अध्याय 9

शांति

परिचय

युद्ध, आतंकवादी हमलों और गुटीय दंगों पर चीखती अखबारी रपटें हमें निरंतर याद दिलाती हैं कि हम अशांत समय में रहते हैं। वास्तविक शांति के दुःसाध्य बने रहने की सूरत में यह शब्द अपने में काफी लोकप्रिय हो गया है। यह राजनेताओं, पत्रकारों, उद्योगपतियों, शिक्षाशास्त्रियों और सेनाधिकारियों के होठों से झरने के लिए हमेशा तैयार रहता है। इसका हवाला भी पाठ्यपुस्तकों, संविधानों, घोषणापत्रों और समझौतों समेत अनेक तरह के दस्तावेज़ों में प्यार से संजोए गए आदर्श मूल्य के रूप में दिया जाता है।
हर किसी को शांति का आह्वान और अनुसरण की बात करते देखने से हमें लग सकता है कि इस अवधारणा को और स्पष्ट करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हालाँकि एेसा है नहीं। जैसा कि हम आगे देखेंगे। शांति के विचार के प्रति दिखने वाली सहमति अपेक्षाकृत हाल-फिलहाल की ही बात है। साल दर साल शांति का अर्थ और महत्त्व काफी अंतर के साथ आंका गया है।
शांति के समर्थकों को कई सवालों का सामना करना पड़ता है-
1945.png वस्तुतः शांति का अर्थ क्या है? और, आज की दुनिया में यह इतनी कमजोर क्यों है?
1947.png शांति स्थापित करने के लिए क्या किया जा सकता है?
1949.png क्या शांति स्थापित करने के लिए हम हिंसा का उपयोग कर सकते हैं?
1951.png हमारे समाज में हिंसा बढ़ने के प्रमुख कारण क्या हैं?
इस अध्याय में हम इन्हीं कुछ सवालों की विस्तार से जाँच-पड़ताल करेंगे।

9.1 भूमिका

‘लोकतंत्र’, ‘न्याय’ और ‘मानव अधिकारों’ की तरह शांति का जुमला भी एक तकिया कलाम बन गया है। लेकिन हमें निश्चित ही याद रखना चाहिए कि शांति की वांछनीयता को लेकर यह ऊपरी आम सहमति अपेक्षाकृत हाल-फिलहाल की घटना है।

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फ्रेडिरिक नीत्शे

अतीत के अनेक महत्त्वपूर्ण चिंतकों ने शांति के बारे में नकारात्मक ढंग से लिखा है। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे युद्ध को महिमामंडित करने वाला विचारक था। नीत्शे ने शांति को महत्त्व नहीं दिया, क्योंकि उसका मानना था कि सिर्फ संघर्ष ही सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसी तरह अन्य अनेक विचारकों ने शांति को बेकार बताया है और संघर्ष की प्रशंसा व्यक्तिगत बहादुरी और सामाजिक जीवंतता के वाहक के तौर पर की है। इटली के समाज- सिद्धांतकार विल्फ्रेडो पैरेटो (1848-1923) का दावा था कि अधिकतर समाजों में शासक वर्ग का निर्माण सक्षम और अपने लक्ष्यों को पाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करने के लिए तैयार लोगोें से होता है। उसने एेसे लोगों का वर्णन शेर के रूप में किया है।
इसका मतलब यह जताना नहीं है कि शांति के सिद्धांत का कोई पक्षधर नहीं है। इसे तकरीबन सभी धार्मिक उपदेशों में केंद्रीय स्थान प्राप्त है। आधुनिक काल भी लौकिक और आध्यात्मिक, दोनों क्षेत्रों में शांति के प्रबल पैरोकारों का साक्षी रहा है। महात्मा गांधी का इनमें प्रमुख स्थान है। हालाँकि शांति के प्रति समकालीन आग्रह के निशान बीसवीं सदी के अत्याचारों में देखे जा सकते हैं। इन अत्याचारों के परिणामस्वरूप लाखों लोगों की मौत हुई। इनमें से कुछ घटनाओं के बारे में आपने इतिहास की पाठ्यपुस्तक में पढ़ा होगा जैसे - फासीवाद, नाजीवाद का उदय तथा विश्वयुद्ध। अपने पास-पड़ोस में भारत-पाकिस्तान और आज के बांग्लादेश के रूप में देश-विभाजन की त्रासदी का अनुभव हमने किया है।

