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मनुष्य दो मामलों में अद्वितीय है- उसके पास विवेक होता है और अपनी गतिविधियों में उसे व्यक्त करने की योग्यता होती है। उसके पास भाषा का प्रयोग और एक-दूसरे से संवाद करने की क्षमता भी होती है। अन्य प्राणियों से इतर, मनुष्य अपने अंतरतम भावनाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त कर सकता है; वह जिन्हें अच्छा और वांछनीय मानता है, अपने उन विचारों का साझा कर सकता है और उन पर चर्चा कर सकता है। राजनीतिक सिद्धांत की जड़ें मानव अस्मिता के इन जुड़वा पहलुओं में होती हैं। यह कुछ खास बुनियादी प्रश्नों का विश्लेषण करता है। जैसे, समाज को कैसे संगठित होना चाहिए? हमें सरकार की ज़रूरत क्यों है? सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप कौन-सा है? क्या कानून हमारी आज़ादी को सीमित करता है? राजसत्ता की अपने नागरिकों के प्रति क्या देनदारी होती है? नागरिक के रूप में एक-दूसरे के प्रति हमारी क्या देनदारी होती है?

राजनीतिक सिद्धांत इस तरह के प्रश्नों की पड़ताल करता है और राजनीतिक जीवन को अनुप्राणित करने वाले स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है। यह इनके और अन्य संबद्ध अवधारणाओं के अर्थ और महत्त्व की व्याख्या करता है। यह अतीत और वर्तमान के कुछ प्रमुख राजनीतिक चिंतकों को केंद्र में रखकर इन अवधारणाओं की मौजूदा परिभाषाओं को स्पष्ट करता है। यह विद्यालय, दुकान, बस, ट्रेन या सरकारी कार्यालय जैसी दैनिक जीवन से जुड़ी संस्थाओं में स्वतंत्रता या समानता के विस्तार की वास्तविकता की परख भी करता है। और आगे जाकर, यह देखता है कि वर्तमान परिभाषाएँ कितनी उपयुक्त हैं और कैसे वर्तमान संस्थाओं (सरकार, नौकरशाही) और नीतियों के अनुपालन को अधिक लोकतांत्रिक बनाने के लिए उनका परिमार्जन किया जाय। राजनीतिक सिद्धांत का उद्देश्य नागरिकों को राजनीतिक प्रश्नों के बारे में तर्कसंगत ढंग से सोचने और सामयिक राजनीतिक घटनाओं को सही तरीके से आँकने का प्रशिक्षण देना है।
इस अध्याय में हम परखेंगे कि राजनीति और राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ क्या है और हमें इसका अध्ययन क्यों करना चाहिए?

वाद-विवाद-संवाद
राजनीति क्या है?

1.1 राजनीति क्या है?

आपने देखा होगा कि लोग राजनीति के बारे में अलग-अलग राय रखते हैं। राजनेता और चुनाव लड़ने वाले लोग अथवा राजनीतिक पदाधिकारी कह सकते हैं कि राजनीति एक प्रकार की जनसेवा है। राजनीति से जुड़े अन्य लोग राजनीति को दावपेंच से जोड़ते हैं तथा आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के कुचक्र में लगे रहते हैं। कई अन्य के लिए राजनीति वही है, जो राजनेता करते हैं। अगर वे राजनेताओं को दल-बदल करते, झूठे वायदे और बढ़े-चढ़े दावे करते, विभिन्न तबकों से जोड़तोड़ करते, निजी या सामूहिक स्वार्थों में निष्ठुरता से रत और घृणित रूप में हिंसा पर उतारू होता देखते हैं तो वे राजनीति का संबंध ‘घोटालों’ से जोड़ते हैं। इस तरह की सोच इतनी प्रचलित है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जब हम हर संभव तरीके से अपने स्वार्थ को साधने में लगे लोगों को देखते हैं, तो हम कहते हैं कि वे राजनीति कर रहे हैं। यदि हम एक क्रिकेटर को टीम में बने रहने के लिए जोड़तोड़ करते या किसी सहपाठी को अपने पिता की हैसियत का उपयोग करते अथवा दफ्.तर में किसी सहकर्मी को बिना सोचे-समझे बॉस की हाँ में हाँ मिलाते देखते हैं, तो हम कहते हैं कि वह ‘गंदी’ राजनीति कर रहा है। स्वार्थपरकता के एेसे धंधों से मोहभंग होने पर हम राजनीति से हताश हो जाते हैं। हम कहने लगते हैं ‘‘मुझे राजनीति में रुचि नहीं है या मैं राजनीति से दूर रहता हूँ।’’ केवल साधारण लोग ही राजनीति से निराश नहीं हैं, बल्कि इससे लाभांवित होने और विभिन्न राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले व्यवसायी और उद्यमी भी अपनी मुसीबतों के लिए आये दिन राजनीति को कोसते रहते हैं।

