अध्याय 3

समानता

परिचय

यह अध्याय समानता की अवधारणा के बारे में है। समानता को एक मूल्य के रूप में संविधान में भी दर्ज किया गया है। यहाँ समानता की अवधारणा पर रोशनी डालते हुए निम्नलिखित सवालों को पड़ताल करने की कोशिश की गई है-
2141.png समानता क्या है? हमें इस नैतिक और राजनीतिक आदर्श के बारे में क्यों सोचना चाहिए?
2143.png क्या समानता का मतलब व्यक्ति से हर स्थिति में एक समान बरताव करना है?
2145.png हम समानता की ओर कैसे बढ़ सकते हैं और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में असमानता को न्यूनतम कैसे कर सकते हैं?
2147.png हम मानता के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक आयामों को अलग-अलग कैसे समझ सकते हैं?
इन सवालों को समझने और सुलझाने के क्रम में हमारा सामना- समाजवाद, मार्क्सवाद, उदारवाद और नारीवाद जैसी अपने समय की कुछ खास विचारधाराओं से होगा।
इस अध्याय में हम असमानता की स्थिति के बारे में कुछ आँकड़े और चित्र देखेंगे। ये केवल इसलिए दिए गए हैं कि हम असमानता की प्रकृति को समझ-बूझ सकें। इन आँकड़ों और चित्रों को याद करने की ज़रूरत नहीं हैं।

3.1 समानता महत्त्वपूर्ण क्यों है?

समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनीतिक आदर्श के रूप में कई शताब्दियों से मानव-समाज को प्रेरित और निर्देशित करता रहा है। समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। समानता की अवधारणा एक राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर ज़ोर देती है, जिसमें तमाम मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के प.ηर्क के बाद भी साझेदार होते हैं। समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौम मानवाधिकार’ या ‘मानवता के प्रति अपराध’ जैसी धारणाओं के पीछे रहती है।

आओ कुछ करके सीखें
विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से एेसे उदाहरण खोजो, जो समानता के विचार को सबल करते हाें। इन उद्धरणों को अपनी कक्षा में पढ़ो।

बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं। आधुनिक काल में ‘सभी मनुष्यों की समानता’ का राजसत्ता और एेसी सामाजिक संस्थाओं के खिलाफ संघर्षों में एकजुटता लाने वाले नारे के रूप में इस्तेमाल किया गया है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुई फ्रांसीसी क्रांति में भू-सामंती, अभिजन-वर्ग और राजशाही के खिलाफ विद्रोह के दौरान ‘स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा’ फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का नारा था। समानता की माँग बीसवीं शताब्दी में एशिया और अफ्रीका के उपनिवेश विरोधी स्वतंत्रता संघर्षों के दौरान भी उठी थी और यह लगातार उन संघर्षरत समूहों द्वारा उठाई जा रही है, जो महसूस करते हैं कि उन्हें समाज में किनारे कर दिया गया है, जैसे कि महिलाएँ या दलित।


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मैं जिन लोगों को जानता हूँ, वे सभी किसी न किसी धर्म में विश्वास करते हैं। मैं जिन धर्मों के बारे में जानता हूँ, वे सभी समानता का संदेश देते हैं। जब एेसा है, तो दुनिया में असमानता क्यों हैं?

आज समानता व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसे अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है। फिर भी समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता अधिक नज़र आती है। अपने देश में हम आलीशान आवासों के साथ-साथ झोपड़पट्टियाँ, विश्वस्तरीय सुविधाओं से लैस स्कूल और वातानुकूलित कक्षाओं के साथ-साथ पेयजल या शौचालय की सुविधा से भी विहीन स्कूल, भोजन की बर्बादी के साथ-साथ भुखमरी देख सकते हैं। कानून जो वायदा करता है और जो हमारे चारों ओर मौजूद है, उनके बीच अंतर बिल्कुल स्पष्ट है।

नीचे विश्व और हमारे देश के स्तर पर असमानता को दर्शाने वाले कुछ आँकड़े दिए गए हैं। इन पर एक गहरी नजर डालें।

विश्व स्तर पर असमानता को दर्शाने वाले कुछ आँकड़े
1. दुनिया के 50 सबसे अमीर आदमियों की सामूहिक आमदनी दुनिया के 40 करोड़ सबसे गरीब लोगों की सामूहिक आमदनी से अधिक है।
2. दुनिया की 40 प्रतिशत गरीब जनसंख्या का दुनिया की कुल आमदनी में हिस्सा केवल 5 प्रतिशत है, जबकि 10 प्रतिशत अमीर लोग दुनिया की 54 प्रतिशत आमदनी पर नियंत्रण करते हैं।
3. पहली दुनिया खासकर उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी योरोप के अगड़े औद्योगिक देशों में दुनिया की आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा रहता है, लेकिन दुनिया के 86 प्रतिशत उद्योग इन्हीं देशों में हैं और दुनिया की 80 प्रतिशत ऊर्जा इन्हीं देशों में इस्तेमाल की जाती है।
4. इन अगड़े औद्योगिक देशों के निवासी भारत या चीन जैसे विकासशील देशों के निवासी की तुलना में कम से कम तीन गुना अधिक पानी, दस गुना ऊर्जा, तेरह गुना लोहा और इस्पात तथा चौदह गुना कागज़ का उपभोग करता है।
5. गर्भावस्था से जुड़े कारणों से मरने का खतरा नाइजीरिया के लिए 18 में से 1 मामले में हैं जबकि कनाडा के लिए यही खतरा 8700 में से 1 मामले में है।
6. जमीन के अंदर से निकलने वाले ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम और गैस) के जलने से दुनियाभर में जो कार्बन डाई अॉक्साइड निकलती है, उसमें से पहली दुनिया के औद्योगिक देशों का हिस्सा दो तिहाई है। अम्लीय वर्षा (एसिड रेन) के लिए जिम्मेदार सल्फर और नाइट्रोजन अॉक्साइड का भी तीन चौथाई हिस्सा इन्हीं देशों द्वारा उत्सर्जित होता है। ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाले बहुत सारे उद्योगों को विकसित देशों से हटाकर विकासशील देशों में लगाया जा रहा है।
स्रोत- मानव विकास रिपोर्ट, 2005, यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम।

