एक

प्रारंभिक समाज


समय की शुरुआत से

लेखन कला और शहरी जीवन

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प्रारंभिक समाज

इस अनुभाग में, हम प्रारंभिकसमाजों से संबंधित दो विषयों के बारे में पढ़ेंगे। पहला विषय सुदूर अतीत में, लाखों साल पहले, मानव अस्तित्व की शुरुआत के बारे में है। उसमें आप यह पढ़ेंगे कि सर्वप्रथम अफ़्रीका में मानव प्राणियों का प्रादुर्भाव कैसे हुआ और पुरातत्त्व विज्ञानियों ने इतिहास के इन प्रारंभिक चरणों के बारे में, हड्डियों और पत्थर के औज़ारो के अवशेषों की सहायता से, कैसे अध्ययन किया।

पुरातत्त्व विज्ञानियों ने आरंभिक मानव के जीवन के बारे में पुनर्निर्माण करने के प्रयत्न किए हैं। उन्होंने यह जानने की कोशिश की है कि वे कैसे घरों में रहते थे, वे पेड़-पौधों से उत्पन्न कंदमूल एवं बीजों को इकट्ठा करके और जानवरों का शिकार करके अपना भरण-पोषण कैसे करते थे और वे किन तरीकों से अपने भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करते थे। आप यह भी पढ़ेंगे कि आदमी द्वारा आग और भाषा का प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ और अंत में आप यह देखेंगे कि आज की दुनिया में भी जो लोग शिकार और पेड़-पौधों से प्राप्त खाद्य-सामग्रियों से अपना भरण-पोषण करते हैं क्या उनके जीवन का अध्ययन करने से अतीत के बारे में जानकारी मिल सकती है।

दूसरे विषय में कुछ प्रारंभिक नगरों जैसे- मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक) के कुछ शहरों के बारे में चर्चा की गई है। इन नगरों का विकास मंदिरों के आस-पास हुआ था। ये नगर सुदूर व्यापार के केंद्र थे। पुरातात्त्विक साक्ष्यों यानी पुरानी बस्तियों के अवशेषों और बहुतायत से पाई जाने वाली लिखित सामग्रियों के आधार पर उस समय के भिन्न-भिन्न लोगों - शिल्पियों, लिपिकों, श्रमिकों, पुरोहितों, राजा-रानियों आदि के जीवन के पुनर्निर्माण का प्रयत्न किया गया है। आप यह भी देखेंगे कि इनमें से शहरों तथा कस्बों में पशुचारक समुदाय के लोग अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका कैसे निभाते थे। एक विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि लेखन कला का विकास नहीं हुआ होता, तो इन शहरों में विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ कैसे संभव होतीं?

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि लाखों वर्षों तक जंगलों, गुफ़ाओं अथवा कामचलाऊ घरों-आसरों तथा शिलाश्रयों में रहने वाले इनसानों ने आगे चलकर गाँवों और शहरों में रहना कैसे शुरू किया। यह एक लंबी कहानी है और एेसी अनेक घटनाओं से जुड़ी है जो सर्वप्रथम नगरों की स्थापना से कम-से-कम पाँच हज़ार वर्ष पहले घटित हुई थी।

अत्यंत दूरगामी प्रभाव डालने वाले परिवर्तनों में से एक थाः धीरे-धीरे खानाबदोश ज़िंदगी को छोड़कर खेती के लिए एक स्थान पर बस जाना, जो लगभग दस हज़ार साल पहले शुरू हो गया था। जैसा कि आप आगे विषय एक में देखेंगे, खेती अपनाने से पहले, लोग अपने भोजन के लिए पेड़-पौधों की उपज इकट्ठी किया करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने भिन्न-भिन्न पौधों के बारे में जानकारी प्राप्त की; जैसे- वे कहाँ उगते हैं, वे किस मौसम में फलते हैं, आदि-आदि। इस जानकारी के आधार पर उन्होंने पौधे उगाना सीख लिया। पश्चिमी एशिया में, गेहूँ और जौ, मटर और कई तरह की दालों की फसलें उगाई जाती थीं। पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में ज्वार-बाजरा और धान की फसलें आसानी से उगाई जा सकती थीं। ज्वार-बाजरा अफ़्रीका में पैदा किया जाता था। उन्हीं दिनों, लोगों ने भेड़-बकरी, ढोर, सूअर और गधा जैसे जानवरों को पालतू बनाना सीख लिया था। तब, पौधों से निकलने वाले रेशों, जैसे रूई तथा पटसन और पशुओं पर उगने वाले रेशों जैसे ऊन आदि से कपड़े बुने जाने लगे थे। कुछ समय बाद, आज से लगभग पाँच हज़ार साल पहले ढोरों और गधों जैसे पालतू जानवरों को हलों तथा गाड़ियों में जोता जाने लगा था।

इन घटनाक्रमों के फलस्वरूप और भी अनेक परिवर्तन हुए। जब लोग फसलें उगाने लगे तो उन्हें एक ही स्थान पर तब तक रहना पड़ता था जब तक कि उनकी उगाई हुई फसल पक न जाए। इसलिए एक स्थान पर बसकर रहना आम बात हो गई और इसके फलस्वरूप, लोग अपने रहने के लिए अधिक स्थायी घर बनाने लगे।

इसी बीच कुछ जन-समुदायों ने मिट्टी के बर्तन बनाना भी सीख लिया। अनाज और अन्य उपज इकट्ठी करने के लिए और नए उगाए गए अनाजों से तरह-तरह के भोजन बनाने के लिए इन बर्तनों का इस्तेमाल किया जाने लगा। वस्तुतः खाद्य पदार्थों को अधिक स्वादिष्ट और सुपाच्य बनाने के लिए, भोजन बनाने की प्रक्रिया पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा।

साथ ही, पत्थर के औज़ार बनाने के तरीकों में भी बदलाव आया। हालाँकि औज़ार बनाने के पहले वाले तरीके भी चालू रहे पर कुछ औज़ारों तथा उपकरणों को, घिसाई की विशद प्रक्रिया के ज़रिये, चिकना और पॉलिशदार बनाया जाने लगा। अनेक नए उपकरण बनाए गए; जैसे - अनाज की पिसाई और सफाई करने के लिए ओखली व मूसल और पत्थर की कुल्हाड़ी, कसिया और फावड़ा जिनसे जुताई के लिए भूमि साफ की जाती थी और बीज बोने के लिए खुदाई की जाती थी।

कुछ इलाकों में, लोग ताँबा और टिन (राँगा) जैसी धातुओं के खनिजों का उपयोग करना सीख गए। कभी-कभी, ताँबे के खनिजों को इकट्ठा करके उनके खास नीले, हरे रंग की वजह से उनका इस्तेमाल किया जाता था। इससे आगे चलकर धातुओं से गहने और औज़ार बनाने का रास्ता खुल गया।

दूरस्थ स्थानों (और समुद्रों) से उत्पन्न होने वाली कुुुछ अन्य प्रकार की चीज़ों के बारे में भी जानकारी बढ़ती जा रही थी। ये चीज़ें थींः लकड़ी, पत्थर, हीरे-जवाहरात, धातुएँ, सीपियाँ और अॉब्सीडियन (ज्वालामुखी का पक्का जमा हुआ लावा)। स्पष्टतः लोग इन चीज़ों और इनके बारे में अपनी जानकारी के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे और उनका प्रसार करते रहते थे।

इस प्रकार व्यापार में वृद्धि होती गई, गाँवों और कस्बों का विकास होता गया और लोगों का आवागमन बढ़ता गया, जिसके फलस्वरूप पुराने छोटे-छोटे जन-समुदायों के स्थान पर छोटे-छोटे राज्य विकसित हो गए। यद्यपि ये परिवर्तन बहुत धीमी गति से हुए और इस प्रक्रिया में कई हज़ार वर्ष लग गए, लेकिन जब शहर स्थापित हो गए और उनका विकास होने लगा तो इन परिवर्तनों की र.फ्तार भी तेज़ हो गई। इसके अलावा, इन परिवर्तनों के दूरगामी परिणाम निकले। कुछ विद्वानों ने तो इसे ‘क्रांति’ कहकर पुकारा, क्योंकि लोगों के जीवन में संभवतः इतना अधिक परिवर्तन आ गया था कि उन्हें पहचानना ही मुश्किल हो गया था। जब आप आरंभिक इतिहास में इन दो विपरीत विषयों का अन्वेषण करें तो इन निरंतरताओं और परिवर्तनों का अवश्य अवलोकन करें।

यह भी याद रखें कि हमने प्रारंभिक समाजों में से कुछ को ही उदाहरण के तौर पर विस्तृत अध्ययन के लिए चुना है। इनके अलावा, और भी कई प्रकार के प्रारंभिक समाज थे; जैसे -- किसान समुदाय और पशुचारक यानी ग्वाले लोग, शिकारी-संग्राहक समुदाय और नगरवासी लोग।


कालक्रम का अध्ययन कैसे करें

आप इस प्रकार का कालक्रम पुस्तक के प्रत्येक अनुभाग (section) में पाएँगे।

प्रत्येक कालक्रम आपको विश्व इतिहास की प्रमुख प्रक्रियाओं और घटनाओं के बारे में बताएगा।

जब आप इन कालक्रमों का अध्ययन कर रहे हों तो यह ध्यान रखें—

• राजाओं के बीच लड़े गये युद्धों की अपेक्षा उन प्रक्रियाओं या घटनाओं, जिनके द्वारा सामान्य स्त्रियों और पुरुषों ने इतिहास को प्रभावित किया, की तिथियों को अंकित करना अधिक कठिन है।

• कुछ तिथियाँ किसी प्रक्रिया के आरंभ या उसकी परिपक्व अवस्था को दर्शाती हैं।

• इतिहासकार लगातार नए-नए साक्ष्यों के आधार पर तिथियों में संशोधन कर रहे हैं या पुरानी तिथियों के निर्धारण के लिए नए तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

• यद्यपि हमने कालक्रम को सुविधा की दृष्टि से भौगोलिक आधार पर बाँटा है पर वास्तविक एेतिहासिक विकास प्रायः इन सीमाओं के पार जाते हैं।

• एेतिहासिक प्रक्रियाओं में काल-अनुक्रम प्रायः ऊपर-नीचे या अतिव्यापित (overlapping) हो जाता है।

• मानव इतिहास की कुछ युगांतरकारी घटनाओं को ही यहाँ दिया गया है- इनकी प्रक्रियाओं का वर्णन आने वाले अध्यायों में किया गया है जिनके पृथक कालक्रम भी हैं।

• जहाँ पर आप एक* देखेंगे वहाँ पर आपको एक चित्र दिखाई देगा जो कि खाने में लिखी तिथि से संबंधित है।

• कालक्रमों में दिए गए खाली खानों का यह अर्थ नहीं है कि उस काल में कुछ भी विशेष घटित नहीं हुआ - कभी-कभी यह हमें बताता है कि हमें अभी तक यह पता नहीं है कि उस काल में क्या घटित हुआ।

• अगले वर्ष हम दक्षिण एशिया के इतिहास और विशेष रूप से भारतीय इतिहास का अध्ययन करेंगे। दक्षिण एशिया के बारे में दी गई तिथियाँ उस उपमहाद्वीप में हुए केवल कुछ विकासों को ही दर्शाती हैं।

 


कालक्रम एक

(6 लाख वर्ष पूर्व से 1 ई.पू.)

