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विषय
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लेखन कला और शहरी जीवन
*मेसोपोटामिया नाम यूनानी भाषा के दो शब्दों मेसोस (Mesos) यानी मध्य और पोटैमोस (Potamos) यानी नदी से मिलकर बना है। इसलिए ‘मेसोपोटामिया शब्द दज़ला फ़रात नदियों के बीच की ऊपजाऊ धरती को इंगित करता है।
शहरी जीवन की शुरुआत मेसोपोटामिया* में हुई थी। फ़रात (Euphrates) और दज़ला (Tigris) नदियों के बीच स्थित यह प्रदेश आजकल इराक गणराज्य का हिस्सा है। मेसोपोटामिया की सभ्यता अपनी संपन्नता, शहरी जीवन, विशाल एवं समृद्ध साहित्य, गणित और खगोलविद्या के लिए प्रसिद्ध है। मेसोपोटामिया की लेखन-प्रणाली और उसका साहित्य पूर्वी भूमध्यसागरीय प्रदेशों और उत्तरी सीरिया तथा तुर्की में 2000 ई.पू. के बाद फैला, जिसके फलस्वरूप उस समस्त क्षेत्र के राज्यों के बीच आपस में, यहाँ तक कि मिस्र के फ़राओ (Pharaoh) के साथ भी मेसोपोटामिया की भाषा और लिपि में लिखा-पढ़ी होने लगी। यहाँ हम शहरी जीवन और लेखन के बीच के संबंधों की खोज करने का प्रयत्न करेंगे और फिर यह जानना चाहेंगे कि लेखन की सतत परंपरा से क्या-क्या प्रतिफल प्राप्त हुए।
अभिलिखित इतिहास के आरंभिक काल में, इस प्रदेश को मुख्यतः इसके शहरीकृत दक्षिणी भाग को (नीचे विवरण देखें) सुमेर (Sumer) और अक्कद (Akkad) कहा जाता था। 2000 ई.पू. के बाद जब बेबीलोन एक महत्त्वपूर्ण शहर बन गया तब दक्षिणी क्षेत्र को बेबीलोनिया कहा जाने लगा। लगभग 1100 ई.पू. से, जब असीरियाइयों ने उत्तर में अपना राज्य स्थापित कर लिया, तब उस क्षेत्र को असीरिया (Assyria) कहा जाने लगा। उस प्रदेश की प्रथम ज्ञात भाषा सुमेरियन यानी सुमेरी थी। धीरे-धीरे 2400 ई.पू. के आसपास जब अक्कदी भाषी लोग यहाँ आ गए तब अक्कदी ने सुमेरी भाषा का स्थान ले लिया। अक्कदी भाषा सिकंदर के समय (336-323 ई.पू.) तक कुछ क्षेत्रीय परिवर्तनों के साथ फलती-फूलती रही। 1400 ई.पू. से धीरे-धीरे अरामाइक भाषा का भी प्रवेश शुरू हुआ। यह भाषा हिब्रू से मिलती-जुलती थी और 1000 ई.पू. के बाद व्यापक रूप से बोली जाने लगी थी। यह आज भी इराक के कुछ भागों में बोली जाती है।
मेसोपोटामिया में पुरातत्त्वीय खोजों की शुरुआत 1840 के दशक में हुई। वहाँ एक या दो स्थलों पर (जैसे उरुक और मारी में, जिन पर आगे चर्चा करेंगे) उत्खनन कार्य कई दशकों तक चलता रहा। (भारत में किसी भी स्थल पर इतने लंबे अरसे तक खुदाई की कोई परियोजना नहीं चली।) इन खुदाइयों के फलस्वरूप आज हम इतिहास के स्रोतों के रूप में सैकड़ों की संख्या में इमारतों, मूर्तियों, आभूषणों, कब्रों, औज़ारों और मुद्राओं का ही नहीं बल्कि हज़ारों की संख्या में लिखित दस्तावेज़ों का भी अध्ययन कर सकते हैं।
यूरोपवासियों के लिए मेसोपोटामिया इसलिए महत्त्वपूर्ण था क्योंकि बाईबल के प्रथम भाग ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में इसका उल्लेख कई संदर्भो में किया गया है। उदाहरण के लिए, ओल्ड टेस्टामेंट की ‘बुक अॉफ जेनेसिस’ (Book of Genesis) में ‘शिमार’ (shimar) का उल्लेख है जिसका तात्पर्य अर्थात् सुमेर ईंटों से बने शहरों की भूमि से है। यूरोप के यात्री और विद्वज्जन मेसोपोटामिया को एक तरह से अपने पूर्वजों की भूमि मानते थे, और जब इस क्षेत्र में पुरातत्त्वीय खोज की शुरुआत हुई तो ओल्ड टेस्टामेंट के अक्षरशः सत्य को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया।
उन्नीसवीं सदी के मध्य से, मेसोपोटामिया के अतीत को खोजे जाने के उत्साह में कभी कोई कमी नहीं आई। सन 1873 में एक ब्रिटिश सामाचार-पत्र ने ब्रिटिश म्यूज़ियम द्वारा प्रारंभ किए गए खोज अभियान का खर्च उठाया जिसके अंतर्गत मेसोपोटामिया में एक एेसी पट्टिका (Tablet) की खोज की जानी थी जिसपर बाईबल में उल्लिखित जलप्लावन (Flood) की कहानी का अंकन था।
1960 के दशक तक यह समझा जाता था कि ओल्ड टेस्टामेंट की कहानियाँ अक्षरशः सही नहीं हैं लेकिन ये इतिहास में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के अतीत को अपने ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। धीरे-धीरे, पुरातात्त्विक तकनीकें अधिकाधिक उन्नत और परिष्कृत होती गईं। इसके अलावा भिन्न-भिन्न पहलुओं पर ध्यान दिया जाने लगा, यहाँ तक कि आम लोगों के जीवन की भी परिकल्पना की जाने लगी। बाईबल की कहानियों की अक्षरशः सच्चाई को प्रमाणित करने का कार्य गौण हो गया। आगे के अनुभागों में हम जिन बातों पर चर्चा करेंगे उनमें से अधिकांश इन परवर्ती अध्ययनों पर आधारित हैं।
बाईबल के अनुसार यह जलप्लावन पृथ्वी पर संपूर्ण जीवन को नष्ट करने वाला था। किंतु परमेश्वर ने जलप्लावन के बाद भी जीवन को पृथ्वी पर सुरक्षित रखने के लिए नोआ (Naoh) नाम के एक मनुष्य को चुना। नोआ ने एक बहुत विशाल नाव बनायी और उसमें सभी जीव-जंतुओं का एक-एक जोड़ा रख लिया और जब जलप्लावन हुआ तो बाकी सब कुछ नष्ट हो गया पर नाव में रखे सभी जोड़े सुरक्षित बच गए। एेसी ही एक कहानी मेसोपोटामिया के परंपरागत साहित्य में भी मिलती है; इस कहानी के मुख्य पात्र को ‘ज़िउसूद्र’ (Ziusudra) या ‘उतनापिष्टिम’ (Utnapishtim) कहा जाता था।
क्रियाकलाप 1
जलप्लावन के बारे में अनेक समाजों में अपनी-अपनी पुराण-कथाएँ प्रचलित हैं। ये कुछ एेसे तरीके हैं जो इतिहास में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की यादों को अमिट रखते हुए अभिव्यक्त करते हैं। इनके बारे में कुछ और जानकारी का पता लगाएँ और यह बताएँ कि जलप्लावन से पहले और उसके बाद का जनजीवन कैसा रहा होगा।
मेसोपोटामिया और उसका भूगोल
इराक भौगोलिक विवधता का देश है। इसके पूर्वोत्तर भाग में हरे-भरे, ऊँचे-नीचे मैदान हैं जो धीरे-धीरे वृक्षाच्छादित पर्वत- शृंखला के रूप में फैलते गए हैं। साथ ही यहाँ स्वच्छ झरने तथा जंगली फूल हैं। यहाँ अच्छी फ़सल के लिए पर्याप्त वर्षा हो जाती है। यहाँ 7000 से 6000 ई.पू. के बीच खेती शुरू हो गई थी। उत्तर में ऊँची भूमि है जहाँ ‘स्टेपी’-घास के मैदान हैं, यहाँ पशुपालन खेती की तुलना में आजीविका का अधिक अच्छा साधन है। सर्दियों की वर्षा के बाद, भेड़-बकरियाँ यहाँ उगने वाली छोटी-छोटी झाड़ियों और घास से अपना भरण-पोषण करती हैं। पूर्व में दज़ला की सहायक नदियाँ ईरान के पहाड़ी प्रदेशों में जाने के लिए परिवहन का अच्छा साधन हैं। दक्षिणी भाग एक रेगिस्तान है और यही वह स्थान है जहाँ सबसे पहले नगरों और लेखन-प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ (नीचे देखिए)। इन रेगिस्तानों में शहरों के लिए भरण-पोषण का साधन बन सकने की क्षमता थी। क्योंकि फ़रात और दज़ला नाम की नदियाँ उत्तरी पहाड़ों से निकलकर अपने साथ उपजाऊ बारीक मिट्टी लाती रही हैं। जब इन नदियों में बाढ़ आती है अथवा जब इनके पानी को सिंचाई के लिए खेतों में ले जाया जाता है तब यह उपजाऊ मिट्टी वहाँ जमा हो जाती है।
