अध्याय 10

वायुमंडलीय परिसंचरण तथा मौसम प्रणालियाँ

अध्याय 9 में पृथ्वी के धरातल पर तापमान का असामान्य वितरण वर्णित है। वायु गर्म होने पर फैलती है और ठंडी होने पर सिकुड़ ती है। इससे वायुमंडलीय दाब में भिन्नता आती है। इसके परिणामस्वरूप वायु गतिमान होकर अधिक दाब वाले क्षेत्रों से न्यून दाब वाले क्षेत्रों में प्रवाहित होती है। आप जानते हैं कि क्षैतिज गतिमान वायु ही पवन है। वायुमंडलीय दाब यह भी निर्धारित करता है कि कब वायु ऊपर उठेगी व कब नीचे बैठेगी। पवनें पृथ्वी पर तापमान व आर्दΡता का पुनर्वितरण करती हैं, जिससे पूरी पृथ्वी का तापमान स्थिर बना रहता है। ऊपर उठती हुई आर्द्र वायु का तापमान कम होता जाता है, बादल बनते हैं और वर्षा होती है।इस अध्याय में वायुमंडलीय दाब भिन्नता के कारणों, वायुमंडलीय परिसंचरण सम्बन्धी बल, वायु विक्षोभ, वायुराशियों का बनना, वायुराशियों के मिश्रण से मौसम संबंधी विक्षोभ व उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के विवरण सम्मिलित है।

वायुमंडलीय दाब

क्या आप जानते हैं कि हमारा शरीर भी वायुदाब से प्रभावित होता है? जैसे-जैसे आप ऊपर ऊँचाई पर चढ़ते जाते हैं, वायु विरल होती जाती है और साँस लेने में कठिनाई होती है।

माध्य समुद्रतल से वायुमंडल की अंतिम सीमा तक एक इकाई क्षेत्रफल के वायु स्तंभ के भार कोवायुमंडलीय दाब कहते हैं। वायुदाब को मापने की इकाई मिलीबार है। समुद्र तल पर औसत वायुमंडलीय दाब1,013.2 मिलीबार होता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण धरातल के निकट वायु सघन होती है और इसी के कारण वायुदाब अधिक होता है। वायुदाब को मापने के लिए पारद वायुदाबमापी (Mercury barometer) अथवा निर्द्रव बैरोमीटर (Aneroid barometer) का प्रयोग किया जाता है। इन उपकरणों के विषय में जानने हेतु भूगोल में प्रयोगात्मक कार्य भाग-1, एन.सी.ई.आर.टी., 2006 देखें। वायुदाब ऊँचाई के साथ घटता है। ऊँचाई पर वायुदाब भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होता है और यह विभिन्नता ही वायु में गति का मुख्य कारण है, अर्थात् पवनें उच्च वायुदाब क्षेत्रों से कम वायुदाब क्षेत्रों की तरफ चलती हैं।

वायुदाब में ऊर्ध्वाधर भिन्नता

वायुमंडल के निचले भाग में वायुदाब ऊँचाई के साथ तीव्रता से घटता है। यह ह्रास दर प्रत्येक 10 मीटर की ऊँचाई पर 1 मिलीबार होता है। वायुदाब सदैव एक ही दर से नहीं घटता। सारणी 10.1 निश्चित ऊँचाई पर वायुमंडल में औसत वायुदाब और तापमान को प्रस्तुत करती है।

सारणी 10.1   निश्चित ऊँचाई पर मानक तापमान व वायुदाब

स्तर        वायुदाब (मिलीबार में) तापमान (°से॰ में)

समुद्रतल        1,013.25        15.2

1 कि॰मी॰        898.76        8.7

5 कि॰मी॰        540.48        -17.3

10 कि॰मी॰        265.00        -49.7

ऊर्ध्वाधर दाब प्रवणता क्षैतिज दाब प्रवणता की अपेक्षा अधिक होती है। लेकिन, इसके विपरीत दिशा में कार्यरत गुरुत्वाकर्षण बल से यह संतुलित हो जाती है अतः ऊर्ध्वाधर पवनें अधिक शक्तिशाली नहीं होती।

वायुदाब का क्षैतिज वितरण

पवनों की दिशा व वेग के संदर्भ में वायुदाब में अल्प अंतर भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। वायुदाब के क्षैतिजवितरण का अध्ययन समान अंतराल पर खींची गयी समदाब रेखाओं द्वारा किया जाता है। समदाब रेखाएँ वेरेखाएँ हैं जो समुद्र तल से एक समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाती हैं। दाब पर ऊँचाई के प्रभाव को दूरकरने और तुलनात्मक बनाने के लिए, वायुदाब मापने के बाद इसे समुद्र तल के स्तर पर घटा लिया जाता है।समुद्रतल पर वायुदाब वितरण मौसम मानचित्रों में दिखाया जाता है।

