अध्याय 5

प्राकृतिक वनस्पति

क्या आप कभी पिकनिक के लिए जंगल गए हैं? अगर आप शहर में रहते हैं तो अवश्य ही पार्क गए होंगे और अगर गाँव में रहते हैं तो आम, अमरूद या नारियल के बगीचे में गए होंगे। आप प्राकृतिक और मानव रोपित वनस्पति में कैसे अंतर करते हैं, जो पौधा जंगल में प्राकृतिक परिस्थितियों में फलता-फूलता है, वही पेड़ आपके बगीचे में मानव देख-रेख में उगाया जा सकता है।

प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय उसी पौधा समुदाय से है, जो लंबे समय तक बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के उगता है और इसकी विभिन्न प्रजातियाँ वहाँ पाई जाने वाली मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों में यथासंभव स्वयं को ढाल लेती हैं।

भारत में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। हिमालय पर्वतों पर शीतोष्ण कटिबंधीय वनस्पति उगती है; पश्चिमी घाट तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन पाए जाते हैं; डेल्टा क्षेत्रों में उष्ण कटिबंधीय वन व मैंग्रोव तथा राजस्थान के मरुस्थलीय और अर्ध-मरुस्थलीय क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की झा\ड़ियाँ, कैक्टस और कांटेदार वनस्पति पाई जाती है। मिट्टी और जलवायु में विभिन्नता के कारण भारत में वनस्पति में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।

प्रमुख वनस्पति प्रकार तथा जलवायु परिस्थिति के आधार पर भारतीय वनों को निम्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है :

वनों के प्रकार

(i) उष्ण कटिबंधीय सदाबहार एवं अर्ध-सदाबहार वन

(ii) उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन

(iii) उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन

(iv) पर्वतीय वन

(v) वेलांचली व अनूप वन

उष्ण कटिबंधीय सदाबहार एवं अर्ध-सदाबहार वन

ये वन पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढाल पर, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की पहाड़ियों पर और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं। ये उन उष्ण और आर्द्र प्रदेशों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है और औसत वार्षिक तापमान 22° सेल्सियस से अधिक रहता है। उष्ण कटिबंधीय वन सघन और पर्तों वाले होते हैं, जहाँ भूमि के नजदीक झाड़ियाँ और बेलें होती हैं, इनके ऊपर छोटे कद वाले पेड़ और सबसे ऊपर लंबे पेड़ होते हैं। इन वनों में वृक्षों की लंबाई 60 मीटर या उससे भी अधिक हो सकती है। चूँकि, इन पेड़ों के पत्ते झड़ने, फूल आने और फल लगने का समय अलग-अलग है, इसलिए ये वर्ष भर हरे-भरे दिखाई देते हैं। इसमें पाई जाने वाले मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ रोजवुड, महोगनी, एेनी और एबनी हैं।

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चित्र 5.1 : सदाबहार वन

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चित्र 5.2 : प्राकृतिक वनस्पति

अर्ध-सदाबहार वन, इन्हीं क्षेत्रों में, अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले भागों में पाए जाते हैं। ये वन सदाबहार और आर्द्र पर्णपाती वनों के मिश्रित रूप हैं। इनमें मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ साइडर, होलक और कैल हैं।

अंग्रेज, भारत में वनों की आर्थिक महत्ता को समझते थे और इसीलिए उन्होंने इनका बड़े पैमाने पर दोहन करना शुरू किया। इससे वनों की संरचना भी बदलती चली गई। गढ़वाल और कुमाऊँ में पाए जाने वाले ओक के स्थान पर चीड़ के पेड़ उगाए गए, जो रेल पटरी बिछाने के लिए आवश्यक थे। चाय, कॉफी और रबड़ के बागान लगाने के लिए भी वनों को साफ किया गया। लकड़ी ऊष्मा रोधक होती है, इसलिए अंग्रेजों ने इसका प्रयोग इमारत निर्माण में भी भरपूर मात्रा में किया। इस तरह से संरक्षण को भूलकर वनों का व्यापारिक इस्तेमाल शुरू हुआ।

उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन

भारतवर्ष में, ये वन बहुतायत में पाए जाते हैं। इन्हें मानसून वन भी कहा जाता है। ये वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से 200 सेंटीमीटर होती है। जल उपलब्धता के आधार पर इन वनों को आर्द्र और शुष्क पर्णपाती वनों में विभाजित किया जाता है।

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चित्र 5.3 ः पर्णपाती वन

आर्द्र पर्णपातीउन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 100 से 200 सेंटीमीटर होती है। ये वन उत्तर-पूर्वी राज्यों और हिमालय के गिरीपद, पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों और ओडिशा में उगते हैं। सागवान, साल, शीशम, हुर्रा, महुआ, आँवला, सेमल, कुसुम और चंदन आदि प्रजातियों के वृक्ष इन वनों में पाए जाते हैं।

