Table of Contents
अध्याय 3
मानव व्यवहार के आधार
इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप
- मानव व्यवहार की विकासवादी प्रकृति को समझ सकेंगे,
- तंत्रिका तंत्र तथा अंतःस्रावी तंत्र के प्रकार्यों का व्यवहार के साथ संबंध बता सकेंगे,
- व्यवहार को निर्धारित करने में आनुवंशिक कारकों की भूमिका की व्याख्या कर सकेंगे,
- मानव व्यवहार का निरूपण करने में संस्कृति की भूमिका को समझ सकेंगे,
- संस्कृतीकरण, समाजीकरण तथा परसंस्कृतिग्रहण की प्रक्रियाओं का वर्णन कर सकेंगे, तथा
- मानव व्यवहार को समझने में जैविकीय एवं सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों की भूमिका का वर्णन कर सकेंगे।
विषयवस्तु
परिचय
विकासवादी परिप्रेक्ष्य
जैविकीय एवं सांस्कृतिक मूल
व्यवहार के जैविकीय आधार
तंत्रिका कोशिकाएँ
तंत्रिका तंत्र और अंतःस्रावी तंत्र की संरचना एवं प्रकार्य तथा व्यवहार और अनुभव के साथ उनके संबंध
तंत्रिका तंत्र
अंतःस्रावी तंत्र
आनुवंशिकता:जीन एवं व्यवहार
सांस्कृतिक आधार:व्यवहार का सामाजिक-सांस्कृतिक निरूपण
संस्कृति का संप्रत्यय
जैविकीय एवं सांस्कृतिक संचरण (बॉक्स 3.1)
संस्कृतीकरण
समाजीकरण
परसंस्कृतिग्रहण
प्रमुख पद
सारांश
समीक्षात्मक प्रश्न
परियोजना विचार
परिचय
इस धरती पर मनुष्य, प्राज्ञ मानव समस्त जीवों में सबसे अधिक विकसित प्राणी है। सीधे चलने की इनकी योग्यता, शारीरिक भार के अनुपात में मस्तिष्क का बड़ा आकार तथा मस्तिष्क के विशिष्ट ऊतकों का अनुपात इन्हें सभी अन्य प्रजातियों से पृथक करते हैं। मानव में इन अभिलक्षणों का विकास करोड़ों वर्षों में हुआ है तथा इनसे मानव कई तरह के जटिल व्यवहार करने में समर्थ हो गया है। वैज्ञानिकों ने जटिल मानव व्यवहार तथा तंत्रिका तंत्र की प्रक्रियाओं, विशेष रूप से मस्तिष्क, के बीच संबंध जानने का प्रयास किया है। उन्होंने विचारों, अनुभूतियों तथा क्रियाओं के स्नायविक आधारों को खोजने का प्रयास किया है। मनुष्य के जैविक आधारों को समझने से आप जान पाएँगे कि किस प्रकार मस्तिष्क, पर्यावरण और व्यवहार के बीच की अंतःक्रिया, विशिष्ट प्रकार के व्यवहारों को उत्पन्न करती है। इस अध्याय को हम विकासवादी परिप्रेक्ष्य में तंत्रिका तंत्र के सामान्य वर्णन से प्रारंभ करते हैं। तंत्रिका तंत्र की संरचना और प्रकार्यों का भी आप अध्ययन करेंगे। आप अंतःस्रावी तंत्र और मानव व्यवहार पर उसका प्रभाव भी जानेेंगे। तत्पश्चात् इस अध्याय में आप संस्कृति के संप्रत्यय एवं व्यवहार को समझने में इसकी प्रासंगिकता का भी अध्ययन करेंगे। इसके बाद संस्कृतीकरण, समाजीकरण एवं परसंस्कृतिग्रहण की प्रक्रियाओं का विश्लेषण करेंगे।
विकासवादी परिप्रेक्ष्य
आपने अवश्य देखा होगा कि लोग शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं में एक दूसरे से भिन्न होते हैं। लोगों की विशिष्टताएँ, उनकी आनुवंशिक अक्षयनिधि और पर्यावरण की माँगों के बीच अंतःक्रिया का परिणाम होती हैं।
इस संसार में, जीवों की करोड़ों विभिन्न प्रजातियाँ हैं जो कई तरह से भिन्न हैं। जीव वैज्ञानिकों का विश्वास है कि ये प्रजातियाँ हमेशा एेसी नहीं थीं; ये अपने पूर्ववर्ती प्रारूपों से आज के रूप में विकसित हुई हैं। एेसा अनुमान लगाया जाता है कि आधुनिक मानवों की विशेषताएँ, लगभग 2,00,000 वर्ष पहले उनके पर्यावरण के साथ लगातार अंतःक्रिया के फलस्वरूप विकसित हुई हैं।
विकास का तात्पर्य क्रमशः एवं क्रमिक जैविकीय परिवर्तन से है जो किसी प्रजाति के पूर्ववर्ती प्रारूपों में पर्यावरण की परिवर्तित होती हुई अनुकूलन की आवश्यकताओं के प्रति उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होता है। शरीर में क्रियात्मक और व्यवहारात्मक परिवर्तन, जो विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप होतेेे हैं, इतने मंद होते हैं कि सैकड़ों पीढ़ियों के बाद ही दिखाई देते हैं। विकास प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया के माध्यम से होता है। आपको पता है कि प्रत्येक प्रजाति के सदस्य अपने शारीरिक ढाँचे और व्यवहार में बहुत भिन्न होते हैं। जो गुण और विशेषताएँ उन प्रजातियों की उत्तरजीविता और प्रजनन की उच्चदर से जुड़ी होती हैं संभवतः वे ही आगे आने वाली पीढ़ियों में भी जाती हैं। एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में जब ये दोहराई जाती हैं तब प्राकृतिक चयन, उन नयी प्रजातियों के विकास को उन्मुख करता है जो कि उस विशेष पर्यावरण के साथ अत्यधिक प्रभावी रूप से अनुकूलित होती हैं। यह बहुत कुछ आजकल प्रचलित घोड़ों और दूसरे जानवरों के चयनात्मक प्रजनन के समान है। प्रजनक अपने प्रजाति समूह से योग्यतम और सबसे द्रुतगामी, नर एवं मादा घोड़ों को छाँटते हैं और उन्हें चयनात्मक प्रजनन के लिए प्रवर्तित करते हैं, ताकि उन्हें योग्यतम घोड़े मिल सकें। उपयुक्तता किसी जीव की वह योग्यता है जिसके कारण उसका अस्तित्व कायम रहता है तथा वह अगली पीढ़ी को अपनी जीन प्रदान करता है।
आधुनिक मानवों के तीन महत्वपूर्ण अभिलक्षण उन्हेें अपने पूर्वजों से अलग करते हैं: (1) बड़ा और विकसित मस्तिष्क, जिसमें संज्ञानात्मक व्यवहार; जैसे- प्रत्यक्षण, स्मृति, तर्कना, समस्या समाधान और संप्रेषण के लिए भाषा का उपयोग करने की अधिक क्षमता, (2) दो पैरों पर सीधा खड़ा होकर चलने की क्षमता, और (3) काम करने योग्य विपरीत अँगूठे के साथ मुक्त हाथ। ये अभिलक्षण हमारे पास कई हजार वर्षों से हैं।
हमारे व्यवहार दूसरी प्रजातियों की तुलना में बहुत जटिल और विकसित हैं क्योंकि हमारे पास बड़ा और अधिक विकसित मस्तिष्क है। मानव मस्तिष्क के विकास का प्रमाण दो तथ्यों से दिया जाता है। पहला, मस्तिष्क का वजन हमारे शरीर के कुल भार का 2.35 प्रतिशत है और यह सभी प्रजातियों की तुलना में सर्वाधिक है (हाथी में यह 0.2 प्रतिशत है)। दूसरा, मनुष्य का प्रमस्तिष्क (मस्तिष्क के सामने का बड़ा भाग), मस्तिष्क के अन्य अंगों से अधिक विकसित है।