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यह कालक्रम मानव के उदय, पौधों और पशुओं के बसने की प्रक्रिया (domestication) के बारे में प्रकाश डालता है। यहाँ पर कुछ प्रमुख प्रौद्योगिक विकासों; जैसे- आग का आविष्कार, धातुओं के प्रयोग, हल द्वारा खेती तथा पहिए या चाक के प्रयोग के बारे में जानकारी मिलती है। इस प्रक्रिया में नगरों का आविर्भाव और लेखन के प्रयोग के बारे में भी बताया गया है। आपको यहाँ पर कुछ प्राचीनतम साम्राज्यों का भी उल्लेख मिलेगा जिनकी विषय-वस्तु विस्तार से कालक्रम दो में दी जाएगी।

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विषय
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समय की शुरुआत से


इस अध्याय में इस बात की चर्चा की गई है कि मानव कब और किस रूप में सर्वप्रथम अस्तित्व में आया। एेसा समझा जाता है कि कदाचित् 56 लाख वर्ष पहले पृथ्वी पर एेसे प्राणियों का प्रादुर्भाव हुआ जिन्हें हम मानव कह सकते हैं। इसके बाद आदि मानव के कई रूप बदले और कालांतर में लुप्त हो गए। आज हम जिस रूप में मानव को देखते हैं (जिन्हें हमने आगे ‘आधुनिक मानव’ कहा), वैसे लोग 1,60,000 साल पहले पैदा हुए थे। लगभग 8000 ई. पू. तक मानव इतिहास के इस लंबे अरसे के दौरान लोग, दूसरों द्वारा मारे गए या अपनी मौत खुद मरे प्राणियों के शरीर में से मांस निकालकर, जानवरों का शिकार करके अथवा पेड़-पौधों से कंदमूल फल और बीज आदि बटोरकर अपना पेट भरते थे। धीरे-धीरे उन्होेंने पत्थरों से औज़ार बनाना और आपस में बातचीत करना सीख लिया।

हालाँकि आगे चलकर आदमी ने भोजन जुटाने के कई और तरीके अपना लिए, पर शिकार और संग्रह करने यानी इधर-उधर से खाने की चीज़ें तलाशने और बटोरने का तरीका भी चलता रहा। आज भी दुनिया के कुछ भागों में एेसे शिकारी-संग्राहक समाज (Hunter-Gatherer Societies) हैं जो शिकार और संग्रहण से अपने भोजन की व्यवस्था करते हैं। इसलिए हम यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि आज के इन शिकारी-संग्राहक लोगों की जीवन-शैली का अध्ययन करने से हमें अतीत के बारे में कुछ जानकारी मिल सकती है या नहीं।

आज हमें आदि मानव के इतिहास की जानकारी मानव के जीवाश्मों (Fossils), पत्थर के औज़ारों और गुफाओं की चित्रकारियों की खोजों से मिलती है। इनमें से प्रत्येक खोज का अपना एक इतिहास है। अक्सर ही, जब एेसी खोजें सर्वप्रथम की गईं, अधिकांश विद्वानों ने यह मानने से इनकार कर दिया कि ये जीवाश्म प्रारंभिक मानवों के हैं। उन्हें आदिकालीन मानव द्वारा पत्थर के औज़ार या रंग-रोगन बनाए जाने की योग्यता के बारे में भी शक था। एक अरसे के बाद ही इन जीवाश्मों, औज़ारों और चित्रकारियों के सच्चे महत्त्व को स्वीकार किया गया।

‘जीवाश्म’ (Fossil) शब्द एक अत्यंत पुराने पौधे, जानवर या मानव के उन अवशेषों या छापों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो एक पत्थर के रूप में बदलकर अक्सर किसी चट्टान मेें समा जाते हैं और फिर लाखों सालों तक उसी रूप में पड़े रहते हैं।

मानव का विकास क्रमिक रूप से हुआ, इस बात का साक्ष्य हमें मानव की उन प्रजातियों (species) के जीवाश्मों से मिलता है जो अब लुप्त हो चुकी हैं। उनकी कुछ विशेषताओं या शारीरिक लक्षणों के आधार पर मानव को भिन्न-भिन्न प्रजातियों में बाँटा गया है। जीवाश्मों की तिथि का निर्धारण प्रत्यक्ष रासायनिक विश्लेषण द्वारा अथवा उन परतों या तलछटों के काल का परोक्ष रूप से निर्धारण करके किया जाता है जिनमें वे दबे हुए पाए जाते हैं। जब एक बार जीवाश्मोें की तिथि यानी काल का पता चल जाता है तब मानव विकास का क्रम निर्धारित करना कठिन नहीं रहता।

‘प्रजाति’ या स्पीशीज़ (Species) जीवों का एक एेसा समूह होता है जिसके नर और मादा मिलकर बच्चे पैदा कर सकते हैं और उनके बच्चे भी आगे प्रजनन करने यानी संतान उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। एक प्रजाति-विशेष के सदस्य दूसरी प्रजाति के सदस्यों से संभोग करके बच्चे पैदा नहीं कर सकते।

लगभग 200 वर्ष पहले, सर्वप्रथम जब एेसी खोजें की गई थीं, तो अनेक विद्वान यह मानने को तैयार नहीं थे कि खुदाई में मिले जीवाश्म और पत्थर के औज़ार तथा चित्रकारियों जैसी अन्य चीज़ें वास्तव में मनुष्य के आदिकालीन रूपों से संबंध रखती थीं। विद्वानों की यह हिचकिचाहट आमतौर पर बाईबल के ओल्ड टेस्टामेंट में अभिव्यक्त इस धारणा पर आधारित थी कि परमेश्वर ने सृष्टि की रचना करते समय अन्य प्राणियों के साथ-साथ मनुष्य को भी बनाया।

विद्वानों की एेसी हिचकिचाहट का एक उदाहरण देखिए : अगस्त 1856 में, जब मज़दूर (जर्मनी के डसेलडोर्फ नगर के पास) निअंडर घाटी (मानचित्र 2 पृष्ठ 18) में चूने के पत्थरों की खान की खुदाई कर रहे थे तो उन्हें एक खोपड़ी और अस्थिपंजर के कुछ टुकड़े मिले। ये चीज़ें एक स्थानीय स्कूली-शिक्षक कार्ल फुलरौट (Carl Fuhlrott) को सौंप दी गईं जो एक प्राकृतिक इतिहासज्ञ थे। जाँच के बाद उन्होंने पाया कि वह खोपड़ी आधुनिक मानव की नहीं थी। फिर उन्होंने प्लास्टर से उस खोपड़ी का ढाँचा बनाया और उसे बॉन विश्वविद्यालय के शरीररचना-विज्ञान के एक प्रोफ़ेसर हरमन शाफ़हौसेन (Herman Schaaffhausen) के पास भेज दिया। अगले ही वर्ष उन्होंने मिलकर एक शोध-पत्र प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने यह दावा किया कि यह खोपड़ी एक एेसे मानव रूप की है जो अब अस्तित्व में नहीं है। उस समय तो विद्वानों ने उनके इस दावे को स्वीकार नहीं किया और यह घोषित कर दिया कि यह खोपड़ी एक एेसे व्यक्ति की है जो बहुत बाद के समय में हुआ था।

जीवाश्म प्राप्त करना एक कठिन प्रक्रिया होती है। पाई गई चीज़ों की सही जगह जानना उनके काल-निर्धारण के लिए बहुत ज़रूरी होता है।

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ऊपर चित्र में उन उपकरणों को दिखाया गया है जो मिली वस्तुओं के स्थान को जानने के लिए प्रयोग किए गए हैं। पुरातत्त्वविद् के बाईं ओर जो वर्गाकार चौखटा दिखाया गया है वह एक एेसी जाली (ग्रिड) है जो 10 से.मी. के वर्गों में बँटी है। इसे मिली वस्तु के स्थान पर रखने से उस वस्तु की क्षैतिज स्थिति का पता चलता है। दाहिनी ओर जो त्रिभुजाकार उपकरण है वह वस्तु की ऊर्ध्वाधर स्थिति दर्शाने के लिए काम में लाया गया है।

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ऊपर चित्र में दिखाया गया है कि जीवाश्म के एक टुकड़े को उसे चारों ओर से घेरे पत्थर (चूना पत्थर) से कैसे अलग किया गया है। आप देख सकते हैं कि इस कार्य में कितने कौशल और धैर्य की आवश्यकता होती है।


मनुष्य के क्रमिक विकास के अध्ययन में एक युगांतरकारी घटना 24 नबम्बर 1859 को तब घटी, जब मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में चार्ल्स डार्विन की पुस्तक अॉन दि ओरिजिन अॉफ स्पीशीज़ (On the origin of Species) प्रकाशित हुई। उस पुस्तक के प्रथम संस्करण की सभी 1,250 प्रतियाँ, उसके प्रकाशन के दिन ही, हाथों-हाथ बिक गईं। डार्विन ने इस पुस्तक में दलील दी थी कि मानव बहुत समय पहले जानवरों से ही क्रमिक रूप से विकसित होकर अपने वर्तमान रूप में आया है।


क्रियाकलाप 1

अधिकांश धर्माे में मानव प्राणियों की रचना के बारे में अनेक कहानियाँ कही गई हैं, पर अक्सर वे वैज्ञानिक खोजों से मेल नहीं खातीं। एेसी कुछ धार्मिक कथाओं के बारे में पता लगाइए और उनकी तुलना इस अध्याय में चर्चित मानव के क्रमिक विकास के इतिहास से कीजिए। आप उनके बीच क्या समानताएँ और अंतर देखते हैं?