भारत में आर्थिक असमानता को दर्शाने वाले कुछ आँकड़े
यहाँ भारत की 2011 की जनगणना से लिए गए घरेलू संपदा और सुविधाओं के बारे में कुछ आँकड़े प्रस्तुत हैं। इनको याद करने की आवश्यकता नहीं है। इन आँकड़ों को गाँव और शहर के बीच की असमानता को समझने के लिए पढ़िए। आपका परिवार इन आँकड़ों में कहाँ आता है?
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हमारे चारों और बहुत-सी असमानताएँ एेसी हैं, जिन पर कोई आपत्ति नहीं करता। एेसे में देश और दुनिया की असमानताओं पर बात करना बकवास है। ज़रा इस पर ही ध्यान दो कि कैसे मेरे माता-पिता मेरे भाई की तरफदारी करते हैं।

यहाँ हमारा सामना एक विरोधाभास से होता है। लगभग हर कोई समानता के आदर्श को स्वीकार करता है, जबकि लगभग हर तरफ हमें असमानता के दर्शन होते हैं। हम एक एेसी जटिल दुनिया में रहते हैं- जिसमें धन-संपदा, अवसर, कार्य स्थिति और शक्ति की भारी असमानता है। क्या हमें इस तरह की असमानता से चिंतित होना चाहिए? क्या ये सामाजिक जीवन के स्थायी और अपरिहार्य लक्षण हैं, जो मनुष्यों की प्रतिभा और योग्यता के साथ-साथ सामाजिक विकास और संपन्नता में उनके योगदान के अंतर को भी प्रतिबिंबित करते हैं? क्या ये असमानताएँ हमारी सामाजिक स्थिति और नियमों के कारण पैदा होती हैं? ये एेसे प्रश्न हैं जिन्होंने दुनिया भर के लोगों को वर्षों से परेशान कर रखा है।

इस तरह के सवालों ने समानता को सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांत का केंद्रीय विषय बना दिया। राजनीतिक सिद्धांत के छात्र को सवालों की एक लंबी शृंखला का सामना करना पड़ता है। इसी तरह का एक सवाल है कि, समानता का क्या निहितार्थ है? जबकि हम बहुत से मायनो में बड़े स्पष्ट रूप से अलग हैं, यह बात कहने का आशय क्या है कि हम समान हैं? हम समानता के आदर्श के माध्यम से क्या पाना चाहते हैं? क्या हम आय और रुतबे के सभी अंतरों को मिटाने का प्रयास कर रहे हैं? दूसरे शब्दों मे, हम किस तरह की और किसके लिए समानता पाना चाहते हैं? समानता की अवधारणा के बारे में कुछ और प्रश्न भी उठाए गए हैं। हम यहाँ उन पर भी विचार करेंगे। समानता को बढ़ावा देने के लिए क्या हमें सभी लोगों से हमेशा बिल्कुल एक तरह का व्यवहार करना चाहिए?

3.2 समानता क्या है?


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ये चित्र मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव की ओर संकेत करते हैं। ये हममें से अधिकांश को अस्वीकार्य हैं। वास्तव में इस तरह के भेदभाव समानता के हमारे आत्म-बोध का उल्लंघन करता है। समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं।

हालाँकि लोगों से बराबर सम्मान का व्यवहार करने का मतलब ज़रूरी नहीं कि हमेशा एक जैसा व्यवहार करना भी हो। कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं करता। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन ज़रूरी है। अलग-अलग काम और अलग-अलग लोगों को महत्त्व और लाभ भी अलग-अलग मिलता है। कई बार इस बरताव में यह अंतर न केवल स्वीकार्य हो सकता है, बल्कि ज़रूरी भी लग सकता है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री या सेना के जनरल को विशेष सरकारी दर्ज़ा या सम्मान देना हमें तब तक समानता की धारणा के विपरीत नहीं लगता जब तक कि उसका दुरुपयोग न हो। लेकिन कुछ अलग किस्म की असमानताएँ अन्यायपूर्ण लग सकती हैं।

अब सवाल यह उठता है कि कौन-सी विशिष्टताएँ और विभेद स्वीकार किए जाने लायक हैं और कौन-सी नहीं। कई बार लोगों से अलग तरह का बरताव इसलिए किया जाता है कि उनका जन्म किसी खास धर्म, नस्ल, जाति या लिंग में हुआ है। हम असमानता के इन आधारों को अस्वीकार करते हैं। लेकिन लोगों की आकांक्षाएँ और लक्ष्य अलग-अलग हो सकते हैं और हो सकता है कि सभी को समान सफलता न मिले। अगर वे अपने अंदर छुपी संभावनाओं को विकसित करने में सक्षम हैं तो एेसा महसूस नहीं होगा कि समानता खतरे में है। कुछ लोग अच्छे संगीतकार हो सकते हैं, जबकि कुछ नहीं। कुछ प्रसिद्ध वैज्ञानिक बन सकते हैं, जबकि कुछ और अपने कड़े परिश्रम या चेतना के लिए विख्यात हो सकते हैं। समानता के आदर्श से जुड़े होने का यह मतलब नहीं है कि सभी तरह के अंतरों का उन्मूलन हो जाए। इसका मतलब केवल यह है कि हमसे जो व्यवहार किया जाता है और हमें जो भी अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए।

अवसरों की समानता

समानता की अवधारणा में यह निहित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं। इसका आशय यह है कि समाज में लोग अपनी पसंद और प्राथमिकताओं के मामलों में अलग हो सकते हैं। उनकी प्रतिभा और योग्यताओं में भी अंतर हो सकता है और हो सकता है इस कारण से कुछ लोग अपने चुने हुए क्षेत्रों में बाकी लोगों से ज़्यादा सफल हो जाएँ। लेकिन केवल इसलिए कि कोई क्रिकेट में पहले पायदान पर पहुँच गया है या कोई बहुत सफल वकील बन गया है, समाज को असमान नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में सामाजिक दर्ज़ा, संपत्ति या विशेषाधिकारों में समानता का अभाव होना महत्त्वपूर्ण नहीं है लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी चीज़ों की उपलब्धता में असमानताओं से कोई समाज असमान और अन्यायपूर्ण बनता है।

प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ

राजनीतिक सिद्धांत में प्राकृतिक असमानताओं और समाजजनित असमानताओं में अंतर किया जाता है। प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। समाजजनित असमानताएँ वे होती हैं, जो समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किए जाने से पैदा होती हैं।