चित्र 10.1 विभिन्न वायुदाब परिस्थितियों में समदाब रेखाओं की आकृति दर्शाता है। निम्नदाब प्रणाली एक या अधिक समदाब रेखाओं से घिरी होती है जिसके केंद्र में निम्न वायुदाब होता है। उच्च दाब प्रणाली में भी एक या अधिक समदाब रेखाएँ होती हैं जिनके केंद्र में उच्चतम वायुदाब होता है।

चित्र 10.1  उत्तरी गोलार्ध में समदाब रेखाएं, वायुदाब तथा पवन तंत्र

समुद्रतल वायुदाब का विश्व-वितरण

जनवरी व जुलाई महीने का समुद्रतल से वायुदाब का विश्व-वितरण चित्र 10.2 व 10.3 में दर्शाया गया है। विषुवत् वृत्त के निकट वायुदाब कम होता है और इसे विषुवतीय निम्न अवदाब क्षेत्र (Equatorial low) के नाम से जाना जाता है। 30° उत्तरी व 30° दक्षिणी अक्षांशों के साथ उच्च दाब क्षेत्र पाए जाते हैं, जिन्हें उपोष्ण उच्च वायुदाब क्षेत्र कहा जाता है। पुनः ध्रुवों की तरफ 60° उत्तरी व 60° दक्षिणी अक्षांशों पर निम्न दाब पेटियाँ हैंजिन्हें अधोध्रुवीय निम्नदाब पट्टियाँ कहते हैं। ध्रुवों के निकट वायुदाब अधिक होता है और इसे ध्रुवीय उच्च वायुदाब पट्टी कहते हैं। ये वायुदाब पट्टियाँ स्थाई नही हैं। सूर्य किरणों के विस्थापन के साथ ये पट्टियाँ विस्थापित होती रहती हैं। उत्तरी गोलार्ध में शीत ऋतु में ये पट्टियाँ दक्षिण की ओर तथा ग्रीष्म ऋतु ये उत्तर दिशा की ओर खिसक जाती हैं।


10.2

चित्र 10.3 : माध्य समुद्रतल वायु दाब (समदाब रेखाएं मिलीबार में) -जनवरी 

चित्र 10.3 : माध्य समुद्रतल वायु दाब (समदाब रेखाएं मिलीबार में) - जुलाई

पवनों की दिशा व वेग को प्रभावित करने वाले बल

आप यह जानते ही हैं कि (वायुमंडलीय दाब में) भिन्नता के कारण वायु गतिमान होती हैं। इस क्षैतिज गतिज वायु को पवन कहते हैं। पवनें उच्च दाब से कम दाब की तरफ प्रवाहित होती हैं। भूतल पर धरातलीयविषमताओं के कारण घर्षण पैदा होता है, जो पवनों की गति को प्रभावित करता है। इसके साथ पृथ्वी का घूर्णन भी पवनों के वेग को प्रभावित करता है। पृथ्वी के घूर्णन द्वारा लगने वाले बल को कोरिअॉलिस बलकहा जाता है। अतः पृथ्वी के धरातल पर क्षैतिज पवनें तीन संयुक्त प्रभावों का परिणाम है ः

दाब प्रवणता प्रभाव, घर्षण बल, तथा कोरिआलिस बल।

इसके अतिरिक्त , गुरुत्वाकर्षण बल पवनों को नीचे प्रवाहित करता है।

दाब-प्रवणता बल

वायुमंडलीय दाब भिन्नता एक बल उत्पन्न करता है। दूरी के संदर्भ में दाब परिवर्तन की दर दाब प्रवणता है। जहाँ समदाब रेखाएँ पास-पास हों, वहाँ दाब प्रवणता अधिक व समदाब रेखाओं के दूर-दूर होने से दाबप्रवणता कम होती है।

घर्षण बल

यह पवनों की गति को प्रभावित करता है। धरातल पर घर्षण सर्वाधिक होता है और इसका प्रभाव प्रायः धरातल से 1 से 3 कि॰मी॰ ऊँचाई तक होता है। समुद्र सतह पर घर्षण न्यूनतम होता है।

कोरिअॉलिस बल

पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूर्णन पवनों की दिशा को प्रभावित करता है। सन् 1844 में फ्रांसिसी वैज्ञानिक ने इसका विवरण प्रस्तुत किया और इसी पर इस बल को कोरिआलिस बल कहा जाता है। इस प्रभाव से पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिने तरफ व दक्षिण गोलार्ध में बाईं तरफ विक्षेपित (deflect) हो जाती हैं। जब पवनों का वेग अधिक होता है, तब विक्षेपण भी अधिक होता है। कोरिअॉलिस बल अक्षांशों के कोण के सीधा समानुपात में बढ़ता है। यह ध्रुवों पर सर्वाधिक और विषुवत् वृत्त पर अनुपस्थित होता है।