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निअंडरथल मानव की खोपड़ी। कुछ लोगों ने इस खोपड़ी की पुरातनता को स्वीकार नहीं किया और यह बताया कि यह खोपड़ी तो किसी ‘मूर्ख’ या ‘जड़बुद्धि’ प्राणी की है।


 

मानव के क्रमिक विकास की कहानी

 (क) आधुनिक मानव के पूर्वज


1.4

इन चार खोपड़ियों को देखिए।

खोपड़ी-क एक वानर की है

खोपड़ी-ख आस्ट्रेलोपिथिकस नामक प्रजाति की है (नीचे देखिए) खोपड़ी-ग, होमो एरेक्टस (सीधे खड़े होकर चलने वाले आदमी) की है।

खोपड़ी-घ होमोसैपियंस (चिंतनशील/प्राज्ञ मानव) नामक प्रजाति की है; आज के मानव इसी प्रजाति के हैं। इन खोपड़ियों में आप अधिक से अधिक जितनी समानताएँ और अंतर देखते हैं उनकी सूची बनाइये; इस हेतु आप सबसे पहले इन खोपड़ियों का मस्तिष्क खोलों, जबड़ों और दाँतों को भलीभाँति देखिए।

चित्र में दिखाई गई खोपड़ियों की रचना में आप जो भी अंतर पाएंगे उनका कारण वे परिवर्तन हैं जो मानव के क्रमिक विकास के फलस्वरूप उत्पन्न हुए हैं। मानव के क्रमिक विकास की कहानी बहुत ्यादा लंबी और कुछ जटिल या उलझी हुई भी है। इस संबंध में अनेक अनुत्तरित प्रश्न भी उठे हैं और नए-नए प्राप्त तथ्यों और सामग्रियों से अक्सर पुरानी समझ तथा जानकारी में परिवर्तन-संशोधन करने पड़े हैं। आइए कुछ घटनाक्रमों तथा परिवर्तनों और उनके परिणामों पर कुछ अधिक गइराई से चर्चा करें।

मानव के विकास के क्रम को 360 से 240 लाख वर्ष पहले तक खोजा जा सकता है। कभी-कभी हमारे लिए इतने लंबे समय के विस्तार की कल्पना करना बहुत कठिन हो जाता है। यदि आप अपनी पुस्तक के एक पृष्ठ को 10,000 वर्षों के बराबर मानें तो 10 पृष्ठ एक लाख वर्षों के बराबर और एक सौ पृष्ठ 10 लाख वर्षों के बराबर होंगे। इस प्रकार 360 लाख वर्षों के बारे में सोचने के लिए आपको 3600 पृष्ठों की पुस्तक की कल्पना करनी होगी! यह वह समय था जब एशिया तथा अफ़्रीका में स्तनपायी प्राणियों की प्राइमेट (Primates) नामक श्रेणी का उद्भव हुआ था। उसके बाद, लगभग 240 लाख साल पहले ‘प्राइमेट’ श्रेणी में एक उपसमूह उत्पन्न हुआ जिसे होमिनॉइड (Hominoids) कहते हैं। इस उपसमूह में ‘वानर’ यानी ‘एप’ (Ape) शामिल थे। और फिर बहुत समय बाद, लगभग 56 लाख वर्ष पहले, हमें पहले होमिनिड (Homimids) प्राणियों के अस्तित्व का साक्ष्य मिलता है।


‘प्राइमेट’ स्तनपायी प्राणियों के एक अधिक बड़े समूह के अंतर्गत एक उपसमूह है। इस प्राइमेट उपसमूह में वानर, लंगूर और मानव शामिल हैं। उनके शरीर पर बाल होते हैं। बच्चा पैदा होने से पहले अपेक्षाकृत लंबे समय तक माता के गर्भ में पलता है। माताओं में बच्चे को दूध पिलाने के लिए ग्रंथियाँ होती हैं, प्राइमेट प्राणियों के दाँत भिन्न-भिन्न किस्मों के 
होते हैं ।


‘होमिनिड’ वर्ग होमिनॉइड उपसमूह से विकसित हुए। उनमें अनेक समानताएँ पाई जाती हैं लेकिन कुछ बड़े अंतर भी हैं। होमिनॉइडों का मस्तिष्क होमिनिडों की तुलना में छोटा होता था। वे चौपाए थे, यानी चारों पैरों के बल चलते थे, लेकिन उनके शरीर का अगला हिस्सा और अगले दोनों पैर लचकदार होते थे। इसके विपरीत, होमिनिड सीधे खड़े होकर पिछले दो पैरों के बल चलते थे। उनके हाथ विशेष किस्म के होते थे जिनकी सहायता से वे औज़ार बना सकते थे और उनका इस्तेमाल कर सकते थे। हम अगले अनुभाग में, उनके द्वारा बनाए गए औज़ारों और उनकी विशेषताओं के बारे में अधिक बारीकी से चर्चा करेंगे।

दो प्रकार के साक्ष्य से यह पता चलता है कि होमिनिडों का उद्भव अफ़्रीका में हुआ था। पहला तो यह कि अफ़्रीकी वानरों (एप) का समूह होमिनिडों से बहुत गहराई से जुड़ा है। दूसरा, सबसे प्राचीन होमिनिड जीवाश्म, जो आस्ट्रेलोपिथिकस वंश (Genus) के हैं, पूर्वी अफ़्रीका में पाए गए हैं और उनका समय लगभग 56 लाख वर्ष पहले का माना जाता है। इसके विपरीत, अफ़्रीका से बाहर पाए गए जीवाश्म 18 लाख वर्ष से अधिक पुराने नहीं हैं।


1.5

हाथ का क्रमिक विकास

क. आकृति चिंपैंज़ी की ठीक व सूक्ष्म पकड़ दर्शाती है।

ख. आकृति होमिनिड की दुरुस्त व सूक्ष्म पकड़ दर्शाती है।

ग. आकृति मनुष्य के हाथ की सशक्त (power) पकड़ दर्शाती है।

हाथ की सशक्त पकड़ का विकास संभवतः ठीक व सूक्ष्म पकड़ से पहले ही हुआ होगा।

चिंपैंज़ी की ठीक पकड़ की तुलना मनुष्य के हाथ की ठीक व सूक्ष्म पकड़ से कीजिए। उन कामों की सूची बनाइये जिन्हें करते समय आप ठीक व पकड़ सूक्ष्म का इस्तेमाल करते हैं। आप किन-किन कामों को करने के लिए सशक्त पकड़ का प्रयोग करते हैं?

‘होमिनिड’ होमिनिडेइ (Hominidae) नामक परिवार के सदस्य होते हैं; इस परिवार में सभी रूपों के मानव प्राणी शामिल हैं। होमिनिड समूहकी अनेक विशेषताएँ हैं; जैसे- मस्तिष्क का बड़ा आकार, पैरों के बल सीधे खड़े होेने की क्षमता, दो पैरों के बल चलना, हाथ की विशेष क्षमता जिससे वह औज़ार बना सकता था और उनका इस्तेमाल कर सकता था।

होमिनिडों को आगे कई शाखाओं में विभाजित किया जा सकता है। इन शाखाओं को जीनस* (Genus) कहते हैं। इन शाखाओं में आस्ट्रेलोपिथिकस और होमो अधिक महत्वपूर्ण हैं। इन शाखाओं में प्रत्येक की कई प्रजातियाँ होती हैं। आस्ट्रेलोपिथिकस और होमो के बीच कुछ बड़े अंतर उनके मस्तिष्क के आकार, जबड़े और दाँतों के संबंध में पाए जाते हैं। आस्ट्रेलोपिथिकस के मस्तिष्क का आकार होमो की अपेक्षा बड़ा होता है, जबड़े अधिक भारी होते हैं और दाँत भी ज़्यादा बड़े होते हैं। 

*हिंदी में ‘जीनस’ शब्द के लिए ‘वंश’ शब्द का प्रयोग भी किया जाता है।

दरअसल इन प्रजातियों को वैज्ञानिकों द्वारा जो नाम दिए गए हैं वे सभी लातिनी (Latin) और यूनानी भाषाओं के शब्दों से ही बने हैं। उदाहरण के लिए, आस्ट्रेलोपिथिकस नाम लातिनी भाषा के शब्द ‘आस्ट्रल’ यानी ‘दक्षिणी’ और यूनानी भाषा के शब्द ‘पिथिकस’ यानी ‘वानर’ से मिलकर बना है। यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि मानव के आद्य रूप में उसकी एप (वानर) अवस्था के अनेक लक्षण बरकरार रहे; जैसे- होमो की तुलना में मस्तिष्क का अपेक्षाकृत छोटा होना, पिछले दाँत बड़े होना और हाथों की दक्षता का सीमित होना। उसमें सीधे खड़े होकर चलने की क्षमता भी अधिक नहीं थी, क्योंकि वह अभी भी अपना बहुत सा समय पेड़ों पर गुज़ारता था इसलिए उसमें पेड़ों पर जीवन जीने के लिए आवश्यक अनेक विशेषताएँ अब भी मौजूद थीं। (जैसे, आगे के अवयवों का लंबा होना, हाथ और पैरों की हड्डियों का मुड़ा होना, और टखने के जोड़ों का घुमावदार होना)। कालांतर में जब औज़ार बनाने और लंबी दूरी तक पैदल चलने की क्रिया में बढ़ोतरी होती गई तब मानवीय विशिष्टताओं तथा लक्षणों का विकास भी होता गया।

होमिनॉइड (Hominoids) बंदरों से कई तरह से भिन्न होते हैं। उनका शरीर बंदरों से बड़ा होता है और उनकी पूँछ नहीं होती। होमिनिडों के विकास और निर्भरता की अवधि भी अधिक लंबी होती है।

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यह दृश्य पूर्वी अफ़्रीका की ओल्डुवई गोर्ज, रिफ्ट घाटी का है जो उन इलाकों में से एक है जहाँ आदिकालीन मानव के इतिहास के चिह्न पाए गए हैं? चित्र के बीच में पृथ्वी की भिन्न-भिन्न सतहों को देखिए। इनमें से हर सतह एक अलग भूवैज्ञानिक चरण को दर्शाती है।


आस्ट्रेलोपिथिकस, ओल्डुवई गोर्ज की खोज 17 जुलाई, 1959

ओल्डुवई गोर्ज (पृ. 14) सर्वप्रथम बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में एक जर्मन तितली संग्राहक द्वारा खोजा गया था; लेकिन आगे चलकर यह ओल्डुवई नाम मेरी और लुईस लीकी के साथ गहराई से जुड़ गया जिन्होंने यहाँ 40 वर्ष से भी अधिक समय तक शोधकार्य किया था। मेरी लीकी ने ही ओल्डुवई और लेतोली में पुरातत्त्वीय खुदाई कार्यों की देखभाल की थी और वहाँ की गई अनेक रोमांचक खोजों में उसका हाथ रहा था। लुईस लीकी ने अपनी इस अद्भुत खोज का वर्णन इस प्रकार किया हैः

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"उस दिन सवेरे जब मैं उठा तो मुझे सिर में दर्द और हलका बुखार महसूस हो रहा था। इच्छा तो नहीं थी पर मुझे शिविर में ही रहना पड़ा। चूंकि हम दोनों में से मैं काम पर नहीं जा रहा था इसलिए मेरी के लिए काम पर जाना ज़रूरी हो गया। हमें अपना काम पूरा करने के लिए सिर्फ सात सप्ताह का ही समय मिला था जो जल्दी-जल्दी बीत रहा था। इसलिए मेरी अपने दोनों कुत्तों-सैली और टूट्स- के साथ खुदाई पर चली गई और मैं बेचैन होकर पीछे शिविर में रह गया।

कुछ समय बाद, शायद मेरी झपकी टूटी तो मैंने लैंड-रोवर की आवाज़ सुनी। वह बड़ी तेज़ी से शिविर की ओर आ रही थी। मुझे पल भर के लिए एक सपना-सा आ गया, मुझे लगा कि मेरी को किसी ज़हरीले बिच्छू ने काट लिया है– वहाँ सैकड़ों की तादाद में बिच्छू थे, अथवा किसी साँप ने डस लिया है जो कुत्तों की नज़र से बच निकला होगा।

लैंड-रोवर गाड़ी खड़खड़ाहट के साथ रुकी। और मैंने कई बार मेरी की आवाज़ सुनी, वह बार-बार पुकार रही थीः मैंने उसे पा लिया! मैंने उसे पा लिया! मैंने उसे पा लिया! मैं अब भी सिरदर्द से लड़खड़ा रहा था; मैं उसका मतलब नहीं समझ पाया। मैंने पूछा– अरे, क्या हुआ? क्या पा लिया? क्या चोट खा बैठी? मेरी ने कहा, ‘‘उसी को बस उस आदमी को! हमारे आदमी को पा लिया, उसी को जिसे हम (पिछले 23 वर्षों से) खोज रहे थे। जल्दी आओ, मुझे उसके दाँत मिल गए हैं!’’