सिनेमा के कलाकार भी अक्सर राजनीति की बुराई करते हैं। यह अलग बात है कि जैसे ही वे इस खेल में सम्मिलित होते हैं वैसे ही वे अपने को इस खेल की ज़रूरतों के अनुसार ढाल लेते हैं।
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इस प्रकार हमारा सामना राजनीति की परस्पर विरोधी छवियों से होता है। क्या राजनीति अवांछनीय गतिविधि है, जिससे हमें अलग रहना चाहिए और पीछा छुड़ाना चाहिए? या यह इतनी उपयोगी गतिविधि है कि बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें इसमें निश्चित ही शामिल होना चाहिए?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीति का संबंध किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने के धंधे से जुड़ गया है। हमें समझने की ज़रूरत है कि राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है। महात्मा गांधी ने एक बार टिप्पणी की थी कि राजनीति ने हमें सांँप की कुंडली की तरह जकड़ रखा है और इससे जूझने के सिवाय कोई अन्य रास्ता नहीं है। राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढाँचे के बगैर कोई भी समाज ज़िंदा नहीं रह सकता। जो समाज अपने अस्तित्व को बचाए रखना चाहता है, उसके लिए अपने सदस्यों की विविध ज़रूरतों और हितों का खयाल रखना आवश्यक होता है। परिवार, जनजाति और आर्थिक संस्थाओं जैसी अनेक सामाजिक संस्थाएँ लोगों की ज़रूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने में सहायता करने के लिए पनपी हैं। एेसी संस्थाएंँ हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को कबूलने में मदद करती हैं। इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकारें कैसे बनती हैं और कैसे कार्य करती हैं, यह राजनीति में दर्शाने वाली महत्त्वपूर्ण बातें है।

लेकिन राजनीति सरकार के कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं होती है। दरअसल, सरकारें जो भी करती हैं वह प्रासंगिक होता है क्योंकि वह लोगों के जीवन को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करता है। हम देखते हैं कि सरकारें हमारी आर्थिक नीति, विदेश नीति और शिक्षा नीति को निर्धारित करती हैं। ये नीतियाँ लोगों के जीवन को उन्नत करने में सहायता कर सकती हैं, लेकिन एक अकुशल और भ्रष्ट सरकार लोगों के जीवन और सुरक्षा को संकट में भी डाल सकती है। अगर सत्तारूढ़ सरकार जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष को हवा देती है तो बाज़ार और स्कूल बंद हो जाते हैं। इससे हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, हम अत्यंत ज़रूरी चीज़ें भी नहीं खरीद सकते, बीमार लोग अस्पताल नहीं पहुँच सकते, स्कूल की समय-सारणी भी प्रभावित हो जाती है, पाठ्यक्रम पूरा नहीं हो पाता और हमें परीक्षा के लिए अतिरिक्त कोचिंग और उसके लिए अतिरिक्त ट्यूशन प्.ाηीस चुकानी पड़ती है। दूसरी ओर, सरकार अगर साक्षरता और रोजगार बढ़ाने की नीतियाँ बनाती है तो हमें अच्छे स्कूल में जाने और बेहतर रोजगार पाने के अवसर मिल सकते हैं।
आओ अख़बार बाँचे।
वे कौन-से मुद्दे हैं जो समाचारों के प्रमुख शीर्षकों के रूप में छाए हुए हैं? क्या आपको लगता है कि आपके लिए उनकी कोई प्रासंगिकता है?

चूँकि सरकार की कार्रवाइयों का हम पर गहरा असर पड़ता है, हम सरकार के कामों में खूब दिलचस्पी लेते हैं। हम संस्थाएँ बनाते हैं और अपनी माँगें जोड़ने के लिए प्रचार अभियान चलाते हैं। हम दूसरों से बातचीत करते हैं और सरकार के निर्धारित लक्ष्यों को आकार देने का प्रयास करते हैं। जब हम सरकार की नीतियों से असहमत होते हैं तो हम विरोध करते हैं और वर्तमान कानून को बदलने के लिए अपनी सरकारों को राजी करने हेतु प्रदर्शन आयोजित करते हैं। हम अपने प्रतिनिधियों की गतिविधियों पर जोश के साथ वाद-विवाद और विचार-विमर्श करते हैं कि भ्रष्टाचार बढ़ा या घटा। हम पूछते हैं कि क्या भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाया जा सकता है? क्या किसी खास समूह के लिए आरक्षण न्यायसंगत है या नहीं? हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि क्यों कोई पार्टी और नेता चुनाव जीतते हैं। इस तरीके से हम मौजूदा अव्यवस्था और पतन के तर्कसंगत कारण तलाशते हैं और एक बेहतर दुनिया रचने की आकांक्षा करते हैं।

निष्कर्ष यह है कि राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित एवं वांछनीय है और क्या नहीं। इस बारे में हमारी दृष्टि अलग-अलग होती है। इसमें समाज में चलने वाली बहुविध वार्ताएँ शामिल हैं, जिनके माध्यम से सामूहिक निर्णय किए जाते हैं। एक स्तर से इन वार्ताओं में सरकारों के कार्य और इन कार्यों का जनता से जुड़ा होना शामिल होता है, तो दूसरे स्तर से जनता का संघर्ष और उसके निर्णय लेने पर संघर्ष का प्रभाव। जब जनता आपस में वार्ता करती है और उन सामूहिक गतिविधियों में भाग लेती है जो सामाजिक विकास को बढ़ावा देने और सामान्य समस्याओं के समाधान में मदद करने के उद्देश्य से तैयार की गई होती है तब कहा जा सकता है कि जनता राजनीति में संलग्न है।

आओ कुछ करके सीखें.
राजनीति हमारे दैनिक जीवन पर किस तरह असर डालती है? अपने जीवन की एक दिन की घटनाओं का विश्लेषण कीजिए।

1.2 राजनीतिक सिद्धांत में हम क्या पढ़ते हैं?

