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विषय
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आधुनिकीकरण के रास्ते
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में चीन का पूर्वी एशिया पर प्रभुत्व था। लंबी परंपरा के वारिस छींग राजवंश की सत्ता अक्षुण्ण जान पड़ती थी, जबकि नन्हा-सा द्वीप-देश जापान अलग-थलग पड़ा हुआ प्रतीत होता था। इसके बावजूद, कुछ ही दशकों के भीतर चीन अशांति की गिरफ़्त में आ गया और औपनिवेशिक चुनौती का सामना नहीं कर पाया। छींग राजवंश के हाथ से राजनीतिक नियंत्रण जाता रहा, वह कारगर सुधार करने में असफल रहा और देश गृहयुद्ध की लपटों में आ गया। दूसरी ओर जापान एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण में, औद्योगिक अर्थतंत्र की रचना में और यहाँ तक कि ताइवान (1895) तथा कोरिया (1910) को अपने में मिलाते हुए एक औपनिवेशिक साम्राज्य कायम करने में सफल रहा। उसने अपनी संस्कृति और अपने आदर्शों की स्रोत-भूमि चीन को 1894 में हराया और 1905 में रूस जैसी यूरोपीय शक्ति को पराजित करने में कामयाब रहा।
चीनियों की प्रतिक्रिया धीमी रही और उनके सामने कई कठिनाइयाँ आईं। आधुनिक दुनिया का सामना करने के लिए उन्होंने अपनी परंपराओं को पुनः परिभाषित करने का प्रयास किया। साथ ही अपनी राष्ट्र-शक्ति का पुनर्निर्माण करने और पश्चिमी व जापानी नियंत्रण से मुक्त होने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि असमानताओं को हटाने और अपने देश के पुनर्निर्माण के दुहरे मकसद को वे क्रांति के ज़रिये ही हासिल कर सकते हैं। 1949 में चीनी साम्यवादी पार्टी ने गृहयुद्ध में जीत हासिल की। लेकिन 1970 के दशक के आखिर तक चीनी नेताओं को लगने लगा कि देश की विचारधारात्मक व्यवस्था उसकी आर्थिक वृद्धि और विकास में बाधा डाल रही है। इस वजह से अर्थव्यवस्था में व्यापक सुधार किए गए। यद्यपि इससे पूँजीवाद और मुक्त बाज़ार की वापसी हुई, तथापि साम्यवादी दल का राजनीतिक नियंत्रण अब भी बरकरार रहा।
जापान उन्नत औद्योगिक राष्ट्र बन गया, लेकिन साम्राज्य की लालसा ने उसे युद्ध में झोंक दिया। 1945 में आंग्ल-अमरीकी सैन्यशक्ति के सामने उसे हार माननी पड़ी। अमरीकी आधिपत्य के साथ अधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुरुआत हुई और 1970 के दशक तक जापान अपनी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करके एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बनकर उभरा।
जापान का आधुनिकीकरण का सफ़र पूँजीवाद के सिद्धांतों पर आधारित था और यह सफ़र उसने एेसी दुनिया में तय किया, जहाँ पश्चिमी उपनिवेशवाद का प्रभुत्व था। दूसरे देशों में जापान के विस्तार को पश्चिमी प्रभुत्व का विरोध करने और एशिया को आज़ाद कराने की माँग के आधार पर उचित ठहराया गया। जापान में जिस तेज़ी से विकास हुआ वह जापानी संस्थाओं और समाज में परंपरा की सुदृढ़ता, उनकी सीखने की शक्ति और राष्ट्रवाद की ताकत को दर्शाता है।
चीन और जापान में इतिहास लेखन की लंबी परंपरा रही है, क्योंकि इन देशों में यह माना जाता है कि इतिहास शासकों के लिए महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक का काम करता है। एेसा समझा जाता है कि अतीत वे मानक पेश करता है, जिनके आधार पर शासकों का आकलन किया जा सकता है। इसीलिए शासकों ने अभिलेखों की देखरेख और राजवंशों का इतिहास लिखने के लिए सरकारी विभागों की स्थापना की। सिमा छियन (Sima Qian, 145-90 ईसा पूर्व) को प्राचीन चीन का महानतम इतिहासकार माना जाता है। जापान में भी चीनी सांस्कृतिक प्रभाव के चलते इतिहास को एेसा ही महत्त्व दिया जाने लगा। मेजी सरकार के शुरुआती अधिनियमों में से एक था, 1869 में एक ब्यूरो की स्थापना, जिसका काम था अभिलेखों को इकट्ठा करना। इसका एक अन्य उद्देश्य मेजी पुनर्स्थापना के बारे में मेजी विजेताओं के नज़रिये से लेखन करना था। लिखित शब्द का बहुत सम्मान था और साहित्यिक कौशल को बहुमूल्य समझा जाता था। इसका नतीजा यह रहा है कि भांति-भांति के लिखित स्रोत उपलब्ध हैंः सरकारी इतिहास, विद्वत्तापूर्ण लेखन, लोकप्रिय साहित्य और धार्मिक परचे। मुद्रांकन और प्रकाशन पूर्व आधुनिक काल में महत्त्वपूर्ण उद्योग थे और यह संभव है कि 18वीं शताब्दी के चीन और जापान की किसी किताब के वितरण का पता लगाया जा सके। आधुनिक विद्वानों ने इस सामग्री का इस्तेमाल नये और भिन्न तरीकों से किया है।
आधुनिक विद्वानों ने चीनी बौद्धिकों जैसे लिमांग छिचाओ (Lian Qichao) या जापान में आधुनिक इतिहास के पथप्रदर्शकों में से एक, कुमे कुनीताके (Kume Kunitake, 1839-1931) जैसे बौद्धिकों के काम को आगे बढ़ाया है। इसके अलावा इन्होंने पहले के यूरोपीय मुसाफ़िरों के लेखन, जैसे इटली के मार्को पोलो (1254-1324) जो चीन में 1274 से 1290 तक रहे, चीन में जैसूट पादरी मैटियो रिक्की (Mateo Ricci, 1552-1610) और जापान में लूई फ़रॉय (Luis Frois, 1532-1597) जैसे बुद्धिजीवियों के काम को भी आगे बढ़ाया है। इन सभी ने इन देशों के बारे में समृद्ध जानकारियाँ दी हैं। आधुनिक विश्व को 19वीं सदी के ईसाई मिशनरियों के लेखन से भी फ़ायदे हुए, जिनके काम से इन देशों के बारे में समझ बनाने के लिए बहुमूल्य सामग्री मिलती है।
अंग्रेज़ी में चीनी-जापानी इतिहास पर परिष्कृत पांडित्यपूर्ण काम का विशाल भंडार उपलब्ध है। चीनी सभ्यता में विज्ञान के इतिहास पर जोज़फ नीडहम (Joseph Needham) के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य और जापानी इतिहास और संस्कृति पर जॉर्ज सैन्सम के कार्य से इसकी शुरुआत हुई। हाल के वर्षों में चीनी और जापानी विद्वानों की लिखी चीज़ें अंग्रेज़ी में अनूदित हुई हैं। उनमें से कुछ विद्वान तो विदेशों में ही पढ़ाते हैं और अंग्रेज़ी में लिखते हैं। 1980 से कई चीनी विद्वान जापान में ही काम करते और जापानी में लिखते आए हैं। मतलब यह कि हमारे पास विश्व के कई हिस्सों से आनेवाला विद्वत्तापूर्ण लेखन उपलब्ध है, जो हमें इन देशों का अधिक विस्तृत और गहन परिचय देता है।
नाइतो कोनन* (Naito Konan) 1866-1934
*जापान में कुलनाम व्यक्तिगत नाम के पहले लिखा जाता है।
ये चीन पर काम करने वाले प्रमुख जापानी विद्वान थे, जिनके लेखन ने अन्य जापानी लेखकों को प्रभावित किया। जापान में चीन का अध्ययन करने की लंबी परंपरा रही है। नाइतो ने अपने काम में पश्चिमी इतिहास-लेखन की नयी तकनीकों तथा अपने पत्रकारिता के अनुभवों का इस्तेमाल किया। उन्होंने 1907 में क्योतो विश्वविद्यालय में प्राच्य अध्ययन का विभाग बनाने में मदद की। शिनारॉन (Shinaron) (चीन पर, 1914) में उन्होंने तर्क दिया कि गणतांत्रिक सरकार के ज़रिये चीनी सुंग राजवंश (960-1279) के काल से चले आ रहे अभिजात वर्ग के नियंत्रण और केंद्रीय सत्ता को खत्म कर सकते हैं। उनका मानना था कि स्थानीय समाज को पुनर्जीवित करने का यही रास्ता है और सुधार यहीं से शुरू होने चाहिए थे। उन्हें चीनी इतिहास में एेसी क्षमताएँ नज़र आईं जो चीन को आधुनिक और लोकतांत्रिक बना सकती थीं। उनके मुताबिक जापान चीन में एक अहम भूमिका निभा सकता था लेकिन वे चीनी राष्ट्रवाद की शक्ति का सही आकलन नहीं कर पाए।
परिचय
चीन और जापान के भौतिक भूगोल में काफी अंतर है। चीन विशालकाय महाद्वीपीय देश है जिसमें कई तरह की जलवायु वाले क्षेत्र हैंः मुख्य क्षेत्र में 3 प्रमुख नदियाँ हैंः पीली नदी (हुआंग हे), यांग्त्सी नदी (छांग जिआंग - दुनिया की तीसरी सबसे लंबी नदी), और पर्ल नदी। देश का बहुत सा हिस्सा पहाड़ी है।
मानचित्र 1: पूर्व एशिया।
हान सबसे प्रमुख जातीय समूह है और प्रमुख भाषा है चीनी (पुतोंगहुआ) लेकिन कई और राष्ट्रीयताएँ हैं, जैसे कि उइघुर, हुई, मांचू और तिब्बती। कैंटनीज़ कैंटन (गुआंगज़ाओ) की बोली-उए और शंघाईनीज़ (शंघाई की बोली-वू) जैसी बोलियों के अलावा कई अल्पसंख्यक भाषाएँ भी बोली जाती हैं।
चीनी खानों में क्षेत्रीय विविधता की झलक मिलती है और इसमें कम से कम चार प्रमुख तरह के खाने देखे जा सकते हैं। सबसे प्रसिद्ध पाकप्रणाली दक्षिणी या केंटोनी है, जो कैंटन व उसके आंतरिक क्षेत्रों की है। इसकी प्रसिद्धि इस बात से है कि विदेशों में रहनेवाले ज़्यादातर चीनी कैंटन प्रांत से आते हैं। जाना-माना डिम सम (शाब्दिक अर्थ दिल को छूना) यहीं का खाना है जो गुंथे हुए आटे को सब्ज़ी आदि भरकर उबाल कर बनाए गए व्यंजन जैसा है। उत्तर में गेहूँ मुख्य आहार है, जबकि शेचुआँ (Szechuan) में प्राचीन काल में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा लाए गए मसाले और रेशम मार्ग के ज़रिए पंद्रहवीं सदी में पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा लाई गई मिर्च के चलते खासा झालदार और तीखा खाना मिलता है। पूर्वी चीन में चावल और गेहूँ, दोनों खाए जाते हैं।
इसके विपरीत, जापान एक द्वीप शृंखला है जिसमें चार सबसे बड़े द्वीप हैं होंशू (Honshu), क्यूशू (Kyushu), शिकोकू (Shikoku) और होकाइदो (Hokkaido)। ओकिनावा (Okinawan) द्वीपों की शृंखला सबसे दक्षिण में है, लगभग बहामास वाले ही अक्षांश पर। मुख्य द्वीपों की 50 प्रतिशत से अधिक ज़मीन पहाड़ी है। जापान बहुत ही सक्रिय भूकम्प क्षेत्र में है। इन भौगोलिक परिस्थितियों ने वहाँ की वास्तुकला को प्रभावित किया है। अधिकतर जनसंख्या जापानी है लेकिन कुछ आयनू (Ainu) अल्पसंख्यक और कुछ कोरिया के लोेग हैं जिन्हें श्रमिक मज़दूर के रूप में उस समय जापान लाया गया था जब कोरिया जापान का उपनिवेश था।
जापान में पशुपालन की परंपरा नहीं है। चावल बुनियादी फसल है और मछली प्रोटीन का मुख्य स्रोत। कच्ची मछली साशिमी या सूशी अब दुनिया भर में बहुत लोकप्रिय हो गई है क्योंकि इसे बहुत सेहतमंद माना जाता है।
जापान
राजनीतिक व्यवस्था
जापान पर क्योतो में रहनेवाले सम्राट का शासन हुआ करता था, लेकिन बारहवीं सदी आते-आते असली सत्ता शोगुनों के हाथ में आ गई जो सैद्धांतिक रूप से राजा के नाम पर शासन करते थे। 1603 से 1867 तक तोकुगावा परिवार के लोग शोगुनपद पर कायम थे। देश 250 भागों में विभाजित था जिनका शासन दैम्यो चलाते थे। शोगुन दैम्यो पर नियंत्रण रखते थे। शोगुन दैम्यो को लंबे अरसे के लिए राजधानी एदो (आधुनिक तोक्यो) में रहने का आदेश देते थे ताकि उनकी तरफ़ से कोई खतरा न रहे। शोगुन प्रमुख शहरों और खदानों पर भी नियंत्रण रखते थे। सामुराई (योद्धा वर्ग) शासन करनेवाले कुलीन थे और वे शोगुन तथा दैम्यो की सेवा में थे।
16वीं शताब्दी के अंतिम भाग में तीन परिवर्तनों ने आगे के विकास की तैयारी की। पहला, किसानों से हथियार ले लिए गए, और अब केवल सामुराई तलवार रख सकते थे। इससे शान्ति और व्यवस्था बनी रही जबकि पिछली शताब्दी में इस वजह से अक्सर लड़ाइयाँ होती रहती थीं। दूसरा, दैम्यो को अपने क्षेत्रों की राजधानियों में रहने के आदेश दिए गए और उन्हें काफ़ी हद तक स्वायत्तता प्रदान की गई। तीसरा, मालिकों और करदाताओं का निर्धारण करने के लिए ज़मीन का सर्वेक्षण किया गया तथा उत्पादकता के आधार पर भूमि का वर्गीकरण किया गया। इन सबका मिलाजुला मकसद राजस्व के लिए स्थायी आधार बनाना था।