मानचित्र 2: मेसोपोटामिया– पर्वत, स्टेपी, रेगिस्तान, दक्षिण का सिंचित क्षेत्र।
फ़रात नदी रेगिस्तान में प्रवेश करने के बाद कई धाराओं में बँटकर बहने लगती है। कभी-कभी इन धाराओं में बाढ़ आ जाती है और पुराने जमाने में ये धाराएँ सिंचाई की नहरों का काम देती थीं। इनसे आवश्यकता पड़ने पर गेहूँ, जौ और मटर या मसूर के खेतों की सिंचाई की जाती थी। रोम साम्राज्य (विषय 3) सहित सभी पुरानी व्यवस्थाओं में दक्षिणी मेसोपोटामिया की खेती सबसे ज़्यादा उपज देने वाली हुआ करती थी। हालांकि वहाँ फ़सल उपजाने के लिए आवश्यक वर्षा की कुछ कमी रहती थी।
खेती के अलावा भेड़-बकरियाँ स्टेपी घास के मैदानों, पूर्वोत्तरी मैदानों और पहाड़ों के ढालों पर पाली जाती थीं (ये उपजाऊ स्थान बाढ़ की नदियों से काफी ऊँचाई पर स्थित थे), जिनसे भारी मात्रा में मांस, दूध और ऊन आदि वस्तुएँ मिलती थीं। इसके अलावा, नदियों में मछलियों की कोई कमी नहीं थी और गर्मियों में खजूर के पेड़ खूब फल (पिंड खजूर) देते थे। लेकिन हमें यह सोचने की गलती नहीं करनी चाहिए कि शहरों का विकास केवल ग्रामीण समृद्धि के बल पर ही हुआ था। इस विकास के अन्य कारकों के विषय में हम बारी-बारी से चर्चा करेंगे, लेकिन पहले हमें शहरी जीवन के बारे में स्पष्ट जानकारी लेनी चाहिए।
शहरीकरण का महत्त्व
शहर और नगर बड़ी संख्या में लोगों के रहने के ही स्थान नहीं होते थे। जब किसी अर्थव्यवस्था में खाद्य उत्पादन के अतिरिक्त अन्य आर्थिक गतिविधियाँ विकसित होने लगती है तब किसी एक स्थान पर जनसंख्या का घनत्व बढ़ जाता है। इसके फलस्वरूप कस्बे बसने लगते हैं। एेसी परिस्थिति में लोगों का कस्बों में इकट्ठे रहना उनके लिए फायदेमंद सिद्ध होता है। विशेषतः इसलिए क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्थाओं में खाद्य उत्पादन के अलावा व्यापार, उत्पादन और तरह-तरह की सेवाओं की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नगर के लोग आत्मनिर्भर नहीं रहते और उन्हें नगर या गाँव के अन्य लोगों द्वारा उत्पन्न वस्तुओं या दी जाने वाली सेवाओं के लिए उन पर आश्रित होना पड़ता है। उनमें आपस में बराबर लेन-देन होता रहता है। उदाहरण के लिए, एक पत्थर की मुद्रा बनाने वाले को पत्थर उकेरने के लिए काँसे के औज़ारों की जरूरत पड़ती है; वह स्वयं एेसे औज़ार नहीं बना सकता और वह यह भी नहीं जानता कि मुद्राओं के लिए आवश्यक रंगीन पत्थर वह कहाँ से प्राप्त करे। उसकी विशेषज्ञता तो सिर्फ नक्काशी यानी पत्थर उकेरने तक ही सीमित होती है, वह व्यापार करना नहीं जानता। काँसे के औज़ार बनाने वाला भी धातु-ताँबा या राँगा (टिन) लाने के लिए खुद बाहर नहीं जाता। साथ ही, उसे ईंधन के लिए हरदम लकड़ी के कोयले की ज़रूरत रहती है। इस प्रकार श्रम-विभाजन (Division of Labour) शहरी-जीवन की विशेषता है।
इसके अलावा, शहरी अर्थव्यवस्था में एक सामाजिक संगठन का होना भी जरूरी है। शहरी विनिर्माताओं के लिए ईंधन, धातु, विभिन्न प्रकार के पत्थर, लकड़ी आदि जरूरी चीज़ें भिन्न-भिन्न जगहों से आती हैं जिनके लिए संगठित व्यापार और भंडारण की भी आवश्यकता होती है। शहरों में अनाज और अन्य खाद्य-पदार्थ गाँवों से आते हैं और उनके संग्रह तथा वितरण के लिए व्यवस्था करनी होती है। इसके अलावा और भी अनेक प्रकार के क्रियाकलापों में तालमेल बैठाना पड़ता हैः मुद्रा काटने वालों को केवल पत्थर ही नहीं, उन्हें तराशने के लिए औज़ार और बर्तन भी चाहिए। जाहिर है कि एेसी प्रणाली में कुछ लोग आदेश देते हैं और दूसरे उनका पालन करते हैं। इसके अलावा, शहरी अर्थव्यवस्था को अपना हिसाब-किताब लिखित रूप में रखना होता है।
वार्का शीर्ष
3000 ई.पू. उरुक नगर में स्त्री का यह सिर एक सफ़ेद संगमरमर को तराशकर बनाया गया था। इसकी आँखों और भौंहों में क्रमशः नीले लाजवर्द (Lapis lazuli) तथा सफ़ेद सीपी और काले डामर (Bitumen) की जड़ाई की गई होगी। सिर के ऊपर एक खाँचा बना हुआ है जो शायद गहना पहनने के लिए बनाया गया था। यह मूर्तिकला का एक विश्व-प्रसिद्ध नमूना है, इसके मुख, ठोड़ी और गालों की सुकोमल-सुंदर बनावट के लिए इसकी प्रशंसा की जाती है। यह एक एेसे कठोर पत्थर में तराशा गया है जिसे काफी अधिक दूरी से लाना पड़ा होगा।
पत्थर लाने से लेकर इस मूर्ति के निर्माण में और किन विशेषज्ञों का योगदान रहा होगा। उनकी सूची बनाइए।
क्रियाकलाप 2
क्या शहरी जीवन धातुओं के इस्तेमाल के बिना संभव होता? इस विषय पर चर्चा कीजिए।
शहरों में माल की आवाजाही
मेसोपोटामिया के खाद्य-संसाधन चाहे कितने भी समृद्ध रहे हों, उसके यहाँ खनिज़-संसाधनों का अभाव था। दक्षिण के अधिकांश भागों में औज़ार, मोहरें (मुद्राएँ) और आभूषण बनाने के लिए पत्थरों की कमी थी। इराकी खजूर और पोपलार के पेड़ों की लकड़ी, गाड़ियाँ, गाड़ियों के पहिए या नावें बनाने के लिए कोई खास अच्छी नहीं थी; और औज़ार, पात्र, या गहने बनाने के लिए कोई धातु वहाँ उपलब्ध नहीं थी। इसलिए हमारे विचार से प्राचीन काल के मेसोपोटामियाई लोग संभवतः लकड़ी, ताँबा, राँगा, चाँदी, सोना, सीपी और विभिन्न प्रकार के पत्थरों को तुर्की और ईरान अथवा खाड़ी-पार के देशों से मंगाते थे जिसके लिए वे अपना कपड़ा और कृषि-जन्य उत्पाद काफी मात्रा में उन्हें निर्यात करते थे। इन देशों के पास खनिज संसाधनों की कोई कमी नहीं थी, मगर वहाँ खेती करने की बहुत कम गुंजाइश थी। इन वस्तुओं का नियमित रूप से आदान-प्रदान तभी संभव होता जबकि इसके लिए कोई सामाजिक संगठन हो जो विदेशी अभियानों और विनिमयों को निर्देशित करने में सक्षम हो। दक्षिणी मेसोपोटामिया के लोगों ने एेसे संगठन स्थापित करने की शुरुआत की।
शिल्प, व्यापार और सेवाओं के अलावा, कुशल परिवहन व्यवस्था भी शहरी विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। भारवाही पशुओं की पीठ पर रखकर या बैलगाड़ियों में डालकर शहरों में अनाज या काठ कोयला लाना-ले जाना बहुत कठिन होता है क्योंकि उसमें बहुत ज़्यादा समय लगता है और पशुओं के चारे आदि पर भी काफी खर्च आता है। शहरी अर्थव्यवस्था इसका बोझ उठाने के लिए सक्षम नहीं होती। इसलिए परिवहन का सबसे सस्ता तरीका सर्वत्र जलमार्ग ही होता है। अनाज के बोरों से लदी हुई नावें या बजरे, नदी की धारा अथवा हवा के वेग से चलते हैं, जिसमें कोई खर्चा नहीं लगता, जबकि जानवरों से माल की ढुलाई की जाए तो उन्हें चारा खिलाना पड़ता है। पुराने मेसोपोटामिया की नहरें और प्राकृतिक जलधाराएँ छोटी-बड़ी बस्तियों के बीच माल के परिवहन का अच्छा मार्ग थीं। और आगे इसी अध्याय में मारी नगर का जो विवरण दिया गया है उसे पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि फ़रात नदी उन दिनों व्यापार के लिए ‘विश्व-मार्ग’ के रूप में कितनी अधिक महत्त्वपूर्ण थी।