यदि हम अपने आसपास देखें तो हमें आंदोलन, विकास और परिवर्तन दिखेगा। लेकिन अगर हम गहराई से गौर करें, तो हमें यह भी दिखेगा कि निश्चित मूल्य और सिद्धांतों ने जनता को प्रोत्साहित किया और नीतियों को निर्देशित किया है। लोकतंत्र, स्वतंत्रता या समानता एेसे ही आदर्श सिद्धांत हैं। विभिन्न देश एेसे मूल्यों को अपने संविधान में प्रतिस्थापित कर उनकी हिफाजत करने का प्रयास करते हैं जैसा कि, अमेरिकी और भारतीय संविधानों में किया गया है।

वाद-विवाद-संवाद
क्या विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेना चाहिए?

हालाँकि इन संवैधानिक दस्तावेज़ों की उत्पत्ति रातोंरात नहीं हुई। इनका निर्माण उन विचारों और सिद्धांतों के आधार पर हुआ, जिन पर कौटिल्य और अरस्तू से लेकर ज्यांजॉक रूसो, कार्ल मार्क्स, महात्मा गांधी और डॉ. बी. आर. अंबेडकर तक के समय से वाद-विवाद होता आया है। बहुत पहले, ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में प्लेटो और अरस्तू ने अपने विद्यार्थियों से विचार-विमर्श किया था कि राजतंत्र और लोकतंत्र में से कौन-सा तंत्र बेहतर है। आधुनिक काल में सबसे पहले रूसो ने सिद्ध किया कि स्वतंत्रता मानव मात्र का मौलिक अधिकार है। कार्ल मार्क्स ने तर्क दिया कि समानता भी उतनी ही निर्णायक होती है, जितनी कि स्वतंत्रता। अपने देश में, गांधी जी ने अपनी पुस्तक हिंद-स्वराज में वास्तविक स्वतंत्रता या स्वराज के अर्थ की विवेचना की। अंबेडकर ने ज़ोरदार तरीके से तर्क रखा कि अनुसूचित जातियों को अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए और उन्हें विशेष संरक्षण मिलना चाहिए। इन विचारों नेे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता और समानता को प्रतिष्ठित किया। भारतीय संविधान के अधिकार वाले अध्याय में किसी भी रूप में छुआछूत का निषेध किया गया और गांधी के सिद्धांतों को नीति-निर्देशक तत्त्व में शामिल किया गया।

एेसे किसी भी राजनीतिक चिंतक के बारे में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए जिसका उल्लेख अध्याय में किया गया है। (50 शब्द)

राजनीतिक सिद्धांत उन विचारों और नीतियों को व्यवस्थित रूप को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है। यह स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करता है। यह कानून का राज, अधिकारों का बँटवारा और न्यायिक पुनरावलोकन जैसी नीतियों की सार्थकता की जाँच करता है। यह इस काम को विभिन्न विचारकों द्वारा इन अवधारणाओं के बचाव में विकसित युक्तियोेें की जाँच-पड़ताल के ज़रिये करता है। हालाँकि रूसो, मार्क्स या गांधी जी राजनेता नहीं बन पाए लेकिन उनके विचारों ने हर जगह पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजनेताओं को प्रभावित किया। साथ ही एेसे बहुत से समकालीन विचारक हैं, जो अपने समय में लोकतंत्र या स्वतंत्रता के बचाव के लिए उनसे प्रेरणा लेते हैं। विभिन्न तर्कों की जाँच-पड़ताल के अलावा राजनीतिक सिद्धांतकार हमारे ताज़ा राजनीतिक अनुभवों की छानबीन भी करते हैं और भावी रुझानों तथा संभावनाओं को चिन्हित करते हैं।

क्या आप पहचान सकते हैं कि नीचे दिए गए प्रत्येक कथन/स्थिति में कौन-सा राजनीतिक सिद्धांत/मूल्य प्रयोग में आया है।
(क) मुझे विद्यालय में कौन-सा विषय पढ़ना है, यह तय करना मेरा अधिकार होना चाहिए।
(ख) छुआछूत की प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया है।
(ग) कानून के समक्ष सभी भारतीय समान हैं।
(घ) अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपनी पाठशालाएँ और विद्यालय स्थापित कर सकते हैं।
(ड.) भारत की यात्रा पर आए हुए विदेशी, भारतीय चुनाव में मतदान नहीं कर सकते।
(च) मीडिया या फिल्मों पर कोई भी सेंसरशिप नहीं होनी चाहिए।
(छ) विद्यालय के वार्षिकोत्सव की योजना बनाते समय छात्र-छात्राओं से सलाह ली जानी चाहिए।
(ज) गणतंत्र दिवस के समारोह में प्रत्येक को भाग लेना चाहिए।