उपर्युक्त विपदाओं में अभूतपूर्व पैमाने पर तबाही फैलाने में उन्नत तकनीक का प्रयोग भी शामिल रहा है। इस प्रकार, दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी ने लंदन पर घनघोर बमबारी की और प्रतिक्रिया में अंग्रेज़ों ने 1000 बमवर्षकों को जर्मनी के नगरों पर हमला करने भेजा। युद्ध का अंत अमेरिका द्वारा जापानी नगरों, हिरोशिमा और नागासाकी पर अणुबम गिराने से हुआ। इन दो हमलों में कम से कम 1,20,000 लोग तुरंत मारे गए और उससे भी कहीं अधिक लोग आण्विक विकरण के प्रभाव से मरे। करीब 95 प्रतिशत मृतक आम नागरिक थे।
युद्ध के बाद के दशकों में दुनिया में अपनी सर्वोच्चता कायम करने के लिए दो महाशक्तियाें, पूंजीवादी अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच प्रचंड प्रतिस्पर्धा का दौर चला। चूँकि परमाण्विक हथियार शक्ति के नए प्रतीक बन गए थे, इसलिए दोनों ने उनका बड़े पैमाने पर निर्माण और संचय शुरू किया। बढ़ती हुई इस सैनिक प्रतिद्वंद्विता में 1962 का क्यूबाई मिसाइल संकट एक उल्लेखनीय अशुभ प्रसंग है। इसका आरंभ तब हुआ जब अमेरिकी जासूसी विमानों ने अपने पड़ोसी देश क्यूबा में सोवियत संघ के आण्विक मिसाइल खोज निकाले। प्रतिक्रिया में अमेरिका ने क्यूबा की समुद्री सीमाओं की नाकेबंदी कर दी और सोवियत रूस को धमकी दी कि यदि ये मिसाइल नहीं हटाए गए तो वह उसके खिलाफ सैनिक कार्रवाई करेगा। आमने-सामने का यह टकराव तभी समाप्त हुआ जब सोवियत संघ ने अपने मिसाइल हटा लिए। दो सप्ताह तक चले इस संकट ने मानवता को संपूर्ण तबाही के कगार पर खड़ा कर दिया था।

आओ कुछ करके सीखे
एदिता मॉरिस के उपन्यास ‘हिरोशिमा के फूल’ को पढ़िए। इसमें गौर कीजिए कि परमाणु बम का इस्तेमाल किस तरह से लंबे समय तक विभीषिका पैदा करता है।

अगर लोग आज शांति का गुणगान करते हैं, तो महज इसलिए नहीं कि वे इसे अच्छा विचार मानते हैं। शांति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद मानवता ने इसका महत्व पहचाना है। त्रासद संघर्षों के प्रेत हमें लगातार कचोटते रहते हैं। आज जीवन अतीत के किसी भी समय से कहीं अधिक असुरक्षित है क्योंकि हर जगह के लोग आतंकवाद के बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं। शांति लगातार बहुमूल्य इसलिए भी बनी हुई है कि इस पर खतरे का साया हमेशा मौजूद है।

9.2 शांति का अर्थ

शांति की परिभाषा अक्सर युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में की जाती है। यह परिभाषा सरल तो है पर भ्रामक भी है। सामान्य रूप से हम युद्ध को देशों के बीच हथियारबंद संघर्ष समझते हैं। हालाँकि रवांडा या बोस्निया में जो हुआ वह इस तरह का युद्ध नहीं था। लेकिन यह एक प्रकार से शांति का उल्लंघन या स्थगन तो था ही। हालाँकि प्रत्येक युद्ध शांति के अभाव की ओर जाता है, लेकिन शांति का हर अभाव युद्ध का रूप ले यह ज़रूरी नहीं।

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शांति की परिभाषा करने में दूसरा कदम होगा इसे युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार समेत सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में देखना। यह परिभाषा स्पष्ट ही पहली से बेहतर है। लेकिन यह भी हमें बहुत दूर नहीं ले जा पाती है। हिंसा प्रायः समाज की मूल संरचना में ही रची-बसी है। एेसी सामाजिक संस्थाएँ और प्रथाएँ जो जाति, वर्ग या लिंग के आधार पर असमानता की खाइयों को और गहरा करती है किसी की क्षति सूक्ष्म और अप्रकट तरीके से भी कर सकती हैं। जाति, वर्ग या लिंग पर आधारित इस स्तरीकरण को अगर शोषित वर्गों की ओर से कोई भी चुनौती मिलती है तो इससे भी संघर्ष और हिंसा पैदा हो सकती है। इस तरह की ‘संरचनात्मक हिंसा’ के बड़े पैमाने पर दुष्परिणाम हो सकते हैं। हम वैसी हिंसा से उत्पन्न कुछ ठोस उदाहरणों की ओर देखें - जैसे जातिभेद, वर्गभेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और सांप्रदायिकता।