प्रत्येक पट्टिका की ऊँचाई 3.5 से.मी. या उससे कम है। इन पट्टिकाओं पर बने संकेत-चित्र (बैल मछली, अनाज और नाव) है।
लेखन कला का विकास
सभी समाजों के पास अपनी एक भाषा होती है जिसमें उच्चरित ध्वनियाँ अपना अर्थ प्रकट करती हैं। इसे मौखिक या शाब्दिक भावाभिव्यक्ति कहते हैं। लिखना, मौखिक भावाभिव्यक्ति से उतना अलग नहीं है जितना हम अकसर समझ बैठते हैं। जब लेखन या लिपि के बारे में बात की जाती है तो उसका अर्थ है उच्चरित ध्वनियाँ, जो दृश्य संकेतों या चिह्नाें के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं।
मेसोपोटामिया में जो पहली पट्टिकाएँ (Tablet) पाई गई हैं वे लगभग 3200 ई.पू. की हैं। उनमें चित्र जैसे चिह्न और संख्याएँ दी गई हैं। वहाँ बैलों, मछलियों और रोटियों आदि की लगभग 5000 सूचियाँ मिली हैं, जो वहाँ के दक्षिणी शहर उरुक के मंदिरों में आने वाली और वहाँ से बाहर जाने वाली चीज़ों की होंगी। स्पष्टतः, लेखन कार्य तभी शुरू हुआ जब समाज को अपने लेन-देन का स्थायी हिसाब रखने की ज़रूरत पड़ी क्योंकि शहरी जीवन में लेन-देन अलग-अलग समय पर होते थे, उन्हें करने वाले भी कई लोग होते थे और सौदा भी कई प्रकार के माल के बारे में होता था।
मेसोपोटामिया के लोग मिट्टी की पट्टिकाओं पर लिखा करते थे। लिपिक चिकनी मिट्टी को गीला करता था और फिर उसको गूंध कर और थापकर एक एेसे आकार की पट्टी का रूप दे देता था जिसे वह आसानी से अपने एक हाथ में पकड़ सके। वह सावधानीपूर्वक उसकी सतहों को
एक चिकनी मिट्टी की पट्टिका जो दोनों ओर कीलाक्षरों में लिखी हुई है। यह एक गणितीय अभ्यास है। पट्टिका के अग्रभाग में सबसे ऊपर एक त्रिभुज और उसके आर-पार कुछ रेखाएँ अंकित हैं। आप देखेंगे कि अक्षर मिट्टी में दबाकर अंकित किए गए हैं।
क्यूनीफ़ार्म* (कीलाकार) लातिनी शब्द क्यूनियस जिसका अर्थ ‘खूँटी’ और फ़ोर्मा जिसका अर्थ ‘आकार’ है, से बना है।
चिकना बना लेता था फिर सरकंडे की तीली की तीखी नोक से वह उसकी नम चिकनी सतह पर कीलाकार चिह्न (cuneiform*) बना देता था। जब ये पट्टिकाएँ धूप में सूख जाती थीं तो पक्की हो जाती थीं और वे मिट्टी के बर्तनों जैसी ही मज़बूत हो जाती थीं। जब उन पर लिखा हुआ कोई हिसाब, जैसे धातु के टुकड़े सौंपने का हिसाब असंगत या गैर-ज़रूरी हो जाता तो उस पट्टिका को फेंक दिया जाता था। एेसी पट्टी जब एक बार सूख जाती थी तो उस पर कोई नया चिह्न या अक्षर नहीं लिखा जा सकता था। इस प्रकार प्रत्येक सौदे के लिए चाहे वह कितना ही छोटा हो, एक अलग पट्टिका की जरूरत होती थी। इसीलिए मेसोपोटामिया के खुदाई स्थलों पर सैकड़ों पट्टिकाएँ मिली हैं। और इस स्रोत-संपदा के कारण ही आज हम मेसोपोटामिया के बारे में इतना कुछ जानते हैं।
लगभग 2600 ई.पू. के आसपास वर्ण कीलाकार हो गए और भाषा सुमेरियन थी। अब लेखन का इस्तेमाल हिसाब-किताब रखने के लिए ही नहीं, बल्कि शब्द-कोश बनाने, भूमि के हस्तांतरण को कानूनी मान्यता प्रदान करने, राजाओं के कार्यों का वर्णन करने और कानून में उन परिवर्तनों को उद्घोषित करने के लिए किया जाने लगा जो देश की आम जनता के लिए बनाए जाते थे। मेसोपोटामिया की सबसे पुरानी ज्ञात भाषा सुमेरियन का स्थान, 2400 ई.पू. के बाद, धीरे-धीरे अक्कदी भाषा ने ले लिया। अक्कदी भाषा में कीलाकार लेखन का रिवाज ईसवी सन् की पहली शताब्दी तक अर्थात् 2000 से अधिक वर्षों तक चलता रहा।
लेखन प्रणाली
जिस ध्वनि के लिए कीलाक्षर या कीलाकार चिह्न का प्रयोग किया जाता था वह एक अकेला व्यंजन या स्वर नहीं होता था (जैसे अंग्रेजी वर्णमाला में m या a) लेकिन अक्षर (Syllables) होते थे (जैसे अंग्रेजी में -put-, या -la- या -in- )। इस प्रकार, मेसोपोटामिया के लिपिक को सैकड़ों चिह्न सीखने पड़ते थे और उसे गीली पट्टी पर उसके सूखने से पहले ही लिखना होता था। लेखन कार्य के लिए बड़ी कुशलता की आवश्यकता होती थी, इसलिए लिखने का काम अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता था। इस प्रकार, किसी भाषा-विशेष की ध्वनियों को एक दृश्य रूप में प्रस्तुत करना एक महान बौद्धिक उपलब्धि माना जाता था।
साक्षरता
मेसोपोटामिया के बहुत कम लोग पढ़-लिख सकते थे। न केवल प्रतीकों या चिह्नों की संख्या सैकड़ों में थी, बल्कि ये कहीं अधिक पेचीदा थे (पृष्ठ 33 पर दिए गए चित्र को देखिए।) अगर राजा स्वयं पढ़ सकता था तो वह यह चाहता था कि प्रशस्तिपूर्ण अभिलेखों में उन तथ्यों का उल्लेख अवश्य किया जाए। अधिकतर लिखावट बोलने के तरीके को दर्शाती थी।
एक अधिकारी द्वारा राजा को लिखा गया पत्र उसे पढ़कर सुनाया जाता था, इसलिए उसकी शुरुआत इस तरह की जाती थीः
"मेरे ‘अमुक’ मालिक को..... उनका ‘अमुक’ सेवक निवेदन करता है.... मुझे सौंपे गए काम को मैंने पूरा कर दिया है.....।"
सृष्टि के बारे में लिखे गए एक लंबे पौराणिक काव्य के अंत में यह लिखा गया हैः
"इन काव्य पंक्तियों को सदा याद रखा जाए और बड़े-बूढ़े लोग इन्हें छोटों को पढ़ाएँ;
बुद्धिमान और विद्वान लोग इन पर चर्चा करें;
पिता इन्हें अपने पुत्रों के लिए बार-बार दोहराएँ;
(यहाँ तक कि) ग्वालों के कान भी इन पंक्तियों को सुनने के लिए सदा खुले रहें।"
लेखन का प्रयोग
शहरी जीवन, व्यापार और लेखन कला के बीच के संबंधों को उरुक के एक प्राचीन शासक एनमर्कर (Enmerkar) के बारे में लिखे गए एक सुमेरियन महाकाव्य में स्पष्ट किया गया है। मेसोपोटामिया की परंपरागत कथाओं के अनुसार, उरुक एक अत्यंत सुंदर शहर था जिसे अक्सर केवल ‘शहर’ कहकर ही पुकारा जाता था।
सुमेर के व्यापार की पहली घटना को एनमर्कर के साथ जोड़ा जाता है। उस महाकाव्य में कहा गया है कि उन दिनों व्यापार क्या होता है, यह कोई नहीं जानता था। एनमर्कर अपने शहर के एक सुंदर मंदिर को सजाने के लिए लाजवर्द और अन्य बहुमूल्य रत्न तथा धातुएँ मंगाना चाहता था। इस काम के लिए उसने अपना एक दूत अरट्टा (Aratta) नाम के एक सुदूर देश के शासक के पास भेजा। "दूत ने राजा के आदेश का पालन किया। रात में वह चाँद-तारों की रोशनी और उनसे सूचित दिशा के अनुसार और दिन में सूरज के बताए मार्ग पर आगे बढ़ता गया। वह रास्ते में आने वाले ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों को लाँघने के लिए ऊपर चढ़ता और उतरता रहा। जब वह पहाड़ पर था तो पहाड़ की तलहटी में रहने वाले ‘सूसा’ (Susa) नगर के लोगों ने उसे छोटे चूहों* की तरह नमस्कार किया। उसने पाँच पर्वतमालाएँ, छः पर्वतमालाएँ और फिर सात पर्वतमालाएँ पार की ......।"