दैम्यो की राजधानियाँ बड़ी हुईं, जिसके चलते 17वीं शताब्दी के मध्य तक जापान में एदो दुनिया का सबसे अधिक जनसख्ंया वाला शहर बन गया। इसके अलावा ओसाका और क्योतो अन्य बड़े शहरों के रूप में उभरे। कम से कम छह एेसे गढ़ वाले शहर उभरे जहाँ जनसंख्या 50,000 से अधिक थी। इसकी तुलना में उस समय के ज़्यादातर यूरोपीय देशों में केवल एक बड़ा शहर था। इससे वाणिज्यिक अर्थव्यवस्था का विकास हुआ और वित्त और ऋण की प्रणालियाँ स्थापित हुईं। व्यक्ति के गुण उसके पद से अधिक मूल्यवान समझे जाने लगेे। शहरों में जीवंत संस्कृति खिलने लगी जहाँ तेज़ी से बढ़ते व्यापारी वर्ग ने नाटक और कलाओं को प्रोत्साहन दिया। चूंकि लोगों को पढ़ने का शौक था, होनहार लेखकों के लिए यह संभव हो सका कि वे केवल लेखन से अपनी जीविका चला लें। एदो में लोग नूडल की कटोरी की कीमत पर किताब किराये पर ले सकते थे। इससे यह पता चलता है कि छपाई * किस स्तर पर होती थी और पढ़ना कितना लोकप्रिय था।
* छपाई लकड़ी के ब्लॉकों से की जाती थी। जापानी लोग यूरोपीय छपाई को पसंद नहीं करते थे।
जापान अमीर देश समझा जाता था, क्योंकि वह चीन से रेशम और भारत से कपड़ा जैसी विलासी वस्तुएँ आयात करता था। इन आयातों के लिए चाँदी और सोने में कीमत अदा करने से अर्थव्यवस्था पर भार ज़रूर पड़ा जिसकी वजह से तोकुगावा ने कीमती धातुओं के निर्यात पर रोक लगा दी। उन्होंने क्योतो के निशिजिन में रेशम उद्योग के विकास के लिए भी कदम उठाये जिससे रेशम का आयात कम किया जा सके। निशिजिन का रेशम दुनिया भर में बेहतरीन रेशम माना जाने लगा। मुद्रा का बढ़ता इस्तेमाल और चावल के शेयर बाज़ार का निर्माण जैसे अन्य विकास दिखाते हैं कि अर्थतंत्र नयी दिशाओं में विकसित हो रहा था।
सामाजिक और बौद्धिक बदलावों– मिसाल के लिए, प्राचीन जापानी साहित्य के अध्ययन - ने लोगों को यह सवाल उठाने पर मजबूर किया कि जापान पर चीन का प्रभाव किस हद तक है और यह तर्क पेश किया गया कि जापानी होने का सार चीन के संपर्क में आने से बहुत पहले का है। यह सार की कहानी जैसे उच्च प्राचीन साहित्य में और जापान की उत्पत्ति की पौराणिक कथाओं में देखी जा सकती है, ये मिथकीय कहानियाँ बताती हैं कि इन द्वीपों को भगवान ने बनाया था और सम्राट सूर्य देवी के उत्तराधिकारी थे।
निशिजिन क्योतो की एक बस्ती है। 16वीं शताब्दी में वहाँ 31 परिवारों का बुनकर संघ था। 17वीं शताब्दी के आखिर तक इस समुदाय में 70,000 लोग थे। रेशम उत्पादन फैला और 1713 में केवल देशी धागा इस्तेमाल करने के आदेश जारी किए गए जिससे उसे और प्रोत्साहन मिला। निशिजिन में केवल विशिष्ट प्रकार के महंगे उत्पाद बनाए जाते थे। रेशम उत्पादन से एेसे क्षेत्रीय उद्यमी वर्ग का विस्तार हुआ जिन्होंने आगे चलकर तोकुगावा व्यवस्था को चुनौती दी। जब 1859 में विदेशी व्यापार की शुरुआत हुई, जापान से रेशम का निर्यात अर्थव्यवस्था के लिए मुनाफ़े का प्रमुख स्रोत बन गया, एक एेसे समय में जबकि जापानी अर्थव्यवस्था पश्चिमी वस्तुओं से मुकाबला करने की कोशिश कर रही थी।
गेंजी की कथा
मुरासाकी शिकिबु (Murasaki Shikibu)) द्वारा लिखी गई हेआन (Heian) राजदरबार की यह काल्पनिक डायरी दि टेल अॉफ दि गेंजी जापानी साहित्य में प्रमुख कथाकृति बन गई। इस काल में मुरासाकी जैसी अनेक लेखिकाएँ उभरीं जिन्होंने जापानी लिपि का इस्तेमाल किया, जबकि पुरुषों ने चीनी लिपि का। चीनी लिपि का इस्तेमाल शिक्षा और सरकार में होता था। इस उपन्यास में कुमार गेंजी की रोमांचक ज़िंदगी दर्शायी गई और हेआन राजदरबार के अभिजात वातावरण की जीती जागती तस्वीर पेश की गई। इसमें यह भी दिखाया गया है कि औरतों को अपने पति चुनने और अपनी ज़िंदगी जीने की कितनी आज़ादी थी।
मेजी पुनर्स्थापना
1867-68 में मेजी वंश के नेतृत्व में तोकुगावा वंश का शासन समाप्त किया गया। मेजियों की पुनर्स्थापना के पीछे कई कारण थे। देश में तरह-तरह का असंतोष था, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व कूटनीतिक संबंधों की भी माँग की जा रही थी। इसी बीच 1853 में अमरीका ने कॉमोडोर मैथ्यू पेरी (1794-1858) को जापानी सरकार से एक एेसे समझौते पर हस्ताक्षर करने की मांग के साथ भेजा जिसमें जापान ने अमरीका के साथ राजनयिक और व्यापारिक संबंध बनाए। जापान ने अगले साल एेसे समझौते पर हस्ताक्षर किए। जापान चीन के रास्ते में था और अमरीका चीन में एक बड़ा बाज़ार देखता था। इसके अलावा अमरीका को प्रशांत महासागर में अपने बेड़ों के लिए ईंधन लेने की जगह चाहिए थी। उस समय केवल एक ही पश्चिमी देश जापान के साथ व्यापार करता था। वह था, हॉलैंड।
पेरी का जहाज़ः लकड़ी के ब्लॉक का एक जापानी छापा
जापानी जिन्हें ‘काले जहाज़’ (इनकी लकड़ी के जोड़ों को कोलतार से सीलबंद किया जाता था) कहते थे। उन्हें एेसे चित्रों और कार्टूनों में दिखाया गया है जिनमें ‘अजीबोगरीब’ विदेशियों और उनकी आदतों को दर्शाया गया है। ये चित्र जापान के ‘खुलने’ के शक्तिशाली प्रतीक बन गए (आज विद्वान यह तर्क देते हैं कि जापान कभी ‘बंद’ ही नहीं था चूँकि उसकी पूर्वी एशिया के व्यापार में भूमिका थी और उसके लोग हालैंड और चीन निवासियों के ज़रिए बाहरी दुनिया के बारे में जानते थे।)
कोमोडोर पेरी जापानियों की निगाह से
अधिकारीगण और लोग यह जानते थे कि कुछ यूरोपीय देश भारत व अन्य जगहों पर औपनिवेशिक साम्राज्य बना रहे हैं। ब्रितानियों के हाथों चीन की हार (देखिए, पृ.244) की खबरें फैल रही थीं और इन्हें लोकप्रिय नाटकों में दर्शाया भी जा रहा था। इस सबके चलते लोगों में एक असली डर बन रहा था कि जापान भी उपनिवेश बनाया जा सकता है। बहुत से विद्वान और नेता यूरोप के नए विचारों से सीखना चाहते थे बजाए उनकी उपेक्षा करने के, जैसा कि चीन ने किया था। कुछ अन्य लोग यूरोपीय लोगों को ग़ैर मानते हुए अपने से दूर रखना चाहते थे हालाँकि वे उनकी नयी तकनीकों को अपनाने के लिए तैयार थे। कुछ ने देश को बाहरी दुनिया के लिए धीरे-धीरे और सीमित तरह से खोलने के लिए तर्क दिया।
सरकार ने फुकोकु क्योहे (समृद्ध देश, मज़बूत सेना) के नारे के साथ नयी नीति का एेलान किया। उन्होंने यह समझ लिया कि उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था का विकास और मज़बूत सेना का निर्माण करने की ज़रूरत है, अन्यथा उन्हें भी भारत की तरह पराधीनता का सामना करना पड़ सकता है। इस कार्य के लिए उन्हें जनता के बीच राष्ट्र की भावना का निर्माण करने और प्रजा को नागरिक की श्रेणी में बदलने की ज़रूरत महसूस हुई।
क्रियाकलाप 1
जापानियों और एज़टेकों का यूरोपीय लोगों से जो संपर्क/टकराव हुआ, उसके अंतरों की पहचान करिए।
इसके साथ ही नयी सरकार ने ‘सम्राट-व्यवस्था’ के पुनर्निर्माण का काम शुरू किया। (सम्राट व्यवस्था से जापानी विद्वानों का अभिप्राय है एक एेसी व्यवस्था जिसमें सम्राट, नौकरशाही और सेना इकट्ठे सत्ता चलाते थे और नौकरशाही व सेना सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे।) राजतांत्रिक व्यवस्था के नमूनों को समझने के लिए कुछ अधिकारियों को यूरोप भेजा गया। सम्राट को सीधे-सीधे सूर्य देवी का वंशज माना गया, लेकिन साथ ही उसे पश्चिमीकरण का नेता भी बनाया गया। सम्राट का जन्मदिन राष्ट्रीय छुट्टी का दिन बन गया, वह पश्चिमी अंदाज़ के सैनिक कपड़े पहनने लगा, और उसके नाम से आधुनिक संस्थाएँ स्थापित करने के अधिनियम जारी किए जाने लगे। 1890 की शिक्षासंबंधी राजाज्ञा ने लोगों को पढ़ने, जनता के सार्वजनिक एवं साझे हितों को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित किया।
1870 के दशक से नयी विद्यालय-व्यवस्था का निर्माण शुरू हुआ। लड़के और लड़कियों के लिए स्कूल जाना अनिवार्य हो गया, और 1910 तक तकरीबन एेसी स्थिति आ गई कि स्कू्ल जाने से कोई वंचित नहीं रहा। पढ़ाई की फ़ीस बहुत कम थी। शुरू में पाठ्यचर्या पश्चिमी नमूनों पर आधारित थी लेकिन 1870 के दशक के आते-आते आधुनिक विचारों पर ज़ोर देने के साथ-साथ राज्य के प्रति निष्ठा और जापानी इतिहास के अध्ययन पर बल दिया जाने लगा। शिक्षा मंत्रालय पाठ्यचर्या पर, किताबों के चयन और शिक्षकों के प्रशिक्षण पर नियंत्रण रखता था। जिसे नैतिक संस्कृति का विषय कहा गया उसे पढ़ना ज़रूरी था और किताबों में माता पिता के प्रति आदर, राष्ट्र के प्रति वफ़ादारी और अच्छे नागरिक बनने की प्रेरणा दी जाती थी।
जापानी भाषा एक साथ तीन लिपियों का प्रयोग करती है। इनमें से एक कांजी, जापानियों ने चीनियों सेे छठी शताब्दी में ली। चूँकि उनकी भाषा चीनी भाषा से बहुत अलग है, उन्होंने दो ध्वन्यात्मक वर्णमालाओं का विकास भी किया– हीरागाना और कताकाना। हीरागाना नारी सुलभ समझी जाती है क्योंकि हेआन काल में बहुत सी लेखिकाएँ इसका इस्तेमाल करती थीं– जैसे कि मुरासाकी। यह चीनी चित्रात्मक चिह्नों और ध्वन्यात्मक अक्षरों (हीरागाना अथवा कताकाना) को मिलाकर लिखी जाती है। शब्द का प्रमुख भाग कांजी के चिह्न से लिखा जाता है और बाकी का हीरागाना में।
ध्वन्यात्मक अक्षरमाला की मौजूदगी के चलते ज्ञान कुलीन वर्गों से व्यापक समाज में काफ़ी तेज़ी से फैल सका। 1880 के दशक में यह सुझाव दिया गया कि जापानी या तो पूरी तरह से ध्वन्यात्मक लिपि का विकास करें या कोई यूरोपीय भाषा अपना लें। दोनो में से कुछ भी नहीं किया गया।
जापानी लेखः
कांजी (चीनी चित्रात्मक चिह्न) - लाल;
कताकाना - नीला;
हीरागाना - हरा।
राष्ट्र के एकीकरण के लिए मेजी सरकार ने पुराने गाँवों और क्षेत्रीय सीमाओं को बदल कर नया प्रशासनिक ढाँचा तैयार किया। प्रशासनिक इकाई में पर्याप्त राजस्व ज़रूरी था जिससे स्थानीय स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाएँ जारी रखी जा सकें। साथ ही ये इकाइयाँ सेना के लिए भर्ती केंद्रों के काम आ सकें। 20 साल से अधिक उम्र के नौजवानों के लिए कुछ अरसे के लिए सेना में काम करना अनिवार्य हो गया। एक आधुनिक सैन्य बल तैयार किया गया। कानून व्यवस्था बनाई गई जो राजनीतिक गुटों के गठन को देख सके, बैठकें बुलाने पर नियंत्रण रख सके, और सख्त सेंसर व्यवस्था बना सके। इन तमाम उपायों में सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा। सेना और नौकरशाही को सीधा सम्राट के निर्देश में रखा गया। यानि कि संविधान बनने के बावजूद यह दो गुट सरकारी नियंत्रण के बाहर रहे। लोकतांत्रिक संविधान और आधुनिक सेना– इन दो अलग आदर्शों को महत्व देने के दूरगामी नतीजे हुए। सेना ने और इलाके जीतने के मकसद से मज़बूत विदेश नीति के लिए दबाव डाला। इस वजह से चीन और रूस के साथ जंग हुई, दोनों में ही जापान विजयी रहा। अधिक जनवाद की लोकप्रिय माँग अक्सर सरकार की इन आक्रामक नीतियों के विरोध में जाती थी। जापान आर्थिक रूप से विकास करता गया और उसने अपना एक औपनिवेशिक साम्राज्य कायम किया। अपने देश में उसने लोकतंत्र के प्रसार को कुचला और साथ ही उपनिवेशीकृत लोगों के साथ टकराव का रिश्ता कायम किया।
अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण
मेजी सुधारों का एक अन्य महत्त्वपूर्ण हिस्सा अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण था। इसके लिए कृषि पर कर लगाकर धन इकट्ठा किया गया। जापान की पहली रेल लाइन 1870–72 में तोक्यो और योकोहामा बंदरगाह के बीच बिछाई गई। वस्त्र उद्योग के लिए मशीनें यूरोप से आयात की गईं। मज़दूरों के प्रशिक्षण के लिए विदेशी कारीगरों को बुलाया गया, साथ ही उन्हें जापानी विश्वविद्यालयों और स्कूलों में पढ़ाने के लिए भेजा गया। जापानी विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए विदेश भी भेजा गया। 1872 में आधुनिक बैंकिग संस्थाओं का प्रारंभ हुआ। मित्सुबिशी (Mitsubishi) और सुमितोमो (Sumitomo) जैसी कम्पनियों को सब्सिडी और करों में फ़ायदे के ज़रिये प्रमुख जहाज़ निर्माता बनने में मदद मिली। इससे जापानी व्यापार जापानी जहाज़ों में होने लगा। ज़ायबात्सु (Zaibatsu) (बड़ी व्यापारिक संस्थाएँ जिन पर विशिष्ट परिवारों का नियंत्रण था) का प्रभुत्व दूसरे विश्व युद्ध के बाद तक अर्थव्यवस्था पर बना रहा।
