अध्याय 4


महासागरों और महाद्वीपों का वितरण

पिछले अध्याय में आपने भूगर्भ के विषय में पढ़ा। आप संसार के मानचित्र से भी परिचित हैं। आप जानते हैं कि पृथ्वी के 29 प्रतिशत भाग पर महाद्वीप और बाकी पर महासागर फैले हुए हैं। महाद्वीपों और महासागरों की अवस्थिति, जैसाकि आज मानचित्र पर दिखाई देती है, हमेशा से एेसी नहीं रही है। इसके अतिरिक्त, यह भी एक तथ्य है कि आने वाले समय में भी महाद्वीप व महासागरों की स्थिति आज जैसी नहीं रहेगी। अगर एेसा है तो प्रश्न यह है कि पुराकाल में इनकी अवस्थिति कैसी थी? इनकी अवस्थिति में परिवर्तन क्यों और कैसे होता है? यदि यह सच है कि महाद्वीपों और महासागरों की अवस्थिति में परिवर्तन हुआ है और अभी भी हो रहा है, तो आप यह जानकर आश्चर्यचकित होंगे कि वैज्ञानिक यह सब कैसे जानते हैं? उन्होंने इन महाद्वीपों एवं महासागरों की पहले की स्थिति का निर्धारण कैसे किया होगा? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर और इनसे संबंधित प्रश्न ही इस अध्याय का विषय हैं।

महाद्वीपीय प्रवाह   (Continental   drift)

अटलांटिक महासागरीय तटरेखा की आकृति को ध्यान से देखें। इस महासागर के दोनों तरफ की तटरेखा में आश्चर्यजनक सममिति (Symmetry) है। इसी समानता के कारण बहुत से वैज्ञानिकों ने दक्षिण व उत्तरअमेरिका तथा यूरोप व अफ्रीका के एक साथ जुड़ े होने की संभावना को व्यक्त किया। विज्ञान के इतिहास के ज्ञात अभिलेखों से पता चलता है कि सन् 1596 में एक डच मानचित्रवेत्ता अब्राहम अॉरटेलियस (Abraham Ortelius) ने सर्वप्रथम इस संभावना को व्यक्त किया था। एन्टोनियो पैलेग्रीनी (Antonio Pellegrini)ने एक मानचित्र बनाया, जिसमें तीनों महाद्वीपों को इकट्ठा दिखाया गया था। जर्मन मौसमविद अल्फ्रेड वेगनर (Alfred Wegener) ने "महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत" सन् 1912 में प्रस्तावित किया। यह सिद्धांत महाद्वीप एवं महासागरों के वितरण से ही संबंधित था।

इस सिद्धांत की आधारभूत संकल्पना यह थी कि सभी महाद्वीप एक अकेले भूखंड में जुड़ े हुए थे। वेगनर के अनुसार आज के सभी महाद्वीप इस भूखंड के भाग थे तथा यह एक बड़ े महासागर से घिरा हुआ था। उन्होंने इस बड़ े महाद्वीप को पैंजिया (Pangaea) का नाम दिया। पैंजिया का अर्थ है- संपूर्ण पृथ्वी। विशाल महासागर को पैंथालासा (Panthalassa) कहा, जिसका अर्थ है- जल ही जल। वेगनर के तर्क के अनुसार लगभग 20 करोड़ वर्ष पहले इस बड़ े महाद्वीप पैंजिया का विभाजन आरंभ हुआ। पैंजिया पहले दो बड़ ेमहाद्वीपीय पिंडों लारेशिया (Laurasia) और गोंडवानालैंड (Gondwanaland) क्रमशः उत्तरी व दक्षिणी भूखंडों के रूप में विभक्त हुआ। इसके बाद लारेशिया व गोडवानालैंड धीरे-धीरे अनेक छोटे हिस्सों में बँट गए, जो आज के महाद्वीप के रूप हैं। महाद्वीपीय विस्थापन के पक्ष में अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किए गए हैं, इनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

महाद्वीपीय विस्थापन के पक्ष में प्रमाण (Evidences   in   support   of   continental   drift)

महाद्वीपों में साम्य

दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाएँ अद्भुत व त्रुटिरहित साम्य दिखाती हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि 1964 ई0 में बुलर्ड (Bullard) ने एक कंप्यूटर प्रोग्राम की सहायता से अटलांटिक तटों को जोड़ ते हुए एक मानचित्र तैयार किया था। तटों का यह साम्य बिल्कुल सही सिद्ध हुआ। साम्य बिठानेकी यह कोशिश आज की तटरेखा की अपेक्षा 1,000 फैदम की गहराई की तटरेखा के साथ की गई थी।

