कर्षण (ठ) संसाधनों की निर्बाध उपलब्धता और (ड.) कृषि पर निर्भर लोगों की दरिद्रता।
भारत विश्व जनसंख्या के लगभग 17 प्रतिशत और विश्व पशुधन के 20 प्रतिशत को विश्व के कुल भौगोलिक क्षेत्र के मात्र 2.5 प्रतिशत क्षेत्र में आश्रय देता है। जनसंख्या और पशुधन का अधिक घनत्व और वानिकी, कृषि, चराई, मानव बस्तियाँ और उद्योगों के प्रतिर्स्पधी उपयोगों से देश के निश्चित भू-संसाधनों पर भारी दवाब पड़ता है।
देश में प्रतिव्यक्ति जंगल भूमि केवल 0.06 हेक्टेयर है, जबकि बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह संख्या 0.47 हेक्टेयर होनी चाहिए। परिणामस्वरूप, वनों की कटाई स्वीकार्य सीमा से लगभग 15 मिलियन क्यूबिक मीटर अधिक होती है।
इन्हें कीजिए
► आर्थिक विकास में पर्यावरण के योगदान को छात्रों को समझाने के लिए निम्न खेल खेला जा सकता है। एक छात्र किसी उद्यम द्वारा प्रयुक्त किसी उत्पाद का नाम ले और दूसरा छात्र उसकी जड़ों को प्रकृति और पृथ्वी में खोज सकता है।
► एक ट्रक ड्राइवर को काले धुएँ का उत्सर्जन करने के कारण 10,000 रुपये चालान के रूप में भुगतान करना पड़ा। क्या आपने समझा किं, उसे क्यों दंड दिया गया? क्या यह सही था? चर्चा कीजिए।
मृदा-क्षरण के अनुमान यह दर्शाते हैं कि पूरे देश में एक वर्ष में भूमि का क्षरण 5.3 बिलियन टन प्रतिशत की दर से हो रहा है और इससे देश को प्रत्येक वर्ष 0.8 मिलियन टन नाइट्रोजन, 1.8 मिलियन टन फॉस्फोरस और 26.3 मिलियन टन पोटाशियम का नुकसान होता है। भारत सरकार के अनुसार प्रत्येक वर्ष भूमि क्षय से 5.8 मिलियन टन से 8.4 मिलियन टन पोषक तत्वों की क्षति होती है।
भारत में शहरी इलाकों में वायु-प्रदूषण बहुत है, जिसमें वाहनों का सर्वाधिक योगदान है। कुछ अन्य क्षेत्रों में उद्योगोें के भारी जमाव और थर्मल पावर संयंत्रों के कारण वायु प्रदूषण होता है। वाहन उत्सर्जन चिंता का प्रमुख कारण है क्योंकि यह धरातल पर वायु प्रदूषण का स्रोत है और आम जनता पर अधिकतम प्रभाव डालता है। मोटर वाहनों की संख्या 1951 के 3 लाख से बढ़कर 2016 में 23 करोड़ हो गई। 2016 में व्यक्तिगत परिवहन, वाहन (केवल दो पहिये वाहन और कार) संख्या कुल पंजीकृत वाहनों का 85 प्रतिशत थी। इस तरह ये, कुल वायु प्रदूषण बोझ में उल्लेखनीय योगदान करते हैं।
बॉक्स 9.4: प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
भारत में वायु तथा जल प्रदूषण की दो प्रमुख पर्यावरण चिंताओं से निपटने के लिए सरकार ने 1974 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB)की स्थापना की। इसके बाद, राज्य स्तर पर सभी पर्यावरण चिंताओं से निपटने के लिए राज्यों ने अपने-अपने बोर्ड बनाये। ये बोर्ड (CPCB)जल, वायु और भूमि प्रदूषण से संबंधित सूचनाओं का संकलन और वितरण करते हैं। वे कचड़े/व्यापार निकास और उत्सर्जन के मानक निर्धारित करते हैं। ये बोर्ड सरकारों को जल प्रदूषण के रोकथाम, नियंत्रण और कमी के लिए जल-धाराओं द्वारा नदियों और कुओं की स्वच्छता के संवर्धन के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं। इनका कार्य वायु की गुणवत्ता में सुधार भी है। ये देश में वायु प्रदूषण के नियंत्रण द्वारा भी सरकारों को तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं।