1872 में जनसंख्या 3.5 करोड़ थी जो 1920 में 5.5 करोड़ हो गई। जनसंख्या के दबाव को कम करने के लिए सरकार ने प्रवास को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया; पहले उत्तरी टापू होकाइदो की ओर, जो काफी हद तक स्वतंत्र इलाका था और जहाँ आयनू कहे जानेवाले देसी लोग रहते थे; फिर हवाई और ब्राज़ील और जापान के बढ़ते हुए औपनिवेशिक साम्राज्य की तरफ़। उद्योग के विकास के साथ लोग शहरों में आये। 1925 तक 21 प्रतिशत जनता शहरों में रहती थी। 1935 तक यह बढ़ कर 32 प्रतिशत हो गई (2.25 करोड़)।
औद्योगिक मज़दूर
औद्योगिक मज़दूरों की संख्या 1870 में 7,00,000 से बढ़कर 1913 में 40 लाख पहुँच गई। अधिकतर मज़दूर एेसी इकाइयों में काम करते थे जिनमें 5 से कम लोग थे और जिनमें मशीनों और विद्युत-ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं होता था। इन आधुनिक कारखानों में काम करने वालों में आधे से ज़्यादा महिलाएँ थीं। 1886 में पहली आधुनिक हड़ताल का आयोजन महिलाओं ने ही किया। 1900 के बाद कारखानों में पुरुषों की संख्या बढ़ने लगी लेकिन 1930 के दशक में आकर ही पुरुषों की संख्या महिलाओं से अधिक हुई।
कपड़ों के एक कारखाने में श्रमिक।
कारखानों में मज़दूरों की संख्या भी बढ़ने लगी। 100 से ज़्यादा मज़दूर वाले कारखानों की संख्या 1909 में 1000 थी। 1920 तक आते आते इनकी संख्या 2000 से ज़्यादा हो गई और 1930 के दशक में यह 4000 पहुँच गई। इसके बावजूद 1940 में 5,50,000 कारखानों में 5 से कम मज़दूर काम करते थे। इससे परिवार-केंद्रित विचारधारा बनी रही, उसी तरह जिस तरह राष्ट्रवाद को मज़बूत पैतृक व्यवस्था का सहारा था जहाँ सम्राट परिवार का कुलपति माना जाता था।
उद्योग के तेज़ और अनियंत्रित विकास और लकड़ी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की माँग से पर्यावरण का विनाश हुआ। संसद के पहले निम्न सदन के सदस्य तनाको शोज़ो (Tanaka Shozo) ने 1897 में औद्योगिक प्रदूषण के खिलाफ़ पहला आंदोलन छेड़ा जब 800 गाँववासी जन विरोध में इकट्ठे हुए और उन्होंने सरकार को कार्रवाई करने के लिए मज़बूर किया।
एक किसान के बेटे तनाका शोज़ो (1841-1913) ने अपनी पढ़ाई खुद की और एक मुख्य राजनैतिक हस्ती के रूप में उभरे। 1880 के दशक में उन्होंने जनवादी हकों के आंदोलन में हिस्सा लिया। इस आंदोलन ने संवैधानिक सरकार की माँग की। वह पहली संसद-डायट-में सदस्य चुने गए। उनका मानना था कि औद्योगिक प्रगति के लिए आम लोगों की बलि नहीं दी जानी चाहिए। आशियो (Ashio) खान से वातारासे (Watarase) नदी में प्रदूषण फैैल रहा था जिसके कारण 100 वर्ग मील की कृषिभूमि बर्बाद हो रही थी और 1000 परिवार प्रभावित हो रहे थे। आंदोलन के चलते कंपनी को प्रदूषण-नियंत्रण के तरीके अपनाने पड़े जिससे 1904 तक फ़सल सामान्य हो गई।
आक्रामक राष्ट्रवाद
मेजी संविधान सीमित मताधिकार पर आधारित था और उसने डायट बनाई जिसके अधिकार सीमित थे (जापानियों ने संसद के लिए इस जर्मन शब्द का इस्तेमाल किया क्योंकि उनकी कानूनी सोच जर्मनी की सोच से प्रभावित थी)। शाही पुनःस्थापना करनेवाले नेता सत्ता में बने रहे और उन्होंने राजनीतिक पार्टियों का गठन किया। 1918 और 1931 के दरमियान जनमत से चुने गए प्रधानमंत्रियों ने मंत्रिपरिषद् बनाए। इसके बाद उन्होंने पार्टियों का भेद भुला कर बनाई गई राष्ट्रीय एकता मंत्रिपरिषदों के हाथों अपनी सत्ता खो दी। सम्राट सैन्यबलों का कमांडर था और 1890 से ये माना जाने लगा कि थलसेना और नौसेना का नियंत्रण स्वतंत्र है। 1899 में प्रधानमंत्री ने आदेश दिए कि केवल सेवारत जनरल और एडमिरल ही मंत्री बन सकते हैं। सेना को मज़बूत बनाने की मुहिम और जापान के उपनिवेश देशों की वृद्धि इस डर से जुड़े हुए थे कि जापान पश्चिमी शक्तियों की दया पर निर्भर है। इस डर को सैन्य-विस्तार के खिलाफ़ और सैन्यबलों को अधिक धन देने के लिए वसूले जानेवाले उच्चतर करों के खिलाफ़ उठनेवाली आवाज़ों को दबाने में इस्तेमाल किया गया।
छात्र-सैनिकों के चित्र
‘पश्चिमीकरण’ और ‘परंपरा’
जापान के अन्य देशों के साथ संबंधों पर जापानी बुद्धिजीवियों की आनुक्रमिक पीढ़ियों के विचार अलग-अलग थे। कुछ के लिए, अमरीका और पश्चिमी यूरोपीय देश सभ्यता की ऊँचाइयों पर थे जहाँ जापान पहुँचने की आकांक्षा रखता था। फ़ुकुज़ावा यूकिची (Fukuzawa Yukichi) मेजी काल के प्रमुख बुद्धिजीवियों में से थे। उनका कहना था कि जापान को ‘अपने में से एशिया को निकाल फेंकना’ चाहिए। यानि जापान को अपने एशियाई लक्षण छोड़ देने चाहिए और पश्चिम का हिस्सा बन जाना चाहिए।
फ़ुकुज़ावा यूकिची (1835-1901)
इनका जन्म एक गरीब सामुराई परिवार में हुआ। इनकी शिक्षा नागासाकी और ओसाका में हुई। इन्होंने डच और पश्चिमी विज्ञान पढ़ा और बाद में अंग्रेज़ी भी। 1860 में वे अमरीका में पहले जापानी दूतावास में अनुवादक के रूप में गए। इससे इन्हें पश्चिम पर किताब लिखने के लिए बहुत कुछ मिला। उन्होंने अपने विचार क्लासिकी नहीं बल्कि बोलने चालने के अंदाज़ में लिखे। यह किताब बहुत ही लोकप्रिय हुई। इन्होंने एक शिक्षा संस्थान स्थापित किया जो आज केओ विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है। वे मेरोकुशा (Meirokusha) संस्था के मुख्य सदस्यों में से थे। ये संस्था पश्चिमी शिक्षा का प्रचार करती थी।
अपनी एक किताब, ज्ञान के लिए प्रोत्साहन (गाकुनोन नो सुसुमे, 1872-76) में उन्होंने जापानी ज्ञान की कड़ी आलोचना कीः "जापान के पास प्राकृतिक दृश्यों के अलावा गर्व करने के लिए कुछ भी नहीं है", उन्होंने आधुनिक कारखानों व संस्थाओं के अलावा पश्चिम के सांस्कृतिक सारतत्त्व को भी बढ़ावा दिया जो कि उनके मुताबिक सभ्यता की आत्मा है। उसके ज़रिये एक नया नागरिक बनाया जा सकेगा। इनका सिद्धांत था, "स्वर्ग ने इंसान को इंसान के ऊपर नहीं बनाया, न ही इंसान को इंसान के नीचे"।
अगली पीढ़ी ने पश्चिमी विचारों को पूरी तरह से स्वीकार करने पर सवाल उठाये और कहा कि राष्ट्रीय गर्व देसी मूल्यों पर निर्मित होना चाहिए। दर्शनशास्त्री मियाके सेत्सुरे (Miyake Setsurei, 1860-1945) ने तर्क पेश किया कि विश्व सभ्यता के हित में हर राष्ट्र को अपने खास हुनर का विकास करना चाहिए। "अपने को अपने देश के लिए समर्पित करना अपने को विश्व को समर्पित करना है"। इसकी तुलना में बहुत से बुद्धिजीवी पश्चिमी उदारवाद की तरफ़ आकर्षित थे और वे चाहते थे कि जापान अपना आधार सेना की बजाय लोकतंत्र पर बनाए। संवैधानिक सरकार की माँग करने वाले जनवादी अधिकारों के आंदोलन के नेता उएकी एमोरी (Ueki Emori, 1857-1892) फ्रांसीसी क्रांति में मानवों के प्राकृतिक अधिकार और जन प्रभुसत्ता के सिद्धांतों के प्रशंसक थे। वे उदारवादी शिक्षा के पक्ष में थे जो प्रत्येक व्यक्ति को विकसित कर सके : ‘व्यवस्था से ज़्यादा कीमती चीज़ है, आज़ादी’। कुछ दूसरे लोगों ने तो महिलाओं के मताधिकार की भी सिफ़ारिश की। इस दबाव ने सरकार को संविधान की घोषणा करने पर बाध्य किया।
जापान का एक आधुनिक समाज में रूपांतरण रोज़ाना की ज़िंदगी में आए बदलावों में भी देखा जा सकता है। पैतृक परिवार व्यवस्था में कई पीढ़ियाँ परिवार के मुखिया के नियंत्रण में रहती थीं। लेकिन जैसे-जैसे लोग समृद्ध हुए, परिवार के बारे में नए विचार फैलने लगे। नया घर (जिसे जापानी अंग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल करते हुए होमु कहते हैं) का संबंध मूल परिवार से था, जहाँ पति-पत्नी साथ रह कर कमाते और घर बसाते थे। पारिवारिक जीवन की इस नयी समझ ने नए तरह के घरेलू उत्पादों, नए क़िस्म के पारिवारिक मनोरंजन और नए प्रकार के घर की माँग पैदा की। 1920 के दशक में निर्माण कम्पनियों ने शुरू में 200 येन देने के बाद लगातार 10 साल के लिए 12 येन माहवार की किश्तों पर लोगों को सस्ते मकान मुहैया कराये- यह एक एेसे समय में जब एक बैंक कर्मचारी (उच्च शिक्षाप्राप्त व्यक्ति) की तनख्वाह 40 येन प्रतिमाह थी।
बिजली से चलने वाली नवीन घरेलू वस्तुएँः चावल पकाने वाला कुकर, अमरीकी भूनक (मांस व मछली भूनने वाला), ब्रेड सेंकने वाला टोस्टर।
कार क्लब
औरतों का कार क्लब
मोगा : ‘आधुनिक लड़की’ के लिए संक्षिप्त शब्द। यह 20वीं शताब्दी में लिंग बराबरी, विश्वजनीन (कॉस्मोपॉलिटन) संस्कृति और विकसित अर्थव्यवस्था के विचारों के एक साथ आने का सूचक है। नए मध्यम वर्ग परिवारों ने आवागमन और मनोरंजन के नए तरीकों का लुत्फ उठाया। शहरों में बिजली की ट्रामों के साथ परिवहन बेहतर हुआ। 1878 से जनता के लिए बाग़ बनाये गए और बड़ी दुकानें डिपार्टमेंट स्टोर बनने लगीं। तोक्यो में गिन्ज़ा गिनबुरा के लिए एक फ़ैशनेबुल इलाक़ा बन गया। गिनबुरा शब्द गिन्ज़ा और बुरबुरा मिला कर बनाया गया है। बुरबुरा का अर्थ है ‘बिना किसी लक्ष्य के घूमना’। 1925 में पहला रेडियो-स्टेशन खुला। अभिनेत्री मात्सुई, सुमाको, इब्सन के नाटक एक गुड़िया का घर (A Doll's House) में नोरा का बेहतरीन किरदार निभा कर राष्ट्रीय स्तर की तारिका बन गई। 1899 में फ़िल्में बनने लगीं और जल्द ही दर्जन भर कंपनियाँ सैकड़ों की तादाद में फ़िल्में बनाने लगीं। यह दौर ओज से भरा हुआ था और इस दौरान सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार के पारंपरिक मानकों पर सवाल उठाये गए।
औरतों का कार क्लब
आधुनिकता पर विजय
सत्ता केंद्रित राष्ट्रवाद को 1930–40 के दौरान बढ़ावा मिला जब जापान ने चीन और एशिया में अपने उपनिवेश बढ़ाने के लिए लड़ाइयाँ छेड़ीं। ये लड़ाइयाँ दूसरे विश्व युद्ध में जाकर मिल गईं जब जापान ने अमरीका के पर्ल हार्बर पर हमला किया।
इस दौर में सामाजिक नियंत्रण में वृद्धि हुई। असहमति प्रकट करने वालों पर ज़ुल्म ढाये गए और उन्हें जेल भेजा गया। देशभक्तों की एेसी संस्थाएँ बनीं जो युद्ध का समर्थन करती थीं। इनमें महिलाओं के कई संगठन थे। 1943 में एक संगोष्ठी हुई ‘आधुनिकता पर विजय’। इसमें जापान के सामने जो दुविधा थी उस पर चर्चा हुई, यानि आधुनिक रहते हुए पश्चिम पर कैसे विजय पाई जाए। संगीतकार मोरोइ साबुरो ने सवाल उठाया कि संगीत को एेंद्रिक उद्दीपन की कला से वापस लाकर आत्मा की कला के रूप में उसका पुनर्वास कैसे कराया जाए। वे पश्चिमी संगीत को नकार नहीं रहे थे। वे एेसी राह खोज रहे थे जहाँ जापानी संगीत को पश्चिमी वाद्यों पर बजाए या दुहराए जाने से आगे ले जाया जा सके। दर्शनशास्त्री निशितानी केजी ने ‘आधुनिक’ को तीन पश्चिमी धाराओं के मिलन और एकता से परिभाषित कियाः पुनर्जागरण, प्रोटैस्टेंट सुधार, और प्राकृतिक विज्ञानों का विकास । उन्होंने कहा कि जापान की ‘नैतिक ऊर्जा’ (यह शब्द जर्मन दर्शनशास्त्री रांके से लिया गया है) ने उसे एक उपनिवेश बनने से बचा लिया और जापान का फ़र्ज़ बनता है एक नयी विश्व पद्धति, एक विशाल पूर्वी एशिया के निर्माण का। इसके लिए एक नयी सोच की ज़रूरत है जो विज्ञान और धर्म को जोड़ सके।
क्रियाकलाप 2
निशितानी ने ‘आधुनिक’ को जिस तरह परिभाषित किया, क्या आप उससे सहमत हैं?