महासागरों के पार चट्टानों की आयु में समानता

आधुनिक समय में विकसित की गई रेडियोमिट्रिक काल निर्धारण (Radiometric dating) विधि से महासागरों के पार महाद्वीपों की चट्टानों के निर्माण के समय को सरलता से जाना जा सकता है। 200 करोड़ वर्ष प्राचीन शैल समूहों की एक पट्टी ब्राजील तट और पश्चिमी अफ्रीका के तट पर मिलती हैं, जो आपस में मेल खाती है। दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका की तटरेखा के साथ पाए जाने वाले आरंभिक समुद्री निक्षेप जुरेसिक काल (Jurassic age) के हैं। इससे यह पता चलता है कि इस समय से पहले महासागर की उपस्थिति वहाँ नहीं थी।

टिलाइट (Tillite)

टिलाइट वे अवसादी चट्टानें हैं, जो हिमानी निक्षेपण से निर्मित होती हैं। भारत में पाए जाने वाले गोंडवाना श्रेणी के तलछटों के प्रतिरूप दक्षिण गोलार्ध के छः विभिन्न स्थलखंडों में मिलते हैं। गोंडवाना श्रेणी के आधार तल में घने टिलाइट हैं, जो विस्तृत व लंबे समय तक हिमआवरण या हिमाच्छादन की ओर इंगित करते हैं। इसी क्रम के प्रतिरूप भारत के अतिरिक्त अफ्रीका, फॉकलैंड द्वीप, मैडागास्कर, अंटार्कटिक और आस्ट्रेलिया में मिलते हैं। गोंडवाना श्रेणी के तलछटों की यह समानता स्पष्ट करती है कि इन स्थलखंडों के इतिहास में भी समानता रही है। हिमानी निर्मित टिलाइट चट्टानें पुरातन जलवायु और महाद्वीपों के विस्थापन के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

प्लेसर निक्षेप (Placer   deposits)

घाना तट पर सोने के बड़ े निक्षेपों की उपस्थिति व उद्गम चट्टानों की अनुपस्थिति एक आश्चर्यजनक तथ्य है। सोनायुक्त शिराएँ (Gold bearing veins) ब्राजील में पाई जाती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि घाना में मिलने वाले सोने के निक्षेप ब्राजील पठार से उस समय निकले होंगे, जब ये दोनों महाद्वीप एक दूसरे से जुड़ े थे।

जीवाश्मों का वितरण (Distribution of fossils)

यदि समुद्री अवरोधक के दोनों विपरीत किनारों पर जल व स्थल में पाए जाने वाले पौधों व जंतुओं की समान प्रजातियाँ पाई जाए, तो उनके वितरण की व्याख्या में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रेक्षण से कि ‘लैमूर’ भारत, मैडागास्कर व अफ्रीका में मिलते हैं, कुछ वैज्ञानिकों ने इन तीनों स्थलखंडों को जोड़ कर एक सतत् स्थलखंड ‘लेमूरिया’ (Lemuria) की उपस्थिति को स्वीकारा। मेसोसारस (Mesosaurus) नाम के छोटे रेंगने वाले जीव केवल उथले खारे पानी में ही रह सकते थे- इनकी अस्थियाँ केवल दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी केप प्रांत और ब्राजील में इरावर शैल समूह में ही मिलते हैं। ये दोनों स्थान आज एक दूसरे से 4,800 कि0मी0 की दूरी पर हैं और इनके बीच में एक महासागर विद्यमान है।

प्रवाह संबंधी बल (Force   for   drifting)

वेगनर के अनुसार महाद्वीपीय विस्थापन के दो कारण थेः (1) पोलर या ध्रुवीय फ्लीइंग बल (Polar fleeingforce) और (2) ज्वारीय बल (Tidal force)। ध्रुवीय फ्लीइंग बल पृथ्वी के घूर्णन से संबंधित है। आप जानते हैं कि पृथ्वी की आकृति एक संपूर्ण गोले जैसी नहीं है; वरन् यह भूमध्यरेखा पर उभरी हुई है। यह उभार पृथ्वी केघूर्णन के कारण है। दूसरा बल, जो वेगनर महोदय ने सुझाया- वह ज्वारीय बल है, जो सूर्य व चंद्रमा केआकर्षण से संबद्ध है, जिससे महासागरों में ज्वार पैदा होते हैं। वेगनर का मानना था कि करोड़ ों वर्षों के दौरान ये बल प्रभावशाली होकर विस्थापन के लिए सक्षम हो गए। यद्यपि बहुत से वैज्ञानिक इन दोनों ही बलों को महाद्वीपीय विस्थापन के लिए सर्वथा अपर्याप्त समझते हैं।