यह विकास पर्यावरण की माँगों के परिणामस्वरूप हुआ है। कुछ व्यवहार इस विकास में स्पष्ट भूमिका निभाते हैं। उदाहरणार्थ, आहार ढूँढ़ने की योग्यता, परभक्षी से दूर रहना और छोटे बच्चों की सुरक्षा। ये सब जीव तथा उसकी प्रजाति की उत्तरजीविता से संबंधित उद्देश्य हैं। वे जैविकीय और व्यवहारात्मक विशेषताएँ, जो इन उद्देश्यों को पूरा करने में हमारी सहायता करती हैं, जीन के माध्यम से इन विशेषताओं को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने में जीव की योग्यता को बढ़ाती हैं। पर्यावरण की आवश्यकताएँ लंबे समय में जैविकीय और व्यवहारात्मक परिवर्तन लाती हैं।
जैविकीय एवं सांस्कृतिक मूल
हमारे व्यवहार का एक महत्वपूर्ण निर्धारक हमारी जैविकीय संरचना है जो हमें हमारे पूवर्जों से एक विकसित शरीर और मस्तिष्क के रूप में उत्तराधिकार में मिली है। किसी दुर्घटना, बीमारी या दवाओं के सेवन से जब मस्तिष्क की कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं तब इन जैविकीय आधारों का महत्त्व स्पष्ट दिखाई देता है। इस तरह के उदाहरणों में कई तरह की शारीरिक एवं मानसिक अशक्तता विकसित हो जाती है। कई बच्चों में माता-पिता से दूषित जीन के संचरण के कारण मानसिक मंदन तथा अन्य असामान्य लक्षण विकसित हो जाते हैं।
एक मनुष्य होने के कारण हमारे पास न केवल समान जैविकीय तंत्र, बल्कि निश्चित सांस्कृतिक तंत्र भी होते हैं। ये तंत्र मानव आबादी में विविध रूपों में हैं। हम सब जिस संस्कृति में जन्म लेते और पलते हैं उससे अपने जीवन का समझौता करते हैं। संस्कृति हमें विभिन्न स्थितियों में डालकर, तथा हमारे जीवन से कुछ माँगें करके, हमें विभिन्न प्रकार के अनुभव और सीखने के अवसर प्रदान करती है। इस प्रकार की माँगें, अनुभव और अवसर हमारे व्यवहार को अत्यन्त प्रभावित करते हैं। जैसे-जैसे हम शैशवावस्था से जीवन के अगले वर्षों की ओर बढ़ते हैं ये प्रभाव अधिक स्पष्ट और सक्षम दिखाई देते हैं। इस प्रकार जैविकीय आधार के अलावा हमारे व्यवहार के सांस्कृतिक आधार भी होते हैं। इस अध्याय में आगे आप व्यवहार में संस्कृति की भूमिका के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।
व्यवहार के जैविकीय आधार
तंत्रिका कोशिकाएँ
तंत्रिका कोशिका हमारे तंत्रिका तंत्र की मूलभूत इकाई है। तंत्रिका कोशिकाएँ विशिष्ट कोशिकाएँ हैं, जो विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों को विद्युतीय आवेग में परिवर्तित करने की अद्भुत योग्यता रखती हैं। इसके अलावा ये सूचना को विद्युत-रासायनिक संकेतोें के रूप में ग्रहण करने, संवहन करने तथा अन्य कोशिकाओं तक भेजने में भी निपुण होती हैं। ये ज्ञानेन्द्रियों (संवेदी अंगों) से या पास की अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से सूचना प्राप्त करती हैं, उसे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क और मेरुरज्जु) तक ले जाती हैं। फिर केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से पेशीय सूचना को पेशीय अंगों (मांसपेशियों तथा ग्रंथियों) तक ले जाती हैं।
मानव तंत्रिका तंत्र में 12 अरब तंत्रिका कोशिकाएँ पाई जाती हैं। ये बहुत प्रकार की होती हैं तथा आकृति, आकार, रासायनिक संरचना और प्रकार्य में एक दूसरे से बहुत भिन्न होती हैं। इन विभिन्नताओं के बावजूद इनमें तीन मूलभूत घटक समान रूप से पाए जाते हैं। वे हैं काय, पार्श्वतंतु और अक्षतंतु।
काय (soma) या काय कोशिका तंत्रिका कोशिका का मुख्य अंग है। इस कोशिका में कोशिका का केंद्रक (nucleus) तथा अन्य संरचनाएँ पाई जाती हैं, जो हर प्रकार की जीवित कोशिकाओं में सामान्य होती हैं (चित्र 3.1)। तंत्रिका कोशिकाओं की आनुवंशिक सामग्री केंद्रक में संचित होती है और यह कोशिका के पुनरुत्पादन एवं प्रोटीन संश्लेषण में तत्परता से सक्रिय होती है। तंत्रिका कोशिका का अधिकांश कोशिका द्रव्य काय कोशिका में होता है। पार्श्वतंतु (dendrites) शाखाओं की तरह की विशिष्ट संरचना वाले होते हैं जो कि काय कोशिका से निकलते हैं। ये तंत्रिका कोशिका के ग्रहण करने वाले सिरे होते हैं। इनका कार्य निकटवर्ती तंत्रिका कोशिका से या सीधे संवेदी अंगों से आने वाले तंत्रिका आवेगों को ग्रहण करना होता है। पार्श्वतंतु में विशिष्ट ग्राहक होते हैं जो किसी विद्युत-रासायनिक या जैव-रासायनिक संकेत के मिलते ही सक्रिय हो जाते हैं। ग्रहण किए हुए संकेत काय कोशिका में भेजे जाते हैं और इसके बाद अक्षतंतु में, जिससे कि सूचना अन्य तंत्रिका कोशिकाओं और मांसपेशियों में भेजी जा सके। अक्षतंतु अपनी लंबाई के साथ-साथ सूचना का संवहन करता है जो मेरुरज्जु में कई फीट तक और मस्तिष्क में एक मिलीमीटर से कम हो सकते हैं। अंतिम सिरे पर अक्षतंतु छोटी-छोटी शाखाओं में बँट जाते हैं जिन्हें अंतस्थ बटन (terminal buttons) कहते हैं। इनमें अन्य तंत्रिका कोशिकाओं, ग्रंथियों और मांसपेशियों में सूचना भेेजने की क्षमता होती है। तंत्रिका कोशिकाएँ सामान्यतः एक ही दिशा में सूचना का संवहन करती हैं, अर्थात पार्श्वतंतु से काय कोशिका फिर अक्षतंतु और वहाँ से अंतस्थ बटन तक।
तंत्रिका तंत्र में एक स्थान से दूसरे स्थान तक सूचना का संवहन तंत्रिकाओं के माध्यम से होता है, जो अक्षतंतु (axon) के ढेर होते हैं। तंत्रिकाएँ मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं - संवेदी एवं पेशीय । संवेदी तंत्रिकाएँ, जिन्हें अभिवाही तंत्रिकाएँ भी कहतेे हैं, सूचना को ज्ञानेंद्रियों से केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तक ले जाती हैं। दूसरी ओर पेशीय तंत्रिकाएँ, जिन्हें अपवाही तंत्रिकाएँ भी कहा जाता है, सूचना को केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से मांसपेशियों तक ले जाती हैं। पेशीय तंत्रिका स्नायविक आदेशों का संवहन करती है जो हमारी गतिविधियों और अन्य प्रतिक्रियाओं को निर्देशित, नियंत्रित एवं नियमित करते हैं। कुछ मिश्रित तंत्रिकाएँ भी होती हैं, लेकिन इनमें संवेदी और पेशीय तंतु भिन्न-भिन्न होते हैं।
तंत्रिका आवेग
तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ तंत्रिका आवेग के रूप में प्रवाहित होती हैं। जब उद्दीपक ऊर्जा ग्राहकों तक पहुँचती है तब तंत्रिका समर्थता में विद्युत परिवर्तन होने लगते हैं। तंत्रिका कोशिका की सतह पर विद्युत समर्थता में आकस्मिक परिवर्तन को तंत्रिका समर्थता कहते हैं। जब उद्दीपक ऊर्जा अपेक्षाकृत कमज़ोर होती है, तब विद्युत परिवर्तन इतने कम होते हैं कि तंत्रिका आवेग उत्पन्न नहीं हो पाते हैं और हम उस उद्दीपक का अनुभव नहीं कर पाते हैं। यदि उद्दीपक ऊर्जा अपेक्षाकृत सशक्त होती है तो विद्युत आवेग उत्पन्न होते हैं और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की ओर संवाहित होते हैं। तंत्रिका आवेग की शक्ति उसको उत्पन्न करने वाले उद्दीपक की शक्ति पर निर्भर नहीं करती है। तंत्रिका तंतु पूर्ण या शून्य सिद्धांत पर काम करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे या तो पूरी तरह से अनुक्रिया करते हैं या बिलकुल नहीं करते हैं। तंत्रिका आवेग की शक्ति तंत्रिका तंतु के साथ-साथ स्थिर रहती है।
तंत्रिका-कोष संधि
तंत्रिका तंत्र में कोई सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान तक एक तंत्रिका आवेग के रूप में संचारित होती है। एक अकेली तंत्रिका कोशिका तंत्रिका आवेग को अपने अक्षतंतु की लंबाई भर की दूरी तक ले जा सकती है। जब किसी आवेग को शरीर के दूर के हिस्से में भेजना होता है तो इस प्रक्रिया में कई तंत्रिका कोशिकाएँ भाग लेती हैं। इस प्रक्रिया में एक तंत्रिका कोशिका बहुत विश्वसनीय तरीके से सूचना को अपनी निकटवर्ती तंत्रिका कोशिका में भेजती है। पूर्ववर्ती तंत्रिका कोशिका के अक्षतंतु के संकेत दूसरी तंत्रिका कोशिका के पार्श्वतंतु से प्रकार्यात्मक संबंध या तंत्रिका-कोष संधि बनाते हैं। एक तंत्रिका कोशिका कभी भी दूसरी तंत्रिका कोशिका से शारीरिक रूप से जुड़ी नहीं होती, बल्कि वहाँ दोनों के बीच में खाली स्थान होता है। इस खाली स्थान को संधिस्थलीय खंड कहा जाता है। एक तंत्रिका कोशिका से तंत्रिका आवेग एक जटिल संधिस्थलीय सूचना संचरण प्रक्रिया द्वारा दूसरी तंत्रिका कोशिका तक पहुँचाया जाता है। अक्षतंतुओं में तंत्रिका आवेग का संवहन विद्युत-रासायनिक होता है, जबकि संधिस्थलीय संचरण की प्रकृति रासायनिक होती है (चित्र 3.2)। ये रासायनिक पदार्थ तंत्रिका-संचारक कहलाते हैं।
चित्र 3.1:तंत्रिका कोशिका की संरचना
तंत्रिका तंत्र और अंतःस्रावी तंत्र की संरचना एवं प्रकार्य तथा व्यवहार और अनुभव के साथ उनके संबंध
चूँकि हमारी जैविकीय संरचना हमारे व्यवहार के संगठन एवं निष्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है इसलिए हम इन संरचनाओं को कुछ विस्तार से देखेंगे। विशेष रूप से आप तंत्रिका तंत्र एवं अंतःस्रावी तंत्र के बारेे में पढ़ेंगे, जो मानव व्यवहार और अनुभव को एक आकार प्रदान करने में एक साथ कार्य करते हैं।
तंत्रिका तंत्र
सभी प्राणियों में मानव तंत्रिका तंत्र सर्वाधिक जटिल एवं विकसित तंत्र है। यद्यपि तंत्रिका तंत्र समग्र रूप से कार्य करता है, तथापि अध्ययन की सरलता के लिए हम इसे इसकी स्थिति और कार्य के आधार पर कई हिस्सों में बाँट सकते हैं। स्थिति के आधार पर तंत्रिका तंत्र दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है:केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तथा परिधीय तंत्रिका तंत्र। तंत्रिका तंत्र का वह भाग जो कठोर हड्डी के खोल (कपाल और रीढ़ की हड्डी) के अंदर पाया जाता है उसे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र कहा जाता है। मस्तिष्क और मेरुरज्जु इस तंत्र के अवयव हैं। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के अतिरिक्त तंत्रिका तंत्र के कुछ भाग परिधीय तंत्रिका तंत्र में स्थित होते हैं। परिधीय तंत्रिका तंत्र को पुनः कायिक एवं स्वायत्त तंत्रिका तंत्र में विभक्त किया जा सकता है। कायिक तंत्रिका तंत्र एेच्छिक प्रकार्यों से संबद्ध है, जबकि स्वायत्त तंत्रिका तंत्र उन कार्यों को करता है जिनपर हमारा कोई एेच्छिक नियंत्रण नहीं होता है। चित्र 3.3 में तंत्रिका तंत्र का संगठन क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है।
चित्र 3.2:तंत्रिका आवेग का तंत्रिका-कोष संधि से संचरण
चित्र 3.3:तंत्रिका तंत्र का क्रमबद्ध प्रतिरूपण
परिधीय तंत्रिका तंत्र
परिधीय तंत्रिका तंत्र में वे समस्त तंत्रिका कोशिकाएँ तथा तंत्रिका तंतु पाए जाते हैं, जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को पूरे शरीर से जोड़ते हैं। परिधीय तंत्रिका तंत्र को कायिक तंत्रिका तंत्र तथा स्वायत्त तंत्रिका तंत्र में विभाजित किया गया है। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र को पुनः अनुकंपी तथा परानुकंपी तंत्र में बाँटा गया है। परिधीय तंत्रिका तंत्र, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को सूचना संवेदी ग्राहकों (आँख, कान, त्वचा, आदि) के द्वारा भेजता है और पुनः मस्तिष्क के पेशीय आदेशों को मांसपेशियों और ग्रंथियों तक वापस पहुँचाता है।
कायिक तंत्रिका तंत्र
इस तंत्र में दो प्रकार की तंत्रिकाएँ होती हैं, जिन्हें कपालीय तंत्रिका और मेरु तंत्रिका कहा जाता है। कपालीय तंत्रिकाओं के 12 समुच्चय (सेट) होते हैं, जो मस्तिष्क के विभिन्न स्थानों से निकलते या उस तक पहुँचते हैं। तीन प्रकार की कपालीय तंत्रिकाएँ होती हैं - संवेदी, पेशीय और मिश्रित। संवेदी तंत्रिकाएँ सिर के क्षेत्र में स्थित ग्राहकों (दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्वाद, स्पर्श इत्यादि) से संवेदी सूचनाएँ एकत्रित करती हैं और उन्हें मस्तिष्क तक ले जाती हैं। पेशीय तंत्रिकाएँ मस्तिष्क से निकलने वाले पेशीय आवेगों को सिर के क्षेत्र में स्थित मांसपेशियों तक ले जाती हैं। उदाहरणार्थ, आँख के गोलों का संचलन पेशीय कपालीय तंत्रिका द्वारा नियंत्रित होता है। मिश्रित तंत्रिकाओं में संवेदी और पेशीय दोनों प्रकार के तंतु होते हैं जो मस्तिष्क से निकलने और पहुँचने वाली संवेदी पेशीय सूचनाओं का संवहन करते हैं।
मेरु तंत्रिकाओं के 31 समुच्चय होते हैं जो मेरुरज्जु से निकलते और उस तक पहुँचते हैं। प्रत्येक समुच्चय में संवेदी और पेशीय तंत्रिकाएँ होती हैं। मेरु तंत्रिका के दो कार्य होते हैं। मेरु तंत्रिका के संवेदी तंतु शरीर के सभी भागों (सिर के हिस्से को छोड़कर) से संवेदी सूचनाएँ एकत्रित करते हैं और मेरुरज्जु तक भेजते हैं जहाँ से फिर संवेदी सूचनाएँ मस्तिष्क तक भेजी जाती हैं। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क से नीचे आने वाले पेशीय आवेग मेरु तंत्रिकाओं के पेशीय तंतुओं द्वारा मांसपेशियों को भेजे जाते हैं।