शुष्क पर्णपाती वन, देश के उन विस्तृत भागों में मिलते हैं, जहाँ वर्षा 70 से 100 सेंटीमीटर होती है। आर्द्र क्षेत्रों की ओर ये वन आर्द्र पर्णपाती और शुष्क क्षेत्रों की ओर काँटेदार वनों में मिल जाते हैं। ये वन प्रायद्वीप में अधिक वर्षा वाले भागों और उत्तर प्रदेश व बिहार के मैदानी भागों में पाए जाते हैं। अधिक वर्षा वाले प्रायद्वीपीय पठार और उत्तर भारत के मैदानों में ये वन पार्कनुमा भूदृश्य बनाते हैं, जहाँ सागवान और अन्य पेड़ों के बीच हरी-भरी घास होती है। शुष्क ऋतु शुरू होते ही इन पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं और घास के मैदान में नग्न पेड़ खड़े रह जाते हैं। इन वनों में पाए जाने वाले मुख्य पेड़ों में तेंदु, पलास, अमलतास, बेल, खैर और अक्सलवूड (Axlewood) इत्यादि हैं। राजस्थान के पश्चिमी और दक्षिणी भागों में कम वर्षा और अत्यधिक पशु चारण के कारण प्राकृतिक वनस्पति बहुत विरल है।

उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वन

उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 50 सेंटीमीटर से कम होती है। इन वनाें में कई प्रकार के घास और झाड़ियाँ शामिल हैं। इसमें दक्षिण-पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अर्ध-शुष्क क्षेत्र शामिल हैं। इन वनों में पौधे लगभग पूरे वर्ष पर्णरहित रहते हैं और झाड़ियों जैसे लगते हैं। इनमें पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियाँ बबूल, बेर, खजूर, खैर, नीम, खेजड़ी और पलास इत्यादि हैं। इन वृक्षों के नीचे लगभग 2 मीटर लंबी गुच्छ घास उगती है।

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चित्र 5.4 : उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन

पर्वतीय वन

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई के साथ तापमान घटने के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति में भी बदलाव आता है। इन वनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है - उत्तरी पर्वतीय वन और दक्षिणी पर्वतीय वन।

ऊँचाई बढ़ने के साथ हिमालय पर्वत शृंखला में उष्ण कटिबंधीय वनों से टुण्ड्रा में पाई जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति पायी जाती है। हिमालय के गिरीपद पर पर्णपाती वन पाए जाते हैं। इसके बाद 1,000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई पर आर्द्र शीतोष्ण कटिबंधीय प्रकार के वन पाए जाते हैं। उत्तर-पूर्वी भारत की उच्चतर पहाड़ी शृंखलाओं और पश्चिम बंगाल और उत्तरांचल के पहाड़ी इलाकों में चौड़े पत्तों वाले ओक और चेस्टनट जैसे सदाबहार वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में 1,500 से 1,750 मीटर की ऊँचाई पर व्यापारिक महत्त्व वाले ची\ड़ के वन पाए जाते हैं। हिमालय के पश्चिमी भाग में बहुमूल्य वृक्ष प्रजाति देवदार के वन पाए जाते हैं। देवदार की लकड़ी अधिक मजबूत होती है और निर्माण कार्य में प्रयुक्त होती है। इसी तरह चिनार और वालन जिसकी लकड़ी कश्मीर हस्तशिल्प के लिए इस्तेमाल होती है, पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। बल्यूपाइन और स्प्रूस 2,225 से 3,048 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इस ऊँचाई पर कई स्थानों पर शीतोष्ण कटिबंधीय घास भी उगती है। इससे अधिक ऊँचाई पर एल्पाईन वन और चारागाह पाए जाते हैं। 3,000 से 4,000 मीटर की ऊँचाई पर सिल्वर फर, जूनिपर, पाइन, बर्च और रोडोडेन्ड्रॉन आदि वृक्ष मिलते हैं। ऋतु-प्रवास करने वाले समुदाय जैसे गुज्जर, बकरवाल, गड्ढी और भुटिया, इन चरागाहों का पशु चारण के लिए भरपूर प्रयोग करते हैं। शुष्क उत्तरी ढालों की तुलना में अधिक वर्षा वाले हिमालय के दक्षिणी ढालों पर अधिक वनस्पति पाई जाती है। अधिक ऊँचाई वाले भागों में टुण्ड्रा वनस्पति जैसे मॉस व लाइकन आदि पाई जाती है।

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चित्र 5.5 : पर्वतीय वन

दक्षिणी पर्वतीय वन मुख्यतः प्रायद्वीप के तीन भागों में मिलते हैं : पश्चिमी घाट, विंध्याचल और नीलगिरी पर्वत शृंखलाएँ। चूँकि, ये शृंखलाएँ उष्ण कटिबंध में पड़ती हैं और इनकी समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1,500 मीटर ही है, इसलिए यहाँ ऊँचाई वाले क्षेत्र में शीतोष्ण कटिबंधीय और निचले क्षेत्रों में उपोष्ण कटिबंधीय प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक प्रांतों, में पश्चिमी घाट में इस तरह की वनस्पति विशेषकर पाई जाती है। नीलगिरी, अन्नामलाई और पालनी पहाड़ियों पर पाए जाने वाले शीतोष्ण कटिबंधीय वनों को ‘शोलास’ के नाम से जाना जाता है। इन वनों में पाए जाने वाले वृक्षों मगनोलिया, लैरेल, सिनकोना और वैटल का आर्थिक महत्त्व है। ये वन सतपुड़ा और मैकाल श्रेणियों में भी पाए जाते हैं।

