दो 

साम्राज्य 


तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

इस्लाम का उदय और विस्तार–लगभग 570-1200 ई.

यायावर साम्राज्य


3.1


साम्राज्य

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मेसोपोटामिया में साम्राज्य स्थापित होने के दो सहस्राब्दी बाद तक उस क्षेत्र तथा उसके पूर्व और पश्चिम में साम्राज्य निर्माण के विविध प्रयत्न होते रहे।

छठी शती ई. तक ईरानियों ने असीरिया के साम्राज्य के अधिकांश भाग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। स्थलमार्गों के साथ-साथ भूमध्यसागरीय तटवर्ती क्षेत्रों में व्यापारिक संबंधों का विकास हुआ।

इन परिवर्तनों के फलस्वरूप व्यापार में सुधार हुआ और इस वजह से पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र में यूनानी नगर तथा उनकी बस्तियों को लाभ हुआ। उन्हें काला सागर के उत्तर में रहने वाले यायावर लोगों के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संपर्क से भी बहुत फ़ायदा हुआ। यूनान में अधिकांश समय तक एथेंस और स्पार्टा के नगर-राज्य नागरिक जीवन के केंद्र बने रहे। चतुर्थ शती ई. के उत्तरार्ध में यूनानी राज्यों में मेसीडोन राज्य के राजा सिकंदर ने कई सैन्य अभियान किए और उत्तरी अफ़्रीका, पश्चिमी एशिया व ईरान तथा भारत में व्यास तक के क्षेत्र को जीत लिया। उसके सैनिकों ने और आगे पूर्व में जाने से मना कर दिया। सिकंदर का सैन्य दल पीछे मुड़ गया, यद्यपि कई यूनानी इस क्षेत्र में ही रह गए।

सिकंदर के नियंत्रण में इस पूरे क्षेत्र में यूनानियों और स्थानीय लोगों में आदर्शों और सांस्कृतिक परंपराओं का आदान-प्रदान हो रहा था। पूरे क्षेत्र का यूनानीकरण हो गया जिसे अंग्रेज़ी में हेलेनाइज़ेशन कहा जाता है क्योंकि यूनानियों को हेलेनीज़ कहते थे। यूनानी भाषा इस क्षेत्र की एक जानी-पहचानी भाषा बन गई। लेकिन सिकंदर के साम्राज्य की यह राजनीतिक एकता उसकी मृत्यु के तुरंत बाद विघटित हो गई। हालाँकि इसके तीन शताब्दी बाद तक यूनानी संस्कृति इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण बनी रही। इस क्षेत्र के इतिहास में यह काल प्रायः यूनानी काल के नाम से जाना जाता है। लेकिन यह मान्यता यूनानी विश्वासों व विचारों की तरह ही अन्य महत्त्वपूर्ण (संभवतः इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण) संस्कृतियों (मुख्य रूप से ईरान के पुराने साम्राज्य से संबंधित ईरानी संस्कृति) की महत्ता को अस्वीकार कर देती है।

इसके बाद के भावी इतिहास के महत्त्वपूर्ण पहलुओं के बारे में इस अनुभाग में पता चलेगा। सिकंदर के साम्राज्य के विघटन के फलस्वरूप हुई राजनीतिक कलह का लाभ उठाते हुए रोम के मध्य इतालवी नगर राज्य के छोटे किंतु सुसंगठित सैन्य बल ने दूसरी शती ई. से उत्तरी अफ़्रीका और पूर्वी भूमध्यसागर पर नियंत्रण कर लिया। उस समय रोम एक गणतंत्र था। यद्यपि वहाँ की सरकार निर्वाचन की एक जटिल व्यवस्था पर आधारित थी लेकिन राजनीतिक संस्थाएँ जन्म और धन-संपदा को कुछ महत्त्व देती थीं। यहाँ का समाज दासता से भी लाभान्वित था। रोम की सैन्य शक्ति ने एक समय सिकंदर के साम्राज्य का भाग रहे राज्यों के बीच व्यापार हेतु तंत्र स्थापित किया। प्रथम शती ई. के मध्य उच्च कुल में जन्मे सैन्य नायक जूलियस सीज़र के अधीन ‘रोम साम्राज्य’ वर्तमान ब्रिटेन और जर्मनी तक फैल गया।

लातिनी (जो रोम में बोली जाती थी) साम्राज्य की मुख्य भाषा थी। हालाँकि पूर्व में रहने वाले कई लोग यूनानी भाषा का ही प्रयोग करते रहे। रोम के लोगों में यूनानी संस्कृति के प्रति गहरा आदर-भाव था। प्रथम शती ई.पू. के अंतिम भाग में साम्राज्य के राजनैतिक ढाँचे में परिवर्तन हुए। चतुर्थ शती ई. में सम्राट कॉन्स्टैनटाइन के ईसाई बनने के बाद इस साम्राज्य का काफ़ी हद तक ईसाईकरण हो गया।

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कोरिंथ के यूनानी नगर के भग्नावशेष।

शासन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए चौथी शती ई. में रोम साम्राज्य को पूर्वी और पश्चिमी दो हिस्सों में बाँट दिया गया। लेकिन पश्चिम में सीमावर्ती क्षेत्रों (गोथ, विसीगोथ, वैंडल व अन्य) की जनजातियों तथा रोम के बीच स्थित व्यवस्थाएँ बिगड़ने लगीं। ये व्यवस्थाएँ व्यापार, सैन्य-भर्ती तथा बसने से जुड़ी थीं और जनजातियों ने रोम प्रशासन पर अपने आक्रमणों में वृद्धि कर दी। ये मतभेद बढ़ते गए और साम्राज्य के आंतरिक मतभेदों में जुड़ गए। फलतः पाँचवीं शती ई. आते-आते पश्चिम का यह साम्राज्य नष्ट हो गया। पूर्व के साम्राज्य की सीमा के अंतर्गत ही जनजातियों ने अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए। ईसाई चर्च से प्रोत्साहन पाकर नौवीं शती ई. में एेसे ही कुछ राज्यों को मिलाकर पवित्र रोमन साम्राज्य की स्थापना की गई। पवित्र रोमन साम्राज्य ने पुराने रोमन साम्राज्य के साथ निरंतरता का दावा किया।

सातवीं शती ई. और पंद्रहवीं शती ई. के बीच पूर्वी रोमन साम्राज्य (कुंस्तुनतुनिया केंद्रित) की अधिकांश भूमि पर अरब साम्राज्य ने अधिकार कर लिया। दमिश्क में केंद्रित इस अरब साम्राज्य को पैगम्बर मुहम्मद (जिन्होंने नवीं शती ई. में इस्लाम धर्म की स्थापना की) के अनुयायियों या इनके उत्तराधिकारियों (जिन्होंने आरंभ में बगदाद में शासन किया) द्वारा स्थापित किया गया था। इस इलाके की यूनानी व इस्लामी परंपराओं के बीच करीबी आदान-प्रदान था। इस क्षेत्र के व्यापारिक तंत्र और समृद्धि ने उत्तर के पशुचारी लोगों (विभिन्न तुर्क़ी जनजातियों) को आकर्षित किया। इन्होंने प्रायः इस क्षेत्र के शहरों पर आक्रमण किए और इन पर अपना नियंत्रण कर लिया। इस क्षेत्र पर आक्रमण का प्रयास करने वाले अंतिम लोगों में मंगोल थे। चंगेज़ ख़ान और उसके उत्तराधिकारियों के अधीन मंगोलों ने तेरहवीं शताब्दी में पश्चिम एशिया, यूरोप, मध्य एशिया और चीन में प्रवेश किया।

साम्राज्य बनाने और बनाए रखने के ये सारे प्रयास पूरे क्षेत्र में फैले हुए व्यापारिक तंत्र के संसाधन पर नियंत्रण की चाह से प्रेरित थे ताकि उन्हें उस क्षेत्र के भारत या चीन जैसे देशों से स्थापित संबंधों से फायदा हो सके। सभी साम्राज्यों ने व्यापार को स्थिरता प्रदान करने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था विकसित करने का प्रयास किया। उन्होंने विभिन्न तरीकों के सैन्य संगठन का भी प्रयास किया। किसी भी साम्राज्य की उपलब्धियों की महत्ता प्रायः उनके उत्तराधिकारियों द्वारा ग्रहण की जाती थी। कुछ समय बाद इस क्षेत्र में बोली और लिखी जाने वाली कई भाषाओं में चार भाषाएँ- फ़ारसी, यूनानी, लातिनी और अरबी महत्त्वपूर्ण हो गईं।

ये साम्राज्य बहुत स्थिर नहीं थे। इसकी एक वजह यह थी कि वे विभिन्न क्षेत्रों के संसाधनों को लेेकर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। एेसा इन साम्राज्यों और उत्तर के पशुचारी लोगों के संबंधों में आ गए संकट के कारण भी था। इन पशुचारी लोगों सेे इन साम्राज्यों को व्यापार में तो समर्थन मिलता ही था साथ ही उनकी सेनाओं और उत्पादों के लिए उन्हें श्रम भी इनसे मिलता था। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि सभी साम्राज्य नगर-केंद्रित नहीं थे। चंगेज़ ख़ान और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा शासित मंगोल साम्राज्य इस बात का अच्छा उदाहरण है कि पशुचारी लोगों द्वारा भी सफलतापूर्वक एक लंबे समय तक साम्राज्य को कायम रखा जा सकता है।

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दमिश्क की इस महान मस्जिद का निर्माण 714 में पूरा हुआ।

एेसे धर्म जो अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले विभिन्न नृजातीय उत्पत्ति के लोगों को आकर्षित कर सकते थे, विशाल साम्राज्य निर्माण की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थे। यह ईसाई धर्म (जो प्रथम शती ई. के आरंभिक काल में फ़िलिस्तीन में उदित हुआ) और इस्लाम धर्म (जो सातवीं शती ई. में उद्भूत हुआ) के विषय में भी सत्य था।


कालक्रम दो

(लगभग 100 ईसा पूर्व से 1300 ईसवी)

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इस कालक्रम के केंद्र बिंदु राज्य और साम्राज्य हैं। इनमें से कुछ, जैसे कि रोमन साम्राज्य, बहुत बड़े थे और तीन महाद्वीपों में फैले हुए थे। 
इस समय प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएँ विकसित हुईं और बौद्धिक गतिविधियों से जुड़ी संस्थाओं का उदय हुआ। पुस्तकें लिखी 
गईं और विचार महाद्वीपों के आर-पार फैलने लगे। कई एेसी वस्तुएँ जो आज हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं, इस काल में पहली बार प्रयोग में आईं। 

 3.23.33.4


विषय
3


तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

रोम साम्राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। इसके विशाल राज्य क्षेत्र में आज का अधिकांश यूरोप और उर्वर अर्द्धचंद्राकार क्षेत्र (थ्मतजपसम ब्तमेबमदज) यानी पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका का बहुत बड़ा हिस्सा शामिल था। इस अध्याय में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इस साम्राज्य का गठन कैसे हुआ_ किन-किन राजनीतिक ताकतों ने इसके भाग्य को बनाया- सँवारा और इस साम्राज्य के लोग किन-किन सामाजिक समूहों में विभाजित थे। आप देखेंगे कि यह साम्राज्य अनेक स्थानीय संस्कृतियों तथा भाषाओं के वैभव से संपन्न था। वहाँ स्त्रियों की कानूनी स्थिति काप़्ाफ़ी सुदृढ़ थी, वैसी स्थिति आज के अनेक देशों में भी देखने को नहीं मिलती है। लेकिन वहाँ की अर्थव्यवस्था बहुत कुछ दास-श्रम के बल पर चलती थी जिस वजह से जनता का अच्छा-खासा भाग स्वतंत्रता से वंचित रह जाता था। पाँचवीं शताब्दी और उसके बाद के समय से पश्चिम में साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया लेकिन अपने पूर्वी आधे भाग में अखंड और अत्यंत समृद्ध बना रहा। अगले अध्याय में आप खिलाफत के बारे में पढ़ेंगे। खिलाफत इसी समृद्धि की नींव पर स्थापित हुआ और उसने इसकी शहरी तथा धार्मिक परंपराओं को विरासत में प्राप्त किया।