प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं। यह आमतौर पर मान लिया जाता है कि प्राकृतिक विभिन्नताओं को बदला नहीं जा सकता। दूसरी ओर वे सामाजिक असमानताएँ हैं, जिन्हें समाज ने पैदा किया है। उदाहरणस्वरूप, कुछ समाज बौद्धिक काम करने वालों को शारीरिक कार्य करने वालों से अधिक महत्त्व देते हैं और उन्हें अलग तरीके से लाभ देते हैं। वे विभिन्न वंश, रंग या जाति के लोगों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हैं। इस तरह के भेदभाव में समाज के मूल्य प्रतिबिंबित होंगे और इनमें से कुछ हमें निश्चित रूप से अनुचित लग सकते हैं।

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प्राकृतिक और समाजमूलक असमानताओं में प.ηर्क करना इसलिए भी उपयोगी होता है कि इससे स्वीकार की जा सकने लायक और अन्यायपूर्ण असमानताओं को अलग-अलग करने में मदद मिलती है। लेकिन दो तरह की असमानताओं में प.ηर्क हमेशा साफ और अपने आप स्पष्ट नहीं होता। उदाहरण के लिए जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। एेसा लगने लगता है जैसे कि वे जन्मगत हों और आसानी से बदल नहीं सकती। उदाहरण के लिए, औरतें अनादि काल से ‘अबला’ कही जाती थीं। उन्हें भीरु एवं पुरुषों से कम बुद्धि का माना जाता था, जिन्हें विशेष संरक्षण की ज़रूरत थी। इसलिए यह मान लिया गया था कि औरतों को समान अधिकार से वंचित करना न्यायसंगत है। अफ्रीका में काले लोग उनके औपनिवेशिक शासकों द्वारा कम बुद्धिवाले, निरे बच्चे और महज शारीरिक श्रम, खेल-कूद और संगीत में बेहतर माने गए। यह धारणा दासप्रथा जैसी संस्थाओं को न्यायोचित ठहराने में प्रयुक्त हुई। एेसे सभी मानकों और मूल्यांकनों पर अब सवाल उठाए जा रहे हैं। उन्हें प्राकृतिक लक्षणों पर आधारित मानने से अधिक जनता की शक्ति और राष्ट्र की सत्ता के बीच के प.ηर्क का प्रतिबिंब माना जाता है।

प्राकृतिक विशिष्टता की धारणा से एक और समस्या उत्पन्न होती है। वह यह कि प्राकृतिक मानी गयी कुछ भिन्नताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रहीं। उदाहरणस्वरूप, चिकित्सा विज्ञान और तकनीकी प्रगति ने विकलांग व्यक्तियों का समाज में प्रभावी ढंग से काम करना संभव बना दिया है। आज कंप्यूटर नेत्रहीन व्यक्ति की मदद कर सकते हैं, पहियादार कुर्सी और कृत्रिम पाँव शारीरिक अक्षमता के निराकरण में सहायक हो सकते हैं। यहाँ तक कि कॉस्मेटिक सर्जरी से किसी व्यक्ति की शक्ल-सूरत भी बदली जा सकती है। प्रसिद्ध भौतिकविद् स्टीफन हॉकिन्स शायद ही चल या बोल सकते हैं, पर उन्होंने विज्ञान में बड़ा योगदान किया है। आज अगर विकलांग लोगों को उनकी विकलांगता से उबरने के लिए ज़रूरी मदद और उनके कामों के लिए उचित पारिश्रमिक देने से इस आधार पर इनकार कर दिया जाए कि प्राकृतिक रूप से वे कम सक्षम हैं, तो यह अधिकतर लोगों को अन्यायपूर्ण लगेगा।

इन सब जटिलताओं के कारण प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं के बीच के फर्क को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मानदंड के तौर पर उपयोग करना कठिन होता है। इसी कारण से बहुत-से सिंद्धातकार अपने चयन से पैदा हुई असमानता और व्यक्ति के विशेष परिवार या परिस्थितियों में जन्म लेने से पैदा हुई असमानता में प.ηर्क करते हैं। यह दूसरी तरह की असमानता ही समानता के पक्षधर लोगों के सरोकार का स्रोत है। वे चाहते हैं कि परिवेश से जन्मी असमानता को न्यूनतम और समाप्त किया जाए।

3.3 समानता के तीन आयाम

हमने इस सवाल पर विचार किया कि किस प्रकार के सामाजिक अंतर स्वीकार किए जा सकते हैं। इस पर विचार करने के बाद हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि समानता के वे कौन-कौन से आयाम है जिन्हे हम पाना चाहते हैं। समाज में व्याप्त अलग-अलग तरह की असमानताओं को पहचानते समय विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समता के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीन आयामों को रेखांकित किया। समानता के इन तीनों आयामों को लक्ष्य करते हुए ही एक अधिक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज की ओर बढ़ा जा सकता है।

राजनीतिक समानता

लोकतांत्रिक समाजों में आमतौर पर सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना राजनीतिक समानता में शामिल है। आप नागरिकता के अध्याय में पढ़ेंगे कि समान नागरिकता अपने साथ कुछ मूल अधिकार मसलन मतदान का अधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक विश्वास की आज़ादी लाती है। ये एेसे अधिकार हैं, जो नागरिकों को अपना विकास करने और राज्य के काम-काज में हिस्सा लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। लेकिन ये केवल औपचारिक अधिकार हैं, जिन्हें औपचारिक संविधान और कानूनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है। हम जानते हैं कि सभी नागरिकों को समान अधिकार देने वाले देशों में भी काफी असमानता बरकरार है। एेसी असमानताएँ अमूमन सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में नागरिकों को उपलब्ध संसाधनों और अवसरों की भिन्नता का परिणाम होती हैं। इसलिए अक्सर समान अवसर या ‘मुकाबले के लिए एक समान स्थितियों’ की माँग उठती है। हमें याद रखना चाहिए कि राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण घटक है लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं होती।