वेलांचली व अनूप वन

भारत में विभिन्न प्रकार के आर्द्र व अनूप आवास पाए जाते हैं। इसके 70 प्रतिशत भाग पर चावल की खेती की जाती है। भारत में लगभग 39 लाख हेक्टेयर भूमि आर्द्र है। ओडिशा में चिलका और भरतपुर में केउलादेव राष्ट्रीय पार्क, अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्र भूमियों के अधिवेशन (रामसर अधिवेशन) के अंतर्गत रक्षित जलकुक्कुट आवास हैं।

अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के बीच एक समझौता है।

हमारे देश की आर्द्र भूमि को आठ वर्गों में रखा गया है, जो इस प्रकार हैंः (i) दक्षिण में दक्कन पठार के जलाशय और दक्षिण-पश्चिमी तटीय क्षेत्र की लैगून व अन्य आर्द्र भूमि; (ii) राजस्थान, गुजरात और कच्छ की खारे जल वाली भूमि; (iii) गुजरात-राजस्थान से पूर्व (केउलादेव राष्ट्रीय पार्क) और मध्य प्रदेश की ताजा जल वाली झीलें व जलाशय; (iv) भारत के पूर्वी तट पर डेल्टाई आर्द्र भूमि व लैगून (चिलका झील आदि); (v) गंगा के मैदान में ताजा जल वाले कच्छ क्षेत्र; (vi) ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ के मैदान व उत्तर-पूर्वी भारत और हिमालय गिरीपद के कच्छ एवं अनूप क्षेत्र; (vii) कश्मीर और लद्दाख की पर्वतीय झीलें और नदियाँ; (viii) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के द्वीप चापों के मैंग्रोव वन और दूसरे आर्द्र क्षेत्र। मैंग्रोव लवण कच्छ, ज्वारीय सँकरी खाड़ी, पंक मैदानों और ज्वारनदमुख के तटीय क्षेत्रों पर उगते हैं। इसमें बहुत से लवण से न प्रभावित होने वाले पेड़-पौधे होते हैं। बंधे जल व ज्वारीय प्रवाह की सँकरी खाड़ियों से आड़े-तिरछे ये वन विभिन्न किस्म के पक्षियों को आश्रय प्रदान करते हैं।

भारत में मैंग्रोव वन 6,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं, जो विश्व के मैंग्रोव क्षेत्र का 7 प्रतिशत है। ये अंडमान और निकोबार द्वीप समूह व पश्चिम बंगाल के सुंदर वन डेल्टा में अत्यधिक विकसित हैं। इसके अलावा ये महानदी, गोदावरी और कृष्णा नदियों के डेल्टाई भाग में पाए जाते हैं। इन वनों में बढ़ते अतिक्रमण के कारण इनका संरक्षण आवश्यक हो गया है।

भारत में वन आवरण

राजस्व विभाग से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार भारत में 23.28 प्रतिशत भाग पर वन हैं। उल्लेखनीय यह है कि आँकड़ों के अनुसार वन क्षेत्र और वास्तविक वन आवरण अलग-अलग हैं। वन क्षेत्र राजस्व विभाग के अनुसार अधिसूचित क्षेत्र है, चाहे वहाँ वृक्ष हों या न हों, जबकि वन आवरण प्राकृतिक वनस्पति का झुरमुट है और वास्तविक रूप में वनों से ढका है। वन क्षेत्र राज्यों के राजस्व विभाग से प्राप्त होता है, जबकि वन आवरण की पहचान वायु चित्रों और उपग्रह से प्राप्त चित्रों से की जाती है। इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2011 के अनुसार वास्तविक वन आवरण केवल 21.05 प्रतिशत है। उनमें से 12.29 प्रतिशत भाग पर सघन वन और 8.75 प्रतिशत पर विवृत वन पाए जाते हैं।

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चित्र 5.6 : मैंग्रोव वन

वन क्षेत्र और वन आवरण दोनों में ही राज्यवार भिन्नता पाई जाती हैं। जहाँ लक्षद्वीप में वन क्षेत्र शून्य है, वहीं अंडमान और निकोबार में 86.93 प्रतिशत क्षेत्र वन के अधीन है। 10 प्रतिशत से कम वन क्षेत्र वाले राज्य मुख्य तौर पर देश के उत्तर और उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित हैं। ये राज्य राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, और दिल्ली हैं। गुजरात, राजस्थान और हरियाणा तो अर्ध शुष्क इलाके हैं। पंजाब और हरियाणा के अधिकतर वनों को कृषि के लिए साफ कर दिया गया है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल उन राज्यों में से हैं, जिनके 10 से 20 प्रतिशत भाग पर वन पाए जाते हैं। प्रायद्वीपीय भारत में दादर और नगर हवेली, तमिलनाडु और गोवा को छोड़कर शेष सभी राज्यों में 20 से 30 प्रतिशत भूमि वनों के अधीन है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में 30 प्रतिशत से अधिक भूमि पर वन पाए जाते हैं। पर्वतीय स्थलाकृति और अधिक वर्षा वन विकास के लिए उपयुक्त होती है।