कोरिअॉलिस बल दाब प्रवणता के समकोण पर कार्य करता है। दाब प्रवणता बल समदाब रेखाओं के समकोण पर होता है। जितनी दाब प्रवणता अधिक होगी, पवनों का वेग उतना ही अधिक होगा और पवनों की दिशा उतनी ही अधिक विक्षेपित होगी। इन दो बलों के एक दूसरे से समकोण पर होने के कारण निम्न दाबक्षेत्रों में पवनें इसी के इर्द-गिर्द बहती हैं। विषुवत् वृत्त पर कोरिअॉलिस बल शून्य होता है और पवनें समदाब रेखाओं के समकोण पर बहती हैं। अतः निम्न दाब क्षेत्र और अधिक गहन होने की बजाय पूरित हो जाता है। यही कारण है कि विषुवत् वृत्त के निकट उष्णकटिबंधीय चक्रवात नहीं बनते।


सारणी 10.2 : चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात में पवनों की दिशा का प्रारूप

दाब पद्धति        केन्द्र में दाब की दशा पवन दिशा का प्रारूप        

उत्तरी गोलार्ध        दक्षिणी गोलार्ध

चक्रवात        निम्न        घड़ ी की सुई की        घड़ ी की सुई की दिशा

दिशा के विपरीत        के अनुरूप

प्रतिचक्रवात                उच्च        घड़ ी की सुई की         घड़ ी की सुई की

दिशा के अनुरूप        दिशा के विपरीत


वायुदाब व पवनें

पवनों का वेग व उनकी दिशा, पवनों को उत्पन्न करने वाले बलों का परिणाम है। पृथ्वी की सतह से 2-3 कि.मी. की ऊँचाई पर ऊपरी वायुमंडल में पवनें धरातलीय घर्षण के प्रभाव से मुक्त होती हैं और मुख्यतः दाब प्रवणता तथा कोरिअॉलिस बल से नियंत्रित होती हैं। जब समदाब रेखाएँ सीधी हों और घर्षण का प्रभाव न हो, तो दाब प्रवणता बल कोरिअॉलिस बल से संतुलित हो जाता है और फलस्वरूप पवनें समदाब रेखाओं के समानांतर बहती हैं। ये पवनें भूविक्षेपी (Geostrophic) पवनों के नाम से जानी जाती हैं। (चित्र 10.4)

चित्र 10.4 : भूविक्षेपी पवन

निम्न दाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण चक्रवाती परिसंचरण कहलाता है। उच्च वायु दाब क्षेत्र के चारों तरफ एेसा होना प्रतिचक्रवाती परिसंचरण कहा जाता है। इन प्रणालियों में पवनों की दिशा दोनों गोलार्धों में भिन्न होती है। (सारणी 10.2)

पृथ्वी की सतह पर कई बार निम्न व उच्च दाब के चारों ओर पवनों का परिसंचरण ऊँचाई पर होने वाले वायु परिसंचरण से संबंधित ही होता है। प्रायः निम्न दाब क्षेत्रों पर वायु अभिसरित होंगी और ऊपर उठेंगी। उच्च दाब क्षेत्रों में वायु का अवतलन होगा और धरातल पर अपसरित होगी (चित्र 10.5)। अभिसरण के अतिरिक्त, वायु, भ्रमिल रूप में, संवहन धाराओं में, पर्वतों के साथ-साथ और वाताग्र के सहारे ऊपर उठती है, जो बादल बनने व वर्षण के लिए आवश्यक है।

वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण

भूमंडलीय पवनों का प्रारूप मुख्यतः निम्न बातों पर निर्भर है ः (i) वायुमंडलीय ताप में अक्षांशीय भिन्नता, (ii)वायुदाब पट्टियों की उपस्थिति, (iii) वायुदाब पट्टियों का सौर किरणों के साथ विस्थापन, (iv) महासागरों व महाद्वीपों का वितरण तथा (v) पृथ्वी का घूर्णन। वायुमंडलीय पवनों के प्रवाह प्रारूप को वायुमंडलीय सामान्य परिसंचरण भी कहा जाता है। यह वायुमंडलीय परिसंचरण महासागरीय जल को भी गतिमान करता है, जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करता है। सामान्य परिसंचरण का एक क्रमिक विवरण चित्र 10.6 में प्रस्तुत है।