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पैपाइरस पत्र

 
रोम के इतिहासकारों के पास स्रोत-सामग्री का विशाल भंडार है। इस संपूर्ण स्रोत-सामग्री को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः (क) पाठ्य सामग्री; (ख) प्रलेख या दस्तावेज़ और (ग) भौतिक अवशेष। पाठ्य स्रोतों में शामिल हैंः समकालीन व्यक्तियों द्वारा लिखा गया उस काल का इतिहास (जिसे ‘वर्ष-वृत्तांत’ (Annals) कहा जाता था क्योंकि ये वृत्तांत प्रतिवर्ष लिखे जाते थे), पत्र, व्याख्यान, प्रवचन, कानून, आदि। दस्तावेज़ी स्रोत मुख्य रूप से उत्कीर्ण अभिलेखों या पैपाइरस पेड़ के पत्तों आदि पर लिखी गई पांडुलिपियों के रूप में मिलते हैं। उत्कीर्ण अभिलेख आमतौर पर पत्थर की शिलाओं पर खोदे जाते थे, इसलिए वे नष्ट नहीं हुए और बहुत बड़ी मात्रा में यूनानी और लातिनी में पाए गए हैं। पैपाइरस एक सरकंडा जैसा पौधा था जो मिस्र में नील नदी के किनारे उगा करता था और उसी से लेखन सामग्री तैयार की जाती थी। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उसका व्यापक इस्तेमाल किया जाता था। हज़ारों की संख्या में संविदापत्र, लेख, संवादपत्र और सरकारी दस्तावेज़ आज भी ‘पैपाइरस’ पत्र पर लिखे हुए पाए गए हैं और पैपाइरोलोजिस्ट यानी पैपाइरस शास्त्री कहे जाने वाले विद्वानों द्वारा प्रकाशित किए गए हैं। भौतिक अवशेषों में अनेक प्रकार की चीज़ें शामिल हैं जो मुख्य रूप से पुरातत्त्वविदों को (खुदाई और क्षेत्र सर्वेक्षण आदि के जरिए) अपनी खोज में मिलती हैं; जैसे - इमारतें, स्मारक और अन्य प्रकार की संरचनाएँ, मिट्टी के बर्तन, सिक्के, पच्चीकारी का सामान, यहाँ तक कि संपूर्ण भू-दृश्य (जैसे, हवाई छायांकन द्वारा प्राप्त)। इनमें से प्रत्येक स्रोत हमें अतीत के बारे में एक प्रकार की ही जानकारी देते हैं। इन जानकारियों को मिलाकर देखना अत्यंत उपयोगी हो सकता है। लेकिन कितनी अच्छी तरह से इतिहासकार इन स्रोतों के तथ्यों में अंतर्संबंध बनाता है यह उसकी कुशलता पर निर्भर करता है।

ईसा मसीह के जन्म से लेकर सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में 630 के दशक तक की अवधि में अधिकांश यूरोप, उत्तरी अफ़्रीका और मध्य-पूर्व तक के विशाल क्षेत्र में दो सशक्त साम्राज्यों का शासन था। ये दो साम्राज्य रोम और ईरान के थे। रोम तथा ईरान के लोग आपस में प्रतिद्वंद्वी थे और अपने इतिहास के अधिकांश काल में वे आपस में लड़ते रहे। उनके साम्राज्य एक-दूसरे के बिलकुल पास थे, उन्हें भूमि की एक संकरी पट्टी जिसके किनारे फ़रात नदी बहा करती थी, अलग करती थी। इस अध्याय में हम रोम के साम्राज्य के बारे में पढ़ेंगे, मगर कहीं-कहीं प्रसंगवश रोम के प्रतिद्वंदी ईरान का भी उल्लेख करते रहेंगे।

3.5
मानचित्र 1: यूरोप और उत्तरी अफ्रीका।

यदि आप नीचे दिए गए मानचित्र पर नज़र डालें तो देखेंगे कि यूरोप और अफ्रीका के महाद्वीप एक समुद्र द्वारा एक-दूसरे को अलग किए हुए हैं जो पश्चिम में स्पेन से लेकर पूर्व में सीरिया तक फैला हुआ है। इस समुद्र को भूमध्यसागर कहा गया है और यह उन दिनों रोम साम्राज्य का हृदय था। रोम का भूमध्यसागर और उत्तर तथा दक्षिण की दोनों दिशाओं में सागर के आसपास स्थित सभी प्रदेशों पर प्रभुत्व था। उत्तर में साम्राज्य की सीमा का निर्धारण दो महान नदियों राइन और डैन्यूब से होता था और दक्षिणी सीमा सहारा नामक अति विस्तृत रेगिस्तान से बनती थी। इस प्रकार इस अत्यंत विस्तृत क्षेत्र में रोम साम्राज्य फैला हुआ था। दूसरी ओर, कैस्पियन सागर के दक्षिण से पूर्वी अरब तक का समूचा इलाका और कभी-कभी अफ़गानिस्तान के कुछ हिस्से भी ईरान के नियंत्रण में थे। इन दो महान शक्तियों ने दुनिया के उस अधिकांश भाग को आपस में बाँट रखा था जिसे चीनी लोग ता-चिन (बृहत्तर चीन या मोटे तौर पर पश्चिम) कहा करते थे।


साम्राज्य का आरंभिक काल

रोमन साम्राज्य को मोटे तौर पर दो चरणों में बाँटा जा सकता है, जिन्हें ‘पूर्ववर्ती’ और ‘परवर्ती’ चरण कह सकते हैं। इन दोनों चरणों के बीच तीसरी शताब्दी का समय आता है जो उन्हें दो एेतिहासिक भागों में विभाजित करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो तीसरी शताब्दी के मुख्य भाग तक की संपूर्ण अवधि को ‘पूर्ववर्ती साम्राज्य’ और उसके बाद की अवधि को ‘परवर्ती साम्राज्य’ कहा जा सकता है।

दो महाशक्तियों तथा उनसे संबंधित साम्राज्यों में एक बड़ा अंतर यह था कि रोमन साम्राज्य सांस्कृतिक दृष्टि से ईरान की तुलना में कहीं अधिक विविधतापूर्ण था। इस अवधि के दौरान पार्थियाई तथा बाद में ससानी राजवंशों ने ईरान पर शासन किया, जिन लोगों पर शासन हुआ उनमें अधिकतर ईरानी थे। इसके विपरीत, रोमन साम्राज्य एेसे क्षेत्रों तथा संस्कृतियों का एक मिलाजुला रूप था जो कि मुख्यतः सरकार की एक साझी प्रणाली द्वारा एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य में अनेक भाषाएँ बोली जाती थीं लेकिन प्रशासन के प्रयोजन हेतु लातिनी तथा यूनानी भाषाओं का ही प्रयोग होता था। पूर्वी भाग के उच्चतर वर्ग यूनानी भाषा और पश्चिम भाग के लोग लातिनी भाषा बोलते और लिखते थे और इन दोनों भाषाओं के बीच की सीमा रेखा भूमध्यसागर को चीरती हुई उस पार अफ़्रीकी प्रांत त्रिपोलितानिया (जो कि लातिनी-भाषी था) और सायरेनाएका (यूनानी भाषी) के बीच से जाती थी। जो लोग साम्राज्य में रहते थे वे सभी एकमात्र, शासक यानी सम्राट की ही प्रजा थे, चाहे वे कहीं भी रहते हों और कोई भी भाषा बोलते हों।

*इस साम्राज्य में *‘गणतंत्र’ (रिपब्लिक) एक एेसी शासन व्यवस्था थी जिसमें वास्तविक सत्ता ‘सैनेट’ नामक निकाय में निहित थी। सैनेट में धनवान परिवारों के एक छोटे से समूह का बोलबाला रहता था जिन्हें अभिजात कहा जा सकता है। व्यावहारिक तौर पर, गणतंत्र अभिजात वर्ग की सरकार का शासन ‘सैनेट’ नामक संस्था के माध्यम से चलाता था। गणतंत्र 509 ई.पू. से 27 ई.पू. तक चला लेकिन 27 ई.पू. में जूलियस सीज़र के दत्तक पुत्र तथा उत्तराधिकारी अॉक्टेवियन ने उसका तख्ता पलट दिया और सत्ता अपने हाथ में ले ली और अॉगस्टस नाम से रोम का सम्राट बन बैठा। सैनेट की सदस्यता जीवन-भर चलती थी और उसके लिए जन्म की अपेक्षा धन और पद-प्रतिष्ठा को अधिक महत्त्व दिया जाता था।

प्रथम सम्राट, अॉगस्टस ने 27 ई.पू. में जो राज्य स्थापित किया था उसे ‘प्रिंसिपेट’ कहा जाता था। यद्यपि अॉगस्टस एकछत्र शासक और सत्ता का वास्तविक स्रोत था तथापि इस कल्पना को जीवित रखा गया कि वह केवल एक ‘प्रमुख नागरिक’ (लातिनी भाषा में प्रिंसेप्स) था, निरंकुश शासक नहीं था। एेसा ‘सैनेट’ को सम्मान प्रदान करने के लिए किया गया था; सैनेट वह निकाय था जिसने उन दिनों में जब रोम एक ‘रिपब्लिक’ यानी गणतंत्र* था, सत्ता पर अपना नियंत्रण रखा था। रोम में सैनेट नामक संस्था का अस्तित्व कई शताब्दियों तक रहा था। वह एक एेसी संस्था थी जिसमें कुलीन एवं अभिजात वर्गों यानी मुख्यतः रोम के धनी परिवारों का प्रतिनिधित्व था। लेकिन आगे चलकर उसमें इतालवी मूल के ज़मींदारों को भी शामिल कर लिया गया था। रोम के इतिहास की अधिकांश पुस्तकें जो आज यूनानी तथा लातिनी में ज़्यादातर लिखी मिलती हैं इन्हीं लोगों द्वारा लिखी गई थीं। इन पुस्तकों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सम्राटों की परख इस बात से की जाती थी कि वे सैनेट के प्रति किस तरह का व्यवहार रखते थे। सबसे बुरे सम्राट वे माने जाते थे जो सैनेट के सदस्यों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते थे और उनको शक की नज़र से देखते थे या फिर उनके साथ क्रूरता व हिंसा करते थे। कई सैनेटर गणतंत्र-युग में लौटने के लिए तरसते थे, किन्तु अधिकतर सैनेटरों को यह अहसास जरूर हो गया कि यह असंभव था।
**बलात् भर्ती वाली सेना वह होती है जिसमें कुछ वर्गों या समूहों के वयस्क पुरुषों को अनिवार्य रूप से सैनिक सेवा करनी पड़ती है।