जापान की औपनिवेशिक साम्राज्य की कोशिशें संयुक्त बलों के हाथों हारकर खत्म हो गईं। यह तर्क दिया गया है कि युद्ध जल्दी खत्म करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी पर नाभिकीय बम गिराये गये। लेकिन अन्य लोगों का मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर जो विध्वंस और दुख-दर्द का तांडव हुआ, वह पूरी तरह से अनावश्यक था। अमरीकी नेतृत्व वाले कब्ज़े (1945-47) के दौरान जापान का विसैन्यीकरण कर दिया गया और एक नया संविधान लागू हुआ। इसके अनुच्छेद 9 के ‘तथाकथित युद्ध न करने के वाक्यांश’ के अनुसार युद्ध का राष्ट्रीय नीति के साधन के रूप में इस्तेमाल वर्जित है। कृषि सुधार, व्यापारिक संगठनों का पुनर्गठन और जापानी अर्थव्यवस्था में ज़ायबात्सु यानि बड़ी एकाधिकार कंपनियों की पकड़ को खत्म करने की भी कोशिश की गई। राजनीतिक पार्टियों को पुनर्जीवित किया गया और जंग के बाद पहले चुनाव 1946 में हुए। इसमें पहली बार महिलाओं ने भी मतदान किया।
अपनी भयंकर हार के बावजूद जापानी अर्थव्यवस्था का जिस तेज़ी से पुनर्निर्माण हुआ, उसे एक युद्धोत्तर ‘चमत्कार’ कहा गया है। लेकिन यह चमत्कार से कहीं अधिक था और इसकी जड़ें जापान के लंबे इतिहास में निहित थीं। संविधान को औपचारिक स्तर पर गणतांत्रिक रूप इसी समय दिया गया। लेकिन जापान में जनवादी आंदोलन और राजनीतिक भागेदारी का आधार बढ़ाने में बौद्धिक सक्रियता की एेतिहासिक परंपरा रही है। युद्ध से पहले के काल की सामाजिक संबद्धता को गणतांत्रिक रूपरेखा के बीच सुदृढ़ किया गया। इसके चलते सरकार, नौकरशाही और उद्योग के बीच एक करीबी रिश्ता कायम हुआ। अमरीकी समर्थन और साथ ही कोरिया और वियतनाम में जंग से जापानी अर्थव्यवस्था को मदद मिली।
1964 में तोक्यो में हुए ओलंपिक खेल जापानी अर्थव्यवस्था की परिपक्वता के प्रतीक बनकर सामने आये। इसी तरह तेज़ गति वाली शिंकांसेन यानि बुलेट ट्रेन का जाल भी 1964 में शुरू हुआ। इस पर रेलगाड़ियाँ 200 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चलती थीं (अब वे 300 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चलती हैं)। यह भी जापानियों की सक्षमता दर्शाती हैं कि वे नयी प्रौद्योगिकी के ज़रिये बेहतर और सस्ते उत्पाद बाज़ार में उतार सके।
तोक्यो-द्वितीय विश्व युद्ध के पहले और बाद में।
1960 के दशक में नागरिक समाज आंदोलन का विकास हुआ। बढ़ते औद्योगीकरण की वजह से स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ रहे दुष्प्रभाव को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ करने का विरोध किया गया। अरगजी (Cadmium) का ज़हर, जिसके चलते बड़ी ही कष्टप्रद बीमारी होती थी
, एक आरंभिक सूचक था। इसके बाद 1960 के दशक में मिनामाता में पारे के ज़हर के फैलने और 1970 के दशक के उत्तरार्ध में हवा में प्रदूषण से भी समस्याएँ जन्मीं। जमीनी स्तरों पर दबाव बनाने वाले गुटों ने इन समस्याओं को पहचानने और साथ ही हताहतों के लिए मुआवज़ा देने की मांग की। सरकारी कार्रवाई और नए कानूनों से स्थिति बेहतर हुई। 1980 के दशक के मध्य से पर्यावरण संबंधी विषयों में लोगों की दिलचस्पी घटी है क्योंकि 1990 तक आते-आते जापान में विश्व के कुछ कठोरतम पर्यावरण-नियंत्रण अमल में लाए गए। आज एक विकसित देश के रूप में यह अग्रगामी विश्व-शक्ति की अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए अपनी राजनीतिक और प्रौद्योगिकीय क्षमताओं का इस्तेमाल करने की चुनौतियों का सामना कर रहा है।
चीन
चीन का आधुनिक इतिहास संप्रभुता की पुनर्प्राप्ति, विदेशी कब्ज़े के अपमान का अंत और समानता तथा विकास को संभव करने के सवालों के चारों ओर घूमता है। चीनी बहसों में तीन समूहों के नज़रिए झलकते हैं। कांग योवेल (1858-1927) या लियांग किचाउ (1873-1929) जैसे आरंभिक सुधारकों ने पश्चिम की चुनौतियों का सामना करने के लिए पारंपरिक विचारों को नये और अलग तरीके से इस्तेमाल करने की कोशिश की। दूसरे, गणतंत्र के पहले राष्ट्राध्यक्ष सन यात-सेन जैसे गणतांत्रिक क्रांतिकारी जापान और पश्चिम के विचारों से प्रभावित थे। तीसरे, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी युगों-युगों की असमानताओं को खत्म करना और विदेशियों को खदेड़ देना चाहती थी।
आधुनिक चीन की शुरुआत सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में पश्चिम के साथ उसका पहला सामना होने के समय से मानी जा सकती है, जबकि जेसुइट मिशनरियों ने खगोलविद्या और गणित जैसे पश्चिमी विज्ञानों को वहाँ पहुँचाया। इसका तात्कालिक असर तो सीमित था, पर इसने उन चीज़ों की शुरुआत कर दी, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में जाकर तेज़ गति पकड़ी, जब ब्रिटेन ने अफ़ीम के फ़ायदेमंद व्यापार को बढ़ाने के लिए सैन्य बलों का इस्तेमाल किया। इसी के चलते पहला अफ़ीम युद्ध (1839-1942) हुआ। इसने सत्ताधारी क्विंग राजवंश को कमज़ोर किया और सुधार तथा बदलाव की मांगों को मज़बूती दी।
अफ़ीम का व्यापार
चीनी उत्पादों जैसे चाय, रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तनों की माँग ने व्यापार में असंतुलन की भारी समस्या खड़ी कर दी। पश्चिमी उत्पादों को चीन में बाज़ार नहीं मिला जिसकी वजह से भुगतान चाँदी में करना पड़ता था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक विकल्प ढूँढ़ा - अफ़ीम। यह हिंदुस्तान के कई हिस्सों में बहुत आराम से उगती थी। चीन में अफ़ीम बेचने के ज़रिये वे चाँदी कमाकर केंटन में उधार पत्रों के बदले कंपनी के प्रतिनिधियों को देने लगे। इस तरह कंपनी उस चाँदी का इस्तेमाल ब्रिटेन के लिए चाय, रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तन खरीदने के लिए करती थी। ब्रिटेन, भारत और चीन के बीच यह उत्पादों का ‘त्रिकोणीय व्यापार’ था।
क्रियाकलाप 3
क्या यह पेंटिंग अफ़ीम युद्ध की अहमियत का स्पष्ट बोध करा पाती है?
कांग यूवेई (Kang Youwei) और लियांग किचाउ (Liang Qichao) जैसे क्विंग सुधारकों ने व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की ज़रूरत महसूस की और एक आधुनिक प्रशासकीय व्यवस्था, नयी सेना और शिक्षा व्यवस्था के निर्माण के लिए नीतियाँ बनाईं। साथ ही, संवैधानिक सरकार की स्थापना के लिए स्थानीय विधायिकाओं का भी गठन किया। उन्होंने चीन को उपनिवेशीकरण से बचाने की ज़रूरत भी महसूस की।
उपनिवेश बनाए गए देशों के नकारात्मक उदाहरणों ने चीनी विचारकों पर ज़बर्दस्त प्रभाव डाला। 18वीं सदी में पोलैंड का बँटवारा सर्वाधिक बहुचर्चित उदाहरण था। यहाँ तक कि 1890 के दशक में पोलैंड शब्द का इस्तेमाल क्रिया के रूप में किया जाने लगा ः बोलान वू का मतलब था, ‘हमें पोलेंड करने के लिए’। भारत का उदाहरण भी सामने था। विचारक लियांग किचाउ का मानना था कि चीनी लोगों में एक राष्ट्र की जागरूकता लाकर ही चीन पश्चिम का विरोध कर पाएगा। 1903 में उन्होंने लिखा कि भारत एक एेसा देश है, जो किसी और देश नहीं, बल्कि एक कंपनी के हाथों बर्बाद हो गया - ईस्ट इंडिया कंपनी के। वे ब्रितानिया की ताबेदारी करने और अपने लोगों के साथ क्रूर होने के लिए हिंदुस्तानियों की आलोचना करते थे। उनके तर्कों ने आम आदमी को खासा आकर्षित किया, क्योंकि चीनी देखते थे कि ब्रितानिया चीन के साथ युद्ध में भारतीय जवानों का इस्तेमाल करता है।
इन सबसे अधिक कइयों ने यह महसूस किया कि परंपरागत सोच को बदलने की ज़रूरत है। कन्फयूशियसवाद चीन में प्रमुख विचारधारा रही है। यह विचारधारा कन्फयूशियस (551-479 ई.पू.) और उनके अनुयायियों की शिक्षा से विकसित की गई। इसका दायरा अच्छे व्यवहार, व्यावहारिक समझदारी और उचित सामाजिक संबंधों के सिद्धांतों का था। इसने चीनियों के जीवन के प्रति रवैये को प्रभावित किया, सामाजिक मानक दिये और चीनी राजनीतिक सोच और संगठनों को आधार दिया।
लोगों को नये विषयों में प्रशिक्षित करने के लिए विद्यार्थियों को जापान, ब्रिटेन और फ्रांस में पढ़ने भेजा गया ताकि वे नये विचार सीख कर वापस आएँ। 1890 के दशक में बड़ी तादाद में चीनी विद्यार्थी पढ़ने के लिए जापान गए। वे न केवल नये विचार वापस लेकर आए बल्कि गणतंत्र की स्थापना करने में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई। चूंकि चीनी और जापानी भाषा एक ही चित्रलिपि का इस्तेमाल करती हैं, चीन ने जापान से न्याय, अधिकार और क्रांति के यूरोपीय विचारों के जापानी अनुवाद लिए। यह एक तरह से पारंपरिक संबंधों का उलट जाना था। 1905 में रूसी-जापानी युद्ध (एक एेसा युद्ध जो चीन की ज़मीन पर और चीनी इलाके पर प्रभुत्व के लिए लड़ा गया था) के बाद सदियों पुरानी चीनी परीक्षा-प्रणाली समाप्त कर दी गई, जो प्रत्याशियों को अभिजात सत्ताधारी वर्ग में दाखिला दिलाने का काम करती थी।
परीक्षा प्रणाली
अभिजात सत्ताधारी वर्ग में प्रवेश (1850 तक लगभग 11 लाख) ज़्यादातर इम्तिहान के ज़रिये ही होता था। इसमें 8 भाग वाला निबंध निर्धारित प्रपत्र में (पा-कू वेन) शास्त्रीय चीनी में लिखना होता था। यह परीक्षा विभिन्न स्तरों पर हर 3 साल में 2 बार आयोजित की जाती थी। पहले स्तर की परीक्षा में केवल 1-2 प्रतिशत लोग 24 साल की उम्र तक पास हो पाते थे और वे (सुंदर प्रतिभा) बन जाते थे। इस डिग्री से उन्हें निचले कुलीन वर्ग में प्रवेश मिल जाता था। 1850 से पहले किसी भी समय 526,869 सिविल और 212,330 सैन्य प्रांतीय (शेंग हुआन) डिग्री वाले लोग पूरे देश में मौजूद थे। देश में केवल 27,000 राजकीय पद थे, इसलिए कई निचले दर्ज़े के डिग्रीधारकों के पास नौकरी नहीं होती थी। यह इम्तहान विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में बाधक का काम करता था, क्योंकि इसमें सिर्फ़ साहित्यिक कौशल की माँग होती थी। चूंकि यह क्लासिक चीनी सीखने के हुनर पर ही आधारित था, जिसकी आधुनिक विश्व में कोई प्रासंगिकता नज़र नहीं आती थी, इसलिए 1905 में इस प्रणाली को खत्म कर दिया गया।
1911 में मांचू साम्राज्य समाप्त कर दिया गया और सन यात-सेन (1866-1925) के नेतृत्व में गणतंत्र की स्थापना की गई। वे निर्विवाद रूप से आधुनिक चीन के संस्थापक माने जाते हैं। वे एक गरीब परिवार से थे और उन्होंने मिशन स्कूलों में शिक्षा ग्रहण की जहाँ उनका परिचय लोकतंत्र और ईसाई धर्म से हुआ। उन्होंने डाक्टरी की पढ़ाई की लेकिन वे चीन के भविष्य को लेकर चिंतित थे। उनका कार्यक्रम तीन सिद्धांत (सन मिन चुई) के नाम से मशहूर है। ये तीन सिद्धांत हैं : राष्ट्रवाद - इसका अर्थ था मांचू वंश - जिसे विदेशी राजवंश के रूप में देखा जाता था - को सत्ता से हटाना, साथ ही अन्य साम्राज्यवादियों को हटाना (गणतंत्र या गणतांत्रिक सरकार की स्थापना करना) और समाजवाद, जो पूँजी का नियमन करे और भूस्वामित्व में बराबरी लाए।