स्वायत्त तंत्रिका तंत्र
यह तंत्र उन क्रियाओं का संचालन करता है जो सामान्यतः हमारे प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं होती। यह एेसे आंतरिक प्रकार्यों; जैसे- साँस लेना, रक्त संचार, लार स्राव, उदर संकुचन और सांवेगिक प्रतिक्रियाओं का नियंत्रण करता है (चित्र 3.4)। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र की ये क्रियाएँ मस्तिष्क के विभिन्न भागों के नियंत्रण में होती हैं।
स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के दो खंड हैं:अनुकंपी खंड और परानुकंपी खंड। यद्यपि दोनों के प्रभाव एक दूसरे के विपरीत होते हैं, फिर भी दोनों संतुलन की स्थिति बनाए रखने के लिए मिलकर कार्य करते हैं। अनुकंपी खंड आपातकालीन स्थितियों को संभालने का कार्य करता है जब प्रबल और त्वरित कार्यवाही होनी चाहिए, जैसे संघर्ष या पलायन की स्थिति में। इस आपातकाल में पाचन क्रिया रुक जाती है, रक्त आंतरिक अंगों से मांसपेशियों की ओर दौड़ने लगता है, तथा श्वास गति, अॉक्सीजन आपूर्ति, हृदयगति और रक्त शर्करा का स्तर बढ़ जाता है।
परानुकंपी खंड मुख्यतः ऊर्जा के संरक्षण से संबद्ध है। यह शरीर के आंतरिक तंत्र के नियमित प्रकार्यों का संचालन करता है। जब आपातकालीन स्थिति समाप्त हो जाती है तब परानुकंपी खंड कार्यभार संभाल लेता है; यह अनुकंपी तंत्र की सक्रियता को कम करता है और व्यक्ति को शांत कर उसे सामान्य स्थिति में लाता है। परिणामस्वरूप सभी शारीरिक क्रियाएँ; जैसे- हृदयगति, श्वास गति, और रक्त संचार सामान्य स्तर पर वापस आ जाते हैं।
केंद्रीय तंत्रिका तंत्र
केंद्रीय तंत्रिका तंत्र सभी तंत्रिका क्रियाओं का केंद्र है। यह आने वाली समस्त संवेदी सूचनाओं को संगठित करता है, सभी प्रकार की संज्ञानात्मक क्रियाएँ करता है तथा मांसपेशियों और ग्रंथियों को प्रेरक आदेश देता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में समाविष्ट हैं (अ) मस्तिष्क, और (ब) मेरुरज्जु। अब आप मस्तिष्क के मुख्य अंगों के प्रकार्यों एवं किन व्यवहारों के लिए हर अंग उत्तरदायी है, के बारे में पढ़ेंगे।
मस्तिष्क और व्यवहार
एेसी धारणा है कि मानव मस्तिष्क करोड़ों वर्षों में निम्नस्तर के पशुओं के मस्तिष्क से विकसित हुआ है और यह विकासात्मक प्रक्रिया अभी भी जारी है। विकास की इस प्रक्रिया में इसके प्राचीनतम रूप से लेकर आधुनिकतम रूप तक हम इसकी संरचनाओं के स्तरों की जाँच कर सकते हैं। उपवल्कुटीय तंत्र, मस्तिष्क स्तंभ और अनुमस्तिष्क प्राचीनतम संरचनाएँ हैं जबकि विकास के क्रम में प्रमस्तिष्कीय वल्कुट नवीनतम परिवर्धन है। एक वयस्क मस्तिष्क का भार लगभग 1.36 किलोग्राम होता है तथा इसमें लगभग 100 अरब तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं। तथापि मस्तिष्क के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात इसकी मानव व्यवहार और विचार को दिशा प्रदान करने की योग्यता है न कि इसकी तंत्रिका कोशिकाओं की संख्या। मस्तिष्क, क्षेत्रों और संरचनाओं में संगठित है जो विशिष्ट प्रकार्य करते हैं। मस्तिष्कीय क्रमवीक्षण से पता चलता है कि कुछ मानसिक प्रकार्य मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों में वितरित हैं, लेकिन बहुत सी गतिविधियाँ केंद्रित भी होती हैं। उदाहरणार्थ, मस्तिष्क का पश्चकपाल पालि (खंड) दृष्टि के लिए विशिष्ट क्षेत्र है।
क्रियाकलाप 3.1
कुछ विद्यार्थियों से कागज़ की पर्ची बनाने को कहिए और उन पर तंत्रिका तंत्र के हिस्सों के नाम लिखने को कहिए। पर्चियों को एक साथ मिलाकर एक कटोरे में रखिए और प्रत्येक विद्यार्थी को एक पर्ची उठाने को कहिए। उन्हें कुछ समय दीजिए और फिर उनसे उस पर्ची पर लिखे हिस्से के कार्य और स्थान याद करने को कहिए। प्रत्येक विद्यार्थी फिर सामने आए और वह हिस्सा बता कर अपना परिचय दे, फिर उस हिस्से के स्थान और कार्य की व्याख्या करे।
मस्तिष्क की संरचना
अध्ययन की सुविधा के लिए मस्तिष्क को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता हैः पश्च मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क एवं अग्र मस्तिष्क (चित्र 3.5)।
पश्च मस्तिष्क
मस्तिष्क के इस हिस्से में निम्न संरचनाएँ होती हैंः
मेडुला अॉबलांगाटा: यह मस्तिष्क का सबसे निचला हिस्सा है जो मेरुरज्जु से सटा रहता है। इसमें तंत्रिकीय केंद्र होते हैं जो मूलभूत जीवन सहायक गतिविधियों; जैसे- श्वास लेना, हृदयगति, और रक्तचाप को नियमित करते हैं। इसीलिए मेडुला मस्तिष्क का जीवनाधार केंद्र माना जाता है। इसमें कुछ केंद्र स्वायत्त क्रियाओं के लिए भी होते हैं।
सेतु: एक ओर यह मेडुला से और दूसरी ओर मध्य मस्तिष्क से जुड़ा होता है। सेतु का एक केंद्रक (तंत्रिकीय केंद्र) हमारे कानों द्वारा संचारित श्रवणात्मक संकेतों को ग्रहण करता है। एेसा माना जाता है कि सेतु निद्रा रचनातंत्र से जुड़ा होता है, विशेषतः स्वप्ननिद्रा से। इसमें एेसे केंद्रक होते हैं जो चेहरे की अभिव्यक्ति और श्वास-प्रश्वास संचालन को भी प्रभावित करते हैं।
चित्र 3.5: मस्तिष्क की संरचना
अनुमस्तिष्क: पश्च मस्तिष्क का यह सबसे विकसित हिस्सा अपनी झुर्रीदार सतह से आसानी से पहचाना जा सकता है। यह शारीरिक मुद्रा एवं संतुलन को बनाए रखने और नियंत्रित करने का कार्य करता है। इसका मुख्य कार्य मांसपेेशीय क्रियाकलापों में समन्वय करना है। यद्यपि पेशीय आदेश अग्र मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं, अनुमस्तिष्क उनको ग्रहण कर तथा समन्वित कर, मांसपेशियों को भेजता है। यह क्रियाकलापों की विधियों की स्मृति भी संचित करता है जिससे हम कैसे चलें, साइकिल पर चढ़ें या नाचें इत्यादि मुद्राओं पर ध्यान केंद्रित नहीं करना पड़ता है।
मध्य मस्तिष्क
