Table of Contents
अध्याय 10
विकास
परिचय
इस अध्याय में हम विकास की सामान्य समझ से चर्चा शुरू करेंगे और देखेंगे कि विकास की इस समझ ने क्या समस्याएँ पेश की हैं? बाद वाले खंडों में हम उन तरीकों को खोजेंगे जिनसे इन समस्याओं को हल किया जा सकता है। हम विकास के बारे में सोचने के कुछ वैकल्पिक तरीकों पर भी चर्चा करेंगे। इस अध्याय से गुज़रने के बाद आप-
‘विकास’ पद के अर्थ की व्याख्या,
विकास के प्रचलित मॉडलों की उपलब्धियों और समस्याओं पर चर्चा और
विकास के जो वैकल्पिक मॉडल पेश किए गए हैं उनमें से कुछेक पर चर्चा कर सकेंगे।
10.1 भूमिका
मान लें कि एक विद्यालय में प्रत्येक कक्षा की ओर से पाठ्यक्रम से इतर गतिविधि के तौर पर वार्षिक पत्रिका निकलती है। एक कक्षा में शिक्षक पिछले साल की पत्रिका को आदर्श मानता है और उसके अनुसार इस साल की पत्रिका की योजना बनाता है कि इसमें कौन से विषय, आलेख, कविता आदि होने चाहिए। उसके बाद वह विषयों का विभाजन कर विभिन्न छात्रों में लिखने के लिए विषय और जिम्मेवारियों का बँटवारा करता है। एेसे में यह भी संभव है कि क्रिकेट में रुचि रखने वाली छात्रा को कोई अन्य विषय मिल जाए और जिसे क्रिकेट का जिम्मा दिया जाए, वह वास्तव में नाटक लिखने को उत्सुक हो। यह भी संभव है कि इस योजना के तहत तीन छात्र मिलकर कार्टूनों की एक श्रृंखला तैयार करना चाहते हाें, मगर पाएँ कि उन्हें अलग-अलग समूहों में रख दिया गया है।
हालाँकि एक अन्य कक्षा में छात्रों के बीच पत्रिका की विषयवस्तु को लेकर बहस होती है। वहाँ अनेक असहमतियाँ होती हैं, लेकिन आखिर में सारे वाद-विवाद के बाद एक कार्यक्रम उभरता है जिस पर हर कोई सहमत है।
आपकी राय में कौन-सी कक्षा एेसी पत्रिका निकाल पाएगी, जिसमें छात्रों की अपनी विशिष्ट रुचि सर्वोत्तम संभव तरीके से साकार होगी? पहली कक्षा शायद अच्छा दिखने वाली पत्रिका तैयार करे, पर क्या उसकी विषयवस्तु रोचक होगी? क्या जो व्यक्ति क्रिकेट पर लिखना चाहता था, उतने ही उत्साह के साथ दिए गए विषय पर लिख पाएगा? कौन-सी पत्रिका अनूठी मानी जाएगी और कौन-सी आदर्श? कौन-सी कक्षा महसूस करेगी कि पत्रिका पर काम करना रोचक था और कौन इसे महज रोजमर्रे के काम की तरह करेगी?
किसी समाज के लिए विकास से जुड़ी बातें तय करना वैसा ही है, जैसा छात्रों के लिए यह तय करना कि वे किस तरह की पत्रिका चाहते हैं और उन्हें पत्रिका पर कैसे काम करना चाहिए। हम या तो किसी दूसरे देश में इस्तेमाल किए गए मॉडल का यांत्रिक रूप से अनुकरण कर सकते हैं या पूरे समाज की भलाई और विकास परियोजनाओं से पर प्रभावित लोगों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए योजना बना सकते हैं।
‘विकास’ शब्द अपने व्यापकतम अर्थ में उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन की अभिलाषा के विचारों का वाहक है। कोई समाज विकास के बारे में अपनी समझ के द्वारा यह स्पष्ट करता है कि समाज के लिए समग्र रूप से उसकी दृष्टि क्या है और उसे प्राप्त करने का बेहतर तरीका क्या है? हालाँकि, विकास शब्द का प्रयोग प्रायः आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और समाज का आधुनिकीकरण जैसे संकीर्ण अर्थों में भी होता रहता है। दुर्भाग्य से विकास को आमतौर पर पहले से निर्धारित लक्ष्यों या बाँध, उद्योग, अस्पताल जैसी परियोजनाओं को पूरा करने से जोड़कर देखा जाता है। विकास का काम समाज के व्यापक नज़रिए के अनुसार नहीं होता है। इस प्रक्रिया में समाज के कुछ हिस्से लाभान्वित होते हैं जबकि बाकी लोगों को अपने घर, जमीन, जीवन शैली को बिना किसी भरपाई के खोना पड़ सकता है।
क्या विकास के क्रम में लोगों के अधिकारों का सम्मान किया गया, क्या विकास के लाभ और बोझ का उचित वितरण हुआ या विकास की प्राथमिकताओं के बारे में फैसले लोकतांत्रिक तरीके से लिए गए? एेसे मुद्दे अनेक देशों में उठाए जा रहे हैं। इसलिए विकास अच्छा-खासा विवाद का विषय बन गया है। विभिन्न देशों द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल बहस और आलोचना के विषय बन गए हैं और वैकल्पिक मॉडल पेश किए जा रहे हैं। एेसी परिस्थिति में विकास की व्यापक समझ एक एेसे मानक की भूमिका निभा सकती है, जिससे किसी देश में विकास के अनुभव को जाँचा जा सकता है।
10.2 विकास की चुनौतियाँ