चित्र 4.1 : महासागरीय अधस्तल (Ocean   floor)

संवहन-धारा सिद्धांत (Convectional current theory)

1930 के दशक में आर्थर होम्स (Arthur Holmes) ने मैंटल (Mantle) भाग में संवहन-धाराओं के प्रभाव कीसंभावना व्यक्त की। ये धाराएँ रेडियोएक्टिव तत्त्वों से उत्पन्न ताप भिन्नता से मैंटल भाग में उत्पन्न होती हैं। होम्स ने तर्क दिया कि पूरे मैंटल भाग में इस प्रकार की धाराओं का तंत्र विद्यमान है। यह उन प्रवाह बलों की व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास था, जिसके आधार पर समकालीन वैज्ञानिकों ने महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत को नकार दिया।

महासागरीय अधस्तल का मानचित्रण (Mapping of the ocean floor)

महासागरों की बनावट और आकार पर विस्तृत शोध, यह स्पष्ट करते हैं कि महासागरों का अधस्तल एकविस्तृत मैदान नहीं है, वरन् उनमें भी उच्चावच पाया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद (Post World WarII) महासागरीय अधस्तल के निरूपण अभियान ने महासागरीय उच्चावच संबंधी विस्तृत जानकारी प्रस्तुत कीऔर यह दिखाया कि इसके अधस्तली में जलमग्न पर्वतीय कटकें व गहरी खाइयाँ हैं, जो प्रायः महाद्वीपों के किनारों पर स्थित हैं। मध्य महासागरीय कटकें ज्वालामुखी उद्गार के रूप में सबसे अधिक सक्रिय पायी गई। महासागरीय पर्पटी की चट्टानों के काल निर्धारण (Dating) ने यह तथ्य स्पष्ट कर दिया कि महासागरों के नितल की चट्टानें महाद्वीपीय भागों में पाई जाने वाली चट्टानों की अपेक्षा नवीन हैं। महासागरीय कटक के दोनों तरफ की चट्टानें, जो कटक से बराबर दूरी पर स्थित हैं, उन की आयु व रचना में भी आश्चर्यजनक समानता पाई जाती है।

महासागरीय अधस्तल की बनावट (Ocean   floor   configuration)

इस भाग में हम महासागरीय तल की बनावट से संबंधित कुछ एेसे तथ्यों का अध्ययन करेंगे, जो महासागर व महाद्वीपों के वितरण को समझने में मददगार होंगे। महासागरीय तल की आकृतियाँ अध्याय 13 में विस्तार से वर्णित हैं। गहराई व उच्चावच के प्रकार के आधार पर, महासागरीय तल को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये भाग हैं ः (1) महाद्वीपीय सीमा, (2) गहरे समुद्री बेसिन और (3) मध्य-महासागरीय कटक।

महाद्वीपीय सीमा ( margins)Continental

ये महाद्वीपीय किनारों और गहरे समुद्री बेसिन के बीच का भाग है। इसमें महाद्वीपीय मग्नतट, महाद्वीपीय ढाल, महाद्वीपीय उभार और गहरी महासागरीय खाइयाँ आदि शामिल हैं। महासागरों व महाद्वीपों के वितरण को समझने के लिए गहरी-महासागरीय खाइयों के क्षेत्र विशेष महत्वपूर्ण और रोचक हैं।

वितलीय मैदान (Abyssal Plains)

ये विस्तृत मैदान महाद्वीपीय तटों व मध्य महासागरीय कटकों के बीच पाए जाते हैं। वितलीय मैदान, वह क्षेत्र हैं, जहाँ महाद्वीपों से बहाकर लाए गए अवसाद इनके तटों से दूर निक्षेपित होते हैं।

मध्य महासागरीय कटक (Mid-oceanic ridges)

मध्य महासागरीय कटक आपस में जुड़ े हुए पर्वतों की एक शृंखला बनाती है। महासागरीय जल में डूबी हुई, यह पृथ्वी के धरातल पर पाई जाने वाली संभवतः सबसे लंबी पर्वत शृंखला है। इन कटकों के मध्यवर्ती शिखर पर एक रिफ्ट, एक प्रभाजक पठार और इसकी लंबाई के साथ-साथ पार्श्व मंडल इसकी विशेषता है। मध्यवर्ती भाग में उपस्थित द्रोणी वास्तव में सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्र है। पिछले अध्याय में मध्य-महासागरीय ज्वालामुखी के रूप में एेसे ज्वालामुखियों की जानकारी दी गई है।