सामाजिक और राजनीतिक हालात डाँवाडोल बने रहे। 4 मई 1919 में बीजिंग में युद्धोत्तर शांति सम्मेलन के निर्णय के विरोध में एक धुआँधार प्रदर्शन हुआ। हालांकि चीन ब्रितानिया के नेतृत्व में हुई जीत में विजयी देशों का सहयोगी था, पर उससे हथिया लिए गए उसके इलाके वापस नहीं मिले थे। यह विरोध आंदोलन में तब्दील हो गया। इसने एक पूरी पीढ़ी को परंपरा पर हमला करने के लिए प्रेरित किया और चीन को आधुनिक विज्ञान, लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के ज़रिये बचाने की माँग की गई। क्रांतिकारियों ने देश के संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए विदेशियों को भगाने, असमानताएँ हटाने और गरीबी कम करने का नारा दिया। उन्होंने लेखन में एक ही भाषा का इस्तेमाल, पैरों को बाँधने की प्रथा और औरतों की अधीनस्थता के खात्मे, शादी में बराबरी और गरीबी खत्म करने के लिए आर्थिक विकास जैसे सुधारों की वकालत की। गणतांत्रिक क्रांति के बाद देश में उथल-पुथल का एक दौर शुरू हुआ। कुओमीनतांग (नेशनल पीपुल्स पार्टी) और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी मुल्क को एकताबद्ध करने और स्थिरता लाने के लिए संघर्षरत दो महत्त्वपूर्ण ताक़तों के रूप में उभरीं।
सन यात-सेन के विचार कुओमीनतांग के राजनीतिक दर्शन का आधार बने। उन्होंने कपड़ा, खाना, घर और परिवहन - इन ‘चार बड़ी ज़रूरतों’ को रेखांकित किया। सन यात-सेन की मृत्यु के बाद चियांग काइशेक (Chiang Kaishek, 1887-1975) कुओमीनतांग के नेता बनकर उभरे और उन्होंने सैन्य अभियान के ज़रिये वारलाड्ρस को (स्थानीय नेता जिन्होंने सत्ता छीन ली थी) अपने नियंत्रण में किया और साम्यवादियों को खत्म कर डाला। उन्होंने सेक्युलर और विवेकपूर्ण ‘इहलौकिक’ कन्फूशियसवाद की हिमायत की, लेकिन साथ ही राष्ट्र का सैन्यकरण करने की भी कोशिश की। उन्होंने कहा कि लोगों को ‘ एकताबद्ध व्यवहार की प्रवृत्ति और आदत’ का विकास करना चाहिए। उन्होंने महिलाओं को चार सद्गुण पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कियाः सतीत्व, रूप-रंग, वाणी और काम और उनकी भूमिका को घरेलू स्तर पर ही देखने पर ज़ोर दिया। यहाँ तक कि उनके कपड़ों की किनारियों की लंबाई भी प्रस्तावित की।
कुओमीनतांग का सामाजिक आधार शहरी इलाकों में था। औद्योगिक विकास धीमा और गिने चुने क्षेत्रों में था। शंघाई जैसे शहरों में 1919 में औद्योगिक मज़दूर वर्ग उभर रहा था और इनकी संख्या 500,000 थी। लेकिन इनमें से केवल कुछ प्रतिशत मज़दूर ही जहाज़ निर्माण जैसे आधुनिक उद्योगों में काम कर रहे थे। ज़्यादातर लोग ‘नगण्य शहरी’ (शियाओ शिमिन), व्यापारी और दुकानदार होते थे। शहरी मज़दूरों, खासतौर से महिलाओं, को बहुत कम वेतन मिलता था। काम करने के घंटे बहुत लंबे थे और काम करने की परिस्थितियाँ बहुत खराब। जैसे-जैसे व्यक्तिवाद बढ़ा, महिलाओं के अधिकार, परिवार बनाने के तरीके और प्यार-मुहब्बत की चर्चा - इन सब विषयों को लेकर सरोकार बढ़ते गए।
सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव में स्कूल और विश्वविद्यालयों के फैलने से मदद मिली। पीकिंग विश्वविद्यालय की स्थापना 1902 में हुई। पत्रकारिता फली-फूली जो कि इस नयी सोच के प्रति आकर्षण का आईना थी। शाओ तोआफ़ेन (Zao Taofen, 1895-1944) द्वारा संपादित लोकप्रिय लाइफ़ वीकली इस नयी विचारधारा की प्रतिनिधि थी। इसने अपने पाठकों को नए विचारों से, साथ ही गांधी और तुर्की के आधुनिकतापसंद नेता कमाल अतातुर्क (Kemal Ataturk) जैसे नेताओं से अवगत करवाया। इसका वितरण 1926 में केवल 2000 प्रतियों से बढ़कर 1933 में 200,000 हो गया।
1935 का शंघाई : शंघाई में एक काला अमरीकन तुरेहीवादक, बक क्लेटन (Buck Clayton), अपने जैज़ और कैस्ट्रा के साथ विशेषाधिकारप्राप्त प्रवासी की जिं़दगी जी रहे थे। लेकिन वह काला था और एक बार कुछ गोरे अमरीकियों ने उसे तथा उसके वाद्यमंडली के सदस्यों के साथ मारपीट करके उन्हें उनके गायन-वादन वाले होटल से बाहर निकाल दिया। सो, अमरीकी होने के बावजूद खुद नस्ली भेदभाव का शिकार होने के कारण चीनियों के दुख-दर्द के साथ उनकी बहुत सहानुभूति थी। गोरे अमरीकियों के साथ हुई अपनी लड़ाई, जिसमें वे जीत गए, के बारे में वह लिखते हैं, "चीनी तमाशबीनों ने हमारे साथ एेसा बरताव किया जैसे हमने उनका अभीष्ट काम संपन्न किया हो और घर पहुँचने तक रास्ते भर वे किसी विजेता फुटबॉल टीम की तरह हमारा अभिनंदन करते रहे।"
चीनियों की ग़रीबी और कठोर जीवनचर्या के बारे में वह लिखते हैं, "मैं कभी-कभी देखता कि बीस या तीस कुली मिल कर किसी बड़े भारी ठेले को खींच रहे हैं, जो कि अमरीका में किसी ट्रक द्वारा या घोड़ों द्वारा खींचा जाता। ये लोग इनसानी घोड़ों से अलग कुछ नहीं लगते थे और पूरा काम करने के बाद उन्हें इतना ही मिलता था कि किसी तरह पेट भर चावल और सोने की एक जगह हासिल कर लें। मेरी समझ में नहीं आता, वे कैसे अपना काम चलाते थे।"
‘रिक्शा खींचने वाला’ - लान जिया द्वारा बनाया गया काष्ठ चित्र। लाओ शे (1936) द्वारा रचित उपन्यास ‘रिक्शा’ एक गौरव ग्रंथ बन गया।
क्रियाकलाप 4
भेदभाव का अहसास लोगों को कैसे एकताबद्ध करता है?
देश को एकीकृत करने की अपनी कोशिशों के बावजूद कुओमीनतांग अपने संकीर्ण सामाजिक आधार और सीमित राजनीतिक दृष्टि के चलते असफल हो गया। सन यात-सेन के कार्यक्रम का बहुत अहम हिस्सा - पूँजी का नियमन और भूमि-अधिकारों में बराबरी लाना - कभी अमल में नहीं आया, क्योंकि पार्टी ने किसानों और बढ़ती सामाजिक असमानता की अनदेखी की। इसने लोगों की समस्याओं पर ध्यान देने की बजाय फ़ौजी व्यवस्था थोपने का प्रयास किया।
बढ़ती हुई कीमतों की कहानी।
क्यांगसी
(पीत नदी)
जूचिन
ताइवान
चीनी साम्यवादी दल का उदय
1937 में जब जापानियों ने चीन पर हमला किया तो कुओमीनतांग पीछे हट गया। इस लंबे और थकाने वाले युद्ध ने चीन को कमज़ोर कर दिया। 1945 और 1949 के दरमियान कीमतें 30 प्रतिशत प्रति महीने की र.फ्तार से बढ़ीं। इससे आम आदमी की ज़िंदगी तबाह हो गई। ग्रामीण चीन में दो संकट थेः एक, पर्यावरण संबंधी, जिसमें बंजर ज़मीन, वनों का नाश और बाढ़ शामिल थे। दूसरा, सामाजिक-आर्थिक जो विनाशकारी ज़मीन-प्रथा, ऋण, आदिम प्रौद्योगिकी और निम्न स्तरीय संचार के कारण था।
चीन की साम्यवादी पार्टी की स्थापना 1921 में, रूसी क्रांति के कुछ समय बाद हुई थी। रूसी सफलता ने पूरी दुनिया पर ज़बर्दस्त प्रभाव डाला। लेनिन और ट्रॉट्स्की जैसे नेताओं ने मार्च 1918 में कौमिंटर्न या तृतीय अंतर्राष्ट्रीय (Third International) का गठन किया जिससे विश्व स्तरीय सरकार बनाई जाए जो शोषण को खत्म कर सके। कौमिंटर्न और सोवियत संघ ने दुनिया भर में साम्यवादी पार्टियों का समर्थन किया। उनकी परंपरागत मार्क्सवादी समझ थी, कि क्रांति शहरी इलाकों में मज़दूर वर्गों के ज़रिये आयेगी। शुरू में विभिन्न देशों के लोग इससे बहुत आकर्षित हुए लेकिन जल्द ही यह सोवियत यूनियन के स्वार्थाें का हथियार बन गया और 1943 में इसे खत्म कर दिया गया। माओ त्सेतुंग (1893-1976) ने, जो सी. सी. पी. के प्रमुख नेता के रूप में उभरे, क्रांति के कार्यक्रम को किसानों पर आधारित करते हुए एक अलग रास्ता चुना। उनकी सफलता से चीनी साम्यवादी पार्टी एक शक्तिशाली राजनीतिक ताकत बनी जिसने अंततः कुओमीनतांग पर जीत हासिल की।
माओ त्सेतुंग के आमूूलपरिवर्तनवादी तौर-तरीकों को जियांग्सी में देखा जा सकता है। यहाँ पहाड़ों मे 1928-1934 के बीच उन्होंने कुओमीनतांग के हमलों से सुरक्षित शिविर लगाए। मज़बूत किसान परिषद (सोवियत) का गठन किया, ज़मीन पर कब्ज़ा और पुनर्वितरण के साथ एकीकरण हुआ। दूसरे नेताओं से हटकर, माओ ने आज़ाद सरकार और सेना पर ज़ोर दिया। वे महिलाओं की समस्याओं से अवगत थे और उन्होंने ग्रामीण महिला संघों को उभरने में प्रोत्साहन दिया। उन्होंने शादी के नए कानून बनाए जिसमें आयोजित शादियों और शादी के समझौते खरीदने और बेचने पर रोक लगाई और तलाक को आसान बनाया।
कम्युनिस्टों की सोवियत की कुओ मीन तांग द्वारा नाकेबंदी ने पार्टी को दूसरा आधार ढूँढ़ने पर मज़बूर किया। इसके चलते उन्हें लाँग मार्च (1934-35) पर जाना पड़ा, जो कि शांग्सी तक 6000 मील का मुश्किल सफ़र था। नये अड्डे येनान में उन्होंने युद्ध सामंतवाद (Warlordism) को खत्म करने, भूमि सुधार लागू करने और विदेशी साम्राज्यवाद से लड़ने के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। इससे उन्हें मज़बूत सामाजिक आधार मिला। युद्ध के मुश्किल सालों में साम्यवादियों और कुओमीनतांग ने मिलकर काम किया लेकिन युद्ध खत्म होने के बाद साम्यवादी सत्ता में आ गए और कुओमीनतांग की हार हो गई।
मानचित्र 2: लाँग मार्च।
कैमरा चित्र - 1941 में लाँग मार्च पर सैनिकों द्वारा बंजर भूमि को कृषियोग्य बनाते हुए।
कैमरा चित्र - 1941 में लाँग मार्च पर सैनिकों द्वारा बंजर भूमि को कृषियोग्य बनाते हुए।
नए जनवाद की स्थापना : 1949-65
पीपुल्स रिपब्लिक अॉफ़ चाइना की सरकार 1949 में कायम हुई। यह ‘नए लोकतंत्र’ के सिद्धांतों पर आधारित थी। ‘सर्वहारा की तानाशाही’*, जिसे कायम करने का दावा सोवियत संघ का था, से भिन्न नया लोकतंत्र सभी सामाजिक वर्गों का गठबंधन था। अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्र सरकार के नियंत्रण में रखे गए और निजी कारखानों और भूस्वामित्व को धीरे-धीरे खत्म किया गया। यह कार्यक्रम 1953 तक चला जब सरकार ने समाजवादी बदलाव का कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की। 1958 में लंबी छलाँगवाले आंदोलन की नीति के ज़रिये देश का तेज़ी से औद्योगीकरण करने की कोशिश की गई। लोगों को अपने घर के पिछवाड़े में इस्पात की भट्ठियाँ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। ग्रामीण इलाकों में पीपुल्स कम्यून्स - जहाँ लोग इकट्ठे ज़मीन के मालिक थे और मिलजुलकर फसल उगाते थे - शुरू किये गए। 1958 तक 26,000 एेसे समुदाय थे जो कि कृषक आबादी का 98 प्रतिशत था।
*यह शब्द कार्लमार्क्स द्वारा प्रयोग किया गया था जिसमें यह बल दिया गया था कि अमीर वर्ग की दमनकारी सरकार को श्रमिक वर्ग की क्रांतिकारी सरकार प्रतिस्थापित कर देगी और यह मौजूदा अर्थ में अधिनायक तंत्र नहीं होगा।