वन क्षेत्र की तरह वास्तविक वन आवरण में भी भिन्नताएँ पाई जाती हैं, जो कि जम्मू और कश्मीर में 9.5 प्रतिशत से अंडमान-निकोबार में 84.01 प्रतिशत तक है। भारत में वनों की वितरण तालिका (परिशिष्ट IV) से यह स्पष्ट होता है कि 15 राज्यों में कुल भूमि के 33 प्रतिशत से अधिक भाग पर वन पाए जाते हैं, जो कि पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए एक आधारभूत आवश्यकता है।

वास्तविक वन आवरण के अधीन क्षेत्र के आधार पर राज्यों को चार प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है।

प्रदेश  वन आवरण का प्रतिशत
(i) अधिक वन संकेंद्रण वाले प्रदेश
(ii) मध्यम वन संकेंद्रण वाले प्रदेश
(iii) कम वन संकेंद्रण वाले प्रदेश
(iv) अति कम वन संकेंद्रण वाले प्रदेश
 > 40
20 - 40
10 - 20
< 10

परिशिष्ट-IV से आँकड़े लेकर, राज्यों को चार वन आवरण क्षेत्रों में विभाजित करो।

वन और जीवन

असंख्य जनजातीय लोगों के लिए वन एक आवास, रोजी-रोटी और अस्तित्त्व है। ये उन्हें भोजन, फल, खाने लायक वनस्पति, शहद, पौष्टिक जड़ें और शिकार के लिए वन्य जानवर प्रदान करते हैं। ये उन्हें घर बनाने का सामान और कलाकारी की वस्तुएँ देते हैं। जनजातीय समुदायों के लिए वनों की महत्ता सभी जानते हैं, क्योंकि ये उनके जीवन और आर्थिक क्रियाओं के आधार हैं। साधारणतया यह माना जाता है कि भारत के 593 जिलों में से 188 जनजातीय जिलें हैं। ये जनजातीय जिले भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 33.63 प्रतिशत हिस्सा है, परन्तु देश का 59.61 प्रतिशत वन आवरण इन्हीं जिलों में पाया जाता है। इससे पता चलता है कि जनजातीय जिले वन संपदा के धनी हैं।

वनों और जनजाति समुदायों में घनिष्ठ संबंध है और इनमें से एक का विकास दूसरे के बिना असंभव है। वनों के विषय में इनके प्राचीन व्यावहारिक ज्ञान को वन विकास में प्रयोग किया जा सकता है। जनजातियों को वनों से गौण उत्पाद संग्रह करने वाले न समझ कर, उन्हें वन संरक्षण में भागीदार बनाया जाना चाहिए।

वन संरक्षण

वनों का जीवन और पर्यावरण के साथ जटिल संबंध है। वन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमें बहुत आर्थिक व सामाजिक लाभ पहुँचाते हैं। अतः वनों के संरक्षण की मानवीय विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। फलस्वरूप भारत सरकार ने पूरे देश के लिए वन संरक्षण नीति 1952 में लागू की जिसे 1988 में संशोधित किया गया। इस नई वन नीति के अनुसार सरकार सतत्पोष्णीय वन प्रबंध पर बल देगी जिससे एक ओर वन संसाधनों का संरक्षण व विकास किया जाएगा और दूसरी तरफ स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाएगा।

इस वन नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हैं : (i) देश में 33 प्रतिशत भाग पर वन लगाना, जो वर्तमान राष्ट्रीय स्तर से 6 प्रतिशत अधिक है; (ii) पर्यावरण संतुलन बनाए रखना तथा पारिस्थितिक असंतुलित क्षेत्रों में वन लगाना; (iii) देश की प्राकृतिक धरोहर, जैव विविधता तथा आनुवांशिक पूल का संरक्षण; (iv) मृदा अपरदन और मरुस्थलीकरण रोकना तथा बाढ़ व सूखा नियंत्रण; (v) निम्नीकृत भूमि पर सामाजिक वानिकी एवं वनरोपण द्वारा वन आवरण का विस्तार; (vi) वनों की उत्पादकता बढ़ाकर वनों पर निर्भर ग्रामीण जनजातियों को इमारती लकड़ी, ईंधन, चारा और भोजन उपलब्ध करवाना और लकड़ी के स्थान पर अन्य वस्तुओं को प्रयोग में लाना; (vii) पेड़ लगाने को बढ़ावा देने के लिए, पे\ड़ों की कटाई रोकने के लिए जन-आंदोलन चलाना, जिसमें महिलाएँ भी शामिल हों, ताकि वनों पर दबाव कम हो।