सम्राट और सैनेट के बाद साम्राज्यिक शासन की एक अन्य प्रमुख संस्था सेना थी। फ़ारस के साम्राज्य में तो बलात्** भर्ती वाली सेना थी लेकिन रोम की सेना एक व्यावसायिक सेना थी जिसमें प्रत्येक सैनिक को वेतन दिया जाता था और न्यूनतम 25 वर्ष तक सेवा करनी पड़ती थी। एक वेतनभोगी सेना का होना निस्संदेह रोमन साम्राज्य की अपनी एक ख़ास विशेषता थी। सेना साम्राज्य मेें सबसे बड़ा एकल संगठित निकाय थी (जिसमें चौथी शताब्दी तक 6,00,000 सैनिक थे) और उसके पास निश्चित रूप से सम्राटों का भाग्य निर्धारित करने की शक्ति थी। सैनिक बेहतर वेतन और सेवा-शर्तों के लिए लगातार आंदोलन करते रहते थे। यदि सैनिक अपने सेनापतियों और यहाँ तक कि सम्राट द्वारा निराश महसूस करते थे तो ये आंदोलन प्रायः सैनिक विद्रोहों का रूप ले लेते थे। यह भी ध्यान रहे कि रोम सेना की जो तस्वीर हमारे सामने पेश की गई है वह उन इतिहासकारों द्वारा तैयार की गई थी जो सैनेट के प्रति सहानुभूति रखते थे। सैनेट सेना से घृणा करती थी और उससे डरती थी, क्योंकि वह प्रायः अप्रत्याशित हिंसा का स्रोत थी, विशेष रूप से तीसरी शताब्दी की तनावपूर्ण परिस्थितियों में जब सरकार को अपने बढ़ते हुए सैन्य खर्चों को पूरा करने के लिए भारी कर लगाने पड़े थे।

संक्षेप में, सम्राट, अभिजात वर्ग और सेना साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में तीन मुख्य ‘खिलाड़ी’ थे। अलग-अलग सम्राटों की सफलता इस बात पर निर्भर करती थी कि वे सेना पर कितना नियंत्रण रख पाते हैं और जब सेनाएँ विभाजित हो जाती थीं तो इसका परिणाम सामान्यतः गृहयुद्ध* होता था। एक एेसे वर्ष (69 ईस्वी) को छोड़कर, जब एक के बाद एक कुुल मिलाकर, चार सम्राट गद्दी पर बैठे, पहली दो शताब्दियों में कोई गृहयुद्ध नहीं हुआ और अपेक्षाकृत शांति बनी रही। सिंहासन यथासंभव पारिवारिक वंशक्रम पर आधारित था। पिता का राज्य पुत्र को मिलता था, चाहे यह नैसर्गिक हो अथवा ग्रहण किया हुआ उत्तराधिकारी दत्तक, और सेना भी इस सिद्धांत को पूरी तरह से मानती थी। उदाहरणार्थ, टिबेरियस (Tiberious) (14-37 ईस्वी), जो रोम सम्राटों की लंबी कतारों में दूसरा था प्रिंसिपेट की स्थापना करने वाले अॉगस्टस का अपना पुत्र नहीं था, किन्तु सत्ता का सहज परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए अॉगस्टस ने उसे गोद ले लिया था।

प्रथम दो शताब्दियों में अन्य देशों के साथ युद्ध भी बहुत कम हुए। अॉगस्टस से टिबेरियस द्वारा प्राप्त किया गया साम्राज्य पहले ही इतना लंबा-चौड़ा था कि इसमें और अधिक विस्तार करना अनावश्यक प्रतीत होता था। वास्तव में अॉगस्टस का शासन काल शांति के लिए याद किया जाता है, क्योंकि इस शांति का आगमन दशकों तक चले आंतरिक संघर्ष और सदियों की सैनिक विजय के पश्चात हुआ था। साम्राज्य के प्रारंभिक विस्तार में एकमात्र अभियान सम्राट त्राजान ने 113-17 ईस्वी मेें चलाया जिसके द्वारा उसने फ़रात नदी के पार के क्षेत्रों पर निरर्थक कब्जा कर लिया था; लेकिन उसके उत्तराधिकारियों ने उन इलाकों को छोड़ दिया।


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रोम के फोरम जूलियम की दुकानें। पुराने रोमन फोरम के विस्तार के लिए 51 ई. पू. के बाद स्तम्भों वाले इस चौक (पिआज़ा) को बनाया गया।


*गृहयुद्ध दूसरे देशों से संघर्ष के ठीक विपरीत अपने ही देश में सत्ता हासिल करने के लिए किया गया सशस्त्र संघर्ष है।


सम्राट त्राजान का स्वप्न  भारत की विजय?

‘तत्पश्चात् भयंकर भूकंप से पीड़ित एंटिअॉक में सर्दियों के बाद (115/16), 116 में त्राजान फ़रात नदी के रास्ते आगे की ओर बढ़ता हुआ पार्थियन की राजधानी टेसीफ़ून तक चला गया और फिर वहाँ फ़ारस की खाड़ी के सिरे पर पहुँच गया । (इतिहासकार) कैसियस डियो(Cassius Dio) के अनुसार वहाँ पर वह भारत की ओर जाने वाले किसी वाणिज्यिक पोत को लालायित नज़रों से देख रहा था और चाह रहा था कि काश वह सिकंदर जैसा जवान होता।’

– स्रोतः फरगस मिल्लर, दि रोमन नीयर ईस्ट


इस काल की एक विशेष उपलब्धि यह रही कि रोमन साम्राज्य के प्रत्यक्ष शासन का क्रमिक रूप से काफी विस्तार हुआ। इसके लिए अनेक आश्रित राज्यों को रोम के प्रांतीय राज्य-क्षेत्र में मिला लिया गया। निकटवर्ती पूर्व एेसे राज्यों* से भरा पड़ा था लेकिन दूसरी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक जो राज्य फ़रात नदी के पश्चिम में (रोम राज्य क्षेत्र की ओर) पड़ते थे उन्हें भी रोम द्वारा हड़प लिया गया। प्रासंगिक तौर पर यह उल्लेखनीय है कि ये राज्य अत्यंत समृद्ध थे; उदाहरण के लिए, हेरॉड के राज्य से प्रतिवर्ष 54 लाख दीनारियस (1,25,000 कि.ग्रा. सोने) के बराबर आमदनी होती थी! दीनारियस रोम का एक चाँदी का सिक्का होता था जिसमें लगभग 4.5 ग्राम विशुद्ध चाँदी होती थी।

वास्तव में, इटली के सिवाय, जिसे उन शताब्दियों में प्रांत नहीं माना जाता था, साम्राज्य के सभी क्षेत्र प्रांतों में बँटे हुए थे और उनसे कर वसूला जाता था। दूसरी शताब्दी में जब रोम अपने चरमोत्कर्ष पर था, रोमन साम्राज्य स्कॉटलैंड से आर्मेनिया की सीमाओं तक और सहारा से फ़रात और कभी-कभी उससे भी आगे तक फैला हुआ था। यह सच है कि उन दिनों शासन व्यवस्था को चलाने के लिए उनकी सहायतार्थ आज-जैसी कोई सरकार नहीं थी। तो फिर यह प्रश्न उठता है कि सम्राटों के लिए इतने लंबे-चौड़े और तरह-तरह के इलाकों पर नियंत्रण रख पाना कैसे संभव हुआ जिनकी आबादी दूसरी शताब्दी के मध्य में लगभग 6 करोड़ तक पहुँच गई थी? इस प्रश्न का उत्तर साम्राज्य के शहरीकरण में खोजा जा सकता है।

निकटवर्ती पूर्व 

रोमन साम्राज्य के भूमध्य सागरीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की दृष्टि से निकटवर्ती पूर्व का मतलब था भूमध्यसागर के बिलकुल पूर्व का इलाका; मुख्य रूप से सीरिया, फ़िलिस्तीन और मेसोपोटामिया के प्रांत जो रोमन साम्राज्य के हिस्से थे और मोटे तौर पर आसपास के क्षेत्र, जैसे अरब। 


संपूर्ण साम्राज्य में दूर-दूर तक अनेक नगर स्थापित किए गए थे जिनके माध्यम से समस्त साम्राज्य पर नियंत्रण रखा जाता था। भूमध्यसागर के तटों पर स्थापित बड़े शहरी केंद्र (कार्थेज, सिकंदरिया तथा एंटिअॉक इनमें सबसे बड़े थे) साम्राज्यिक प्रणाली के मूल आधार थे। इन्हीं शहरों के माध्यम से ‘सरकार’ प्रांतीय ग्रामीण क्षेत्रों पर कर लगाने में सफल हो पाती थी, जिनसे साम्राज्य को अधिकांश धन-संपदा प्राप्त होती थी। इसका अर्थ यह हुआ कि स्थानीय उच्च वर्ग रोमन साम्राज्य को कर वसूली और अपने क्षेत्रों के प्रशासन के कार्य में सक्रिय सहायता देते थे। इटली और अन्य प्रांतों के बीच सत्ता का आकस्मिक अंतरण वास्तव में, रोम के राजनीतिक इतिहास का एक अत्यंत रोचक पहलू रहा है। दूसरी और तीसरी शताब्दियों के दौरान, अधिकतर प्रशासक तथा सैनिक अफ़सर इन्हीं उच्च प्रांतीय वर्गों मेें से होते थे। इस प्रकार उनका एक नया संभ्रांत वर्ग बन गया जो कि सैनेट के सदस्यों की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली था क्योंकि उसे सम्राटों का समर्थन प्राप्त था। जैसे-जैसे यह नया समूह उभर कर सामने आया, सम्राट गैलीनस (253-68) ने सैनेटरों को सैनिक कमान से हटा कर इस नए वर्ग के उदय को सुदृढ़ बना दिया। एेसा कहा जाता है कि गैलीनस ने सैनेटरों को सेना में सेवा करने अथवा इस तक पहुँच रखने पर पाबंदी लगा दी थी ताकि साम्राज्य का नियंत्रण उनके हाथों में न जाने पाए।

*ये स्थानीय राज्य थे जो रोम के ‘आश्रित’ थे। रोम को भरोसा था कि ये शासक अपनी सेनाओं का प्रयोग रोम के समर्थन में करेंगे और बदले में रोम ने उनका अलग अस्तित्व स्वीकार कर लिया।
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नाइम्स के पास पान दु गार्ड, फ़्रांस, प्रथम सदी ई. रोम के इंजीनियरों ने तीन महाद्वीपों के पार पानी ले जाने के लिए विशाल जलसेतुओं (Aqueducts) का निर्माण किया।

संक्षेप में, पहली शताब्दी के बाद वाले वर्षों में और दूसरी शताब्दी के दौरान तथा तीसरी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में सेना तथा प्रशासन में अधिकाधिक लोग प्रांतों से लिए जाने लगे क्योंकि इन क्षेत्रों के लोगों को भी नागरिकता मिल चुकी थी जो पहले इटली तक ही सीमित थी। सैनेट पर कम से कम तीसरी शताब्दी तक इतालवी मूल के लोगों का प्रभुत्व बना रहा, लेकिन बाद में प्रांतों से लिए गए सैनेटर बहुसंख्यक हो गए। इन प्रवृत्तियों से यह पता चलता है कि साम्राज्य में, राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से, इटली का पतन हो चला था और भूमध्य सागर के अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध और शहरीकृत भागों, जैसे स्पेन के दक्षिणी हिस्सों, अफ़्रीकी और पूर्वी भागों में नए संभ्रांत वर्गों का उदय हो रहा था। रोम के संदर्भ में नगर एक एेसा शहरी केंद्र था, जिसके अपने दंडनायक (मजिस्ट्रेट), नगर परिषद (सिटी काउंसिल) और अपना एक सुनिश्चित राज्य-क्षेत्र था जिसमें उसके अधिकार-क्षेत्र में आने वाले कई ग्राम शामिल थे। इस प्रकार किसी भी शहर के अधिकार-क्षेत्र में कोई दूसरा शहर नहीं हो सकता था, किन्तु उसके तहत कई गाँव लगभग हमेशा ही होते थे। आमतौर पर शाही अनुकम्पा (अथवा नाराज़गी) के कारण गाँवों का दर्जा बढ़ा कर उन्हें शहरों का दर्जा और शहरों को गाँवों का दर्जा दिया जा सकता था। किसी शहर में रहने का लाभ यही था कि खाने की कमी और अकाल के दिनों में भी इसमें ग्रामीण इलाकों की तुलना में बेहतर सुविधाएँ प्राप्त होने की संभावना रहती थी।