माओ पार्टी द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पाने के लिए जनसमुदाय को प्रेरित करने में सफल रहे। उनकी चिंता ‘समाजवादी व्यक्ति’ बनाने की थी जिसकी पाँच चीज़ें प्रिय होंगीः पितृभूमि, जनता, काम, विज्ञान और जन सम्पत्ति। किसानों, महिलाओं, छात्रों और अन्य गुटों के लिए जन संस्थाएँ बनाई गईं। उदाहरण के लिए अॉल चाइना डेमोक्रेटिक वीमेंस फ़ेडरेशन के 760 लाख सदस्य थे, अॉल चाइना स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के 32 लाख 90 हज़ार सदस्य थे। लेकिन ये लक्ष्य और तरीके पार्टी में सभी लोगों को पसंद नहीं थे। 1953-54 में कुछ लोग औद्योगिक संगठनों और आर्थिक विकास की तरफ ज़्यादा ध्यान देने के लिए कह रहे थे। लीऊ शाओछी (Liu Shaochi, 1896-1969) और तंग शीयाओफींग (Deng Xiaoping, 1904-97) ने कम्यून प्रथा को बदलने की कोशिश की क्योंकि यह बहुत कुशलता से काम नहीं कर रही थी। घरों के पिछवाड़ों में बनाई गई स्टील औद्योगिक लिहाज़ से अनुपयोगी था।
दर्शनों का टकरावः 1965-78
‘समाजवादी व्यक्ति’ की रचना के इच्छुक माओवादियों और दक्षता की बजाय विचारधारा पर माओ के बल देने की आलोचना करनेवालों के बीच संघर्ष चला। माओ द्वारा 1965 में छेड़ी गई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति इसी संघर्ष का नतीजा था, जो उन्होंने अपने आलोचकों का सामना करने के लिए शुरू की। पुरानी संस्कृति, पुराने रिवाज़ों, और पुरानी आदतों के खिलाफ़ अभियान छेड़ने के लिए रेड गाड्ρस - मुख्यतः छात्रों और सेना - का इस्तेमाल किया गया। छात्रों और पेशेवर लोगों को जनता से ज्ञान हासिल करने के लिए ग्रामीण इलाकों में भेजा गया। विचारधारा (साम्यवादी होना) पेशेवर ज्ञान से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थी। दोषारोपण और नारेबाज़ी ने तर्कसंगत बहस की जगह ले ली।
सांस्कृतिक क्रांति से खलबली का दौर शुरू हो गया, पार्टी कमज़ोर हो गई और अर्थव्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था में भारी रुकावट आई। 1960 के उत्तरार्ध से प्रवाह बदलने लगा। 1975 में एक बार फिर पार्टी ने अधिक सामाजिक अनुशासन और औद्योगिक अर्थव्यवस्था का निर्माण करने पर ज़ोर दिया ताकि चीन शताब्दी के खत्म होने से पहले एक शक्तिशाली देश बन सके।
1978 से शुरू होने वाले सुधार
साँस्कृतिक क्रांति के बाद राजनीतिक दाव-पेचों की प्रक्रिया शुरू हुई। तंग शीयाओफींग ने पार्टी पर नियंत्रण मज़बूत बनाए रखा और साथ ही देश में समाजवादी बाज़ार अर्थव्यवस्था की शुरुआत की। 1978 में पार्टी ने आधुनिकीकरण के अपने चार सूत्री लक्ष्य की घोषणा की। यह था,
विज्ञान, उद्योग, कृषि और रक्षा का विकास। पार्टी से सवाल-जवाब न करने की हद तक बहस की इजाज़त थी।
इस नए और आज़ाद वातावरण में, जैसे कि 60 साल पहले 4 मई के आंदोलन के समय था, नये विचारों का रोमांचकारी भंडार फूट पड़ा। 5 दिसंबर 1978 को दीवार पर लगे एक पोस्टर ने पाँचवीं आधुनिकता का दावा किया कि लोकतंत्र के बिना अन्य आधुनिकताएँ कुछ भी नहीं बन पाएँगी। उसने गरीबी न हटाने और लैंगिक शोषण खत्म न कर पाने के लिए सी. सी. पी. की आलोचना की। इसके लिए उसने पार्टी के अंदर से ही एेसे दुर्व्यवहारों के उदाहरण पेश किए।
1978 के सुधारों के बाद चीनी लोग स्वच्छंद रूप से उपभोक्ता सामग्री खरीदने में समर्थ होने लगे।
इन मांगों को दबाया गया लेकिन 1989 में, 4 मई के आंदोलन की 70वीं सालगिरह पर बहुत से बुद्धिजीवियों ने ज़्यादा खुलेपन के और कड़े सिद्धांतों (शू-शाओझी) को खत्म करने की माँग की। बीजिंग के तियानमेन चौक पर छात्रों के प्रदर्शन को क्रूरतापूर्वक दबाया गया। दुनिया भर में इसकी कड़ी आलोचना हुई।
सुधार के बाद के समय में चीन के विकास के विषय पर दुबारा बहस शुरू हुई। पार्टी द्वारा समर्थित प्रधान मत मज़बूत राजनीतिक नियंत्रण, आर्थिक खुलेपन और विश्व बाज़ार से जुड़ाव पर आधारित है। आलोचकों का कहना है कि सामाजिक गुटों, क्षेत्रों, पुरुषों और महिलाओं के बीच बढ़ती हुई असमानताओं से सामाजिक तनाव बढ़ रहा है और बाज़ार पर जो भारी महत्त्व दिया जा रहा है उस पर सवाल खड़े कर रहा है। अंत में, पहले के पारंपरिक विचार पुनर्जीवित हो रहे हैं। जैसे कि कंफ्यूशियसवाद और यह तर्क कि पश्चिम की नकल करने के बजाए चीन अपनी परंपरा पर चलते हुए एक आधुनिक समाज बना सकता है।
ताइवान का किस्सा
चीनी साम्यवादी दल द्वारा पराजित होने के बाद चियांग काई-शेक 30 करोड़ से अधिक अमरीकी डॉलर और बेशकीमती कलाकृतियाँ लेकर 1949 में ताइवान भाग निकले। वहाँ उन्होंने चीनी गणतंत्र की स्थापना की। 1894-95 में जापान के साथ हुई लड़ाई में यह जगह चीन को जापान के हाथ में सौंपनी पड़ी थी और तब से वह जापानी उपनिवेश बनी हुई थी। कायरो घोषणापत्र (1943) और पोट्सडैम उद्घोषणा (1949) के द्वारा चीन को संप्रभुता वापस मिली।
फरवरी 1947 में हुए ज़बर्दस्त प्रदर्शनों के बाद कुओमीनतांग ने नेताओं की एक पूरी पीढ़ी की निर्ममतापूर्वक हत्या करवा दी। चियांग काई-शेक के नेतृत्व में कुओमीनतांग ने एक दमनकारी सरकार की स्थापना की, बोलने की और राजनीतिक विरोध करने की आज़ादी छीन ली और सत्ता की जगहों से स्थानीय आबादी को पूरी तरह बाहर कर दिया। फिर भी उन्होंने भूमि सुधार लागू किया, जिसके चलते खेती की उत्पादकता बढ़ी। उन्होंने अर्थव्यवस्था का भी आधुनिकीकरण किया, जिसके चलते 1973 में कुल राष्ट्रीय उत्पाद के मामले में ताइवान पूरे एशिया में जापान के बाद दूसरे स्थान पर रहा। अर्थव्यवस्था, जो मुख्यतः व्यापार पर आधारित थी, लगातार वृद्धि करती गई। लेकिन अहम बात यह है कि अमीर और गरीब के बीच का भी अंतराल लगातार घटता गया है।
ताइवान का एक लोकतंत्र में रूपांतरण और भी नाटकीय रहा है। यह 1975 में चियांग की मौत के बाद धीरे-धीरे शुरू हुआ और 1887 में जब फौजी कानून हटा लिया गया तथा विरोधी दलों को कानूनी इजाज़त मिल गई, तब इस प्रक्रिया ने गति पकड़ी। पहले स्वतंत्र मतदान ने स्थानीय ताइवानियों को सत्ता में लाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। राजनयिक स्तर पर अधिकांश देशों के व्यापार मिशन केवल ताइवान में ही हैं। उनके द्वारा ताइवान में पूर्ण राजनयिक संबंध और दूतावास रखना संभव नहीं, क्योंकि ताइवान को चीन का ही एक हिस्सा माना जाता है।
मुख्य भूमि के साथ पुनःएकीकरण का प्रश्न अभी भी विवादास्पद मुद्दा होकर रहा है यद्यपि ‘खाड़ी-पार’ के संबंध (चीन और ताइवान के मध्य) सुधर रहे हैं, ताइवानी व्यापार और निवेश मुख्य भूमि में बड़े पैमाने पर हो रहा है और आवागमन कहीं अधिक सहज हो गया है। संभवतः चीन ताइवान को एक अर्धस्वायत्त क्षेत्र के रूप में स्वीकार कर लेने में सहमत हो जाएगा अगर ताइवान पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कोई कदम उठाने से परहेज़ करता है।
कोरिया की कहानी
आधुनिकीकरण की शुरुआत
उन्नीसवीं सदी के अंत में, कोरिया के जोसोन वंश (1392-1910) ने आंतरिक और सामाजिक संघर्ष का सामना किया और इसके साथ ही उसे चीन, जापान और पश्चिमी देशों का विदेशी दबाव भी सहना पड़ा। इन सबके बीच कोरिया ने अपनी सरकारी संरचनाओं, राजनयिक संबंधों, बुनियादी ढाँचे एवं समाज के आधुनिकीकरण के लिए सुधार नीतियाँ लागू कीं। दशकों के राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद, साम्राज्यवादी जापान ने 1910 में अपनी कॉलोनी के रूप में कोरिया पर जबरन कब्ज़ा कर लिया, जिससे 500 वर्ष से अधिक समय से चले आ रहे जोसोन राजवंश का अंत हो गया, किंतु कोरियाई लोग जापानियों द्वारा किए जा रहे कोरियाई संस्कृति एवं नैतिक मूल्यों के दमन से काफ़ी नाराज़ थे। आज़ादी के इच्छुक कोरियाई लोगों ने जापानी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ़ प्रदर्शन किया, उन्होंने एक अस्थायी सरकार की स्थापना की और कैरो, याल्टा और पॉट्सडैम सम्मेलनों जैसी अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में विदेशी नेताओं से अपील करने के लिए प्रतिनिधि मंडल भेजे।
जापान से स्वतंत्रता का जश्न मनाते हुए कोरियाई
जापानी औपनिवेशिक शासन 35 साल के बाद अगस्त 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ समाप्त हुआ, हालाँकि यह कोरिया के भीतरी और बाहरी स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं का लगातार प्रयास था, जो जापान की हार के बाद कोरिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित कर पाया। मुक्ति के बाद कोरियाई उपद्वीप को अस्थायी रूप से 38वीं समानांतर रेखा से दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया। जिसमें उत्तरी क्षेत्र में सोवियत संघ और दक्षिण क्षेत्र में यू.एन. द्वारा संचालन किया गया, किंतु दोनों ही क्षेत्र जापानी सेना को भंग करने के लिए परिश्रम करते रहे, हालाँकि 1948 में उत्तर और दक्षिण में अलग-अलग सरकारें स्थापित होने के साथ, यह विभाजन स्थायी रूप से स्थापित हो गया।
युद्धोेत्तर राष्ट्र
जून 1950 में कोरियाई युद्ध शुरू हुआ। दक्षिण कोरिया में अमेरिकी अगुवाई वाली संयुक्त राष्ट्र सेना और उत्तर कोरिया में कम्युनिस्ट चीन सेना के समर्थन से शीत युद्ध काल का एक छद्म युद्ध शुरू हुआ। जुलाई 1953 में तीन साल बाद, यह युद्ध युद्धविराम समझौते से समाप्त हुआ। कोरिया हमेशा के लिए विभाजित हो गया था। कोरियाई युद्ध से न केवल बड़े पैमाने पर जीवन और संपत्ति का नुकसान हुआ, बल्कि मुक्त बाज़ार आर्थिक विकास और लोकतंत्रीकरण भी धीमी गति से हुआ। युद्ध के दौरान जारी की गई मुद्रा एवं राष्ट्रीय खर्च के कारण मुद्रास्फ़ीति से कीमतें अचानक बढ़ गईं। इसके अलावा, औपनिवेशिक काल के दौरान निर्मित औद्योगिक सुविधाओं को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया। नतीजन, दक्षिण कोरिया को अमेरिका की आर्थिक सहायता लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
यद्यपि, दक्षिण कोरिया के पहले राष्ट्रपति सिन्गमैन री, 1948 में कोरियाई युद्ध के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से चुने गए थे, लेकिन उन्होंने अवैध संवैधानिक संशोधन के माध्यम से दो बार अपना प्रशासन काल बढ़ाया। अप्रैल 1960 में नागरिकों ने इस तरह की धाँधली से होने वाले चुनावों के खिलाफ़ विरोध किया और री को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसको कोरिया में ‘अप्रैल क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है।
एक प्रोत्साहन के रूप में शुरू हुई इस क्रांति से री के प्रशासन काल के दौरान लोगों की दबी हुई भावनाएँ, प्रदर्शनों और माँगों के रूप में उठने लगीं। हालाँकि, री प्रशासन के इस्तीफ़े के बाद स्थापित हुई लोकतांत्रिक पार्टी की सत्ता, आंतरिक विभाजन और संघर्ष के चलते नागरिकों की माँगों का उचित उत्तर नहीं दे पाई, बल्कि सुधारवादी राजनीतिक शक्तियाँ उभरीं और छात्र आंदोलनों ने एकीकरण आंदोलनों का रूप ले लिया। सेना के अधिकारियों द्वारा इसको समर्थन नहीं मिला। मई 1961 में जनरल, ‘पार्क चुंग-ही’ और अन्य सैन्य अधिकारियों के सैन्य तख्तापलट द्वारा लोकतांत्रिक पार्टी की सरकार को उखाड़ फेंका गया।