इस वन संरक्षण नीति के अंतर्गत निम्न कदम उठाए गए हैं।

सामाजिक वानिकी

सामाजिक वानिकी का अर्थ है पर्यावरणीय, सामाजिक व ग्रामीण विकास में मदद के उद्देश्य से वनों का प्रबंध और सुरक्षा तथा ऊसर भूमि पर वनरोपण।

राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976-79) ने सामाजिक वानिकी को तीन वर्गों में बाँटा है - शहरी वानिकी, ग्रामीण वानिकी और फार्म वानिकी।

शहरों और उनके इर्द-गिर्द निजी व सार्वजनिक भूमि, जैसे - हरित पट्टी, पार्क, स\ड़कों के साथ जगह, औद्योगिक व व्यापारिक स्थलों पर वृक्ष लगाना और उनका प्रबंध शहरी वानिकी के अंतर्गत आता है।

ग्रामीण वानिकी में कृषि वानिकी और समुदाय कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जाता है।

कृषि वानिकी का अर्थ है कृषियोग्य तथा बंजर भूमि पर पेड़ और फसलें एक साथ लगाना। इसका अभिप्राय है वानिकी और खेती एक साथ करना, जिससे खाद्यान्न, चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी और फलों का उत्पादन एक साथ किया जाए। समुदाय वानिकी में सार्वजनिक भूमि, जैसे- गाँव-चरागाह, मंदिर-भूमि, सड़कों के दोनों ओर, नहर किनारे, रेल पट्टी के साथ पटरी और विद्यालयों में पेड़ लगाना शामिल है। इसका उद्देश्य पूरे समुदाय को लाभ पहुँचाना है। इस योजना का एक उद्देश्य भूमिविहीन लोगों को वानिकीकरण से जोड़ना तथा इससे उन्हें वे लाभ पहुँचाना जो केवल भूस्वामियों को ही प्राप्त होते हैं।

फार्म वानिकी

फार्म वानिकी के अंतर्गत किसान अपने खेतों में व्यापारिक महत्त्व वाले या दूसरे पेड़ लगाते हैं। वन विभाग, इसके लिए छोटे और मध्यम किसानों को निःशुल्क पौधे उपलब्ध कराता है। इस योजना के तहत कई तरह की भूमि, जैसे - खेतों की मेडें, चरागाह, घासस्थल, घर के पास पड़ी खाली जमीन और पशुओं के बाड़ों में भी पेड़ लगाए जाते हैं।

वन्य प्राणी

आपने चिड़िया घर में पिंजरों में जंतु और पक्षी दोनों देखे होंगे। भारत में वन्य प्राणी एक महान प्राकृतिक धरोहर है। यह अनुमान लगाया गया है कि विश्व के ज्ञात पौधों और प्राणियों की किस्मों में से 4-5 प्रतिशत किस्में भारत में पाई जाती हैं। हमारे देश में इतने बड़े पैमाने पर जैव विविधता पाए जाने का कारण यहाँ पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र हैं, जिन्हें हमने युगों से संरक्षित रखा है। समय के साथ पारिस्थितिकी तंत्रों के आवास मानव क्रियाओं द्वारा प्रभावित हुए और परिणामस्वरूप जैव प्रजातियों की संख्या काफी कम हो गई है। कुछ जैव प्रजातियाँ तो लुप्त होने के कगार पर हैं।

वन्य प्राणियों की संख्या कम होने के मुख्य कारण इस प्रकार हैं :

(i) औद्योगिकी और तकनीकी विकास के कारण वनों के दोहन की गति तेज हुई;

(ii) खेती, मानवीय बस्ती, सड़कों, खदानों, जलाशयों इत्यादि के लिए जमीन से वनों को साफ किया गया;

(iii) स्थानीय लोगों ने चारे, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए वनों से पेड़ काटे और वनों पर दबाव बढ़ाया;

(iv) पालतू पशुओं के लिए नए चरागाहों की खोज में मानव ने वन्य जीवों और उनके आवासों को नष्ट किया;

(v) रजवाड़ों तथा सम्भ्रांत वर्ग ने शिकार को क्रीड़ा बनाया और एक ही बार में सैकड़ों वन्य जीवों को शिकार बनाया। व्यापारिक महत्त्व के लिए अभी भी पशुओं को मारा जा रहा है;

(vi) जंगलों में आग लगने से भी वन और वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ नष्ट हुईं।

यह महसूस किया जा रहा है कि राष्ट्रीय व विश्व प्राकृतिक धरोहर को बचाने और पारिस्थितिक पर्यटन (Eco-tourism) को बढ़ावा देने के लिए वन्य प्राणियों का संरक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस दिशा में सरकार ने क्या कदम उठाए हैं?

भारत में वन्य प्राणी संरक्षण

भारत में वन्य प्राणियों के बचाव की परिपाटी बहुत पुरानी है। पंचतंत्र और जंगल बुक इत्यादि की कहानियाँ हमारे वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इनका युवाओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव है।

वन्य प्राणी अधिनियम, 1972 में पास हुआ, जो वन्य प्राणियों के संरक्षण और रक्षण की कानूनी रूपरेखा तैयार करता है। उस अधिनियम के दो मुख्य उद्देश्य हैं; अधिनियम के तहत अनुसूची में सूचीबद्ध संकटापन्न प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा नेशनल पार्क, पशु विहार जैसे संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी सहायता प्रदान करना। इस अधिनियम को 1991 में पूर्णतया संशोधित कर दिया गया जिसके तहत कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें कुछ पौधों की प्रजातियों को बचाने तथा संकटापन्न प्रजातियों के संरक्षण का प्रावधान है।

देश में 103 नेशनल पार्क और 535 वन्य प्राणी अभयवन हैं। (परिशिष्ट V)

वन्य प्राणी संरक्षण का दायरा काफी बड़ा है और इसमें मानव कल्याण की असीम संभावनाएँ निहित हैं। यद्यपि इस लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब हर व्यक्ति इसका महत्त्व समझे और अपना योगदान दे।

यूनेस्को के ‘मानव और जीवमंडल योजना’ (Man and Biosphere Programme) के तहत भारत सरकार ने वनस्पति जात और प्राणि जात के संरक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।

प्रोजेक्ट टाईगर (1973) और प्रोजेक्ट एलीफेंट (1992) जैसी विशेष योजनाएँ इन जातियों के संरक्षण और उनके आवास के बचाव के लिए चलायी जा रही हैं। इनमें से प्रोजेक्ट टाईगर 1973 से चलाई जा रही है। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बाघों की जनसंख्या का स्तर बनाए रखना है, जिससे वैज्ञानिक, सौन्दर्यात्मक सांस्कृतिक और पारिस्थितिक मूल्य बनाए रखे जा सकें। इससे प्राकृतिक धरोहर को भी संरक्षण मिलेगा जिसका लोगों को शिक्षा और मनोरंजन के रूप में फायदा होगा। शुरू में यह योजना नौ बाघ निचयों (आरक्षित क्षेत्रों) में शुरू की गई थी और ये 16,339 वर्ग किलोमीटर पर फैली थी। अब यह योजना 44 क्रोड बाघ निचयों में चल रही है और इनका क्षेत्रफल 36,988.28 वर्ग किलोमीटर है और 17 राज्यों में व्याप्त है। देश में बाघों की संख्या 2006 में 1,411 से बढ़कर 2010 में 1,706 हो गई।

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चित्र 5.7 : अपने प्राकृतिक आवास में हाथी

यह योजना मुख्य रूप से बाघ केंद्रित है, परन्तु फिर भी पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता पर जोर दिया जाता है। बाघों की संख्या का स्तर तभी ऊँचा रह सकता है जब पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न पोषण स्तरों और इसकी भोजन कड़ी को बनाए रखा जाए।

इसके अलावा भारत सरकार द्वारा कुछ और परियोजनाएँ, जैसे - मगरमच्छ प्रजनन परियोजना, हगुंल परियोजना और हिमालय कस्तूरी मृग परियोजना भी चलाई जा रही है।

जीव मंडल निचय

जीव मंडल निचय (आरक्षित क्षेत्र) विशेष प्रकार के भौमिक और तटीय परिस्थितिक तंत्र हैं, जिन्हें यूनेस्को (UNESCO) के मानव और जीव मंडल प्रोग्राम (MAB) के अंतर्गत मान्यता प्राप्त है। जैसा कि आरेख 5.1 में दिखाया गया है, जीव मंडल निचय के तीन मुख्य उद्देश्य हैं।

भारत में 18 जीव मंडल निचय हैं (परियोजना - 5.1)। इनमें से 10 जीव मंडल निचय। यूनेस्को द्वारा जीव मंडल निचय विश्व नेटवर्क पर मान्यता प्राप्त हैं।

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चित्र 5.8 : भारत : जीव मंडल निचय

नीलगिरी जीव मंडल निचय

इसकी स्थापना 1986 में हुई थी और यह भारत का पहला जीव मंडल निचय है। इस निचय में वायनाड वन्य जीवन सुरक्षित क्षेत्र, नगरहोल, बांदीपुर और मदुमलाई, निलंबूर का सारा वन से ढका ढाल, ऊपरी नीलगिरी पठार, सायलेंट वैली और सिदुवानी पहाड़ियाँ शामिल हैं। इस जीव मंडल निचय का कुल क्षेत्र 5,520 वर्ग किलोमीटर है।


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चित्र 5.8 : जीव मंडल निचय के उद्देश्य