सामाजिक समानता

राजनीतिक समानता या समान कानूनी अधिकार देना इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम था पर इसके साथ अवसरों की समानता देना भी महत्त्वपूर्ण था। राजनीतिक समानता की ज़रूरत उन बाधाओं को दूर करने में है जिन्हें दूर किए बिना लोगों का सरकार में अपनी बात रखने और उपलब्ध साधनों तक पहुँचना संभव नहीं होगा। समानता के उद्देश्य की आवश्यकता यह भी है कि विभिन्न समूह और समुदायों के लोगों के पास इन साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो। इसके लिए यह ज़रूरी है कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के प्रभावों को न्यूनतम किया जाए। समाज में सभी सदस्यों के जीवनयापन के लिए अन्य चीज़ों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीज़ों की गारंटी भी ज़रूरी माना गया। इन सुविधाओं के अभाव में समाज के सभी सदस्यों के लिए समान शर्तों पर स्पर्धा करना संभव नहीं होगा। जिस समाज में अवसरों की समानता विद्यमान न हो वहाँ में अंतर्निहित प्रतिभा का विशाल खजाना बर्बाद हो जाता है।

भारत में समान अवसरों के मद्देनजर एक विशेष समस्या सुविधाओं की कमी की वजह से नहीं, बल्कि कुछ सामाजिक रीति-रिवाज़ों से सामने आती है। देश के विभिन्न हिस्सों में औरतों को उत्तराधिकार का समान अधिकार नहीं मिलता, कुछेक गतिविधियों में उनके शामिल होने पर पाबंदी होती है और उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने से भी हतोत्साहित किया जाता है। एेसे मामलों में राज्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। औरतों को समान कानूनी अधिकार प्रदान करना, सार्वजनिक स्थलों या रोज़गार में भेदभाव और परेशानी से बचाने वाली नीतियाँ बनाना और शिक्षण या कुछ अन्य पेशों में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन देने जैसे उपाय करके राज्य यह भूमिका निभाता है। लोगों में जागरूकता बढ़ाने और इन अधिकारों का प्रयोग करने वालों को समर्थन देकर भी राज्य अपनी भूमिका निभा सकता है।

आर्थिक समानता

आर्थिक असमानता एेसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत या आमदनी में खासी भिन्नता हो। आर्थिक असमानता की डिग्री नापने का एक तरीका तो यह है कि संपन्नतम और निर्धनतम समूहों के बीच का आनुपातिक अंतर नापा जाए। एक अन्य तरीका गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या का आकलन करना है। यह सही है कि समाज में धन-दौलत या आमदनी की पूरी समानता संभवतः कभी विद्यमान नहीं रही। आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। यह माना जाता है कि समान अवसर कम से कम उन्हें अपनी हालत को सुधारने का मौका देते हैं जिनके पास प्रतिभा और संकल्प है। समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना छुपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है।

लेकिन समाज के लिए गहरी खाई जैसी वे असमानताएँ अधिक खतरनाक हैं जो पीढियों से अनछुई रही हैं। अगर किसी समाज में लोगों के कुछ खास वर्ग के लोग पीढ़ियों से बेशुमार धन-दौलत और इसके साथ हासिल होने वाली सत्ता का उपभोग करते हैं, तो समाज वर्गों में बंट जाता है। एक ओर वे, जो पीढ़ियों से धन, विशेषाधिकार और सत्ता का उपभोग करते आये हैं और अन्य जो पीढ़ियों से गरीब बने रहे। कालक्रम में एेसा वर्गभेद, आक्रोश और हिंसा को बढ़ावा दे सकता है। अमीर वर्गों की शक्ति के कारण एेसे समाज को अधिक खुला व समतावादी बनाने के लिए सुधारना ज़्यादा कठिन साबित हो सकता है।

शिक्षा में असमानता
नीचे दी गई तालिका में विभिन्न समुदायों की शैक्षिक स्थिति से जुड़े कुछ आँकड़े दिए गए हैं। इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अंतर हैं, क्या वे महत्त्वपूर्ण हैं? क्या इन अंतरों का होना केवल एक संयोग है या ये अंतर जाति-व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं? आप यहाँ जाति-व्यवस्था के अलावा और किन कारणों का प्रभाव देखते हैं?
शहरी भारत में उच्च शिक्षा में जातिगत समुदायों में असमानता
जाति/समुदाय  प्रति हजार लोगों में स्नातकों की संख्या
अनुसूचित जाति 47
मुस्लिम
61
हिन्दू (अन्य पिछड़ी जातियाँ) 86
अनुसूचित जनजाति 109
ईसाई
237
सिक्ख
250
हिन्दू(उच्च जातियाँ) 253
अन्य धार्मिक समुदाय 315
अखित भारतीय औसत
155
स्रोत - नेशनल सेंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन, 55वाँ राउंड सर्वे, 1999-2000

वाद-विवाद-संवाद
महिलाओं को सेना की लड़ाकू टुकड़ियों में शामिल होने और सेना के सर्वोच्च पद पर पहुँचने की अनुमति होनी चाहिए।

मार्क्सवाद और उदारवाद हमारे समाज की दो प्रमुख राजनीतिक विचारधाराएँ हैं। मार्क्स उन्नीसवीं सदी का एक प्रमुख विचारक था। मार्क्स ने दलील दी कि खाईनुमा असमानताओं का बुनियादी कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों जैसे- जल, जंगल, जमीन या तेल समेत अन्य प्रकार की संपत्ति का निजी स्वामित्व है। निजी स्वामित्व मालिकों के वर्ग को सिर्फ अमीर नहीं बनाता, उन्हें राजनीतिक ताकत भी देता है। यह ताकत उन्हें राज्य की नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने में सक्षम बनाती है और वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरा साबित हो सकते हैं। मार्क्सवादी और समाजवादी महसूस करते हैं कि आर्थिक असमानताएँ सामाजिक रुतबे या विशेषाधिकार जैसी अन्य तरह की सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं। इसलिए समाज में असमानता से निबटने के लिए हमें समान अवसर उपलब्ध कराने से आगे जाने और आवश्यक संसाधनों और अन्य तरह की संपत्ति पर जनता का नियंत्रण कायम करने और सुनिश्चित करने की ज़रूरत है। एेसे विचार विवादास्पद हो सकते हैं लेकिन उन्होंने एेसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए, जिनके समाधान करने की ज़रूरत है।