दूत अरट्टा के मुखिया से लाजवर्द या चाँदी नहीं ला पाया और उसे बारम्बार लंबी यात्राओं के उपरान्त खाली हाथ ही लौटना पड़ा। इसके बावजूद कि वह अरट्टा के मुखिया से चाँदी प्राप्त करने के लिए उसको उरुक के राजा की ओर से तरह-तरह की धमकियाँ और आश्वासन देता रहा। अंत में दूत इतना चकरा गया कि अपनी बात को सही तरह से व्यक्त ही नहीं कर पाया और उसने एनमर्कर के संदेशों को घालमेल कर दिया। तब, "राजा एनमर्कर ने अपने हाथ से चिकनी मिट्टी की पट्टिका बनाई और उस पर शब्द लिख दिए। उन दिनों, मिट्टी पर शब्द लिखने का रिवाज़ नहीं था।"
जब लिखी हुई पट्टिका दूत ने अरट्टा के शासक के हाथों में दी, "तो उसने उसकी जाँच की। उच्चरित शब्द कील* यानी कीलाकार शब्द थे। उसे देखते ही उसकी त्योरियाँ चढ़ गईं। उसने पट्टिका पर नज़र गड़ाए रखी।"
इस घटना को शाब्दिक रूप से सत्य नहीं माना जाना चाहिए; लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मेसोपोटामिया की विचारधारा के अनुसार सर्वप्रथम राजा ने ही व्यापार और लेखन की व्यवस्था की थी। यह काव्य हमें यह भी बताता है कि लेखन कार्य सूचना इकट्ठी करने और दूर-दूर भेजने का साधन तो था ही, साथ ही उससे मेसोपोटामिया की शहरी संस्कृति की उत्कृष्टता की भी झलक मिलती है।
दक्षिणी मेसोपोटामिया का शहरीकरण–मंदिर और राजा
5000 ई.पू. से दक्षिणी मेसोपोटामिया में बस्तियों का विकास होने लगा था। इन बस्तियों में से कुछ ने प्राचीन शहरों का रूप ले लिया। ये शहर कई तरह के थे। पहले वे जो मंदिरों के चारों ओर विकसित हुए; दूसरे जो व्यापार के केंद्रों के रूप में विकसित हुए; और शेष शाही शहर थे। इनमें से पहली दो श्रेणियों के शहरों पर यहाँ चर्चा की जाएगी।
बाहर से आकर बसने वाले लोगों ने (उनके मूल स्थान का पता नहीं) अपने गाँवों में कुछ चुने हुए स्थानों या मंदिरों को बनाना या उनका पुनर्निर्माण करना शुरू किया। सबसे पहला ज्ञात मंदिर एक छोटा-सा देवालय था जो कच्ची ईंटों का बना हुआ था। मंदिर विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं के निवास स्थान थे, जैसे उर जो चंद्र देवता था और इन्नाना जो प्रेम व युद्ध की देवी थी। ये मंदिर ईंटों से बनाए जाते थे और समय के साथ बड़े होते गए। क्योंकि उनके खुले आँगनों के चारों ओर कई कमरे बने होते थे। कुछ प्रारंभिक मंदिर साधारण घरों से अलग किस्म के नहीं होते थे– क्योंकि मंदिर भी किसी देवता का घर ही होता था। लेकिन मंदिरों की बाहरी दीवारें कुुछ खास अंतरालों के बाद भीतर और बाहर की ओर मुड़ी हुई होती थीं; यही मंदिरों की विशेषता थी। साधारण घरों की दीवारें एेसी नहीं होती थीं।
दक्षिणी मेसोपोटामिया का सबसे प्राचीन ज्ञात मंदिर- लगभग 5000 ई.पू. (नक्शा)।
देवता पूजा का केंद्र-बिंदु होता था। लोग देवी-देवता के लिए अन्न, दही, मछली लाते थे (पुराने जमाने के कुछ मंदिरों के फ़र्शों पर मछली की हड्डियों की परतें जमी हुई मिली हैं।) आराध्य देव सैद्धांतिक रूप से खेतों, मत्स्य क्षेत्रों और स्थानीय लोगों के पशुधन का स्वामी माना जाता था। समय आने पर उपज को उत्पादित वस्तुओं में बदलने की प्रक्रिया (जैसे तेल निकालना, अनाज पीसना, कातना और ऊनी कपड़ों को बुनना आदि) यहीं की जाती थी। घर-परिवार से ऊपर के स्तर के व्यवस्थापक, व्यापारियों के नियोक्ता, अन्न, हल जोतने वाले पशुओं, रोटी, जौ की शराब, मछली आदि के आवंटन और वितरण के लिखित अभिलेखों के पालक के रूप में मंदिर ने धीरे-धीरे अपने क्रियाकलाप बढ़ा लिए और मुख्य शहरी संस्था का रूप ले लिया। लेकिन अन्य दूसरे कारक भी इस व्यवस्था में विद्यमान थे।
ज़मीन में प्राकृतिक उपजाऊपन होने के बावजूद कृषि कई बार संकटों से घिर जाती थी। फ़रात नदी की प्राकृतिक धाराओं में किसी वर्ष तो बहुत ज़्यादा पानी बह आता था और फ़सलों को डुबा देता था और कभी-कभी ये धाराएँ अपना रास्ता बदल लेती थीं, जिससे खेत सूखे रह जाते थे। जैसा कि पुरातत्त्वीय अभिलेखों से पता चलता है, मेसोपोटामिया के इतिहास में गाँव समय-समय पर पुनः स्थापित किए जाते रहे हैं। इन प्राकृतिक विपदाओं के अलावा, कई बार मानव-निर्मित समस्याएँ भी आ खड़ी होती थीं। जो लोग इन धाराआें के ऊपरी इलाकों में रहते थे, वे अपने पास की जलधारा से इतना ज़्यादा पानी अपने खेतों में ले लेते थे कि धारा के नीचे की ओर बसे हुए गाँवों को पानी ही नहीं मिलता था। ये लोग अपने हिस्से की सरणी में से गाद (मिट्टी) नहीं निकालते थे, जिससे बहाव रुक जाता था और नीचे वालों को पानी नहीं मिलता था। इसलिए मेसोपोटामिया के तत्कालीन देहातों में ज़मीन और पानी के लिए बार-बार झगड़े हुआ करते थे।
लगभग 3000 ई.पू. में निर्मित एक मंदिर जिसका खुला हुआ आँगन और बाहरी-भीतरी मुख भाग (उत्खनित रूप में) चित्र में दिखाया गया है।
हम पारस्परिक हितों को सुदृढ़ करने वाले विकास के एक एेसे दौर की कल्पना कर सकते हैं, जिसमें मुखिया लोगों ने ग्रामीणों को अपने पास बसने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे कि वे आवश्यकता पड़ने पर तुरंत अपनी सेना इकट्ठी कर सकें। इसके अलावा, लोग एक-दूसरे के आस-पास रहने से स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस कर सकें। उरुक, जो उन दिनों सबसे पुराने मंदिर-नगरों में से एक था, से हमें सशस्त्र वीरों और उनसे हताहत हुए शत्रुओं के चित्र मिलते हैं; और सावधानीपूर्वक किए गए पुरातत्त्वीय सर्वेक्षणों से पता चला है कि 3000 ई.पू. के आसपास जब उरुक नगर का 250 हैक्टेयर भूमि में विस्तार हुआ तो उसके कारण दर्जनों छोटे-छोटे गाँव उजड़ गए और बड़ी संख्या में आबादी का विस्थापन हुआ। उसका यह विस्तार शताब्दियों बाद फले-फूले मोहनजोदड़ो नगर से दो गुना था। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि उरुक नगर की रक्षा के लिए उसके चारों ओर काफी पहले ही एक सुदृढ़ प्राचीर बना दी गई थी। उरुक नगर 4200 ई.पू. से 400 ईसवी तक बराबर अपने अस्तित्व में बना रहा, और उस दौरान 2800 ई.पू. के आसपास वह बढ़कर 400 हैक्टेयर में फैल गया।
ऊपर–एक काले पत्थर पर उत्कीर्णित शिलापट्ट (स्टेल)* पर दाढ़ी वाले व्यक्ति का दोहरा चित्र दिया गया है। उसके बालों और सिर पर बंधी हुई पट्टी, कमर पट्टी और लंबे अंगरखे के निचले हिस्से (स्कर्ट) को देखिए। नीचे के दृश्य में उसे एक शेर पर अपने बड़े धनुष-बाण से आक्रमण करते हुए दिखाया गया है। ऊपर के दृश्य में, यह वीर उस उग्र शेर को आखिर अपने भाले से मार गिराता है। (लगभग 3200 ई.पू.)