ये बोर्ड जल व वायु प्रदूषण से संबंधित समस्याओं की जाँच व अनुसंधान भी करते हैं और एेसी जाँच व अनुसंधान को प्रायोजित करते हैं। इसके लिए वे जन संचार के माध्यम से जन जागरूकता कार्यक्रम संगठित करते हैं। PCB कचरे व वाणिज्य अपशिष्टों के निपटान और उपचार से संबंधित नियमावली, संहिता और मार्गदर्शक सूचिका तैयार करते हैं।
उद्योगों के विनियमन द्वारा वे वायु गुणवत्ता का मूल्यांकन करते हैं। वास्तव में अपने जिला स्तरीय अधिकारियों के माध्यम से राज्य बोर्ड अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले प्रत्येक उद्योग का समय-समय पर निरीक्षण निकास और गैसीय उत्सर्जन के हेतु उपलब्ध उपायों की पर्याप्तता का विश्लेषण करने के लिए करता है। वे उद्योग-स्थान निर्धारण व नगर नियोजन के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि तथा वायु गुणवत्ता आँकड़े भी प्रदान करता है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जल प्रदूषण से संबंधित तकनीकी और सांख्यिकी आँकड़ों का संकलन, संपादन और वितरण करते हैं। ये 125 नदियों (इसमें उपनदियाँ भी शामिल हैं), कुएँ, झील, खाड़ी, तालाब, टैंक, नाले और नहरों में जल की गुणवत्ता की देखरेख करते हैं।
► निकट के कारखाने/सिंचाई विभाग में जाइए और जल तथा वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए उनके द्वारा अपनाये गये उपायों का विवरण इकट्ठा कीजिए।
► वायु तथा जल प्रदूषण से संबंधित जागरूकता कार्यक्रमों को आप समाचार-पत्रों, रेडियो और दूरदर्शन या अपने स्थानीय इलाकों में विज्ञापन-पत्रों में देखते होंगे। कुछ समाचार कतरनें, पैंफलेट और अन्य सूचनाएँ एकत्र करें और कक्षा में उन पर चर्चा करें।
भारत विश्व का दसवाँ सर्वाधिक औद्योगिक देश है। लेकिन, इसके कारण से अनचाहे और अप्रत्याशित परिणाम जैसे, अनियोजित शहरीकरण, प्रदूषण और दुर्घटनाओं का जोखिम जुड़े हुए हैं।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollutioin Control Board) ने उद्योगों की 17 श्रेणियों की पहचान बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के रूप में की है। (बॉक्स 9.4 देखें)
इन्हें कीजिए
► आप किसी भी राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र में वायु प्रदूषण के माप का स्तंभ देख सकते हैं। इस पर दिवाली से एक सप्ताह पूर्व, दिवाली के दिन और दिवाली के दो दिन बाद के समाचार काटिये। क्या आप इनके माप में कोई महत्वपूर्ण अंतर देखते हैं? अपनी कक्षा में चर्चा कीजिए।
उपर्युक्त बिंदु भारतीय पर्यावरण की चुनौतियों पर प्रकाश डालते हैं। पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय व राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा उठाये गये विभिन्न कदम तब तक कारगर नहीं होंगे, जब तक कि हम सोच-समझ कर धारणीय विकास के रास्ते को नहीं चुनते। भावी पीढ़ियों के भविष्य की दृष्टि के लिए किया गया विकास ही चिरस्थायी होगा। बिना भावी पीढ़ी की चिंता किए, अपने वर्तमान जीवन-स्तर को बढ़ाने के लिए किए विकास-कार्य संसाधनों तथा पर्यावरण का अपक्षय इस गति से करेंगे, जिससे पर्यावरण संबंधी तथा आर्थिक संकट दोनों पैदा हो सकते है।
9.4 धारणीय विकास
पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनाें एक दूसरे पर निर्भर और एक दूसरे के लिए आवश्यक हैं। अतः पर्यावरण पर होने वाले परिणामों की अवहेलना करने वाला विकास उस पर्यावरण का विनाश कर देगा, जो जीवन को धारण करता है। अतः आवश्यकता है, एेसे विकास की जो कि भावी पीढ़ियों को जीवन की संभावित औसत गुणवत्ता प्रदान करे, जो कम से कम वर्तमान पीढ़ी के द्वारा उपभोग की गई सुविधाओं के बराबर हो। धारणीय विकास की अवधारणा पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (UNCED) ने बल दिया, जिसने इसे इस प्रकार परिभाषित किया- ‘एेसा विकास जो वर्तमान पी\ढ़ी की आवश्यकताओं को भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति क्षमता का समझौता किये बिना पूरा करें’।
इस परिभाषा को दुबारा पढं़े। आप देखेंगे कि ‘आवश्यकता’ और ‘भावी पीढ़ियाँ’ ये दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। परिभाषा में आवश्यकता की अवधारणा का संबंध संसाधनों के वितरण से है। सम्मेलन की रिपोर्ट-आवर कॉमन फ्यूचर (our common future) जिसने उपर्युक्त परिभाषा दी है, धारणीय विकास की व्याख्या ‘‘सभी की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति और एक अच्छे जीवन की आकांक्षाओं की संतुष्टि के लिए सभी को अवसर प्रदान करने के रूप में की है।’’ सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधनों के पुनर्वितरण की आवश्यकता होगी, इसीलिए यह एक नैतिक प्रश्न है। एडवर्ड बारबियर ने धारणीय विकास की परिभाषा बुनियादी स्तर पर गरीबों के जीवन के भौतिक मानकों को ऊँचा उठाने के सदंर्भ मे दी है जिसे आय, वास्तविक आय, शैक्षिक सेवाएँ, स्वास्थ्य देखभाल, सफाई, जल पूर्ति इत्यादि के रूप में परिमाणात्मक रूप से मापा जा सकता है। अधिक स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं कि धारणीय विकास का लक्ष्य गरीबों की समग्र दरिद्रता को कम करके उन्हें चिरस्थायी व सुरक्षित जीविका निर्वाह साधन प्रदान करना है जिससे संसाधन अपक्षय, पर्यावरण अपक्षय, सांस्कृतिक विघटन और सामाजिक अस्थिरता न्यूनतम हो। इस अर्थ में धारणीय विकास का अर्थ उस विकास से है जो सभी की, विशेष रूप से बहुसंख्यक निर्धनों की, बुनियादी आवश्यकताओं जैसे-रोजगार, भोजन, ऊर्जा, जल, आवास आदि की पूर्ति करे और इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कृषि, विनिर्माण, बिजली और सेवाओं की वृद्धि सुनिश्चित करे।
ब्रुटलैंड कमीशन ने भावी पीढ़ी को संरक्षित करने पर जोर दिया। यह पर्यावरणविदों के उस तर्क के अनुकूल है, जिसमें उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि यह हमारा नैतिक दायित्व है कि हम भावी पीढ़ी को एक व्यवस्थित भूमंडल प्रदान करंें। दूसरे शब्दों में, वर्तमान पीढ़ी को आगामी पीढ़ी द्वारा एक बेहतर पर्यावरण उत्तराधिकार के रूप में सौंपा जाना चाहिए। कम से कम हमें आगामी पीढ़ी के जीवन के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली परिसंपत्तियों का भंडार छोड़ना चाहिए, जो कि हमें उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुआ है।
वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है कि एेसे विकास का संवर्द्धन कर प्राकृतिक और निर्मित पर्यावरण का सामंजस्य स्थापित करें जो (क) प्राकृतिक संपदा का संरक्षण (ख) विश्व की प्राकृतिक पारिस्थितिक व्यवस्था की पुनर्जनन क्षमता की सुरक्षा और (ग) भविष्य की पीढ़ियों के ऊपर अतिरिक्त खर्चे या जोखिम को हटाने के अनुकूल हो।
हरमन डेली, एक विख्यात पर्यावरणवादी अर्थशास्त्री के अनुसार धारणीय विकास की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित आवश्यकताएँ हैंः