डॉक्टर गैलेन के अनुसार रोमन शहरों का ग्रामीण क्षेत्रों के साथ बर्ताव

कई प्रांतों में लगातार कई वर्षों से पड़ रहे अकाल ने साधारण से साधारण बुद्धिवाले आदमी को भी यह बता दिया कि लोगों में कुपोषण के कारण बीमारियाँ हो रही हैं। शहर में रहने वाले लोगों का फ़सल कटाई के शीघ्र बाद अगले पूरे वर्ष के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न अपने भंडारों में भर लेना एक रिवाज था। सारा गेहूँ, जौ, सेम तथा मसूर और दालों का काफी बड़ा हिस्सा शहरियों द्वारा ले जाने के बाद भी कई प्रकार की दालें किसानों के लिए बची रह गई थीं। सर्दियों के लिए जो कुछ भी बचा था, उसे खा-पीकर खत्म कर देने के पश्चात् देहाती लोगों को वसंत ऋतु में अस्वास्थ्यकर खाद्यों पर निर्भर रहना पड़ा; उन्होंने पेड़ों की टहनियाँ, छालें, जड़ें, झाड़ियाँ, अखाद्य पेड़-पौधे और पत्ते खाकर किसी तरह अपने प्राणों को बचाए रखा।

– गैलेन, अॉन गुड एण्ड बैड डाइट



क्रियाकलाप 1

रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में कौन तीन मुख्य ‘खिलाड़ी’ थे? प्रत्येक के बारे में एक-दो पंक्तियाँ लिखिए। रोमन सम्राट अपने इतने बड़े साम्राज्य पर शासन कैसे कर लेता था? इसके लिए किसका सहयोग महत्त्वपूर्ण था?


सार्वजनिक स्नान-गृह रोम के शहरी-जीवन की एक ख़ास विशेषता थी (जब एक ईरानी शासक ने एेसे स्नान-गृहों को ईरान में शुरू करने का प्रयत्न किया तो उसे वहाँ के पुरोहित वर्ग के क्रोध का सामना करना पड़ा! जल एक पवित्र वस्तु थी और सार्वजनिक-स्नान में उन्हें, जल का अपवित्रीकरण दिखता था)। शहरी लोगों को उच्च-स्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे। उदाहरणार्थ, एक कैलेंडर से हमें पता चलता है कि एक वर्ष में कम से कम 176 दिन वहाँ कोई-न-कोई मनोरंजक कार्यक्रम या प्रदर्शन
(Spectacula) अवश्य होता था!

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रोमन छावनी, विन्दोनिसा (Vindonissa,आधुनिक स्विट्ज़रलैंड में) में एक रंगशाला, प्रथम शती ई.। इसका प्रयोग सैन्य क़वायद और सैनिकों के मनोरंजन के आयोजन हेतु किया जाता था।



तीसरी-शताब्दी का संकट

यदि पहली और दूसरी शताब्दियाँ कुल मिला कर शांति, समृद्धि तथा आर्थिक विस्तार की प्रतीक थीं, तो तीसरी शताब्दी आंतरिक तनाव के पहले बड़े संकेत लेकर सामने आई। 230 के दशक से साम्राज्य ने स्वयं को कई मोर्चों पर जूझता पाया। ईरान में, 225 ईस्वी में अपेक्षाकृत एक अधिक आक्रामक वंश उभर कर सामने आया (इस वंश के लोग स्वयं को ‘ससानी’ कहते थे) और केवल 15 वर्षों के भीतर यह तेज़ी से फ़रात की दिशा में फैल गया। तीन भाषाओं में खुदे एक प्रसिद्ध शिलालेख में, ईरान के शासक शापुर प्रथम ने दावा किया था कि उसने 60,000 रोमन सेना का सफ़ाया कर दिया है और रोम साम्राज्य की पूर्वी राजधानी एंटिअॉक पर कब्ज़ा भी कर लिया है। इस बीच, कई जर्मन मूल की जनजातियों, अथवा राज्य समुदायों (जिनमें से प्रमुख एलमन्नाइ, फ्रैंक और गोथ थे) ने राइन तथा डैन्यूब नदी की सीमाओं की ओर बढ़ना शुरू कर दिया; और 233 से 280 तक की समूची अवधि में उन प्रांतों की पूरी सीमा पर बार-बार आक्रमण हुए जो काला सागर से लेकर आल्पस और दक्षिणी जर्मनी तक फैले हुए थे। रोमवासियों को डैन्यूब से आगे का क्षेत्र छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, जबकि इस काल के सम्राट उन लोगों के विरुद्ध लगातार युद्ध करते रहे, जिन्हें रोमवासी ‘विदेशी बर्बर’ (Barbarian) कहा करते थे। तीसरी शताब्दी में थोड़े-थोड़े अंतर से अनेक सम्राट (47 वर्षों में 25 सम्राट) सत्तासीन हुए जो इस तथ्य का स्पष्ट सूचक है कि इस अवधि में साम्राज्य को बेहद तनाव की स्थिति से गुज़रना पड़ा।


लिंग, साक्षरता, संस्कृति

रोमन समाज की अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक विशेषताओं में से एक विशेषता यह थी कि उन दिनों ‘एकल’ परिवार (Nuclear family) का व्यापक रूप से चलन था। वयस्क पुत्र अपने पिता के परिवारों के साथ नहीं रहते थे और वयस्क भाई बहुत कम साझे परिवार में रहते थे। दूसरी ओर, दासों को परिवार में सम्मिलित किया जाता था क्योंकि रोमवासियों के लिए परिवार की यही अवधारणा थी। सामान्यतः गणतंत्र के परवर्त्तीकाल (प्रथम शती ई. पू.) तक विवाह का रूप एेसा था कि पत्नी अपने पति को अपनी संपत्ति हस्तांतरित नहीं किया करती थी किंतु अपने पैतृक परिवार में वह अपने पूरे अधिकार बनाए रखती थी। महिला का दहेज वैवाहिक अवधि के दौरान उसके पति के पास चला जाता था, किन्तु महिला अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारी बनी रहती थी और अपने पिता की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति की स्वतंत्र मालिक बन जाती थी। इस प्रकार, रोम की महिलाओं को संपत्ति के स्वामित्व व संचालन में व्यापक कानूनी अधिकार प्राप्त थे। दूसरे शब्दों में, कानून के अनुसार पति-पत्नी को संयुक्त रूप से एक वित्तीय हस्ती नहीं बल्कि अलग-अलग दो वित्तीय हस्तियाँ माना जाता था और पत्नी को पूर्ण वैधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। तलाक देना अपेक्षाकृत आसान था और इसके लिए पति अथवा पत्नी द्वारा केवल विवाह-भंग करने के इरादे की सूचना देना ही काफी था। दूसरी ओर, पुरुष 28-29, 30-32 की आयु में विवाह करते थे, जबकि लड़कियों की शादी 16-18 व 22-23 साल की आयु में की जाती थी। इसलिए पति और पत्नी के बीच आयु का अंतराल बना रहता था। इससे असमानता को कुछ बढ़ावा मिला होगा। विवाह आम-तौर पर परिवार द्वारा नियोजित होते थे और इसमें कोई संदेह नहीं कि महिलाओं पर उनके पति अक्सर हावी रहते थे। महान कैथोलिक बिशप अॉगस्टीन* जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन उत्तरी अफ़्रीका में बिताया था, ने लिखा है कि उनकी माता की उनके पिता द्वारा नियमित रूप से पिटाई की जाती थी और जिस छोटे से नगर में वे बड़े हुए वहाँ की अधिकतर पत्नियाँ इसी तरह की पिटाई से अपने शरीर पर लगी खरोंचें दिखाती रहती थीं! अंततः, पिताओं का अपने बच्चों पर अत्यधिक कानूनी नियंत्रण होता था—कभी-कभी तो दिल दहलाने वाली सीमा तक; उदाहरणार्थ, अवांछित बच्चों के मामले में उन्हें ज़िंदा रखने या मार डालने तक का कानूनी अधिकार प्राप्त था। एेसी जानकारी मिलती है कि कभी-कभी पिता शिशुओं को मारने के लिए उन्हें ठंड में छोड़ देते थे।

साक्षरता की स्थिति क्या थी? यह निश्चित है कि कामचलाऊ साक्षरता* की दरें साम्राज्य के विभिन्न भागों में काफी अलग-अलग थीं। उदाहरणार्थ, पोम्पेई नगर में, जो 79 ईस्वी में ज्वालामुखी फटने से दफ़न हो गया था, इस बात का ठोस प्रमाण मिलता है कि वहाँ कामचलाऊ साक्षरता व्यापक रूप में विद्यमान थी। पोम्पेई की मुख्य गलियों की दीवारों पर अंकित विज्ञापन और समूचे शहर में अभिरेखण (Graffiti) पाए गए हैं।

*सेंट अॉगस्टीन (354-430) 396 से उत्तरी अफ़्रीका के हिप्पो नामक नगर के बिशप थे। चर्च के बौद्धिक इतिहास में उनका उच्चतम स्थान था। बिशप लोग ईसाई समुदाय में अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति माने जाते थे और अक्सर वे बहुत शक्तिशाली होते थे।

इसके विपरीत, मिस्र में आज भी सैकड़ों ‘पैपाइरस’ बचे हुए हैं जिन पर अत्यधिक औपचारिक-दस्तावेज़, जैसे कि संविदा-पत्र आदि लिखे हुए हैं। ये दस्तावेज़ आमतौर पर व्यावसायिक लिपिकों द्वारा लिखे जाते थे। ये दस्तावेज़ अक्सर हमें यह बताते हैं कि अमुक व्यक्ति ‘क’ अथवा ‘ख’ पढ़ या लिख नहीं सकता। किन्तु यहाँ भी साक्षरता निश्चित रूप से कुछ वर्गों के लोगों में अपेक्षाकृत अधिक व्यापक थी, जैसे कि सैनिकों, फौजी अफ़सरों और सम्पदा-प्रबंधकों में।


*
पढ़ने और लिखने का दैनिक प्रयोग, प्रायः छोटे-मोटे संदर्भों में।

इनमें से एक सर्वाधिक मज़ाकिया विज्ञापन जो पोम्पेई की दीवार पर लगा है, कहता है : दीवार, तुम धन्य हो, अपने ऊपर इतनी उबाऊ लिखावट का बोझ ढोते हुए भी तुम बरकरार खड़ी हो, भरभराकर गिरी नहीं।


रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक विविधता कई रूपों एवं स्तरों पर दिखाई देती है, जैसे, धार्मिक सम्प्रदायों तथा स्थानीय देवी-देवताओं की भरपूर विविधता; बोलचाल की अनेक भाषाएँ; वेशभूषा की विविध शैलियाँ; तरह-तरह के भोजन; सामाजिक संगठनों के रूप (जनजातीय और अन्य); यहाँ तक कि उनकी बस्तियों के अनेक रूप। अरामाइक निकटवर्ती पूर्व (कम से कम फ़रात के पश्चिम में) का प्रमुख भाषा-समूह था, मिस्र में कॉप्टिक, उत्तरी अफ़्रीका में प्यूनिक तथा बरबर (Berber) और स्पेन तथा उत्तर-पश्चिमी में कैल्टिक भाषा बोली जाती थी। परन्तु इनमें बहुत सी भाषाई संस्कृतियाँ पूर्णतः मौखिक थीं, वे कम से कम तब तक मौखिक रहीं जब तक उनके लिए एक लिपि का आविष्कार नहीं किया गया। उदाहरणार्थ, अर्मिनियाई भाषा का लिखना भी बहुत देर बाद पाँचवीं शताब्दी में शुरू हुआ, हालांकि तीसरी शताब्दी के मध्य तक बाइबिल का कॉप्टिक भाषा में अनुवाद हो चुका था। कईं स्थानों पर, लातिनी भाषा के प्रसार ने उन भाषाओं के लिखित रूप का स्थान ग्रहण कर लिया जिनका पहले से ही व्यापक प्रसार था। एेसा विशेष रूप से केल्टिक भाषा के साथ हुआ जिसका लिखा जाना प्रथम शताब्दी के पश्चात बंद ही हो गया।