विकास की अवधारणा ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल की। उस समय एशिया और अफ्रीका के बहुत से देशों ने राजनीतिक आजादी हासिल की थी। अधिकतर देश कंगाल बना दिए गए थे और उनके निवासियों का जीवन-स्तर निम्न था। शिक्षा, चिकित्सा और अन्य सुविधाएँ कम थीं। इन्हें अक्सर ‘अविकसित’ या ‘विकासशील’ कहा जाता था। उनका मुकाबला पश्चिमी यूरोप के अमीर देशों और अमेरिका से था।
1950 और 1960 के दशक में, जब अधिकतर एशियाई व अफ्रीकी देशों ने औपनिवेशिक शासन से आज़ादी हासिल की। तब उनके सामने सबसे महत्त्वपूर्ण काम गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, निरक्षरता, और बुनियादी सुविधाओं के अभाव की निहायत ज़रूरी समस्याओं का समाधान करना था जिसे उनकी बहुसंख्यक आबादी भुगत रही थी। उनका तर्क था कि वे पिछड़े इसलिए हैं कि औपनिवेशिक शासन में उनके संसाधनों का उपयोग उनके फायदे के लिए नहीं उपनिवेशवादियों के फायदे के लिए होता था। स्वतंत्रता के द्वारा वे अपने संसाधनों का उपयोग अपने राष्ट्रीय हित में सर्वश्रेष्ठ तरीके से कर सकते हैं। इस प्रकार अब उनके लिए वैसी नीतियाँ बनाना संभव था, जिनसे वे अपने पिछड़ेपन से उबर सकें और पूर्ववर्ती औपनिवेशिक मालिकों के स्तर को हासिल करने की ओर बढ़ सकें। इस बोध ने इन देशों को विकास परियोजनाएँ शुरू करने की प्रेरणा दी।
विकास की अवधारणा विगत वर्षों में काफी बदली है। आरंभिक वर्षों में जोर आर्थिक उन्नति और समाज के आधुनिकीकरण के रूप में पश्चिमी देशों के स्तर तक पहुँचने पर था। विकासशील देशों ने औद्योगीकरण, कृषि और शिक्षा के आधुनिकीकरण एवं विस्तार के जरिए तेज आर्थिक उन्नति का लक्ष्य निर्धारित किया था। उस समय यह माना जाता था कि इस तरह के सामाजिक और आर्थिक बदलाव को शुरू करने में केवल राजसत्ता ही सक्षम माध्यम है। अनेक देशों ने विकास की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं का सूत्रपात किया। एेसा प्रायः विकसित देशों की मदद और कर्ज के जरिए किया गया।
पचास के दशक से प्रारंभ करते हुए भारत में विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला बनी और इनमें भाखड़ा नंगल बांध, देश के विभिन्न हिस्सों में इस्पात संयंत्रों की स्थापना, खनन, उर्वरक उत्पादन और कृषि तकनीकों में सुधार जैसी अनेक वृहत परियोजनाएँ शामिल थीं। उम्मीद की गई कि यह बहुआयामी रणनीति आर्थिक रूप से प्रभावकारी होगी और देश की संपदा में महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी होगी। यह उम्मीद भी की गई कि इस बढ़ोतरी से आने वाली संपन्नता धीरे-धीरे समाज के सबसे गरीब तबके तक रिसकर पहुँचेगी और असमानता को कम करने में सहायक होगी। विज्ञान की ताजातरीन खोजों को अपनाने और नवीनतम तकनीकों पर काफी विश्वास किया गया था। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे नए शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए और उन्नत देशों के ज्ञान तक पहुँचने के लिहाज से उनके साथ सहयोग करने को उच्च प्राथमिकता मिलीे। यह विश्वास किया गया कि विकास की प्रक्रिया समाज को अधिक आधुनिक और प्रगतिशील बनाएगी और उसे उन्नति के पथ पर ले जाएगी।
विकास का जो मॉडल भारत और अन्य देशों द्वारा अपनाया गया, उसकी विगत वर्षों में बहुत अधिक आलोचना हुई है और इसने विकास के लक्ष्यों और प्रक्रियाओं के बारे में कुछ पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित किया है।
10.3 विकास के मॉडल की आलोचनाएँ
विकास के आलोचकों ने ध्यान दिलाया है कि बहुत से देशों में जिस तरीके से विकास मॉडल को अपनाया गया है वह विकासशील देशों के लिए काफी मंहगा साबित हुआ है। इसमेेेें वित्तीय लागत बहुत अधिक रही और अनेक देश दीर्घकालीन कर्ज से दब गए। अफ्रीका अभी तक अमीर देशों से लिए गए भारी कर्ज तले कराह रहा है। विकास के रूप में उपलब्धि, लिए गए कर्ज के अनुरूप नहीं रही और दरिद्रता एवं रोगों ने अभी भी महाद्वीप को अपनी चपेट में ले रखा है।
आओ कुछ करके सीखे
किसी एेसे इलाके के बारे में जानकारी एकत्र करो जहाँ विकास की कोई बड़ी परियोजना (बाँध, सड़क, रेलवे लाइन या किसी उद्योग का निर्माण) चल रही हो। क्या वहाँ उस परियोजना के खिलाफ कोई विरोध या शिकायत रही है? विरोधियों द्वारा क्या मुद्दे उठाए गए हैं। इन मुद्दों के प्रति सरकार का जवाब क्या रहा? कुछ विरोधियों और कुछ सरकारी अधिकारियों से मिलकर दोनों पक्षों की जानकारी एकत्र करो।