नीलगिरी जीव मंडल निचय में विभिन्न प्रकार के आवास और मानव क्रिया द्वारा कम प्रभावित प्राकृतिक वनस्पति व सूखी झाड़ियाँ, जैसे - शुष्क और आर्द्र पर्णपाती वन, अर्ध-सदाबहार और आर्द्र सदाबहार वन, सदाबहार शोलास, घास के मैदान और दलदल शामिल हैं। यहाँ पर दो संकटापन्न प्राणी प्रजातियों, नीलगिरी ताहर (Tahr) और शेर जैसी दुम वाले बंदर की सबसे अधिक संख्या पाई जाती है। नीलगिरी निचय में हाथी, बाघ, गौर, सांभर और चीतल जानवरों की दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा संख्या तथा कुछ संकटापन्न और क्षेत्रीय विशेष पौधे पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में कुछ एेसी जनजातियों के आवास भी स्थित हैं, जो पर्यावरण के साथ सामंजस्य करके रहने के लिए विख्यात हैं।

इस जीव मंडल की स्थलाकृति उबड़-खाबड़ है और समुद्र तल से ऊँचाई 250 मीटर से 2,650 मीटर तक है। पश्चिम घाट में पाए जाने वाले 80 प्रतिशत फूलदार पौधे इसी निचय में मिलते हैं।

नंदा देवी जीव मंडल निचय

नंदा देवी जीव मंडल निचय उत्तराखंड में स्थित है, जिसमें चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों के भाग शामिल हैं।

यहाँ पर मुख्यतः शीतोष्ण कटिबंधीय वन पाए जाते हैं। यहाँ पाई जाने वाली प्रजातियों में सिल्वर वुड तथा लैटीफोली जैसे ओरचिड और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं। उस जीव मंडल निचय में कई प्रकार के वन्य जीव, जैसे- हिम तेंदुआ (Snow leopard), काला भालू, भूरा भालू, कस्तूरी मृग, हिम-मुर्गा, सुनहरा बाज और काला बाज पाए जाते हैं।

तालिका 5.1 : जीव मंडल निचयों की सूची

क्र. सं. जीव मंडल निचय 
का नाम
 एवं कुल
 भौगोलिक क्षेत्र
 (वर्ग कि.मी. में)
नामित तिथि  स्थिति (प्रांत)
1. नीलगिरी (5520) 01.08.1986 वायनाद, नगरहोल, बांदीपुर, मुदुमलाई, निलंबूर, सायलेंट वैली और सिरुवली पहाड़ियाँ (तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक)
2. नंदा देवी (5860.69) 18.01.1988 चमोली, पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा जिलों के भाग (उत्तराखंड)
3. नोकरेक (820) 01.09.1988 गारो पहाड़ियों का हिस्सा (मेघालय)
4. मानस (2837) 14.03.1989 कोकराझार, बोगाई गाँव, बरपेटा, नलबाड़ी कामरूप व दारांग जिलों के हिस्से (असम)
5. सुंदर वन (9630) 29.03.1989 गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र का डेल्टा व इसका हिस्सा (पश्चिम बंगाल)
6. मन्नार की खाड़ी (10500) 18.02.1989 तमिलनाडु के उत्तर में रामेश्वरम द्वीप से दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत मन्नार की खाड़ी का भारतीय भाग
7. ग्रेट निकोबार (885) 06.01.1989 अंडमान-निकोबार के सुदूर दक्षिणी द्वीप (अंडमान निकोबार द्वीप समूह)
8. सिमिलीपाल (4374) 21.06.1994 मयूरभंज जिले के भाग (उड़ीसा)
9. डिब्रू-साईकोवा (765) 28.07.1997 डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिलों के भाग (असम)
10. दिहांग-देबाँग (5111.5) 02.09.1998 अरुणाचल प्रदेश में सियाँग और देबाँग जिलों के भाग
11. पंचमढ़ी (4981.72) 03.03.1999 बेतूल, होशंगाबाद और छिंदवाड़ा जिलों के भाग (मध्य प्रदेश)
12. कंचनजुंगा (2619.92) 07.02.2000 उत्तर और पश्चिम सिक्किम के भाग
13. अगस्त्यमलाई (3500.36) 12.11.2001 केरल में अगस्त्यथीमलाई पहाड़ियाँ
14. अचनकमर-अमरकटंक (3835.51) 30.03.2005 मध्य प्रदेश में अनुपुर और दिन दोरी जिलों के भाग और छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले का भाग
15. कच्छ (12,454) 29.01.2008 कच्छ का भाग, एवं गुजरात के राजकोट, सुंदर नगर तथा पाटन जिले
16. ठंडा रेगिस्तान (7770) 28.08.2009 पिन वैली नेशनल पार्क एवं प्रतिवेश, चंद्रताल तथा सारचू; एवं किब्बर वन्य प्राणी अभयवन, हिमाचल प्रदेश
17. शेष अचलम (4755.997) 20.09.2010 पूर्वी घाट में शेष अचलम की पहाड़ियाँ तथा आंध्र प्रदेश में चितूर तथा कड्डप्पा ज़िलों के भाग
18. पन्ना (2998.98) 25.08.2011 मध्य प्रदेश में पन्ना एवं छत्तरपुर ज़िलों के भाग