भूकंप व ज्वालामुखियों का वितरण (Distribution   of   earthquakes   and   volcanoes)

भूकंपीय गतिविधि और ज्वालामुखी वितरण का दिए गए मानिचत्र 4.5 (अ) और (ब) में अध्ययन करें। आप अटलांटिक महासागर के मध्यवर्ती भाग में, तट रेखा के लगभग समानांतर, एक बिंदु रेखा देखेंगे। यह आगे हिंद महासागर तक जाती है। भारतीय उपमहाद्वीप के थोड़ ा दक्षिण में यह दो भागों में बँट जाती है,जिसकी एक शाखा पूर्वी अफ्रीका की ओर चली जाती है और दूसरी मयनमार से होती हुई न्यू गिनी परएक एेसी ही रेखा से मिल जाती है। आप यह पाएँगे कि यह बिंदुरेखा मध्य-महासागरीय कटकों के समरूप है। भूकंपीय संकेन्द्रण का दूसरा क्षेत्र छायांकित मेखला (Shaded belt) के माध्यम से दिखाया गया है, जोअल्पाइन-हिमालय (Alpine-Himalayan) श्रेणियों के और प्रशांत महासागरीय किनारों के समरूप है। सामान्यतः मध्य महासागरीय कटकों के क्षेत्र में भूकंप के उद्गम केंद्र कम गहराई पर हैं जबकि अल्पाइन-हिमालय पट्टी व प्रशांत महासागरीय किनारों पर ये केंद्र अधिक गहराई पर हैं। ज्वालामुखी मानचित्र भी इसी का अनुकरण करते हैं। प्रशांत महासागर के किनारों को सक्रिय ज्वालामुखी के क्षेत्र होने के कारण ‘रिंग अॉफ फायर’ (Ring of fire) भी कहा जाता है।

सागरीय अधस्तल का विस्तार

जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, प्रवाह उपरांत अध्ययनों ने महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की, जो वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के समय उपलब्ध नहीं थी। चट्टानों के पुरा चुंबकीय अध्ययन और महासागरीय तल के मानचित्रण ने विशेष रूप से निम्न तथ्यों को उजागर कियाः

(i)        यह देखा गया कि मध्य महासागरीय कटकों के साथ-साथ ज्वालामुखी उद्गार सामान्य क्रिया है और ये उद्गार इस क्षेत्र में बड़ ी मात्रा में लावा बाहर निकालते हैं।

चित्र 4.5 ः संसार की प्रमुख बड़ ी व छोटी प्लेट का वितरण

(ii)          महासागरीय कटक के मध्य भाग के दोनों तरफ समान दूरी पर पाई जाने वाली चट्टानों के निर्माण का समय, संरचना, संघटन और चुंबकीय गुणों में समानता पाई जाती है। महासागरीय कटकों के समीप की चट्टानों में सामान्य चुंबकत्व ध्रुवण (Normal   polarity)  पाई जाती है तथा ये चट्टानें नवीनतम हैं। कटकों के शीर्ष से दूर चट्टानों की आयु भी अधिक है।

(iii)          महासागरीय पर्पटी की चट्टानें महाद्वीपीय पर्पटी की चट्टानों की अपेक्षा अधिक नई हैं। महासागरीय पर्पटी की चट्टानें कहीं भी 20 करोड़ वर्ष से अधिक पुरानी नहीं हैं।

(iv)          गहरी खाइयों में भूकंप के उद्गम अधिक गहराई पर हैं। जबकि मध्य-महासागरीय कटकों के क्षेत्र में भूकंप उद्गम केंद्र (Foci)  कम गहराई पर विद्यमान हैं।