3.6

एडेसा में पच्चीकारी (दूसरी शती ई.)। सीरिया के इस अभिलेख से पता चलता है कि यहाँ जो लोग दिखाए गए हैं वे राजा अबगर की पत्नी तथा परिवार के सदस्य हैं।

 पोम्पेईः एक मदिरा व्यापारी का भोजन कक्ष। कमरे की दीवारों पर मिथक पशु बनाए गए हैं।


क्रियाकलाप 2
रोमन साम्राज्य में स्त्रियाँ कहाँ तक आत्मनिर्भर थीं? रोमन-परिवार की स्थिति की तुलना आज के भारतीय-परिवार की स्थिति से करो।



आर्थिक विस्तार

साम्राज्य में बंदरगाहों, खानों, खदानों, ईंट-भट्ठों, जैतून के तेल की फैक्टरियों आदि की संख्या काफी अधिक थी, जिनसे उसका आर्थिक आधारभूत ढाँचा काफी मज़बूत था। गेहूँ, अंगूरी शराब तथा जैतून का तेल मुख्य व्यापारिक मदें थीं जिनका अधिक मात्रा में उपयोग होता था और ये मुख्यतः स्पेन, गैलिक प्रांतों, उत्तरी अफ़्रीका, मिस्र तथा अपेक्षाकृत कम मात्रा में इटली से आती थीं, जहाँ इन फसलों के लिए सर्वोत्तम स्थितियाँ उपलब्ध थीं। शराब, जैतून का तेल तथा अन्य तरल पदार्थों की ढुलाई एेसे मटकों या कंटेनरों में होती थी जिन्हें "एम्फ़ोरा (Amphora) कहते थे। इन मटकों के टूटे हुए टुकड़े बहुत बड़ी संख्या में अभी भी मौजूद हैं। (उल्लेखनीय है कि रोम में मोंटी टेस्टैकियो (Monte Testaccio) स्थल पर एेसे 5 करोड़ से अधिक मटकों के अवशेष पाए गए हैं!) पुरातत्त्वविद इन टुकड़ों को ठीक से जोड़कर इन कंटेनरों को फिर से सही रूप देने और यह पता लगाने में सफल हुए हैं कि उनमें क्या-क्या ले जाया जाता था। इसके अलावा, प्राप्त वस्तुओं की मिट्टी का भूमध्य सागरीय क्षेत्रों में उपलब्ध चिकनी मिट्टी के नमूनों के साथ मिलान करके पुरातत्त्वविज्ञानी हमें उनके निर्माण स्थल के बारे में जानकारी देने में सफल हुए हैं। इस प्रकार, हम अब कुछ विश्वास के साथ, एक उदाहरण के रूप में कह सकते हैं कि स्पेन में जैतून का तेल निकालने का उद्यम 140-160 ईस्वी के वर्षों में अपने चरमोत्कर्ष पर था। उन दिनों स्पेन में उत्पादित जैतून का तेल मुख्य रूप से एेसे कंटेनरों में ले जाया जाता था जिन्हें ‘ड्रेसल-20’ कहते थे। इसका यह नाम हेनरिक ड्रेसल नामक पुरातत्त्वविद के नाम पर आधारित है जिसने इस किस्म के कंटनेरों का रूप सुनिश्चित किया था। ड्रेसल-20 नामक कंटेनरों के अवशेष भूमध्यसागरीय क्षेत्र में अनेक उत्खनन-स्थलों पर पाए गए हैं जिससे एेसा प्रतीत होता है कि स्पेन के जैतून के तेल का व्यापक प्रसार था। एेसे साक्ष्य (भिन्न-भिन्न प्रकार के एम्फ़ोरा पात्रों के अवशेषों और उनके मिलने के स्थानों) के बल पर पुरातत्त्वविद यह बता सके हैं कि स्पेन के जैतून के तेल के उत्पादक अपने इतालवी प्रतिद्वंद्वियों से तेल का बाज़ार छीनने में सफल हुए। एेसा तभी संभव हुआ होगा जब स्पेन के उत्पादकों ने अपेक्षाकृत कम कीमतों पर बेहतर गुणवत्ता वाला तेल बेचा होगा। दूसरे शब्दों में, भिन्न-भिन्न प्रदेशों के ज़मींदार एवं उत्पादक अलग-अलग वस्तुओं का बाज़ार हथियाने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते रहते थे। बाद में उत्तरी अफ़्रीका के उत्पादकों ने स्पेन के जैतून के तेल के उत्पादकों जैसा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया और तीसरी तथा चौथी शताब्दियों के अधिकांश भाग में इनका उस क्षेत्र में बोलबाला रहा। फिर 425 ईस्वी के बाद पूर्व ने उत्तरी अफ़्रीका के प्रभुत्व को तोड़ दियाः परिवर्ती पाँचवीं शताब्दी और छठी शताब्दी में एगियन, दक्षिणी एशिया-माइनर (तुर्की), सीरिया और फ़िलिस्तीनी व्यापारी अंगूरी शराब तथा जैतून-तेल के प्रमुख निर्यातक बन गए जबकि भूमध्यसागर के बाज़ारों में अफ्रीका से आने वाले कंटेनरों में अचानक कमी हो गई। इन प्रमुख गतिविधियों के साथ-साथ अलग-अलग प्रदेशों की समृद्धि उनकी वस्तुओं की गुणवत्ता और उनके उत्पादन तथा परिवहन की क्षमता के अनुसार अधिक या कम होती गई।

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फ़्रांस के दक्षिणी तट के पास पोतभंग (पहली शती ई.)। ये एम्फ़ोरा इतालवी हैं जिन पर फोंडी झील के निकट के उत्पादक की मुहर लगी हुई है।


क्रियाकलाप 3
मिट्टी के बर्तनों के अवशेषों पर काम करने वाले पुरातत्त्वविद बहुत-कुछ जासूसों की तरह होते हैं क्यों? स्पष्ट करो। एम्फ़ोरा हमें रोम काल के भूमध्यसागरीय क्षेत्र के आर्थिक जनजीवन के बारे में क्या बताते हैं?


साम्राज्य के अंतर्गत एेसे बहुत से क्षेत्र आते थे जो अपनी असाधारण उर्वरता के कारण बहुत प्रसिद्ध थे; जैसे - इटली में कैम्पैनिया, सिसिली, मिस्र में फैय्यूम, गैलिली, बाइजैकियम (ट्यूनीसिया), दक्षिणी गॉल (जिसे गैलिया नार्बोनेंसिस कहते थे) तथा बाएटिका (दक्षिणी स्पेन)। स्ट्रैबो तथा प्लिनी जैसे लेखकों के अनुसार ये सभी प्रदेश साम्राज्य के घनी आबादी वाले और सबसे धनी भागों में से कुछ थे। सबसे बढ़िया किस्म की अंगूरी शराब कैम्पैनिया से आती थी। सिसिली और बाइजैकियम रोम को भारी मात्रा में गेहूँ का निर्यात करते थे। गैलिली में गहन खेती की जाती थी ("इतिहासकार जोसिफ़स ने लिखा है ः प्रदेशवासियों ने ज़मीन के एक-एक इंच टुकड़े पर खेती कर रखी है") और स्पेन का जैतून का तेल स्पेन के दक्षिण में गुआडलक्विविर नदी के किनारों के साथ-साथ बसी अनेक जमींदारियों (फंडी) से आता था।

*ऋतु-प्रवास से तात्पर्य है ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों और नीचे के मैदानी इलाकों में भेड़-बकरियों तथा अन्य जानवरों को चराने के लिए चरागाहों की खोज में ग्वालों तथा चरवाहों का मौसम के अनुसार वार्षिक आवागमन।

दूसरी ओर, रोम क्षेत्र के अनेक बड़े-बड़े हिस्से बहुत कम उन्नत अवस्था में थे। उदाहरणार्थ, नुमीडिया (आधुनिक अल्जीरिया) के देहाती क्षेत्रों में ऋतु-प्रवास* (Transhumance) व्यापक पैमाने पर होता था। चरवाहे तथा अर्ध-यायावर अपने साथ में अवन (oven) आकार की झोंपड़ियाँ (जिन्हें मैपालिया कहते थे) उठाए इधर-उधर घूमते-फिरते रहते थे। लेकिन जब उत्तरी-अफ़्रीका में रोमन जागीरों का विस्तार हुआ तो वहाँ चरागाहों की संख्या में भारी कमी आई और खानाबदोश चरवाहों की आवाजाही पहले से अधिक नियंत्रित हो गई। स्पेन में भी, उत्तरी क्षेत्र बहुत कम विकसित था और इसमें अधिकतर केल्टिक-भाषी किसानों की आबादी थी, जो पहाड़ियों की चोटियों पर बसे गाँवों में रहते थे। इन गाँवों को कैस्टेला (Castella) कहा जाता था। जब हम, रोम साम्राज्य के बारे में सोचने-समझने का प्रयास करें तो हमें इन असमानताओं को कभी नहीं भूलना चाहिए।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम यह न मान बैठें कि यह एक ‘प्राचीन’ दुनिया थी, इसलिए उस समय के लोगों का सांस्कृतिक तथा आर्थिक जीवन आदिम या पिछड़ा हुआ था। लेकिन स्थिति इसके कुछ विपरीत थी। भूमध्यसागर के आसपास पानी की शक्ति का तरह-तरह से इस्तेमाल किया जाता था। इस काल में जल-शक्ति से मिलें चलाने की प्रौद्योगिकी में ख़ासी प्रगति हुई। स्पेन की सोने और चाँदी की खानों में जल-शक्ति से खुदाई की जाती थी और पहली तथा दूसरी शताब्दियाें में बड़े भारी औद्योगिक पैमाने पर इन खानों से खनिज निकाले जाते थे। उस समय उत्पादकता का स्तर इतना ऊँचा था कि उन्नीसवीं शताब्दी तक यानी कि लगभग 1700 वर्ष बाद भी एेसे उत्पादन के स्तर देखने को नहीं मिलते। उस समय सुगठित वाणिज्यिक और बैंकिंग-व्यवस्था थी और धन का व्यापक रूप से प्रयोग होता था। इन सभी बातों से यह संकेत मिलता है कि हममें रोम की समुन्नत अर्थव्यवस्था को कम आँकने की प्रवृत्ति कितनी अधिक है। अब दास-प्रथा और श्रम-संबंधी मुद्दों पर भी विचार कर लेना प्रासंगिक होगा।


श्रमिकों पर नियंत्रण


भूमध्यसागर और निकटवर्ती पूर्व (पश्चिमी एशिया) दोनों ही क्षेत्रों में दासता की जड़ें बहुत गहरी थीं और चौथी शताब्दी में ईसाई धर्म ने राज्य-धर्म बनने के बाद भी इस गुलामी की प्रथा को कोई गंभीर चुनौती नहीं दी। इसका अर्थ यह नहीं है कि रोम की अर्थव्यवस्था में अधिकांश श्रम, दासों द्वारा ही किया जाता था। तथापि यह बात गणतंत्रीय काल में इटली के मामले में सही हो सकती है। (जहाँ अॉगस्टस के शासनकाल में इटली की कुल 75 लाख की आबादी में 30 लाख दास थे), किन्तु समग्र साम्राज्य में एेसी स्थिति नहीं थी। उन दिनों दासों को पूँजी-निवेश की दृष्टि से देखा जाता था। कम से कम रोम के एक लेखक ने तो ज़मींदारों को एेसे संदर्भों में उन गुलामों का इस्तेमाल न करने की सलाह दी, जहाँ फ़सल की कटाई के लिए उनकी बहुत बड़ी संख्या में आवश्यकता हो अथवा जहाँ स्वास्थ्य को, मलेरिया जैसी बीमारियों से नुकसान पहुँच सकता हो। एेसे विचार दासों के प्रति सहानुभूति पर नहीं बल्कि हिसाब-किताब पर आधारित थे। एक ओर जहाँ उच्च वर्ग के लोग दासों के प्रति प्रायः क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते थे, वहीं दूसरी ओर साधारण लोग उनके प्रति कहीं अधिक सहानुभूति रख सकते थे। नीरो के शासन काल में घटी एक प्रसिद्ध घटना के बारे में देखिए एक इतिहासकार क्या कहता है (हाशिये पर बॉक्स में)।

दासों के प्रति व्यवहार

कुछ ही समय बाद शहर के शासक ल्यूसियस पेडेनियस सेकंडस का उसके एक दास ने कत्ल कर दिया। कत्ल के पश्चात, पुराने रिवाज के अनुसार यह आवश्यक था कि एक ही छत के नीचे रहने वाले प्रत्येक दास को फाँसी दे दी जाए। परन्तु बहुत से निर्दोष लोगों को बचाने के लिए भीड़ एकत्र हो गई और दंगे शुरू हो गए। सैनेट भवन को घेर लिया गया हालांकि सैनेट भवन में अत्यधिक कठोरता का विरोध किया जा रहा था। परंतु अधिकांश सदस्यों ने परिवर्तन किए जाने का विरोध किया। जो सैनेटर फाँसी देने के पक्ष में थे, उनकी बात मानी गई। परन्तु पत्थर और जलती हुई मशालें लिए भारी भीड़ ने इस आदेश को कार्यान्वित किए जाने से रोका। नीरो ने अभिलेख द्वारा इन लोगों को फटकार लगाई, उन सारे मार्गों पर सेना लगा दी गई जहाँ सैनिकों के साथ दोषियों को फाँसी पर चढ़ाने के लिए ले जाया जा रहा था।

– टैसिटस (55-117), आरंभिक साम्राज्य का इतिहासकार।


*दास प्रजनन गुलामों की संख्या बढ़ाने की एक एेसी प्रथा थी जिसके अंतर्गत दासियों और उनके साथ मर्दों को अधिकाधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था; उनके बच्चे भी आगे चलकर दास ही बनते थे।

जब पहली शताब्दी में शांति स्थापित होने के साथ लड़ाई झगड़े कम हो गए तो दासों की आपूर्ति में कमी आने लगी और दास-श्रम का प्रयोग करने वालों को दास प्रजनन* (Slave Breeding) अथवा वेतनभोगी मज़दूरों जैसे विकल्पों का सहारा लेना पड़ा। वेतनभोगी मज़दूर सस्ते तो पड़ते ही थे, उन्हें आसानी से छोड़ा और रखा जा सकता था। वास्तव में, रोम में सरकारी निर्माण-कार्यों पर, स्पष्ट रूप से मुक्त श्रमिकों का व्यापक प्रयोग किया जाता था क्योंकि दास-श्रम का बहुतायत प्रयोग बहुत मँहगा पड़ता था। भाड़े के मज़दूरों के विपरीत, गुलाम श्रमिकों को वर्ष भर रखने के लिए भोजन देना पड़ता था और उनके अन्य खर्चे भी उठाने पड़ते थे, जिससे इन गुलाम श्रमिकों को रखने की लागत बढ़ जाती थी। इसीलिए संभवतः बाद की अवधि में कृषि-क्षेत्र में अधिक संख्या में गुलाम मज़दूर नहीं रहे, कम-से-कम पूर्वी प्रदेशों में तो एेसा ही हुआ। दूसरी ओर, इन दासों और मुक्त व्यक्तियों (अर्थात एेसे दास जिन्हें उनके मालिकों ने मुक्त कर दिया था) को व्यापार-प्रबंधकों के रूप में व्यापक रूप से नियुक्त किया जाने लगा, यहाँ स्पष्टतः उनकी अधिक संख्या में आवश्यकता नहीं थी। मालिक अक्सर अपने गुलामों अथवा मुक्त हुए गुलामों को अपनी ओर से व्यापार चलाने के लिए पूँजी यहाँ तक कि पूरा का पूरा कारोबार सौंप देते थे।

रोमन कृषि-विषयक लेखकों ने श्रम-प्रबंधन की ओर बहुत ध्यान दिया। दक्षिणी स्पेन से आए, पहली शताब्दी के लेखक, कोलूमेल्ला (Columella) ने सिफ़ारिश की थी कि ज़मींदारों को अपनी ज़रूरत से दुगुनी संख्या में उपकरणों तथा औज़ारों का सुरक्षित भंडार रखना चाहिए ताकि उत्पादन लगातार होता रहे, ‘क्योंकि दास संबंधी श्रम-समय की हानि एेसी मदों की लागत से अधिक बैठती है।’ नियोक्ताओं की यह आम धारणा थी कि निरीक्षण यानी देखभाल के बिना कभी भी कोई काम ठीक से नहीं करवाया जा सकता। इसलिए मुक्त तथा दास, दोनों प्रकार के श्रमिकों के लिए निरीक्षण सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू था। निरीक्षण को सरल बनाने के लिए, कामगारों को कभी-कभी छोटे दलों में विभाजित कर दिया जाता था। कोलूमेल्ला ने दस-दस श्रमिकों के समूह बनाने की सिफ़ारिश की थी और यह दावा किया कि इन छोटे समूहों में यह बताना अपेक्षाकृत आसान होता है कि उनमें से कौन काम कर रहा है और कौन कामचोरी। इससे पता चलता है कि उन दिनों श्रम-प्रबंधन पर विस्तार से विचार किया जाता था। वरिष्ठ प्लिनी एक प्रसिद्ध प्रकृति विज्ञान के लेखक ने दास समूहों के प्रयोग की यह कहकर निंदा की कि यह उत्पादन आयोजित करने का सबसे खराब तरीका है क्योंकि इस प्रकार अलग-अलग समूह में काम करने वाले दासों को आमतौर पर पैरों में जंजीर डालकर एक-साथ रखा जाता था।

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सामने के पृष्ठ परः आरंभिक तीसरी शती ई. चर्चल, अल्जीरिया की पच्चीकारी। यहाँ कृषि के दृश्यः  ऊपर- बीज बोना व हल चलाना।

नीचे- अंगूर के बागानों में काम करना।

एेसे तरीके कठोर और क्रूर प्रतीत होते हैं, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि आज विश्व में अधिकांश फैक्ट्रियाँ श्रम नियंत्रण के कुछ एेसे ही सिद्धांत लागू करती हैं। वास्तव में, रोमन साम्राज्य में कुछ औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने तो इससे भी अधिक कड़े नियंत्रण लागू कर रखे थे। वरिष्ठ प्लिनी ने सिकंदरिया की फ्रैंकिन्सेंस* (Frankincense) यानी सुगंधित राल (Resin) की फैक्ट्रियों के हालात का वर्णन किया है, जहाँ उनके अनुसार कितना ही कड़ा निरीक्षण रखो, पर्याप्त प्रतीत नहीं होता थाः "कामगारों के एेप्रनों पर एक सील लगा दी जाती है, उन्हें अपने सिर पर एक गहरी जाली वाला मास्क या नेट पहनना पड़ता है और उन्हें फैक्ट्री से बाहर जाने के लिए अपने सभी कपड़े उतारने पड़ते हैं।" कृषि श्रमिक अवश्य ही थके-थके से रहते होंगे और उन्हें नापसंद किया जाता होगा क्योंकि तीसरी शताब्दी के एक राज्यादेश में मिस्र के किसानों द्वारा अपने गाँव छोड़कर जाने का उल्लेख है जिसमें यह कहा गया है कि वे इसलिए गाँव छोड़कर जा रहे थे ताकि उन्हें खेती के काम में न लगना पड़े। संभवतः यही बात अधिकांश फैक्ट्रियों और कारखानों पर लागू होती थी। 398 के एक कानून में यह कहा गया है कि कामगारों को दागा जाता था ताकि यदि वे भागने और छिपने का प्रयत्न करें तो उन्हें पहचाना जा सके। कई निजी मालिक कामगारों के साथ ऋण-संविदा के रूप में करार कर लेते थे ताकि वे यह दावा कर सकें कि उनके कर्मचारी उनके कर्ज़दार हैं, और इस प्रकार वे अपने कामगारों पर कड़ा नियंत्रण रखते थे। दूसरी शताब्दी की प्रारंभिक अवधि का एक लेखक हमें बताता हैः "हज़ारों श्रमिक गुलामी में काम करने के लिए आत्मसमर्पण करते हैं, हालांकि वे मुक्त हैं।" दूसरे शब्दों में, बहुत-से गरीब परिवारों ने तो जीवित रहने के लिए ही ऋणबद्धता स्वीकार कर ली थी। हाल ही में खोजे गए अॉगस्टीन के पत्रों में से एक पत्र से हमें यह जानकारी मिलती है कि कभी-कभी माता-पिता अपने बच्चों को 25 वर्ष के लिए बेच कर बंधुआ मज़दूर बना देते थे। अॉगस्टीन ने एक बार अपने एक वकील मित्र से पूछा कि पिता की मृत्यु हो जाने पर क्या इन बच्चों को आज़ाद किया जा सकता था। ग्रामीण ऋण-ग्रस्तता और भी अधिक व्यापक थी। इस कर्ज़दारी का एक उदाहरण इस घटना से मिलता है कि 66 ईस्वी के ज़बरदस्त यहूदी विद्रोह* में क्रांतिकारियों ने जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए साहूकारों के ऋणपत्र (बांड) नष्ट कर डाले।

*फ्रैंकिन्सेंस- एक यूरोपीय नाम जो वास्तव में सुगंधित राल है। इसका प्रयोग धूप-अगरबत्ती और इत्र बनाने के लिए किया जाता था। इसे बोसवेलिया के पेड़ से प्राप्त किया जाता था। इस पेड़ के तने में बड़ा छेद कर इसके रस को बहने दिया जाता था और रस सूखने पर राल प्राप्त किया जाता था। 
फ्रैंकिन्सेंस की सबसे उत्कृष्ट किस्म की राल अरब प्रायद्वीप से आती थी।

फिर भी, हमें इस संबंध में सही स्थिति समझने के लिए पर्याप्त सावधानी बरतनी चाहिए और सीधे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच जाना चाहिए कि अधिकतर श्रमिकों पर इन तरीकों से दबाव डाला जाता था। पाँचवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में सम्राट एेनस्टैसियस ने ऊँची मज़दूरियाँ देकर और समूचे पूर्वी क्षेत्र से श्रमिकों को आकर्षित करके तीन सप्ताह से भी कम समय में पूर्वी सीमांत क्षेत्र में दारा शहर का निर्माण किया था। कुछ दस्तावेज़ों (‘पैपाइरी’ पैपाइरस का बहुवचन) से हम यह अनुमान भी लगा सकते हैं कि छठी शताब्दी तक भूमध्यसागरीय क्षेत्र में, विशेषकर पूर्वी भाग में, वेतनभोगी श्रमिक कितने अधिक फैल गए थे।
*यह विद्रोह जूडेया (Judaea) में रोम शासन के विरुद्ध हुआ था जिसे रोमवासियों ने ‘यहूदी-युद्ध’ कही जाने वाली लड़ाई में क्रूरतापूर्वक दबा दिया था।

क्रियाकलाप 4

इस अध्याय में तीन एेसे लेखकों का उल्लेख किया गया है जिनकी रचनाओं का प्रयोग यह बताने के लिए किया गया है कि रोम के लोग अपने कामगारों के साथ कैसा बर्ताव करते थे। क्या आप उनके नाम बता सकते हैं? उस अनुभाग को स्वयं फिर से पढ़िए और उन दो तरीकों का वर्णन कीजिए जिनकी सहायता से रोम के लोग अपने श्रमिकों पर नियंत्रण रखते थे।



सामाजिक श्रेणियाँ

आइए अब हम और अधिक ब्योरे न देकर साम्राज्य की सामाजिक संरचनाओं की जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करें। इतिहासकार टैसिटस ने प्रारंभिक साम्राज्य के प्रमुख सामाजिक समूहों का वर्णन इस प्रकार किया हैः सैनेटर (पैट्रेस, शाब्दिक अर्थः पिता); अश्वारोही* वर्ग के प्रमुख सदस्य; जनता का सम्माननीय वर्ग, जिनका संबंध महान घरानों से था; फूहड़ निम्नतर वर्ग यानी कमीनकारू (प्लेब्स सोर्डिडा), जो उनके अनुसार, सर्कस और थिएटर तमाशे देखने के आदी थे; और अंततः दास। तीसरी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षो में सैनेट की सदस्य संख्या लगभग 1,000 थी और कुुल सैनेटरों में लगभग आधे सैनेटर अभी भी इतालवी परिवारों के थे। साम्राज्य के परवर्ती काल में, जो चौथी शताब्दी के प्रारंभिक भाग में कॉन्स्टैनटाइन प्रथम के शासन काल से आरंभ हुआ, टैसिटस द्वारा उल्लिखित पहले दो समूह (सैनेटर और नाइट या अश्वारोही**) एकीकृत होकर एक विस्तृत अभिजात वर्ग (Aristocracy) बन चुके थे। और इनके कुल परिवारोें में से कम से कम आधे परिवार अफ़्रीकी अथवा पूर्वी मूल के थे। यह ‘‘परवर्ती रोमन’’ अभिजात वर्ग अत्यधिक धनवान था किन्तु कई तरीकों से यह विशुद्ध सैनिक संभ्रांत वर्ग से कम शक्तिशाली था, जिनकी पृष्ठभूमि अधिकतर अभिजात वर्गीय नहीं थीं। ‘मध्यम’ वर्गों में अब नौकरशाही और सेना की सेवा से जुड़े आम लोग शामिल थे, किन्तु इसमें अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध सौदागर और किसान भी शामिल थे जिनमें बहुत-से लोग पूर्वी प्रांतों के निवासी थे। टैसिटस ने इस सम्माननीय मध्यम वर्ग का महान सीनेट गृहों के आश्रितों (clients) के रूप में वर्णन किया है। मुख्य रूप से सरकारी सेवा और राज्य पर निर्भरता ही इन मध्यम वर्गीय परिवारों का भरण-पोषण करती थी। उनसे नीचे भारी संख्या में निम्नतर वर्गों का एक विशाल समूह था, जिन्हें सामूहिक रूप से ह्यूमिलिओरिस यानी ‘‘निम्नतर वर्ग’’ कहा जाता था। इनमें ग्रामीण श्रमिक शामिल थे जिनमें बहुत से लोग स्थायी रूप से बड़ी जागीर में नियोजित थे; औद्योगिक और खनन प्रतिष्ठानों के कामगार; प्रवासी कामगार जो अनाज तथा जैतून की फ़सल कटाई और निर्माण उद्योग के लिए अधिकांश श्रम की पूर्ति करते थे; स्व-नियोजित शिल्पकार जो, एेसा बताया जाता था, कि मज़दूरी पाने वाले श्रमिकों की तुलना में बेहतर खाते-पीते थे; बहुत बड़ी संख्या में कभी-कभी काम करने वाले श्रमिक, विशेषकर बड़े शहरों में, और वस्तुतः हज़ारों गुलाम जो विशेष रूप से पूरे पश्चिमी साम्राज्य में पाए जाते थे। पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल के एक इतिहासकार ओलिंपिओडोरस (Olympiodorus) ने, जो एक राजदूत भी था, लिखा है कि रोम नगर में रहने वाले कुलीन परिवारों को उनकी संपदाओं से वार्षिक आय 4000 पाउंड सोने के बराबर होती थी; इसमें वह उपज शामिल नहीं थी जिसका उपभोग वे सीधे कर लेते थे!

**अश्वारोही (इक्वाइट्स) या नाइट वर्ग परंपरागत रूप से दूसरा सबसे अधिक शक्तिशाली और धनवान समूह था। मूल रूप से वे एेसे परिवार थे जिनकी संपत्ति उन्हें घुड़सेना में भर्ती होने की औपचारिक योग्यता प्रदान करती थी; इसीलिए इन्हें इक्वाइट्स कहा जाता था। सैनेटरों की तरह अधिकतर नाइट ज़मींदार होते थे लेकिन सैनेटरों के विपरीत उनमें से कई लोग जहाज़ों के मालिक, व्यापारी और साहूकार (बैंकर) भी होते थे, यानी वे व्यापारिक क्रियाकलापों में संलग्न रहते थे।

परवर्ती साम्राज्य में प्रथम तीन शताब्दियों से प्रचलित चाँदी-आधारित मौद्रिक प्रणाली समाप्त हो गई क्योंकि स्पेन को खानों से चाँदी मिलनी बंद हो गयी थी और सरकार के पास चाँदी की मुद्रा के प्रचलन के लिए पर्याप्त चाँदी नहीं रह गई थी। कांस्टैनटाइन ने सोने पर आधारित नयी मौद्रिक-प्रणाली स्थापित की और परवर्ती समूचे पुराकाल में इन मुद्राओं का भारी मात्रा में प्रचलन रहा।

रोमन अभिजात वर्ग की आमदनियाँ पाँचवीं ताब्दी के प्रारंभिक दशकों में

रोम के ऊँचे घरानों में से प्रत्येक के पास अपने आप में वह सब कुछ मौजूद था जो एक मध्यम आकार के शहर में हो सकता है। एक घुड़दौड़ का मैदान (हिप्पोड्रोम), अनेक मंच-मंदिर, फव्वारे और विभिन्न प्रकार के स्नानागार... बहुत से रोमन परिवारों को अपनी संपत्ति से प्रतिवर्ष 4,000 पाउंड सोने की आय प्राप्त होती थी, जिसमें अनाज, शराब और अन्य उपज शामिल नहीं थीं; इन उपजों को बेचने पर सोने में प्राप्त आय के एक-तिहाई के बराबर आमदनी हो सकती थी। रोम में द्वितीय श्रेणी के परिवारों की आय 1000 अथवा 1500 पाउंड सोना थी।

– थेब्स का ओलिंपिओडोरस

रोम साम्राज्य के परवर्ती काल में, वहाँ की नौकरशाही के उच्च तथा मध्य वर्ग अपेक्षाकृत बहुत धनी थे क्योंकि उन्हें अपना वेतन सोने के रूप में मिलता था और वे अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा ज़मीन जैसी परिसंपत्तियाँ खरीदने में लगाते थे। इसके अतिरिक्त साम्राज्य में भ्रष्टाचार बहुत फैला हुआ था, विशेष रूप से न्याय-प्रणाली और सैन्य आपूर्तियों के प्रशासन में। उच्च अधिकारी और गवर्नर लूट-खसोट और लालच के लिए कुख्यात हो गए। लेकिन सरकार ने इस प्रकार के भ्रष्टाचारों को रोकने के लिए बारम्बार हस्तक्षेप किया। इस संबंध में हमें पता ही इसलिए चलता है कि सरकार द्वारा अनेक कानून बनाए गए; साथ ही इतिहासविदों तथा अन्य बुद्धिजीवियों ने एेसे भ्रष्ट कारनामों की खुलकर निंदा की। आलोचना का यह तत्व अभिजात्य एवं श्रेण्य जगत की एक उल्लेखनीय विशेषता है। रोमन राज्य तानाशाही पर आधारित था। वहाँ असहमति या आलोचना को कभी-कभार ही बर्दाश्त किया जाता था। आमतौर पर सरकार विरोध का उत्तर, हिंसात्मक कार्रवाई से देती थी (विशेष रूप से पूर्वी भाग के शहरों में जहाँ लोग अक्सर निडर होकर सम्राटों का मज़ाक उड़ाया करते थे।) तथापि चौथी शताब्दी तक आते-आते रोमन कानून की एक प्रबल पंरपरा का उद्भव हो चुका था और उसने सर्वाधिक भयंकर सम्राटों पर भी अंकुश लगाने का काम किया था। सम्राट लोग अपनी मनमानी नहीं कर सकते थे और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानून का सक्रिय रूप से प्रयोग किया जाता था। इसीलिए चौथी शताब्दी के अंतिम दशकों में एेम्ब्रोस जैसे शक्तिशाली बिशपों के लिए यह संभव हो पाया कि यदि सम्राट आम जनता के प्रति अत्यधिक कठोर या दमनकारी हो जाएँ तो ये बिशप भी उतनी ही अधिक शक्ति से उनका मुकाबला करें।



परवर्ती पुराकाल


इस अध्याय के अंत में हम रोमन साम्राज्य की अंतिम शताब्दियों में उसके सांस्कृतिक परिवर्तनों पर दृष्टिपात करेंगे। ‘परवर्ती पुराकाल’ शब्द का प्रयोग रोम साम्राज्य के उद्भव, विकास और पतन के इतिहास की उस अंतिम दिलचस्प अवधि का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो मोटे तौर पर चौथी से सातवीं शताब्दी तक फैली हुई थी। यहाँ तक कि चौथी शताब्दी स्वयं भी अनेक सांस्कृतिक और आर्थिक हलचलों से परिपूर्ण थी। सांस्कृतिक स्तर पर, इस अवधि में लोगों के धार्मिक जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिनमें से एक था सम्राट कॉन्स्टैनटाइन द्वारा ईसाई धर्म को राजधर्म बना लेने का निर्णय, और दूसरा था सातवीं शताब्दी में इस्लाम का उदय। लेकिन राज्य के ढाँचे में भी उतने ही महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन सम्राट डायोक्लीशियन (284-305) के समय से प्रारंभ हुए।

सम्राट डायोक्लीशियन ने देखा कि साम्राज्य का विस्तार बहुत ज्यादा हो चुका है और उसके अनेक प्रदेशों का सामरिक या आर्थिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है इसलिए उसने उन हिस्सों को छोड़कर साम्राज्य को थोड़ा छोटा बना लिया। उसने साम्राज्य की सीमाओं पर क़िले बनवाए, प्रांतों का पुनर्गठन किया और असैनिक कार्यों को सैनिक कार्यों से अलग कर दिया; साथ ही उसने सेनापतियों (Duces) को अधिक स्वायत्तता प्रदान कर दी, जिससे ये सैन्य अधिकारी अधिक शक्तिशाली समूह के रूप में उभर आए।

