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परिचय
इस अध्याय में भारत के राजनीतिक मानचित्रों (1947-2017) को देखिए। उनमें आपको काफी परिवर्तन दिखाई देगा। राज्यों की सीमाएँ और नाम बदल गए हैं तथा राज्यों की संख्या में भी अंतर आ गया है। आज़ादी के समय अपने देश में अधिकांश प्रांत एेसे थे जिन्हें अंग्रेजों ने महज प्रशासनिक सुविधा के लिए गठित किया था। फिर कुछ देशी रियासतों का स्वतंत्र भारत में विलय हो गया। इन देशी रियासतों को प्रांतों से जोड़ दिया गया। इसे आप 1947 के मानचित्र में देख सकते हैं। तब-से लेकर आज तक राज्यों की सीमाएँ कई बार बदल चुकी हैं। इस अवधि में न केवल राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन हुआ बल्कि कुछ राज्यों की जनता की इच्छा के अनुरूप उनके नाम भी बदल गए। जैसे मैसूर का नाम कर्नाटक तथा मद्रास का नाम तमिलनाडु हो गया। ये मानचित्र 70 वर्षों में हुए परिवर्तनों को दिखाते हैं। एक तरह से ये नक्शे हमसे भारत में संघवाद के कामकाज की कहानी कहते हैं।
इस अध्याय को पढ़ने के बाद आपको निम्नलिखित बातों की जानकारी होगी -
➤ संघवाद क्या है?
➤ भारतीय संविधान के संघीय व्यवस्था संबंधी प्रावधान क्या हैं?
➤ केंद्र व राज्यों के संबंध से जुड़े मुद्दे, और
➤ विशेष किस्म की बुनावट और एेतिहासिक विशेषता वाले कुछ राज्यों के लिए निर्धारित विशिष्ट प्रावधान क्या हैं?
7.1 संघवाद क्या है?
सोवियत संघ विश्व की एक महाशक्ति था पर 1989 के बाद वह अनेक स्वतंत्र देशों में बँट गया। इनमें से कुछ ने मिल कर ‘स्वतंत्र राज्यों का राष्ट्रमंडल’ बना लिया। सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारण वहाँ शक्तियों का जमाव और अत्यधिक केंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ थीं। इसके अलावा उज़बेकिस्तान जैसे भिन्न भाषा और संस्कृति वाले क्षेत्रों पर रूस के आधिपत्य ने भी विघटन को बढ़ावा दिया।
वेस्टइंडीज़ में संघवाद
आपने वेस्टइंडीज़ की क्रिकेट टीम के बारे में सुना होगा। लेकिन क्या वेस्टइंडीज़ नाम का कोई देश भी है?
भारत की ही तरह वेस्टइंडीज भी अंग्रेजों का उपनिवेश था। 1958 में ‘वेस्टइंडीज़ संघ’ (फेडरेशन अॉफ वेस्टइंडीज़) का जन्म हुआ। इसकी केंद्रीय सरकार कमज़ोर थी और प्रत्येक संघीय इकाई की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी। इस वजह से और अन्य संघीय इकाईयों में राजनैतिक प्रतिस्पर्धा के कारण 1962 में इस संघ को भंग कर दिया। बाद में 1973 की चिगुआरामस-संधि के द्वारा इन स्वतंत्र प्रायद्वीपों ने एक साझी संसद, सर्वोच्च न्यायालय, मुद्रा और ‘केरीबियन समुदाय’ नामक साझा-बाज़ार जैसी संयुक्त संस्थाओं का निर्माण किया। केरीबियन समुदाय की एक साझी कार्यपालिका भी है और सदस्य देशों की सरकारों के प्रधान उस कार्यपालिका के सदस्य हैं। इस प्रकार वहाँ की इकाईयाँ न तो एक देश के रूप में रह सकीं और न ही वे अलग-अलग रह सकीं।
कुछ अन्य राज्यों जैसे चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया और पाकिस्तान को भी अपने देश का विभाजन देखना पड़ा। कनाडा में भी अंग्रेजी-भाषी और फ्रेंच-भाषी क्षेत्रों के आधार पर विभाजन की संभावना बढ़ गई थी। भारत के लिए क्या यह महान उपलब्धि नहीं कि 1947 के दुखद विभाजन और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पिछले छः दशकों से वह अपना अखंड तथा स्वतंत्र अस्तित्व बनाए हुए हैं? आखिर इस उपलब्धि का आधार क्या है? क्या हम कह सकते हैं कि इसका काफी कुछ श्रेय भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था को जाता है?