(क) मानव जनसंख्या को पर्यावरण की धारण क्षमता के स्तर तक सीमित करना होगा। पर्यावरण की धारण क्षमता एक जहाज के भार ढोने की क्षमता के समान है। अर्थव्यवस्था में इस प्रकार की क्षमता के अभाव मेें मनुष्यों की संख्या पृथ्वी की धारण-क्षमता से अधिक हो जाती है, जो हमें धारणीय विकास से दूर ले जाते हैं।
(ख) प्रौद्योगिक प्रगति आगत-निपुण हो न कि आगत उपभोगी।
(ग) नवीकरणीय संसाधनों का निष्कर्षण धारणीय आधार पर हो ताकि किसी भी स्थिति में निष्कर्षण की दर पुनर्सृजन की दर से अधिक न हो।
(घ) गैर-नवीकरणीय संसाधनों का अपक्षय दर नवीनीकृत प्रतिस्थापकों से अधिक नहीं होनी चाहिए और
(ङ) प्रदूषण के कारण उत्पन्न अक्षमताओं का सुधार किया जाना चाहिए।
9.5 धारणीय विकास की रणनीतियाँ
ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों का उपयोग : जैसा कि आप जानते हैं कि भारत अपनी विद्युत आवश्यकताओं के लिए थर्मल और हाइड्रों पॉवर संयंत्रों पर बहुत अधिक निर्भर है। इन दोनों का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। थर्मल पॉवर संयंत्र बड़ी मात्रा में कार्बन-डाइअॉक्साइड का उत्सर्जन करते हैं, जो एक ग्रीन हाउस गैस है। थर्मल पॉवर प्लांटों से बड़ी मात्रा में धुएँ के रूप में राख भी निकलती है, जिसका उचित उपयोग न हो तो जल, भूमि और पर्यावरण के अन्य संघटकों के प्रदूषण का कारण हो सकता है। जल-विद्युत परियोजनाओं से वन जलमग्न हो जाते हैं और नदी प्रवाह क्षेत्रों तथा नदी की घाटियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप करते हैं। वायु शक्ति और सौर किरणें पारंपरिक ऊर्जा के अच्छे उदाहरण हैं, तकनीकी ज्ञान के अभाव में इसका विस्तृत रूप में अभी तक विकास नहीं हो पाया है।
इन्हें कीजिए
► दिल्ली में बसें और अन्य सार्वजनिक जन परिवहन पेट्रोल या डीजल के बजाय उच्चदाब गैस CNG का उपयोग करते हैं तथा कुछ वाहन परिवर्तनीय इंजनों का उपयोग करते हैं। सौर ऊर्जा का उपयोग स्ट्रीट लाइट के लिए किया जाता है। दिल्ली में भी सम/विषम व्यवस्था के अन्तर्गत तथाकथित विशिष्ट दिनों के लिए पंजीकृत वाहन संख्या के अनुरुप सड़कों पर वाहनों के उपयोग को प्रतिबंधित किया गया। इन परिवर्तनों के बारे में आप क्या सोचते हैं? भारत में धारणीय विकास की आवश्यकता पर अपनी कक्षा में परिचर्चा का आयोजन कीजिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में एल.पी.जी. गोबर गैसः ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले परिवार प्रायः लकड़ी, उपले और अन्य जैविक पदार्थों का इस्तेमाल ईंधन के रूप में करते हैं। इससे वन विनाश, हरित-क्षेत्र में कमी, मवेशियों के गोबर का अप्रत्यय और वायु प्रदूषण जैसे अनेक प्रतिकूल प्रभाव होते हैैं। इस स्थिति को सुधारने के लिए सहायिकी द्वारा कम कीमत पर तरल पेट्रोलियम गैस (LPG) प्रदान की जा रही है। इसके अतिरिक्त, गोबर गैस संयंत्र आसान ऋण और सहायिकी देकर उपलब्ध कराये जा रहे हैं। जहाँ तक तरल पेट्रोलियम गैस का संबंध है, यह एक स्वच्छ ईंधन है जो कि परिवारों में प्रदूषण को काफी हद तक कम करता है। इसमें ऊर्जा का अपव्यय भी न्यूनतम होता है। गोबर गैस संयंत्र को चलाने के लिए गोबर को संयंत्र में डाला जाता है और उससे गैस का उत्पादन होता है, जिसका ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। जो बच जाता है, वह एक बहुत ही अच्छा जैविक उर्वरक और मृदा अनुकूलक है।