युद्धबंदियों ओर स्थानीय लोगों को अनिवार्य रूप से मंदिर का अथवा प्रत्यक्ष रूप से शासक का काम करना पड़ता था। कृषिकर भले ही न देना पड़े, पर काम करना अनिवार्य था। जिन्हें काम पर लगाया जाता था उन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता था। सैकड़ों एेसी राशन-सूचियाँ मिली हैं जिनमें काम करने वाले लोगों के नामों के आगे उन्हें दिए जाने वाले अनाज, कपड़े और तेल आदि की मात्रा लिखी गई है। एक अनुमान के अनुसार, इन मंदिरों में से एक मंदिर को बनाने के लिए 1500 आदमियों ने पाँच साल तक प्रतिदिन 10 घंटे काम किया था।
शासक के हुक्म से आम लोग पत्थर खोदने, धातु-खनिज लाने, मिट्टी से ईंटें तैयार करने और मंदिर में लगाने, और सुदूर देशों में जाकर मंदिर के लिए उपयुक्त सामान लाने के कामों में जुटे रहते थे। इसकी वजह से 3000 ई.पू. के आसपास उरुक में खूब तकनीकी प्रगति भी हुई। अनेक प्रकार के शिल्पों के लिए काँसे के औज़ारों का प्रयोग होता था। वास्तुविदों ने ईंटों के स्तंभों को बनाना सीख लिया था क्योंकि उन दिनों बड़े-बड़े कमरों की छतों के बोझ को सँभालने के लिए शहतीर बनाने हेतु उपयुक्त लकड़ी नहीं मिलती थी।
सैकड़ों लोगों को चिकनी मिट्टी के शंकु (कोन) बनाने और पकाने के काम में लगाया जाता था। इन शंकुओं को भिन्न-भिन्न रंगों में रँगकर मंदिरों की दीवारों में लगाया जाता था जिससे वे दीवारें विभिन्न रंगों से सुशोभित हो जाती थीं। मूर्तिकला के क्षेत्र में भी उच्चकोटि की सफलता प्राप्त की गई; इस कला के सुंदर नमूने आसानी से उपलब्ध होने वाली चिकनी मिट्टी की अपेक्षा अधिकतर आयातित पत्थरों से तैयार किए जाते थे। तभी प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी एक युगांतरकारी परिवर्तन आया जो शहरी अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत उपयुक्त साबित हुआ और वह थाः कुम्हार के चाक का निर्माण। आगे चलकर इस चाक से कुम्हार की कार्यशाला में एक साथ बड़े पैमाने पर दर्जनों एक जैसे बर्तन आसानी से बनाए जाने लगे।
*स्टेल, पत्थर के एेसे शिलापट्ट होते हैं जिन पर अभिलेख उत्कीर्ण किये जाते हैं।
एक बेलनाकार मुद्रा की छाप, लगभग 3200 ई.पू.। इस छाप में अंकित दाढ़ी वाले सशस्त्र खड़े व्यक्ति और ऊपर काले पत्थर पर अंकित वीर का उत्कीर्णित शिलापट्ट या स्टेल*, दोनों में पोशाक और केश-शैली एक जैसी है। चित्र में तीन युद्धबंदी दिखाए गए हैं जिनके हाथ बंधे हुए हैं और चौथा व्यक्ति विजयी योद्धा से हाथ फैलाकर दया की भीख माँग रहा है।
मोहर : एक शहरी शिल्प-कृति
भारत में, प्राचीन काल में पत्थर की मोहरें होती थीं जिनपर चिह्न अंकित किए गए होते थे। लेकिन मेसोपोटामिया में, पहली सहस्राब्दी ई.पू. के अंत तक पत्थर की बेलनाकर मोहरें, जो बीच में आर-पार छिदी होती थीं, एक तीली लगाकर गीली मिट्टी के ऊपर घुमाई जाती थीं और इस प्रकार उनसे लगातार चित्र बनता जाता था। वे अत्यंत कुशल कारीगराें द्वारा उकेरी जाती थीं और कभी-कभी उनमें एेसे लेख होते थे; जैसे- मालिक का नाम, उसके इष्टदेव का नाम और उसकी अपनी पदीय स्थिति, आदि। किसी कपड़े की गठरी या बर्तन के मुँह को चिकनी मिट्टी से लीप-पोतकर उसपर वह मोहर घुमाई जाती थी जिससे उसमें अंकित लिखावट मिट्टी की सतह पर छप जाती थी; इससे उस गठरी या बर्तन में रखी वस्तुओं को मोहर लगाकर सुरक्षित किया जा सकता था। जब इस मोहर को मिट्टी की बनी पट्टिका पर लिखे पत्र पर घुमाया जाता था तो वह मोहर उस पत्र की प्रामाणिकता की प्रतीक बन जाती थी। इस प्रकार मुद्रा सार्वजनिक जीवन में नगरवासी की भूमिका को दर्शाती थी।
पाँच पुरानी बेलनाकार मोहरें और उनके छापे ।
प्रत्येक की छाप का विवरण दें। क्या उन पर कीलाकार लिपि अंकित है?
शहरी जीवन
कानूनी दस्तावेज़ों (विवाह, उत्तराधिकार आदि के मामलों से संबंधित) से पता चलता है कि मेसोपोटामिया के समाज में एकल परिवार* (Nuclear family) को ही आदर्श माना जाता था हालांकि एक शादीशुदा बेटा और उसका परिवार अक्सर अपने माता-पिता के साथ ही रहा करते थे। पिता परिवार का मुखिया होता था। हमें विवाह की प्रक्रिया या विधि के बारे में कुछ जानकारी मिली है। विवाह करने की इच्छा के बारे में घोषणा की जाती थी और वधू के माता-पिता उसके विवाह के लिए अपनी सहमति देते थे। उसके बाद वर पक्ष के लोग वधू को कुछ उपहार देते थे। जब विवाह की रस्म पूरी हो जाती थी, तब दोनों पक्षों की ओर से उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता था और वे एकसाथ बैठकर भोजन करते थे और फिर मंदिर में जाकर भेंट चढ़ाते थे। जब नववधू को उसकी सास लेने आती थी, तब वधू को उसके पिता द्वारा उसकी दाय का हिस्सा दे दिया जाता था। पिता का घर, पशुधन, खेत आदि उसके पुत्रों को मिलते थे।
आइए, अब उर नगर का अवलोकन करें। यह उन नगरों में से एक था जहाँ सबसे पहले खुदाई की गई थी। उर, मेसोपोटामिया का एक एेसा नगर था जिसके साधारण घरों की खुदाई 1930 के दशक में सुव्यवस्थित ढंग से की गई। उसमें टेढ़ी-मेढ़ी व संकरी गलियाँ पाई गईं जिससे यह पता चलता है कि पहिए वाली गाड़ियाँ वहाँ के अनेक घरों तक नहीं पहुँच सकती थीं। अनाज के बोरे और ईंधन के गट्ठे संभवतः गधे पर लादकर घर तक लाए जाते थे। पतली व घुमावदार गलियों तथा घरों के भू-खंडों का एक जैसा आकार न होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि नगर-नियोजन की पद्धति का अभाव था। वहाँ गलियों के किनारे जल-निकासी के लिए उस तरह की नालियाँ नहीं थीं, जैसी कि उसके समकालीन नगर मोहनजोदड़ो में पाई गई हैं। बल्कि जल-निकासी की नालियाँ और मिट्टी की नलिकाएँ उर नगर के घरों के भीतरी आँगन में पाई गई हैं, जिससे यह समझा जाता है कि घरों की छतों का ढलान भीतर की ओर होता था और वर्षा का पानी निकास नालियों के माध्यम से भीतरी आँगनों में बने हुए हौज़ों* में ले जाया जाता था। शायद यह इसलिए किया गया था कि एक साथ तेज़ वर्षा आने पर घर के बाहर की कच्ची गलियाँ बुरी तरह कीचड़ से न भर जाएँ।
फिर भी एेसा प्रतीत होता है कि लोग अपने घर का सारा कूड़ा-कचरा बुहारकर गलियों में डाल देते थे, जहाँ वह आने-जाने वाले लोगों के पैरों के नीचे आता रहता था। इस प्रकार बाहर कूड़ा डालते रहने से गलियों की सतहें ऊँची उठ जाती थीं जिसके कारण कुछ समय बाद घरों की दहलीज़ों को भी ऊँचा उठाना पड़ता था ताकि वर्षा के बाद कीचड़ बह कर घरों के भीतर न आ सके। कमरों के अंदर रोशनी खिड़कियों से नहीं, बल्कि उन दरवाज़ों से होकर आती थी जो आँगन में खुला करते थे। इससे घरों के परिवारों में गोपनीयता (privacy) भी बनी रहती थी। घरों के बारे में कई तरह के अंधविश्वास प्रचलित थे, जिनके विषय में उर में पाई गई शकुन-अपशकुन संबंधी बातें पट्टिकाओं पर लिखी मिली हैं; जैसे- घर की देहली ऊँची उठी हुई हो तो वह धन-दौलत लाती है; सामने का दरवाज़ा अगर किसी दूसरे के घर की ओर न खुले तो वह सौभाग्य प्रदान करता है; लेकिन अगर घर का लकड़ी का मुख्य दरवाज़ा (भीतर की ओर न खुलकर) बाहर की ओर खुले तो पत्नी अपने पति के लिए यंत्रणा का कारण बनेगी।
उर में नगरवासियों के लिए एक कब्रिस्तान था, जिसमें शासकाें तथा जन-साधारण की समाधियाँ पाई गईं; लेकिन कुछ लोग साधारण घरों के फ़र्शो के नीचे भी दफ़नाए हुए पाए गए थे।
*एकल परिवार में एक पुरुष, उसकी पत्नी और बच्चे शामिल होते हैं।
*हौज़ ज़मीन में एक एेसा ढका हुआ गड्ढा होता है जिसमें पानी और मल जाता है।
उर नगर का एक रिहायशी इलाका, लगभग 2000 ई.पू.। क्या आप चित्र में टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के अलावा, दो या तीन बंद गलियाँ भी खोज सकते हैं?