ऊपर जिन देशों का उल्लेख किया गया है वे सभी संघीय राज्य थे। पर वे एकजुट न रह सके। इससे लगता है कि संघीय संविधान अपनाने के साथ-साथ संघीय व्यवस्था की प्रकृति और व्यवहार भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय भू-भाग एक महाद्वीप की तरह विशाल और अनेक विविधताओं से भरा है। यहाँ 20 प्रमुख और सैकड़ों अन्य छोटी भाषाएँ हैं। यहाँ अनेक धर्मों के मानने वाले लोग निवास करते हैं। देश के विभिन्न भागों में करोड़ों आदिवासी निवास करते हैं। इन विविधताओं के बावजूद हम एक साझी जमीन पर रहते हैं और हमारा एक साझा इतिहास है। खासकर उन दिनों का जब हम आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे। हमारे बीच दूसरी कई समानताएँ हैं। इसी कारण हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को ‘विविधता में एकता’ के रूप में परिभाषित किया है। कभी-कभार इसे ‘विविधताओं के साथ एकता’ की संज्ञा भी दी जाती है।
मैं समझ गई! यह हमारे स्कूल की तरह है। मेरी पहचान 9 या 12 या एेसे ही किसी कक्षा की है और हमारे बीच अलग-अलग फ़ैसलों को लेकर होड़ चलती रहती है। लेकिन हम सब एक ही स्कूल के छात्र हैं और हमें इसका गर्व है।
संघवाद में कोई एेसे निश्चित और कठोर सिद्धांत नहीं होते जो प्रत्येक एेतिहासिक परिस्थिति में समान रूप से लागू हों। शासन के सिद्धांत के रूप में संघवाद विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करता है। संघीय राज्य की शुरुआत अमेरिका से हुई लेकिन वह जर्मनी और भारतीय संघवाद से भिन्न है। फिर भी संघवाद की कुछ मूल अवधारणाएँ और विचार अवश्य हैं।
➤ निश्चित रूप से संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केंद्रीय स्तर की। प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में स्वायत्त होती है। कुछ संघीय देशों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था होती है पर भारत में इकहरी नागरिकता है।
➤ इस प्रकार लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी। जैसे हममें से कोई गुजराती या झारखंडी होने के साथ-साथ भारतीय भी होता है। प्रत्येक स्तर की राजनीतिक व्यवस्था की कुछ विशिष्ट शक्तियाँ और उत्तरदायित्व होते हैं तथा वहाँ एक अलग सरकार भी होती है।
➤ दोहरे शासन की विस्तृत रूपरेखा अमूमन एक लिखित संविधान में मौजूद होती है। यह संविधान सर्वोच्च होता है और दोनों सरकारों की शक्तियों का स्रोत भी। राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों-जैसे प्रतिरक्षा और मुद्रा-का उत्तरदायित्व संघीय या केंद्रीय सरकार का होता है। क्षेत्रीय या स्थानीय महत्त्व के विषयों पर प्रांतीय राज्य सरकारें जवाबदेह होती हैं।
➤ केंद्र और राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है जो संघर्षों का समाधान करती है। न्यायपालिका को केंद्रीय सरकार और राज्यों के बीच शक्ति के बँटवारे के संबंध में उठने वाले कानूनी विवादों को हल करने का अधिकार होता है।
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और इतिहास की वास्तविकताओं से होता है। आपसी विश्वास, सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति हो, तो संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है। राजनैतिक दलों के व्यवहार से भी यह तय होता है कि संविधान किस रास्ते चलेगा। यदि कोई एक इकाई, प्रांत, भाषाई समुदाय या विचारधारा पूरे संघ पर हावी हो जाए तो दबदबा कायम करने वाली ताकत के साथ जो इकाइयाँ या लोग नहीं हैं उनमें विरोध पनपता है। एेसी स्थिति में नाराज़ इकाइयाँ अपने अलग होने की माँग उठा सकती है। नौबत गृहयुद्ध तक की आ सकती है। बहुत-से देशों को इस अनुभव से गुजरना पड़ा है।
हाँ, मुझे याद है कि हमने पिछले अध्याय में पढ़ा था कि संविधान ही फ़ैसला करता है कि किसको कितनी शक्ति मिलनी चाहिए।
नाइज़ीरिया में संघवाद
यदि किसी देश के विभिन्न क्षेत्र और समुदाय एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते तो वहाँ संघीय व्यवस्था भी एकता लाने में असफल होगी। इसे नाइज़ीरिया के उदाहरण से समझा जा सकता है। 1914 तक उत्तरी नाइज़ीरिया और दक्षिणी नाइज़ीरिया ब्रिटेन के दो उपनिवेश थे। 1950 में इबादान संवैधानिक सम्मेलन में नाइज़ीरिया के नेताओं ने एक संघीय संविधान बनाने का निर्णय लिया। नाइज़ीरिया की तीन बड़ी जातीयताएँ एरुबा, इबो और हउसा-फुलानी हैं। इनके नियंत्रण में क्रमशः देश के तीन क्षेत्र पश्चिम, पूर्व और उत्तर थे। इन क्षेत्रों पर इनका अपना-अपना नियंत्रण था। इनके द्वारा अन्य क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयास से भय और संघर्ष का माहौल बना। इससे वहाँ एक सैनिक शासन की स्थापना हुई। 1960 के संविधान में केंद्र और प्रांतीय सरकारें संयुक्त रूप से नाइज़ीरिया की पुलिस का नियंत्रण करती थी। 1979 के सैनिक संविधान के अंतर्गत किसी भी राज्य को सिविल पुलिस रखने का अधिकार नहीं था।
हालाँकि 1999 में नाइज़ीरिया में लोकतंत्र की दुबारा बहाली हुई लेकिन धार्मिक विभेद बने रहे। नाइज़ीरियाई संघ के सामने यह समस्या भी बनी रही कि तेल संसाधन से प्राप्त राजस्व पर किसका नियंत्रण होगा। इस प्रकार नाइज़ीरिया की विभिन्न संघीय इकाइयों के बीच धार्मिक, जातीय और आर्थिक मतभेद बरकरार हैं।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
➤ एक संघीय व्यवस्था में केंद्रीय सरकार की शक्तियाँ कौन तय करता है?