शहरी क्षेत्रों में उच्चदाब प्राकृतिक गैस (CNG): दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में उच्चदाब प्राकृतिक गैस (CNG) के ईंधन के रूप में प्रयोग से वायु प्रदूषण बड़े पैमाने पर कम हुआ है और पिछले कुछ वर्षों से हवा स्वच्छ हुई है। अन्य भारतीय शहराें में भी सीएनजी के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
वायु शक्तिः जिन क्षेत्रों में हवा की गति आमतौर पर तीव्र होती है, वहाँ पवन चक्की से बिजली प्राप्त की जा सकती है। ऊर्जा का यह स्रोत पर्यावरण पर कोई प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं डालता। हवा के साथ-साथ टरबाइन घूमते हैं और बिजली पैदा होती है। इसमें शक नहीं कि इसमें प्रारंभिक व्यय बहुत है, लेकिन इसके लाभ एेसे हैं जो इसकी अधिक लागत को आत्मसात् कर लेते हैं।
फोटोवोल्टीय सेल द्वारा सौर शक्तिः प्राकृतिक रूप से भारत में सूर्य किरण के माध्यम से सौर ऊर्जा भारी मात्रा में उपलब्ध है। हम इसका प्रयोग विभिन्न तरीकों से करते हैं। उदाहरण के लिए, हम कप\ड़े, अनाज तथा अन्य कृषि उत्पाद और दैनिक उपयोग की विभिन्न वस्तुओं को सुखाते हैं। सर्दी में सूर्य किरण का उपयोग हम गरमाहट के लिए करते हैं। पौधे सौर ऊर्जा का प्रयोग प्रकाश-संश्लेषण के लिए करते हैं। अब फोटोवॉल्टिक सेलों की मदद से सौर ऊर्जा को विद्युत में परिवर्तन किया जा सकता है। ये सेल सौर ऊर्जा को एक विशिष्ट प्रकार के उपकरण से पकड़ते हैं और फिर ऊर्जा को बिजली में बदल देते हैं। यह प्रौद्योगिकी दूरदराज के क्षेत्रों और एेसी जगहों के लिए उपयोगी है, जहाँ ग्रिड अथवा तारों द्वारा विद्युत पूर्ति या तो संभव नहीं है अथवा खर्चीली है। यह प्रौद्योगिकी प्रदूषण से पूर्णतया मुक्त है। हाल के वर्षों में भारत सौर ऊर्जा के माध्यम से बिजली उत्पादन बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। भारत अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन नामक एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय का भी नेतृत्व कर रहा है।
लघु जलीय प्लांटः पहाड़ी इलाकों में लगभग सभी जगहों में झरने मिलते हैं। इन झरनों में से अधिकांश स्थायी होते हैं। मिनिहाइडल प्लांट इन झरनों की ऊर्जा से छोटी टरबाइन चलाते हैं। टरबाइन से बिजली का उत्पादन होता है, जिसका प्रयोग स्थानीय स्तर पर किया जा सकता है। इस प्रकार के पॉवर प्लांट पर्यावरण के लिए हितकर होते हैं, क्योंकि जहाँ वे लगाये जाते हैं वहाँ भू-उपयोग की प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं करते। इसका यह भी अर्थ है कि एेसे प्लांटों के उपयोग से बड़े-बड़े संचरण टावर (transmission towers) और तारों की इसमें जरूरत नहीं होती है और संचरण की हानि को रोका जा सकता है।
पारंपरिक ज्ञान व व्यवहारः पारंपरिक रूप से भारतीय लोग पर्यावरण के निकट रहे हैं। वे पर्यावरण के एक अंग के रूप में रहे हैं, न कि उसके नियंत्रक के रूप में। यदि हम अपनी कृषि व्यवस्था, स्वास्थ्य-सुविधा व्यवस्था, आवास, परिवहन आदि को पीछे मुड़कर देखें, तो पता चलेगा कि हमारे सभी क्रियाकलाप पर्यावरण के लिए हितकर रहे हैं। लेकिन, आजकल हम अपनी पांरपरिक प्रणालियों से दूर हो गये हैं, जिससे हमारे पर्यावरण और हमारी ग्रामीण विरासत को भारी मात्रा में हानि पहुँची है। अब समय आ गया है कि हम पारंपरिक ज्ञान पर ध्यान दें। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वास्थ्य की देखभाल है। भारत बहुत ही सौभाग्यशाली है। यहाँ औषधिगुण से युक्त पौधों की लगभग 15,000 प्रजातियाँ हैं। इनमें से लगभग 8,000 जड़ी-बूटियों का प्रयोग उपचार की विभिन्न प्रणालियों में लोक-परंपरा सहित नियमित रूप से होता है। उपचार की पश्चिमी पद्धति के अचानक आ जाने से हमने पारंपरिक प्रणालियों जैसे, आयुर्वेदिक, यूनानी, तिब्बती व लोक प्रणालियों की अवहेलना शुरू की। अब इन स्वास्थ्य प्रणालियों की माँग पुराने रोगों के उपचार के लिए फिर से हो रही है। आजकल सभी सौंदर्य उत्पाद जैसे, बालों के लिए तेल, टूथपेस्ट, शरीर के लिए लोशन, चेहरे की क्रीम इत्यादि हर्बल हैं। ये उत्पाद न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं बल्कि उनसे कोई हानि नहीं होती और उनके लिए बड़ी मात्रा में किसी औद्योगिक और रासायनिक प्रक्रिया का सहारा भी नहीं लेना पड़ता।
जैविक कंपोस्ट खादः पिछले पाँच दशकों में कृषि उत्पादन बढ़ाने की कोशिश में हमने जैविक कंपोस्ट खाद की अवहेलना की और पूरी तरह से रासायनिक खाद का उपयोग करने लगे। इससे मात्रा में उर्वर भूमि पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। रासायनिक प्रदूषण से जल व्यवस्था, विशेषकर भूतल जल प्रणाली, दूषित हुई। यह भी सही है कि प्रत्येक वर्ष सिंचाई की माँग में बढ़ोत्तरी हो रही है।
पूरे देश में अब भारी संख्या मेें किसान विभिन्न जैविक अवशिष्टों जैसे, करकट से बनी कंपोस्ट खाद का उपयोग कर रहे हैं। देश के कुछ भागों में जानवर इसलिए पाले जाते हैं, जिससे वे गोबर दे सकें। जो महत्वपूर्ण खाद है और मिट्टी को उर्वर बनाता है। केंचुए सामान्यतः कंपोस्ट खाद प्रक्रिया की अपेक्षा तीव्रता से जैविक वस्तुओं को कंपोस्ट में बदल सकते हैं। इस प्रक्रिया का अब व्यापक तौर पर प्रयोग हो रहा है। इससे नागरिक प्रशासन अधिकारियों को भी अप्रत्यक्ष रूप से लाभ होता है, क्योंकि उन्हें कम कूड़ा हटाना पड़ता है।
जैविक-कीट नियंत्रणः हरित क्रांति के आगमन के बाद, अधिक उत्पाद के लिए पूरे देश में रासायनिक कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग होने लगा। इससे बहुत जल्दी प्रतिकूल प्रभाव दिखने लगे। भोज्य पदार्थ दूषित हो गये। मृदा, जलाशय, यहाँ तक कि भूतल जल भी कीटनाशकों के कारण प्रदूषित हो गये। दूध, माँस और मछलियाँ भी दूषित पाई गई।
इस चुनौती का सामना करने के लिए अब बेहतर कीट नियंत्रक तरीकों को बनाने के प्रयास हो रहे हैं। इनमें से एक उपाय पौधों के उत्पाद पर आधारित कीटनाशकों का उपयोग है। नीम के पेड़ इसमें काफी उपयोगी साबित हो रहे हैं। नीम से अनेक प्रकार के कीट नियंत्रक रसायन बनाये गये हैं और उनका उपयोग हो रहा है। मिश्रित फसल और एक ही भूमि पर लगातार कई वर्षों तक अलग-अलग फसलों के उत्पादन से भी किसानों को लाभ पहुँचा है।
इसके अतिरिक्त, विभिन्न जानवर और पक्षियों के बारे में जागरूकता बढ़ी है जो कीट नियंत्रण में सहायक है। उदाहरण के लिए, साँप, चूहों और अनेक प्रकार के कीड़ों को खा जाता है। इसी प्रकार उल्लू, मोर जैसे पक्षी अनेक हानिकारक कीटों का भक्षण करते हैं। यदि हम इन्हें कृषि क्षेत्र में रहने दें तो वे काफी संख्या में कीटों का नाश कर देंगे। इस संबंध में छिपकली भी उपयोगी है। हमें उनकी कीमत समझनी चाहिए और उनका संरक्षण होना चाहिए।
आजकल धारणीय विकास शब्द बहुत लोकप्रिय हो गया है। विकास की विचारधारा में निश्चय ही यह एक दृष्टांत परिवर्तन है। कई प्रकार से इसकी व्याख्या भी की गई है। लेकिन, इस मार्ग को अपनाने से चिरस्थायी विकास और सभी के लिए कल्याण सुनिश्चित होगा।