उदारवादी सिद्धांतों में विरोधी दृष्टिकोण पाया जा सकता है। उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांश के वितरण के सर्वाधिक कारगर और उचित तरीके के रूप में प्रतिद्वंद्विता के सिद्धांत का समर्थन करते हैं। वे मानते हैं कि सबके लिए जीवनयापन के न्यूनतम स्तर और समान अवसर प्रदान करने और सुनिश्चित करने के लिए राज्य को हस्तक्षेप करना है, लेकिन इससे समाज में खुद-ब-खुद समानता और न्याय स्थापित नहीं हो सकता। स्वतंत्र और निष्पक्ष परिस्थितियों में लोगों के बीच प्रतिस्पर्द्धा ही समाज में लाभांशों के वितरण का सबसे न्यायपूर्ण और कारगर उपाय होती है। उदारवादियों का मानना है कि जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतंत्र और खुली होगी असमानताओं की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा।

संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लीय असमानता
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संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्ली असमानता के बारे में और भी खोज करें। हमारे देश में कौन-कौन से समूह इसी प्रकार की असमानता के शिकार हैं। अमेरिका में इस असमानता को कम करने के लिए किस प्रकार की नीतियाँ अपनाई गई? क्या उनके अनुभवों से कुछ सीखा जा सकता है? क्या उन्हाेंने भी हमारे अनुभवों से कुछ सीखा है?

उदारवादियों के लिए नौकरियों में नियुक्ति और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए चयन के उपाय के रूप में प्रतिस्पर्धा का सिद्धांत सर्वाधिक न्यायोचित और कारगर है। उदाहरणस्वरूप, अपने देश में अनेक छात्र व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में नामांकन की आशा करते हैं, जबकि प्रवेश के लिए अत्यधिक कड़ी प्रतिस्पर्धा है। समय-समय पर सरकार और अदालतों ने शैक्षणिक संस्थानों और प्रवेश परीक्षाओं का नियमन करने के लिए हस्तक्षेप किया है, ताकि हर प्रत्याशी को स्पर्धा का उचित और समान अवसर मिले, फिर भी कुछ को प्रवेश नहीं मिलता, लेकिन इसे सीमित सीटों के बंटवारे का निष्पक्ष तरीका माना जाता है।

नारीवाद
नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धांत है। वे स्त्री या पुरुष नारीवादी कहलाते हैं, जो मानते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक समतापूर्ण जीवन जी सकते हैं।
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नारीवाद के अनुसार, स्त्री-पुरुष असमानता ‘पितृसत्ता’ का परिणाम है। ‘पितृसत्ता’ से आशय एक एेसी समाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था से है, जिसमें पुरुष को स्त्री से अधिक महत्त्व और शक्ति दी जाती है। पितृसत्ता इस मान्यता पर आधारित है कि पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। नारीवादी इस नज़रिये पर सवालिया निशान लगाते हैं। इसके लिए वे स्त्री-पुरुष के जैविक विभेद और स्त्री-पुरुष के बीच सामाजिक भूमिकाओं के विभेद के बीच अंतर करने का आग्रह करते हैं। जैविक या लिंग-भेद (Sex) प्राकृतिक और जन्मजात होता है, जबकि लैंगिकता (Gender) समाजजनित है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि मनुष्य का नर या मादा के रूप में जन्म होता है, लेकिन औरत या मर्द को जिन सामाजिक भूमिकाओं में हम देखते हैं, उन्हें समाज गढ़ता है। उदाहरण के लिए यह जीवविज्ञान का एक तथ्य है कि केवल औरत ही गर्भधारण करके बालक को जन्म दे सकती है, लेकिन जीवविज्ञान के तथ्य में यह निहित नहीं है कि जन्म देने के बाद केवल स्त्री ही बालक का लालन-पालन करे। नारीवादियों ने हमें सिखाया है कि स्त्री-पुरुष असमानता का अधिकांश प्रकृति ने नहीं समाज ने पैदा किया है।
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‘पितृसत्ता’ ने श्रम का कुछ एेसा विभाजन किया है जिसमें स्त्री ‘निजी’ और ‘घरेलू’ किस्म के कामों के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि पुरुष की जिम्मेदारी ‘सार्वजनिक’ और ‘बाहरी’ दुनिया में है। नारीवादी इस विभेद पर भी सवाल खड़े करते हैं। उनका कहना है कि अधिकतर स्त्रियाँ ‘सार्वजनिक’ और ‘बाहरी’ क्षेत्र में भी सक्रिय होती हैं। इसीलिए दुनियाभर में अधिकतर स्त्रियाँ घर से बाहर अनेक क्षेत्रों में कार्यरत हैं। लेकिन घरेलू कामकाज की पूरी जिम्मेदारी केवल स्त्रियों के कंधों पर है। नारीवादी इसे स्त्रियों के कंधे पर ‘दोहरा बोझ’ बताते हैं। हालाँकि इस दोहरे बोझ के बावजूद स्त्रियों को सार्वजनिक क्षेत्र के निर्णयों में ना के बराबर महत्त्व दिया जाता है। नारीवाद का मानना है निजी/सार्वजनिक के बीच यह विभेद और समाज या व्यक्ति द्वारा गढ़ी हुई लैंगिक असमानता के सभी रूपों को मिटाया जा सकता है और मिटाया जाना चाहिए।


आओ कुछ करके सीखे
अपने विद्यालय के छात्र/ छात्राओं पर ध्यान दो और उनमें नज़र आने वाली सभी आर्थिक-सामाजिक असमानताओं की सूची बनाओ।

समाजवादियों से उलट उदारवादी नहीं मानते कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ एक-दूसरे से अनिवार्यतया जुड़ी होती हैं। उनका मानना है कि इनमें से हर क्षेत्र की असमानताओं का निराकरण ठोस तरीके से करना चाहिए। इसलिए, लोकतंत्र राजनीतिक समानता प्रदान करने में मददगार हो सकता है, लेकिन सामाजिक भिन्नताओं और आर्थिक असमानताओं के समाधान के लिए विविध रणनीतियों की खोज करना भी ज़रूरी है। उदारवादियों के लिए असमानता अपने आप में समस्या नहीं है, बल्कि वे केवल एेसी अन्यायी और गहरी असमानताओं को ही समस्या मानते हैं, जो लोगों को उनकी वैयक्तिक क्षमताएँ विकसित करने से रोकती हैं।

3.4 हम समानता को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं?