लेकिन क्या यह सब, अब हमारे लिए प्रासंगिक है? क्या अब हम स्वतंत्रता और लोकतंत्र प्राप्त नहीं कर चुके हैं? भारत सचमुच स्वायत्त और स्वतंत्र है, हालाँकि स्वतंत्रता और समानता से संबंधित प्रश्नों का उठना बंद नहीं हुआ है। एेसा इसलिए कि स्वतंत्रता, समानता तथा लोकतंत्र से संबंधित मुद्दे सामाजिक जीवन के अनेक मामलों में उठते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रफ्.तार से उनकी बढ़ोतरी हो रही है। उदाहरण के लिए, राजनीतिक क्षेत्र में समानता समान अधिकारों के रूप में बनी है, लेकिन यह आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में उसी तरह नहीं है। लोगों के पास समान राजनीतिक अधिकार हो सकते हैं, लेकिन हो सकता है कि समाज में उनके साथ जाति या गरीबी के कारण अभी भी भेदभाव होता हो। संभव है कि कुछ लोगों को समाज में विशेषाधिकार प्राप्त हो, वहीं कुछ दूसरे बुनियादी आवश्यकताओं तक से वंचित हों। कुछ लोग अपना मनचाहा लक्ष्य पाने में सक्षम हैं, जबकि कई लोग भविष्य में अच्छा रोजगार पाने के लिए जरूरी स्कूली पढ़ाई में भी अक्षम हैं। उनके लिए स्वतंत्रता अभी भी दूर का सपना है।

दूसरे, हालाँकि हमारे संविधान में स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, फिर भी हमें हरदम नई व्याख्याओं का सामना करना पड़ता है। यह एक तरह से खेल खेलने जैसा है। जैसे हम शतरंज या क्रिकेट खेलते हैं, तो हम सीखते हैं कि उसके नियमों की व्याख्या कैसे करनी है। इस प्रक्रिया में हम खेल के ही नये और व्यापक अर्थ खोज निकालते हैं। ठीक इसी प्रकार नई परिस्थितियों के मद्देनजर संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की निरंतर पुनर्व्याख्या की जा रही है। इसकी एक बानगी तो यही है कि ‘आजीविका के अधिकार’ को ‘जीवन के अधिकार’ में शामिल करने के लिए अदालतों द्वारा उसकी पुनर्व्याख्या की गई है। सूचना के अधिकार की गारंटी एक नए कानून द्वारा की गई है। समाज बार-बार नई चुनौतियों का सामना करता है। इस क्रम में नई व्याख्याएँ पैदा होती हैं। समय के साथ-साथ संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों में संशोधन भी हुए और इनका विस्तार भी। यद्यपि न्यायिक व्याख्याएँ और सरकारी नीतियाँ नई समस्याओं का सामना करने के लिए बनाई गईं हैं।

आओ कुछ करके सीखें
विभिन्न समाचार पत्र और पत्रिकाओं से कार्टून इकट्ठा कीजिए। इन कार्टूनों में किन मुद्दों को उठाया गया है? ये कार्टून कौन-कौन-सी राजनीतिक अवधारणाओं को रेखांकित करते हैं?

तीसरे, जैसे-जैसे हमारी दुनिया बदल रही है, हम आज़ादी और आज़ादी पर संभावित खतरों के नए-नए आयामों की खोज कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, वैश्विक संचार तकनीक दुनिया भर में आदिवासी संस्कृति या जंगल की सुरक्षा के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं का एक-दूसरे से तालमेल करना आसान बना रही है। पर इसने आतंकवादियों और अपराधियों को भी अपना नेटवर्क कायम करने की क्षमता दी है। इसके अलावा, भविष्य में इंटरनेट द्वारा व्यापार में बढ़ोतरी तय है। इसका अर्थ है कि वस्तुओं अथवा सेवाओं की खरीद के लिए हम अपने बारे में जो सूचना अॉन लाइन दें, उसकी सुरक्षा हो। इसीलिए यूँ तो इंटरनेटजन (अंग्रेजी में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों को नेटिजन कहा जाता है) सरकारी नियंत्रण नहीं चाहते, लेकिन वे भी वैयक्तिक सुरक्षा और गोपनीयता बनाये रखने के लिए किसी न किसी प्रकार का नियमन ज़रूरी मानते हैं। परिणामस्वरूप ये प्रश्न उठाए जाते हैं कि इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों को कितनी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए? क्या आप किसी अजनबी को अवांछनीय ई-मेल भेज सकते हैं? क्या आप चैट रूम में अपने उत्पाद का विज्ञापन कर सकते हैं? क्या सरकार आतंकवादियों का सुराग लगाने के लिए किसी के व्यक्तिगत ई-मेल में ताकझाँक कर सकती है? कितना नियमन न्यायोचित है और किसको नियमन करना चाहिए- सरकार को या कुछ स्वतंत्र नियामकों को? राजनीतिक सिद्धांत में इन प्रश्नों के संभावित उत्तरों के सिलसिले में हमारे सीखने के लिए बहुत कुछ है और इसीलिए यह बेहद प्रासंगिक है।

प्राचीन यूनान के एथेंस नगर में सुकरात को सर्वाधिक विवेकशील व्यक्ति कहा जाता था। वह समाज, धर्म और राजनीति के बारे में प्रचलित मान्यताओं को सवालों के कटघरे में खड़ा करने और चुनौती देने के लिए प्रसिद्ध था। इसके लिए ही उसे एथेंस के शासकों द्वारा मृत्युदंड दिया गया।
सुकरात के शिष्य प्लेटो ने उसके जीवन और विचारों के बारे में विस्तार से लिखा है। प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में सुकरात के नाम से एक चरित्र गढ़ा और उसके माध्यम से इस सवाल की जाँच-पड़ताल की कि ‘न्याय क्या है?’
यह पुस्तक सुकरात और सेफलस के बीच एक संवाद से प्रारंभ होती है। इस संवाद के दौरान सेफलस और उसके मित्र समझने लगते हैं कि न्याय की उनकी दृष्टि अपर्याप्त है और उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
सुकरात के तरीके में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी दृष्टिकोण में निहित सीमाओं और असंगतियों को उजागर करने के लिए वह तर्कबुद्धि का प्रयोग करता है। उसके विपक्षी आखिरकार स्वीकार करते हैं कि उनके वे विचार जिनमें वे जीते थे चलने वाले नहीं हैं।