विकास की वह कीमत जो समाज को चुकानी पड़ी
विकास के इस मॉडल के कारण बहुत बड़ी सामाजिक कीमत भी चुकानी पड़ी। अन्य चीज़ों के अलावा बड़े बाँधों के निर्माण, औद्योगिक गतिविधियों और खनन कार्यों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ। विस्थापन का परिणाम आजीविका खोने और दरिद्रता में वृद्धि के रूप में सामने आया है। अगर ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परंपरागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होते हैं, तो वे समाज के हाशिए पर चले जाते हैं। बाद में वे शहरी और ग्रामीण गरीबों की विशाल आबादी में शामिल हो जाते हैं। लंबी अवधि में अर्जित परंपरागत कौशल नष्ट हो जाते हैं। संस्कृति का भी विनाश होता है, क्योंकि जब लोग नई जगह पर जाते हैं, तो वे अपनी पूरी सामुदायिक जीवन-पद्धति खो बैठते हैं। एेसे विस्थापनों ने अनेक देशों में संघर्षों को जन्म दिया है।
विस्थापित लोगों ने अपनी इस नियति को हमेशा निष्क्रियता से स्वीकार नहीं किया। आपने ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन के बारे में सुना होगा यह नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना के तहत बनने वाले बाँधों के निर्माण के खिलाफ आंदोलन चला रहा है। बड़े बाँधों के इन समर्थकों का दावा है कि इससे बिजली पैदा होगी, काफी बड़े इलाके में जमीन की सिंचाई में मदद मिलेगी और सौराष्ट्र व कच्छ के रेगिस्तानी इलाके को पेयजल भी उपलब्ध होगा। बड़े बाँधों के विरोधी इन दावों का खंडन करते हैं। इसके अलावा अपनी जमीन के डूबने और उसके कारण अपनी आजीविका के छिनने से दस लाख से अधिक लोगों के विस्थापन की समस्या पैदा हो गई है। इनमें से अधिकांश लोग जनजाति या दलित समुदायों के हैं, और देश के अति-वंचित समूहों में आते हैं। इसके अतिरिक्त यह तर्क भी दिया जाता है कि विशाल जंगली भूभाग भी बाँध में डूब जाएगा जिससे पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ेगा।
विकास की वह कीमत जो पर्यावरण को चुकानी पड़ी
वास्तव में विकास की वजह से अनेक देशों में पर्यावरण को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुँचा है और इसके परिणामों को विस्थापित लोग ही नहीं, पूरी आबादी महसूस करने लगी है। जब दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी एशिया के तटों पर सुनामी ने कहर ढाया, तो यह देखा गया कि तटीय वनों के नष्ट होने और समुद्र तट के निकट वाणिज्यिक उद्यमों के स्थापित होने के कारण ही नुकसान इतना अधिक हुआ। आपने भूमंडल के ताप बढ़ने के बारे में ज़रूर पढ़ा होगा? वायुमंडल में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की वजह से आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है। यह बाढ़ लाने और बांग्लादेश एवं मालदीव जैसे निम्न भूमि वाले इलाके को तो डुबो देने में सक्षम है।
आने वाले दौर में पारिस्थितिकी-संकट से हम बुरी तरह प्रभावित होंगे। वायु प्रदूषण एक एेसी समस्या है, जो अमीर और गरीब में फर्क नहीं करता है। लेकिन संसाधनों के अविवेकशील उपयोग का वंचितों पर तात्कालिक और अधिक तीखा प्रभाव पड़ेगा। जलावन, जड़ी-बूटी और आहार आदि के रूप में जंगल के संसाधनों का अपने गुजारे के लिए विविध प्रकार से उपयोग करने वाले गरीबों पर जंगलों के नष्ट होने से बहुत बुरा असर पड़ता है। नदियों-तालाबों के सूखने और भूमिगत जलस्तर के गिरने का अर्थ है कि औरतों को पानी लाने के लिए अधिक दूर चलना पड़ेगा।
हम विकास के जिस मॉडल का अनुकरण कर रहे हैं, वह ऊर्जा के उत्तरोत्तर बढ़ते उपयोग पर बुरी तरह निर्भर है। विश्व में प्रयुक्त ऊर्जा का अधिकांश भाग कोयला या पेट्रोलियम जैसे स्रोतों से आता है, जिनको पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है। उपभोक्ताओं की बढ़ी ज़रूरतों को पूरा करने में अमेजन के बरसाती जंगलों का विशाल भूभाग उजड़ता जा रहा है। क्या ये अनवीकृत संसाधन इतनी मात्रा में हैं कि विकसित देशों के ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोग समृद्ध जीवन पद्धति अपना सकें? इन संसाधनों की परिमित प्रकृति को देखते हुए उत्तर नकारात्मक ही होगा। तब आगामी पीढ़ियों का क्या होगा? क्या उन्हें हम एक संसाधन रहित पृथ्वी और ढेेेर सारी समस्याएँ सौंपने जा रहे हैं?