अभी समानता के उद्देश्य को पाने के सर्वाधिक वांछनीय तरीके के बारे में समाजवादियों और उदारवादियों के बीच के कुछ बुनियादी मतभेदों पर चर्चा की गई। जबकि इन अलग-अलग दृष्टिकोणों के तुलनात्मक गुणों और सीमाओं पर विश्वभर में बहस हो रही है, आज भी यह विचार करना जरूरी है कि समानता की ओर बढ़ने के लिए कौन-से सिंद्धात और नीतियाँ आवश्यक होंगी। खासतौर से सोचना है कि क्या समानता लाने के उद्देश्य के लिए सकारात्मक योजना उचित है? इस मुद्दे पर हाल के वर्षों में बहुत विवाद खड़ा हुआ है। इस विषय पर अगले खंड में चर्चा की जाएगी।

औपचारिक समानता की स्थापना

समानता लाने की दिशा में पहला कदम असमानता और विशेषाधिकार की औपचारिक व्यवस्था को समाप्त करना होगा। दुनियाभर में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं को कुछ रीति-रिवाज़ों और कानूनी व्यवस्थाओं से संरक्षित रखा गया है। इन रिवाज़ों या कानूनों द्वारा समाज के कुछ हिस्साें को तमाम किस्म के अवसरों और लाभों का आनन्द उठाने से रोका जाता था। बहुत सारे देशों में गरीब लोगों को मताधिकार से वंचित रखा जाता था। महिलाओं को बहुत सारे व्यवसाय और गतिविधियों में भाग लेने की इज़ाज़त नहीं थीं। भारत में जाति-व्यवस्था निचली जातियों को शारीरिक श्रम के अलावा कुछ भी करने से रोकती थी। कुछ देशों में केवल कुछ खास परिवारों के लोग ही सर्वोच्च पदों तक पहुँच सकते हैं।

समाजवाद
समाजवाद असमानताओं के जवाब में उपजे कुछ राजनीतिक विचारों का समूह है। ये खासकर वे असमानताएँ थीं, जो औद्योगिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से पैदा हुई और उसमें बाद तक बनी रहीं। समाजवाद का मुख्य सरोकार वर्तमान असमानताओं को न्यूनतम करना और संसाधनों का न्यायपूर्ण बँटबारा है। हालाँकि समाजवाद के पक्षधर पूरी तरह से बाज़ार के खिलाफ तो नहीं होते, लेकिन वे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसे आधारभूत क्षेत्रों में सरकारी नियमन, नियोजन और नियंत्रण का समर्थन ज़रूर करते हैं।

भारत में प्रमुख समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया ने पाँच तरह की असमानताओं की पहचान की, जिनके खिलाफ एक साथ लड़ना होगा - स्त्री-पुरुष असमानता, चमड़ी के रंग पर आधारित असमानता, जातिगत असमानता, कुछ देशों का अन्य पर औपनिवेशिक शासन और निस्संदेह आर्थिक असमानता है। यह आज स्वप्रमाणित धारणा लग सकती है, लेकिन लोहिया के समय में समाजवादियों के बीच आम तौर पर यही तर्क चलता था कि असमानता का एकमात्र रूप वर्गीय असमानता है, जिसके खिलाफ संघर्ष अपरिहार्य है। दूसरी असमानताएँ गौण हैं या आर्थिक असमानता का खात्मा होते ही वे स्वतः खत्म हो जाएँगी। लोहिया का कहना था कि इन असमानताओं में से प्रत्येक की अलग-अलग जड़ें हैं और उन सबके खिलाफ अलग-अलग लेकिन एक साथ संघर्ष छेड़ने होंगे। उन्होंने एकांगी क्रांति की बात नहीं कही। उनके लिए उक्त पाँच असमानताओं के खिलाफ संघर्ष का अर्थ था पाँच क्रांतियाँ। उन्होंने इस सूची में दो और क्रांतियों को शामिल किया - व्यक्तिगत जीवन पर अन्यायपूर्ण अतिक्रमण के खिलाफ नागरिक स्वतंत्रता के लिए क्रांति तथा अहिंसा के लिए, सत्याग्रह के पक्ष में शस्त्रत्याग के लिए क्रांति। ये ही सप्तक्रांतियाँ थीं, जो लोहिया के अनुसार समाजवाद का आदर्श है।

समानता की प्राप्ति के लिए ज़रूरी है कि से सभी निषेध या विशेषाधिकारों का अंत किया जाए। चूँकि एेसी बहुत-सी व्यवस्थाओं को कानून का समर्थन प्राप्त है इसलिए यह ज़रूरी होगा कि सरकार और कानून असमानता की व्यवस्थाओं को संरक्षण देना बंद करे। हमारा संविधान ने भी यही किया है। संविधान धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने का निषेध करता है। हमारा संविधान छुआछूत की प्रथा का भी उन्मूलन करता है। अधिकतर आधुनिक संविधान और लोकतांत्रिक सरकारें औपचारिक रूप से समानता के सिंद्धात को स्वीकार कर चुकी हैं और इस सिद्धांत को जाति, नस्ल, धर्म या लिंग पर ध्यान दिए बिना ‘सभी नागरिकों को कानून के एक समान बर्ताव’ के रूप में समाहित किया है।

विभेदक बरताव द्वारा समानता

जैसा कि हम देख चुके हैं, समानता के सिंद्धात को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक समानता या कानून के समक्ष समानता आवश्यक तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं। कभी-कभी यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, उनसे अलग-अलग बरताव करना आवश्यक होता है। इस उद्देश्य से लोगों के बीच कुछ अंतरों को ध्यान में रखना होता है। उदाहरण के लिए विकलांगों की सार्वजनिक स्थानों पर विशेष ढलान वाले रास्तों (Ramp)की माँग न्यायोचित होगी, क्योंकि इससे ही उन्हें सार्वजनिक भवनों में प्रवेश करने का समान अवसर मिल सकेगा। इसी तरह रात में कॉल सेंटर में काम करने वाली महिला को कॉल सेंटर आते-जाते समय विशेष सुरक्षा की ज़रूरत हो सकती है। इससे उसके काम के समान अधिकार की रक्षा हो सकेगी। समानता की कटौती इन्हें नहीं, वरन् बढ़ावा देने वाले उपायों के रूप में देखा जाना चाहिए।
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किस तरह के विभेद, अवसरों तक समान पहुँच को बाधित करते हैं और इन बाधाओं को दूर करने के लिए किस तरह की नीतियाँ अपनाई जानी चाहिए? आजकल इस तरह के सवालों पर लगभग हर समाज में चर्चा हो रही है। कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाई’ की नीतियाँ अपनाई हैं। अपने देश में हमने आरक्षण की नीति अपनाई है। अगले खंड में ‘सकारात्मक कार्यवाई’ के विचार को समझने का प्रयास करेंगे। हम ‘सकारात्मक कार्यवाई’ के परिप्रेक्ष्य में अपनाई गई कुछ नीतियों और उठाए गए कुछ मुद्दों को भी समझेंगे।