मध्य मस्तिष्क अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है तथा यह पश्च मस्तिष्क और अग्र मस्तिष्क को जोड़ता है। यहाँ कुछ तंत्रिकीय केंद्र जो कुछ विशेष प्रतिवर्तों से संबंधित होते हैं तथा चाक्षुष और श्रवण संवेदनाएँ पाई जाती हैं। मध्य मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जिसे रेटिक्युुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम कहते हैं, हमारे भाव प्रबोधन के लिए उत्तरदायी होता है। संवेदी आगत को नियमित करके यह हमें सजग और सक्रिय बनाता है। पर्यावरण से आगत सूचनाओं के चयन में भी यह हमारी सहायता करता है।
अग्र मस्तिष्क
अग्र मस्तिष्क को सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है क्योंकि यह सभी प्रकार की संज्ञानात्मक, संवेगात्मक और प्रेरक क्रियाकलापों को संपादित करता है। हम अब अग्र मस्तिष्क के चार मुख्य भागों की चर्चा करेंगे:अधश्चेतक, चेतक, उप वल्कुटीय तंत्र और प्रमस्तिष्क।
अधश्चेतक: मस्तिष्क के सबसे छोटे भागों में से अधश्चेतक एक है, किंतु यह व्यवहार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। सांवेगिक एवं अभिप्रेरणात्मक व्यवहारों में शामिल शारीरिक प्रक्रियाओं को यह नियमित करता है; जैसे- भोजन करना, पानी पीना, सोना, तापमान नियमन, और कामोत्तेजना। यह शरीर के आंतरिक वातावरण (यथा, हृदयगति, रक्तचाप, तापमान) को नियंत्रित एवं नियमित करता है तथा विभिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों से निकलने वाले अंतःस्राव या हार्मोन को भी नियमित करता है।
चेतक: चेतक अधश्चेतक के ऊपरी हिस्से पर अंडाकार रूप में स्थित होता है। इसमें तंत्रिका कोशिकाओं के गुच्छे होते हैं। यह एक प्रसारण स्टेशन की तरह है जो ज्ञानेन्द्रियों से आने वाले सभी संवेदी संकेतों को ग्रहण करके वल्कुट के उपयुक्त हिस्सों में प्रक्रमण के लिए भेजता है। वल्कुट से निकलने वाले सभी बर्हिगत प्रेरक संकेतों को भी ग्रहण कर, शरीर के उपयुक्त भागों में भेजता है।
उपवल्कुटीय तंत्र यह तंत्र एेसी संरचनाओं के समूह से बना है जो पुरातन स्तनधारीय मस्तिष्क का हिस्सा है। शरीर में शारीरिक तापमान, रक्तचाप और रक्तशर्करा स्तर का नियमन करके यह आंतरिक समस्थिति को कायम रखने में मदद करता है। इसका अधश्चेतक से भी गहरा संबंध है। अधश्चेतक के अलावा उपवल्कुटीय तंत्र में हिप्पोकेम्पस और गलतुंडिका भी समाविष्ट हैं। दीर्घकालिक स्मृति में हिप्पोकेम्पस की और संवेगात्मक व्यवहारों में गलतुंडिका की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
प्रमस्तिष्क: यह प्रमस्तिष्कीय वल्कुट के नाम से भी जाना जाता है। यह भाग सभी उच्चस्तरीय संज्ञानात्मक प्रकार्यों; जैसे- अवधान, प्रत्यक्षण, अधिगम, स्मृति, भाषा-व्यवहार, तर्कना और समस्या समाधान को नियमित करता है। मानव मस्तिष्क के कुल परिमाण का दो तिहाई भाग प्रमस्तिष्क होता है। इसकी सघनता 1.5 मि.मी. से लेकर 4 मि.मी. तक होती है जो मस्तिष्क की पूरी सतह को ढक लेती है और इसमें तंत्रिका कोशिकाएँ, अक्षतंतुआें के समूह और तंत्रिका जाल होते हैं। ये सभी हमारे लिए संगठित कार्य करना और प्रतिमाएँ, प्रतीक, साहचर्य तथा स्मृति सर्जन करना संभव बनाते हैं।
प्रमस्तिष्क दो बराबर अर्धभागों में विभक्त है जिन्हें प्रमस्तिष्कीय गोलार्ध कहते हैं। यद्यपि दोनों गोलार्ध देखने में एक जैसे लगते हैं, किंतु प्रकार्यात्मक रूप से एक गोलार्ध सामान्यतः दूसरे की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है। उदाहरणार्थ, बायाँ गोलार्ध सामान्यतः भाषा संबंधी व्यवहारों को नियंत्रित करता है और दायाँ गोलार्ध सामान्यतः प्रतिमाएँ, देशिक संबंध, प्रारूप प्रत्यभिज्ञान जैसे विशिष्ट कार्यों को संभालता है। ये दोनों गोलार्ध एक सफ़ेद माइलिन आच्छादित तंतुओं के समूह से जुड़े होते हैं जिसे महासंयोजक पिंड या कार्पस कोलोसम कहा जाता है और जो दोनों गोलार्धों के बीच संदेश लाने और ले जाने का कार्य करता है।
प्रमस्तिष्कीय वल्कुट को भी चार पालियों (खंडों) में विभक्त किया गया है- ललाट पालि, पाशि्ρवक पालि, शंख पालि और पश्चकपाल पालि। ललाट पालि (frontal lobe) मुख्यतः संज्ञानात्मक कार्यों; जैसे- अवधान, चिंतन, स्मृति, अधिगम एवं तर्कना से संबद्ध है, किंतु यह स्वायत्त और संवेगात्मक अनुक्रियाओं पर भी अवरोधात्मक प्रभाव डालता है। पाशि्ρवक पालि (parietal lobe) मुख्यतः त्वचीय संवेदनाओं और उनका चाक्षुष और श्रवण संवेदनाओं के साथ समन्वय से संबद्ध है। शंख पालि (temporal lobe) मुख्यतः श्रवणात्मक सूचनाओं के प्रक्रमण से संबद्ध है। प्रतीकात्मक शब्दों और ध्वनियों की स्मृति यहाँ रहती है। लिखित भाषा और वाणी को समझना इसी पालि पर निर्भर करता है। पश्चकपाल पालि (occipital lobe) मुख्यतः चाक्षुष सूचनाओं से संबद्ध है। एेसा माना जाता है कि चाक्षुष आवेगों की व्याख्या, चाक्षुष उद्दीपकों की स्मृति और रंग चाक्षुष उन्मुखता इसी पालि के द्वारा संपन्न होती है।
शरीरक्रियाविज्ञानी और मनोवैज्ञानिकों ने मस्तिष्क की विशिष्ट संरचनाओं से संबंधित विशिष्ट प्रकार्यों को पहचानने का प्रयास किया है। उन्होंने पाया है कि मस्तिष्क की कोई भी गतिविधि वल्कुट के केवल एक हिस्से के द्वारा ही संपादित नहीं होती है। सामान्यतः दूसरे हिस्से भी सम्मिलित होते हैं। किंतु यह भी सत्य है कि प्रकार्यों का कुछ क्षेत्र निर्धारण भी है अर्थात एक विशेष कार्य के लिए वल्कुट का कोई विशेष भाग, दूसरे भागों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उदाहरणार्थ, यदि आप कोई कार चला रहे हैं तो आप अपने पश्चकपाल पालि के कार्यों के फलस्वरूप सड़क और अन्य दूसरी गाड़ियों को देखते हैं, हार्न की आवाज़ शंख पालि के काम करने के कारण सुन पाते हैं, पाशि्ρवक पालि के नियंत्रण में कई प्रकार के पेशीय क्रियाकलाप करते हैं और निर्णय ललाट पालि के द्वारा लेते हैं। पूरा मस्तिष्क एक समुचित रूप से समन्वित इकाई के रूप में कार्य करता है, जहाँ अलग-अलग हिस्से अपना कार्य अलग-अलग करते हैं।
मेरुरज्जु