विकास का मूल्यांकन
यह नहीं कहा जा सकता कि दुनिया पर विकास का नकारात्मक प्रभाव ही पड़ा है। कुछ देशों ने अपनी आर्थिक उन्नति की दर बढ़ाने, यहाँ तक कि गरीबी घटाने में भी कुछ सफलता हासिल की है। लेकिन कुल मिलाकर असमानताओं में गंभीर कमी नहीं आई है और विकासशील जगत में गरीबी लगातार एक समस्या बनी हुई है। हमने पहले ही देखा कि यह मान लिया गया था कि उन्नति के फायदे नीचे की ओर रिस-रिसकर समाज के सर्वाधिक निर्धन एवं वंचित तबकाें तक पहुँचेंगे और फलस्वरूप सभी के जीवन स्तर में सुधार आएगा। हालाँकि विगत वर्षों में दुनिया में अमीर और गरीब के बीच की दूरी बढ़ती ही गई है। किसी देश में उन्नति की दर ऊँची हो सकती है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि इसका लाभ सबको समान रूप से मिल ही जाय। जब तक आर्थिक उन्नति और पुनर्वितरण साथ-साथ नहीं चलते तब तक पहले से ही समृद्ध लोगों द्वारा लाभ पर कब्जा जमाने की गुंजाइश अधिक रहेगी।
केन सारो वीवा
ज़रा कल्पना कीजिए कि आपके घर के पिछवाड़े में एक छुपा हुआ खजाना मिला है। आपको कैसा लगेगा अगर उस सारे खजाने को सत्ताधारी लोग विकास के नाम पर थोड़ा-थोड़ा करके ले जाते हैं। इस विकास का आपके जीवन-स्तर या आवास-स्थल की उसकी सुविधाओं पर फायदेमंद असर बिल्कुल नहीं पड़ता। और तो और जो लोग विकास के नाम पर उस खजाने पर दावा करते हैं, खजाने की जगह होने के नाते आपके घर पर लगातार उखाड़-पछाड़ करते रहते हैं। क्या यह उन लोगों के प्रति घोर अन्याय नहीं है जिनके घर में खजाना पाया गया।
1950 में नाइजीरिया के ओगोनी प्रांत में तेल पाया गया, जिसका परिणाम कच्चे तेल की खोज में हुआ। जल्दी ही आर्थिक वृद्धि और बड़े व्यापार के दावेदारों ने ओगोनी के चारों ओर राजनीतिक षड्यंत्र, पर्यावरणीय समस्याओं और भ्रष्टाचार का घना जाला बुन दिया। इसने उसी क्षेत्र के विकास को रोक दिया जहाँ तेल मिला था।
केन सारो वीवा जन्म से एक ओगोनीवासी थे और 1980 के दशक में एक लेखक पत्रकार एवं टेलीविजन निर्माता के रूप में जाने जाते थे। अपने काम के दौरान उन्हाेंने देखा कि तेल और गैस उद्योग ने गरीब ओगोनी किसानों के पैरों के नीचे दबे खजाने को लूट लिया और बदले में उनकी जमीन को प्रदूषित तथा स्वयं किसानों को बेघर कर दिया। सारो वीवा ने अपने चारों ओर होने वाले इस शोषण पर प्रतिक्रिया दर्ज की।
सारो वीवा ने 1990 में एक खुले, जमीनी और समुदाय पर टिके हुए राजनीतिक आंदोलन द्वारा अहिंसक संघर्ष का नेतृत्व किया। आंदोलन का नाम ‘मूवमेंट फॉर सरवाइवल अॉफ ओगोनी पीपल’ (ओगोनी लोगों के अस्तित्व के लिए आंदोलन) था। आंदोलन इतना असरदार हुआ कि तेल कंपनियों को 1993 तक ओगोनी से वापिस भागना पड़ा। लेकिन सारो वीवा को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। नाइजीरिया के सैनिक शासकों ने उसे एक हत्या के मामले में फंसा दिया और सैनिक न्यायाधिकरण ने उसे फाँसी की सजा सुना दी। सारो वीवा का कहना था कि सैनिक एेसा ‘शैल’ नामक उस बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी के दबाव में कर रहे हैं जिसे ओगोनी से भागना पड़ा था। दुनिया भर के मानवाधिकार संगठनों ने इस मुकदमे का विरोध किया और सारो वीवा को छोड़े जाने का आह्वान किया। विश्व-व्यापी विरोध की अवहेलना करते हुए नाइजीरिया के शासकाें ने 1995 में सारो वीवा को फाँसी पर चढ़ा दिया।
इस बात को अब उत्तरोत्तर अधिक स्वीकृति मिल रही है कि विकास की व्यापक अवधारणा को अपनाने की ज़रूरत है। आर्थिक उन्नति पर अत्यधिक ध्यान होने से अनेक प्रकार की समस्याएँ ही नहीं बढ़ी हैं, आर्थिक उन्नति भी हमेशा संतोषजनक नहीं रही है। इसलिए विकास को अब व्यापक अर्थ में एेसी प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करे।
पर्यावरणवाद