➤ संघात्मक व्यवस्था में केंद्र सरकार और राज्यों में टकराव का समाधान कैसे होता है?
भारतीय संविधान में संघवाद
आज़ादी से पहले ही राष्ट्रीय आंदोलन के अनेक नेता इस विषय पर सहमत थे कि भारत जैसे विशाल देश पर शासन करने के लिए शक्तियों को प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों के बीच बाँटना ज़रूरी होगा। उन्हें यह भी भान था कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषाई विविधताएँ हैं। इन विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर मिलना चाहिए था। अगर हमारी मंशा लोकतांत्रिक शासन स्थापित करने की थी, तो इन बातों को लागू करना अपरिहार्य था।
आखिरकार, साथ रहने का उद्देश्य यही तो होना चाहिए कि हम सब खुश रहें और एक-दूसरे को खुश रखें।
प्रश्न केवल यह था कि क्षेत्रीय सरकारों को कितना अधिकार प्रदान किया जाए। मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों को ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में विभाजन के पूर्व एक समझौता फार्मूले पर चर्चा हुई, जिसके अनुसार क्षेत्रीय सरकारों को काफी ज़्यादा अधिकार देने का प्रस्ताव आया। पर भारत के विभाजन का निर्णय होने पर संविधान सभा ने एेसी सरकार के गठन का निर्णय लिया जो केंद्र और राज्यों के आपसी सहयोग और एकता तथा राज्यों के लिए अलग अधिकार के सिद्धांतों पर आधारित हो। भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच संबंध सहयोग पर आधारित होगा। इस प्रकार विविधता को मान्यता देने के साथ ही संविधान एकता पर बल देता है।
मिसाल के तौर पर क्या आप इस बात से वाकिफ़ हैं कि भारत के संविधान के अंग्रेज़ी संस्करण में ‘फेडरेशन’ शब्द का नहीं बल्कि ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया गया है? हालाँकि हिंदी भाषा में ‘फेडरेशन’ और ‘यूनियन’ दोनों के लिए ही ‘संघ’ शब्द का प्रयोग होता है लेकिन संविधान भारत का वर्णन इन शब्दों में करता है –
अनुच्छेद 1 – (1) भारत, अर्थात् इंडिया, राज्यों का संघ (यूनियन) होगा।
(2) राज्य और उनके राज्यक्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
शक्ति—विभाजन
भारत के संविधान में दो तरह की सरकारों की बात मानी गई है– एक संपूर्ण राष्ट्र के लिए जिसे संघीय सरकार या केंद्रीय सरकार कहते हैं और दूसरी प्रत्येक प्रांतीय इकाई या राज्य के लिए जिसे राज्य सरकार कहते हैं। ये दोनों ही संवैधानिक सरकारें हैं और इनके स्पष्ट कार्य-क्षेत्र हैं। यदि कभी यह विवाद हो जाए कि कौन-सी शक्तियाँ केंद्र के पास है और कौन-सी राज्यों के पास, तो इसका निर्णय न्यायपालिका संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार करेगी। संविधान इस बात की स्पष्ट व्यवस्था करता है कि कौन-कौन-सी शक्तियाँ केवल केंद्र सरकार को प्राप्त होंगी और कौन-कौन-सी केवल राज्यों को। (अगले पृष्ठ पर दिए गए चार्ट को ध्यान से देखें। इसमें दिखाया गया है कि केंद्र और राज्यों के बीच में शक्तियों को कैसे बाँटा गया है।) शक्ति विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केंद्रीय सरकार के हाथ में सौंपी है। राज्यों के उत्तरदायित्व बहुत अधिक है पर आय के साधन कम।
मुझे लगता है कि प्रदेशों के पास बहुत कम धन रहता होगा। वे अपना काम कैसे चलाते होंगे? यह तो बिलकुल उन परिवारों जैसा मामला है जहाँ रुपए-पैसे तो पति के हाथ में रहते हैं और घर पत्नी को चलाना पड़ता है।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
➤ क्या आप समझते हैं कि अवशिष्ट शक्तियों का अलग से उल्लेख करना ज़रूरी है? क्यों?
➤ बहुत-से राज्य शक्ति विभाजन से असंतुष्ट क्यों रहते हैं?