1.3 राजनीतिक सिद्धांतों को व्यवहार में उतारना

इस पाठ्यपुस्तक में हमने स्वयं को राजनीतिक सिद्धांत के सिर्फ एक पहलू तक सीमित रखा है- स्वतंत्रता, समानता, नागरिकता, न्याय, विकास, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे सुपरिचित राजनीतिक विचारों की उत्पत्ति, अर्थ और महत्त्व के बारे में ही हमने अध्ययन किया है। जब हम किसी मुद्दे पर बहस या तर्क-वितर्क आरंभ करते हैं, तो हम अक्सर पूछते हैं कि ‘इसका अर्थ क्या है?’ और ‘यह कैसे महत्त्वपूर्ण होता है?’ राजनीतिक सिद्धांतकारों ने बताया है कि आज़ादी या समानता क्या है और इसकी विविध परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। गणित, के विपरीत जहाँ त्रिभुज या वर्ग की सिर्फ एक परिभाषा होती है, राजनीतिक सिद्धान्त में हम समानता, आज़ादी या न्याय की अनेक परिभाषाओं से रूबरू होते हैं।

एेसा इसलिए है क्योंकि समानता जैसे शब्दों का सरोकार किसी वस्तु के बजाय अन्य मनुष्यों के साथ हमारे संबंधों से होता है। वस्तुओं के विपरीत, मनुष्य समानता जैसे मुद्दों पर अपनी राय रखता है और इन मतों को समझने और इनसे तालमेल रखने की ज़रूरत होती है। एेसा करने की दिशा मेें हम कैसे बढ़ सकते हैं? चलिए, हम विभिन्न जगहों में समानता से संबंधित सामान्य अनुभव से शुरू करें।

आपने गौर किया होगा कि लोग अक्सर सरकारी कार्यालय, डॉक्टर के प्रतीक्षालय या दुकानों में कतार तोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। कई बार एेसा करने वालों को पंक्ति में पीछे जाने के लिए कहा जाता है, तो हमें खुशी होती है। कई बार वे आगे निकल जाते हैं और हम ठगा-सा महसूस करते हैं। हम इसका विरोध करते हैं, क्योंकि हम जिनके लिए भुगतान करते हैं उन सामानों या सुविधाओं को पाने में समान अवसर चाहते हैं। इसलिए, जब हम अपने अनुभव पर ध्यान देते हैं, हम समझते हैं कि समानता का अर्थ सभी के लिए समान अवसर होता है। फिर भी, अगर वृद्धों और विकलांगों के लिए अलग काउंटर हों, तो हम समझते हैं कि उनके साथ विशेष बरताव न्यायोचित है।

आगे पढ़िए और देखिए कि सुकरात ने यह कैसे किया।
सेफलस! तुमने अच्छा कहा, मैेंने जवाब दिया। लेकिन जहाँ तक न्याय की बात है, यह है क्या? -सत्य बोलना और अपना ऋण चुकाना -बस इससे अधिक कुछ नहीं?
और क्या इसके भी अपवाद नहीं होते हैं? ज़रा सोचिए, एक मित्र शांतचित्त भाव से अपने हथियार मेरे पास जमा कर देता है और उन हथियारों को वह एेसी स्थिति में वापिस माँगता है, जब उसका दिमाग शांत नहीं है, एेसी स्थिति में क्या मुझे उसे हथियार वापिस कर देने चाहिए? ...
आप बिल्कुल सही हैं, उसने कहा।
लेकिन तब, सत्य बोलना और ऋणों को चुकाना, न्याय की सही परिभाषा नहीं है। ...मैंने कहा।
पहले हमने सीधे-सीधे कहा था कि ‘अपने मित्रों के साथ भला करना और अपने शत्रुओं के साथ बुरा करना न्याय है’। इसकी जगह हमें कहना चाहिए कि मित्र अच्छे हों तब उनके साथ अच्छा करना और जब शत्रु बुरे हों तब उनके साथ बुरा करना, न्याय है?
हाँ, मुझे यह ठीक लगता है।

लेकिन हम प्रतिदिन यह भी देखते हैं कि बहुत से गरीब लोग दुकान या चिकित्सक के पास इसलिए नहीं जा सकते कि उनके पास सामान या सुविधाओं की कीमत चुकाने के लिए रुपये नहीं होते। इनमें से कुछ लोग दैनिक मज़दूर होते हैं, जो घंटों पत्थर काटते या ईंट पाथते हैं। अगर हम संवेदनशील हैं, तो महसूस करते हैं कि यह अनुचित है कि समाज में कुछ सदस्यों की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी न हों। तब हम इस अनुभव से गुजरते हैं कि समानता में किसी न किसी प्रकार की निष्पक्षता बरती जानी चाहिए, ताकि लोग अनुचित रूप से शोषित न हों और आर्थिक कारकों की वजह से प्रतिकूल परिस्थितियों के शिकार न हों।