संरचनात्मक हिंसा के विभिन्न रूप

परंपरागत जाति-व्यवस्था कुछ खास समूह के लोगों कोे अस्पृश्य मानकर बरताव करती थी। आज़ाद भारत के संविधान द्वारा गैरकानूनी करार दिए जाने तक छुआछूत के प्रचलन ने उन्हें सामाजिक बहिष्कार और अत्यधिक वंचना का शिकार बना रखा था। भयावह रीति-रिवाज़ों के इन जख्मों से उबरने के लिए देश अभी तक संघर्ष कर रहा है। हालाँकि वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था अधिक लचीली दिखती है, लेकिन इसने भी काफी असमानता और उत्पीड़न को जन्म दिया है। विकासशील देशों की अधिकांश कामकाजी आबादी असंगठित क्षेत्र से संबद्ध है, जिसमें मेहनताना और काम की दशा बहुत खराब है। विकसित देशों में भी निम्नवर्गीय लोगोें की अच्छी-खासी आबादी मौजूद है।
पितृसत्ता के आधार पर जिन सामाजिक संगठनों का निर्माण होता है, उनकी परिणति स्त्रियों को व्यवस्थित रूप से अधीन बनाने और उनके साथ भेदभाव करने में होती है। इसकी अभिव्यक्ति कन्या भ्रूणहत्या, लड़कियों को अपर्याप्त पोषण और शिक्षा न देना, बाल-विवाह, पत्नी को पीटना, दहेज से संबंधित अपराध, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार और ‘घर की इज्जत’ के नाम पर हत्या में होती है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में निम्न बाल लिंग अनुपात (0-6 वर्ष) (प्रति 1,000 पुरुषों पर 919 स्त्रियाँ) पितृसत्तात्मक विध्वंस का मर्मस्पर्शी सूचक है।
अब एेसा होना लगभग असंभव है कि उपनिवेशवाद विदेशी शासन के रूप में लोगों पर प्रत्यक्ष और लंबे समय के लिए गुलामी थोप दे। पर इजरायली प्रभुत्व के खिलाफ चालू फिलिस्तीनी संघर्ष दिखाता है कि इसका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। इसके अलावा, यूरोपीय उपनिवेशवादी देशों के पूर्ववर्ती उपनिवेशों को अभी भी बहुआयामी शोषण के उन प्रभावों से पूरी तरह उबरना शेष है, जिसे उन्होंने औपनिवेशिक काल में झेला।
रंगभेद और सांप्रदायिकता में एक समूचे नस्लगत समूह या समुदाय पर लांछन लगाना और उनका दमन करना शामिल रहता है। हालाँकि मानवता को विभिन्न नस्लों के आधार पर विभाजित कर सकने की अवधारणा वैज्ञानिक रूप से अप्रामाणिक है लेकिन कई बार इसका उपयोग मानव विरोधी कुकृत्यों को जायज ठहराने में किया ही जाता रहा है। 1865 तक अमेरिका में अश्वेत लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा; हिटलर के समय जर्मनी में यहूदियों का कत्लेआम तथा दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार की 1992 तक अपनी बहुसंख्यक अश्वेत आबादी के साथ दोयम दर्जें के नागरिकों जैसा व्यवहार करनेवाली रंगभेद की नीति इसके उदाहरण हैं। पश्चिमी देशों में नस्ली भेदभाव गोपनीय तौर पर अभी भी जारी है। अब इसका प्रयोग प्रायः एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों के आप्रवासियों के खिलाफ होता है। सांप्रदायिकता को नस्लवाद का दक्षिण एशियाई प्रतिरूप माना जा सकता है जहाँ शिकार अल्पसंख्यक धार्मिक समूह होते हैं।

चिंतन-मंथन
निम्न में से किस विचार से आप सहमत हैं और क्यों?
  • सभी दुष्कर्म मन के कारण उपजते हैं। यदि मन रूपांतरित हो जाए तो क्या दुष्कर्म बने रह सकते हैं? -गौतम बुद्ध
  • मैं हिंसा का विरोध करता हूँ क्योंकि जब यह कोई अच्छा कार्य करती प्रतीत होती है तब अच्छाई अस्थायी होती है जबकि इससे जो बुराईहोती है वह स्थायी होती है। -महात्मा गांधी
  • हम वैसे हों जिसकी आँखें हमेशा दुश्मन की तलाश मेें हों, ...हम शांति को नए-नए युद्धों का साधन मानकर उससे प्रेम करेें और छोटी शांतिको लंबी शांति से अधिक प्रेम करें। मैं तुम्हें काम करने की नहीं, जीतने की सलाह देता हूँ। तुम्हारा काम एक युद्ध हो, तुम्हारी शांति एक विजय हो। -फ्रेडरिक नीत्शे

हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक नुकसानों से गुजरता है वे उसके भीतर शिकायतों को पैदा करती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक कायम रहती हैं। एेसे समूह कभी-कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताज़ा दौर की शुरुआत कर सकते हैं। दक्षिण एशिया में विभिन्न समुदायों द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ लंबे समय से मन में रखी पुरानी शिकायतों के उदाहरण हमारे पास हैं, जैसे 1947 में भारत के विभाजन के दौरान भड़की हिंसा से उपजीं शिकायतें।

न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिए ही प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए भारत और पाकिस्तान के बीच की समस्याओं का हल करने के वर्तमान प्रयासों में हर तबके के लोगों के बीच अधिक संपर्क को प्रोत्साहित करना भी शामिल है।