सशक्त केंद्रीय सरकार और संघवाद
अमूमन एेसा माना जाता है कि भारतीय संविधान द्वारा एक सशक्त केंद्रीय सरकार की स्थापना की गई है। भारत एक महाद्वीप की तरह विशाल तथा अनेकानेक विविधताओं और सामाजिक समस्याओं से भरा है। संविधान निर्माताओं की मान्यता थी कि हमें एक संघीय संविधान चाहिए जो इन विविधताओं को समेट सके। पर वे एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार की स्थापना भी करना चाहते थे जो विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रख सके और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन ला सके। स्वतंत्रता के समय केंद्र के लिए एेसी शक्तियाँ आवश्यक थीं क्योंकि उस समय देश में न केवल ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित कुछ प्रांत थे बल्कि 500 से ज़्यादा देशी रियासतें भी थीं जिनका या तो पुराने प्रांतों में विलय या नए प्रांतों के रूप में गठन होना था।
मैं अपने सदन के सम्मानित मित्रों को बताना चाहता हूँ कि सभी संविधानों में शक्तियों का प्रवाह केंद्र की ओर रहा है .... बदलती हुई परिस्थितियों के कारण कोई भी राष्ट्र-राज्य, चाहे वे एकात्मक रहे हों यासंघात्मक, पुलिस राज्य से लोक कल्याणकारी राज्य बन गए हैं और देश की आर्थिक खुशहाली का अंतिम उत्तरदायित्व केंद्र सरकार का हो गया है।
टी. टी. कृष्णामाचारी
संविधान सभा के वाद-विवाद, खंड XI, पृष्ठ 955-956, 25 नवंबर 1949
देश की एकता बनाए रखने के साथ-साथ संविधान निर्माता यह भी चाहते थे कि सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार करे और एेसा करने में उसे राज्यों का सहयोग भी प्राप्त हो। गरीबी, निरक्षरता और आर्थिक-असमानता आदि कुछ एेसी समस्याएँ थीं जिनके समाधान के लिए नियोजन और समन्वय बहुत ज़रूरी था। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता और विकास की चिंताओं ने संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केंद्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
आइए, उन संवैधानिक प्रावधानों पर ध्यान दें जो सशक्त केंद्रीय सरकार की स्थापना करते हैं –
➤ किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है। अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद ‘किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को . . . मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है’। वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है। पर इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए संविधान पहले प्रभावित राज्य के विधान मंडल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है।
➤ संविधान में केंद्र को अत्यन्त शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान हैं जो लागू होने पर हमारी संघीय व्यवस्था को एक अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था में बदल देते हैं। आपातकाल के दौरान शक्तियाँ कानूनी रूप से केंद्रीकृत हो जाती है। संसद को यह शक्ति भी प्राप्त हो जाती है कि वह उन विषयों पर कानून बना सके जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
मैं अब समझ गया कि हमारा संविधान क्यों दूसरों की सिर्फ नकल भर नहीं है। इसमें संघवाद का नक्शा निश्चित ही अपनी ज़रूरतों के हिसाब से बनाया गया।
➤ सामान्य स्थितियों में भी केंद्र सरकार को अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं। सबसे पहले तो आय के प्रमुख संसाधनों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है। इस प्रकार केंद्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केंद्र पर आश्रित हैं। दूसरी तरफ स्वतंत्रता के बाद भारत ने तेज़ आर्थिक प्रगति और विकास के लिए नियोजन को साधन के रूप में प्रयोग किया। नियोजन के कारण आर्थिक फ़ैसले लेने की ताकत केंद्र सरकार के हाथ में सिमटती गई। केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त योजना आयोग राज्यों के संसाधन-प्रबंध की निगरानी करता है। इसके अलावा, केंद्र सरकार अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान और ऋण देती है। आर्थिक संसाधनों का यह वितरण असंतुलित माना जाता है और सरकार पर अकसर यह आरोप लगाया जाता है कि वह विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है।
➤ जैसा कि हम आगे पढ़ेंगे राज्य के राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह राज्य सरकार को हटाने और विधान सभा भंग करने का सिफारिश राष्ट्रपति को भेज सके। इसके अतिरिक्त सामान्य परिस्थिति में भी राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह विधान मंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित कर सके। इससे केंद्र सरकार को यह अवसर मिल जाता है कि वह किसी राज्य के कानून निर्माण में देरी कर सके और यदि चाहे तो एेसे विधेयकों की परीक्षा कर उन पर निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग करके उसे पूरी तरह नकार दे।
➤ एेसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जब केंद्र सरकार द्वारा राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाना आवश्यक हो जाए। पर एेसा करने के लिए पहले राज्य सभा की अनुमति लेना आवश्यक है। संविधान में साफ-साफ कहा गया है कि केंद्रीय कार्यपालिका की शक्ति प्रादेशिक कार्यपालिका की शक्ति से ज़्यादा होगी।
इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार राज्य सरकारों को निर्देश दे सकती है। संविधान का निम्नलिखित प्रावधान इसे स्पष्ट करता है –
अनुच्छेद 257 (1) – ‘‘प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जाएगा जिससे संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में कोई अड़चन न हो या उस पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को एेसे निर्देश देने तक होगा जो भारत सरकार को इस प्रयोजन के लिए आवश्यक प्रतीत हों।’’
अरे! लगता तो यह है कि केंद्र सरकार के पास ही सारी शक्तियाँ हैं। क्या राज्य इसकी शिकायत नहीं करते?