मेरुरज्जु एक लंबी रस्सी की तरह का तंत्रिका तंतुओं का एक समूह है जो मेरुदंड के अंदर पूरी लंबाई तक जाता है। इसका एक हिस्सा मस्तिष्क के मेडुला से जुड़ा होता है और दूसरा हिस्सा एक पूँछ के अंतिम हिस्से की भाँति मुक्त रहता है। पूरी लंबाई तक इसकी संरचना एक जैसी है। मेरुरज्जु के मध्य में उपस्थित तितली के आकार के धूसर रंग के द्रव्य के ढेर में साहचर्य तंत्रिका कोशिकाएँ (association neurons) तथा अन्य कोशिकाएँ होती हैं। धूसर द्रव्य को घेरे हुए मेरुरज्जु का श्वेत द्रव्य होता है जो कि ऊपर जाने वाले और नीचे की ओर आने वाले तंत्रिका पथ से बना होता है। ये तंत्रिका पथ (तंत्रिका तंतु का समूह) मस्तिष्क को शरीर के अन्य हिस्सों से जोड़ता है। मेरुरज्जु एक बहुत बड़े केबिल की भूमिका निभाती है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को असंख्य संदेश भेजती और प्राप्त करती है। मेरुरज्जु के दो मुख्य प्रकार्य हैं। पहला, शरीर के निचले भागों से आने वाले संवेदी आवेगों को मस्तिष्क तक पहुँचाना और मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले पेशीय आवेगों को सारे शरीर तक पहुँचाना। दूसरा, इसमें कुछ सरल प्रतिवर्ती क्रियाएँ संपन्न होती हैं जिनमें मस्तिष्क भाग नहीं लेता है। इन सरल प्रतिवर्ती क्रियाओं में संवेदी तंत्रिका, पेशीय तंत्रिका तथा मेरुरज्जु के धूसर द्रव्य की साहचर्य तंत्रिका कोशिकाएँ शामिल हैं।
प्रतिवर्ती क्रिया
प्रतिवर्ती क्रिया एक एेसी अनैच्छिक क्रिया है जो एक विशेष प्रकार के उद्दीपन के तुरंत बाद घटित होती है। प्रतिवर्ती क्रियाएँ मस्तिष्क के चेतन रूप से लिए गए निर्णय के बिना स्वतः घटित होती हैं। प्रतिवर्ती क्रियाएँ हमारे तंत्रिका तंत्र में विकासवादी प्रक्रिया के माध्यम से वंशानुगत होती हैं। उदाहरणार्थ, आँख झपकने की प्रतिवर्ती क्रिया। जब कभी कोई वस्तु हमारी आँखों के समीप अचानक आती है तो हमारी पलकें झपकती हैं। प्रतिवर्ती क्रियाएँ जीव को किसी भी संभावित खतरे से बचाकर जीवन की रक्षा करती हैं। हालाँकि हमारा तंत्रिका तंत्र कई प्रकार की प्रतिवर्ती क्रियाएँ करता है किंतु उनमें जो परिचित हैं वे हैं, घुटने में झटका लगना, पुतलियों का फैलना-सिकुड़ना, बहुत गरम या बहुत ठंडी चीज़ से हाथ हटाना, साँस लेना और अंगों को फैलाना। इनमें से बहुत सारी प्रतिवर्ती क्रियाएँ मेरुरज्जु के द्वारा की जाती हैं जिनमें मस्तिष्क सम्मिलित नहीं होता है।
अंतःस्रावी तंत्र
हमारे विकास और व्यवहार में अंतःस्रावी ग्रंथियों की निर्णायक भूमिका होती है। वे विशेष रासायनिक द्रव्य प्रवाहित करती हैं जिन्हें अंतःस्राव कहते हैं जो हमारे कुछ व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं। ये ग्रंथियाँ वाहिनी रहित ग्रंथियाँ या अंतःस्रावी ग्रंथियाँ कहलाती हैं, क्योंकि इनमें कोई नली (दूसरी ग्रंथियों की तरह) नहीं होती है जिससे ये अपने स्राव को विशेष स्थानों पर भेज सकें। अंतःस्राव रक्त धारा के साथ प्रवाहित होते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियाँ शरीर में एक अंतःस्रावी तंत्र बना लेती हैं। यह तंत्र तंत्रिका तंत्र के अन्य हिस्सों के संयोजन में काम करता है। अतः पूरे तंत्र को तंत्रिका-अंतःस्रावी तंत्र के रूप में जाना जाता है। चित्र 3.6 शरीर की मुख्य अंतःस्रावी ग्रंथियों को प्रदर्शित करता है।
पीयूष ग्रंथि
यह ग्रंथि कपाल में, अधश्चेतक के ठीक नीचे स्थित होेती है। पीयूष ग्रंथि अग्रपीयूष और पश्च पीयूष में विभक्त है। अग्र पीयूष अधश्चेतक से प्रत्यक्षतः जुड़ी होती है जो इसके अंतःस्रावी स्रावों को नियमित करती है। पीयूष ग्रंथि संवृद्धि अंतःस्राव और अन्य कई अंतःस्रावों को स्रावित करती है, जो हमारे शरीर में पाई जाने वाली अन्य कई अंतःस्रावी ग्रंथियों के स्रावों का निर्देशन एवं नियमन करते हैं। इसी कारण पीयूष ग्रंथि को ‘मुख्य ग्रंथि’ कहा जाता है। कुछ अंतःस्राव जीवन पर्यंत धीमी गति से स्रावित होते रहते हैं जबकि दूसरे अन्य, जीवन में उपयुक्त समय पर प्रवाहित होते हैं। उदाहरणार्थ, संवृद्धि अंतःस्राव पूरी बाल्यावस्था में स्थिरतापूर्वक प्रवाहित होते रहते हैं, किशोरावस्था में कुछ स्फुरण के साथ, लेकिन जननग्रंथि पोषक हार्मोन यौवनारंभ की अवस्था में प्रवाहित होते हैं जो लड़कियों और लड़कों में स्त्रियोचित एवं पुरुषोचित अंतःस्रावों को उद्दीप्त करते हैं। इसके फलस्वरूप मूल और गौण लैंगिक परिवर्तन होते हैं।
चित्र 3.6:मुख्य अंतःस्रावी ग्रंथियाँ
अवटुग्रंथि
यह ग्रंथि गले में स्थित होती है। यह थाइरॉक्सिन (thyroxin) नामक अंतःस्राव उत्पन्न करती है जो शरीर में चयापचय की दर को प्रभावित करता है। अग्र पीयूष हार्मोन के द्वारा उपयुक्त मात्रा में थाइरॉक्सिन हार्मोन का स्राव और नियमन होता है। इस हार्मोन का स्थिर स्राव शरीर कोशिकाओं में ऊर्जा के उत्पादन को, अॉक्सीजन की खपत को और बेकार पदार्थ के विलोपन को बनाए रखता है। दूसरी ओर थाइरॉक्सिन हार्मोन के उत्पादन की कमी से शारीरिक और मानसिक सुस्ती आती है। यदि छोटे जानवरों से अवटुग्रंथि को निकाल दिया जाए तो उनका विकास रुक जाता है और वे लैंगिक रूप से विकसित नहीं हो पाते।
अधिवृक्क ग्रंथियाँ
ये दोनों ग्रंथियाँ प्रत्येक गुर्दे के ऊपर स्थित होती हैं। इसके दो भाग होते हैं, अधिवृक्क वल्कुट (adrenal cortex) और अधिवृक्क मध्यांश (adrenal medulla) और इनमें प्रत्येक से अलग-अलग अंतःस्राव उत्पन्न होता है। अधिवृक्क वल्कुट से होने वाला अंतःस्राव, अग्रपीयूष ग्रंथि से स्रावित होने वाले अंतःस्राव एड्रीनोकॉर्टिकोट्रोफिक हार्मोन (ACTH) द्वारा नियंत्रित और नियमित होता है। जब अधिवृक्क वल्कुट का स्राव कम हो जाता है तब अग्रपीयूष ग्रंथि संदेश पाकर एड्रीनोकॉर्टिकोट्रोफिक हार्मोन के स्राव को बढ़ा देती है जो अधिवृक्क वल्कुट को अधिक अंतःस्राव के लिए उद्दीप्त कर देता है।
अधिवृक्क वल्कुट हार्मोन के एक समूह को स्रावित करता है जिन्हें कॉर्टिकोयड (corticoids) कहा जाता है। शरीर के द्वारा इनका उपयोग कई शरीरक्रियात्मक उद्देश्यों, उदाहरणार्थ, शरीर में खनिज विशेषतः सोडियम, पोटैशियम और क्लोराइड्स के नियमन के लिए किया जाता है। इस ग्रंथि के कार्यों में किसी भी प्रकार की बाधा तंत्रिका तंत्र के प्रकार्यों को गंभीर रूप से प्रभावित करती है।