2000 ई.पू. के बाद मारी नगर शाही राजधानी के रूप में खूब फला-फूला। आपने देखा होगा (मानचित्र 2 में) कि मारी नगर दक्षिण के उस मैदानी भाग में स्थित नहीं हैं जहाँ खेती की पैदावार भरपूर होती थी, बल्कि वह फ़रात नदी की उर्ध्वधारा पर स्थित है। मानचित्र 3 में विभिन्न रंगों का प्रयोग करके यह दर्शाया गया है कि इस ऊपरी क्षेत्र में खेती और पशुपालन साथ-साथ चलते थे। मारी राज्य में वैसे तो किसान और पशुचारक दोनाें ही तरह के लोग होते थे, लेकिन उस प्रदेश का अधिकांश भाग भेड़-बकरी चराने के लिए ही काम में लिया जाता था।
पशुचारकों को जब अनाज, धातु के औज़ारों आदि की जरूरत पड़ती थी तब वे अपने पशुओं तथा उनके पनीर, चमड़ा तथा मांस आदि के बदले ये चीज़ें प्राप्त करते थे। बाड़े में रखे जाने वाले पशुओं के गोबर से बनी खाद भी किसानों के लिए बहुत उपयोगी होती थी। फिर भी, किसानों तथा गड़रियों के बीच कई बार झगड़े हो जाते थे। गड़रिये कई बार अपनी भेड़-बकरियों को पानी पिलाने के लिए बोए हुए खेतों से गुज़ार कर ले जाते थे जिससे किसान की फसल को नुकसान पहुँचता था। ये गड़रिये खानाबदोश होते थे और कई बार किसानों के गाँवों पर हमला बोलकर उनका इकट्ठा किया माल लूट लेते थे। दूसरी तरफ, कई बार एेसा भी होता था कि बस्तियों में रहने वाले लोग भी इन पशुचारकों का रास्ता रोक देते थे और उन्हें अपने पशुओं को नदी-नहर तक नहीं ले जाने देते थे।
मेसोपोटामिया के इतिहास पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि वहाँ के कृषि से समृद्ध हुए मुख्य भूमि प्रदेश में यायावर समुदायों के झुंड के झुंड पश्चिमी मरुस्थल से आते रहते थे। ये गड़रिये गर्मियों में अपने साथ इस उपजाऊ क्षेत्र के बोए हुए खेतों में अपनी भेड़-बकरियाँ ले आते थे। ये समूह गड़रिये, फसल काटने वाले मज़दूरों अथवा भाड़े के सैनिकों के रूप में आते थे और समृद्ध होकर यहीं बस जाते थे। उनमें से कुछ ने तो अपना खुद का शासन स्थापित करने की भी शक्ति प्राप्त कर ली थी। ये खानाबदोश लोग अक्कदी, एमोराइट, असीरियाई और आर्मीनियन जाति के थे। (आगे विषय 5 में इन पशुचारक समाजों के शासकों के बारे में कुछ अधिक जानकारी दी गई है।) मारी के राजा एमोराइट समुदाय के थे। उनकी पोशाक वहाँ के मूल निवासियों से भिन्न होती थी और उन्होंने मेसोपोटामिया के देवी-देवताओं का आदर ही नहीं किया बल्कि स्टेपी क्षेत्र के देवता डैगन (Dagan) के लिए मारी नगर में एक मंदिर भी बनवाया। इस प्रकार, मेसोपोटामिया का समाज और वहाँ की संस्कृति भिन्न-भिन्न समुदायों के लोगों और संस्कृतियों के लिए खुली थी और संभवतः विभिन्न जातियों तथा समुदायों के लोगों के परस्पर मिश्रण से ही वहाँ की सभ्यता में जीवन-शक्ति उत्पन्न हो गई।
एक योद्धा अपने हाथों में एक लंबा भाला और एक खपच्ची की ढाल पकड़े हुए है। एमोराइट लोगों की एक खास किस्म की पोशाक देखिए जो (पृष्ठ 38 पर दिखाई गई) सुमेरियन योद्धा की पोशाक से भिन्न होती थी। यह चित्र एक सीपी पर उकेरा गया था, लगभग2600 ई.पू.।
क्रियाकलाप 3 चित्र में प्रवेश द्वार से भीतरी आँगन तक के मार्ग का पता लगाइए। आप क्या सोचते हैं कि भंडारगृह में क्या रखा जाता होगा? रसोईघर की पहचान कैसे की जा सकती है?
ज़िमरीलिम का मारी स्थित राजमहल(1810-1760ई.पू.)
मारी का विशाल राजमहल वहाँ के शाही परिवार का निवास स्थान तो था ही, साथ ही वह प्रशासन और उत्पादन, विशेष रूप से कीमती धातुओं के आभूषणों के निर्माण का मुख्य केंद्र भी था। अपने समय में वह इतना अधिक प्रसिद्ध था कि उसे देखने के लिए ही उत्तरी सीरिया का एक छोटा राजा आया; वह अपने साथ मारी के राजा ज़िमरीलिम के नाम उसके एक अन्य राजा का परिचय पत्र लेकर वहाँ आया था। दैनिक सूचियों से पता चलता है कि राजा के भोजन की मेज पर हर रोज भारी मात्रा में खाद्य पदार्थ पेश किए जाते थे–आटा, रोटी, मांस, मछली, फल, मदिरा और वीयर। वह संभवतः अपने अन्य साथियों के साथ सफ़ेद पत्थर जड़े आँगन (106) में बैठकर बाकायदा भोजन करता था। नक्शा देखने से आपको पता चलेगा कि राजमहल का सिर्फ़ एक ही प्रवेश द्वार था जो उत्तर की ओर बना हुआ था। उसके विशाल, खुले प्राँगण (जैसे 131) सुंदर पत्थरों से जड़े हुए थे। राजा विदेशी अतिथियों और अपने प्रमुख लोगों से कमरा-132 में मिलता था जहाँ के भित्ति-चित्रों को देखकर आगंतुक लोग हतप्रभ रह जाते थे। राजमहल 2.4 हैक्टेयर के क्षेत्र में स्थित एक अत्यंत विशाल भवन था जिसमें 260 कक्ष बने हुए थे।
मारी नगर एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल पर स्थित था जहाँ से होकर लकड़ी, ताँबा, राँगा, तेल, मदिरा और अन्य कई किस्मों का माल नावों के जरिए फ़रात नदी के रास्ते दक्षिण और तुर्की, सीरिया और लेबनान के ऊँचे इलाकों के बीच लाया-ले जाया जाता था। मारी नगर व्यापार के बल पर समृद्ध हुए शहरी केंद्र का एक अच्छा उदाहरण है। दक्षिणी नगरों को घिसाई-पिसाई के पत्थर, चक्कियाँ, लकड़ी और शराब तथा तेल के पीपे ले जाने वाले जलपोत मारी में रुका करते थे, मारी के अधिकारी जलपोत पर जाया करते थे, उस पर लदे हुए सामान की जाँच करते थे (एक नदी में 300 मदिरा के पीपे रखे जा सकते थे।) और उसे आगे बढ़ने की इजाज़त देने से पहले उसमें लदे माल की कीमत का लगभग 10 प्रतिशत प्रभार वसूल करते थे। जौ एक विशेष किस्म की नौकाओं में आता था। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कुछ पट्टिकाओं में साइप्रस के द्वीप ‘अलाशिया’ (Alashiya) से आने वाले ताँबे का उल्लेख मिला है, यह द्वीप उन दिनों ताँबे तथा टिन के व्यापार के लिए मशहूर था। परंतु यहाँ राँगे का भी व्यापार होता था। क्योंकि काँसा, औज़ार और हथियार बनाने के लिए एक मुख्य औद्योगिक सामग्री था, इसलिए इसके व्यापार का बहुत महत्त्व था। इस प्रकार, यद्यपि मारी राज्य सैनिक दृष्टि से उतना सबल नहीं था, परंतु व्यापार और समृद्धि के मामले में वह अद्वितीय था।
मेसोपोटामिया के नगरों की खुदाई