➤ आपने कार्यपालिका से संबंधित अध्याय में देखा था कि हमारी प्रशासकीय व्यवस्था इकहरी है। अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिए हैं और इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन में कार्य करते हैं। अत: जिलाधीश के रूप में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी या पुलिस कमिश्नर के रूप में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है। राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकता है न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।
➤ संविधान के दो अन्य अनुच्छेद 33 व 34 संघ सरकार की शक्ति को उस स्थिति में काफी बढ़ा देते हैं जब देश के किसी क्षेत्र में ‘सैनिक शासन’ (मार्शल लॉ) लागू हो जाय। ये प्रावधान संसद को इस बात का अधिकार देते हैं कि एेसी स्थिति में वह केंद्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शांति व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को कानूनन जायज करार दे सके। इसी के अंतर्गत ‘सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया। इससे कभी-कभी जनता और सशस्त्र बलों में आपसी तनाव भी हुआ है।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
➤ इस दृष्टिकोण के पक्ष में दो तर्क दें कि हमारा संविधान एकात्मकता की ओर झुका हुआ है?
➤ क्या आप मानते हैं कि-
(क) शक्तिशाली केंद्र राज्यों को कमज़ोर करता है?
(ख) शक्तिशाली राज्यों से केंद्र कमज़ोर होता है?
भारतीय संघीय व्यवस्था में तनाव
पिछले पृष्ठों में हमने पढ़ा कि संविधान ने केंद्र को बहुत अधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। यद्यपि संविधान विभिन्न क्षेत्रों की अलग-अलग पहचान को मान्यता देता है लेकिन फिर भी वह केंद्र को ज़्यादा शक्ति देता है। एक बार जब ‘राज्य की पहचान’ के सिद्धांत को मान्यता मिल जाती है तब यह स्वाभाविक ही है कि पूरे देश के शासन में और अपने शासकीय क्षेत्र में राज्यों द्वारा और ज़्यादा शक्ति तथा भूमिका की माँग उठायी जाय। इसी कारण राज्य ज़्यादा शक्ति की माँग करते हैं। समय-समय पर राज्यों ने ज़्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की माँग उठायी है। इससे केंद्र और राज्यों के बीच संघर्ष और विवादों का जन्म होता है। केंद्र और राज्य अथवा विभिन्न राज्यों के आपसी कानूनी विवादों का समाधान न्यायपालिका करती है। लेकिन स्वायत्तता की माँग एक राजनीतिक सवाल है जिसे आपसी बातचीत द्वारा ही हल किया जा सकता है।
केंद्र-राज्य संबंध
संविधान तो मात्र एक ‘फ्रेमवर्क’ या ढाँचा है। इस पर ईंट-गारा, सुर्खी-चूना चढ़ाने का काम राजनीति की वास्तविकताओं द्वारा होता है। अत: भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। 1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नींव रखी। इस दौरान केंद्र और राज्यों में काँग्रेस का वर्चस्व था। नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केंद्र और राज्यों के बीच संबंध शांतिपूर्ण और सामान्य रहे। राज्यों को आशा थी कि वे केंद्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंद्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफ़ी आशा बंधी थी।
1960 के दशक के बीच में काँग्रेस के वर्चस्व में कुछ कमी आई और अनेक राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आ गए। इससे राज्यों कीे और ज़्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की माँग बलवती हुई। इस माँग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केंद्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे। अतः राज्यों की सरकारों ने केंद्र की काँग्रेेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया। काँग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल की बात पहले जैसी आसान नहीं रही। इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अंदर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।
बड़ी दिलचस्प बात है कि कानून और संविधान ही सारी बातों का फ़ैसला नहीं करते। आखिरकार, असली राजनीति ही हमारे सरकार के रूप-रंग का फ़ैसला करती है।
आखिरकार 1990 के दशक से काँग्रेस का वर्चस्व काफी कुछ खत्म हो गया है और हमने केंद्र में गठबंधन-राजनीति के युग में प्रवेश किया। राज्यों में भी विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल सत्तारूढ़ हुए हैं। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँजे हुए संघवाद की शुरूआत हुई। इस तरह दूसरे दौर में स्वायत्तता का मसला राजनैतिक रूप से सरगर्म हुआ है।
स्वायत्तता की माँग
समय-समय पर अनेक राज्यों और राजनीतिक दलों ने राज्यों को केंद्र के मुकाबले ज़्यादा स्वायत्तता देने की माँग उठाई है। लेकिन विभिन्न राज्यों और दलों के लिए स्वायत्तता का अलग-अलग मतलब हो सकता है।
➤ कभी कभी इन माँगों के पीछे यह इच्छा होती है कि शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदला जाए तथा राज्यों को ज़्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए जाएँ। समय-समय पर अनेक राज्यों (तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल) और दलों (द्रमुक, अकाली दल, माकपा) ने स्वायत्तता की माँग की।
➤ एक अन्य माँग यह है कि राज्यों के पास आय के स्वतंत्र साधन होने चाहिए और संसाधनों पर उनका ज़्यादा नियंत्रण होना चाहिए। इसे वित्तीय-स्वायत्तता भी कहते हैं। 1977 में पश्चिमी-बंगाल की वामपंथी सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों को पुनर्परिभाषित करने के लिए एक दस्तावेज़ प्रकाशित किया। तमिलनाडु और पंजाब की स्वायत्तता की माँगों में भी ज़्यादा वित्तीय अधिकार हासिल करने की मंशा छुपी हुई है।