– ‘फाइंडिंग दि वर्ल्ड्स अर्लिएस्ट मैन’, लेखकः एल.एस.बी. लीकी, नैशनल ज्योग्राफ़िक, 118 (सितंबर 1960)


आदिकालीन मानवों के अवशेषों को भिन्न-भिन्न प्रजातियों में वर्गीकृत किया गया है। इन प्रजातियों को अक्सर उनकी हड्डियों की रचना में पाए जाने वाले अंतरों के आधार पर एक दूसरे से अलग किया गया है। उदाहरण के लिए, प्रारंभिक मानवों की प्रजातियों को उनकी खोपड़ी के आकार और जबड़े की विशिष्टता के आधार पर बाँटा गया है (पृ.10 पर चित्र देखिए)। ये विशेषताएँ सकारात्मक प्रतिपुष्टि व्यवस्था (Positive Feedback Mechanism) यानी वांछित परिणाम प्राप्त होने से ही विकसित हुई होंगी।


सकारात्मक प्रतिपुष्टि व्यवस्था


किसी बॉक्स विशेष की ओर इंगित तीर के निशान उन प्रभावों को बताते हैं जिनकी वजह से कोई विशेषता विकसित हुई।

1.6

किसी बॉक्स से दूर इंगित करने वाले तीर के निशान यह बताते हैं कि बॉक्स में बताए गए विकास-क्रम ने अन्य प्रक्रियाओं को कैसे प्रभावित किया।

 

उदाहरण के लिए, दो पैरों पर खड़े होकर चलने की क्षमता के कारण हाथ बच्चों या चीज़ों को उठाकर ले जाने के लिए मुक्त हो गए और ज्यों-ज्यों हाथों का इस्तेमाल बढ़ता गया, त्यों-त्यों दो पैरों पर खड़े होकर चलने की कुशलता भी बढ़ती गई। इससे विभिन्न प्रकार के काम करने के लिए हाथ स्वतंत्र हो जाने का लाभ तो मिला ही साथ ही चार पैरों की बजाय दो पैरों पर चलने से शारीरिक ऊर्जा की खपत भी कम होने लगी; लेकिन दौड़ते समय यह लाभ उलटा हो गया। लेतोली, तंज़ानिया में मिले होमिनिड के पदचिह्नों के जीवाश्मों (देखिए इस अनुभाग का आवरण पृष्ठ) और हादार, इथियोपिया से प्राप्त हड्डियों के जीवाश्मों से यह पता चलता है कि तत्कालीन मानव दो पैरों पर चलने लगे थे।

लगभग 25 लाख वर्ष पहले, ध्रुवीय हिमाच्छादन से (हिम युग के प्रारंभ में) जब पृथ्वी के बड़े-बड़े भाग बर्फ़ से ढक गए तो जलवायु तथा वनस्पति की स्थिति में बड़े-बड़े परिवर्तन आए। तापमान और वर्षा मेें कमी हो जाने के कारण, जंगल कम हो गए। और घास के मैदानों का क्षेत्रफल बढ़ गया जिसके परिणामस्वरूप आस्ट्रेलोपिथिकस के प्रारंभिक रूप (जो जंगलों में रहने के आदी थे) धीरे-धीरे लुप्त हो गए और उनके स्थान पर उनकी दूसरी प्रजातियाँ आ गईं जो सूखी परिस्थितियों में आराम से रह सकती थीं। इनमें जीनस होमो के सबसे पुराने प्रतिनिधि शामिल थे।

‘होमो’ लातिनी भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है ‘आदमी’ यद्यपि इसमें पुरुष और स्त्री दोनों शामिल हैं। वैज्ञानिकों ने होमो को कई प्रजातियों में बाँटा है और इन प्रजातियों को उनकी विशेषताओं के अनुसार अलग-अलग नाम दिए हैं। इस प्रकार जीवाश्मों को होमो हैबिलिस (औज़ार बनाने वाले), होमो एरेक्टस (सीधे खड़े होकर पैरों के बल चलने वाले) और होमो सैपियंस (प्राज्ञ या चिंतनशील मनुष्य) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

होमो हैबिलिस के जीवाश्म इथियोपिया में ओमो (Omo) और तंज़ानिया में ओल्डुवई गोर्ज (Olduvai Gorge) से प्राप्त किए गए हैं। होमो एरेक्टस के प्राचीनतम जीवाश्म अफ़्रीका और एशिया दोनों महाद्वीपों में पाए गए हैं, यथा- कूबीफ़ोरा (Koobi Fora) और पश्चिमी तुर्क़ाना, केन्या, मोड़ जोकर्तो (Mod Jokerto) और संगीरन (Sangiran), जावा। एशिया में पाए गए जीवाश्म अफ़्रीका में पाए गए जीवाश्मों की तुलना में परवर्ती काल के हैं, इसलिए यह अधिक संभव है कि होमीनिड पूर्वी अफ़्रीका से चलकर दक्षिणी और उत्तरी अफ़्रीका; दक्षिणी तथा पूर्वोत्तर एशिया; और शायद यूरोप में भी, 20 से 15 लाख वर्ष पहले गए। ये प्रजातियाँ लगभग दस लाख वर्ष पहले तक जीवित रहीं।

1.7

कुछ दृष्टांतों में, जीवाश्मों का नामकरण उन स्थानों के आधार पर किया गया है जहाँ उस विशेष प्रकार के जीवाश्म सर्वप्रथम मिले थे। जैसे कि जर्मनी के शहर हाइडलबर्ग में पाए गए जीवाश्मों को होमोहाइडल बर्गेंसिस (Homo heidel bergensis) कहा गया जबकि निअंडर घाटी में पाए गए जीवाश्मों को (पृ.18 देखिए) होमो निअंडरथलैंसिस (Homo neanderthalensis) श्रेणी में रखा गया।

यूरोप में मिले सबसे पुराने जीवाश्म होमो हाइडलबर्गेंसिस और होमो निअंडरथलैंसिस के हैं। ये दोनों ही होमो सैपियंस (आद्य प्राज्ञ मानव) प्रजाति के हैं। हाइडलबर्ग मानव (8 लाख वर्ष से 1 लाख वर्ष पूर्व) दूर-दूर तक फैले हुए थे। उनके जीवाश्म अफ़्रीका, एशिया और यूरोप में पाए गए हैं। निअंडरथल मानव मोटे तौर पर 1,30,000 से 35,000 वर्ष पहले तक यूरोप, पश्चिमी और मध्य एशिया में रहा करते थे। वे पश्चिमी यूरोप में लगभग 35,000 वर्ष पहले अचानक विलुप्त हो गए।

सामान्यतः, आस्ट्रेलोपिथिकस की तुलना में, होमो का मस्तिष्क बड़ा होता था, जबड़े बाहर की ओर कम निकले हुए थे और दाँत छोटे होते थे (पृष्ठ 10 पर चित्र देखिए)। उनमें मस्तिष्क के आकार में वृद्धि को अधिक बुद्धिमता और बेहतर याददाश्त से जोड़ा जाता है। जबड़ों तथा दाँतों में हुआ परिवर्तन संभवतः उनके खान-पान में हुई भिन्नता से संबंधित था।

1.8

क्रियाकलाप 2

विश्व के मानचित्र पर उपरोक्त सारणी में दिए गए परिवर्तनों को दर्शाइए। चार समय कोष्ठकों (time brackets) के लिए अलग-अलग रंगों का इस्तेमाल कीजिए। महाद्वीपों की सूची में यह बताइए कि आपने (क) कहाँ एक रंग, (ख) कहाँ दो रंगों और (ग) कहाँ दो से अधिक रंगों का इस्तेमाल किया है।


मानव के क्रमिक विकास की कहानी
(ख) आधुनिक मानव


यदि आप इस तालिका पर नज़र डालें तो आप देखेंगे कि होमो सैपियंस के अस्तित्त्व के बारे में प्राचीनतम साक्ष्य हमें अफ़्रीका के भिन्न-भिन्न भागों से मिले हैं। इससे यह प्रश्न उठता है कि मानव की उत्पत्ति का केंद्र कहाँ था? क्या यह केंद्र एक ही था अथवा बहुत-से थे।
1.9

आधुनिक मानव का उद्भव कहाँ हुआ? इस प्रश्न पर बहुत वाद-विवाद हुआ है। और इस विषय पर दो मत प्रचलित हैं जो एक-दूसरे से बिलकुुल विपरीत हैं। इनमें से पहला मत क्षेत्रीय निरंतरता मॉडल (Continuity Model) को मानता है, जिसके अनुसार अनेक क्षेत्रों में अलग-अलग मनुष्यों की उत्पत्ति हुई और दूसरा मत प्रतिस्थापन मॉडल (Replacement Model) का समर्थन करता है जिसके मुताबिक मनुष्य का उद्भव एक ही स्थान-अप्ऱηीका- में हुआ। यह तर्क वर्तमान मानव में दिखने वाले लक्षणों की क्षेत्रीय विविधताओं पर आधारित है कि मनुष्य एक ही स्थान पर पैदा हुआ।

क्षेत्रीय निरंतरता मॉडल के अनुसार, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहने वाले होमो सैपियंस का आधुनिक मानव के रूप में विकास धीरे-धीरे अलग-अलग र.फ्तार से हुआ; और इसीलिए आधुनिक मानव दुनिया के भिन्न-भिन्न भागों में पहली मर्तबा अलग-अलग स्वरूप में दिखाई दिया। यह तर्क आज के मनुष्यों के लक्षणों की विभिन्नताओं पर आधारित है। इस दृष्टिकोण के समर्थन में बोलने वालों के अनुसार ये उपर्युक्त असमानताएँ एक ही क्षेत्र में पहले से रहते आए होमो एरेक्टस और होमो हाइडलबर्गेंसिस समुदायों में पाई जाने वाली भिन्नताओं के कारण हैं।