अधिवृक्क मध्यांश दो प्रकार के अंतःस्राव स्रावित करता है, एपाइनफ्राइन (epinephrine) तथा नॉरएपाइनफ्राइन (norepinephrine)। इन्हें क्रमशः एड्रिनलीन और नॉरएड्रिनलीन के नाम से भी जाना जाता है। अनुकंपी सक्रियता; जैसे- हृदयगति में वृद्धि, अॉक्सीजन की खपत, चयापचय दर, पेशीय शक्ति इत्यादि, इन्हीं दो हार्मोन के स्राव के द्वारा घटित होती है। एपाइनफ्राइन और नॉरएपाइनफ्राइन अधश्चेतक को उद्दीप्त करते हैं जो प्रतिबलकों के हटा लेने के बाद भी व्यक्ति में संवेगों को बढ़ाते हैं।
अग्न्याशय
अग्न्याशय पेट के नीचे रहता है। यह खाना पचाने में मुख्य भूमिका निभाता है। लेकिन यह भी एक हार्मोन का स्राव करता है जिसे इन्सुलिन (insulin) कहा जाता है। इन्सुलिन, शरीर के उपयोग के लिए या यकृत में ग्लाइकोज़न के रूप में भंडारण के लिए यकृत की ग्लूकोज़ के विखंडन में सहायता करता है। जब समुचित मात्रा में इन्सुलिन का स्राव नहीं होता तो लोगों में बीमारी उत्पन्न हो जाती है जिसे मधुमेह कहते हैं।
जननग्रंथियाँ
जननग्रंथियों से तात्पर्य पुरुषों में शुक्रग्रंथि और स्त्रियों में डिंबग्रंथि से है। इन ग्रंथियों से स्रावित होने वाले अंतःस्राव पुरुषों और स्त्रियों में काम व्यवहार और प्रजनन प्रकार्यों को नियंत्रित और नियमित करते हैं। इन ग्रंथियों से निकलने वाले अंतःस्राव को शुरू करना, उसे बनाए रखना और उसके नियमन करने का कार्य जननग्रंथि पोषक हार्मोन (gonadotrophic hormone) करते हैं जो अग्रपीयूष ग्रंथि से निकलते हैं। जननग्रंथि पोषक हार्मोन का स्राव यौवनारंभ के दौरान (10 से 14 वर्ष के मानवों में) शुरू होता है और ये जननग्रंथियों को अंतःस्राव को उत्पन्न करने के लिए उद्दीप्त करता है जो कि पुनः मूल और गौण लैंगिक लक्षणों के विकास को उद्दीप्त करता है।
महिलाओं में डिंबग्रंथियाँ एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रान उत्पन्न करती हैं। एस्ट्रोजन से महिला शरीर का लैंगिक विकास होता है। लैंगिक रूप से परिपक्व एक महिला की डिंबग्रंथि में प्रजनन से संबंधित मूल लैंगिक लक्षण प्रकट होते हैं; जैसे- डिंबग्रंथि से लगभग प्रत्येक 28 दिनों में अंडाणु का निकलना। गौण लैंगिक लक्षण; जैसे- वक्षस्थल का विकास, शरीर की बाह्य सीमाओं का गोल होना, चौड़ी श्रोणि इत्यादि इसी अंतःस्राव पर निर्भर करती हैं। प्रोजेस्ट्रान का लैंगिक विकास में कोई योगदान नहीं होता है। इसका कार्य गर्भाशय को, निषेचित अंडाणु को ग्रहण करने के लिए, तैयार करना होता है।
पुरुषों में यह प्रजनन संबंधी व्यवहार अधिक सरल होता है, क्योंकि इसमें कोई चक्रीय प्रतिरूप नहीं होता। पुरुषों में शुक्रग्रंथि शुक्राणु निरंतर उत्पन्न करती रहती है और एण्ड्रोजन नामक पुरुष यौन अंतःस्राव स्रावित करती है। प्रमुख पुरुष यौन हार्मोन टेस्टोस्ट्रोन है। टेस्टोस्ट्रोन से गौण लैंगिक परिवर्तन होते हैं; जैसे- शारीरिक परिवर्तन, शरीर और चेहरे पर बालों का आना, आवाज़ का भारीपन और लैंगिक उन्मुख व्यवहार में वृद्धि। आक्रामकता में वृद्धि और दूसरे अन्य व्यवहार भी टेस्टोस्ट्रोन की उत्पत्ति से संबंधित हैं।
सभी अंतःस्रावों का सामान्य प्रकार्य हमारे व्यवहारपरक कल्याण के लिए निर्णायक होता है। अंतःस्राव के संतुलित स्राव के बिना शरीर आंतरिक संतुलन को बनाने में सक्षम नहीं होता। यदि अंतःस्राव में वृद्धि न हो तो दबाव की स्थिति में हम पर्यावरण के संभाव्य खतरों के प्रति प्रभावी प्रतिक्रिया नहीं कर सकते। अंत में, हमारे जीवन के विशिष्ट समय में यदि अंतःस्राव स्रावित न हों तो हमारी संवृद्धि नहीं हो सकती, हम परिपक्व नहीं हो सकते और न ही प्रजनन संभव हो सकता है।
आनुवंशिकता:जीन एवं व्यवहार
हम अपने माता-पिता से विशेषताएँ उत्तराधिकार में जीन के रूप में पाते हैं। एक बच्चा अपने जन्म के समय अपने माता और पिता से प्राप्त जीन के विशिष्ट संयोजन का धारक होता है। यह उत्तराधिकार व्यक्ति के विकास को जैविक नक्शा (ब्लूप्रिंट) और समय-सारणी प्रदान करता है। अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में प्राप्त शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का अध्ययन आनुवंशिकी (genetics) कहलाता है। बच्चे का जन्म एकल युग्मनज कोशिका से प्रारंभ होता है। माता का अंडाणु पिता के शुक्राणु से निषेचित होकर युग्मनज कहलाता है। यह एक अत्यंत छोटी कोशिका होती है जिसके मध्य में केंद्रक होता है जिसमें गुणसूत्र होते हैं। सभी जीन के साथ ये गुणसूत्र, माता और पिता से बराबर संख्या में, वंशागत होते हैं।
गुणसूत्र
गुणसूत्र शरीर के आनुवंशिक तत्व हैं। ये गुणसूत्र प्रत्येक कोशिका के केंद्रक में होते हैं। इनकी संरचना धागे जैसी और जोड़े वाली होती है। प्रत्येक केंद्रक में गुणसूत्रों की संख्या पृथक किंतु प्रत्येक जीवित प्राणी में स्थिर होती है। युग्मक-कोशिकाओं (शुक्राणु और अंडाणु) में 23 गुणसूत्र पाए जाते हैं किंतु ये जोड़े में नहीं होते। एक शुक्राणु कोशिका और एक अंडाणु कोशिका के मिलने से एक नयी पीढ़ी का जन्म होता है।
गर्भधारण के समय जीव माता-पिता से 46 गुणसूत्र वंशानुक्रम से प्राप्त करता है, 23 माता से और 23 पिता से। इनमें से प्रत्येक गुणसूत्र में हजारों जीन होते हैं। पिता की शुक्राणु कोशिका, माता की अंडाणु कोशिका से एक महत्वपूर्ण पहलू में भिन्न होती है। शुक्राणु कोशिका का 23वाँ गुणसूत्र या तो अंग्रेज़ी वर्णमाला के बड़े X अक्षर की तरह या बड़े Y अक्षर की तरह का हो सकता है। यदि X की तरह की शुक्राणु कोशिका, अंडाणु कोशिका का निषेचन करती है तो निषेचित अंडाणु कोशिका में 23वें जोड़े में XX गुणसूत्र होंगे और संतान स्त्री होगी। दूसरी ओर, यदि Y की तरह की शुक्राणु कोशिका, अंडाणु कोशिका का निषेचन करेगी तो 23वें जोड़े में XY गुणसूत्र होंगे और संतान पुरुष के रूप में होगी।
गुणसूत्र मुख्यतः डीअॉक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) नामक पदार्थ से बने होते हैं। हमारे जीन मुख्यतः डी.एन.ए. अणुओं से बने होते हैं। वे दो जीन जो प्रत्येक लक्षण के विकास को नियंत्रित करते हैं, एक ही स्थान पर स्थित होते हैं। अर्थात् गुणसूत्र के एक विशेष जोड़े के प्रत्येक गुणसूत्र पर एक जीन स्थित होता है। इसका अपवाद है लिंग गुणसूत्रों का जोड़ा जो व्यक्ति के लिंग का निर्धारण करता है।