आपने अकसर प्रदूषण, अवशिष्ट प्रबंधन, टिकाऊ विकास, दुर्लभ प्राणियों का संरक्षण और भूमंडलीय तापन जैसे शब्द सुने होंगे। ये पर्यावरण आंदोलन के पसंदीदा शब्द हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने में कारगर होते है। पर्यावरणविदों का कहना है कि मानव को पारिस्थितिकी के सुर से सुर मिलाते हुए जीना सीखना चाहिए और पर्यावरण में अपने तात्कालिक हितों के लिए छेड़छाड़ करना बंद करना चाहिए। उनका मानना है कि पृथ्वी का इस सीमा तक उपभोग रहा है और प्राकृतिक साधनों को इस तरह नष्ट किया जा रहा है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल उजाड़ धरती, जहरीली नदियाँ और प्रदूषित हवा ही छोड़कर जाएँगे।
पर्यावरणवाद की जड़ें औद्योगीकरण के खिलाफ 19वीं सदी में विकसित हुए विद्रोह में देखी जा सकती है। आजकल पर्यावरण आंदोलन एक विश्वव्यापी मामला बन गया है और इसके गवाह हैं दुनियाभर में फैले हज़ाराें गैर सरकारी संगठन और बहुत सी ‘ग्रीन’ पार्टियाँ। कुछ जाने माने पर्यावरण संगठनों में ग्रीनपीस और वर्ल्ड वाइल्ड-लाइफ फंड शामिल हैं। भारत में भी हिमालय के वन क्षेत्र को बचाने के लिए ‘चिपको आंदोलन’ का जन्म हुआ। एेसे समूह पर्यावरण उद्देश्यों की रोशनी में सरकार की औद्योगिक एवं विकास नीतियों को बदलने के लिए दवाब डालने का प्रयास करते हैं।
यदि विकास कीे एेसी प्रक्रिया को समझा जाय जिसका लक्ष्य लोगों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हो, तो यह तर्क दिया जा सकेगा कि विकास को केवल आर्थिक उन्नति के सूचकांक की दर के जरिए मापना अपर्याप्त और कई बार भ्रामक भी हो सकता है। अब विकास को मापने के वैकल्पिक तरीके खोजे जा रहे हैं। इसी तरह का एक प्रयास ‘मानव विकास प्रतिवेदन’ है, जिसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) वार्षिक तौर पर प्रकाशित करता है। इस प्रतिवेदन में साक्षरता और शैक्षिक स्तर, आयु संभाविता और मातृ-मृत्यु दर जैसे विभिन्न सामाजिक संकेतकों के आधार पर देशों का दर्जा निर्धारित किया जाता है। इस उपाय को मानव विकास सूचकांक कहा गया। इस अवधारणा के अनुसार विकास को एेसी प्रक्रिया होना चाहिए, जो अधिकाधिक लोगों को उनके जीवन में अर्थपूर्ण तरीके से विकल्पों को चुनने की अनुमति दे। इसकी पूर्व शर्त है कि आहार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आश्रय जैसी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति हो। इसे ‘बुनियादी आवश्यकता पर आधारित दृष्टिकोण’ कहा जाता है। ‘रोटी, कपड़ा और मकान,’ गरीबी हटाओ’ या ‘बिजली, सड़क, पानी’ जैसे लोकप्रिय नारे इस भावना का संप्रेषण करते हैं कि बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के बगैर किसी व्यक्ति के लिए गरिमामय जीवन गुजारना और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना असंभव है। अभाव अथवा वंचनाओं से मुक्ति ही किसी व्यक्ति की पसंदगी और इच्छाओं की पूर्ति की कुंजी है। इस विचार से यदि लोग भोजन या आश्रय के अभाव में भूख या ठंड से मरते हैं अथवा बच्चे विद्यालय जाने के बजाए काम कर रहे हैं, तो यह देश के अविकसित होने का ही सूचक है।
10.4 विकास की वैकल्पिक अवधारणा
अध्याय के पहले हिस्सों में विकास के उस मॉडल की कुछ सीमाओं की चर्चा की गई, जिसका अनुसरण अब तक किया गया है। इसके लिए मानव और पर्यावरण, दोनों के लिहाज से भारी कीमत चुकानी पड़ी है। विकास नीतियों के कारण जो कीमत चुकानी पड़ी है उसका और विकास के फायदों का वितरण भी लोगों के बीच असमान रूप से हुआ है। अधिकतर देशों में विकास की ‘ऊपर से नीचे’ की रणनीतियाँ अपनाई गई हैं, अर्थात विकास की प्राथमिकताओं व रणनीतियों का चयन और परियोजनाओं के वास्तविक कार्यान्वयन के सभी फ़ैसले आम तौर पर राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के उच्चतर स्तरों पर होते हैं। जिन लोगों के जीवन पर विकास योजनाओं का तत्काल असर पड़ता है, आमतोर पर उनसे तनिक भी सलाह नहीं ली जाती है। न तो सदियों से हासिल उनके अनुभवों और ज्ञान का उपयोग किया जाता है, न ही उनके हितों का ध्यान रखा जाता है। यह लोकतांत्रिक देशों के लिए भी उतना ही सच है, जितना तानाशाही के अधीन देशाें के लिए। इस तरह विकास, परियोजनाओं से फायदा उठाने वाले सत्ताधारी तबकों द्वारा तैयार और लागू प्रक्रिया बन जाता है। इसने न्यायपूर्ण और टिकाऊ विकास के बारे में वैकल्पिक तरीके से सोचने और आगे बढ़ाने की ज़रूरत को रेखांकित किया है। इस प्रक्रिया में अधिकार, समानता, आज़ादी, न्याय और लोकतंत्र जैसे सभी मुद्दे उठाए गए हैं। इस भाग में हम तहकीकात करेंगे, कि इन धारणाओं ने विकास-विमर्श के संदर्भ में कैसे नए अर्थ हासिल कर लिए हैं?
चिंतन-मंथन
नवीनतम मानव विकास रिपोर्ट से मानव विकास सूचकांक के बारे में सूचनाएँ चार्ट और तालिकाएँ एकत्र करो। कक्षा में विभिन्न समूह बनाकर नीचे दिए गए विषयों पर एक प्रस्तुति करो–
मानव विकास सूचकांक में भारत का बदलता हुआ स्थान।
अपने पड़ोसी देशों की तुलना में भारत का स्थान।
मानव विकास सूचकांक के विभिन्न पहलू और हरेक में भारत का स्कोर।
भारत के मानव विकास सूचकांक के आँकड़ों की आर्थिक वृद्धि के आँकड़ों से तुलना करो।
अधिकारों के दावे
हमने गौर किया है कि विकास के अधिकांश फायदों को ताकतवर लोगों ने कैसे हथिया लिया है और विकास की कीमत अति दरिद्रों और आबादी के असुरक्षित हिस्से को चुकानी पड़ती है। चाहे यह कीमत पारिस्थितिकी तंत्र में नुकसान की वजह से होेे या विस्थापन और आजीविका खोने की वजह से। एक मुद्दा यह उठाया गया है कि प्रभावित आबादी कुल मिलाकर किन संरक्षणों का दावा राज्य और समाज से कर सकती है? क्या लोकतंत्र में लोगों को यह अधिकार है कि उनके जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में उनसे सलाह ली जाए। क्या लोगों को आजीविका का अधिकार है जिसका दावा वे सरकार से अपनी आजीविका के स्रोत पर खतरा पैदा होने पर कर सकते हैं? एक दूसरा मामला नैसर्गिक संसाधनों पर अधिकार का है। क्या समुदाय नैसर्गिक संसाधनों के उपयोग के परंपरागत अधिकारों का दावा कर सकते हैं? यह विशेष रूप से आदिवासी और आदिम समुदायों पर लागू होता है, जिनका सामुदायिक जीवन और पर्यावरण के साथ संबंध विशेष प्रकार का होता है।
आओ कुछ करके सीखे
उन चीज़ों की सूची बनाओ जिन्हें हम कूड़ा समझकर फैंकते रहते हैं। जरा सोचिए कि हम कूड़े की बढ़ती मात्रा से होने वाली हानियों को कम करने के लिए इन फैंकी हुई चीज़ों का नव निर्माण या पुनर्प्रयोग कर सकते हैं।
यहाँ नाजुक मामला यह है कि नैसर्गिक संसाधन किनके हैं? क्या ये स्थानीय समुदाय के हैं, संबंधित राज्य के हैं या फिर पूरी मानवता के साझे संसाधन हैं? अगर हम संसाधनों को संपूर्ण मानवता का समझते हैं तो मानवता में आगामी पीढ़ियाँ भी तो शामिल होंगी। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का काम जनसमूह के विभिन्न तबकों की प्रतिस्पर्धात्मक माँगों को पूरा करने के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य की दावेदारियों के बीच संतुलन कायम करना भी है।
लोकतांत्रिक सहभागिता