आज, मेसोपोटामिया के पुरास्थलों के उत्खनक पहले के उत्खनकों की तुलना में बहुत अधिक कुशल हैं, उनके कार्य की यथार्थता एवं परिशुद्धता और अभिलेखन का स्तर बहुत ऊँचा है। इसलिए अब उस तरह के बड़े-बड़े इलाकों की खुदाई नहीं की जाती जैसी उर नगर में की गई थी। इसके अलावा, बहुत कम पुरातत्त्वविदों के पास ही इतनी बड़ी धनराशि होती है कि वे एक साथ खनकों के बड़े दल को खुदाई के काम पर लगा सकेें। इस प्रकार जानकारी प्राप्त करने का तरीका बदल गया है।इस संबंध में ‘अबू सलाबिख’ (Abu Salabikh) नाम के एक छोटे कस्बे का उदाहरण लें। यह कस्बा 2500 ई.पू. में लगभग 10 हैक्टेयर ज़मीन पर बसा हुआ था और इसकी आबादी 10,000 से कम थी। इसकी दीवारों की रूपरेखा की ऊपरी सतहों को सर्वप्रथम खरोेंचकर निकाला गया। इस प्रक्रिया में टीले की ऊपरी सतह को किसी बेलचे, फावड़े या अन्य औज़ार के धारदार चौड़े सिरे से कुछ मिलीमीटर तक खरोंचा जाता है। नीचे की मिट्टी तब भी कुछ नम पाई गई और पुरातत्त्वविदों ने भिन्न-भिन्न रंगों, उसकी बनावट तथा ईंटों की दीवारों की स्थिति तथा गड्ढों और अन्य विशेषताओं का पता लगा लिया। जिन थोड़े-से घरों की खोज की गई उन्हें खोद कर निकाला गया। पुरातत्त्वविदों ने पौधों और पशुओं के अवशेषों को प्राप्त करने के लिए टनों मिट्टी की छानबीन की। इसके चलते उन्होंने पौधों और पशुओं की अनेक प्रजातियों का पता लगाया। उन्हें बड़ी मात्रा में जली हुई मछलियों की हड्डियाँ भी मिलीं जो बुहार कर बाहर गलियों में डाल दी गई थीं। वहाँ गोबर के उपलों के जले हुए ईंधन में से निकले हुए पौधों के बीज और रेशे मिले थे; इससे इस स्थान पर रसोईघर होने का पता चला। घरों में रहने के कमरे कौन-से थे, यह जानने के संकेत बहुत कम मिले हैं। वहाँ की गलियों में सूअरों के छोटे बच्चों के दाँत पाए गए हैं, जिन्हें देखकर पुरातत्त्वविदों ने यह निष्कर्ष निकाला कि अन्य किसी भी मेसोपोटामियाई नगर की तरह यहाँ भी सूअर छुट्टे घूमा करते थे। वस्तुतः एक घर में तो आँगन के नीचे, जहाँ किसी मृतक को दफनाया गया था, सूअर की कुछ हड्डियों के अवशेष मिले हैं जिससे प्रतीत होता है कि व्यक्ति के मरणोपरांत जीवन में खाने के लिए सूअर का कुछ मांस रखा गया था। पुरातत्त्वविदों ने कमरों के फ़र्श का बारीकी से अध्ययन यह जानने के लिए किया कि घर के कौन-से कमरों पर पोपलार (एक लंबा पतला पेड़) के लट्ठों, खजूर की पत्तियों और घासफूस की छतें थीं और कौन-से कमरे बिना किसी छत के खुले आकाश के नीचे थे।
मेसोपोटामिया संस्कृति में शहरों का महत्त्व
मेसोपोटामिया वासी शहरी जीवन को महत्त्व देते थे जहाँ अनेक समुदायों और संस्कृतियों के लोग साथ-साथ रहा करते थे। युद्ध में शहरों के नष्ट हो जाने के बाद वे अपने काव्यों के जरिए उन्हें याद किया करते थे।
मेसोपोटामिया के लोगों को अपने नगरों पर कितना अधिक गर्व था इस बात का सबसे अधिक मर्मस्पर्शी वर्णन हमें गिल्गेमिश (Gilgamesh) महाकाव्य के अंत में मिलता है। यह काव्य 12 पट्टिकाओं पर लिखा गया था। एेसा कहा जाता है कि गिल्गेमिश ने एनमर्कर के कुछ समय बाद उरुक नगर पर शासन किया था। वह एक महान योद्धा था जिसने दूर-दूर तक के प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया था, लेकिन उसे उस समय गहरा झटका लगा जब उसका वीर मित्र अचानक मर गया। इससे दुःखी होकर वह अमरत्व की खोज में निकल पड़ा। उसने सागरों-महासागरों को पार किया, और दुनियाभर का चक्कर लगाया। मगर उसे अपने साहसिक कार्य में सफलता नहीं मिली। हारकर गिल्गेमिश अपने नगर उरुक लौट आया। वहाँ जब वह अपने आपको सांत्वना देने के लिए शहर की चहारदीवारी के पास आगे-पीछे चहलकदमी कर रहा था तभी उसकी नज़र उन पकी ईंटों पर पड़ी जिनसे उसकी नींव डाली गई थी। वह भावविभोर हो उठा। इस प्रकार उरुक नगर की विशाल प्राचीर पर आकर उस महाकाव्य की लंबी वीरतापूर्ण और साहस भरी कथा का अंत हो गया। यहाँ गिल्गेमिश, एक जनजातीय योद्धा की तरह यह नहीं कहता कि उसका अंत निश्चित है पर उसके पुत्र तो जीवित रहेंगे और इस नगर का आनंद लेंगे। इस प्रकार उसे अपने नगर में ही सांत्वना मिलती है जिसे उसकी प्यारी प्रजा ने बनाया था।
लेखन कला की देन
हालांकि मर्मस्पर्शी कहानियों-किस्सों और तरह-तरह के वर्णन को तो मौखिक रूप से एक-दूसरों को सुनाते हुए जीवित रखा जा सकता है, पर विज्ञान को जीवित रखने के लिए लिखित दस्तावेज़ों और किताबों की ज़रूरत पड़ती है ताकि विद्वानों की आगे आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें पढ़ सकें। संभवतः मेसोपोटामिया की दुनिया को सबसे बड़ी देन है उसकी कालगणना और गणित की विद्वत्तापूर्ण परंपरा है।
1800 ई.पू. के आसपास की कुछ पट्टिकाएँ मिली हैं जिनमें गुणा और भाग की तालिकाएँ, वर्ग तथा वर्गमूल और चक्रवृद्धि ब्याज की सारणियाँ दी गई हैं। उनमें 2 का वर्गमूल यह दिया गया हैः
1 + 24/60 + 51/602 + 10/603
अगर आप इसे हल करें तो इसका उत्तर 1.41421296 होगा जो इसके सही उत्तर 1.41421356 से थोड़ा-सा ही भिन्न है। उस समय के विद्यार्थियों को इस प्रकार के सवाल हल करने होते थेः अगर एक खेत का क्षेत्रफल इतना-इतना है और वह एक अंगुल गहरे पानी में डूबा हुआ है तो संपूर्ण पानी का आयतन बताओ।
पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा की परिक्रमा के अनुसार एक पूरे वर्ष का 12 महीनों में विभाजन, एक महीने का 4 हफ्ताें में विभाजन, एक दिन का 24 घंटाें में और एक घंटे का 60 मिनट में विभाजन-यह सब जो आज हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का अचेतन हिस्सा है, मेसोपोटामियावासियों से ही हमें मिला है। समय का उपर्युक्त विभाजन सिकंदर के उत्तराधिकारियों ने अपनाया, वहाँ से वह रोम और फिर इस्लाम की दुनिया को मिला और फिर मध्ययुगीन यूरोप में पहुँचा (यह सब कैसे हुआ विषय 7 में देखिए)।
जब कभी सूर्य और चंद्र ग्रहण होते थे तो वर्ष, मास और दिन के अनुसार उनके घटित होने का हिसाब रखा जाता था। इसी प्रकार रात को आकाश में तारों और तारामंडल की स्थिति पर बराबर नज़र रखते हुए उनका हिसाब रखा जाता था।
मेसोपोटामियावासियों की इन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक भी उपलब्धि संभव नहीं होती यदि लेखन की कला और विद्यालयों जैसी उन संस्थाओं का अभाव होता जहाँ विद्यार्थीगण पुरानी लिखित पट्टिकाओं को पढ़ते और उनकी नकल करते थे और जहाँ कुछ छात्रों को साधारण प्रशासन का हिसाब-किताब रखने वाले लेखाकार न बनाकर, एेसा प्रतिभासंपन्न व्यक्ति बनाया जाता था जो अपने पूर्वजों की बौद्धिक उपलब्धियों को आगे बढ़ा सकें।
यह सोचना गलत होगा कि मेसोपोटामिया के शहरी लोग आधुनिक तौर-तरीकों से परिचित नहीं थे। अंत में, हमें उन दो प्रकार के प्रारंभिक प्रयत्नों का अवलोकन करना चाहिए जिनके द्वारा अतीत के प्रलेखों एवं परंपराओं को खोजने और सुरक्षित रखने की कोशिश की गई थी।
एक पुराकालीन पुस्तकालय