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आतंकवाद के जन्म के कारण

हिंसा की समाप्ति

संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने उचित ही टिप्पणी की है कि, "चूँकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।" इस तरह के प्रयास के लिए करुणा जैसे अनेक पुरातन आध्यात्मिक सिद्धांत और ध्यान जैसे अभ्यास बिल्कुल उपयुक्त हैं। आधुनिक नीरोगकारी तकनीक और मनोविश्लेषण जैसी चिकित्सा पद्धतियां भी यह काम कर सकती हैं।
हमने गौर किया है कि हिंसा का आरंभ महज किसी व्यक्ति के दिमाग में नहीं होता; इसकी जड़ें कतिपय सामाजिक संरचनाओं में भी होती हैं। न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए अनिवार्य है। शांति, जिसे संतुष्ट लोगों के समरस सह-अस्तित्व के रूप में समझा जाता है, एेसे ही समाज की उपज हो सकती है। शांति एकबार में हमेेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती है। शांति कोई अंतिम स्थिति नहीं बल्कि एेसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकतम अर्थों में मानव कल्याण की स्थापना के लिए ज़रूरी नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं।

आओ कुछ करके सीखे
नोबल शांति पुरस्कार पाने वाले कुछ लोगों का नाम लिखें। इनमें से किसी एक पर टिप्पणी भी लिखें।

9.3 क्या हिंसा कभी शांति को प्रोत्साहित कर सकती है?

अक्सर यह दावा किया जाता है कि हिंसा एक बुराई है लेकिन कभी-कभी यह शांति लाने की अपरिहार्य पूर्वशर्त जैसी होती है। यह तर्क दिया जा सकता है कि तानाशाहों और उत्पीड़कों को जबरन हटाकर ही उनको, जनता को निरंतर नुकसान पहुँचाने से रोका जा सकता है। या फिर, उत्पीड़ित लोगों के मुक्ति-संघर्षों को हिंसा के कुछ इस्तेमाल के बावजूद न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है। लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है। एक बार शुरू हो जाने पर इसकी प्रवृत्ति नियंत्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक शृंखला छोड़ जाती है।

शांतिवादी का मकसद लड़ाकुओं की क्षमता को कम करके आंकना नहीं, प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर बल देना है। वैसे संघर्षों का एक प्रमुख तरीका सविनय अवज्ञा है और उत्पीड़न की संरचना की नींव हिलाने में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल होता रहा है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग एक प्रमुख उदाहरण है। गांधी जी ने न्याय को अपना आधार बनाया और विलायती शासकों के अंतःकरण को आवाज़ दी। जब उससे काम नहीं चला तो उन पर नैतिक और राजनैतिक दबाव बनाने के लिए उन्होंने जनांदोलन आरंभ किया, जिसमें अनुचित कानूनों को अहिंसक ढंग से खुलेआम तोड़ना शामिल था। उनसे प्रेरणा लेकर मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में काले लोगों के साथ भेदभाव के खिलाफ 1960 में इसी तरह का संघर्ष शुरू किया था।
नागरिक अवज्ञा के दबाव में अन्यायपूर्ण संरचनाएँ भी रास्ता दे सकती हैं। कभी-कभार वे अपनी विसंगतियों के बोझ से ध्वस्त भी हो सकती हैं। निरंकुश सोवियत व्यवस्था का विघटन इसका ताजा उदाहरण है। पर एेसे सुखद नतीजे की गारंटी सभी मामलाें में नहीं हो सकती। हिंसा की सहायता लेने का लालच तब अपरिहार्य हो जाता है। यह भी औचित्यपूर्ण शांति की खोज में अंतर्निहित विकट स्थिति का ही अंग है।

चिंतन-मंथन
कंबोडिया में खमेर रूज का शासन क्रांतिकारी हिंसा के नुकसानदेह हो जानेे की प्रकृति का दिल दहलाने वाला बहुत ही खास उदाहरण था। यह शासन पॉल पॉट के नेतृत्व में हुई बगाावत का नतीजा था, जिसमें उत्पीड़ित खेतिहरों की मुक्ति के लिए तत्पर साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया गया था। इसने 1975 से 1979 तक कंबोडिया में आतंक का राज कायम कर दिया जिसमें लगभग 17 लाख लोग अर्थात् देश की आबादी के 21 प्रतिशत लोग मारे गए। यह पिछली शताब्दी की एक अत्यंत कष्टप्रद मानवीय त्रासदी है।
हो सकता है कि मनवांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अतिवादी आंदोलनों द्वारा व्यवस्थित हिंसा के प्रयोग का एेसा ही नाटकीय और दहला देने वाला परिणाम शायद हमेशा नहीं हो। पर इस प्रक्रिया में यह प्रायः संस्थागत रूप धारण करता है और अपने परिणामस्वरूप बनी राजनीतिक व्यवस्था का पूर्ण अंग बन जाता है। एेसा ही मामला नेशनल लिबरेशन फ्रंट का है, जिसने हिंसात्मक साधनों का इस्तेमाल कर अल्जीरिया के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया। उसने अपने देश को फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों के बोझ से 1962 में मुक्त तो कराया, लेकिन उसके शासन का जल्दी ही निरंकुशवाद में पतन हो गया। इसकी प्रतिक्रिया वहाँ इस्लामी रूढ़िवाद के उभार के रूप में हुई।
यही कारण है जिसके चलते शांति को सर्वोच्च मूल्य मानने वाले शांतिवादी किसी न्यायपूर्ण संघर्ष में भी हिंसा के इस्तेमाल के खिलाफ नैतिक रूप से खड़े होते हैं। वे भी उत्पीड़न से लड़ने की ज़रूरत को स्वीकार करते हैं। हालाँकि वे उत्पीड़नकारियों का दिल-दिमाग जीतने के लिए प्रेम और सत्य को बढ़ावा देने की वकालत करते हैं।