आपको कितनी बार कहा गया है कि अपनी भलाई के लिए आपको माता-पिता या शिक्षक की बात मानने जैसी कुछ चीज़ें करनी ही चाहिए और क्या एेसी बातों पर आपने खुद को यह कहता महसूस किया है कि अगर इसमें भलाई है तो इसका फैसला स्वयं मुझे करने दें? लोकतंत्र और तानाशाही के बीच यही अंतर है कि लोकतंत्र में संसाधनों को लेकर विरेाध या बेहतर जीवन के बारे में विभिन्न विचारों के द्वंद्व का हल विचार-विमर्श और सभी के अधिकारों के प्रति सम्मान के जरिए होता है। इन्हें ऊपर से थोपा नहीं जा सकता। इस प्रकार अगर बेहतर जीवन हासिल करने में समाज का हर व्यक्ति साझीदार है, तो विकास की योजनाएँ बनाने और उसके कार्यान्वयन के तरीके ढूँढ़ने में भी हरेक व्यक्ति को शामिल करने की ज़रूरत है। दूसरे की बनाई योजना का अनुसरण करने, योजना तैयार करने और भागीदार होने में फर्क है। पहला, अगर दूसरे आपके लिए अच्छी नीयत से भी योजनाएँ बनाते हैं, तब भी आपकी विशेष ज़रूरतों से अवगत होने की उनकी गुंजाइश कम ही है। दूसरा, निर्णय-प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी अधिकारसंपन्न भी बनाती है।
वाद-विवाद-संवाद
"नदियाँ समाज की धरोहर हैं सरकार की नहीं। इसलिए नदी के पानी के बारे में कोई भी निर्णय लोगों की अनुमति के बिना नहीं लिया जाना चाहिए।"
लोकतंत्र और विकास, दोनों का सरोकार आम बेहतरी हासिल करना है। सवाल यह है कि सबकी बेहतरी किसमें है इसका निर्धारण कैसे हो? लोकतांत्रिक देशों में निर्णय-प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लोगों के अधिकार पर जोर दिया जाता है। भागीदारी सुनिश्चित करने का एक प्रस्तावित रास्ता स्थानीय विकास योजनाओं के बारे में निर्णय स्थानीय निर्णयकारी संस्थाओं को लेने देना है। स्थानीय निकायों के अधिकार और संसाधन बढ़ाने की वकालत इसीलिए की जाती है। इससे दो चीज़ें सुनिश्चित होती हैं। एक तो इसका अर्थ यह हुआ कि लोगों को अत्यधिक प्रभावित करने वाले मसलों पर लोगों से परामर्श किया जाना चाहिए और समुदाय को नुकसान पहुँचा सकने वाली परियोजनाओं को रद्द करना संभव होना चाहिए। दूसरा, योजना बनाने और नीतियों के निर्धारण में संलग्नता से लोगों के लिए अपनी ज़रूरतों के मुताबिक संसाधनों के उपयोग की भी गुंजाइश बनती है। सड़क कहाँ बने, स्थानीय बसों या मेट्रो का मार्ग कौन-सा हो, मैदान या विद्यालय कहाँ पर हो, किसी गाँव को चेक-डैम की ज़रूरत है या इंटरनेट कैफे की, इस तरह के फैसले उन्हीं लोगों द्वारा किए जाने चाहिएँ।
कुछ लोगों ने तर्क दिया है कि विकास का वर्तमान मॉडल ‘ऊपर से नीचे’ का है और लोगों को विकास का ‘पात्र’ मानने की ओर लक्षित है। यह मान लेता है कि हमारी समस्याओं का समाधान का सर्वोत्तम तरीका एक और केवल एक ही है। इस प्रक्रिया में लोगों के पीढ़ियों से संग्रहित ज्ञान और अनुभवों की अनदेखी ही हो सकती है। विकास की विकेंद्रीकृत पद्धति परंपरागत और आधुनिक स्रोतों से मिलने वाली तमाम तरह की तकनीकों के रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल को संभव बनाती है।
विकास और जीवन शैली
विकास का वैकल्पिक मॉडल विकास की महंगी, पर्यावरण की नुकसान पहुँचाने वाली और प्रौद्योगिकी से संचालित सोच से दूर होने की कोशिश करता है। विकास को देश में मोबाइल फोनों की संख्या, अत्याधुनिक हथियारों या कारों के बढ़ते आकार से नहीं बल्कि लोगों के जीवन की उस गुणवत्ता से नापा जाना चाहिए, जो उनकी प्रसन्नता, सुख-शांति और बुनियादी ज़रूरतों के पूरा होने में झलकती है।
चिंतन-मंथन
यह चित्र नर्मदा घाटी के डोमखेड़ी गाँव के सत्याग्रह का है। सरदार सरोवर बाँध के निर्माण के कारण नर्मदा के पानी ने घाटी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सत्याग्रहियों ने बढ़ते हुए पानी का सामना करने का निश्चय किया। जब पानी खतरनाक तरीके से बढ़ा और कार्यकर्ताओं के कंधों तक पहुँच गया तब सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस विवाद के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करो और बड़े बाँधों के गुण-दोषों पर चर्चा कीजिए। क्या सरदार सरोवर बाँध पानी की कमी की समस्या को हल करने का सही तरीका है? क्या कार्यकर्ताओं द्वारा इस सरकारी योजना का विरोध करना न्यायोचित था?