इस तथ्य पर गौर करें कि बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जा पाते क्योंकि अपना पेट भरने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। इसी तरह अधिसंख्य लड़कियों को स्कूल से इसलिए हटा लिया जाता है कि माँ-बाप के काम पर जाने के दौरान उन्हें छोटे भाई-बहनों की देखभाल करनी है। हालाँकि भारतीय संविधान सभी को प्राथमिक शिक्षा पाने के अधिकार कीे गारंटी देता है, लेकिन यह अधिकार मात्र औपचारिक बनकर रह गया है। फिर, हम महसूस कर सकते हैं कि एेसे बच्चों और उनके मांँ-बाप के लिए सरकार को कुछ ज़्यादा ही करना चाहिए ताकि वे स्कूल जा सकें।

लेकिन क्या किसी को भी चोट पहुँचाना न्यायपूर्ण होना चाहिए?
निस्संदेह, जो दुष्ट और शत्रु हैं, उन्हें चोट पहुँचाई जानी चाहिए।
जब घोड़े घायल होते हैं, तब उनकी स्थिति पहले से बेहतर होती है या बुरी?
पहले से बुरी होती है।
कहने का मतलब है कि जब उनकी स्थिति बुरी होती है उनमें घोटकत्व (घोड़े के गुण) कम होता है, श्वानत्व (कुत्ते के गुण) नहीं
हाँ, घोटकत्व कम होता है।
और जब कुत्तों की स्थिति बुरी होती है तब उनमें श्वानत्व कम होता है, घोटकत्व नहीं?
हाँ, बिल्कुल सही।
और जब कोई मनुष्य घायल होगा, तब उसमें मनुष्यत्व कम होगा?
निस्संदेह।
और वह मनुष्यत्व न्याय है?
निश्चित रूप से।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि समानता के बारे में हमारे विचार काफी जटिल हैं। जब हम पंक्तिबद्ध होते हैं या खेल के मैदान में होते हैं, हम समान अवसर चाहते हैं। जब हम किसी अक्षमता के शिकार होते हैं, तो हम चाहते हैं कि कुछ विशेष प्रावधान किए जाएँ। लेकिन जब हम बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर पाते, तब समान अवसर मिलना ही पर्याप्त नहीं है। हमें स्कूल जाने या संसाधनों (रोजगार, अच्छा वेतन, रियायती अस्पताल आदि) का समुचित बँटवारा जैसे अग्रगामी उपायांें से सहायता पाने में समर्थ बनाया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए किसी एजेंसी को जिम्मेवार बनाने की ज़रूरत है।

इस प्रकार हमारे पास समानता की अनेक परिभाषाओं के होने की वजह यह है कि समानता का अर्थ प्रसंग पर निर्भर करता है। हमने इसके उस अर्थ से शुरूआत की, जो स्वयं हमारे लिए है और फिर हमने इसका विस्तार गरीब, वंचित, बूढ़े-बुजुर्ग आदि बाकी लोगों के लिए किया। हमने अर्थ की कई परतें खोलीं। हम पूर्ण रूप से समझे वगैर राजनीतिक सिद्धांत गढ़ते रहेे।

तब जो मनुष्य घायल हो जाता है वह निश्चित रूप से अन्यायपूर्ण बन जाता है?
हाँ, परिणाम तो यही है।
लेकिन क्या संगीतकार अपनी कला से मनुष्य को संगीत से दूर कर सकता है?
बिल्कुल नहीं।
और क्या घुड़सवार अपनी कला से उसे एक बुरा घुड़सवार बनाता है?
असंभव।
और क्या कोई न्यायपूर्ण व्यक्ति न्याय के द्वारा लोगों को अन्यायपूर्ण बना सकता है?
या सामान्य शब्दों में क्या सद्गुणसंपन्न व्यक्ति किसी को बुरा बना सकता है?
निश्चित रूप से नहीं ...
और ना ही अच्छा व्यक्ति किसी को नुकसान पहुँचा सकता है।
हाँ यह तो असंभव है।
और न्यायपूर्ण व्यक्ति ही अच्छा व्यक्ति होता है?
निश्चित रूप से ।

राजनीतिक अवधारणाओं के अर्थ को राजनीतिक सिद्धांतकार यह देखते हुए स्पष्ट करते हैं कि आम भाषा में इसे कैसे समझा और बरता जाता है। वे विविध अर्थों और रायों पर विचार-विमर्श और उनकी जाँच-पड़ताल भी सुव्यवस्थित तरीके से करते हैं। अवसर की समानता कब पर्याप्त है? कब लोगों को विशेष बरताव की ज़रूरत होती है? एेसा विशेष बरताव कब तक और किस हद तक किया जाना चाहिए? क्या गरीब बच्चों को स्कूल में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दोपहर का भोजन दिया जाना चाहिए? ये कुछ एेसे प्रश्न हैं, जिनकी ओर वे मुखातिब होते हैं। आप भी देख सकते हैं कि ये मसले बिल्कुल व्यावहारिक हैं। वे शिक्षा और रोजगार के बारे में सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में मार्गदर्शन करते हैं।

जैसा समानता के मामले में है, वैसा ही अन्य अवधारणाओं के मामले भी हैं। राजनीतिक सिद्धांतकारों को रोजमर्रा के विचारों से उलझना पड़ता है, संभावित अर्थों पर विचार-विमर्श करना पड़ता है और नीतिगत विकल्पों को सूत्रबद्ध करना पड़ता है। आज़ादी, नागरिकता, अधिकार, विकास, न्याय, समानता, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता आदि कुछ अवधारणाओं पर हम अगले अध्यायों में विचार करेंगे।