9.4 शांति और राज्यसत्ता

अक्सर तर्क दिया जाता है कि हर राज्य अपने को पूर्णतः स्वतंत्र और सर्वोच्च इकाई के रूप में देखता है। इससे अपने हितों को केवल अपने नजरिये से देखने और हर हालत में अपने हितों को बचाने और बढ़ाने की प्रवृत्ति जन्म लेती है। शांति का अनुसरण करने के लिए ज़रूरी होता है कि हम स्वयं को वृहत्तर मानवता के एक हिस्से के रूप में देखें। लेकिन इससे अलग राज्यों में लोगों में फर्क करके देखने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। अपने नागरिकों के हितों के नाम पर वे अक्सर बाकी लोगों को हानि पहुँचाने के लिए तैयार हो जाते हैं।
इसके अलावा आजकल हर राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मज़बूत किया है। हालाँकि राज्य से अपेक्षा यह थी कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करेगा लेकिन व्यवहार में इन शक्तियों का प्रयोग अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए किया जा सकता है। विश्व अलग-अलग संप्रभु राष्ट्रों में विभाजित है। इससे शांति के रास्ते में अवरोध उत्पन्न होते हैं। यह निरंकुश शासन और म्यामांर जैसी सैनिक तानाशाही में सबसे अधिक स्पष्ट दिखता है।

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अहिंसा के बारे में गांधी जी के विचार
‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ कहावत आपने सुनी ही होगी। असहायता को अहिंसा और अहिंसा को गांधी के समतुल्य बताने की प्रवृत्ति ने कुछ लोगों को एेसा कहने का मौका दिया है। इस हल्की टिप्पणी का आधार दूर-दूर तक फैला यह विचार है, कि अहिंसा कमज़ोरों का रास्ता है। गांधी जी ने बार-बार कहा कि इस विचार के लोग अहिंसा और उनके दर्शन को समझते ही नहीं हैं। हम आम तौर पर यही समझते हैं कि अहिंसा का अर्थ चोट करना नहीं है। अहिंसक कार्य उसे माना जाता है, जो शारीरिक घाव नहीं करे। गांधी जी ने इस अर्थ को दो मूलभूत तरीकों से बदल दिया। उनके लिए अहिंसा का अर्थ शारीरिक चोट, मानसिक चोट या आजीविका की क्षति से बाज आना भर नहीं है। इसका अर्थ किसी को नुकसान पहुँचाने के विचार तक को छोड़ देना है। उनके लिए ‘हिंसा का निमित्त’ होने का अर्थ स्वयं चोट करना नहीं होता। गांधी जी का मानना था कि ‘यदि मैंने किसी को हानि पहुँचाने में किसी अन्य की सहायता की अथवा किसी हानिकर कार्य से लाभांवित हुआ तो मैं हिंसा का दोषी होऊँगा।’ इस अर्थ में हिंसा के बारे में उनके विचार संरचनात्मक हिंसा की निशानदेही करते थे।

गांधी जी ने दूसरा प्रमुख परिवर्तन अहिंसा के विचार को सकारात्मक अर्थ देकर किया। किसी की हानि नहीं करना पर्याप्त नहीं है। अहिंसा को सजग संवेदना के माहौल की अपेक्षा होती है। गांधी जी निष्क्रिय आध्यात्मिकता के विरोधी थे। उनके लिए अहिंसा का मतलब कल्याण और अच्छाई का सकारात्मक और सक्रिय क्रियाकलाप है। इसलिए जो लोग अहिंसा का प्रयोग करते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि अत्यंत गंभीर उकसावे की स्थिति में भी शारीरिक, मानसिक संयम रखने का अभ्यास करें। अहिंसा अतिशय सक्रिय शक्ति है, जिसमें कायरता और कमजोरी का कोई स्थान नहीं है। वास्तव में गांधी जी तो इस सीमा तक कह गए कि अगर अहिंसा किसी का बचाव करने के मामले में अपर्याप्त हो, तो उसके नाम पर निष्क्रियता की शरण में जाने के बजाए हिंसा का सहारा लेना बेहतर होगा। कुछ गांधीवादी कहते हैं कि प्रारंभ में उद्धृत कहावत को बदलकर ‘मज़बूती का नाम महात्मा गांधी’ कर देना चाहिए।

समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान सार्थक लोकतंत्रीकरण और अधिक नागरिक आज़ादी की एक कारगर पद्धति में है। इसके माध्यम से राज्यसत्ता को ज्यादा जवाबदेह बनाया जा सकता है। रंगभेद के खात्मे के बाद दक्षिण अफ्रीका में यही तरीका अपनाया गया हैै, जो हाल के वर्षों में राजनीतिक सफलता का एक प्रमुख उदाहरण है। इस प्रकार लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्ष और शांति के सुरक्षित बने रहने के बीच घनिष्ठ संबंध है।

वाद-विवाद-संवाद
क्या आपको लगता है हिंसा का सहारा लेना कभी-कभी ज़रूरी हो सकता है? आखिरकार जर्मनी के नाजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए बाहरी सैन्य-हस्तक्षेप करना पड़ा था।

9.5 शांति कायम करने के विभिन्न तरीके

शांति स्थापित करने और बनाए रखने के लिए विभिन्न रणनीतियाँ अपनाई गई हैं। इन रणनीतियों को आकार देने में तीन प्रमुख दृष्टिकोणों ने मदद पहुँचाई है। पहला तरीका राष्ट्रों को केंद्रीय स्थान देता है, उनकी संप्रभुता का आदर करता है और उनके बीच प्रतिद्वंद्विता को जीवंत सत्य मानता है। उसकी मुख्य चिंता प्रतिंद्वद्विता के उपयुक्त प्रबंधन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-संतुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। कहा जाता है कि वैसा एक संतुलन उन्नीसवीं सदी में प्रचलित था, जब प्रमुख यूरोपीय देशों ने संभावित आक्रमण को रोकने और बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता-संघर्षों में गठबंधन बनाते हुए तालमेल किया।

दूसरा तरीका भी राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वंद्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोेर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर है। यह विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक -आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है। अपेक्षा रहती है कि वैसे सहयोग राष्ट्र की संप्रभुता को नरम करेंगे और अंतर्राष्ट्रीय समझदारी को प्रोत्साहित करेंगे। परिणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे, जिससे शांति की बेहतर संभावनाएँ बनेंगी। इस पद्धति के पैरोकारों द्वारा अक्सर दिया जाने वाला एक उदाहरण द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के यूरोप का है, जो आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ता गया है।

आओ कुछ करके सीखे
गाँधी के दक्षिण अफ्रीका, चंपारण में किए गए सत्याग्रह और नमक सत्याग्रह की पद्धति पर साम्रगी एकत्र करो। यदि संभव हो तो गिरिराज किशोर का उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ पढ़ो।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नागरिक अधिकार आंदोलन के बारे में जानकारी खोजो। वह गाँधी से किस प्रकार प्रेरित थे।

एक मर्मभेदी असमंजस यह है कि अंतर्राष्ट्रीय फलक पर कई बार कुछ राष्ट्र अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हिंसात्मक साधनों का इस्तेमाल करते हैं, खासकर किसी भू-क्षेत्र अथवा प्राकृतिक संसाधन को हथियाने में। इसके परिणामस्वरूप होने वाला विवाद घमासान युद्ध में बदल सकता है। जैसे कि, 1990 में इराक ने अपने छोटे से पड़ोसी देश कुवैत पर धावा बोला। उसने हमले को न्यायोचित बताते हुए दावा किया कि कुवैती क्षेत्र एक इराकी भूखंड था, जिसे औपनिवेशिक शासकों ने मनमाने ढंग से अलग कर दिया था। उसने आरोप लगाया कि कुवैत उसके तेल-भंडारों में तिरछी खुदाई कर रहा है। आक्रमणकारियों को अंततः अमेरिका के नेतृत्व में साझा सैनिक अभियान द्वारा खदेड़ा गया। एक समर्थ विश्व सरकार के न होने की स्थिति में इस प्रकार के विवाद की आशंका का हर समय मौजूद रहना संभव है। हथियार उद्योग जैसे निहित स्वार्थों ने इसे तीव्र कर दिया है। हथियार उद्योग के लिए युद्ध लाभदायक स्थिति है।

पहली दो पद्धतियों से भिन्न तीसरी पद्धति राष्ट्र आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था मानती है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था का मनोचित्र बनाती है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को शांति की विश्वसनीय गारंटी मानती है। वैसे समुदाय के बीज राष्ट्रों की सीमाओं के आरपार बढ़ती आपसी अंतःक्रियाओं और संश्रयों मेें दिखते हैं जिसमें बहुराष्ट्रीय निगम और जनांदोलन जैसे विविध गैरसरकारी कर्त्ता शामिल हैं। इस तरीके के प्रस्तावक और समर्थक तर्क देते हैं कि वैश्वीकरण की चालू प्रक्रिया राष्ट्रों की पहले से ही घट गई प्रधानता और संप्रभुता को और अधिक क्षीण कर रही है, जिसके फलस्वरूप विश्व-शांति कायम होने की परिस्थिति तैयार हो रही है।