लौहयुग में, उत्तरी प्रदेशों के असीरियाई लोगों ने एक साम्राज्य की स्थापना की जो 720 से 610 ई.पू. तक अपनी उन्नति के शिखर पर रहा। यह साम्राज्य मिस्र तक फैला हुआ था। राज्य की अर्थव्यवस्था उन दिनों लूटमार की हो गई थी क्योंकि अधीनस्थ प्रजाजनों को दबाकर उनसे खाद्य-सामग्री, पशु, धातु तथा शिल्प की वस्तुओं के रूप मेें बेगार और नज़राना जबरदस्ती लिया जाता था।
बड़े-बड़े असीरियाई शासक जो बाहर से आकर बसे थे, दक्षिणी क्षेत्र बेबीलोनिया को उच्च संस्कृति का केंद्र मानते थे। उनमें से आखिरी राजा असुरबनिपाल (Assurbanipal, 668-627 ई.पू.) ने उत्तर में स्थित अपनी राजधानी निनवै (Nineveh) में एक पुस्तकालय की स्थापना की। उसने इतिहास, महाकाव्य, शकुन साहित्य, ज्योतिष विद्या, स्तुतियों और कविताओं की पट्टिकाओं को इकट्ठा करने का बहुत प्रयत्न किया और उसमें सफल रहा। उसने अपने लिपिकों को दक्षिण में पुरानी पट्टिकाओं का पता लगाने के लिए भेजा। क्योंकि दक्षिण में लिपिकों को विद्यालयोें में पढ़ना-लिखना सिखाया जाता था, जहाँ उन्हें दर्जनों की संख्या में पट्टिकाओं की नकलें तैयार करनी होती थीं। बेबीलोनिया में एेसे भी नगर थे जो पट्टिकाओं के विशाल संग्रह तैयार किए जाने और प्राप्त करने के लिए मशहूर थे। हालांकि लगभग 1800 ई.पू. के बाद सुमेरियन भाषा बोली जानी बंद हो गई थी, लेकिन विद्यालयों में वह शब्दावलियों, संकेत-सूचियाें, द्विभाषी (सुमेरी और अक्कदी) पट्टिकाओं आदि के माध्यम से अब भी पढ़ाई जाती थी। इसलिए 650 ई.पू. में भी, 2000 ई.पू. तक पुरानी कीलाकार अक्षरों में लिखी पट्टिकाएँ पढ़ी और समझी जा सकती थीं– और असुरबनिपाल के आदमी यह जानते थे कि पुरानी पट्टिकाओं और उनकी प्रतिकृतियों को कहाँ खोजा और प्राप्त किया जा सकता है।
गिल्गेमिश के महाकाव्य जैसी महत्त्वपूर्ण पट्टिकाओं की प्रतियाँ तैयार की गईं। प्रतियाँ तैयार करने वाले उनमें अपना नाम और तिथि लिखते थे। कुछ पट्टिकाओं के अंत में असुरबनिपाल का उल्लेख भी मिलता हैः
"मैं असुरबनिपाल, ब्रह्मांड का सम्राट, असीरिया का शासक जिसे देवताओं ने विशाल बुद्धि प्रदान की है, जिसने विद्वानों के पांडित्य के गूढ़ ज्ञान केा प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। मैंने देवताओं के बुद्धि-विवेक को पट्टिकाओं पर लिखा है..... और मैंने पट्टिकाओं की जाँच की और उन्हें संगृहीत किया। मैंने उन्हें निनवै स्थित अपने इष्टदेव नाबू के मंदिर के पुस्तकालय में भविष्य में उपयोग के लिए रख दिया -- अपने जीवन के लिए, अपनी आत्मा के कल्याण के लिए और अपने शाही सिंहासन की नींव को मजबूत बनाए रखने के लिए...।"
इससे भी महत्त्वपूर्ण काम था इन पट्टिकाओं की सूची तैयार करने का। इसके लिए एक टोकरी-भर पट्टिकाओं को मिट्टी के लेबल से इस प्रकार अंकित किया गयाः "असंख्य पट्टिकाएँ भूत-प्रेत निवारण विषय पर, ‘अमुक’ व्यक्ति द्वारा लिखी गईं।" असुरबनिपाल के पुस्तकालय में कुल मिलाकर 1000 मूलग्रंथ थे और लगभग 30,000 पट्टिकाएँ थीं जिन्हें विषयानुसार वर्गीकृत किया गया था।
और, एक आरंभिक पुरातत्त्ववेता
दक्षिणी कछार के एक शूरवीर नैबोपोलास्सर (Nabopolassar) ने बेबीलोनिया को 625 ई.पू. में असीरियाई आधिपत्य से मुक्त कराया। उसके उत्तराधिकारियों ने अपने राज्यक्षेत्र का विस्तार किया और बेबीलोन में भवन-निर्माण की परियोजनाएँ पूरी कीं। उस समय से लेकर 539 ई.पू. में ईरान के एकेमेनिड लोगों (Achaemenids) द्वारा विजित होने के बाद और 331 ई.पू. में सिकंदर से पराजित होने तक बेबीलोन दुनिया का एक प्रमुख नगर बना रहा। इसका क्षेत्रफल 850 हैक्टेयर से अधिक था, इसकी चहारदीवारी तिहरी थी, इसमें बड़े-बड़े राजमहल और मंदिर मौजूद थे, एक ज़िगुरात (Ziggurat) यानी सीढ़ीदार मीनार थी और नगर के मुख्य अनुष्ठान केंद्र तक शोभायात्रा के लिए एक विस्तृत मार्ग बना हुआ था। इसके व्यापारिक घराने दूर-दूर तक अपना कारोबार करते थे और इसके गणितज्ञों तथा खगोलविदों ने अनेक नयी खोजें की थीं।
नैबोनिडस (Nabonidus) स्वतंत्र बेबीलोन का अंतिम शासक था। उसने लिखा है कि उर के नगर-देवता ने उसे सपने में दर्शन दिए और उसे सुदूर दक्षिण के उस पुरातन नगर का कार्यभार सँभालने के लिए एक महिला पुरोहित (Priestess) को नियुक्त करने का आदेश दिया। उसने लिखा, "चूँकि बहुत लंबे समय से उच्च महिला पुरोहित का प्रतिष्ठान भुला दिया गया था, उसके विशिष्ट लक्षणों को कहीं नहीं बताया गया है, मैंने दिन-पर-दिन उसके बारे में सोचा.."
वह आगे कहता है कि उसे एक बहुत पुराने राजा (जिसका शासनकाल हम आज 1150 ई.पू. के आसपास मानते हैं) का पट्टलेख (Stele) मिला और उस पर उसने महिला पुरोहित की आकृति अंकित देखी। उसने उसके आभूषणों और वेशभूषा को ध्यानपूर्वक देखा। फिर उसने अपनी पुत्री को वैसी ही वेशभूषा से सुसज्जित कर महिला पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित किया।
एक अन्य अवसर पर, नैबोनिडस के आदमी उसके पास एक टूटी हुई मूर्ति लाए जिसपर अक्कद के राजा सारगोन (Sargon) का नाम खुदा था। (आज हम जानते हैं कि उस राजा ने 2370 ई.पू. के आसपास शासन किया था।) नैबोनिडस और निस्संदेह अनेक बुद्धिजीवियों ने भी प्राचीन काल के इस महान राजा के बारे में सुन रखा था। नैबोनिडस ने यह महसूस किया कि उसे उस मूर्ति की मरम्मत करानी चाहिए। वह लिखता है, "देवताओं के प्रति भक्ति और राजा के प्रति अपनी निष्ठा के कारण, मैंने कुशल शिल्पियों को बुलाया और उसका खंडित सिर बदलवा दिया।"
क्रियाकलाप 4
आप एेसा क्यों सोचते हैं कि असुरबनिपाल और नैबोनिडस ने मेसोपोटामिया की प्राचीन परंपराओं की कद्र की?
अभ्यास
संक्षेप में उत्तर दीजिए
1. आप यह कैसे कह सकते हैं कि प्राकृतिक उर्वरता तथा खाद्य उत्पादन के उच्च स्तर ही आरंभ में शहरीकरण के कारण थे?
2. आपके विचार से निम्नलिखित में से कौन-सी आवश्यक दशाएँ थीं जिनकी वजह से प्रारंभ में शहरीकरण हुआ था और निम्नलिखित में से कौन-कौन सी बातें शहरों के विकास के फलस्वरूप उत्पन्न हुईं?
(क) अत्यंत उत्पादक खेती, (ख) जल-परिवहन, (ग) धातु और पत्थर की कमी, (घ) श्रम विभाजन, (ड.) मुद्राओं का प्रयोग, (च) राजाओं की सैन्य-शक्ति जिसने श्रम को अनिवार्य बना दिया।
3. यह कहना क्यों सही होगा कि खानाबदोश पशुचारक निश्चित रूप से शहरी जीवन के लिए खतरा थे?
4. आप एेसा क्यों सोचते हैं कि पुराने मंदिर बहुत कुछ घर जैसे ही होंगे?
संक्षेप में निबंध लिखिए
5. शहरी जीवन शुरू होने के बाद कौन-कौन सी नयी संस्थाएँ अस्तित्व में आईं? आपके विचार से उनमें से कौन-सी संस्थाएँ राजा की पहल पर निर्भर थीं।
6. किन पुरानी कहानियों से हमें मेसोपोटामिया की सभ्यता की झलक मिलती है?