एक स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने और उर्जा के फिर से प्राप्त हो सकने वाले स्रोताें का यथासंभव उपयोग करने के प्रयास किए जाने चाहिएँ। वर्षाजल-संचयन, सौर एवं जैव गैस संयंत्र, लघु पनबिजली परियोजना, जैव कचरे से खाद बनाने हेतु कंपोस्ट-गड्ढे बनाना आदि इस दिशा में संभव प्रयासों के कुछ उदाहरण हैं। वैसी गतिविधियों को स्थानीय स्तर पर लागू करना और इसलिए लोगों की अधिक संलग्नता आवश्यक होगी। बड़े सुधार को प्रभावी बनाने के लिए बड़ी परियोजनाएँ ही एकमात्र तरीका नहीं हैं। बड़े बाँधों के विरोधियों ने छोटे बाँधों की वकालत की है, जिनमेें बहुत कम निवेश की ज़रूरत होती है और विस्थापन मामूली होता है। एेसे छोटे बाँध स्थानीय आबादी के लिए अधिक फायदेमंद हो सकते हैं।
इसी के साथ-साथ हमें अपने जीवन स्तर को बदल कर उन साधनों की आवश्यकताओं को भी कम करने की ज़रूरत है, जिनका नवीकरण नहीं हो सकता। यह एक पेचीदा मसला है, क्योंकि एेसा लग सकता है, कि लोगों से निम्नतर स्तर का जीवन जीने के लिए कहा जा रहा है। इसे चयन की उनकी आज़ादी में कटौती भी माना जा सकता है, लेकिन जीवन जीने के वैकल्पिक तरीकों की संभावनाओं पर बहस करने का मतलब अच्छे जीवन की वैकल्पिक दृष्टि को खोलकर स्वतंत्रता और सृजनशीलता की संभावना बढ़ाना भी है। एेसी किसी नीति के लिए देश भर के लोगों और सरकार के बीच बड़े पैमाने पर सहयोग की ज़रूरत होगी। इसका अर्थ होगा कि एेसे मामलों पर निर्णय लेने के लिए लोकतांत्रिक तरीका अपनाया जाए। अगर हम विकास को किसी की आज़ादी में बढ़ोतरी की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं और लोगों को निष्क्रिय उपभोक्ता भर नहीं मानकर विकास-लक्ष्यों को तय करने मेें सक्रिय भागीदार मानते हैं, तो वैसे मसलों पर सहमति तक पहुँचना संभव है। इस प्रक्रिया में अधिकार, स्वतंत्रता और न्याय की हमारी अवधारणाओं का भी विस्तार होगा।
निष्कर्ष
विकास का विचार बेहतर जीवन की कामना से जुड़ा है। यह बहुत ही सशक्त कामना है और बेहतरी की उम्मीद मानवीय कार्यों की संचालक शक्ति है। इस अध्याय में हमने देखा कि समृद्धि पाने के व्यापक रूप से स्वीकृत विचारोें की कैसी आलोचनात्मक छानबीन हुई है। विकास के अधिक न्यायपूर्ण, टिकाऊ और लोकतांत्रिक मॉडल के लिए बहुस्तरीय खोज जारी है। इस प्रक्रिया में राजनीतिक सिद्धांतों की समानता, लोकतंत्र और अधिकार - जैसी संकल्पनाओं की पुनर्व्याख्या हुई है।
विकास के लक्ष्यों का अनुुुसरण करने के दौरान उठे मसले बताते हैं कि हमारे चयन का बाकी मनुष्यों और दुनिया के अन्य जीवों पर भी प्रभाव पड़ता है। इसलिए हमें अपने को व्यापक ब्रह्मांड का अंग ही समझना चाहिए, क्योंकि हमारी नियति आपस में जुड़ी हुई है। साथ ही, मेरा कार्य दूसरे पर ही नहीं, भविष्य की मेरी संभावनाओं पर भी असर डालता है। इसलिए हमें सतर्कता से चुनाव करना चाहिए। अपनी वर्तमान ज़रूरतों का ही नहीं, दीर्घकालीन हितों का ध्यान भी रखना चाहिए।
प्रश्नावली
1. आप ‘विकास’ से क्या समझते हैं? क्या ‘विकास’ की प्रचलित परिभाषा से समाज के सभी वर्गों को लाभ होता है?
2. जिस तरह का विकास अधिकतर देशों में अपनाया जा रहा है उससे पड़ने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों की चर्चा कीजिए।
3. विकास की प्रक्रिया ने किन नए अधिकारों के दावों को जन्म दिया है?
4. विकास के बारे में निर्णय सामान्य हित को बढ़ावा देने के लिए किए जाएँ, यह सुनिश्चित करने में अन्य प्रकार की सरकार की अपेक्षा लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्या लाभ हैं?
5. विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जवाबदेह बनवाने में लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन कितने सफल रहे हैं?