चित्र 10.5 : पवनों का अभिसरण तथा अपसरण

उच्च सूर्यातप व निम्न वायुदाब होने से अंतर- उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) पर वायु संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है। उष्णकटिबंधों से आने वाली पवनें इस निम्न दाब क्षेत्र में अभिसरण करती हैं। अभिसरित वायु संवहन कोष्ठों के साथ ऊपर उठती हैं। यह क्षोभमंडल के ऊपर 14 कि.मी. की ऊँचाई तक ऊपर चढ़ती है और फिर ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होती हैं। इसके परिणामस्वरूप लगभग 30° उत्तर व 30°दक्षिण अक्षांश पर वायु एकत्रित हो जाती है। इस एकत्रित वायु का अवतलन होता है और यह उपोष्ण उच्चदाब बनाता है। अवतलन का एक कारण यह है कि जब वायु 30° उत्तरी व दक्षिणी अक्षांश पर पहुंचती है तो यह ठंडी हो जाती है। धरातल के निकट वायु का अपसरण होता है और यह विषुवत् वृत्त की ओर पूर्वी पवनों के रूप में बहती हैं। विषुवत् वृत्त के दोनों तरफ से प्रवााहित होने वाली पूर्वी पवनें अंतर उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) पर मिलती हैं। पृथ्वी की सतह से ऊपर की दिशा में होने वाले परिसंचरण और इसके विपरीत दिशा में होने वाले परिसंचरण को कोष्ठ (Cell) कहते हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में एेसे कोष्ठको हेडले कोष्ठ (Hadley cell) कहा जाता है। मध्य अक्षांशीय वायु परिसंचरण में ध्रुवों से प्रवाहित होती ठंडीपवनों का अवतलन होता है और उपोष्ण उच्चदाब कटिबंधीय क्षेत्रों से आती गर्म हवा ऊपर उठती है। धरातलपर ये पवनें पछुआ पवनों के नाम से जानी जाती हैं और यह कोष्ठ फैरल कोष्ठ के नाम से जाने जाते हैं। ध्रुवीय अक्षाँशों पर ठंडी सघन वायु का ध्रुवों पर अवतलन होता है और मध्य अक्षांशों की ओर ध्रुवीय पवनों के रूप मेंप्रवाहित होती हैं। इस कोष्ठ को ध्रुवीय कोष्ठ कहा जाता है। ये तीन कोष्ठ वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण का प्रारूप निर्धारित करते हैं। तापीय ऊर्जा का निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों में स्थानांतर सामान्य परिसंचरण को बनाये रखता है।

वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण और उसका महासागरों पर प्रभाव

वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण के संदर्भ में प्रशांत महासागर का गर्म या ठंडा होना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मध्य प्रशांत महासागर की गर्म जलधाराएं दक्षिणी अमेरिका के तट की ओर प्रवाहित होती हैं और पीरू की ठंडी धाराओं का स्थान ले लेती हैं। पीरू के तट पर इन गर्म धाराओं की उपस्थिति एल-निनो कहलाता है। एल-निनो घटना का मध्यप्रशांत महासागर और आस्ट्रेलिया के वायुदाब परिवर्तन से गहरा संबंध है। प्रशांत महासागर पर वायुदाब में यह परिवर्तन दक्षिणी दोलन कहलाता है। इन दोनों (दक्षिणी दोलन/बदलाव व एल निनो) की संयुक्त घटना को ईएनएसओ (ENSO) के नाम से जाना जाता है। जिन वर्षों में ईएनएसओ (ENSO) शक्तिशाली होता है, विश्व में वृहत् मौसम संबंधी भिन्नताएँ देखी जाती हैं। दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी शुष्क तट पर भारी वर्षा होती है, आस्ट्रेलिया और कभी-कभी भारत अकालग्रस्त होते हैं तथा चीन में बाढ़ आती है। इन घटनाओं के ध्यानपूर्वक आकलन से संसार के अन्य भागों की मौसम संबंधी भविष्यवाणी के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है।


चित्र 10.6: वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण

वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण महासागरों को भी प्रभावित करता है। वायुमंडल में वृहत् पैमाने पर चलने वाली पवनें धीमी तथा अधिक गति की महासागरीय धाराओं को प्रवाहित करती हैं। महासागर वायु को ऊर्जा व जलवाष्प प्रदान करते हैं। ये अंतर्संबंध महासागरों के विस्तृत क्षेत्रों पर अपेक्षाकृत धीमे होते हैं।

मौसमी पवनें

पवनों के प्रवाह के प्रारूप में विभिन्न मौसमों में बदलाव आता है। यह बदलाव अत्यधिक तापन, पवन व वायुदाब पट्टियों के विस्थापन आदि के कारण होता है। एेसे विस्थापन का सबसे अधिक स्पष्ट प्रभावविशेषकर दक्षिण पूर्व एशिया में मानसून पवनों के बदलाव में देखा जा सकता है। आप मानसून के विषय मेंविस्तारपूर्वक भारतः भौतिक पर्यावरण, कक्षा-11, एन.सी.ई.आर.टी., 2006 में पढ़ेंगे। सामान्य परिसंचरण प्रणाली से भिन्न अन्य स्थानीय विसंगतियाँ नीचे वर्णित हैं।