तब मित्र या किसी भी अन्य व्यक्ति को नुकसान पहुँचाना एक न्यायपूर्ण व्यक्ति का नहीं वरन् उससे ठीक उलट एक अन्यायपूर्ण व्यक्ति का ही काम होता है?
मेरा सोचना है कि सुकरात तुम जो कह रहे हो वह काफी सत्य है।
और जो किसी रोग से बचाव या रोकथाम में सर्वाधिक कुशल होता है, वही उसे पैदा करने में भी सर्वाधिक सक्षम होता है।
सच बात है।
और जो शत्रु से जीत सकता है, वही किले का सबसे अच्छा रक्षक होता है।
निश्चित ही।
तब जो किसी चीज़ का अच्छा रखवाला होता है, वही अच्छा चोर भी होता है।
हाँ, इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है।
तब अगर न्यायपूर्ण व्यक्ति धन की रक्षा करने में अच्छा होता है तो वह गबन करने में भी अच्छा होता है।
इस तर्क में तो यही निहित है।

1.4 हमें राजनीतिक सिद्धांत क्यों पढ़ना चाहिए?

हमारे अपने राजनीतिक आदर्श हो सकते हैं, पर क्या हमें राजनीतिक सिद्धांतों के अध्ययन की भी ज़रूरत है? क्या यह राजनीति करने वाले राजनेताओं के लिए या नीति बनाने वाले नौकरशाहों के लिए या राजनीतिक सिद्धांत पढ़ाने वाले अध्यापकों के लिए ज़्यादा उपयुक्त नहीं है? बेहतर तो यह होगा कि राजनीतिक सिद्धांत संविधान और कानूनों की व्याख्या करने वाले वकील या जज या उन कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को पढ़ना चाहिए, जो शोषण का पर्दाफाश करते हैं और नए अधिकारों की माँग करते हैं। हमें आज़ादी या समानता का अर्थ जानने से क्या मिलेगा?

पहली बात तो यह कि राजनीतिक सिद्धांत एेसे सभी समूहों के लिए प्रासंगिक है। छात्र के रूप में हम भविष्य में उपरोक्त पेशों में से किसी एक को चुन सकते हैं और इसलिए परोक्ष रूप से यह अभी ही हमारे लिए प्रासंगिक है। क्या हम गणित नहीं पढ़ते, जबकि हममें से सभी गणितज्ञ या इंजीनियर नहीं बनेंगे? क्या इसीलिए नहीं कि बुनियादी अंकगणित जीवन में सामान्यतः उपयोगी होता है?

दूसरी बात यह कि हम सभी मत देने और अन्य मसलों के प्.ौηसले करने के अधिकार-संपन्न नागरिक बनने जा रहे हैं। दायित्वपूर्ण कार्य निर्वहन के लिए उन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं की बुनियादी जानकारी हमारे लिए मददगार होती है, जो हमारी दुनिया को आकार देते हैं। सूचनापरक समाज में, यदि हमें ग्रामसभा में सहभागी होना है या वेबसाइट और मतदान पर अपनी राय पेश करनी है, तो हमारा तर्कशील और जानकार होना निर्णायक होता है। यदि हम मनमाने तरीके से अपनी वरीयताएँ प्रकट करें, तो हम ज़्यादा प्रभावी नहीं हाेंगे। लेकिन यदि हम विचारशील और परिपक्व हैं, तो हम अपने साझा हितों को गढ़ने और व्यक्त करने के लिए नए माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं।

तब सभी न्यायपूर्ण व्यक्तियों के चोर बन जाने के बाद ...
तुम यह तर्क दोगे कि जो अच्छे हैं वे हमारे मित्र हैं और जो बुरे हैं वे हमारे शत्रु?
हाँ।
पहले हमने सीधे-सीधे कहा था कि ‘अपने मित्रों के साथ भला करना और अपने शत्रुओं के साथ बुरा करना न्याय है’। इसकी जगह हमें कहना चाहिए कि मित्र अच्छे हों तब उनके साथ अच्छा करना और जब शत्रु बुरे हों तब उनके साथ बुरा करना, न्याय है।
हाँ, मुझे यह ठीक लगता है।
लेकिन क्या किसी को भी चोट पहुँचाना न्यायपूर्ण होना चाहिए?
निस्संदेह, जो दुष्ट और शत्रु हैं, उन्हें चोट पहुँचाई जानी चाहिए।
जब घोड़े घायल होते हैं, तब उनकी स्थिति पहले से बेहतर होती है या बुरी?
पहले से बुरी होती है।
कहने का मतलब है कि जब उनकी स्थिति बुरी होती है उनमें घोटकत्व कम होता है, श्वानत्व नहीं?
हाँ, घोटकत्व कम होता है।

नागरिक के रूप में, हम किसी संगीत कार्यक्रम के श्रोता जैसे होते हैं। हम गीत और लय की व्याख्या करने वाले मुख्य कलाकार नहीं होते। लेकिन हम कार्यक्रम तय करते हैं, प्रस्तुति का रसास्वादन करते हैं और नये अनुरोध करते हैं। क्या आपने गौर किया कि संगीतकार तब बेहतर प्रदर्शन करते हैं, जब उन्हें श्रोताओं के जानकार और कद्रदान होने का पता रहता है? इसी तरह शिक्षित और सचेत नागरिक भी राजनीति करने वालों को जनाभिमुख बना देते हैं।