सकारात्मक कार्यवाई

सकारात्मक कार्यवाई इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। असमानताओं को मिटाने के लिए ज़रूरी होगा कि असमानता की गहरी खाईयों को भरने वाले अधिक सकारात्मक कदम उठाए जाएँ। इसीलिए सकारात्मक कार्यवाई की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं के संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं।

आओ कुछ करके सीखे
अलग-अलग तरह की शारीरिक विकलांगता के शिकार छात्रों को अन्य छात्रों की भाँति सीखने के लिए आवश्यक सुविधाओं की एक सूची बनाओ। आपके विद्यालय में इनमें से कौन-कौन सी सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

सकारात्मक कार्यवाई के कई रूप हो सकते हैं। इसमें वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल जैसी सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करने से लेकर नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष व्यवस्था करने तक की नीतियाँ हो सकती हैं। अपने देश में वंचित समूहों को अवसर की समानता देने के लिए हमने नौकरियों और शिक्षा में आरक्षित स्थान या कोटा की नीति को अपनाया है। यह नीति बहुत वाद-विवाद और असहमति का केंद्र रही है। इस नीति की इस आधार पर वकालत की गई है कि कुछ समूह वर्जना और अलगाव के कारण सामाजिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के शिकार रहे हैं। जो समुदाय अतीत में पीड़ित और समान अवसरों से वंचित रहे हैं, उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे अन्य लोगों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्धा करें। इसीलिए एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के हित में उनको विशेष संरक्षण और सहायता देने की आवश्यकता है।

सकारात्मक कार्यवाई के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित समय अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया। इसके पीछे मान्यता यह है कि विशेष बरताव इन समुदायों को वर्तमान वंचनाओं से उबरने में सक्षम बनाएगा और फिर ये अन्य समुदायों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे। हालाँकि सकारात्मक कार्यवाई की नीतियों का समाज को अधिक समतामूलक बनाने के लिए समर्थन किया गया, लेकिन कुछ सिद्धांतकार इन नीतियों के खिलाफ तर्क देते हैं। वे सवाल करते हैं कि क्या लोगों से विभेदकारी बरताव करने से कभी भी अधिक समानता की ओर ले जाएगा?

सकारात्मक विभेदीकरण, खासकर आरक्षण की नीतियों के आलोचक इन नीतियों के खिलाफ तर्क देने के लिए समानता के सिद्धांत का सहारा लेते हैं। इनका मानना है कि वंचितों को उच्च शिक्षा या नौकरियों में आरक्षण या कोटा देने का कोई भी प्रावधान अनुचित है, क्योंकि यह मनमाने तरीके से समाज के अन्य वर्गों को समान व्यवहार के अधिकार से वंचित करता है। आलोचकों का कहना है कि आरक्षण भी एक तरह का भेदभाव है। समानता की माँग है कि सब लोगों से बिल्कुल एक तरह से व्यवहार हो। जब हम व्यक्तियों के बीच जाति या रंग के आधार पर अंतर करते हैं, तब हम जातिगत और नस्लगत पूर्वाग्रहों और भी मजबूत कर रहे होते हैं। इन सिद्धांतकारों के लिए उन सामाजिक विशिष्टताओं को समाप्त करना महत्त्वपूर्ण है, जो समाज को विभाजित करती हैं।

इस बहस की रोशनी में यह प्रासंगिक होगा कि व्यक्ति के समान अधिकारों और राज्य के निर्देशक सिद्धांत के रूप में समानता के बीच प्.ाηर्क किया जाए। व्यक्ति का किसी शैक्षिक संस्था में प्रवेश या सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार पाने का समान अधिकार है, लेकिन प्रतिस्पर्धा उचित होनी चाहिए। जब कभी कुछ सीमित स्थानों या नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा हो तब वंचित समूहों के लोग अलाभकारी स्थिति के शिकार हो सकते हैं। एेसे शिक्षार्थी जो अपने समुदाय में पढ़ने वालों की पहली पीढ़ी से आते हैं, अर्थात जिनके माता-पिता और पूर्वज अशिक्षित रहे हाें, अपनी ज़रूरतों और परिस्थितियों के मामले में पढ़े-लिखे परिवारों के छात्रों से बहुत अलग होते हैं। दलित, स्त्री या वर्जना और वंचना के शिकार अन्य श्रेणियों से आने वाले सदस्य कुछ विशेष सहायता के पात्र और अधिकारी होते हैं। इस विशेष सहायता को उपलब्ध कराने हेतु राज्य को समानता लाने वाली सामाजिक नीतियाँ बनानी चाहिए। इन नीतियों से और उन्हें अन्य लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने का उचित अवसर मिल सकेगा।

वाद-विवाद-संवाद
अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए सकारात्मक कार्यवाही (कोटा, छात्रवृत्ति, प्रशिक्षण आदि) की नीतियाँ निजी शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए भी लागू की जानी चाहिए।

तथ्य यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में भारत में वंचित जनसंख्या के लिए जितना किया जाना चाहिए था उससे बहुत कम किया गया है। स्कूली शिक्षा के स्तर पर असमानताएँ चौंकाने वाली हैं। ग्रामीण और शहरी झोपड़पट्टी के बहुत सारे गरीब बच्चों के स्कूल जाने की संभावना नहीं के बराबर है। यदि उन्हें अवसर मिल भी गया, तब उनके स्कूल के पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं होता। खासकर अभिजातवर्गीय स्कूलों की सुविधाओं की तुलना में ये बच्चे कुछ असमानताओं के साथ स्कूल में प्रवेश लेते हैं। ये असमानताएँ उनका पीछा नहीं छोड़ती और योग्यता बढ़ाने या नौकरी पाने की संभावनाओं पर लगातार चोट पहुँचाती रहती हैं। ये छात्र अभिजात समझे जाने वाले व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाने में बाधाओं का सामना करते हैं क्योंकि उनके पास विशेष कोचिंग के लिए ज़रूरी साधनों का अभाव होता है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की फीस भी इतनी ज़्यादा होती है कि उससे भी एक घेराबंदी जैसी हो जाती है। परिणामस्वरूप वे अधिक विशेषाधिकार और सुविधाओं वाले वर्गों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते।