स्थानीय पवनें

भूतल के गर्म व ठंडे होने से भिन्नता तथा दैनिक व वार्षिक चक्रों के विकास से बहुत सी स्थानीय व क्षेत्रीय पवनें प्रवाहित होती हैं।

स्थल व समुद्र समीर

जैसाकि पहले वर्णित है, ऊष्मा के अवशोषण तथा स्थानांतरण में स्थल व समुद्र में भिन्नता पायी जाती है।दिन के दौरान स्थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाते हैं। अतः स्थल पर हवाएँ ऊपर उठती हैं और निम्न दाब क्षेत्र बनता है, जबकि समुद्र अपेक्षाकृत ठंडे रहते हैं और उन पर उच्च वायुदाब बना रहता है।इससे समुद्र से स्थल की ओर दाब प्रवणता उत्पन्न होती है और पवनें समुद्र से स्थल की तरफ समुद्र समीरके रूप में प्रवाहित होती हैं। रात्रि में इसके एकदम विपरीत प्रक्रिया होती है। स्थल समुद्र की अपेक्षा जल्दी ठंडा होता है। दाब प्रवणता स्थल से समुद्र की तरफ होने पर स्थल समीर प्रवाहित होती है


 (चित्र 10.7)। पर्वत व घाटी पवनें


दिन के दौरान पर्वतीय प्रदेशों में ढाल गर्म हो जाते हैं और वायु ढाल के साथ-साथ ऊपर उठती है और इसस्थान को भरने के लिए वायु घाटी से बहती है। इन पवनों को घाटी समीर कहते हैं। राात्रि के समय पर्वतीय ढाल ठंडे हो जाते है और सघन वायु घाटी में नीचे उतरती है जिसे पर्वतीय पवनें कहते हैं। उच्च पठारों व हिम क्षेत्रों से घाटी में बहने वाली ठंडी वायु को अवरोही (Katabatic) पवनें कहते हैं। पर्वत श्रेणियों के पवनविमुख ढालों पर एक अन्य प्रकार की उष्ण पवनें प्रवाहित होती हैं। पर्वत-श्रेणियों को पार करते हुए ये आर्द्र पवनेंसंघनित हो जाती हैं और वर्षण करती हैं। जब ये पवनें पवनविमुख ढालों पर नीचे उतरती हैं, तब यह शुष्क पवनें रूद्धोष्म (Adiabatic) प्रक्रिया से गर्म हो जाती हैं। ये शुष्क हवाएँ कम समय में बर्फ पिघला सकती हैं।


वायुराशियाँ (Air masses)

जब वायु किसी समांगी क्षेत्र पर पर्याप्त लंबे समय तक रहती है तो यह उस क्षेत्र के गुणों को धारण कर लेती है। यह समांग क्षेत्र विस्तृत महासागरीय सतह या विस्तृत मैदानी भाग हो सकता हैं। तापमान तथा आर्द्रता संबंधी विशिष्ट गुणों वाली यह वायु, वायुराशि कहलाती है। इसे यूँ भी परिभाषित किया जाता है - वायु का वह वृहत् भाग जिसमें तापमान व आर्द्रता संबंधी क्षैतिज भिन्नताएँ बहुत कम हैं। वह समांग धरातल जिन पर वायुराशियाँ बनती हैं उन्हें वायुराशियों का उद्गम क्षेत्र कहा जाता है।

वायुराशियों को उनके उद्गम क्षेत्र के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। इनके प्रमुख पाँच उद्गम क्षेत्र हैं। जो इस प्रकार हैं ः 1. उष्ण व उपोष्ण कटिबंधीय महासागर 2. उपोष्णकटिबंधीय उष्ण मरुस्थल 3. उच्च अक्षांशीय अपेक्षाकृत ठंडे महासागर 4. उच्च अक्षांशीय अति शीत बर्फ आच्छादित महाद्वीपीय क्षेत्र 5. स्थायी रूप से बर्फ आच्छादित महाद्वीप अंटार्कटिक तथा आर्कटिक। इसी के आधार पर निम्न प्रकार की वायुराशियाँ पायी जाती हैं-

(i) उष्णकटिबंधीय महासागरीय वायुराशि (mT), (ii) उष्णकटिबंधीय महाद्वीपीय (cT), (iii) ध्रुवीय महासागीय (mP), (iv) ध्रुवीय महाद्वीपीय (cP),

(v) महाद्वीपीय आर्कटिक (cA) उष्णकटिबंधीय वायुराशियाँ गर्म होती हैं तथा ध्रुवीय वायुराशियाँ ठंडी होती हैं।


चित्र 10.8: 

वाताग्र (Fronts)