➤ स्वायत्तता की माँग का तीसरा पहलू प्रशासकीय शक्तियों से संबंधित है। विभिन्न राज्य प्रशासनिक-तंत्र पर केंद्रीय नियंत्रण से नाराज़ रहते हैं।
हाँ, मुझे पता है कि हिन्दी भारत की राजभाषा है, लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले मेरे बहुत से मित्र हिन्दी नहीं जानते हैं।
➤ इसके अतिरिक्त, स्वायत्तता की माँग सांस्कृतिक और भाषाई मुद्दों से जुड़ी हुई भी हो सकती है। तमिलनाडु में हिंदी के वर्चस्व का विरोध और पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति के प्रोत्साहन की माँग इसके कुछ उदाहरण हैं। कुछ राज्य एेसा महसूस करते रहे हैं कि हिंदी भाषी क्षेत्रों का अन्य क्षेत्रों पर वर्चस्व है। दरअसल 1960 के दशक में तो कुछ राज्यों में हिंदी को लागू करने के विरोध में आंदोलन भी हुए।
संविधान सभा में राष्ट्रीय भाषा पर बहस के दौरान नेहरू को हिन्दी भाषी प्रान्तों से दूसरों के प्रति उदारता बरतने के लिए आग्रह करना पड़ा। डोंट स्पेयर मी शंकर, पृष्ठ 24
राज्यपाल की भूमिका तथा राष्ट्रपति शासन
राज्यपाल की भूमिका केंद्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है। राज्यपाल निर्वाचित पदाधिकारी नहीं होता। अधिकतर राज्यपाल सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी, लोकसेवक या राजनीतिज्ञ हुए हैं। फिर राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा होती है। अतः राज्यपाल के फ़ैसलों को अकसर राज्य सरकार के कार्यों में केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केंद्र और राज्य में अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं तब राज्यपाल की भूमिका और विवादास्पद हो जाती है। केंद्र-राज्य संबंधों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केंद्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया। इस आयोग को ‘सरकारिया आयोग’ के नाम से जाना जाता है। इस आयोग ने 1998 में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि राज्यपालों की नियुक्ति अनिवार्य तया निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।
‘‘जब नेहरू राज्यपालों की नियुक्ति कर रहे थे तो उनमें से कुछ मंत्री पद छोड़ने को इच्छुक नहीं थे।’’
डोंट स्पेयर मी शंकर, पृष्ठ 89
एक और कारण से राज्यपालों की शक्ति और भूमिका विवादास्पद हो जाती है। संविधान के सर्वाधिक विवादास्पद प्रावधानों में से एक अनुच्छेद 356 है। इसके द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू करते हैं जब "एेसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।" परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है। इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना ज़रूरी होता है। राष्ट्रपति शासन को अधिकतम तीन वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधान सभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके। इससे अनेक विवाद पैदा हुए। कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया गया। 1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला दिया कि राष्ट्रपति-शासन लागू करने के निर्णय की संवैधानिकता की जाँच-पड़ताल न्यायालय कर सकता है।
1967 तक अनुच्छेद 356 का अत्यन्त सीमित प्रयोग किया गया। 1967 के बाद अनेक राज्यों में गैर-काँग्रेसी सरकारें बनीं जबकि केंद्र में सत्ता काँग्रेस के पास रही। केंद्र ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया अथवा उसने राज्यपाल के माध्यम से बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका। उदाहरण के लिए सन् 1980 के दशक में केंद्रीय सरकार ने आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।
राज्य सरकार को गिराने का खेल हर किसी को अच्छा लगता है।
नवीन राज्यों की माँग
हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है। राष्ट्रीय-आंदोलन ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता को ही नहीं बल्कि समान भाषा, क्षेत्र और संस्कृति पर आधारित एकता को भी जन्म दिया। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन लोकतंत्र के लिए भी एक आंदोलन था। अतः राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान यह भी तय किया गया कि यथासंभव समान संस्कृति और भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होगा।
नए राज्यों के निर्माण के लिए माँगों की झड़ी लग गई है।
इससे स्वतंत्रता के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठी। दिसंबर 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई जिसने प्रमुख भाषाई समुदायों के लिए भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की। 1956 में कुछ राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इससे भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की शुरुआत हुई और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। 1960 में गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ; 1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग-अलग किया गया। बाद में पूर्वोत्तर के राज्यों का पुनर्गठन किया गया और नए राज्यों – जैसे मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश का जन्म हुआ।
खुद करें -खुद सीखें
भारत के राज्यों की सूची बनाएँ और पता करें कि प्रत्येक राज्य का गठन किस वर्ष किया गया।
संघवाद का मतलब झगड़ा है क्या? पहले हमने केंद्र और राज्य के झगड़े के बारे में बात की और अब राज्यों के आपसी झगड़ों की बात चल रही है। क्या हम साथ-साथ शांतिपूर्वक नहीं रह सकते?