यह कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र तीनों ही पद्धतियों के प्रमुख तत्वों को साकार कर सकता है। सुरक्षा परिषद, जो स्थायी सदस्यता और पाँच प्रमुख राष्ट्रों को निषेधाधिकार (अन्य सदस्यों द्वारा समर्थित प्रस्ताव को भी गिरा देने का अधिकार) देता है, प्रचलित अंतराष्ट्रीय श्रेणीबद्धता को ही व्यक्त करता है। आर्थिक-सामाजिक परिषद अनेक क्षेत्रों में राष्ट्रों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करता है। मानवाधिकार आयोग अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों को आकार देना और लागू करना चाहता है।

समकालीन चुनौतियाँ

हालाँकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनेक उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन शांति के प्रति खतरों को रोकने और समाप्त करने में वह सफल नहीं हुआ है। इसके बजाए दबंग राष्ट्रों ने अपनी संप्रभुता का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन किया है और क्षेत्रीय सत्ता संरचना तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को भी अपनी प्राथमिकताओं और धारणाओं के आधार पर बदलना चाहा है। इसके लिए उन्हाेंने सीधी सैनिक कार्रवाई का भी सहारा लिया है और विदेशी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। एेसे आचरण का ज्वलंत उदाहरण अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका का ताजा हस्तक्षेप है। इससे उभरे युद्ध में बहुत सी जानें गई हैं।

आतंकवाद के उदय का एक कारण आक्रामक राष्ट्रों का स्वार्थपूर्ण आचरण भी है। प्रायः आधुनिक हथियारों और उन्नत तकनीक का दक्ष और निर्मम प्रयोग करके आतंकवादी इन दिनों शांति के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं। 11 सितंबर 2001 को इस्लामी आतंकवादियों द्वारा अमेरिका के न्यूयार्क स्थित विश्व व्यापार केंद्र का ध्वस्त किया जाना इस अमंगलकारी वास्तविकता की उल्लेखनीय अभिव्यक्ति है। इन ताकतों द्वारा अति विध्वंसक जैविक, रासायनिक अथवा परमाण्विक हथियारों के इस्तेमाल की आशंका दहला देने वाली है।

शांतिवाद
शांतिवाद विवादों को सुलझाने के औजार के बतौर युद्ध या हिंसा के बजाय शांति का उपदेश देता है। इसमें विचारों की अनेक छवियाँ शामिल हैं। इसके दायरे में कूटनीति को अंतर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान करने में प्राथमिकता देने से लेकर किसी भी हालत में हिंसा और ताकत के इस्तेमाल के पूर्ण निषेध तक आते हैं। शांतिवाद सिद्धांतों पर भी आधारित हो सकता है और व्यवहारिकता पर भी। सैद्धांतिक शांतिवाद का जन्म इस विश्वास से होता है कि युद्ध, सुविचारित घातक हथियार, हिंसा या किसी प्रकार की ज़ोर-ज़बरदस्ती नैतिक रूप से गलत है। व्यावहारिक शांतिवाद एेसे किसी चरम सिद्धांत का अनुसरण नहीं करता है। यह मानता है कि विवादों के समाधान में युद्ध से बेहतर तरीके भी हैं या फिर यह समझता है कि युद्ध पर लागत ज्यादा आती है, फायदे कम होते हैं। युद्ध से बचने के पक्षधर लोगों के लिए ‘श्वेत कपोत’ जैसे अनौपचारिक शब्दों का प्रयोग होता है। शब्द सुलह-समझौते के पक्षधरों की सौम्य प्रकृति की ओर इशारा करते हैं। कुछ लोग सुलह-समझौते के पक्षधरों को शांतिवादी के दर्जें में नहीं रखते, क्योंकि वे कतिपय परिस्थितियों में युद्ध को औचित्यपूर्ण मान सकते हैं। ‘बाज’ या युद्ध-पिपासु लोग कपोत प्रकृति के विपरीत होते हैं। युद्ध का विरोध करने वाले कुछ शांतिवादी सभी प्रकार की ज़ोर-ज़बरदस्ती मसलन शारीरिक बल प्रयोग या संपत्ति की बर्बादी के विरोधी नहीं होते। उदाहरणस्वरूप, असैन्यवादी आम तौर पर हिंसा के बजाए आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की सैनिक संस्थाओं के विशेष रूप से विरोधी होते हैं। अन्य शांतिवादी अहिंसा के सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं, क्योंकि वे सिर्फ अहिंसक कार्रवाई के स्वीकार्य होने का विश्वास करते हैं।
विकिपीडिया नामक विश्वकोष से सार संक्षेप <http:www.wikipedia.orgpacifism