कॉन्स्टैनटाइन ने इनमें से कुछ परिवर्तनों को पुख़्ता बनाया और अपनी ओर से भी कुछ परिवर्तन किए। उसके द्वारा मुख्य रूप से मौद्रिक क्षेत्र में कुछ नए परिवर्तन किए गए। उसने सॉलिडस (Solidus) नाम का एक नया सिक्का चलाया जो 4.5 ग्राम शुद्ध सोने का बना हुआ था। यह सिक्का रोम साम्राज्य समाप्त होने के बाद भी चलता रहा। ये सॉलिडस सिक्के बहुत बड़े पैमाने पर ढाले जाते थे और लाखों-करोड़ों की संख्या में चलन में थे। कॉन्स्टैनटाइन का एक अन्य नवाचार था एक दूसरी राजधानी कुंस्तुनतुनिया (Constantinople) का निर्माण (जहाँ तुर्की में आजकल इस्तांबुल नगर बसा हुआ है पहले इसे बाइज़ेंटाइन कहा जाता था)। यह नयी राजधानी तीन ओर समुद्र से घिरी हुई थी। चूंकि नयी राजधानी के लिए नयी सैनेट की जरूरत थी इसलिए चौथी शताब्दी में शासक वर्गों का बड़ी तेज़ी से विस्तार हुआ। मौद्रिक स्थायित्व और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आर्थिक विकास में तेज़ी आई। पुरातत्त्वीय अभिलेखों से पता चलता है कि औद्योगिक प्रतिष्ठानों सहित ग्रामीण उद्योग-धंधों में व्यापार के विकास में पर्याप्त मात्रा में पूँजी लगाई गई। इनमें तेल की मिलें और शीशे के कारखाने, पेंच की प्रेसें तथा तरह-तरह की पानी की मिलें जैसी नयी प्रौद्योगिकियाँ महत्वपूर्ण हैं। धन का अच्छा खासा निवेश पूर्व के देशों के साथ लम्बी दूरी के व्यापार में किया गया जिससे एेसे व्यापार का पुनरुस्थान हुआ।

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सम्राट कॉन्स्टैनटाइन, 313 ई. की एक विशाल मूर्ति का हिस्सा।


*एकाश्म- इसका तात्पर्य एक बड़ी चट्टान का टुकड़ा होता है, परंतु इसका प्रयोग यहाँ पर मानव इकाइयों के लिए किया गया है। जब हम कहते हैं कि समाज अथवा संस्कृति एकाश्म है तो उसका अर्थ है कि उसमें विविधता की कमी है और उनमें आंतरिक एकरूपता है।

 इन सभी के फलस्वरूप शहरी संपदा एवं समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि हुई, जिससे स्थापत्य कला के नए-नए रूप विकसित हुए और भोग-विलास के साधनों में भरपूर तेज़ी आई। शासन करने वाले कुलीन पहले से कहीं अधिक धन-संपन्न और शक्तिशाली हो गए। मिस्र में परवर्ती शताब्दियों के पैपाइरस पौधे के पत्तों पर लिखे हुए सैकड़ों दस्तावेज़ मिले हैं, जिनसे यह पता चलता है कि तत्कालीन समाज अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल था, जहाँ मुद्रा का व्यापक रूप से इस्तेमाल होता था और ग्रामीण संपदाएँ भारी मात्रा में सोने के रूप में लाभ कमाती थीं। उदाहरण के लिए, छठी शताब्दी के दौरान जस्टीनियन के शासनकाल में अकेला मिस्र प्रतिवर्ष 25 लाख सॉलिडस (लगभग 35,000 पाउंड सोना) से अधिक धनराशि करों के रूप में देता था। निस्संदेह, पश्चिमी एशिया के बड़े-बड़े ग्रामीण इलाके पाँचवीं और छठी शताब्दियों में (आज बीसवीं शताब्दी की तुलना में भी) अधिक विकसित और घने बसे हुए थे! इसी सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर इस अवधि में आगे चलकर अनेक सांस्कृतिक परिवर्तन हुए।


यूनान और रोमवासियों की पारंपरिक धार्मिक संस्कृति बहुदेववादी थी। ये लोग अनेक पंथों एवं उपासना पद्धतियों में विश्वास रखते थे और जूपिटर, जूनो, मिनर्वा और मॉर्स जैसे अनेक रोमन इतालवी देवों और यूनानी तथा पूर्वी देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे, जिसके लिए उन्होंने साम्राज्य भर में हज़ारों मंदिर, मठ और देवालय बना रखे थे। ये बहुदेववादी स्वयं को किसी एक नाम से नहीं पुकारते थे। रोमन साम्राज्य का एक अन्य बड़ा धर्म यहूदी धर्म
(Judaism) था। लेकिन यहूदी धर्म भी ‘एकाश्म*’ (Monolith) यानी विविधताहीन नहीं था, अर्थात् परवर्ती पुराकाल के यहूदी धर्म में अनेक विविधताएँ मौजूद थीं। अतः चौथी या पाँचवीं शताब्दियों में साम्राज्य का ‘ईसाईकरण’** एक क्रमिक एवं जटिल प्रक्रिया के रूप में हुआ। बहुदेववाद (Polytheism) विशेष रूप से पश्चिमी प्रांतों में आसानी से तुरंत गायब नहीं हुआ, हालांकि ईसाई धर्मप्रचारक वहाँ प्रचलित बहुदेववादी मत-मतांतरों तथा धार्मिक रीति-रिवाज़ों का लगातार विरोध करते रहे और ईसाई जनसाधारण की तुलना में बहुदेववाद की निंदा करते रहे। चौथी शताब्दी में भिन्न-भिन्न धार्मिक समुदायों के बीच की सीमाएँ इतनी कठोर एवं गहरी नहीं थीं जितनी कि आगे चलकर हो गईं, एेसा शक्तिशाली बिशपों की कोशिशों के कारण हुआ, जिन्होंने अपने अनुयायियों को कड़ाई से धार्मिक विश्वासों तथा रीति-रिवाजों का पालन करने का पाठ पढ़ाया।

**ईसाईकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा ईसाई धर्म भिन्न-भिन्न जन-समूहों के बीच फैलाया गया और वहाँ का प्रमुख धर्म बना दिया गया।

जनता में आम खुशहाली, खासतौर पर, पूर्वी भागों में अधिक फैली जहाँ आबादी छठी सदी के मुख्य भाग तक बढ़ती रही थी, हालांकि वहाँ प्लेग की महामारी का प्रकोप हो चुका था जिसके कारण 540 के दशक में लगभग संपूर्ण भूमध्यसागरीय प्रदेश प्रभावित हो गया था। इसके विपरीत, पश्चिम में साम्राज्य राजनीतिक दृष्टि से विखंडित हो गया क्योंकि उत्तर से आने वाले जर्मन मूल के समूहों (गोथ, वैंडल, लोंबार्ड आदि) ने सभी बड़े प्रांतों को अपने कब्ज़े में ले लिया था और अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए थे जिन्हें ‘रोमोत्तर’ (Post-Roman) राज्य कहा जा सकता है। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य थे ः स्पेन में विसिगोथों (Visigoths) का राज्य (जिसे अरबों ने 711 से 720 के बीच नष्ट कर दिया); गॉल में फ्रैंकों का राज्य (लगभग 511-687) और इटली में लोंबार्डों का राज्य (568-774)। ये राज्य एक भिन्न किस्म की दुनिया की शुरुआत के पूर्व संकेत थे जिस दुनिया को आमतौर पर मध्यकालीन (Medieval) कहा जाता है। पूर्वी भाग में, जहाँ साम्राज्य संयुक्त बना रहा, जस्टीनियन का शासनकाल समृद्धि और शाही महत्त्वाकांक्षा के उच्च स्तर का द्योतक था। जस्टीनियन ने (533 में) अफ़्रीका को वैंडलों (Vandals) के कब्ज़े से छुड़ा लिया और इटली को अॉस्ट्रोगोथों से लेकर वापस उस पर अधिकार कर लिया। इससे देश तहस-नहस हो गया और लौंबार्ड (Lombard) के आक्रमण के लिए रास्ता तैयार हो गया। सातवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों तक आते-आते रोम और ईरान के बीच लड़ाई फिर छिड़ गई। ससानी शासकों (जो तीसरी शताब्दी से ईरान पर शासन कर रहे थे) ने मिस्र सहित सभी विशाल पूर्वी प्रांतों में बड़े पैमाने पर आक्रमण कर दिया। बाइज़ेंटियम (अब रोम साम्राज्य को ज़्यादातर इसी नाम से जाना जाता था) ने 620 के दशक में इन प्रांतों पर फिर से अपना कब्ज़ा कर लिया, लेकिन उसके कुछ ही वर्ष बाद उसे दक्षिण-पूर्व की ओर से एक बहुत ज़ोरदार अंतिम धक्का लगा जिसे वह सहन नहीं कर सका।
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79 ई. में बना कोलोसियम जहाँ तलवारिये (तलवार चलाने में निपुण योद्धा) जंगली जानवरों का मुकाबला करते थे। यहाँ एक साथ 60,000 दर्शक बैठ सकते थे।

अरब प्रदेश से शुरू होने वाले इस्लाम के विस्तार को ‘प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक क्रांति’ कहा जाता है। 642 तक, जब पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु को मुश्किल से 10 साल हुए थे, पूर्वी रोमन और ससानी दोनों राज्यों के बड़े-बड़े भाग भीषण युद्ध के बाद अरबों के कब्ज़े में आ गए। किंतु, हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उभरते हुए इस्लामी राज्य की जीतें, जो एक शताब्दी बाद अंततः स्पेन, सिंध और मध्य एशिया तक फैल गईं, अरब जनजातियों को ही पराजित करने से हुईं। अरब से शुरू होकर ये जीतें सीरियाई रेगिस्तान तथा इराक की सरहदों तक पहुँचीं, जिसके पश्चात् मुस्लिम सेनाएँ और दूर-दूर तक गईं। जैसाकि हम अगले विषय चार में देखेंगे, अरब प्रायद्वीप और वहाँ रहने वाली अनेक जनजातियों के एकीकरण के कारण ही इस्लाम धर्म का क्षेत्रीय विस्तार हुआ।

3.7

मानचित्र 2: पश्चिम एशिया।

3.8

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रैवेना की पच्चीकारी (547 ई.), इसमें सम्राट जस्टीनियम को दिखया गया है।


अभ्या

संक्षेप में उत्तर दीजिए

1. यदि आप रोम साम्राज्य में रहे होते तो कहाँ रहना पसंद करते - नगरों में या ग्रामीण क्षेत्र में? कारण बताइये।

2. इस अध्याय में उल्लिखित कुछ छोटे शहरों, बड़े नगरों, समुद्रों और प्रांतों की सूची बनाइये और उन्हें नक़्शों पर खोजने की कोशिश कीजिए। क्या आप अपने द्वारा बनाई गई सूची में संकलित किन्हीं तीन विषयों के बारे में कुछ कह सकते हैं?


3. कल्पना कीजिए कि आप रोम की एक गृहिणी हैं जो घर की ज़रूरत की वस्तुओं की खरीदारी की सूची बना रही हैं। अपनी सूची में आप कौन सी वस्तुएँ शामिल करेंगी?

4. आपको क्या लगता है कि रोमन सरकार ने चाँदी में मुद्रा को ढालना क्यों बंद किया होगा और वह सिक्कों के उत्पादन के लिए कौन-सी धातु का उपयोग करने लगे?

संक्षेप में निबंध लिखिए

5. अगर सम्राट त्राजान भारत पर विजय प्राप्त करने में वास्तव में सफल रहे होते और रोमवासियों का इस देश पर अनेक सदियों तक कब्ज़ा रहा होता, तो क्या आप सोचते हैं कि भारत वर्तमान समय के देश से किस प्रकार भिन्न होता?

6. अध्याय को ध्यानपूर्वक पढ़कर उसमें से रोमन समाज और अर्थव्यवस्था को आपकी दृष्टि में आधुनिक दर्शाने वाले आधारभूत अभिलक्षण चुनिए।