प्रतिस्थापन और क्षेत्रीय निरंतरता

प्रतिस्थापन मॉडल में यह कल्पना की गई है कि मानव के सभी पुराने रूप, चाहे वे कहीं भी थे, बदल गए और उनका स्थान पूरी तरह आधुनिक मानव ने ले लिया। इस विचारधारा का समर्थन इस साक्ष्य से होता है कि आधुनिक मानव में सर्वत्र शारीरिक और जननिक यानी उत्पत्ति-मूलक समरूपता पाई जाती है। एेसे लोग यह तर्क देते हैं कि इनमेें अत्यधिक समानता इसलिए पाई जाती है कि उनके पूर्वज एक ही क्षेत्र यानी अफ़्रीका में उत्पन्न हुए थे और वहीं से अन्य स्थानों को गए। आधुनिक मानव के उन पुराने जीवाश्मों के साक्ष्य भी (जो इथियोपिया में ओमो स्थान पर मिले हैं) प्रतिस्थापन के मॉडल का समर्थन करते हैं। इस विचारधारा के विद्वानों का कहना है कि आज के मनुष्यों में जो शारीरिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं उनका कारण उन लोगों का परिस्थितियों के अनुसार हज़ारों वर्षों की अवधि में अपने आपको ढाल लेना है जो उन विशेष क्षेत्रों में गए और अंततोगत्वा वहाँ स्थायी रूप से बस गए।

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आदिकालीन मानव : भोजन प्राप्त करने के तरीके


अब तक, हम आदिमानव के अस्थिपंजर के अवशेषों से संबंधित साक्ष्य पर विचार करते रहे हैं और यह देखते रहे हैं कि महाद्वीपों के आर-पार लोगों के आवागमन के इतिहास को पुनर्निर्मित करने के लिए इन अवशेषों का उपयोग किस प्रकार किया गया है। लेकिन, इन सबके अलावा मानव-जीवन के रोज़मर्रा के साधारण पहलुओं पर विचार करना भी उतना ही आवश्यक है, तो आइए देखें, इनका अध्ययन कैसे किया जा सकता है।

आदिकालीन मानव कई तरीकोें से अपना भोजन जुटाते थे; जैसे- संग्रहण (Gathering), शिकार (Hunting), अपमार्जन* (Scavenging) और मछली पकड़ना (Fishing)। संग्रहण की क्रिया में पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य-पदार्थों; जैसे–बीज, गुठलियाँ, बेर, फल एवं कंदमूल इकट्ठा करना शामिल हैं। संग्रहण के बारे में तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है क्योंकि इस संबंध में प्रत्यक्ष साक्ष्य बहुत कम मिलता है। हमें हड्डियों के जीवाश्म तो बहुत मिल जाते हैं, पर पौधों के जीवाश्म तो दुर्लभ ही हैं। पौधों से भोजन जुटाने के बारे में सूचना प्राप्त करने का एक तरीका दुर्घटना या संयोगवश जले हुए पौधों से प्राप्त अवशेषों का अध्ययन है। इस प्रक्रिया में कार्बनीकरण हो जाता है और इस रूप में जैविक पदार्थ लंबे अरसे तक सुरक्षित रह सकते हैं। लेकिन, अभी तक पुरातत्त्वविदों को उतने पुराने ज़माने के संबंध में कार्बनीकृत बीजों के साक्ष्य नहीं मिले हैं।

*अपमार्जन से तात्पर्य त्यागी हुई वस्तुओं की सफाई करने से है।

हाल के वर्षों में, ‘शिकार’ शब्द विद्वानों के लिए चर्चा का विषय बना रहा है। अब अधिकाधिक रूप से यह सुझाव दिया जाने लगा है कि आदिकालीन होमिनिड अपमार्जन या रसदखोरी** (Scavanging or foraging) के द्वारा उन जानवरों की लाशों से मांस-मज्जा खुरच कर निकालने लगे जो जानवर अपने आप मर जाते या किन्हीं अन्य हिंसक जानवरों द्वारा मार दिए जाते थे। यह भी इतना ही संभव है कि पूर्व होमिनिड छोटे स्तनपायी जानवरों - चूहे, छछूँदर जैसे कृंतकों (Rodents), पक्षियों (और उनके अंडों), सरीसृपों और यहाँ तक कि कीड़े-मकोड़ों को खाते थे।

** रसदखोरी का तात्पर्य भोजन की तलाश करने से है।

शिकार शायद बाद में शुरू हुआ- लगभग 5,00,000 साल पहले। योजनाबद्ध तरीके से सोच समझकर बड़े स्तनपायी जानवरों का शिकार और उनका वध करने का सबसे पुराना स्पष्ट साक्ष्य दो स्थलों से मिलता है और वे हैं -- दक्षिणी इंग्लैंड में बॉक्सग्रोव (Boxgrove) से 5,00,000 साल पहले का और जर्मनी में शोनिंजन (Schoningen) से 4,00,000 साल पहले का (मानचित्र 2 देखिए)। मछली पकड़ना भी भोजन प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका था, जैसे कि अनेक खोज स्थलों से मछली की हड्डियाँ मिलने से पता चलता है। लगभग 35,000 वर्ष पूर्व मानव के योजनाबद्ध तरीके से शिकार करने का साक्ष्य कुछ यूरोपीय खोज स्थलों से मिलता है। एेसा प्रतीत होता है कि पूर्व मानव ने कुछ एेसे स्थल जैसे कि नदी के पास दोलनी वेस्तोनाइस (Dolni Vestonice) (चेक गणराज्य के मानचित्र 2 में देखिए) को सोच-

1.11
मानचित्र 2: यूरोप

समझकर शिकार के लिए चुना था। रेन्डियर और घोड़ा जैसे स्थान बदलने वाले जानवरों के झुंड के झुंड पतझड़ और वसंत के मौसम में संभवतः उस नदी के पार जाते थे और तब उनका बड़े पैमाने पर शिकार किया जाता था। इन स्थलों का चुनाव इस बात का द्योतक है कि लोग जानवरों की आवाजाही के बारे में और उन्हें जल्दी से बड़ी संख्या में मारने के तरीकों के बारे में भी जानते थे। क्या खाद्य पदार्थ इकट्ठा करने, मरे हुए जानवरों से मांस निकालने, शिकार करने और मछली पकड़ने में स्त्री-पुरुषों की भूमिकाएँ भिन्न-भिन्न होती थीं? वस्तुतः इस संबंध में हमारे पास कोई जानकारी नहीं है। आज भी एेसे अनेक समाज हैं जो शिकार और संग्रहण के बल पर अपना भरण-पोषण करते हैं; इनमें स्त्री-पुरुष भिन्न-भिन्न क्रियाकलाप संपन्न करते हैं; लेकिन जैसे कि हम इस अध्याय के परवर्ती अनुभागों में देखेंगे कि अतीत के साथ सदैव समानान्तर तुलनाएँ सुझाना संभव नहीं है।


प्रारंभिक मानव पेड़ों से गुफाओं तथा खुले स्थलों पर आवास

प्रारंभिक मानव के रहन-सहन के बारे में उपलब्ध साक्ष्य का पुनर्निर्माण करने की कोशिश करते हैं तो हम अपने आपको ज़्यादा सुनिश्चित आधार पर पाते हैं। उपलब्ध साक्ष्य का पुनर्निर्माण करने का एक तरीका यह है कि उनके द्वारा निर्मित शिल्पकृतियों के फैलाव की जाँच करना। उदाहरण के लिए, उनकी जीवन-शैली के बारे में जानने का एक तरीका है उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं के फैलाव की जाँच करना। उदाहरणस्वरूप, केन्या में किलोंबे (Kilombe) और ओलोर्जेसाइली (Olorgesaillie) के खनन स्थलों पर हज़ारों की संख्या में शल्क-उपकरण और हस्तकुठार मिले हैं। ये औज़ार 700,000 से 500,000 साल पुराने हैं।

ये इतने सारे औज़ार एक ही स्थान पर कैसे इकट्ठे हुए? यह संभव है कि जिन कुछ स्थानों पर खाद्य प्राप्ति के संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे वहाँ लोग बार-बार आते रहे। एेसे क्षेत्रों में लोग शिल्पकृतियों सहित अपने क्रियाकलापों के चिह्न छोड़ जाते होंगे। एेसा प्रतीत होता है कि पूरे परिदृश्य में कुछ ही क्षेत्रों में जमा शिल्पकृतियाँ मिलती हैं और वे क्षेत्र कुछ अलग से दिखाई पड़ते हैं और जिन स्थलों पर लोगों का आवागमन कम होता था वहाँ एेसी शिल्पकृतियाँ कम मात्रा में सतहों पर बिखरी हुई हैं।

1.12

बाएँओलोर्जेसाइली का उत्खनित स्थल। खननकर्ता लुईस लीकी और मेरी ने प्रेक्षकों के लिए उत्खनित स्थल के चारों ओर संकरी पगडंडी का पुल बना दिया था।

ऊपरः इस स्थल पर प्राप्त हस्त-कुठार सहित अन्य औज़ारों की एक नज़दीकी तस्वीर।


यहाँ यह भी याद रखना ज़रूरी है कि एक ही क्षेत्र में होमिनिड अन्य प्राइमेटों और मांसभक्षियों के साथ निवास करते थे। निम्नलिखित रेखाचित्र में देखिए कि ये कैसे होता था।

400,000 से 125,000 पहले गुफाओं तथा खुले निवास क्षेत्र का प्रचलन शुरू हो गया।
इसके साक्ष्य यूरोप के पुरास्थलों में मिलते हैं। दक्षिण फ्रांस में स्थित लेज़रेट गुफा की दीवार
को 12 × 4 मीटर आकार के एक निवास स्थान से सटाकर बनाया गया है। इसके अन्दर दो चूल्हों (Hearths) और भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य स्रोतों; जैसे- फलों, वनस्पतियों, बीजों, काष्ठफलों, पक्षियों के अण्डों और मीठे जल की मछलियों (ट्राउट, पर्च और कार्प) के साक्ष्य मिले हैं । एक और पुरास्थल, दक्षिणी फ्रांस के समुद्रतट पर स्थित टेरा अमाटा (Terra Amata) में घास-फूँस और लकड़ी की छत वाली कच्ची-कमज़ोर झोपड़ियाँ, सामयिक मौसमी प्रवास के लिए बनाई जाती थीं।

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पुरातत्त्वविदों का यह सुझाव है कि पूर्व होमिनिड भी, होमोहैबिलिस की तरह, संभवतः स्थान-विशेष पर पाई गई अधिकांश खाद्य-सामग्री को वहीं खा लेते थे, अलग-अलग स्थानों पर सोते थे और ज़्यादातर समय पेड़ों पर बिताते थे। यहाँ कई प्रश्न उठते हैंः यहाँ उत्खनन स्थलों पर हड्डियाँ कैसे पहुँची होंगी? यहाँ पत्थर कैसे पहुँचे होंगे? क्या हड्डियाँ अक्षुण्ण रही होंगी?