नए राज्य बनाने की माँग को पूरा करने तथा अधिक प्रशासकीय सुविधा के लिए कुछ बड़े राज्यों का विभाजन 2000 में किया गया। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार को विभाजित कर तीन नए राज्य क्रमशः छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड बनाए गए। कुछ क्षेत्र और भाषाई समूह अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं जैसे महाराष्ट्र में विदर्भ।
अंतर्राज्यीय विवाद
जहाँ एक ओर राज्य अधिक स्वायत्तता और आय के स्रोतों पर अपनी हिस्सेदारी के सवाल पर केंद्र से विवाद की स्थिति में रहते हैं, वहीं दूसरी ओर संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। यह सच है कि कानूनी विवादों में न्यायपालिका पंच की भूमिका निभाती है लेकिन इन विवादों का स्वरूप मात्र कानूनी नहीं होता। इन विवादों के राजनीतिक पहलू भी होते हैं, अतः इनका सर्वोत्तम समाधान केवल विचार-विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर ही हो सकता है।
जहाँ सीमा संबंधी विवादों का स्वरूप भावनात्मक होता है वहीं नदियों के जल के बँटवारे को लेकर होने वाले विवाद की प्रकृति गंभीर है क्योंकि यह संबंधित राज्यों में पीने के पानी और कृषि की समस्या से जुड़ा है। आपने कावेरी जल विवाद के बारे में सुना होगा। यह तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच एक प्रमुख विवाद है। दोनों राज्यों के किसान कावेरी के जल पर निर्भर हैं। यद्यपि इसे सुलझाने के लिए एक ‘जल विवाद न्यायाधिकरण’ है फिर भी ये दोनों राज्य इसे सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं। एेसा ही एक विवाद नर्मदा नदी के जल के बँटवारे को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है। नदियाँ हमारे प्रमुख संसाधन हैं, इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय जल विवाद में राज्यों के धैर्य और सहयोग भावना की परीक्षा हो जाती है।
खुद करें - खुद सीखें
दो राज्यों के बीच किसी एक नदी जल विवाद के बारे में सूचनाएँ एकत्र करें।
हाँ! राज्यपाल के मामले में झगड़ा_ भाषा के मसले पर झगड़ा और तो और सीमाओं तथा पानी को लेकर झगड़ा। ------ तब भी, हम किसी तरह साथ-साथ रहते हैं।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
राज्य और अधिक स्वायत्तता की माँग क्यों करते हैं?
स्वायत्तता और अलगाववाद में क्या फर्क है?
विशिष्ट प्रावधान
भारतीय संघवाद की सबसे नायाब विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है। विधायिका का अध्ययन करते समय हमने पढ़ा था कि प्रत्येक राज्य का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण उन्हें राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। जहाँ छोटे-से-छोटे राज्य को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है वहीं इस व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित किया गया कि बड़े राज्यों को ज़्यादा प्रतिनिधित्व मिल सके।
शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त हैं। लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और एेतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है। एेसे अधिकतर प्रावधान पूर्वाेत्तर के राज्यों (असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम आदि) के लिए हैं जहाँ विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय-बहुल जनसंख्या निवास करती है। यहाँ के ये निवासी अपनी संस्कृति तथा इतिहास को बनाए रखना चाहते हैं। (अनुच्छेद 371)। बहरहाल, ये प्रावधान इस क्षेत्र के कुछ भागों में अलगाववाद और सशस्त्र विद्रोह को रोकने में सफल नहीं हो सके हैं। एेसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश तथा अन्य राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र, सिक्किम और तेलंगाणा के लिए भी हैं।
अब जाकर मुझे पता लगा कि पहले अध्याय में आए ‘सुसंगत और संतुलित बनावट’ का असली मतलब क्या है।
जम्मू और कश्मीर
इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई है। जम्मू-कश्मीर एक विशाल देशी रियासत था। भारत विभाजन के समय हिंदुस्तान या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल होने का इसके पास विकल्प था। स्वतंत्रता के तुरंत बाद पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर को लेकर युद्ध हुआ। इन परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत का चयन किया।
अधिकांश मुस्लिम बहुल राज्यों ने पाकिस्तान का चयन किया पर जम्मू-कश्मीर एक अपवाद था। इस परिस्थिति में संविधान में उसे काफी ज़्यादा स्वायत्तता प्रदान की गई। अनुच्छेद 370 के अनुसार केंद्र सूची और समवर्ती सूची के किसी विषय पर संसद द्वारा कानून बनाने और उसे जम्मू-कश्मीर में लागू करने के लिए इस राज्य की सहमति आवश्यक है।
यह अन्य राज्यों की स्थिति से भिन्न है। अन्य राज्यों के लिए तीन सूचियों द्वारा किया गया शक्ति विभाजन स्वतः प्रभावी होता है। जम्मू-कश्मीर के संबंध में केंद्र सरकार को सीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं। केंद्र सूची और समवर्ती सूची में वर्णित शक्तियों का वहाँ प्रयोग करने के लिए राज्य सरकार की सहमति लेनी पड़ती है। इससे जम्मू-कश्मीर राज्य को ज़्यादा स्वायत्तता मिल जाती है।
व्यवहार में जम्मू-कश्मीर को उतनी स्वायत्तता प्राप्त नहीं है जिसका संकेत अनुच्छेद 370 की भाषा से मिलता है। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह राज्य सरकार की सहमति से यह तय करे कि केंद्र सूची और समवर्ती सूची के कौन-कौन से प्रावधान राज्य के लिए प्रभावी होंगे। राष्ट्रपति ने जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति से अब तक दो संवैधानिक आदेश जारी किए हैं जिनके अंतर्गत इन सूचियों में वर्णित अधिकतर शक्तियों को राज्य में लागू किया जा सका है। परिणाम स्वरूप जम्मू-कश्मीर का एक अलग संविधान और ध्वज ज़रूर है पर संघीय और समवर्ती सूची के विषयों पर राज्य के लिए कानून बनाने की संसदीय शक्ति को अब पूरी तरह से स्वीकृति मिल गई है।
इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों में एक अंतर यह है कि राज्य सरकार की सहमति के बिना जम्मू-कश्मीर में ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर ‘अपातकाल’ लागू नहीं किया जा सकता। संघ सरकार जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं कर सकती तथा राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व यहाँ लागू नहीं होते। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि भारतीय संविधान के संशोधन (अनुच्छेद 368 के अंतर्गत) राज्य सरकार की सहमति से ही जम्मू-कश्मीर में लागू हो सकते हैं।
अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ की सभी इकाइयों (राज्यों) पर समान रूप से लागू होना चाहिए। अतः जब भी एेसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। इस बात की भी शंका होती है कि एेसे विशिष्ट प्रावधानों से उन क्षेत्रों में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ मुखर हो सकती हैं। अतः इन विशिष्ट प्रावधानों को लेकर कुछ विवाद है।
निष्कर्ष
संघवाद एक इंद्रधनुष की भाँति होता है जहाँ प्रत्येक रंग का अलग अस्तित्व होता है लेकिन वे सभी रंग मिल कर एक सुंदर और सद्भावपूर्ण दृश्य उपस्थित करते हैं। संघीय व्यवस्था केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने का कठिन कार्य करती है। कोई भी कानूनी या संस्थानिक फार्मूला संघीय व्यवस्था के सुचारु रूप से कार्य करने की गारंटी नहीं दे सकता। इसकी सफलता के लिए जनता और राजनीतिक प्रक्रिया को पारस्परिक विश्वास, सहनशीलता तथा सहयोग की भावना पर आधारित कुछ गुणों, मूल्यों और संस्कृति का विकास करना चाहिए। संघवाद एकता और अनेकता दोनों का आदर करता है। अनेकता और विविधताओं को समाप्त कर राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। एेसी बाध्यकारी एकता वास्तव में और ज़्यादा सामाजिक संघर्ष तथा अलगाव को जन्म देती है जो अंत में एकता को ही नष्ट कर देती है। विभिन्नताओं और स्वायत्तता की माँगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोगी संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है।
प्रश्नावली
1. नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?
(क) केंद्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज़्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केंद्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी। केंद्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।
(ग) दिल्ली के लिए नए आयुक्त। देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जाएगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह संभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।
(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा। राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मंत्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी एेसी संस्थाओं का निर्माण होगा।
(ङ) केंद्र ने धन दिया। केंद्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 553 लाख रुपए दिए हैं। इस धन की पहली किश्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपए दिए गए हैं।
(च) हम बिहारियों को बताएँगे कि मुंबई में कैसे रहना है। करीब 100 शिवसैनिकों ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।
(छ) सरकार को भंग करने की माँग। काँग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डमोक्रेटिक एलायंस अॉफ नगालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की माँग की है।
(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी काँग्रेस तथा सीपीआई (एम) के वॉक आऊट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
2. बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?
(क) संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
(ख) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेनदेन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
(ग) संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केंद्र में सत्तासीन हैं उनकी शक्तियाँ सीमित रहें।
3. बेल्ज़ियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्ज़ियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए एेसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें।
शीर्षक-I - संघीय बेल्ज़ियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र
अनुच्छेद-1 – बेल्ज़ियम एक संघीय राज्य है – जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2 – बेल्ज़ियम तीन समुदायों से बना है - फ्रैंच समुदाय, फ्लेेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।
अनुच्छेद-3 – बेल्ज़ियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है – वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र
अनुच्छेद-4 – बेल्ज़ियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं – फ्रेंच-भाषी क्षेत्र, डच-भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5 – वैलून क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाले प्रांत हैं – वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रांत हैं – एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
4. कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिंदुओं पर आपके सुझाव हों –
(क) केंद्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा
(ख) वित्त-संसाधनों का वितरण
(ग) राज्यपालों की नियुक्ति
5. निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?
(क) सामान्य भाषा
(ख) सामान्य आर्थिक हित
(ग) सामान्य क्षेत्र
(घ) प्रशासनिक सुविधा
6. उत्तर भारत के प्रदेशों - राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिंदी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाय तो क्या एेसा करना संघवाद के विचार से संगत होगा? तर्क दीजिए।
7. भारतीय संविधान की एेसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिसमें प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केंद्रीय सरकार को ज़्यादा शक्ति प्रदान की गई है।
8. बहुत-से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
9. यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो एेसे प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं। संक्षेप में कारण भी दें।
(क) राज्य की विधान सभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफ़ा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केंद्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
(ङ) सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं।
(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है।
10. ज़्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
11. क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराज़गी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?