9.6 निष्कर्ष
आर्थिक विकास से, जिसका लक्ष्य बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन को बढ़ाना है, पर्यावरण पर बहुत दबाव पड़ता है। विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में पर्यावरण संसाधनों की माँग पूर्ति से कम थी। अब विश्व के समक्ष पर्यावरण संसाधनों की बढ़ती माँग है, लेकिन उनकी पूर्ति अत्यधिक उपयोग व दुरूपयोग की वजह से सीमित है। धारणीय विकास का लक्ष्य उस प्रकार के विकास का संवर्द्धन है, जोकि पर्यावरण समस्याओं को कम करे और भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता से समझौता किए बिना, वर्तमान पीढ़ी की ज़रूरतों को पूरा करे।
पुनरावर्तन
► पर्यावरण के चार कार्य हैंः संसाधन पूर्ति, अपशिष्ट-विसर्जन, जननिक और जैविक विविधता प्रदान करते हुए जीवन का पोषण तथा सौदर्य सेवाएँ प्रदान करना।
► जनसंख्या विस्फोट, प्रचुर मात्रा में उपभोग और उत्पादन ने पर्यावरण पर भारी दबाव डाला है।
► भारत में विकास कार्यों ने प्राकृतिक संसाधनों की निश्चित परिभाषा पर दबाव डाला है। इससे मानव स्वास्थ्य और सुख समृद्धि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
► भारत के पर्यावरण पर दो प्रकार के संकट मँडरा रहे हैं-पहला संकट तो निर्धनताजनित पर्यावरण क्षय का है और दूसरा संकट संपन्नता तथा तेजी से बढ़ते औद्योगिक क्षेत्रक से हो रहे प्रदूषण का है।
► यद्यपि सरकार अनेक प्रकार के प्रयासों से पर्यावरण की रक्षा करने का यत्न कर रही है, फिर भी धारणीय विकास का मार्ग अपनाना आवश्यक है।
► धारणीय विकास का अर्थ वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को इस प्रकार पूरा करना है कि भविष्य की पीढ़ियों को अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने में किसी बाधा का सामना न करना पड़े।
► प्राकृतिक संसाधनों के संवर्द्धन, सरंक्षण और पारिस्थितिक पुनर्जनन क्षमता को बनाए रखने और भावी पीढ़ियों के लिए पर्यावरणीय सकंटों के निवारण से ही धारणीय विकास संभव हो पाएगा
अभ्यास
1. पर्यावरण से आप क्या समझते हैं?
2. जब संसाधन निस्सरण की दर उनके पुनर्जनन की दर से बढ़ जाती है, तो क्या होता है?
3. निम्न को नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय संसाधनों में वर्गीकृत करें।
(क)वृक्ष (ख) मछली (ग) पेट्रोलियम (घ) कोयला (ङ) लौह अयस्क (च) जल
4. आजकल विश्व के सामने ..... और ..... की दो प्रमुख पर्यावरण समस्याएँ हैं।
5. निम्न कारक भारत में कैसे पर्यावरण संकट में योगदान करते हैं? सरकार के समक्ष वे कौन-सी समस्याएँ पैदा करते हैंः
• बढ़़ती जनसंख्या
• वायु-प्रदूषण
• जल-प्रदूषण
• संपन्न उपभोग मानक
• निरक्षरता
• औद्योगीकरण
• शहरीकरण
• वन-क्षेत्र में कमी
• अवैध वन कटाई और
• वैश्विक उष्णता
6. पर्यावरण के क्या कार्य होते हैं?
7. भारत में भू-क्षय के लिए उत्तरदायी छह कारकों की पहचान करें।
8. समझायें कि नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों की अवसर लागत उच्च क्यों होती है?
9. भारत में धारणीय विकास की प्राप्ति के लिए उपयुक्त उपायों की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
10. भारत में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है-इस कथन के समर्थन में तर्क दें।
11. क्या पर्यावरण संकट एक नवीन परिघटना है? यदि हाँ, तो क्यों?