शिल्पकृतियाँ (artefacts) मानव निर्मित वस्तुएँ होती हैं। इनमें अनेक प्रकार की चीज़ें शामिल होती हैं  जैसे - औज़ार, चित्रकारियाँ, मूर्तियाँ, उत्कीर्ण चित्र आदि।

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यह टेरा अमाटा (Terra Amata) में पुनर्निर्मित एक झोंपड़ी का चित्र है। झोंपड़ी के किनारों को सहारा देने के लिए बड़े पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता था। फ़र्श पर जो पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े बिखरे हुए हैं वे उन स्थानों के द्योतक हैं जहाँ बैठकर लोग पत्थर के औज़ार बनाते थे। तीर के निशान से अंकित काली जगह चूल्हे को दर्शाती है। आपके अनुसार इन स्थानों पर रहने वालों का जीवन पेड़ों पर रहने वाले होमिनिडों के जीवन से किस प्रकार भिन्न होगा।

केन्या में चेसोवांजा (Chesowanja) और दक्षिणी अफ़्रीका में स्वार्टक्रान्स (Swartkrans) में पत्थर के औज़ारों के साथ-साथ आग में पकाई गई चिकनी मिट्टी और जली हुई हड्डियों के टुकड़े मिले हैं जो 14 लाख से 10 लाख साल पुराने है। क्या ये चीज़ें प्राकृतिक रूप से झाड़ियों में लगी आग या ज्वालामुखी से उत्पन्न अग्नि से जलने का परिणाम हैं अथवा क्या ये एक सुनियोजित, सुनियंत्रित ढंग से लगाई गई आग में पकाकर बनाईं गईं थीं? हम इसके बारे में सटीक रूप से नहीं जानते।

दूसरी ओर, चूल्हे, आग के नियंत्रित प्रयोग के द्योतक हैं। इसके कई .फायदे थे। नियंत्रित आग का प्रयोग गुफाओं के अन्दर प्रकाश और उष्णता मिलने में मददगार होता था और इससे भोजन भी पकाया जा सकता था। इसके अलावा लकड़ी को कठोर करने में आग का इस्तेमाल होता था जैसे कि भाले की नोंक बनाने में। शल्क निकाल कर औज़ार बनाने में भी उष्णता उपयोगी होती थी। साथ ही इसका उपयोग खतरनाक जानवरों को भगाने में किया जाता था।


प्रारंभिक मानव : औज़ारों का निर्माण

सर्वप्रथम यह याद रखना उपयोगी होगा कि औज़ारों का इस्तेमाल और औज़ार बनाने की क्रिया मानव तक ही सीमित नहीं है। पक्षी भी कुछ एेसी चीज़ें बनाने के लिए जाने जाते हैं जो उन्हें भोजन प्राप्त करने, अपने आपको स्वच्छ एवं स्वस्थ रखने और सामाजिक संघर्ष में सहायता देने के लिए उपयोगी होती हैं। इसी प्रकार, कुछ चिंपैंज़ी भी अपने भरण-पोषण के लिए जो औज़ार इस्तेमाल करते हैं उन्हे वह स्वयं बनाते हैं।


कुछ आरंभिक औज़ार।

ये औज़ार ओल्डुवई में मिले थे। बगल में दिखाया गया औज़ार एक गंडासा है जिसके शल्कों को निकालकर धारदार बना दिया गया है। नीचे दिखाया गया औज़ार एक हस्त-कुठार है। क्या आप यह बता सकते हैं कि ये औज़ार किस काम में आते होंगे?

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हालांकि, मनुष्यों में औज़ार बनाने के लिए कुछ विशेषताएँ हैं जो वानरों में नहीं पाई जाती हैं। जैसा कि हमने (पृ.11 पर) देखा है, कुछ विशेष प्रकार के शारीरिक और संभवतः स्नायुतंत्रीय अनुकूलनों के कारण हाथ का कुशलतापूर्ण प्रयोग संभव हुआ है और इस कार्य में शायद मनुष्यों के जीवन में औज़ारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हो। इसके अलावा, मानव जिस प्रकार औज़ार बनाते और उनका प्रयोग करते हैं, उसमें अधिक स्मरण शक्ति, जटिल संगठनात्मक कौशल की आवश्यकता होती है और वानरों में इन दोनों विशेषताओं का अभाव रहा है।

पत्थर के औज़ार बनाने और उनका इस्तेमाल किए जाने का सबसे प्राचीन साक्ष्य इथियोपिया और केन्या (मानचित्र 1) के पुरा-स्थलों से प्राप्त होता है। यह संभव है कि आस्ट्रेलोपिथिकस ने सबसे पहले पत्थर के औज़ार बनाए थे।

अन्य क्रियाकलापों की तरह, औज़ार बनाने के बारे में भी हम यह नहीं जानते कि यह काम पुरुषों या स्त्रियों अथवा दोनों द्वारा मिलकर किया जाता था। यह संभव है कि पत्थर के औज़ार बनाने वाले स्त्री-पुरुष दोनों ही होते थे। संभव है कि स्त्रियाँ अपने और अपने बच्चों के भोजन प्राप्त करने के लिए कुछ खास औज़ार बनाती और इस्तेमाल करती रही होंगी।

लगभग 35,000 वर्ष पहले जानवरों को मारने के तरीकों में सुधार हुआ। इस बात का प्रमाण यह है कि फेंक कर मारने वाले भालों तथा तीर-कमान जैसे नए किस्म के औज़ार बनाए जाने लगे। मांस को साफ किया जाने लगा। उसमें से हड्डियाँ निकाल दी जाती थीं और फिर उसे सुखाकर, हलका सेंकते हुए सुरक्षित रख लिया जाता था। इस प्रकार, सुरक्षित रखे खाद्य को बाद में खाया जा सकता था।

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एक भाला प्रक्षेपक यंत्र।

इसके हत्थे पर की गई नक्काशी देखिए। भाला प्रक्षेपक यंत्र के प्रयोग से शिकारी अधिक लंबी दूरी तक भाला फेंकने में स.फल हुए। क्या आप इस औज़ार का कोई और लाभकारी उपयोग बता सकते हैं?


कुछ और भी परिवर्तन आए; जैसे-समूरदार जानवरों को पकड़ा जाना, उनके रोएँदार खाल का कपड़े की तरह प्रयोग और सिलने के लिए सुई का अविष्कार होना। सिले हुए कपड़ों का सबसे पहला साक्ष्य लगभग 21,000 वर्ष पुराना है। छेनी या रुखानी जैसे छोटे-छोटे औज़ार बनाने के लिए तकनीक शुरू हो गई। इन नुकीले ब्लेडों से हड्डी, सींग, हाथी दाँत या लकड़ी पर नक्काशी करना या कुरेदना अब संभव हो गया।


पंच ब्लेड तकनीक


1.14

(क) एक बड़े पत्थर के ऊपरी सिरे को पत्थर के हथौड़े की सहायता से हटाया जाता है।

(ख) इससे एक चपटी सतह तैयार हो जाती है जिसे प्रहार मंच यानी घन कहा जाता है।

(ग) फिर इस पर हड्डी या सींग से बने हुए पंच और हथौड़े की सहायता से प्रहार किया 
जाता है।

(घ) इससे धारदार पट्टी बन जाती है जिसका चाकू की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है अथवा उनसे एक तरह की छेनियाँ बन जाती हैं जिनसे हड्डी, सींग, हाथीदाँत या लकड़ी को उकेरा जा सकता है।

(ङ) हड्डी पर नक्काशी का नमूना। इस पर अंकित जानवरों के चित्र देखिए।


संप्रेषण एवं संचार के माध्यम : भाषा और कला

जीवित प्राणियों में मनुष्य ही एक एेसा प्राणी है जिसके पास भाषा है। भाषा के विकास पर कई प्रकार के मत हैंः (1) होमिनिड भाषा में अंगविक्षेप (हाव-भाव) या हाथों का संचालन (हिलाना) शामिल था; (2) उच्चरित भाषा से पहले गाने या गुनगुनाने जैसे मौखिक या अ-शाब्दिक संचार का प्रयोग होता था; (3) मनुष्य की वाणी का प्रारंभ संभवतः आह्वान या बुलावों की क्रिया से हुआ था जैसा कि नर-वानरों में देखा जाता है। प्रारंभिक अवस्था में मानव बोलने में बहुत कम ध्वनियों का प्रयोग करता होगा। धीरे-धीरे ये ध्वनियाँ ही आगे चलकर भाषा के रूप में विकसित हो गई होंगी।

उच्चरित यानी बोली जाने वाली भाषा की उत्पत्ति कब हुई? एेसा सुझाव दिया जाता है कि होमोहैबिलिस के मस्तिष्क में कुछ एेसी विशेषताएँ थीं जिनके कारण उसके लिए बोलना संभव हुआ होगा। इस प्रकार संभवतः भाषा का विकास सबसे पहले 20 लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ होगा। मस्तिष्क में हुए परिवर्तनों के अलावा, स्वर-तंत्र का विकास भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था। स्वर-तंत्र का विकास लगभग 200,000 वर्ष पहले हुआ था। इसका संबंध खास तौर पर आधुनिक मानव से रहा है।


एक तीसरा सुझाव यह है कि भाषा, कला के साथ-साथ लगभग 40,000-35,000 साल पहले विकसित हुई। उच्चरित भाषा का विकास कला के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा है, क्योंकि ये दोनों ही संप्रेषण यानी विचार अभिव्यक्ति के माध्यम हैं।

आल्टामीरा के गुफा चित्र

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उत्तरी स्पेन में आल्टामीरा की गुफा में चित्रित एक गौर यानी जंगली बैल

आल्टामीरा स्पेन में स्थित एक गुफा-स्थल है। आल्टामीरा की गुफा की छत पर बनी चित्रकारियाें की ओर मार्सिलीनो सैंज दि सउतुओला(Marcelino Sanz de Sautuola) का ध्यान उसकी बेटी मारिया द्वारा नवंबर 1879 में दिलाया गया था। मार्सिलीनो एक स्थानीय भूस्वामी तथा शौकीन पुरातत्त्वविद् थे और उनकी नन्हीं-सी लड़की गुफा में इधर-उधर दौड़ और खेल रही थी जबकि उसके पिता गुफा के फर्श की खुदाई कर रहे थे। अचानक मारिया की नज़र छत पर बनी चित्रकारियों पर पड़ी; वह तुरंत चिल्ला उठी "पापा देखो, बैल!", एक बार तो उसके पिता ने बेटी की बात को हँसी में उड़ा दिया। पर तुरंत ही उन्हें यह अहसास हुआ कि छत पर सचमुच कुछ चित्रकारियाँ बनी हुई हैं जिनमें रंग की बजाय किसी प्रकार की लेई (पेस्ट) का इस्तेमाल किया गया है। फिर तो उसका मन उमंग से इतना भर उठा कि वह हतप्रभ हो गए और अगले ही वर्ष उन्होंने एक पुस्तिका प्रकाशित की लेकिन लगभग दो दशकों तक उनकी खोज के निष्कर्षों को यूरोपीय पुरातत्त्वविदों ने इस आधार पर स्वीकार नहीं किया, कि ये चित्रकारियाँ इतनी ज़्यादा अच्छी हैं कि ये उतनी प्राचीन नहीं हो सकतीं।