जब दो भिन्न प्रकार की वायुराशियाँ मिलती हैं तो उनके मध्य सीमा क्षेत्र को वाताग्र कहते हैं। वाताग्रों के बनने की प्रक्रिया को वाताग्र-जनन (Frontogenesis) कहते हैं। वाताग्र चार प्रकार के होते हैं ः (i) शीत वाताग्र (ii)उष्ण वाताग्र (iii) अचर वाताग्र (iv) अधिविष्ट वाताग्र जब वाताग्र स्थिर हो जाए तो इन्हें अचर वाताग्र कहा जाता है (अर्थात् एेसे वाताग्र जब कोई भी वायु ऊपर नहीं उठती)। जब शीतल व भारी वायु आक्रामक रूप में उष्ण वायुराशियों को ऊपर धकेलती हैं, इस संपर्क क्षेत्र को शीत वाताग्र कहते हैं। यदि गर्म वायुराशियाँ आक्रामक रूप में ठंडी वायुराशियों के ऊपर चढ़ती हैं तो इस संपर्क क्षेत्र को उष्ण वाताग्र कहते हैं। यदि एक वायुराशि पूर्णतः धरातल के ऊपर उठ जाए तो एेसे वाताग्र को अधिविष्ट वाताग्र कहते हैं। वाताग्र मध्य अक्षांशों में ही निर्मित होते हैं और तीव्र वायुदाब व तापमान प्रवणता इनकी विशेषता है। ये तापमान में अचानक बदलाव लाते हैं तथा इसी कारण वायु ऊपर उठती है, बादल बनते हैं तथा वर्षा होती है।


बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Extra   tropical   cyclones)

वे चक्रवातीय वायु प्रणालियाँ, जो उष्ण कटिबंध से दूर, मध्य व उच्च अक्षांशों में विकसित होती हैं, उन्हेंबहिरूष्ण या शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं। मध्य तथा उच्च अक्षांशों में जिस क्षेत्र से ये गुज़रते हैं,वहाँ मौसम संबंधी अवस्थाओं में अचानक तेजी से बदलाव आते हैं।

बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात ध्रुवीय वाताग्र के साथ-साथ बनते हैं। आरम्भ में वाताग्र अचर होता है। उत्तरी गोलार्ध में वाताग्र के दक्षिण में कोष्ण व उत्तर दिशा से ठंडी हवा प्रवाहित होती है। जब वाताग्र के साथ वायुदाब कम हो जाता है, कोष्ण वायु उत्तर दिशा की ओर तथा ठंडी वायु दक्षिण दिशा में घड़ ी की सुइयों के विपरीत चक्रवातीय परिसंचरण करती है। इस चक्रवातीय प्रवाह से बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विकसित होता है जिसमें एक उष्ण वाताग्र तथा एक शीत वाताग्र होता है। चित्र 10.9 एक एेसे ही विकसित चक्रवात को दर्शाता है। इस चक्रवात में कोष्ण वायु क्षेत्र या कोष्ण खंड ठंडे अग्रभाग व पिछले शीत खंड के बीच पायाजाता है। कोष्ण वायु आक्रामक रूप में ठंडी वायु के उपर चढ़ती है और उष्ण वाताग्र के पहले भाग में स्तरी मेघ दिखाई देते हैं और वर्षा होती है। पीछे से आता शीत वाताग्र उष्ण वायु को ऊपर धकेलता है, जिसके परिणामस्वरूप शीत वाताग्र के साथ कपासी मेघ बनते हैं। शीत वाताग्र उष्ण वाताग्र की अपेक्षा तीव्र गति से चलते हैं और अंततः उष्ण वाताग्रों को पूरी तरह ढक लेते हैं। यह कोष्ण वायु ऊपर उठती हैं और इस का भूतल से कोई संपर्क नहीं रहता तथा अधिविष्ट वाताग्र बनता है एवं चक्रवात धीरे-धीरे क्षीण हो जाता है।


चित्र 10.9: बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात 

धरातल तथा ऊँचाई पर वायु परिसंचरण की प्रक्रियाओं में निकट का अंतर्सबंध होता है। बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्णकटिबंधीय चक्रवातों से कई प्रकार भिन्न है। बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में स्पष्ट वाताग्र प्रणालियाँ होती हैं, जो उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में नहीं होती। ये विस्तृत क्षेत्रफल पर फैले होते हैं तथा इनकी उत्पत्ति जल व स्थल दोनों पर होती है, जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवात केवल समुद्रों में उत्पन्न होते हैं और स्थलीय भागों में पहुँचने पर नष्ट हो जाते हैं। बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की अपेक्षा विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में पवनों का वेग अपेक्षाकृत तीव्र होता है और ये विनाशकारी होते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात पूर्व से पश्चिम को चलते हैं जबकि बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते हैं।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आक्रामक तूफान हैं जिनकी उत्पत्ति

उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों पर होती है और ये तटीय क्षेत्रों की तरफ गतिमान होते हैं। ये चक्रवात आक्रामक पवनों के कारण विस्तृत विनाश, अत्यधिक वर्षा और तूफान लाते हैं। ये चक्रवात विध्वंसक प्राकृतिक आपदाओं में से एक हैं। हिंद महासागर में ये ‘चक्रवात’ अटलांटिक महासागर में ‘हरीकेन’ के नाम से, पश्चिम प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में ‘टाइफून’ और पश्चिमी आस्ट्रेलिया में ‘विली-विलीज’ के नाम से जाने जाते हैं।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात, उष्ण कटिबंधीय महासागरों में उत्पन्न व विकसित होते हैं। इनकी उत्पत्ति व विकास के लिए अनुकूल स्थितियाँ हैं ः (i) बृहत् समुद्री सतह; जहाँ तापमान 27° सेल्सियस से अधिक हो; (ii)कोरिअॉलिस बल का होना (iii) ऊर्ध्वाधर पवनों की गति में अंतर कम होना; (iv) कमजोर निम्न दाब क्षेत्र या निम्न स्तर का चक्रवातीय परिसंचरण का होना (v) समुद्री तल तंत्र पर ऊपरी अपसरण।

चक्रवातों को और अधिक विध्वंसक करने वाली ऊर्जा संघनन प्रक्रिया द्वारा ऊँचे कपासी स्तरी मेघों से प्राप्त होती है जो इस तूफान के केंद्र को घेरे होती है। समुद्रों से लगातार आर्द्रता की आपूर्ति से ये तूफानअधिक प्रबल होते हैं। स्थल पर पहुँचकर आर्द्रता की आपूर्ति रुक जाती है और ये क्षीण होकर समाप्त हो जाते हैं। वह स्थान जहाँ से उष्ण कटिबंधीय चक्रवात तट को पार करके जमीन पर पहुँचते हैं चक्रवात का लैंडफाल कहलाता है। वे चक्रवात जो प्रायः 20° उत्तरी अक्षांश से गुजरते हैं, उनकी दिशा अनिश्चित होती हैऔर ये अधिक विध्वंसक होते हैं।

एक विकसित की संरचना का ऊर्ध्वाधर क्रमिक विवरण चित्र 10.10 में दर्शाया गया है।

एक विकसित उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की विशेषता इसके केंद्र के चारो तरफ प्रबल सर्पिल (Spiral) पवनों का परिसंचरण है, जिसे इसकी आँख (Eye) कहा जाता है। इस परिसंचरण प्रणाली का व्यास 150 से 250 किलोमीटर तक होता है।


चित्र 10.10: उष्ण कटिबंधीय चक्रवात 

इसका केंद्रीय (अक्षु) क्षेत्र शांत होता है, जहाँ पवनों का अवतलन होता है। अक्षु के चारों तरफ अक्षुभित्ति होती है जहाँ वायु का प्रबल व वृत्ताकार रूप में आरोहण होता है; यह आरोहण क्षोभसीमा की ऊँचाई तक पहुँचता है। इसी क्षेत्र में पवनों का वेग अधिकतम होता है जो 250 कि.मी. प्रति घंटा तक होता है। इन चक्रवातों से मूसलाधार वर्षा होती है। चक्रवात की आँख से रेनबैंड विकरित होते हैं तथा कपासी वर्षा बादलों की पंक्तियाँ बाहरी क्षेत्र की ओर विस्थापित हो सकती हैं। इनका व्यास बंगाल की खाड़ ी, अरब सागर व हिंद महासागर पर 600 से 1,200 किलोमीटर के बीच होता है। यह परिसंचरण प्रणाली धीमी गति से 300 से 500 कि.मी. प्रति दिन की दर से आगे बढ़ते हैं। ये चक्रवात तूफान तरंग उत्पन्न करते हैं और तटीय निम्न इलाकों को जलप्लावित कर देते हैं। ये तूफान स्थल पर धीरे-धीरे क्षीण होकर खत्म हो जाते हैं।

तड़ ितझंझा व टोरनेडो (Thunderstorms and Tornadoes)