इस तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ समान अवसर की प्राप्ति में बाधक होती हैं। अधिकतर सिद्धांतकार आज इस बात को मानते हैं। समान अवसर के लक्ष्य से सभी सहमत हैं। विवाद उन नीतियों के बारे में है जो राज्य को इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनानी चाहिए। क्या राज्य को वंचित समुदायों के लिए कुछ स्थान आरक्षित कर देने चाहिए, या उन्हें कम उम्र से ही विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए, ताकि इन बच्चों की योग्यता और प्रतिभा का विकास हो सके? वंचित कौन है? इसे परिभाषित कैसे किया जाए? क्या वंचितों की पहचान आर्थिक आधार पर की जानी चाहिए या जाति व्यवस्था से पैदा हुई सामाजिक असमानताओं के आधार पर? ये सामाजिक नीति के वे पहलू हैं, जिनके बारे में आज भी बहस हो रही है। अंततः हम जो भी नीतियाँ चुनते हैं, उन्हें सबके लिए समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज बनाने में मिली सफलता के आधार पर जाँचना पड़ेगा।

समानता के विषय पर सोचते समय हमें प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल एक जैसा मानने और प्रत्येक व्यक्ति को मूलतः समान मानने में अंतर करना चाहिए। मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग बरताव की ज़रूरत हो सकती है। लेकिन एेसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना ही होगा। समानता के लक्ष्य को पाने के लिए अलग या विशेष बरताव के बारे में सोचा जा सकता है, लेकिन इसके लिए औचित्य सिद्ध करना और सावधानीपूर्वक पुनर्विचार आवश्यक होता है। चूँकि अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग बरताव जाति व्यवस्था और रंगभेद के अंग थे, इसलिए उदारवादी ‘एक जैसा बर्ताव’ के सिद्धांत से हटते हुए बहुत सावधान रहते हैं।

समानता के उद्देश्य से जुड़े बहुत से मुद्दे नारीवादी आंदोलन द्वारा उठाए गए। उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों ने समान अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उदाहरण के लिए उन्होंने मताधिकार, कॉलेज-यूनिवर्सिटी में डिग्री पाने का अधिकार और काम के लिए अधिकार की उसी प्रकार माँग की जैसे अधिकार पुरूषों को हासिल थे। हालाँकि जैसे ही उन्होंने नौकरियों में प्रवेश किया उन्हें महसूस हुआ कि स्त्रियों को इन अधिकारों को उपयोग में लाने के लिए विशेष सुविधाओं की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए उन्हें मातृत्व अवकाश और कार्यस्थल पर बालवाड़ी जैसे प्रावधानों की आवश्यकता थी। इस प्रकार के विशेष बरताव के बिना वे न तो गंभीरतापूर्वक स्पर्धा में भाग ले सकेंगी और न ही सफल व्यावसायिक और निजी जीवन का आनंद उठा सकेंगी। दूसरे शब्दों में पुरुषों के समान अधिकारों के उपयोग के लिए उन्हें कई बार एक विशेष बरताव की ज़रूरत होती थी।

चिंतन-मंथन
नीचे दी गई स्थितियों पर विचार करें। क्या इनमें से किसी भी स्थिति में विशेष और विभेदकारी बरताव करना न्यायोचित होगा?
कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए।
एक विद्यालय में दो छात्र दृष्टिहीन हैं। विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने के लिए धन-राशि खर्च करनी चाहिए।
गीता बास्केटबॉल बहुत अच्छा खेलती है। विद्यालय को उसके लिए बास्केटबॉल कोर्ट बनाना चाहिए जिससे वह अपनी योग्यता का और भी विकास कर सके।
जीत के माता-पिता चाहते हैं कि वह पगड़ी पहने। इरफान चाहते हैं कि वह जुम्मे (शुक्रवार)को नमाज़ पढ़े, एेसी बातों को ध्यान में रखते हुए स्कूल को जीत से यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि वह क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहने और इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के लिए रुकने को नहीं कहना चाहिए।

जब हम समानता के मुद्दे पर सोचते हैं और यह जाँचते हैं कि एक खास स्थिति में विशेष बरताव ज़रूरी है या नहीं तो हमें लगातार स्वयं से ही पूछने की ज़रूरत है कि क्या विशेष बरताव यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि एक समूह समान अधिकारों का उसी प्रकार आनंद उठा सके जैसा कि शेष समाज। हालाँकि यह सावधानी हमेशा बरतनी चाहिए कि विशेष बरताव वर्चस्व या शोषण की नई संरचनाओं को जन्म न दे अथवा यह विशेष बरताव समाज में विशेषाधिकार और शक्ति को फिर से स्थापित करने वाला एक और प्रभावशाली उपकरण न बन जाए। विशेष बरताव का उद्देश्य और औचित्य एक न्यायपरक और समतामूलक समाज को बढ़ावा देने के माध्यम के अलावा कुछ और नहीं है।

प्रश्नावली

1. कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
2. एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न ही वांछनीय। एक समाज ज़्यादा से ज़्यादा बहुत अमीर और बहुत ग.रीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिए।
3. नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठायें।
(क) सकारात्मक कार्यवाई 
(1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देनेका अधिकार है।
(ख) अवसर की समानता (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ग) समान अधिकार  
 (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए।
4. किसानों की समस्या से संबंधित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमांत किसानों को बाज़ार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमांत किसानों तक ही सीमित रहना चाहिए। क्या यह सलाह समानता के सिद्धांत से संभव है?
5. निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धांत का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पढ़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाडा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खोली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।
6. यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इनमें से कौन-से तर्क समानता के विचार से संगत हैं। कारण भी दीजिए।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे?
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मतभेद पैदा हो जाएँगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लंबे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।