फ्रांस में स्थित लैसकॉक्स (Lascaux) और शोवे (Chauvet) की गुफाओं में और स्पेन में स्थित आल्टामीरा की गुफा में, जानवरों की सैकड़ों चित्रकारियाँ पाई गई हैं, जो 30,000 से 12,000 साल पहले के बीच में कभी बनाई गईं। इनमें गौरों, घोड़ों, साकिन (Ibex), हिरनों, मैमथों यानी विशालकाय जानवरों, गैंडों, शेरों, भालुओं, तेंदुओं, लकड़बग्घों और उल्लुओं के चित्र शामिल हैं।

इन चित्रों पर जितने उत्तर नहीं दिए गये हैं उससे कहीं अधिक प्रश्न उठाए गये हैं; उदाहरणस्वरूप, इन गुफाओं के कुछ हिस्सों में चित्र क्यों हैं जबकि अन्य हिस्सों में नहीं हैं। कुछ खास जानवरों को ही चित्रित क्यों किया गया है, दूसरे जानवरों को क्यों नहीं? पुरुषों को अकेले अलग-अलग और समूहों में भी चित्रित किया गया है जबकि स्त्रियों को केवल समूह में ही, क्यों? केवल पुरुषों को ही जानवरों के साथ चित्रित किया गया है, स्त्रियों को कभी नहीं, क्यों? जानवरों के समूहों को गुफाओं के उन भागों में क्यों चित्रित किया गया है, जहाँ आवाज़ अच्छी तरह पहुँचती थी?

इन प्रश्नों के अनेक स्पष्टीकरण दिए गए हैं। उनमें से एक यह है, चूँकि जीवन में शिकार का महत्त्व है इसलिए, जानवरों की चित्रकारियाँ धार्मिक क्रियाओं, रस्मों और जादू-टोनों से जुड़ी होती थीं। शायद चित्रकारी इसलिए की जाती थी कि एेसी रस्म अदा करने से शिकार करने में सफलता मिले। दूसरा स्पष्टीकरण यह दिया गया कि शायद ये गुफाएँ संगम स्थल थीं जहाँ लोगों के छोटे-छोटे समूह मिलते थे या इकट्ठे होकर सामूहिक क्रियाकलाप संपन्न करते थे। हो सकता है, वहाँ ये समूह मिलकर शिकार की योजना बनाते हों, अथवा शिकार के तरीकों एवं तकनीकों पर एक दूसरे से चर्चा करते हों, और ये चित्रकारियाँ आगे आने वाली पीढ़ियों को इन तकनीकों की जानकारी देने के लिए उकेरी गई हों।

आदिकालीन समाजों के बारे में ऊपर जो विवरण दिया गया है वह अधिकतर पुरातात्त्विक साक्ष्य पर आधारित है। जाहिर है कि अब भी उनके बारे में जानने के लिए बहुत कुछ बचा है। जैसा कि इस अध्याय के प्रारंभ में कहा गया था, शिकार करने वाले और खाद्य-सामग्री तलाशने और बटोरने वाले समाज आज भी मौजूद हैं। क्या आज के शिकारी-संग्राहकों के जीवन से पुराने समाजों के बारे में कुछ जाना-सीखा जा सकता है? इसी प्रश्न पर हम अगले अनुभाग में चर्चा करेंगे।


अफ़्रीका में शिकारी-संग्राहकों के साथ प्रारंभिक संपर्क

अफ़्रीका के कालाहारी (Kalahari) रेगिस्तान में रहने वाले ‘कुंग सैन’ (Kung San) नाम के एक शिकारी-संग्राहक समाज के साथ 1870 में एक अफ़्रीकी पशुचारक समूह के एक सदस्य का पहली बार संपर्क हुआ। उस व्यक्ति ने इस मुलाकात के बारे में निम्नलिखित विवरण दियाः

सर्वप्रथम जब हम इस इलाके में आए तो हमने देखा कि वहाँ बालू की सतह पर अजीब किस्म के पैरों के निशान बने हुए थे। हमने आश्चर्यचकित होकर सोचा कि ये लोग कैसे होंगे। ये लोग हमसे बहुत घबराते थे और जब कभी हम उनके आसपास जाते तो ये भागकर कहीं छिप जाते थे। हमें उनके गाँव मिले, लेेकिन उन्हें हमेशा सुनसान पाया क्योंकि जब कभी वे अजनबी लोगों को देखते थे तो इधर-उधर भाग कर झाड़ियों में छिप जाते थे। हमने मन ही मन कहा, ‘अरे, यह तो अच्छी बात है, ये लोग हमसे डरते हैं, वे कमज़ोर हैं और हम आसानी से उन पर शासन कर सकते हैं। इस तरह हमने उन पर अपना शासन स्थापित किया। इसमें कोई झगड़ा या खून खराबा नहीं हुआ।

विषय 8 और 10 में शिकारी-संग्राहकों के साथ हुए मुकाबले के बारे में आप और अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे।

हादज़ा जनसमूह

"हादज़ा शिकारियों तथा संग्राहकों का एक छोटा समूह है जो ‘लेक इयासी’ एक खारे पानी की विभ्रंश घाटी में बनी झील के आसपास रहते हैं। पूर्वी हादज़ा का इलाका सूखा और चट्टानी है, जहाँ घास (सवाना), काँटेदार झाड़ियाँ और एकासियों के पेड़ों की बहुतायत है, लेकिन यहाँ जंगली खाद्य-वस्तुएँ भरपूर मात्रा में मिलती हैं। बीसवीं शताब्दी के शुरू में यहाँ भाँति-भाँति के जानवरों की बेशुमार संख्या थी। यहाँ के बड़े जानवरों में हाथी, गैंडे, भैंसे, जिराफ़, ज़ेब्रा, वाटरबक, हिरण, चिंकारा, खागदार जंगली सुअर, बबून बंदर, शेर, तेंदुए और लकड़बग्घे जितने आम हैं उतने ही आम छोटे जानवरों में साही मछली (porcupine), खरगोश, गीदड़, कछुए और अनेक प्रकार के जानवर हैं। हादज़ा लोग हाथी को छोड़कर बाकी सभी किस्म के जानवरों का शिकार करते हैं और उनका मांस खाते हैं। यहाँ शिकार के भविष्य को कोई खतरा पैदा किए बिना, नियमित रूप से जितना मांस खाया जाता है, उतना दुनिया के किसी भी एेसे भाग में नहीं खाया जा सकता, जहाँ एेसे शिकारी-संग्राहक रहते हैं अथवा निकट भूतकाल में रहते थे।

वनस्पति खाद्य-कंदमूल, बेर, बाओबाब पेड़ के फल, आदि जो साधारण दर्शक को अक्सर आसानी से दिखाई नहीं देते, जलाभाव के वर्ष में भी अत्यंत सूखे-मौसम में बहुतायत से उपलब्ध होते हैं। जिस तरह का वनस्पति खाद्य बारिश के छः महीनों में उपलब्ध होता है वह सूखे के मौसम में मिलने वाली खाद्य वस्तुओं से भिन्न होता है; लेकिन वहाँ खाद्य पदार्थ की कोई कमी नहीं रहती। यहाँ पाई जाने वाली सात किस्म की जंगली मधुमक्खियों के शहद और सूंड़ियों को चाव से खाया जाता है, लेकिन इन चीज़ों की आपूर्ति सदा एक जैसी नहीं रहती, मौसम के अनुसार हर वर्ष बदलती रहती है।

वर्षा के मौसम में जल-स्रोत व्यापक रूप से देश-भर में मिलते हैं, लेकिन सूखे के मौसम में ये स्रोत बहुत कम रह जाते हैं। हादज़ा लोग यह समझते हैं कि अगर अधिक से अधिक 5-6 किलोमीटर की दूरी तक पानी मिल जाए तो उनका काम चल सकता है; इसलिए उनके शिविर आमतौर पर जलस्रोत से एक किलोमीटर की दूरी में ही स्थापित किए जाते हैं।

देश के कुछ हिस्से में घास के खुले मैदान हैं, लेकिन हादज़ा लोग वहाँ कभी अपना शिविर नहीं बनाते। उनके शिविर पेड़ों अथवा चट्टानों के बीच बल्कि तरजीही तौर पर वहाँ लगाए जाते हैं जहाँ ये दोनों सुविधाएँ उपलब्ध हों।

पूर्वी हादज़ा लोग ज़मीन और उसके संसाधनों पर अपना अधिकार नहीं जताते। कोई भी व्यक्ति जहाँ कहीं भी चाहे रह सकता है, पशुओं का शिकार कर सकता है, कहीं पर भी कंदमूल-फल और शहद इकट्ठा कर सकता है और पानी ले सकता है; इस संबंध में हादज़ा प्रदेश में उन पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है।...

अपने इलाके में शिकार के लिए असीमित मात्रा में पशु उपलब्ध होने के बावज़ूद, हादज़ा लोग अपने भोजन के लिए मुख्य रूप से जंगली साग-सब्ज़ियों पर ही निर्भर रहते हैं। संभवतः उनके भोजन का 80 प्रतिशत तक भाग मुख्य रूप से वनस्पतिजन्य होता है और शेष 20 प्रतिशत भाग मांस और शहद से पूरा किया जाता है।

नमी के मौसम में हादज़ा लोगों के शिविर आमतौर पर छोटे और दूर-दूर तक फैले हुए होते हैं और सूखे के मौसम में पानी के स्रोताें के आसपास बड़े और घने बसे होते हैं।

सूखे के समय में भी उनके यहाँ भोजन की कोई कमी नहीं रहती।"

– मानव विज्ञानी जेम्स वुडबर्न द्वारा 1960 में दिया गया विवरण।


मानव विज्ञान (Anthropology) एक एेसा विषय है जिसमें मानव संस्कृति और मानव जीव विज्ञान के उद्विकासीय पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।


क्रियाकलाप 3

हादज़ा लोग ज़मीन और उसके संसाधनों पर अपने अधिकारों का दावा क्यों नहीं करते? उनके शिविरों के आकार और स्थिति में मौसम के अनुसार परिवर्तन क्यों होता रहता है? सूखा पड़ने पर भी उनके पास भोजन की कमी क्यों नहीं होती? क्या आप आज के भारत के किसी शिकारी-संग्राहक समाज का नाम बता सकते हैं?