अन्य विध्वंसक स्थानीय तूफान तड़ ितझंझा तथा टोरनेडो हैं। ये अल्प समय के लिए रहते हैं, अपेक्षाकृत कम क्षेत्रफल तक सीमित होते हैं, परंतु आक्रामक होते हैं। तड़ ितझंझा उष्ण आर्द्र दिनों में प्रबल संवहन के कारण उत्पन्न होते हैं। तड़ ितझंझा एक पूर्ण विकसित कपासी वर्षी मेघ है जो गरज व बिजली उत्पन्न करते हैं। जब यह बादल अधिक ऊँचाई तक चले जाते हैं, जहाँ तापमान शून्य से कम रहता हैं, तो इससे ओले बनते हैं और ओलावृष्टि होती है। आर्द्रता कम होने पर ये तड़ ितझंझा धूल भरी आंधियाँ लाते हैं। तड़ ितझंझा की विशेषता उष्ण वायु का प्रबल ऊर्ध्वप्रवाह है, जिसके कारण बादलों का आकार बढ़ता है और ये अधिक ऊँचाई तक पहुँचते हैं। इसके कारण वर्षण होता है। तत्पश्चात् नीचे की तरफ वात प्रवाह पृथ्वी पर ठंडी वायुव वर्षा लाते हैं। भयानक तड़ ितझंझा से कभी-कभी वायु आक्रामक रूप में हाथी की सूंड की तरह सर्पिलअवरोहण करती है। इसमें केंद्र पर अत्यंत कम वायुदाब होता है और यह व्यापक रूप से भयंकर विनाशकारी होते हैं। इस परिघटना को ‘टोरनेडो’ कहते हैं। टोरनेडो सामान्यतः मध्यअक्षांशों में उत्पन्न होते हैं। समुद्रपर टोरनेडो को जलस्तंभ (Water spouts) कहते हैं।

ये आक्रामक तूफान वायुमंडलीय ऊर्जा वितरण में भिन्नता (या अस्थिर वायु) के व्यवस्थित होने की अभिव्यक्ति है। इन तूफानों से स्थितिज व ताप ऊर्जा, गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है और अशांत वायुमंडलीय दशाएँ पुनः स्थिर स्थिति में लौट आती हैं।


अभ्यास


1. बहुवैकल्पिक प्रश्न

(i)        यदि धरातल पर वायुदाब 1,000 मिलीबार है तो धरातल से 1 कि॰मी॰ की ऊँचाई पर वायुदाब कितना होगा?

(क)        700 मिलीबार (ख) 900 मिलीबार

(ग) 1,100 मिलीबार (घ) 1,300 मिलीबार

(ii) अंतर उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र प्रायः कहाँ होता है?

(क) विषुवत् वृत्त के निकट (ख) कर्क रेखा के निकट

(ग) मकर रेखा के निकट        (घ) आर्कटिक वृत्त के निकट

(iii) उत्तरी गोलार्ध में निम्नवायुदाब के चारों तरफ पवनों की दिशा क्या होगी?

(क)        घड़ ी की सुइयों के चलने की दिशा के अनुरूप

(ख)        घड़ ी की सुइयों के चलने की दिशा के विपरीत

(ग)        समदाब रेखाओं के समकोण पर        

(घ) समदाब रेखाओं के समानांतर        

(iv) वायुराशियों के निर्माण के उद्गम क्षेत्र निम्नलिखित में से कौन-सा है ः

(क) विषुवतीय वन        (ख) साइबेरिया का मैदानी भाग        

(ग) हिमालय पर्वत        (घ) दक्कन पठार

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

(i) वायुदाब मापने की इकाई क्या है? मौसम मानचित्र बनाते समय किसी स्थान के वायुदाब को समुद्र तल तक क्यों घटाया जाता है?

(ii) जब दाब प्रवणता बल उत्तर से दक्षिण दिशा की तरफ हो अर्थात् उपोष्ण उच्च दाब से विषुवत वृत्त की ओर हो तो उत्तरीगोलार्ध में उष्णकटिबंध में पवनें उत्तरी पूर्वीं क्यों होती हैं?

(iii) भूविक्षेपी पवनें क्या हैं?

(iv) समुद्र व स्थल समीर का वर्णन करें

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

(i) पवनों की दिशा व वेग को प्रभावित करने वाले कारक बताएँ?

(ii) पृथ्वी पर वायुमंडलीय सामान्य परिसंचरण का वर्णन करते हुए चित्र बनाएँ। 30° उत्तरी व दक्षिण अक्षांशों पर उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब के संभव कारण बताएँ?

(iii) उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति केवल समुद्रों पर ही क्यों होती है? उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के किस भाग में मूसलाधार वर्षा होती है और उच्च वेग की पवनें चलती हैं और क्यों?

परियोजना कार्य

(i)        मौसम पद्धति को समझने के लिए मीडिया, अखबार, दूरदर्शन तथा रेडिया से मौसम संबंधी सूचना का एकत्र कीजिए।

(ii) किसी अख़बार का मौसम संबंधी भाग, विशेषकर वह जिसमें उपग्रह से भेजा गया मानचित्र दिखाया गया है, पढ़ें। मेघाच्छादित क्षेत्र को रेखांकित करें। मेघों के वितरण से वायुमंडलीय परिसंचरण की व्याख्या करें। अख़बार व दूरदर्शन पर दिखाए गए पूर्वानुमान से तुलना करें। यह भी बताएं कि सप्ताह के कितने दिन पूर्वानुमान ठीक था।