तीव्र औद्योगिकीकरण एवं मज़बूत नेतृत्व
अक्तूबर 1963 के चुनाव में सैन्य नेता ‘पार्क चुंग-ही’ राष्ट्रपति बने। पार्क-प्रशासन ने देश में आर्थिक विकास के लिए, एक राज्य-आधारित, निर्यात-उन्मुख नीति अपनाई। सरकार की पाँच वर्षीय आर्थिक योजनाओं ने बड़े कॉरपोरेट फ़र्मों का समर्थन किया, रोज़गार के विस्तार पर भारी ज़ोर दिया और कोरिया की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा दिया।
1960 के दशक से कोरिया का अभूतपूर्व आर्थिक विकास शुरू हुआ, जब राज्य नीति आयात प्रतिस्थापन औद्योगिकी (आई.एस.आई.) से निर्यात पर केंद्रित हो गई। निर्यात उन्मुख नीति के तहत सरकार ने श्रम घनिष्ठ हलके औद्योगिक उत्पादों, जैसे वस्त्रों पर अपना ध्यान केंद्रित किया, जिसमें कोरिया का तुलनात्मक लाभ था। 1960 और 1970 के दशक के दौरान, पुनः लघु उद्योगों से उच्च मूल्यवर्धित भारी और रासायनिक उद्योगों पर ध्यान केंद्रित किया गया। इस्पात, अलौह धातु, मशीनरी, जहाज़ निर्माण, इलैक्ट्रॉनिक्स और रासायनिक उत्पादन को आर्थिक विकास की दौड़ में सबसे महत्वपूर्ण उद्योगों के रूप में चुना गया।
1970 में ग्रामीण जनसंख्या को प्रोत्साहन और कृृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण के लिए नया गाँव (सैमौल) आंदोलन की शुरुआत हुई। इस अभियान का उद्देश्य लोगों को
निष्क्रिय और निराशावान जीवन से सक्रिय और आशावान बनाना था। इस अभियान द्वारा ग्रामीण लोगों को अपने गाँवों के विकास और समुदाय की जीवन शैली को सुधारने के लिए सशक्त किया गया। आगे जाकर इस अभियान का औद्योगिक संयंत्रों और शहरी क्षेत्रों के आस-पास के इलाकों के विकास के लिए विस्तार किया गया। आज कोरिया अन्य विकासशील देशों के साथ जो अपने विकास प्रयासों में सैमौल आंदोलन के सिद्धांतों को अपनाना चाहते हैं, इस आंदोलन से प्राप्त ज्ञान और अनुभव बाँट रहा है।
मज़बूत नेताओं, प्रशिक्षित अफ़सरों, आक्रामक उद्योगपतियों और सक्षम श्रम बल के संयोजन से कोरिया आज सारे विश्व को अपनी आर्थिक वृद्धि से चौंका रहा है। महत्वाकांक्षी उद्यमी, सरकारी प्रोत्साहनों से निर्यात को बढ़ाने और नए उद्योगों के विकास में सक्षम रहे।
उच्च स्तर की शिक्षा ने भी कोरिया के आर्थिक विकास में योगदान दिया। कोरिया के औद्योगिकीकरण की शुरुआत से ही, लगभग सभी कोरियाई श्रमिक दल पहले से ही साक्षर थे और प्रगति के नए कौशल प्राप्त करने के लिए तैयार थे। इसके साथ-साथ, कोरिया ने अपनी खुली आर्थिक नीति के द्वारा अन्य देशों के अधिक उन्नत संस्थानों और तकनीकों को अपने देश में लाना शुरू कर दिया था। विदेशी निवेश और कोरिया की उच्च घरेलू बचत दर ने औद्योगिक क्षेत्रों को विकसित करने में मदद की, जबकि विदेशों में दक्षिण कोरियाई श्रमिकों के प्रेषण ने भी समग्र आर्थिक विकास में योगदान दिया।
पार्क प्रशासन की दीर्घकालिक शक्ति का आधार कोरिया का आर्थिक विकास था। पार्क के द्वारा किए गए संविधान संशोधन से वह तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव में खड़े हुए और 1971 में उन्हें पुनः चुना गया। अक्तूबर 1972 में, पार्क ने यूसिन संविधान घोषित करके कार्यान्वित किया, जिसने स्थायी अध्यक्षता को संभव बनाया। यूसिन संविधान के तहत, राष्ट्रपति को कानून के क्षेत्राधिकार और प्रशासन पर पूर्ण अधिकार था और किसी भी कानून को ‘‘आपातकालीन नियम’’ के रूप में निरस्त करने का भी एक संवैधानिक अधिकार था।
राष्ट्रपति को पूर्ण अधिकार प्रणाली के साथ, देश के आर्थिक विकास में प्रगति के लिए लोकतंत्र एक तरह से अस्थायी रूप में निलंबित हो गया। हालाँकि 1979 में दूसरे तेल संकट से देश की आर्थिक नीतियों जोकि भारी रासायनिक उद्योग में मुख्य निवेश रखती थीं, में काफ़ी बाधाएँ आईं। इसके साथ-साथ, छात्रों, विद्वानों और विपक्ष ने लगातार यूसिन संविधान के खिलाफ़ प्रदर्शन किया, क्योंकि पार्क प्रशासन ने आपातकालीन उपायों के आह्वान और राजनैतिक अस्थिरता का दमन कर दिया था। इस आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता के बीच पार्क का प्रशासन अक्तूबर 1979 में ‘पार्क चुंग-ही’ की हत्या के साथ खत्म
हो गया।
लोकतंत्रीकरण की माँग और निरंतर आर्थिक विकास
लोकतंत्रीकरण की इच्छा ‘पार्क चुंग-ही’ की मृत्यु के साथ बढ़ी, लेकिन दिसंबर 1979 में फिर एक बार, एक सैन्य नेता ‘चुन डू-हवन’ की अगुवाई में सैन्य तख्तापलट का मंच तैयार हुआ। मई 1980 में, चुन के सैन्य गुट के विरुद्ध लोकतंत्र की माँग करने वाले छात्रों और नागरिकों द्वारा राष्ट्र के प्रमुख शहरों में विभिन्न विरोध प्रदर्शन हुए। सैन्य दल ने पूरे देश में मार्शल कानून को लागू करके लोकतंत्र आंदोलन को दबा दिया। किंतु ग्वांगजू शहर में, विशेष रूप से, छात्र और नागरिक लगातार मार्शल कानून को समाप्त करने की माँग करते रहे। हालाँकि, चुन के सैन्य दल ने लोकतंत्रीकरण के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों की आवाज़ को दबा दिया। उसी वर्ष के अंत में, चुन यूसुइन संविधान के तहत एक अप्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से राष्ट्रपति बने।
चुन प्रशासन ने अपनी सरकार को स्थिर बनाने के लिए, लोकतांत्रिक प्रभाव का मज़बूती से दमन किया। हालाँकि, चुन प्रशासन ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक दृष्टिकोण से, कोरिया के आर्थिक विकास को 1980 के 1.7 प्रतिशत से बढ़ाकर 1983 तक 13.2 प्रतिशत कर दिया और मुद्रास्फ़ीति को भी कम कर दिया। आर्थिक विकास ने शहरीकरण, शिक्षा के स्तर में सुधार और मीडिया की प्रगति को जन्म दिया। इसके फलस्वरूप नागरिकों में अपने राजनीतिक अधिकारों की आत्म-जागरूकता बढ़ी, जिससे राष्ट्रपति के प्रत्यक्ष चुनाव के लिए संवैधानिक संशोधन की माँग की गई।
मई 1987 में, एक विश्वविद्यालय के छात्र की अत्याचारों से हुई मौत की घटना के बाद नागरिकों ने लोकतंत्रीकरण के लिए बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए, जिसको चुन प्रशासन ने दबाने की कोशिश की। इसके बाद चुन सरकार के खिलाफ़ लोकतंत्रीय आंदोलन में न केवल छात्रों, बल्कि मध्यवर्ग के नागरिकों ने भी भाग लिया। इन प्रयासों के चलते, चुन प्रशासन को संविधान में संशोधन करने के लिए मजबूर होना पड़ा और नागरिकों को सीधे चुनाव का अधिकार मिला। कोरियाई लोकतंत्र का एक नया अध्याय इस प्रकार से शुरू हुआ।
कोरियाई लोकतंत्र और आई.एम.एफ़. संकट
नए संविधान के अनुसार, 1971 के बाद से पहला प्रत्यक्ष चुनाव दिसंबर 1987 में हुआ, लेकिन विपक्षी पार्टियों की एकजुटता में विफलता के कारण, चुन के सैन्य दल के एक साथी सैन्य नेता, ‘रोह ताए-वू’ का चुनाव हुआ। हालाँकि, कोरिया में लोकतंत्र जारी रहा। 1990 में, लंबे समय से विपक्षी नेता रह चुके, ‘किम यंग-सैम’ ने एक बड़ी सत्तारूढ़ पार्टी बनाने के लिए रोह की पार्टी से समझौता किया। दिसंबर 1992 में, दशकों से चल रहे सैन्य शासन के बाद, एक नागरिक नेता, किम को राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया। नए चुनावों एवं सत्तावादी सैन्य शक्ति के विघटन के फलस्वरूप, एक बार फिर लोकतंत्र की शुरुआत हुई।
जून, 1987 के लोकतंत्र आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारी
नए प्रशासन की निर्यात नीति के तहत, सैमसंग, हुंडई और एलजी सहित कुछ कंपनियाँ, 1990 की शुरुआत तक वैश्विक प्रमुखता के स्तर तक पहुँच चुकी थीं। सरकारी समर्थन के साथ, कोरियाई कंपनियों ने पूंजी प्रधान व्यवसाय और रासायनिक उद्योगों के साथ-साथ इलैक्ट्रॉनिक उद्योगों में भी निवेश करना शुरू किया, दूसरी ओर सरकार ने औद्योगिक और सामाजिक बुनियादी ढाँचे के निर्माण पर ध्यान देना जारी रखा।
इस बीच, कोरिया के बाज़ार को अन्य देशों के लिए, खोलने के लिए नव-उदारवादी दबाव में किम प्रशासन ने 1996 में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओ.ई.सी.डी.) में शामिल होने का निर्णय लिया और कोरिया की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को मज़बूत करने का प्रयास शुरू किया, लेकिन व्यापार घाटे में बढ़ोतरी, वित्तीय संस्थानों द्वारा खराब प्रबंधन, संगठनों द्वारा बेईमान व्यापारिक संचालन के कारण कोरिया को 1997 में विदेशी मुद्रा संकट का सामना करना पड़ा। इस संकट को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ़.) द्वारा आपात वित्तीय सहायता के ज़रिए संभालने की कोशिश की गई। यही नहीं, इस आर्थिक संकट में पूरे देश ने एक साथ प्रयास किए, नागरिकों ने गोल्ड कलेक्शन मूवमेंट के माध्यम से विदेशी ऋण भुगतान के लिए सक्रिय रूप से योगदान दिया।
दिसंबर 1997 में, एक लंबे समय के बाद कोरिया में पहली बार शांतिपूर्ण हस्तांतरण के द्वारा विपक्षी पार्टी के नेता किम डे-जुंग सत्ता में आए। सत्ता में दूसरा शांतिपूर्ण हस्तांतरण 2008 में हुआ, जब रूढ़िवादी पार्टी के नेता ली माइंग-बाक, प्रगतिशील पार्टी रोह मु-ह्यून प्रशासन के बाद अध्यक्ष चुने गए। 2012 में, रूढ़िवादी पार्टी की नेता पार्क खन-हे पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में चुनी गईं। उनके पिता, पार्क चुंग-ही की राजनीतिक विरासत के कारण उन्हें अपने कार्यकाल की शुरुआत में बहुत समर्थन प्राप्त हुआ, लेकिन अक्तूबर 2016 में जब यह बात उठी कि उनके स्थान पर उनके एक नज़दीकी मित्र गुप्त रूप से सरकारी मामलों का प्रबंधन करते थे, तब राष्ट्रव्यापी विरोध एवं प्रदर्शनों के फलस्वरूप, मार्च 2017 में उन पर महाभियोग चला और उन्हें कार्यालय से हटा दिया गया। मई 2017 में, तीसरी बार शांतिपूर्ण हस्तांतरण के द्वारा, मून जे-इन ने राष्ट्रपति पद संभाला।
वर्तमान कालीन सियोल शहर
2016 में नागरिकों के नेतृत्व में किए गए, कैंडललाइट विरोध में देश के लोकतांत्रिक कानून और प्रणालियों की सीमाओं के भीतर राष्ट्रपति के इस्तीफ़े की माँग कर रहे नागरिकों का शांतिपूर्वक प्रदर्शन, कोरियाई लोकतंत्र की परिपक्वता को दर्शाता है। कोरियाई लोकतंत्र आर्थिक विकास का कर्ज़दार है, लेकिन यह देश के गणतंत्रवाद को प्रोत्साहित करने वाले कोरियाई नागरिकों की राजनीतिक जागरूकता ही है, जिसने आज इस देश को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
आधुनिकता के दो मार्ग