12. इनके दो उदाहरण दें-
(क) पर्यावरणीय संसाधनों का अति प्रयोग
(ख) पर्यावरणीय संसाधनों का दुरुपयोग
13. पर्यावरण की चार प्रमुख क्रियाओं का वर्णन कीजिए।
14. महत्त्वपूर्ण मुद्दों की व्याख्या कीजिए। पर्यावरणीय हानि की भरपाई की अवसर लागतें भी होती हैं? व्याख्या कीजिए।
15. पर्यावरणीय संसाधनों की पूर्ति-मांग के उत्क्रमण की व्याख्या कीजिए।
16. वर्तमान पर्यावरण संकट का वर्णन करें।
17. भारत में विकास के दो गंभीर नकारात्मक पर्यावरण प्रभावों को उजागर करें। भारत की पर्यावरण समस्याओं में एक विरोधाभास है – एक तो यह निर्धनताजनित है और दूसरे जीवन-स्तर में संपन्नता का कारण भी है। क्या यह सत्य है?
18. धारणीय विकास क्या है?
19. अपने आस-पास के क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए धारणीय विकास की चार रणनीतियाँ सुझाइए।
20. धारणीय विकास की परिभाषा में वर्तमान और भावी पी\ढ़ियों के बीच समता के विचार की व्याख्या करें।
अतिरिक्त गतिविधियाँ
1. मान लीजिए कि महानगरों की सड़कों पर 70 लाख कारें और आ रही हैं। आपके विचार में किस प्रकार के संसाधन घटते जा रहे होंगे। व्याख्या करें।
2. उन मदों की सूची बनाइए, जिन्हें पुनः प्रयोग के योग्य बनाया जा सकता है।
3. भारत में मृदा अपरदन के कारणों और उसके बचाव की युक्तियों पर एक चार्ट बनाइए।
4. जनसंख्या विस्फोट पर्यावरणीय संकट में किस प्रकार योगदान देता है। कक्षा में परिचर्चा का आयोजन करें।
5. ‘पर्यावरणीय हानि की भरपाई करने के लिए राष्ट्र को बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।’ चर्चा करें।
6. आपके गाँव में एक कागज का कारखाना लगाया जाता है। सामाजिक कार्यकर्ता, उद्योगपति और ग्रामीणों के समूह के साथ इस विषय में एक लघु नाटिका का आयोजन करें।
संदर्भ
पुस्तकें
अग्रवाल अनिल एंड सुनीता नारायन 1996. ग्लोबल वाερंमग इन एन अनइक्वल वर्ल्ड, सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट, रिप्रिंट एडिशन, नई दिल्ली।
भरूचा इरेच 2005. टेक्स्ट बुक अॉफ इनवायरमेंटल स्टडीज फॉर अंडरग्रेजुएट कोर्स, यूनिवर्सिटी प्रेस (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड।
सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट 1996. स्टेट अॉफ इंडियाज इनवायरमेंट
1: द फर्स्ट सिटीजन्स रिपोर्ट, 1982. रिप्रिंट एडिशन, नई दिल्ली।
सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट 1996 स्टेट अॉफ इंडियाज इनवायरमेंट
2: द सेकेंड सिटीजन्स रिपोर्ट 1985. रिप्रिंट एडिशन, नई दिल्ली।
एम. करपगम 2001. इनवायरमेंटल इकोनॉमिक्स: ए टेक्स्ट बुक स्टरलिंग पब्लिशर्स, नई दिल्ली।
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शुमेकर ई. एफ, स्मॉल एंड ब्यूटीफुल, एबसस पब्लिशर्स
रिपोर्ट
सेंटर फॉर साईंस एण्ड इनवायरमेंट-2016, स्टेट अॉफ इंडिया इनवायरमेंट (फॉर वेरियस इयर्स)सेंटर फॉर साईंस एण्ड इनवायरमेंट, नई दिल्ली
पत्रिकाएँ
साइंटिफिक अमेरिकन इंडो-स्पेशल इश्यू सितंबर 2005. ‘प्लानेट अर्थ अॉन एेज’,
डाउन टू अर्थ, सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट, नई दिल्ली
वेबसाइट
http://envfor.nic.in
http://cpcb.nic.in
http://www.cseindia.org