वैश्विक समुदाय धौंस जमाने वाली ताकतों की लोलुपता और आतंकवादियों की गुरिल्ला युक्तियों को रोकने में असफल है। वह अक्सर नस्ल-संहार अर्थात किसी समूचे जनसमूह के व्यवस्थित संहार का मूक दर्शक बना रहता है। यह खास करके रवांडा में साफ तौर पर दिखा। इस अफ्रीकी देश में 1994 में तकरीबन पाँच लाख तुत्सी लोगों को हुतू लोगों ने मार डाला। हत्याकांड के आरंभ होने के पहले खुफिया जानकारी उपलब्ध होने और इसके भड़कने पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में घटना का विवरण आने के बावजूद कोई अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र ने रवांडा के खून-खराबा को रोकने के लिए शांति अभियान चलाने से इनकार कर दिया।

इसका मतलब यह नहीं कि शांति एक चुका हुआ सिद्धांत है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान और कोस्टारिका जैसे देशों ने सैन्यबल नहीं रखने का फैसला किया। विश्व के अनेक हिस्साें में परमाण्विक हथियार से मुक्त क्षेत्र बने हैं, जहाँ आण्विक हथियारों को विकसित और तैनात करने पर एक अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त समझौते के तहत पाबंदी लगी है। आज इस तरह के छः क्षेत्र हैं जिसमें एेसा हुआ है या इसकी प्रक्रिया चल रही है। इसका विस्तार दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र, दक्षिण पूर्वी एशिया, अफ्रीका, दक्षिण प्रशांत क्षेत्र और मंगोलिया तक है। सोवियत संघ के 1991 में विघटन से अति शक्तिशाली देशों के बीच सैनिक प्रतिद्वंद्विता (खासकर परमाण्विक प्रतिद्वंद्विता) पर पूर्णविराम लग गया है और अंतराष्ट्रीय शांति के लिए प्रमुख खतरा समाप्त हो गया है।

आओ कुछ करके सीखे
कल्पना करें कि आपको शांति पर एक पुरस्कार प्रारंभ करना है। इस पुरस्कार का प्रतीक चिन्ह और डिजाइन बनाएँ। आपकी राय में ‘शांति’ के बारे में आपकी समझ को कौन-सा प्रतीक चिन्ह सबसे बेहतर ढंग से व्यक्त करता है? आप यह पुरस्कार किसे देना चाहेंगे और क्यों?

इसके अलावा, समकालीन युग शांति को बढ़ावा देने के लक्ष्य को लेकर होने वाली बहुतेरी लोकप्रिय पहलकदमियों का साक्षी बना है। इन सभी कोे प्रायः शांति आंदोलन कहा जाता है। दोनों विश्वयुद्धों के कारण हुए विध्वंस ने इस आंदोलन को प्रेरित किया। यह तब से जोर पकड़ता गया है और राजनैतिक तथा भौगोलिक अवरोधों के बावजूद दुनिया मेें बड़े पैमाने पर इसने अनुयायी पैदा किए हैं। इस आंदोलन को विभिन्न तबके के लोगों ने बढ़ावा दिया है जिनमें लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, पुजारी, राजनेता और मज़दूर - सभी शामिल हैं। इसका लगातार विस्तार हुआ है और महिला सशक्तीकरण, पर्यावरण सुरक्षा जैसे अन्य आन्दोलनों के समर्थकों से पारस्परिक फायदेमंद जुड़ाव होने से यह और अधिक सघन हुआ है। इस आंदोलन ने शांति अध्ययन नामक ज्ञान की एक नई शाखा का भी सृजन किया है और इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर इस्तेमाल भी किया है।

वाद-विवाद-संवाद
समकालीन विश्व में परमाण्विक हथियार युद्ध रोकने में सहायक हैं।


निष्कर्ष

इस अध्याय में हमने शांति के विभिन्न पहलुओं इसके अर्थ, इसके सामने की बौद्धिक और व्यावहारिक चुनौतियों तथा इसके लक्षणों की तहकीकात की है। हमने देखा कि शांति के क्रियाकलापों में सद्भावनापूर्ण सामाजिक संबंध के सृजन और संवर्द्धन के अविचल प्रयास शामिल होते हैं, जो मानव कल्याण और खुशहाली के लिए प्रेरक होते हैं। शांति के मार्ग में अन्याय से लेकर उपनिवेशवाद तक अनेक अवरोध हैं, लेकिन उन्हें हटाने में बेलाग हिंसा के प्रयोग का लालच अनैतिक और अत्यधिक जोखिमपूर्ण, दोनों है। नस्ल-संहार, आतंकवाद और पूर्ण युद्ध के युग में, जो नागरिक और योद्धा के बीच की रेखा को धूमिल करता है, शांति की खोज को राजनीतिक कार्रवाइयों के साधन और साध्य, दोनों को ही रूपायित करना चाहिए।

प्रश्नावली

1. क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव ज़रूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और, क्या मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
2. राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालाँकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए।
3. शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
4. हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
5. विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है उनके बीच क्या अंतर है?