इन तथ्यों और मध्य महासागरीय कटकों के दोनों तरफ की चट्टानों के चुंबकीय गुणों के विश्लेषण के आधार पर हेस (Hess)  ने सन् 1961 में एक परिकल्पना प्रस्तुत की, जिसे ‘सागरीय अधस्तल विस्तार’ (Seafloor   spreading)  के नाम से जाना जाता है। हेस (Hess)  के तर्कानुसार महासागरीय कटकों के शीर्ष पर लगातार ज्वालामुखी उद्भेदन से महासागरीय पर्पटी में विभेदन हुआ और नया लावा इस दरार को भरकर महासागरीय पर्पटी को दोनों तरफ धकेल रहा है। इस प्रकार महासागरीय अधस्तल का विस्तार हो रहा है। महासागरीय पर्पटी का अपेक्षाकृत नवीनतम होना और इसके साथ ही एक महासागर में विस्तार से दूसरे महासागर के न सिकुड़ ने पर, हेस (Hess)   ने महासागरीय पर्पटी के क्षेपण की बात कही। हेस केअनुसार, यदि ज्वालामुखी पर्पटी से नई पर्पटी का निर्माण होता है, तो दूसरी तरफ महासागरीय गर्तों में इसका विनाश भी होता है। चित्र 4.3 में सागरीय तल विस्तार की मूलभूत संकल्पना को दिखाया गया है।

प्लेट विवर्तनिकी (Plate   tectonics)

सागरीय तल विस्तार अवधारणा के पश्चात् विद्वानों की महाद्वीपों व महासागरों के वितरण के अध्ययन में फिर से रुचि पैदा हुई। सन् 1967 में मैक्कैन्ज़ी (Mckenzie) , पारकर (Parker)  और मोरगन (Morgan)  ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध विचारों को समन्वित कर अवधारणा प्रस्तुत की, जिसे ‘प्लेट विवर्तनिकी’ (Platetectonics)   कहा गया। एक विवर्तनिक प्लेट (जिसे लिथोस्फेरिक प्लेट भी कहा जाता है), ठोस चट्टान का विशाल व अनियमित आकार का खंड है, जो महाद्वीपीय व महासागरीय स्थलमंडलों से मिलकर बना है। ये प्लेटें दुर्बलतामंडल (Asthenosphere)  पर एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिज़ अवस्था में चलायमान हैं। स्थलमंडल में पर्पटी एवं ऊपरी मैंटल को सम्मिलित किया जाता है, जिसकी मोटाई महासागरों में 5 से 100 कि0मी0 और महाद्वीपीय भागों में लगभग 200 कि0मी0 है। एक प्लेट को महाद्वीपीय या महासागरीय प्लेट भी कहा जा सकता है; जो इस बात पर निर्भर है कि उस प्लेट का अधिकतर भाग महासागर अथवा महाद्वीप से संबद्ध है। उदाहरणार्थ प्रशांत प्लेट मुख्यतः महासागरीय प्लेट है, जबकि यूरेशियन प्लेट को महाद्वीपीय प्लेट कहा जाता है। प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी का स्थलमंडल सात मुख्य प्लेटों व कुछ छोटी प्लेटों में विभक्त है। नवीन वलित पर्वत श्रेणियाँ, खाइयाँ और भ्रंश इन मुख्य प्लेटों को सीमांकित करते हैं। (चित्र 4.7)

प्रमुख प्लेट इस प्रकार हैं ः

(I)  अंटार्कटिक प्लेट (जिसमें अंटार्कटिक और इसको चारों ओर से घेरती हुई महासागरीय प्लेट भी शामिल है)

(II)  उत्तर अमेरिकी प्लेट (जिसमें पश्चिमी अटलांटिक तल सम्मिलित है तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसकी सीमा का निर्धारण करते हैं)

(III)  दक्षिण अमेरिकी प्लेट (पश्चिमी अटलांटिक तल समेत और उत्तरी अमेरिकी प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसे पृथक करते हैं)

(IV)  प्रशांत महासागरीय प्लेट।

(V)  इंडो-आस्ट्रेलियन-न्यूज़ीलैंड प्लेट।

(VI)  अफ्रीकी प्लेट (जिसमें पूर्वी अटलांटिक तल शामिल है) और

(VII)  यूरेशियाई प्लेट (जिसमें पूर्वी अटलांटिक महासागरीय तल सम्मिलित है)

चित्र 4.6 ः भारतीय प्लेट का प्रवाह (Movement  

of   the   Indian   Plate )

कुछ महत्वपूर्ण छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं ः

(i)          कोकोस (Cocoas)  प्लेट - यह प्लेट मध्यवर्ती अमेरिका और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

(ii)          नज़का प्लेट (Nazca   plate)  - यह दक्षिण अमेरिका व प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

(iii)          अरेबियन प्लेट (Arabian   plate)  - इसमें अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भू-भाग सम्मिलित है।

(iv)          फिलिपीन प्लेट   (Phillippine   plate)  - यह एशिया महाद्वीप और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