* मोटे अक्षरों में लिखे क्षेत्रों को यूनेस्को के बी.आर. वर्ल्ड नेटवर्क में सम्मिलित किया गया है।

स्रोत : वार्षिक रिपोर्ट 2013-14, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार

यहाँ परिस्थितिक तंत्रों को मुख्य खतरा संकटापन्न पौध प्रजातियों को दवा के लिए इकट्ठा करना, दावानल और पशुओं का व्यापारिक उद्देश्य के लिए शिकार से है।

सुंदर वन जीव मंडल निचय

यह पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के दलदली डेल्टा पर स्थित हैं। यह एक विशाल क्षेत्र (9,630 वर्ग किलोमीटर) पर फैला हुआ है और यहाँ मैंग्रोव वन, अनूप और वनाच्छादित द्वीप पाए जाते हैं। सुंदर वन लगभग 200 रॉयल बंगाल टाईगर का आवासीय क्षेत्र है।

मैंग्रोव वृक्षों की उलझी हुई विशाल जड़ समूह मछली से श्रिम्प तक को आश्रय प्रदान करती हैं। इन मैंग्रोव वनों में 170 से ज्यादा पक्षी प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

स्वयं को लवणीय और ताजा जल पर्यावरण के अनुरूप ढालते हुए, बाघ पानी में तैरते हैं और चीतल, भौंकने वाले मृग (Barking deer), जंगली सूअर और यहाँ तक कि लंगूरों जैसे दुर्लभ शिकार भी कर लेते हैं। सुंदर वन के मैंग्रोव वनों में हेरिशिएरा फोमीज, जो बेशकीमती इमारती लकड़ी है, भी पाई जाती है।

मन्नार की खाड़ी का जीवमंडल निचय

मन्नार की खाड़ी का जीवमंडल निचय लगभग एक लाख पाँच हजार हैक्टेयर क्षेत्र में फैला है और भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है। समुद्रीय जीव विविधता के मामले में यह क्षेत्र विश्व के सबसे धनी क्षेत्रों में से एक है। इस जीवमंडल निचय में 21 द्वीप हैं और इन पर अनेक ज्वारनदमुख, पुलिन, तटीय पर्यावरण के जंगल, समुद्री घासें, प्रवाल द्वीप, लवणीय अनूप और मैंग्रोव पाए जाते हैं। यहाँ पर लगभग 3,600 पौधों और जीवों की संकटापन्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जैसे - समुद्री गाय (Dugong dugon)। इसके ेअतिरिक्त भारतीय प्रायद्वीप क्षेत्रीय विशेष की 6 मैंग्रोव प्रजातियाँ भी संकटापन्न हैं।

अभ्यास

1. निम्नलिखित चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनें :

(i) चंदन वन किस तरह के वन के उदाहरण हैं-

(क) सदाबहार वन             (ख) डेल्टाई वन

(ग) पर्णपाती वन                (घ) काँटेदार वन

(ii) प्रोजेक्ट टाईगर निम्नलिखित में से किस उद्देश्य से शुरू किया गया है-

(क) बाघ मारने के लिए                                (ख) बाघ को शिकार से बचाने के लिए

(ग) बाघ को चिड़ियाघर में डालने के लिए   (घ) बाघ पर फिल्म बनाने के लिए

(iii) नंदा देवी जीव मंडल निचय निम्नलिखित में से किस प्रांत में स्थित है-

(क) बिहार                 (ख) उत्तराखण्ड

(ग) उत्तर प्रदेश         (घ) ओडिशा

(iv) निम्नलिखित में से कितने भारत के जीव मंडल निचय यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त हैं?

(क) एक           (ख) दस

(ग) दो             (घ) चार

(v) वन नीति के अनुसार वर्तमान में निम्नलिखित में से कितना प्रतिशत क्षेत्र, वनों के अधीन होना चाहिए?

(क) 33          (ख) 55

(ग) 44           (घ) 22

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें।

(i) प्राकृतिक वनस्पति क्या है? जलवायु की किन परिस्थितियों में उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन उगते हैं?

(ii) जलवायु की कौन-सी परिस्थितियाँ सदाबहार वन उगने के लिए अनुकूल हैं?

(iii) सामाजिक वानिकी से आपका क्या अभिप्राय है?

(iv) जीवमंडल निचय को परिभाषित करें। वन क्षेत्र और वन आवरण में क्या अंतर है?

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में दें।

(i) वन संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?

(ii) वन और वन्य जीव संरक्षण में लोगों की भागेदारी कैसे महत्त्वपूर्ण है?

परियोजना/क्रियाकलाप

भारत के रेखा मानचित्र पर निम्नलिखित को पहचान कर चिह्नित करें।

(i) मैंग्रोव वन वाले क्षेत्र

(ii) नंदा देवी, सुंदर वन, मन्नार की खाड़ी और नीलगिरी जीव मंडल निचय।

(iii) भारतीय वन सर्वेक्षण मुख्यालय की स्थिति का पता लगाएँ और रेखांकित करें।