औद्योगिक समाजों ने एक-दूसरे के जैसे बनने की बजाए आधुनिकता के अपने-अपने मार्ग बनाए। ताइवान का किस्सा और कोरिया की कहानी के साथ-साथ चीन और जापान का इतिहास दिखाता है कि किस तरह अलग-अलग एेतिहासिक परिस्थितियों ने आज़ाद और आधुनिक देश बनाने की बिलकुल अलग राहें तैयार कीं। जापान अपनी आज़ादी बनाए रखने में सफल रहा और पारंपरिक हुनर और प्रथाआें को नए तरीके से इस्तेमाल कर पाया। तथापि कुलीन वर्ग के नेतृत्व में हुए आधुनिकीकरण ने एक उग्र राष्ट्रवाद को जन्म दिया और एक शोषणकारी सत्ता को बरकरार रखा जिसने विरोध और लोकतंत्र की माँग का गला घोंट दिया। उसने एक औपनिवेशिक साम्राज्य की स्थापना की जिससे उस क्षेत्र में बैर की भावना बनी रही और अंदरूनी विकास भी प्रभावित हुआ।
जापान का आधुनिकीकरण एेसे वातावरण में हुआ जहाँ पश्चिमी साम्राज्यवादी ताक़तों का प्रभुत्त्व था। हालांकि जापान ने उनकी नकल की, पर साथ ही अपने हल ढूँढ़ने की कोशिश भी की। जापानी राष्ट्रवाद पर इन मज़बूरियों का प्रभाव है-एक ओर जहाँ जापानी एशिया को पश्चिमी आधिपत्य से मुक्त रखने की उम्मीद करते थे, दूसरे लोगों के लिए यही विचार साम्राज्य का निर्माण करने के लिए महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुए।
यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि सामाजिक और राजनीतिक संस्थानों के सुधार और रोज़मर्रा की ज़िंदगी को बदलने के लिए केवल परंपराओं को पुनर्जीवित करने या ज़बरदस्ती उन्हें पकड़े रखने या सँभालने का सवाल नहीं था बल्कि उन्हें नए और अलग रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल करने की बात थी। उदाहरण के लिए, मेजी स्कूली पद्धति ने यूरोपीय और अमरीकी प्रथाओं के अनुरूप नये विषयों की शुरुआत की। किंतु पाठ्यचर्या का मुख्य उद्देश्य निष्ठावान नागरिक बनाना था। नैतिकशास्त्र का विषय पढ़ना अनिवार्य था जिसमें सम्राट के प्रति वफ़ादारी पर ज़ोर दिया जाता था। इसी तरह परिवार में और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आए बदलाव विदेशी और देशी विचारों को मिला कर कुछ नया बनाने की कोशिश को दर्शाते हैं।
चीन का आधुनिकीकरण का सफ़र बहुत अलग था। पश्चिमी और जापानी, दोनों ही किस्म के विदेशी साम्राज्यवाद ने सारे नियंत्रण को कमज़ोर बनाया और राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था तोड़ने के लिए माहौल बना दिया। इसके चलते ज़्यादातर लोगों को बहुत से दुख-दर्द सहने पड़े। युद्ध सामंतवाद, लूटमार और गृह-युद्ध ने बहुत से लोगों की जान ले ली। जापानी हमले की बर्बरता से भी भारी तादाद में लोगों की जानें गईं। प्राकृतिक त्रासदियों ने बोझों को और बढ़ा दिया।
19वीं और 20वीं शताब्दी में परंपराओं को ठुकराया गया और राष्ट्रीय एकता तथा सुदृढ़ता निर्मित करने के रास्तों की तलाश की गई। चीन के साम्यवादी दल और उसके समर्थकों ने परंपरा को खत्म करने की लड़ाई लड़ी। उन्हें लगा कि परंपरा जनसमुदाय को गरीबी में जकड़े हुए है, महिलाओं को अधीन बनाती है और देश को अविकसित रखती है। साम्यवादी दल ने लोगों को अधिकार एवं सत्ता देने की बात की परन्तु वास्तव में उसने बहुत ही केंद्रीकृत राज्य की स्थापना की। साम्यवादी कार्यक्रम की सफलता ने उम्मीद का वादा किया लेकिन दमनकारी राजनीतिक व्यवस्था ने मुक्ति और समानता के आदर्शों को एेसी नारेबाज़ी में बदल दिया, जो लोगों को चालाकी से प्रभावित कर अपने काबू में लाने में काम आती थी। तथापि इससे शताब्दियों पुरानी असमानताएँ हट गईं, शिक्षा का विस्तार हुआ और जनता के बीच एक जागरूकता पैदा हुई।
पार्टी ने अब बाज़ार संबंधी सुधार किए और चीन को आर्थिक दृष्टि से ताकतवर बनाने में कामयाब हुई, जबकि राजनीतिक व्यवस्था अब भी कड़े नियंत्रण में है। अब समाज बढ़ती असमानताओं का सामना कर रहा है और सदियों से दबी परंपराएँ पुनर्जीवित होने लगी हैं। यह नयी स्थिति एक बार फिर यह सवाल खड़ा करती है कि चीन किस तरह अपनी धरोहर को बरकरार रखते हुए अपना विकास कर सकता है।
अभ्यास
संक्षेप में उत्तर दीजिए
1. मेजी पुनर्स्थापना से पहले की वे अहम घटनाएँ क्या थीं, जिन्होंने जापान के तीव्र आधुनिकीकरण को संभव किया?
2. जापान के विकास के साथ-साथ वहाँ की रोज़मर्रा की जिं़दगी में किस तरह बदलाव आए? चर्चा कीजिए।
3. पश्चिमी ताकतों द्वारा पेश की गई चुनौतियों का सामना छींग राजवंश ने कैसे किया?
4. सन यात-सेन के तीन सिद्धांत क्या थे?
5. कोरिया ने 1997 में विदेशी मुद्रा संकट का सामना किस प्रकार किया
संक्षेप में निबंध लिखिए
6. क्या पड़ोसियों के साथ जापान के युद्ध और उसके पर्यावरण का विनाश तीव्र औद्योगीकरण की जापानी नीति के चलते हुआ?
7. क्या आप मानते हैं कि माओ त्सेतुंग और चीन के साम्यवादी दल ने चीन को मुक्ति दिलाने और इसकी मौजूदा कामयाबी की बुनियाद डालने में सफलता प्राप्त की?
8. क्या साउथ कोरिया की आर्थिक वृद्धि ने इसके लोकतंत्रीकरण में योगदान दिया?
निष्कर्ष
विश्व इतिहास के कुछ विषयों पर इस पुस्तक ने आपका परिचय एक लंबी कालावधि से कराया जिसे प्राचीन, मध्य व आधुनिक युगों में बाँटा जा सकता है। मानव उद्भव और विकास के कुछ प्रमुख विषय इस पुस्तक के केंद्र बिंदु रहे हैं। अलग-अलग अनुभागों में निम्नलिखित, क्रमशः लघुतर कालखंडों की चर्चा की गई-
i. 60 लाख वर्ष पूर्व से 400 ई.पू.
ii. 400 ई.पू. - 1300 ई.
iii 800 - 1700 ई.
iv 1700 - 2000 ई.
इतिहासकार प्रायः प्राचीन, मध्यकालीन या आधुनिक युग के विशेषज्ञ होते हैं, किंतु सर्वत्र इतिहासकार के शिल्प की कुछ सामान्य विशेषताएँ और समस्याएँ होती हैं। हमने प्राचीन, मध्य और आधुनिक युगों के बीच के अंतरों को मद्धम करने का प्रयत्न किया है, ताकि इतिहास कैसे लिखा जाता है और उसकी विवेचना कैसे की जाती है, इसका एक समग्र बोध प्राप्त हो। इसका उद्देश्य आपको पूरे मानव इतिहास की सामान्य समझ देना भी है - वह इतिहास, जो हमारी आधुनिक जड़ों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा गहरे जाता है।
इस पुस्तक से आपको अप्ऱηीका, पश्चिम तथा मध्य एशिया, पूर्वी एशिया, अॉस्ट्रेलिया, उत्तर तथा दक्षिण अमरीका तथा युनाइटेड किंगडम सहित यूरोप के इतिहास की एक झलक मिली होगी। इसने आपको ‘केस स्टडी’ पद्धति से परिचित कराया होगा। इन स्थानों के विस्तृत इतिहास के वर्णन का बोझ आप पर लादने की बजाय कुछ परिघटनाओं के मुख्य उदाहरणों का अध्ययन हमें बेहतर लगा।
विश्व इतिहास कई तरह से लिखा जा सकता है। इनमें से एक शायद सबसे पुराना तरीका लोगाें के बीच संपर्क पर ध्यान केंद्रित करना है ताकि संस्कृतियों तथा सभ्यताओं के परस्पर संबंधों पर बल दिया जा सके और विश्व एेतिहासिक परिवर्तन के बहुआयामी पक्षों का अन्वेषण किया जा सके। एक अन्य तरीका सापेक्षतः स्वावलंबी किंतु विस्तृत होते आर्थिक विनिमय के क्षेत्रों की पहचान करना है, जो संस्कृति और सत्ता के कुछ रूपों को बनाए रखते हैं। राष्ट्रों और क्षेत्रों के एेतिहासिक अनुभवों में अंतर स्पष्ट कर उनकी विशिष्टताओं को उभारना तीसरी विधि है। आपको इन तीनों विधियों के संकेत इस पुस्तक में मिले होंगे। किंतु समाजों (तथा व्यक्तियों) में विभिन्नताओं के साथ-साथ उनमें समानताएँ भी परिलक्षित होती हैं। मानव समुदायों के बीच अंतर्संबंध और समानताएँ हमेशा से रही हैं। वैश्विक तथा स्थानीय (‘रेत के कण में विश्व’), ‘मुख्यधारा’ तथा ‘हाशिया’, सामान्य तथा विशिष्ट के आपसी संबंधों के बारे में आपने इस पुस्तक से जो कुछ सीखा होगा, वह इतिहास के अध्ययन का एक आकर्षक पहलू है।
हमारा विवरण अफ़्रीका, एशिया तथा यूरोप में बिखरी बस्तियों से शुरू हुआ था। वहाँ से हम मेसोपोटामिया के शहरी जीवन की ओर बढ़े। आरंभिक साम्राज्य मेसोपोटामिया, मिस्र, चीन, फ़ारस तथा भारत में शहरों के ही इर्द-गिर्द बने थे। इसके बाद इनसे अधिक विस्तृत यूनानी (मकदूनियाई), रोमन, अरब तथा (1200 से) मंगोल साम्राज्य बने। इन साम्राज्यों में व्यापार-प्रणालियाँ, प्रौद्योगिकी तथा शासन अक्सर अत्यधिक जटिल होते थे। ज़्यादातर वे एक लिखित भाषा के प्रभावी प्रयोग पर निर्भर थे।
दूसरे सहस्राब्दि के मध्य में (1400 ई. से) पश्चिमी यूरोप में प्रौद्योगिकीय और संगठनात्मक बदलावों के कारण मानव इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। ये सभ्यता के ‘पुनर्जागरण’ या ‘पुनर्जन्म’ से जुड़े थे। इनका शुरुआती असर उत्तरी इटली में हुआ, लेकिन जल्दी ही यह पूरे यूरोप में फैल गया। यह पुनर्जागरण उस क्षेत्र के नगरीय जीवन और भूमध्यसागर की मुस्लिम दुनिया तथा बाइज़ेंटाइन के साथ आदान-प्रदान का नतीजा था। समय के साथ सोलहवीं सदी में विचार तथा खोज अन्वेषकों तथा विजेताओं के साथ अमरीका (उत्तर और दक्षिण) पहुँच गए। इनमें से कुछ विचार बाद में जापान, भारत और दूसरी जगहों तक भी पहुँचे।
विश्व-व्यापार, राजनीति तथा संस्कृति में यूरोप का वर्चस्व अभी क़ायम नहीं हुआ था। यह अठारहवीं तथा उन्नीसवीं सदी की विशेषता बनी, जब ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति हुई और शेष यूरोप में फैल गई। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने अप्ऱηीका तथा एशिया के कुछ हिस्सों पर औपनिवेशिक सत्ता हासिल कर ली जो पुराने साम्राज्यों से अधिक शक्तिशाली थी। बीसवीं सदी के मध्य तक जिस प्रौद्योगिकी, आर्थिक जीवन और संस्कृति ने कभी यूरोपीय राष्ट्रों को शक्ति प्रदान की थी, वे अलग-अलग रूपों में शेष विश्व में फैल चुके थे और इन्होंने आधुनिक जीवन की नींव रखी।
आपने विभिन्न अध्यायों में उद्धृत अंशों को देखा होगा। इनमें कई एेसे स्रोतों से लिए गए हैं, जिन्हें इतिहासकार ‘प्राथमिक स्रोत’ कहते हैं। विद्वान एेसी ही सामग्रियों से अपने ‘तथ्य’ हासिल कर इतिहास रचते हैं। वे इनका आलोचनात्मक अध्ययन करते हैं और इन स्रोतों की अस्पष्टता पर विशेष ध्यान देते हैं। एक ही स्रोत का प्रयोग करनेवाले इतिहासकार भिन्न बल्कि विपरीत राय पेश कर सकते हैं। दूसरे मानव विज्ञानों की भांति इतिहास से भी अलग-अलग तरह की बातें कहलवाई जा सकती हैं। यह एेतिहासिक तथ्यों और इतिहासकार के तर्कों के बीच जटिल संबंध की वजह से है।
विद्यालय के अंतिम वर्ष में आप भारतीय (या दक्षिण एशियाई) इतिहास में हड़प्पा युग से आधुनिक भारत के संविधान बनने तक के इतिहास के कुछ पहलुओं का अध्ययन करेंगे। एक बार फिर राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के विवेकपूर्ण मिश्रण पर बल होगा जो आपको केस-स्टडी पद्धति से कुछ चुने हुए विषयों का अध्ययन करने के लिए आमंत्रित करेगा। हमें उम्मीद है कि ये पुस्तकें आपको कई प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने में मदद करेंगी। इनमें से प्रमुख है, ‘इतिहास पढ़ने की ज़रूरत क्या है?’ क्या आपको पता है कि प्रतिभाशाली मध्ययुग विशेषज्ञ मार्क ब्लॉक ने दूसरे विश्वयुद्ध में खाई में रहते हुए लिखी गई अपनी पुस्तक द हिस्टोरियन्स क्राफ्ट की शुरुआत एक छोटे बच्चे के प्रश्न से की थी, ‘डैडी, मुझे बताइए, इतिहास का फ़ायदा क्या है?’