शिकारी-संग्राहक समाज वर्तमान से अतीत की ओर

जैसे-जैसे मानव विज्ञानियों द्वारा किए गए अध्ययनों के माध्यम से आज के शिकारी-संग्राहकों के बारे में हमारा ज्ञान बढ़ा, हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या वर्तमान शिकारी-संग्राहक समाजों के बारे मेें प्राप्त जानकारी का उपयोग सुदूर अतीत के मानव के जीवन को पुनर्निर्मित करने में किया जा सकता है।

इस मुद्दे पर इस समय दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ चल रही हैं– एक ओर विद्वानों का एक एेसा वर्ग है जिन्होंने आज के शिकारी-संग्राहक समाजों से प्राप्त विशिष्ट तथ्यों तथा आँकड़ों का सीधे अतीत के पुरातत्त्वीय अवशेषों की व्याख्या करने के लिए उपयोग कर लिया है। उदाहरण के लिए, कुछ पुरातत्त्वविदों का कहना है कि 20 लाख साल पहले के होमिनिड स्थल जो तुर्काना झील के किनारे स्थित हैं, संभवतः आदिकालीन मानवों के शिविर या निवास स्थान थे जहाँ वे सूखे के मौसम में आकर रहते थे। एेसी ही पद्धति वर्तमान हादज़ा और कुंग सैन समाजों में पाई जाती है।

संजाति वृत्त 
(Ethnography) में समकालीन नृजातीय समूहों का विश्लेषणात्मक अध्ययन होता है। इसमें उनके रहन-सहन, खान-पान आजीविका के साधन, प्रौद्योगिकी आदि की जाँच की जाती है। स्त्री-पुरुष की भूमिका, कर्मकांड, रीति-रिवाज, राजनीतिक संस्थाओं और सामाजिक रूढ़ियों का अध्ययन किया जाता है।

दूसरी ओर, कुछ एेसे विद्वान हैं जो यह महसूस करते हैं कि संजाति वृत्त संबंधी तथ्यों और आँकड़ों का उपयोग अतीत के समाजों को समझने के लिए नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों चीज़ें एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं। उदाहरण के लिए, आज के शिकारी-संग्राहक समाज शिकार और संग्रहण के साथ-साथ और कई आर्थिक क्रियाकलापों में लगे रहते हैं। जैसे, जंगलों में पाई जाने वाली छोटी-छोटी चीज़ों का विनिमय और व्यापार करना, अथवा पड़ोस के किसानों के खेतों में मज़दूरी करना। इसके अलावा, ये समाज भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक यानी सभी दृष्टियों से हाशिए पर हैं। वे जिन परिस्थितियों में रहते हैं वह आरंभिक मानव की अवस्था से बहुत भिन्न हैं।

एक अन्य समस्या यह है कि आज के शिकारी-संग्राहक समाजों में आपस में भी बहुत भिन्नता है। कई मुद्दों पर तो परस्पर विरोधी तथ्य दिखाई देते हैं, जैसे वे सब समाज शिकार और संग्रहण को अलग-अलग महत्त्व देते हैं, उनके आकार भिन्न-भिन्न यानी छोटे-बड़े होते हैं और उनकी गतिविधियों में भी अंतर पाया जाता है।

भोजन प्राप्त करने के मामले में श्रम-विभाजन को लेकर भी कोई आम सहमति नहीं है यद्यपि आज भी अधिकतर स्त्रियाँ ही खाने-पीने की सामग्री जुटाने का काम करती हैं और पुरुष शिकार करते हैं, लेकिन एेसे समाजों के भी उदाहरण मिलेंगे जहाँ स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही शिकार और संग्रहण तथा औज़ार बनाने का काम करते हैं। स्थितियाँ जो भी हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एेसे समाजों में स्त्रियाँ भी भोजन जुटाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। संभवतः इसी बात से यह सुनिश्चित होता है कि आज के शिकारी-संग्राहक समाजों में स्त्री-पुरुष दोनों की भूमिका अपेक्षाकृत एकसमान ही होती है, यद्यपि इसमें समाजों के अंदर कुछ अंतर हैं। वर्तमान स्थिति एेसी होने पर अतीत के बारे में कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है।

क्रियाकलाप 4

आप क्या सोचते हैं कि प्राचीनतम मानव समाजों के जीवन के बारे में जानने के लिए संजाति वृत्त संबंधी वृत्तांतों का इस्तेमाल करना, कितना उपयोगी अथवा अनुपयोगी है?


उपसंहार

लाखों सालों तक मानव जंगली जानवरों का शिकार करके और जंगली पेड़-पौधों को इकट्ठा करके अपना भरण-पोषण करते रहे थे। फिर, 10,000 से 4,500 वर्ष पहले तक दुनिया के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले लोगों ने कुछ जंगली पौधों को अपने उपयोग के लिए उगाना और जानवरों को पालतू बनाना सीख लिया। इसके फलस्वरूप खेती और पशुचारण कार्य उनकी जीवन-पद्धति का अंग बन गया। इधर-उधर बिखरे हुए खाद्य-पदार्थों को बटोरकर खाने की बजाय उन्हें खेती के ज़रिये स्वयं उपजाकर प्राप्त करना मानव-इतिहास की एक युगांतरकारी घटना है। मगर उस समय यह परिवर्तन क्यों आया?

लगभग तेरह हज़ार साल पहले अंतिम हिमयुग का अंत हो गया और उसके साथ ही अपेक्षाकृत अधिक गर्म और नम मौसम की शुरुआत हो गई। इसके फलस्वरूप जंगली जौ और गेहूँ जैसे अनाज के पौधे उगाने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल हो गईं। साथ ही जैसे-जैसे खुलेे जंगलों और घास के मैदानों का विस्तार होता गया वैसे-वैसे जंगली भेड़ों, बकरियों, मवेशियों, सुअरों और गधों जैसे जानवरों की संख्या में भी वृद्धि होती गई। इससे यह इंगित होता है कि मानव समाज धीरे-धीरे एेसे इलाकों को अधिक पसंद करने लगे जहाँ इन जंगली घास-फूस और जानवरों की बहुतायत थी। इसके अलावा, अब पहले से काफी बड़े जन-समुदाय एेसे इलाकों में वर्ष के अधिकांश भाग में लगभग स्थायी रूप से रहने लगे। चूँकि कुछ इलाकों को अपेक्षाकृत अधिक पसंद किया जाता था, इसलिए वहाँ भोजन की आपूर्ति को बढ़ाने के लिए दबाव बढ़ने लगा। संभवतः इसी कारण से कुछ खास किस्म के पौधों को उगाने और जानवरों को पालने की प्रक्रिया चालू हो गई। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जलवायु परिवर्तन, जनसंख्या का दबाव, कुछ खास किस्म के पौधों (जैसे, गेहूँ, जौ, चावल और मोठ-बाजरा आदि) और जानवरों (जैसे, भेड़, बकरी, मवेशी, गधा और सुअर आदि) की जानकारी और उस पर मनुष्य की निर्भरता जैसे अनेक कारकों ने मिलकर एेसा परिवर्तन लाने में अपनी भूमिका अदा की।

एक एेसा क्षेत्र जहाँ आज से लगभग दस हज़ार साल पहले खेती और पशु-चारण (Pastoralism) प्रारंभ हुआ, यह फ़र्टाइल क्रीसेंट (Fertile Crescent) यानी उर्वर अर्धचंद्राकर क्षेत्र मध्य सागर के तट से लेकर ईरान में ज़ागरोस (Zagros) पर्वतमाला तक फैला हुआ था। खेती की प्रथा चालू हो जाने से लोगों ने एक स्थान पर पहले से ज़्यादा लंबे अरसे तक टिकना शुरू कर दिया। इस प्रकार गारे, कच्ची ईंटों और पत्थरों से भी स्थायी घर बनाए जाने लगे। ये पुरातत्त्वविदों को ज्ञात प्राचीनतम गाँवों में से कुछ हैं।

खेती और पश्ुाचारण से कई अन्य परिवर्तन प्रारम्भ हुए; जैसे-मिट्टी के एेसे बर्तन बनाना जिनमें अनाज तथा अन्य उपजों को रखा जा सके और खाना पकाया जा सके। इसके अलावा पत्थर के नए किस्म के औज़ारों का इस्तेमाल होने लगा। हल जैसे अन्य उपकरण खेती के काम में आने लगे। धीरे-धीरे लोग ताँबा और राँगा जैसी धातुओं से परिचित हो गए। मिट्टी के बर्तन बनाने और परिवहन के लिए पहिए का इस्तेमाल होने लगा।

लगभग 5 हज़ार साल पहले इससे भी अधिक संख्या में लोगों के समूह एक साथ शहरों में रहने लगे। एेसा क्यों हुआ? और शहरों तथा अन्य बस्तियों में क्या अंतर है? एेसे ही प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए अध्याय 2 पढ़िए।

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पूर्वी अफ्रीका विभ्रंश घाटी


अभ्यास

संक्षेप में उत्तर दीजिए

1. पृष्ठ 13 पर दिए गए सकारात्मक प्रतिपुष्टि व्यवस्था (Positive Feedback Mechanism) को दर्शाने वाले आरेख को देखिए। क्या आप उन निवेशों (inputs) की सूची दे सकते हैं जो औज़ारों के निर्माण में सहायक हुए? औज़ारों के निर्माण से किन-किन प्रक्रियाओं को बल मिला?

2. मानव और लंगूर तथा वानरों जैसे स्तनपायियों के व्यवहार तथा शरीर रचना में कुछ समानताएँ
पाई जाती हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि संभवतः मानव का क्रमिक विकास वानरों से हुआ। (क) व्यवहार और (ख) शरीर रचना शीर्षकों के अंतर्गत दो अलग-अलग स्तंभ बनाइए और उन समानताओं की सूची दीजिए। दोनों के बीच पाए जाने वाले उन अंतरों का भी उल्लेख कीजिए जिन्हें आप महत्त्वपूर्ण समझते हैं?

3. मानव उद्भव के क्षेत्रीय निरतंरता मॉडल के पक्ष में दिए गए तर्कों पर चर्चा कीजिए। क्या आपके विचार से यह मॉडल पुरातात्त्विक साक्ष्य का युक्तियुक्त स्पष्टीकरण देता है?

4. इनमें से कौन-सी क्रिया के साक्ष्य व प्रमाण पुरातात्त्विक अभिलेख में सर्वाधिक मिलते हैंः
(क) संग्रहण, (ख) औज़ार बनाना, (ग) आग का प्रयोग। 

संक्षेप में निबंध लिखिए

5. भाषा के प्रयोग से (क) शिकार करने और (ख) आश्रय बनाने के काम में कितनी मदद मिली होगी? इस पर चर्चा करिए। इन क्रियाकलापों के लिए विचार-संप्रेषण के अन्य किन तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता था?

6. अध्याय के अंत में दिए गए प्रत्येक कालानुक्रम में से किन्हीं दो घटनाओं को चुनिए और यह बताइये कि इनका क्या महत्त्व है?