(v)          कैरोलिन प्लेट (Caroline   plate)  - यह न्यू गिनी के उत्तर में फिलिपियन व इंडियन प्लेट के बीच स्थित है।

(vi)          फ्यूजी प्लेट (Fuji   plate)  - यह आस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्व में स्थित है।

ग्लोब पर ये प्लेटें पृथ्वी के पूरे इतिहास काल में लगातार विचरण कर रही हैं। वेगनर की संकल्पना किकेवल महाद्वीप गतिमान हैं, सही नहीं है। महाद्वीप एक प्लेट का हिस्सा है और प्लेट चलायमान हैं। यहएक निर्विवाद तथ्य है कि भूवैज्ञानिक इतिहास में सभी प्लेट गतिमान रही हैं और भविष्य में भी गतिमान रहेंगी। चित्र 4.4 में विभिन्न कालों में महाद्वीपीय भागों की स्थिति को दर्शाया गया है। वेगनर के अनुसार आरंभ में, सभी महाद्वीपों से मिलकर बना एक सुपर महाद्वीप (Super   continent)  पैंजिया के रूप में विद्यमान था। यद्यपि बाद की खोजों ने यह स्पष्ट किया कि महाद्वीपीय पिंड, जो प्लेट के ऊपर स्थित हैं, भूवैज्ञानिक काल पर्यन्त चलायमान थे और पैंजिया अलग-अलग महाद्वीपीय खंडों के अभिसरण से बना था, जो कभी एक या किसी दूसरी प्लेट के हिस्से थे। पुराचुंबकीय (Palaeomagnetic)   आँकड़ ों के आधार पर वैज्ञानिकों ने विभिन्न भूकालों में प्रत्येक महाद्वीपीय खंड की अवस्थिति निर्धारित की है। भारतीय उपमहाद्वीप (अधिकांशतः प्रायद्वीपीय भारत) की अवस्थिति नागपुर क्षेत्र में पाई जाने वाली चट्टानों के विश्लेषण के आधार पर आँकी गई है।

प्लेट संचरण के फलस्वरूप तीन प्रकार की प्लेट सीमाएँ बनती हैं।

अपसारी सीमा (Divergent   boundaries)

जब दो प्लेट एक दूसरे से विपरीत दिशा में अलग हटती हैं और नई पर्पटी का निर्माण होता है। उन्हें अपसारी प्लेट कहते हैं। वह स्थान जहाँ से प्लेट एक दूसरे से दूर हटती हैं, इन्हें प्रसारी स्थान (Spreadingsite)  भी कहा जाता है। अपसारी सीमा का सबसे अच्छा उदाहरण मध्य-अटलांटिक कटक है। यहाँ से अमेरिकी प्लेटें (उत्तर अमेरिकी व दक्षिण अमेरिकी प्लेटें) तथा यूरेशियन व अफ्रीकी प्लेटें अलग हो रही हैं।

अभिसरण सीमा (Convergent   boundaries)

जब एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धँसती है और जहाँ भूपर्पटी नष्ट होती है, वह अभिसरण सीमा है। वह स्थान जहाँ प्लेट धँसती हैं, इसे प्रविष्ठन क्षेत्र (Subduction   zone)  भी कहते हैं। अभिसरण तीन प्रकार से हो सकता है- (1) महासागरीय व महाद्वीपीय प्लेट के बीच (2) दो महासागरीय प्लेटों के बीच (3) दो महाद्वीपीय प्लेटों के बीच।

रूपांतर सीमा (Transform   boundaries)

जहाँ न तो नई पर्पटी का निर्माण होता है और न ही पर्पटी का विनाश होता है, उन्हें रूपांतर सीमा कहते हैं। इसका कारण है कि इस सीमा पर प्लेटें एक दूसरे के साथ-साथ क्षैतिज दिशा में सरक जाती हैं। रूपांतर भ्रंश (Transform   faults)  दो प्लेट को अलग करने वाले तल हैं जो सामान्यतः मध्य-महासागरीय कटकों से लंबवत स्थिति में पाए जाते हैं। क्योंकि कटकों के शीर्ष पर एक ही समय में सभी स्थानों पर ज्वालामुखीउद्गार नहीं होता, एेसे में पृथ्वी के अक्ष से दूर प्लेट के हिस्से भिन्न प्रकार से गति करते हैं। इसके अतिरिक्तपृथ्वी के घूर्णन का भी प्लेट के अलग खंडों पर भिन्न प्रभाव पड़ ता है।

प्लेट प्रवाह की दर कैसे निर्धारित होती है?

प्लेट प्रवाह दरें (Rates   of   plate   movement)

सामान्य व उत्क्रमण चुंबकीय क्षेत्र की पट्टियाँ जो मध्य-महासागरीय कटक के सामानांतर हैं, प्लेट प्रवाह की दर समझने में वैज्ञानिक के लिए सहायक सिद्ध हुई हैं। प्रवाह की ये दरें बहुत भिन्न हैं। आर्कटिक कटक की प्रवाह दर सबसे कम है (2.5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी कम)। ईस्टर द्वीप के निकट पूर्वी प्रशांत महासागरीय उभार, जो चिली से 3,400 कि0मी0 पश्चिम की ओर दक्षिण प्रशांत महासागर में है, इसकी प्रवाह दर सर्वाधिक है (जो 5 से0मी0 प्रति वर्ष से भी अधिक है)।

प्लेट को संचलित करने वाले बल (Forces   for   the   plate   movement)

जिस समय वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत प्रस्तुत किया था, उस समय अधिकतर वैज्ञानिकों का विश्वास था कि पृथ्वी एक ठोस, गति रहित पिंड है। यद्यपि सागरीय अधस्तल विस्तार और प्लेट विवर्तनिक-दोनों सिद्धांतों ने इस बात पर बल दिया कि पृथ्वी का धरातल व भूगर्भ दोनों ही स्थिर न होकर गतिमान हैं।प्लेट विचरण करती है-यह आज एक अकाट्य तथ्य है। एेसा माना जाता है कि दृढ़ प्लेट के नीचेचलायमान चट्टानें वृत्ताकार रूप में चल रही हैं। उष्ण पदार्थ धरातल पर पहुँचता है, फैलता है और धीरे-धीरे ठंडा होता है; फिर गहराई में जाकर नष्ट हो जाता है। यही चक्र बारंबार दोहराया जाता है और वैज्ञानिक इसे संवहन प्रवाह (Convection   flow)   कहते हैं। पृथ्वी के भीतर ताप उत्पत्ति के दो माध्यम हैं- रेडियोधर्मी तत्वों का क्षय और अवशिष्ट ताप। आर्थर होम्स ने सन् 1930 में इस विचार को प्रतिपादित किया। जिसनेबाद में हैरी हेस की सागरीय तल विस्तार अवधारणा को प्रभावित किया। दृढ़ प्लेटों के नीचे दुर्बल व उष्ण मैंटल है, जो प्लेट को प्रवाहित करता है।

भारतीय प्लेट का संचलन (Movement   of   the   Indian   Plate)

भारतीय प्लेट में प्रायद्वीप भारत और आस्ट्रेलिया महाद्वीपीय भाग सम्मिलित हैं। हिमालय पर्वत श्रेणियोंके साथ-साथ पाया जाने वाला प्रविष्ठन क्षेत्र (Subduction   zone) , इसकी उत्तरी सीमा निर्धारित करता है- जो महाद्वीपीय- महाद्वीपीय अभिसरण (Continent-continent   convergence)  के रूप में हैं। (अर्थात् दो महाद्वीप प्लेटों की सीमा है) यह पूर्व दिशा में म्याँमार के राकिन्योमा पर्वत से होते हुए एक चाप के रूप में जावा खाईतक फैला हुआ है। इसकी पूर्वी सीमा एक विस्तारित तल (Spreading   site)  है, जो आस्ट्रेलिया के पूर्व में दक्षिणी पश्चिमी प्रशांत महासागर में महासागरीय कटक के रूप में है। इसकी पश्चिमी सीमा पाकिस्तान की किरथर श्रेणियों का अनुसरण करती है। यह आगे मकरान तट के साथ-साथ होती हुई दक्षिण-पूर्वी चागोस द्वीप समूह (Chagos   archipelago)  के साथ-साथ लाल सागर द्रोणी (जो विस्तारण तल है) में जा मिलती है। भारतीय तथा आर्कटिक प्लेट की सीमा भी महासागरीय कटक से निर्धारित होती है (जो एक अपसारी सीमा (Divergent   boundary)  है।) और यह लगभग पूर्व-पश्चिम दिशा में होती हुई न्यूजीलैंड के दक्षिण में विस्तारित तल में मिल जाती है।

भारत एक वृहत् द्वीप था, जो आस्ट्रेलियाई तट से दूर एक विशाल महासागर में स्थित था। लगभग 22.5 करोड़ वर्ष पहले तक टेथीस सागर इसे एशिया महाद्वीप से अलग करता था। एेसा माना जाता है किलगभग 20 करोड़ वर्ष पहले, जब पैंजिया विभक्त हुआ तब भारत ने उत्तर दिशा की ओर खिसकना आरंभकिया। लगभग 4 से 5 करोड़ वर्ष पहले भारत एशिया से टकराया व परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत काउत्थान हुआ। 7.1 करोड़ वर्ष पहले से आज तक की भारत की स्थिति मानचित्र 4.6 में दिखाई गई है।आरेख 4.6 भारतीय उपमहाद्वीप व यूरेशियन प्लेट की स्थिति भी दर्शाता है। आज से लगभग 14 करोड़ वर्ष पहले यह उपमहाद्वीप सुदूर दक्षिण में 50 0  दक्षिणी अक्षांश पर स्थित था। इन दो प्रमुख प्लेटों को टेथिस सागर अलग करता था और तिब्बतीय खंड, एशियाई स्थलखंड के करीब था। भारतीय प्लेट केयूरेशियन प्लेट की तरफ प्रवाह के दौरान एक प्रमुख घटना घटी-वह थी लावा प्रवाह से दक्कन ट्रेप कानिर्माण होना। एेसा लगभग 6 करोड़ वर्ष पहले आरंभ हुआ और एक लंबे समय तक यह जारी रहा। याद रहेकि यह उपमहाद्वीप तब भी भूमध्यरेखा के निकट था। लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले और इसके पश्चात्हिमालय की उत्पत्ति आरम्भ हुई। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और हिमालय कीऊँचाई अब भी बढ़ रही है।


अभ्यास


1. बहुवैकल्पिक प्रश्न :

(i)  निम्न में से किसने सर्वप्रथम यूरोप, अफ्रीका व अमेरिका के साथ स्थित होने की संभावना व्यक्त की?

(क) अल्फ्रेड वेगनर                (ख) अब्राहम आरटेलियस

(ग) एनटोनियो पेलेग्रिनी                (घ) एडमंड हैस

(ii)  पोलर फ्लीइंग बल (Polar   fleeing   force)  निम्नलिखित में से किससे संबंधित है?

(क) पृथ्वी का परिक्रमण        (ख) पृथ्वी का घूर्णन

(ग) गुरुत्वाकर्षण        (घ) ज्वारीय बल

(iii)  इनमें से कौन सी लघु (Minor)  प्लेट नहीं है?

(क) नजका        (ख) फिलिपीन

(ग)अरब                (घ) अंटार्कटिक

(iv)  सागरीय अधस्तल विस्तार सिद्धांत की व्याख्या करते हुए हेस ने निम्न में से किस अवधारणा पर विचार नहीं किया?

(क) मध्य-महासागरीय कटकों के साथ ज्वालामुखी क्रियाएँ।

(ख) महासागरीय नितल की चट्टानों में सामान्य व उत्क्रमण चुंबकत्व क्षेत्र की पट्टियों का होना।

(ग) विभिन्न महाद्वीपों में जीवाश्मों का वितरण।

(घ) महासागरीय तल की चट्टानों की आयु।

(v)  हिमालय पर्वतों के साथ भारतीय प्लेट की सीमा किस तरह की प्लेट सीमा है?

(क) महासागरीय-महाद्वीपीय अभिसरण

(ख) अपसारी सीमा

(ग) रूपांतर सीमा

(घ) महाद्वीपीय-महाद्वीपीय अभिसरण।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए :

(i)          महाद्वीपों के प्रवाह के लिए वेगनर ने निम्नलिखित में से किन बलों का उल्लेख किया?

(ii)          मैंटल में संवहन धाराओं के आरंभ होने और बने रहने के क्या कारण हैं?

(iii)  प्लेट की रूपांतर सीमा, अभिसरण सीमा और अपसारी सीमा में मुख्य अंतर क्या है?

(iv)  दक्कन ट्रेप के निर्माण के दौरान भारतीय स्थलखंड की स्थिति क्या थी?

3.        निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए :

(i)          महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के पक्ष में दिए गए प्रमाणों का वर्णन करें।

(ii)          महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत व प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत में मूलभूत अंतर बताइए।

(iii)          महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत के उपरांत की प्रमुख खोज क्या है, जिससे वैज्ञानिकों ने महासागर व महाद्वीपीय वितरण के अध्ययन में पुनः रुचि ली?

परियोजना कार्य

भूकंप के कारण हुई क्षति से संबंधित एक कोलाज बनाइए।