और जब कुत्तों की स्थिति बुरी होती है तब उनमें श्वानत्व कम होता है, घोटकत्व नहीं?
हाँ, बिल्कुल सही।
और जब कोई मनुष्य घायल होगा, तब उसमें मनुष्यत्व कम होगा?
निस्संदेह।
और वह मनुष्यत्व न्याय है?
निश्चित रूप से।
तब जो मनुष्य घायल हो जाता है वह निश्चित रूप से अन्यायपूर्ण बन जाता है?
हाँ, परिणाम तो यही है।
लेकिन क्या संगीतकार अपनी कला से मनुष्य को संगीत से दूर कर सकता है?
बिल्कुल नहीं।
और क्या घुड़सवार अपनी कला से उसे एक बुरा घुड़सवार बनाता है?
असंभव।
और क्या कोई न्यायपूर्ण व्यक्ति न्याय के द्वारा लोगों को अन्यायपूर्ण बना सकता है?


तीसरी बात यह कि आज़ादी, समानता, और धर्मनिरपेक्षता हमारे जीवन के अमूर्त मसले नहीं हैं। परिवारों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, व्यावसायिक केंद्रों आदि में तरह-तरह के भेदभावों का हम प्रतिदिन सामना करते हैं। हम स्वयं भी अपने से भिन्न लोगों के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं, चाहे वे अलग जाति के हों या अलग धर्म के अथवा अलग लिंग या वर्ग के। यदि हम उत्पीड़ित महसूस करते हैं, तो हम पीड़ा का निवारण चाहते हैं और यदि उसमें विलंब होता है, तब हम महसूस करते हैं कि हिंसक क्रांति उचित है। यदि हम विशेषाधिकार संपन्न हैं, तो हम सम्मान के लिए संघर्षरत अपने नौकरों और नौकरानियों के उत्पीड़न से भी इनकार करते हैं। कभी-कभी हम यह भी महसूस करते हैं कि हमारे नौकर उसी व्यवहार के योग्य हैं, जो उनके साथ हो रहा है। राजनीतिक सिद्धांत बस यही करता है कि वह हमें राजनीतिक चीज़ों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है। थोड़ी अधिक सतर्कता से देखने भर से हम अपने विचारों और भावनाओं में उदार होते जाते हैं।

और अंत में छात्र के रूप में हम बहस और भाषण प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते हैं। हमारी अपनी राय होती तो है कि क्या सही है और क्या गलत, क्या उचित है और क्या अनुचित, पर यह हम नहीं जानते कि वे तर्कसंगत हैं या नहीं। जब हम दूसरे से बहस करते हैं, तभी हम अपने विचारों का बचाव करने की ज़रूरत महसूस करते हैं और इसके लिए तर्क और युक्तियाँ तलाशते हैं। राजनीतिक सिद्धांत हमें न्याय या समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं, ताकि हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकें और सार्वजनिक हित में सुविज्ञ तरीके से तर्क-वितर्क कर सकें। तर्कसंगत ढंग से बहस करने और प्रभावी तरीके से संप्रेषण करने जैसे कौशल वैश्विक सूचना-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण गुण साबित होते हैं।
 
या सामान्य शब्दों में क्या सद्गुणसंपन्न व्यक्ति किसी को बुरा बना सकता है?
निश्चित रूप से नहीं ...
और ना ही अच्छा व्यक्ति किसी को नुकसान पहुँचा सकता है।
हाँ यह तो असंभव है।
और न्यायपूर्ण व्यक्ति ही अच्छा व्यक्ति होता है?
निश्चित रूप से ।
तब मित्र या किसी भी अन्य व्यक्ति को नुकसान पहुँचाना एक न्यायपूर्ण व्यक्ति का नहीं वरन् उससे ठीक उलट एक अन्यायपूर्ण व्यक्ति का ही काम होता है?
मेरा सोचना है कि सुकरात तुम जो कह रहे हो वह काफी सत्य है।
तब अगर कोई आदमी कहता है कि न्याय ऋण चुकाने में है और अच्छे वे ऋण हैं, जो मित्रों को चुकाने हैं और बुरे वे जो शत्रुओं को चुकाने हैं। -यह कहना समझदारी नहीं है क्या कि यह सत्य नहीं है। जैसा कि स्पष्ट रूप से दिखाया जा चुका है, किसी को भी चोट पहुँचाना किसी भी स्थिति में न्यायपूर्ण नहीं हो सकता।
पॉलिमार्कस ने कहा, मैं तुमसे सहमत हूँ।

प्रश्नावली

1. राजनीतिक सिद्धांत के बारे में नीचे लिखे कौन-से कथन सही हैं और कौन-से गलत?
(क) राजनीतिक सिद्धांत उन विचारों पर चर्चा करते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ बनती हैं।
(ख) राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न धर्मों के अंतर्संबंधों की व्याख्या करते हैं।
(ग) ये समानता और स्वतंत्रता जैसी अवधारणाओं के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
(घ) ये राजनीतिक दलों के प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हैं।
2. ‘राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण भी दीजिए।
3. लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना ज़रूरी है। टिप्पणी कीजिए।
4. राजनीतिक सिद्धांत का अध्ययन हमारे लिए किन रूपों में उपयोगी है? एेसे चार तरीकों की पहचान करें जिनमें राजनीतिक सिद्धांत हमारे लिए उपयोगी हों।
5. क्या एक अच्छा/प्रभावपूर्ण तर्क औरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है?
6. क्या राजनीतिक सिद्धांत पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिए।