अध्याय 6

भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई? इसकी पर्पटी एवं अन्य आंतरिक संस्तरों का क्रम-विकास कैसे हुआ? भूपर्पटीप्लेट्स का संचलन किस प्रकार हुआ एवं कैसे हो रहा है? भूकंप, ज्वालामुखी के प्रकार एवं भू-पर्पटी को निर्मितकरने वाले शैलों और खनिजों के विषय में सूचनाओं की जानकारी के पश्चात् अब हम जिस धरातल पर रहते हैं,उसके विषय में भी विस्तार से जानने का प्रयास करेंगे। हम इस प्रश्न के साथ प्रारंभ करते हैंः

धरातल असमतल क्यों है?

सर्वप्रथम भू-पर्पटी गत्यात्मक है। आप अच्छी तरह जानते हैं कि यह क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर दिशाओं में संचलित होती रहती है। निश्चित तौर पर यह भूतकाल में वर्तमान गति की अपेक्षा थोड़ ी तीव्रतर संचलित होती थी। भू-पर्पटी का निर्माण करने वाले पृथ्वी के भीतर सक्रिय आंतरिक बलों में पाया जाने वाला अंतर ही पृथ्वी के बाह्य सतह में अंतर के लिए उत्तरदायी है। मूलतः, धरातल सूर्य से प्राप्त ऊर्जा द्वारा प्रेरित बाह्य बलों से अनवरत प्रभावित होता रहता है। निश्चित रूप से आंतरिक बल अभी भी सक्रिय हैं, यद्यपि उनकी तीव्रता में अंतर है।इसका तात्पर्य है कि धरातल पृथ्वी मंडल के अंतर्गत उत्पन्न हुए बाह्य बलों एवं पृथ्वी के अंदर उद्भूत आंतरिक बलों से अनवरत प्रभावित होता है तथा यह सर्वदा परिवर्तनशील है। बाह्य बलों को बहिर्जनिक (Exogenic)  तथा आंतरिक बलों को अंतर्जनित (Endogenic)  बल कहते हैं। बहिर्जनिक बलों की क्रियाओं का परिणाम होता है- उभरी हुई भू-आकृतियों का विघर्षण (Wearing   down)  तथा बेसिन/निम्न क्षेत्रों/गर्तों का भराव (अधिवृद्धि/तल्लोचन)। धरातल पर अपरदन के माध्यम से उच्चावच के मध्य अंतर के कम होने को तल संतुलन   (Gradation)  कहते हैं। अंतर्जनित शत्तिηयाँ निरंतर धरातल के भागों को ऊपर उठाती हैं या उनका निर्माण करती हैं तथा इस प्रकार बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ उच्चावच में भिन्नता को सम (बराबर) करने में असफल रहती हैं। अतएव भिन्नता तब तक बनी रहती है जब तक बहिर्जनिक एवं अन्तर्जनित बलों के विरोधात्मक कार्य चलते रहते हैं। सामान्यतः अंतर्जनित बल मूल रूप से भू-आकृति निर्माण करने वाले बल हैं तथा बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ मुख्य रूप से भूमि विघर्षण बल होती हैं।

भू-तल संवेदनशील है। मानव अपने निर्वाह के लिए इस पर निर्भर करता है तथा इसका व्यापक एवं सघन उपयोग करता है। लगभग सभी जीवों का धरातल के पर्यावरण के अनुवाह (Sustain)  में योगदान होता है। मनुष्यों ने संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया है। हमें इनका उपयोग करना चाहिए, किंतु भविष्य में जीवन निर्वाह के लिए इसकी पर्याप्त संभाव्यता को बचाये रखना चाहिए। धरातल के अधिकांश भाग को बहुत लंबी अवधि (सैकड़ ों-हज़ारों-वर्षों) में आकार प्राप्त हुआ है तथा मानव द्वारा इसके उपयोग, दुरुपयोग एवं कुप्रयोग के कारण इसकी संभाव्यता (विभव) में बहुत तीव्र गति से ह्रास हो रहा है। यदि उन प्रक्रियाओं, जिन्होंने धरातल को विभिन्न आकार दिया और अभी दे रही हैं, तथा उन पदार्थों की प्रकृति जिनसे यह निर्मित है, को समझ लियाजाए तो निश्चित रूप से मानव उपयोग जनित हानिकारक प्रभाव को कम करने एवं भविष्य के लिए इसके संरक्षण हेतु आवश्यक उपाय किए जा सकते हैं।

भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

(Geomorphic   Processes)

आप भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ के अर्थ को समझना चाहेंगे। धरातल के पदार्थों पर अंतर्जनित एवं बहिर्जनिक बलों द्वारा भौतिक दबाव तथा रासायनिक क्रियाओं के कारण भूतल के विन्यास में परिवर्तन को भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ कहते हैं। पटल विरूपण (Diastrophism)  एवं ज्वालामुखीयता (Volcanism)  अंतर्जनित भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ हैं, जो इससे पहले की इकाई में संक्षेप में विवेचित हैं। अपक्षय, वृहत क्षरण (Mass   wasting) , अपरदन एवं निक्षेपण (Deposition)  बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ हैं। इनका इस अध्याय में विस्तार से विवेचन किया गया है।

प्रकृति के किसी भी बहिर्जनिक तत्त्व (जैसे- जल, हिम, वायु इत्यादि), जो धरातल के पदार्थों का अधिग्रहण (Acquire)  तथा परिवहन करने में सक्षम है, को भू-आकृतिक कारक  कहा जा सकता है। जब प्रकृति के ये तत्त्व ढाल प्रवणता के कारण गतिशील हो जाते हैं तो पदार्थों को हटाकर ढाल के सहारे ले जाते हैं और निचले भागों में निक्षेपित कर देते हैं। भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ तथा भू-आकृतिक कारक विशेषकर बहिर्जनिक, को यदि स्पष्ट रूप से अलग-अलग न कहा जाए तो इन्हें एक ही समझना होगा क्योंकि ये दोनों एक ही होते हैं।

एक प्रक्रिया एक बल होता है जो धरातल के पदार्थों के साथ अनुप्रयुत्तη होने पर प्रभावी हो जाता है। एक कारक (Agent)  एक गतिशील माध्यम (जैसे- प्रवाहित जल, हिमानी, हवा, लहरें एवं धाराएँ इत्यादि) है जो धरातल के पदार्थों को हटाता, ले जाता तथा निक्षेपित करता है। इस प्रकार प्रवाहयुत्तη जल, भूमिगत जल, हिमानी, हवा, लहरों, धाराओं इत्यादि को भू-आकृतिक कारक कहा जा सकता है।

क्या आप समझते हैं भू-आकृतिक कारकों एवं भू-आकृतिक प्रक्रियाओं में अंतर करना आवश्यक है?

गुरुत्वाकर्षण, ढाल के सहारे सभी गतिशील पदार्थों को सक्रिय बनाने वाली दिशात्मक (Directional)  बल होने के साथ-साथ धरातल के पदार्थों पर दबाव (Stress)  डालता है। अप्रत्यक्ष गुरुत्वाकर्षक प्रतिबल (Stress)  लहरों एवं ज्वार-भाटा जनित धाराओं को क्रियाशील बनाता है। निःसंदेह गुरुत्वाकर्षण एवं ढाल प्रवणता के अभाव में गतिशीलता संभव नहीं हैं अतः अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण भी नहीं होगा। गुरुत्वाकर्षण एक एेसा बल है जिसके माध्यम से हम धरातल से संपर्क में रहते हैं। यह वह बल है जो भूतल के सभी पदार्थों के संचलन को प्रारंभ करता है। सभी संचलन, चाहे वे पृथ्वी के अंदर हों या सतह पर, प्रवणता के कारण ही घटित होते हैं, जैसे ऊँचे स्तर से नीचे स्तर की ओर, तथा उच्च वायु दाब क्षेत्र से निम्न वायु दाब क्षेत्र की ओर।

अंतर्जनित प्रक्रियाएँ (Endogenic   processes)

पृथ्वी के अंदर से निकलने वाली ऊर्जा भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के लिए प्रमुख बल स्रोत होती है। पृथ्वी के अंदर की ऊर्जा अधिकांशतः रेडियोधर्मी क्रियाओं, घूर्णन (Rotational)  एवं ज्वारीय घर्षण तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से जुड़ ी ऊष्मा द्वारा उत्पन्न होती है। भू-तापीय प्रवणता एवं अंदर से निकले ऊष्मा प्रवाह से प्राप्त ऊर्जा पटल विरूपण (Disastrophism)   एवं ज्वालामुखीयता को प्रेरित करती है। भू-तापीय प्रवणता एवं अंदर के ऊष्मा प्रवाह, भू-पर्पटी की मोटाई एवं दृढ़ता में अंतर के कारण अंतर्जनित बलों के कार्य समान नहीं होते हैं। अतः विवर्तनिक द्वारा नियंत्रित मूल भू-पर्पटी की सतह असमतल होती है।

पटल विरूपण (Diastrophism)

सभी प्रक्रियाएँ जो भू-पर्पटी को संचलित, उत्थापित तथा निर्मित करती हैं, पटल विरूपण  के अंतर्गत आती हैं। इनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं ः ( i ) तीक्ष्ण वलयन के माध्यम से पर्वत निर्माण तथा भू-पर्पटी की लंबी एवंसंकीर्ण पट्टियों को प्रभावित करने वाली पर्वतनी प्रक्रियाएँ ( ii ) धरातल के बड़ े भाग के उत्थापन या विकृति में संलग्न महाद्वीप रचना संबंधी प्रक्रियाएँ, ( iii ) अपेक्षाकृत छोटे स्थानीय संचलन के कारण उत्पन्न भूकंप, ( iv ) पर्पटी प्लेट के क्षैतिज संचलन करने में प्लेट विवर्तनिकी की भूमिका। प्लेट विवर्तनिक/पर्वतनी की प्रक्रिया में भू-पर्पटी वलयन के रूप में तीक्ष्णता से विकृत हो जाती है। महाद्वीप रचना के कारण साधारण विकृति हो सकती है। पर्वतनी पर्वत निर्माण प्रक्रिया है, जबकि महाद्वीप रचना महाद्वीप निर्माण-प्रक्रिया है। पर्वतनी, महाद्वीप रचना (Epeirogeny) , भूकंप एवं प्लेट विवर्तनिक की प्रक्रियाओं से भू-पर्पटी में भ्रंश तथा विभंग हो सकता है। इन सभीप्रक्रियाओं के कारण दबाव, आयतन तथा तापक्रम में परिवर्तन होता है जिसके फलस्वरूप शैलों का कायांतरणप्रेरित होता है।


ज्वालामुखीयता (Volcanism)

ज्वालामुखीयता के अंतर्गत पिघली हुई शैलों या लावा (Magma)  का भूतल की ओर संचलन एवं अनेक आंतरिक तथा बाह्य ज्वालामुखी स्वरूपों का निर्माण सम्मिलित होता है। इस पुस्तक की द्वितीय इकाई के ज्वालामुखी शीर्षक एवं पिछले अध्याय के आग्नेय शैलें शीर्षक के अंतर्गत ज्वालामुखीयता के बहुत से पक्षों का विस्तृतविवरण दिया जा चुका है।

ज्वालामुखीयता एवं ज्वालामुखी शब्दों में भेद बताइए।


बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ (Exogenic   processes)

बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ अपनी ऊर्जा ‘सूर्य द्वारा निर्धारित वायुमंडलीय ऊर्जा एवं अंतर्जनित शत्तिηयों से नियंत्रित विवर्तनिक (Tectonic)  कारकों से उत्पन्न प्रवणता से प्राप्त करती हैं।

आप क्यों सोचते हैं कि ढाल या प्रवणता बहिर्जनिक बलों से नियंत्रित विवर्तनिक कारकों द्वारा निर्मित होते हैं?

गुरुत्वाकर्षण बल ढालयुत्तη सतह वाले धरातल पर कार्यरत रहता है तथा ढाल की दिशा में पदार्थ को संचलित करता है। प्रति इकाई क्षेत्र पर अनुप्रयुत्तη बल को प्रतिबल (Stress)  कहते हैं। ठोस पदार्थ में प्रतिबल (Stress)  धक्का एवं खिंचाव (Push   and   pull)  से उत्पन्न होता है। इससे विकृति प्रेरित होती है। धरातल के पदार्थों के सहारे सक्रिय बल अपरूपण प्रतिबल (Shear   stresses)  (विलगकारी बल) होते हैं। यही प्रतिबल शैलों एवं धरातल के पदार्थों को तोड़ ता है। अपरूपण प्रतिबल का परिणाम कोणीय विस्थापन (Angular   displacement)  या विसर्पण/फिसलन (Slippage)  होता है। धरातल के पदार्थ गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल के अतिरिक्त आण्विक प्रतिबलों से भी प्रभावित होते हैं, जो कई कारकों, जैसे- तापमान में परिवर्तन, क्रिस्टलन (Crystalisation)  एवं पिघलन द्वारा उत्पन्न होते हैं। रासायनिक प्रक्रियाएँ सामान्यतः कणों (Grains)  के बीच के बंधन को ढीला करते हैं तथा विलेय पदार्थों को घुला देते हैं। इस प्रकार, धरातल के पदार्थों के पिंड (Body)  में प्रतिबल का विकास अपक्षय, वृहत् क्षरण संचलन, अपरदन एवं निक्षेपण का मूल कारण है।

चूँकि, धरातल पर विभिन्न प्रकार के जलवायु प्रदेश मिलते हैं इसलिए बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रकियाएँ भी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में भिन्न होती हैं। तापक्रम तथा वर्षण दो महत्त्वपूर्ण जलवायवीय तत्त्व हैं, जो विभिन्न प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं।

सभी बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को एक सामान्य शब्दावली अनाच्छादन   (Denudation)  के अंतर्गत रखा जा सकता है। अनाच्छादनशब्द का अर्थ है निरावृत्त (Strip   off)  करना या आवरण हटाना। अपक्षय, वृहत् क्षरण, संचलन, अपरदन, परिवहन आदि सभी इसमें सम्मिलित किये जाते हैं। प्रवाह चित्र (चित्र 6.1) अनाच्छादन प्रक्रियाओं तथा उनसे संबंधितप्रेरक बल को दर्शाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि प्रत्येक प्रक्रिया के लिए एक विशिष्ट प्रेरक बल याऊर्जा होती है।

बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न-भिन्न होती हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि पृथ्वी के धरातल पर तापीय प्रवणता के कारण भिन्न-भिन्न जलवायु प्रदेश स्थित हैं जो कि अक्षांशीय, मौसमी एवं जल-थल विस्तार में भिन्नता के द्वारा उत्पन्न होते हैं। तापमान एवं वर्षण जलवायु के दो महत्त्वपूर्ण घटक हैं जो कि विभिन्न भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। वनस्पति का घनत्व, प्रकार एवं वितरण, जो प्रमुखतः वर्षा एवं तापक्रम पर निर्भर करते हैं, बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं। विभिन्न जलवायु-प्रदेशों में विभिन्न जलवायवी तत्त्वों जैसे- ऊँचाई में अंतर, दक्षिणमुखी ढालों पर पूर्व एवं पश्चिममुखी ढालों की अपेक्षा अधिक सूर्यातप प्राप्ति आदि के कारण स्थानीय भिन्नता पायी जाती है। पुनश्च, वायु का वेग एवं दिशा, वर्षण की मात्रा एवं प्रकार, इसकी गहनता, वर्षण एवं वाष्पीकरण में संबंध, तापक्रम की दैनिक श्रेणी, हिमकरण एवं पिघलन की आवृत्ति, तुषार (Frost)  व्यापन की गहराई इत्यादि में अंतर के कारण किसी भी जलवायु प्रदेश के अंदर भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।

सभी बहिर्जनिक प्रक्रियाओं के पीछे एकमात्र प्रेरक बल क्या होता है?

यदि जलवायवी कारक समान हों तो बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के कार्यों की गहनता शैलों के प्रकार एवं संरचना पर निर्भर करती है। संरचना में वलन, भ्रंश, संस्तर का पूर्वाभिमुखीकरण (Orientation) , झुकाव, जोड़ ों की उपस्थिति या अनुपस्थिति, संस्तरण तल, घटक खनिजों की कठोरता या कोमलता तथा उनकी रासायनिक संवेदनशीलता, पारगम्यता (Permeability)  या अपारगम्यता इत्यादि सम्मिलित माने गये हैं।

विभिन्न प्रकार की शैलें अपनी संरचना में भिन्नता के कारण भू-आकृतिक प्रतिक्रियाओं के प्रति विभिन्न प्रतिरोध क्षमता प्रस्तुत करती हैं। एक विशेष शैल एक प्रक्रिया के प्रति प्रतिरोधपूर्ण तथा वही दूसरी प्रक्रिया के प्रति प्रतिरोधरहित हो सकती हैं विभिन्न जलवायवी दशाओं में एक विशेष प्रकार की शैलें भू-आकृतिक प्रतिक्रियाओं के प्रति भिन्न-भिन्न अंशों का प्रतिरोध प्रस्तुत कर सकती हैं अतएव वे भिन्न दरों पर कार्यरत रहती हैं तथा स्थलाकृति में भिन्नता का कारण बन जाती हैं। अधिकांश बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रतिक्रियाओं का प्रभाव थोड़ ा एव मंद होता है तथा अल्पावधि में अनवगम्य (Imperceptible)  हो सकता है। दीर्घावधि में यह सतत श्रांति (Fatigue)  के कारण शैलों को तीव्र रूप से प्रभावित करता है।

अंततः यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि धरातल पर विभिन्नता यद्यपि मूल रूप से भू-पर्पटी के उद्भव से संबंधित है, तथापि धरातल के पदार्थों के प्रकार एवं संरचना में अंतर, भू-आकृतिक प्रक्रियाओं एवं उनके सक्रियता दर में अंतर आदि के कारण एक ना एक रूप में विद्यमान रहती है।

कुछ बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं का यहाँ विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।


अपक्षय (Weathering)

अपक्षय के अंतर्गत वायुमंडलीय तत्त्वों की धरातल के पदार्थों पर की गई क्रिया सम्मिलित होती है। अपक्षय केअंदर ही अनेक प्रक्रियाएँ हैं जो पृथक या (प्रायः) सामूहिक रूप से धरातल के पदार्थों को प्रभावित करती हैं।

अपक्षय को मौसम एवं जलवायु के कार्यों के माध्यम से शैलों के यांत्रिक विखंडन (Mechanical)  एवं रासायनिक वियोजन/ अपघटन (Decomposition)  के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

चूँकि, अपक्षय में पदार्थों का बहुत-थोड़ ा अथवा नगण्य संचलन होता है यह एक स्वस्थाने (In   situ)  या तदस्थन (On-site)  प्रक्रिया है।

क्या अपक्षय के कारण कभी-कभी होने वाली यह धीमी गति परिवहन का पर्याय है? यदि नहीं तो क्यों?

अपक्षय-प्रक्रियाएँ जटिल भौमिकी, जलवायवी, स्थलाकृतिक एवं वनस्पतिक कारकों द्वारा प्रानुकूलित (Conditioned)  होती हैं। इन सबमें जलवायु का विशेष महत्त्व है। न केवल अपक्षय प्रक्रियाएँ अपितु अपक्षय मैंटल की गहराई भी एक जलवायु से दूसरे जलवायु में भिन्न-भिन्न होती है (चित्र 6.2)।

चित्र 6.2 में विभिन्न जलवायु प्रदेशों के अक्षांश को अंकित कीजिए तथा उनसे प्राप्त विवरण की तुलना कीजिए।

अपक्षय प्रक्रियाओं के तीन प्रमुख प्रकार हैं ः (1) रासायनिक (2) भौतिक या यांत्रिक एवं (3) जैविक। इनमें से कोई एक प्रक्रिया कतिपय ही अकेले काम करती है परंतु प्रायः किसी एक प्रक्रिया का अधिक महत्त्वपूर्णयोगदान देखा जा सकता है।


रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ

(Chemical   Weathering   Processes)

अपक्षय प्रक्रियाओं का एक समूह जैसे कि विलयन, कार्बोनेटीकरण, जलयोजन, अॉक्सीकरण तथा न्यूनीकरणशैलों के अपघटन, विलयन अथवा न्यूनीकरण का

कार्य करते हैं, जो कि रासायनिक क्रिया द्वारा सूक्ष्म (Clastic)   अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं। अॉक्सीजन, धरातलीय जल, मृदा-जल एवं अन्य अम्लों की प्रक्रिया द्वारा चट्टानों का न्यूनीकरण होता है। इसमें ऊष्मा के साथ जल एवं वायु (अॉक्सीजन तथा कार्बन डाईअॉक्साइड) की विद्यमानता सभी रासायनिक प्रतिक्रियाओं को तीव्र गति देने के लिए आवश्यक है। वायु में विद्यमान कार्बन डाईअॉक्साइड के अतिरित्तη पौधों एवं पशुओं का अपघटन भूमिगत कार्बन डाईअॉक्साइड की मात्रा को बढ़ा देता है। विभिन्न खनिजों पर रासायनिक प्रतिक्रियाएँ किसी अनुसंधानशाला में प्रतिक्रियाओं के समान ही होती हैं।


भौतिक अपक्षय प्रक्रियाएँ

(Physical   Weathering   Processes)

भौतिक या यांत्रिक अपक्षय-प्रक्रियाएँ कुछ अनुप्रयुत्तη बलों (Forces)  पर निर्भर करती हैं। ये अनुप्रयुत्तη बल निम्नलिखित हो सकते हैं ः ( i ) गुरुत्वाकर्षक बल, जैसे अत्यधिक ऊपर भार दबाव, एवं अपरूपण प्रतिबल (Shear   stress) , ( ii ) तापक्रम में परिवर्तन, क्रिस्टल रवों में वृद्धि एवं पशुओं के क्रियाकलापों के कारण उत्पन्न विस्तारण (Expansion)  बल, ( iii ) शुष्कन एवं आर्द्रन चक्रों से नियंत्रित जल का दबाव। इनमें से कई बल धरातल एवं विभिन्न धरातल पदार्थों के अंदर अनुप्रयुक्त होती हैं जिसका परिणाम शैलों का विभंग (Fracture)  होता है। भौतिक अपक्षय प्रक्रियाओं में अधिकांश तापीय विस्तारण एवं दबाव के निर्मुत्तη होने (Release)  के कारण होता है। ये प्रक्रियाएँ लघु एवं मंद होती हैं परंतु कई बार संकुचन एवं विस्तारण के कारण शैलों के सतत् श्रांति (Fatigue)  के फलस्वरूप ये शैलों को बड़ ी हानि पहुँचा सकती हैं।


जैविक कार्य एवं अपक्षय (Biological   activity   and   weathering)

जैविक अपक्षय, जीवों की वृद्धि या संचलन से उत्पन्न अपक्षय-वातावरण एवं भौतिक परिवर्तन से खनिजों एवं आयन (Ions)  के स्थानांतरण की दिशा में एक योगदान है। केंचुओं, दीमकों, चूहों, कृंतकों इत्यादि जैसे जीवों द्वारा बिल खोदने एवं वेजिंग (फान) के द्वारा नयी सतहाें (Surfaces)  का निर्माण होता है जिससे रासायनिक प्रक्रिया के लिए अनावृत्त (Expose)  सतह में नमी एवं हवा के वेधन में सहायता मिलती है। मानव भी वनस्पतियों को अस्त-व्यस्त कर, खेत जोतकर एवं मिट्टी में कृषि करके धरातलीय पदार्थों में वायु, जल एवं खनिजों के मिश्रण तथा उनमें नये संपर्क स्थापित करने में सहायक होता है। सड़ ने वाले पौधों एवं पशुओं के पदार्थ; ह्यूमिक, कार्बनिक एवं अन्य अम्ल जैसे तत्त्वों केउत्पादन में योगदान देते हैं जिससे कुछ तत्त्वों का सड़ ना, क्षरण तथा घुलन बढ़ जाता है। पौधों की जड़ ेंधरातल के पदार्थों पर जबरदस्त दबाव डालती हैं तथा उन्हें यांत्रिक ढंग (Mechanically)  से तोड़ कर अलग-अलग कर देती हैं।


अपक्षय के विशेष प्रभाव (Special   effects   of   weathering)

अपशल्कन

इसकी व्याख्या पहले ही भौतिक अपक्षय प्रक्रियाओं, तापीय संकुचन एवं फैलाव तथा लवण अपक्षय के अंतर्गत की जा चुकी है। अपशल्कन एक परिणाम है, प्रक्रिया नहीं। शैल या आधार शैल के ऊपर से मोटे तौर पर घुमावदार चादर के रूप में उत्खंडित या पत्रकन होता है जिसके परिणामस्वरूप चिकनी एवं गोल सतह का निर्माण होता है। अपशल्कन अभारितकरण (Unloading)   एवं तापक्रम परिवर्तन द्वारा प्रेरित फैलाव एवं संकुचन के कारण भी होता है। अपशल्कित गुंबद एवं टार्स क्रमशः अभारितकरण एवं तापीय संकुचन से उत्पन्न होते हैं।

अपक्षय का महत्त्व (Significance   of   weathering)

अपक्षय प्रक्रियाएँ शैलों को छोटे-छोटे टुकड़ ों में तोड़ ने तथा न केवल आवरण प्रस्तर एवं मृदा निर्माण के लिएमार्ग प्रशस्त करते हैं अपितु अपरदन एवं वृहत संचलन (Mass   movement)  के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। जैव मात्रा एवं जैव-विविधता प्रमुखतः वनों (वनस्पति) की देन है तथा वन, अपक्षयी प्रावार (Weathering   mantle)  कीगहराई पर निर्भर करता है। यदि शैलों का अपक्षय न हो तो अपरदन का कोई महत्त्व नहीं होता। इसका अर्थ है कि अपक्षय वृहत क्षरण, अपरदन, उच्चावच के लघुकरण में सहायक होता है एवं स्थलाकृतियाँ अपरदन का परिणाम हैं। शैलों का अपक्षय एवं निक्षेपण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मूल्यवान खनिजों जैसे- लोहा, मैंगनीज, एल्यूमिनियम, ताँबा के अयस्कों के समृद्धीकरण (Enrichment)  एवं संकेंद्रण (Concentration)  में यह सहायक होता है। अपक्षय मृदा निर्माण की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है।

चित्र 6.3 ः भारत-नेपाल सीमा, उत्तर प्रदेश में शारदा नदी के निकट शिवालिक हिमालय  शृंखलाओं में भूस्खलन स्कार

जब शैलों का अपक्षय होता है तो कुछ पदार्थ भूमिगत जल द्वारा रासायनिक तथा भौतिक निक्षालन के माध्यम से स्थानांतरित हो जाते हैं तथा शेष बहुमूल्य पदार्थों का संकेंद्रण हो जाता है। इस प्रकार के अपक्षय के हुए बिना बहुमूल्य पदार्थों का संकेंद्रण अपर्याप्त होगा तथा आर्थिक दृष्टि से उनका दोहन प्रक्रमण तथा शोधन के लिए व्यवहार्य नहीं होगा। इसीको समृद्धिकरण

कहते हैं।

बृहत् संचलन (Mass   movement)

बृहत् संचलन के अंतर्गत वे सभी संचलन आते हैं, जिनमें शैलों का बृहत् मलवा (Debris)  गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण ढाल के अनुरूप स्थानांतरित होता है। इसका तात्पर्य है कि वायु, जल, हिम ही अपने साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक मलवा नहीं ढोते, अपितु मलवा भी अपने साथ वायु, जल या हिम ले जाते हैं। बृहत्मलबे की संचलन गति मंद से तीव्र हो सकती है जिसके फलस्वरूप पदार्थों के छिछले से गहरे स्तंभ प्रभावित होते हैं जिनके अंतर्गत विसर्पण, बहाव, स्खलन एवं पतन (Fall)  सम्मिलित होते हैं। गुरुत्वाकर्षण बल आधार शैलों एवं अपक्षय से पैदा सभी पदार्थों पर अपना प्रभाव डालता है। यद्यपि बृहत् संचलन के लिए अपक्षय अनिवार्य नहीं है, परंतु यह इसे बढ़ावा देता है। बृहत् संचलन अपक्षयित ढालों पर अनपक्षयित पदार्थों की अपेक्षा बहुत अधिक सक्रिय रहता है।

बृहत् संचलन में गुरुत्वाकर्षण शक्ति सहायक होती है तथा कोई भी भू-आकृतिक कारक जैसे- प्रवाहित जल, हिमानी, वायु, लहरें एवं धाराएँ बृहत् संचलन की प्रक्रिया में सीधे रूप से सम्मिलित नहीं होते इसका अर्थ है कि बृहत् संचलन अपरदन के अंदर नहीं आता है यद्यपि पदार्थों का संचलन (गुरुत्वाकर्षण की सहायता से) एक स्थान से दूसरे स्थान को होता रहता है। ढाल पर पदार्थ बाधक बलों के प्रति अपना प्रतिरोध प्रस्तुत करते हैं एवं तभी असफल होते हैं जब बल पदार्थों के अपरूपण प्रतिरोध से महानतर होते हैं। असंबद्ध कमजोर पदार्थ, छिछले संस्तर वाली शैलें, भ्रंश, तीव्रता से झुके हुए संस्तर, खड़ े भृगु या तीव्र ढाल, पर्याप्त वर्षा, मूसलाधार वर्षा तथा वनस्पति का अभाव बृहत् संचलन में सहायक होते हैं।

बृहत् संचलन की सक्रियता के कई कारक होते हैं। वे इस प्रकार हैं ः ( i ) प्राकृतिक एवं कृत्रिम साधनों द्वारा ऊपर के पदार्थों के टिकने के आधार का हटाना।

( ii ) ढालों की प्रवणता एवं ऊँचाई में वृद्धि,

( iii ) पदार्थों के प्राकृतिक अथवा कृत्रिम भराव के कारण उत्पन्न अतिभार, ( iv ) अत्यधिक वर्षा, संतृप्ति एवं ढालके पदार्थों के स्नेहन (Lubrication)  द्वारा उत्पन्न अतिभार, ( v ) मूल ढाल की सतह पर से पदार्थ या भार का हटना, ( vi ) भूकंप आना, ( vii ) विस्फोट या मशीनों का कंपन (Vibration) , ( viii ) अत्यधिक प्राकृतिक रिसाव, (ix)   झीलों, जलाशयों एवं नदियों से भारी मात्रा में जल निष्कासन एवं परिणामस्वरूप ढालों एवं नदी तटों के नीचे से जल का मंद गति से बहना, ( x ) प्राकृतिक वनस्पति का अंधाधुंध विनाश। संचलन के निम्न तीन रूप होते हैंः ( i ) अनुप्रस्थ विस्थापन (तुषार वृद्धि या अन्य कारणों से मृदा का अनुप्रस्थ विस्थापन), ( ii ) प्रवाह एवं ( iii ) स्खलन।

भूस्खलन (Landslides)

भूस्खलन अपेक्षाकृत तीव्र एवं अवगम्य संचलन है। इसमें स्खलित होने वाले पदार्थ अपेक्षतया शुष्क होते हैं। असंलग्न वृहत का आकार एवं आकृति शैल में अनिरंतरता की प्रकृत्ति, क्षरण का अंश तथा ढाल की ज्यामिति पर निर्भर करते हैं। इस वर्ग में पदार्थों के संचलन के प्रकार के आधार पर वर्ग में कई प्रकार के स्खलन पहचाने जा सकते हैं।

ढाल, जिसपर संचलन होता है, के संदर्भ में पश्च-आवर्तन (Rotation)  के साथ शैल-मलवा की एक या कई इकाइयों के फिसलन (Slipping)  को अवसर्पण कहते हैं। पृथ्वी के पिंड के पश्च-आवर्तन के बिना मलवा का तीव्र लोटन (Rolling)  या स्खलन मलवा स्खलन कहलाता है। मलवा स्खलन में खड़ े (Vertical)  या प्रलंबी फलक (Face)  से मिट्टी मलवा का प्रायः स्वतंत्र पतन होता है। संस्तर जोड़ या भ्रंश के नीचे पृथक शैल बृहत् के स्खलन को शैल स्खलन कहते हैं। तीव्र ढालों पर शैल स्खलन बहुत तीव्र एवं विध्वंसक होता है। चित्र 6.3 तीव्र ढाल पर भू-स्खलन की खरोंच दर्शाता है। तीव्र नति संस्तरण तल जैसे अनिरंतरताओं के सहारे स्खलन एक समतलीय पात के रूप में घटित होता है। किसी तीव्र ढाल के सहारे शैल खंडों का ढाल से दूरी रखते हुए स्वतंत्र रूप से गिरना शैल पतन (Fall)  कहलाता है। शैल पतन शैलों के फलक के उथले संस्तर से होता है जो इसे शैल स्खलन (जिसमें पदार्थ पर्याप्त गहराई तक प्रवाहित होते हैं) से अलग करता है।

बृहत् क्षरण एवं बृहत् संचलन में से आपके अनुसार कौन सी शब्दावली अधिक उपयुत्तη है? एवं क्यों?

क्यों मृदा सर्पण को तीव्र प्रवाह संचलन   (Rapid   flow   movement)   के अंतर्गत सम्मिलित किया जा सकता है? एेसा क्यों हो सकता है या क्यों नहीं?

हमारे देश में मलवा अवधाव एवं भूस्खलन हिमालय में प्रायः घटित होते हैं। इसके अनेक कारण हैं; पहला, हिमालय,विवर्तनिक दृष्टिकोण से सक्रिय है। यह अधिकांशतः परतदार शैलों एवं असंघटित एवं

अर्ध-संघटित पदार्थों से बना हुआ है। इसकी ढाल मध्यम न होकर तीव्र है। हिमालय की तुलना में तमिलनाडु, कर्नाटकएवं केरल की सीमा बनाता हुआ नीलगिरि एवं पश्चिमी तट के किनारे पश्चिमी घाट अपेक्षाकृत विवर्तनिकी दृष्टि से अधिकस्थायी   (Stable)   है तथा बहुत कठोर शैलों से निर्मित है; परंतु अब भी इन पहाड़ ियों में मलवा अवधाव एवं भूस्खलन होते रहते हैं, यद्यपि उनकी बारंबारता उतनी नहीं है जितनी हिमालय में। क्योंकि, पश्चिमी घाट एवं नीलगिरि में ढाल खड़ े भृगु एवं कगार के साथ तीव्रतर हैं। तापक्रम में परिवर्तन एवं ताप परिसर (Ranges)   के कारण यांत्रिक अपक्षय सुस्पष्ट होता है। वहाँ लघु अवधि में अधिक वर्षा होती है। अतः इन स्थानों में भूस्खलन एवं मलवा अवधाव के साथ प्रायः सीधे शैल पतन   (Direct   rock   fall)   होता है।

अपरदन एवं निक्षेपण

(Erosion   and   Deposition)

अपरदन के अंतर्गत शैलों के मलवे की अवाप्ति (Acquistion)   एवं उनके परिवहन को सम्मिलित किया जाता है। पिंडाकार शैलें जब अपक्षय एवं अन्य क्रियाओं के कारण छोटे-छोटे टुकड़ ों (Fragments)  में टूटती हैं तो अपरदन के भू-आकृतिक कारक जैसे कि प्रवाहित जल, भौमजल, हिमानी, वायु, लहरें एवं धाराएँ उनको एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थानों को ले जाते हैं जो कि इन कारकों के गत्यात्मक स्वरूप पर निर्भर करते हैं। भू-आकृतिक कारकों द्वारा परिवहन किया जाने वाले चट्टानी-मलबे द्वारा अपघर्षण भी अपरदन में पर्याप्त योगदान देता है। अपरदन द्वारा उच्चावचन का निम्नीकरण होता है, अर्थात् भूदृश्य विघर्षित होते हैं। इसका तात्पर्य है कि अपक्षय अपरदन में सहायक होता है, लेकिन अपक्षय अपरदन के लिए अनिवार्य दशा नहीं है। अपक्षय, बृहत् क्षरण एवं अपरदन निम्नीकरण की प्रक्रियाएँ हैं। बृहत् संचलन एवं अपरदन में अंतर है। बृहत् संचलन में शैल मलवा, चाहे वह शुष्क हो अथवा नम, गुरुत्वाकर्षण के कारण स्वयं आधारतल पर जाते हैं; परंतु प्रवाहशील जल, हिमानी, लहरें एवं धाराएँ तथा वायु निलंबित मलवे को नहीं ढोते हैं। वस्तुतः यह अपरदन ही है जो धरातल में होने वाले अनवरत परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। जैसा कि चित्र संख्या 6.1 से स्पष्ट है कि अपरदन एवं परिवहन जैसी अनाच्छादन प्रक्रियाएँ गतिज ऊर्जा द्वारा नियंत्रित होती हैं। धरातल के पदार्थों का अपरदन एवं परिवहन वायु, प्रवाहशील जल, हिमानी, लहरों एवं धाराओं तथा भूमिगत जल द्वारा होता है। इनमें से प्रथम तीन कारक जलवायवी दशाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं।

क्या आप जलवायु के इन तीन नियंत्रित कारकों की तुलना कर सकते हैं?

अपरदन के दो अन्य कारकों-लहरों एवं धाराओं तथा भूमिगत जल का कार्य जलवायु द्वारा नियंत्रित नहीं होता। लहरें थल एवं जलमंडल के अंतरापृष्ठ-तटीय प्रदेश में कार्य करती है, जबकि भूमिगत जल का कार्य प्रमुखतः किसी क्षेत्र की आश्मिक (Lithological)   विशेषताओं द्वारा निर्धारित होता है। यदि शैलें पारगम्य घुलनशील एवं जलप्राप्य हैं तो केवल कार्स्ट (चूनाकृत) आकृतियों का निर्माण होता है। अगले अध्याय में हम अपरदन के कारकों द्वारानिर्मित भूआकृतियों का विवरण प्रस्तुत करेंगे।

निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों के वेग में कमी आ जाती तो परिणामतः अवसादों का निक्षेपण प्रारंभ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, निक्षेपण वस्तुतः किसी कारक का कार्य नहीं होता। पहले स्थूल तथा बाद में सूक्ष्म पदार्थ निक्षेपित (Deposited)  होते हैं। निक्षेपण से निम्न भूभाग (Depressions)  भर जाते हैं। वहीं अपरदन के कारक, जैसे- प्रवाहयुत्तη जल, हिमानी, वायु, लहरें, धाराएँ एवं भूमिगत जल इत्यादि तल्लोचन अथवा निक्षेपण के कारक के रूप में भी कार्य करने लग जाते हैं।

अपरदन एवं निक्षेपण के कारण धरातल पर क्या होता है? इसका विवेचन अगले अध्यायः ‘भू-आकृतियाँ एवं उनका उद्भव (Evolution) ’ में विस्तृत रूप से किया गया है।

बृहत् संचलन एवं अपरदन दोनों में पदार्थों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण होता है। अतः दोनों एक ही माने जा सकते हैं या नहीं? यदि नहीं, तो क्यों? क्या शैलों के अपक्षय के बिना पर्याप्त अपरदन संभव हो सकता है?

मृदा निर्माण (Soil   formation)

आप पौधों को मृदा में बढ़ते हुए देखते हैं। आप मैदान में खेलते हैं और मृदा के संपर्क में आते हैं। आप मृदा को छूतेहैं, उसका अनुभव करते हैं और आपके कपड़ ों पर भी मिट्टी लग जाती है। आपको कैसा अनुभव होता है? क्याआप बता सकते हैं?

मृदा एक गत्यात्मक माध्यम है जिसमें बहुत सी रासायनिक, भौतिक एवं जैविक क्रियाएँ अनवरत चलती रहती हैं। मृदा अपक्षय अपकर्ष का परिणाम है, यह वृद्धि का माध्यम भी है। यह एक परिवर्तनशील एवं विकासोन्मुख तत्त्व है। इसकी बहुत सी विशेषताएँ मौसम के साथ बदलती रहती हैं। यह वैकल्पिक रूप से ठंडी और गर्म या शुष्क एवं आर्द्र हो सकती हैं। यदि मृदा बहुत अधिक ठंडी या बहुत अधिक शुष्क होती है तो जैविक क्रिया मंद या बंद हो जाती है। यदि इसमें पत्तियाँ गिरती हैं या घासें सूख जाती हैं तो जैव पदार्थ बढ़ जाते हैं।

मृदा निर्माण की प्रक्रियाएँ (Process   of   Soil   formation)

मृदा निर्माण या मृदाजनन (Pedogenesis)  सर्वप्रथम अपक्षय पर निर्भर करती है। यह अपक्षयी प्रावार (अपक्षयी पदार्थ की गहराई) ही मृदा निर्माण का मूल निवेश होता है। सर्वप्रथम अपक्षयित प्रावार या लाए गए पदार्थों के निक्षेप, बैक्टेरिया या अन्य निकृष्ट पौधे जैसे काई एवं लाइकेन द्वारा उपनिवेशित किए जाते हैं। प्रावार एवं निक्षेप के अंदर कई गौण जीव भी आश्रय प्राप्त कर लेते हैं। जीव एवं पौधों के मृत्त अवशेष ह्यूमस के एकत्रीकरण में सहायक होते हैं। प्रारंभ में गौण घास एवं फर्न्स की वृद्धि हो सकती है बाद में पक्षियों एवं वायु द्वारा लाए गए बीजों से वृक्ष एवं झाड़ ियों में वृद्धि होने लगती है। पौधों की जड़ ें नीचे तक घुस जाती हैं। बिल बनाने वाले, जानवर कणों (Particles)  को ऊपर लाते हैं, जिससे पदार्थों का पुंज (अंबार) छिद्रमय एवं स्पंज की तरह हो जाता है। इस प्रकार जल-धारण करने की क्षमता, वायु के प्रवेश आदि के कारण अंततः परिपक्व, खनिज एवं जीव-उत्पाद युत्तη मृदा का निर्माण होता है।

क्या अपक्षय मिट्टी के निर्माण के लिए पूर्णरूप से उत्तरदायी है? यदि नहीं तो क्यों?

पेडालॉजी मृदा विज्ञान है एवं पेडालॉजिस्ट एक मृदा वैज्ञानि क होता है।

मृदा निर्माण के कारक (Soil   forming   factors)

मृदा निर्माण पाँच मूल कारकों द्वारा नियंत्रित होता है। ये कारक हैः ( i ) मूल पदार्थ (शैलें) ( ii ) स्थलाकृति ( iii ) जलवायु ( iv ) जैविक क्रियाएँ एवं ( v ) समय। वस्तुतः मृदा निर्माण कारक संयुत्तη रूप से कार्यरत रहते हैं एवं एकदूसरे के कार्य को प्रभावित करते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है।

जलवायु (Climate)

जलवायु मृदा निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण सक्रिय कारक है। मृदा के विकास में संलग्न जलवायवी तत्त्वों में प्रमुख हैंः ( i ) प्रवणता, वर्षा एवं वाष्पीकरण की बारंबारता व अवधि तथा आर्द्रता, ( ii ) तापक्रम में मौसमी एवं दैनिक भिन्नता।

मूल पदार्थ/शैल (Parent   material)

मृदा निर्माण में मूल शैल एक निष्क्रिय नियंत्रक कारक है। मूल शैल कोई भी स्वस्थाने (In   situ)   या उसी स्थान पर अपक्षयित शैल मलवा (अवशिष्ट मृदा) या लाये गये निक्षेप (परिवहनकृत मृदा) हो सकती है। मृदा निर्माण गठन (मलवा के आकार) संरचना (एकल/पृथक कणों/मलवा के कणों का विन्यास) तथा शैल निक्षेप के खनिजएवं रासायनिक संयोजन पर निर्भर करता है।

मूल पदार्थ के अंतर्गत अपक्षय की प्रकृति एवं उसकी दर तथा आवरण की गहराई/मोटाई प्रमुख विचारणीय तत्त्व होते हैं। समान आधार शैल पर मृदाओं में अंतर हो सकता है तथा असमान आधार पर समान मृदाएँ मिल सकती हैं। परंतु जब मृदाएँ बहुत नूतन (Young)  तथा पर्याप्त परिपक्व नहीं होती तो मृदाआें एवं मूल शैलों के प्रकार में घनिष्ट संबंध होता है। कुछ चूना क्षेत्रों (Lime   stone   areas)  में भी, जहाँ अपक्षय प्रक्रियाएँ विशिष्ट एवं विचित्र (Peculiar)  होती हैं, मिट्टियाँ मूल शैल से स्पष्ट संबंध दर्शाती हैं।

स्थलाकृति/उच्चावच (Topography)

मूल शैल की भाँति स्थलाकृति भी एक दूसरा निष्क्रिय नियंत्रक कारक है। स्थलाकृति मूल पदार्थ के आच्छादन अथवा अनावृत होने को सूर्य की किरणों के संबंध में प्रभावित करती हैं तथा स्थलाकृति धरातलीय एवं उप-सतही अप्रवाह की प्रक्रिया को मूल पदार्थ के संबंध में भी प्रभावित करती है। तीव्र ढालों पर मृदा छिछली (Thin)  तथा सपाट उच्च क्षेत्रों में गहरी/मोटी (Thick)  होती है। निम्न ढालों जहाँ अपरदन मंद तथा जल का परिश्रवण (Percolation)  अच्छा रहता है मृदा निर्माण बहुत अनुकूल होता है। सपाट/समतल क्षेत्रों में चीका मिट्टी (Clay)  के मोटे स्तर का विकास हो सकता है तथा जैव पदार्थ के अच्छे एकत्रीकरण के साथ मिट्टी/मृदा का रंग भी गहरा (काला) हो सकता है।

जैविक क्रियाएँ (Biological   activities)

वनस्पति आवरण एवं जीव जो मूल पदार्थों पर प्रारंभ तथा बाद में भी विद्यमान रहते हैं मृदा में जैव पदार्थ, नमी धारण की क्षमता तथा नाइट्रोजन इत्यादि जोड़ ने में सहायक होते हैं। मृत पौधे मृदा को सूक्ष्म विभाजित जैव पदार्थ-ह्यूमस प्रदान करते हैं। कुछ जैविक अम्ल जो ह्यूमस बनने की अवधि में निर्मित होते हैं मृदा के मूल पदार्थों के खनिजों के विनियोजन में सहायता करते हैं। बैक्टीरियल कार्य की गहनता ठंडी एवं गर्म जलवायु की मिट्टियों में अंतर को दर्शाती है। ठंडी जलवायु में ह्यूमस एकत्रित हो जाता है, क्योंकि यहाँ बैक्टीरियल वृद्धि धीमी होती है। उप-आर्कटिक एवं टुंड्रा जलवायु में निम्न बैक्टेरियल क्रियाओं के कारण अवियोजित जैविक पदार्थों के साथ पीट (Peat)  के संस्तर विकसित हो जाते हैं। आर्द्र, उष्ण एवं भूमध्य रेखीय जलवायु में बैक्टेरियल वृद्धि एवं क्रियाएँ सघन होती हैं तथा मृत वनस्पति शीघ्रता से अॉक्सीकृत हो जाती है जिससे मृदा में ह्यूमस की मात्रा बहुत कम रह जाती है। बैक्टेरिया एवं मृदा के जीव हवा से गैसीय नाइट्रोजन प्राप्त कर उसे रासायनिक रूप में परिवर्तित कर देते हैं जिसका पौधों द्वारा उपयोग किया जा सकता है। इस प्रक्रिया को नाइट्रोजन निर्धारण (Nitrogen   fixation)  कहते हैं। राइजोबियम (Rhizobium) , एक प्रकार का बैक्टेरिया जंतुवाले (Leguminous)  पौधों केजड़ ग्रंथिका में रहता है तथा मेजबान (Host)  पौधों के लिए लाभकारी नाइट्रोजन निर्धारित करता है। चींटी,दीमक, केंचुए, कृंतक (Rodents)  इत्यादि कीटों का महत्त्व अभियांत्रिकी (Mechanical)  सा होता है, परंतु मृदा निर्माण में ये महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वे मृदा को बार-बार ऊपर नीचे करते रहते हैं। केंचुए मिट्टी खाते हैं,अतः उनके शरीर से निकलने वाली मिट्टी का गठन एवं रसायन परिवर्तित हो जाता है।

कालावधि (Time)

मृदा निर्माण में कालावधि तीसरा महत्त्वपूर्ण कारक है। मृदा निर्माण प्रक्रियाओं के प्रचलन में लगने वाले काल (समय) की अवधि मृदा की परिपक्वता एवं उसके पार्श्विका (Profile)  का विकास निर्धारण करती है। एक मृदा तभीपरिपक्व होती है जब मृदा निर्माण की सभी प्रक्रियाएँ लंबे काल तक पार्श्विका विकास करते हुए कार्यरत रहतीहैं। थोड़ े समय पहले (Recently)  निक्षेपित जलोढ़ मिट्टी या हिमानी टिल से विकसित मृदाएँ तरुण/युवा (Young) मानी जाती हैं तथा उनमें संस्तर (Horizon)  का अभाव होता है अथवा कम विकसित संस्तर मिलता है। संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में मिट्टी के विकास या उसकी परिपक्वता के लिए कोई विशिष्ट (Specific)  कालावधि नहीं है।

क्या मृदा निर्माण प्रक्रिया एवं मृदा निर्माण नियंत्रक कारकों को अलग करना आवश्यक है?

मृदा निर्माण-प्रक्रिया में कालावधि, स्थलाकृति एवं मूल पदार्थ निष्क्रिय नियंत्रक कारक क्यों माने जाते हैं?


अभ्यास


1.        बहुवैकल्पिक प्रश्न

(i)         निम्नलिखित में से कौन सी एक अनुक्रमिक प्रक्रिया है?

(क) निक्षेप        (ख) ज्वालामुखीयता

(ग) पटल-विरूपण        (घ) अपरदन

(ii)  जलयोजन प्रक्रिया निम्नलिखित पदार्थों में से किसे प्रभावित करती है?

(क) ग्रेनाइट        (ख) क्वाट्ρज़ (ग) चीका (क्ले) मिट्टी        (घ) लवण

(iii)  मलवा अवधाव को किस श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है?

(क) भूस्खलन        (ख) तीव्र प्रवाही बृहत् संचलन

(ग) मंद प्रवाही बृहत् संचलन        (घ) अवतलन/धसकन

2.         निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

(i)          अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता के लिए उतरदायी है। कैसे?

(ii)          बृहत् संचलन जो वास्तविक, तीव्र एवं गोचर/अवगम्य (Perceptible)  हैं, वे क्या हैं? सूचीबद्ध कीजिए।

(iii)  विभिन्न गतिशील एवं शत्तिηशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारक क्या हैं तथा वे क्या प्रधान कार्य संपन्न करते हैं?

(iv)  क्या मृदा निर्माण में अपक्षय एक आवश्यक अनिवार्यता है?

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

(i)          "हमारी पृथ्वी भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के दो विरोधात्मक (Opposing)   वर्गों के खेल का मैदान है," विवेचना कीजिए।

(ii)          ‘बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ अपनी अंतिम ऊर्जा सूर्य की गर्मी से प्राप्त करती हैं।’ व्याख्या कीजिए।

(iii)          क्या भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र हैं? यदि नहीं तो क्यों? सोदाहरण व्याख्या कीजिए।

(iv)          आप किस प्रकार मृदा निर्माण प्रक्रियाओं तथा मृदा निर्माण कारकों के बीच अंतर ज्ञात करते हैं? जलवायु एवं जैविकक्रियाओं की मृदा निर्माण में दो महत्त्वपूर्ण कारकों के रूप में क्या भूमिका है?


परियोजना कार्य

अपने चतुर्दिक विद्यमान भूआकृति/उच्चावच एवं पदार्थों के आधार पर जलवायु, संभव अपक्षय प्रक्रियाओं एवं मृदा के तत्त्वों और विशेषताओं को परखिए एवं अंकित कीजिए।