क्रियाकलाप 3.2
पूरी कक्षा को दो समूहों में बाँट दीजिए और इस विषय पर चर्चा कीजिए ‘मनोवैज्ञानिकों को तंत्रिका कोशिका, तंत्रिका-कोष संधि औेर तंत्रिका तंत्र का अध्ययन जीव वैज्ञानिकों के लिए छोड़ देना चाहिए’। एक समूह को इसके पक्ष में और दूसरे समूह को विपक्ष में बोलना चाहिए।
जीन
प्रत्येक गुणसूत्र में हजारों आनुवंशिक निर्देश जीन के रूप में होते हैं। जीव के विकास का अधिकांश भाग ये जीन निर्धारित करते हैं। इनमें विशिष्ट प्रकार के प्रोटीन उत्पन्न करने के निर्देश होते हैं जो शरीरक्रियात्मक प्रक्रियाएँ और जीव के दृश्य प्ररूप गुणों की अभिव्यक्ति को नियमित करते हैं। जीव के व्यक्त गुणों को दृश्य प्ररूप या फीनोटाइप कहते हैं (उदाहरणार्थ, शारीरिक बनावट, शारीरिक शक्ति, बुद्धि एवं अन्य व्यवहारात्मक गुण)। जो गुण आनुवंशिक सामग्री के द्वारा बच्चों में हस्तांतरित होते हैं उन्हें जीन प्ररूप या जीनोटाइप कहते हैं। सभी जैविकीय और मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ जो एक आधुनिक मानव में होती हैं, वे उत्तराधिकार में प्राप्त जीन प्ररूप गुणों के फलस्वरूप होती हैं। इनमें दृश्य प्ररूप गुणों के कारण विभिन्नताएँ होती हैं।
एक निश्चित जीन कई भिन्न रूपों में जीवित रह सकता है। एक रूप से दूसरे रूप में बदलने की जीन की क्रिया को उत्परिवर्तन (mutation) कहते हैं। जिस प्रकार का उत्परिवर्तन प्रकृति में स्वाभाविक रूप से होता है उसी से जीन प्ररूप में भिन्नताएँ आती हैं और नयी प्रजातियों की उत्पत्ति होती है। उत्परिवर्तन की प्रक्रिया नए जीन को पुराने उपस्थित जीन से पुनः संयोजन के अवसर प्रदान करती है। जीन संरचना का यह नया संयोजन पुनः पर्यावरण में परीक्षण के लिए रखा जाता है, जो जीन प्ररूप पर्यावरण में सर्वोपयुक्त होते हैं उन्हें छाँट लिया जाता है।
सांस्कृतिक आधार:व्यवहार का सामाजिक-सांस्कृतिक निरूपण
व्यवहार के जैविकीय आधार को पढ़ने के बाद आपका यह विचार बन गया होगा कि हमारे कई व्यवहार अंतःस्रावों से प्रभावित होते हैं तो अन्य कई व्यवहार प्रतिवर्ती अनुक्रियाओं के कारण होते हैं। तथापि हार्मोन और प्रतिवर्त हमारे समस्त व्यवहार के कारणों की व्याख्या नहीं करते। हार्मोन मानव कायिकी को नियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, किंतु वे पूर्णरूपेण मानव व्यवहार को नियंत्रित नहीं करते। इसी प्रकार रूढ़धारणा (स्थिर प्ररूप) जो किसी भी प्रतिवर्त का सबसे विभेदकारी गुण है, अधिकांश मानव अनुक्रियाओं में दिखाई नहीं देता।
यह तर्क देने के लिए कि हमारा व्यवहार जानवरों के व्यवहार से अधिक जटिल है हम अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से उदाहरण ले सकते हैं। इस जटिलता का एक प्रमुख कारण यह है कि मनुष्य के व्यवहार को नियमित करने के लिए एक संस्कृति है जो जानवरों में नहीं है। आइए, एक मूल आवश्यकता, भूख को लें। हमें पता है कि इसका जैविकीय आधार है, जो मनुष्यों और जानवरों में समान है लेकिन जिस तरह से मनुष्यों द्वारा इस आवश्यकता की संतुष्टि होती है वह अत्यंत जटिल है। उदाहरणार्थ, कुछ लोग शाकाहारी भोजन करते हैं जबकि कुछ मांसाहारी भोजन भी खाते हैं। वे कैसे शाकाहारी या मांसाहारी बन गए? कुछ शाकाहारी अंडा खाते हैं कुछ नहीं। एेसा क्यों है? सोचने का प्रयत्न कीजिए कि लोग खाना खाने के विषय में इतना भिन्न व्यवहार कैसे करने लगे हैं। यदि आप और खोज करें तो पाएँगे कि भोजन करने के तरीके में भी विभिन्नताएँ होती हैं (उदाहरण के लिए, हाथ से भोजन करना या चम्मच, काँटे और छुरी की मदद से खाना)।
काम-व्यवहार को भी एक अन्य उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। हमें पता है कि इस व्यवहार में मनुष्यों और जानवरों में अंतःस्राव और प्रतिवर्ती क्रियाएँ समान रूप से होती हैं। जबकि जानवरों में काम-व्यवहार काफी सरल और प्रतिवर्ती होता है (सभी जानवर, लगभग एक ही प्रकार से काम-व्यवहार करते हैं) मनुष्यों में यह इतना जटिल होता है कि इसे प्रतिवर्ती बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता। मानव काम-व्यवहार में साथी का चुनाव एक मुख्य विशेषता होती है। चुनाव का यह आधार भिन्न समाजों में भिन्न होता है और एक ही समाज में भी भिन्न होता है। मानव काम-व्यवहार कई नियमों, मानकों, मूल्यों और कानूनों से निंयत्रित होता है। तथापि इन नियमों और मानकों में भी लगातार परिवर्तन की प्रक्रिया होती है।
ये उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य के व्यवहार को समझने में केवल जैविकीय कारक ही हमारी बहुत ज़्यादा सहायता नहीं कर सकते। जीव वैज्ञानिकों द्वारा जो मानव प्रकृति बताई गई है उससे कहीं भिन्न मनुष्य का स्वभाव होता है। जैविकीय और सांस्कृतिक शक्तियों की परस्पर-क्रिया के द्वारा मानव प्रकृति विकसित हुई है। इन्हीं शक्तियों ने हमें कई तरह से समान और कई अन्य तरह से भिन्न बनाया है।
संस्कृति का संप्रत्यय
आपने पढ़ा कि मानव व्यवहार को उसके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में ही जिसमें वह घटित होता है, समझा जा सकता है। मानव व्यवहार मूलभूत रूप से सामाजिक होता है। इसमें, दूसरे अन्य लोगों के साथ संबंध, उनके व्यवहार के प्रति प्रतिक्रिया और हमारे पूर्वजों द्वारा दी गई असंख्य चीज़ों से हमारे आबंध, सम्मिलित होते हैं। यद्यपि कई अन्य प्राणी भी हमारी तरह सामाजिक होते हैं किंतु मनुष्य सांस्कृतिक भी होते हैं।
आप पूछ सकते हैं: सांस्कृतिक होने का क्या तात्पर्य है? इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए हमें संस्कृति का अर्थ समझना होगा। एकदम सरल भाषा में यदि कहें तो संस्कृति का तात्पर्य ‘पर्यावरण के मानव-निर्मित भाग’ से है। इसमें बहुत से लोगों के व्यवहार के साथ-साथ हमारे अपने व्यवहार के विभिन्न उत्पाद सम्मिलित होते हैं। ये उत्पाद भौतिक वस्तुएँ (यथा, औज़ार, मूर्तियाँ), विचार (यथा, श्रेणियाँ, मानक) या सामाजिक संस्थान (यथा, परिवार, विद्यालय) हो सकते हैं। हम उन्हें लगभग हर जगह देख सकते हैं। वे हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं यद्यपि हम उनके प्रति हमेशा सजग नहीं होते हैं।
आइए, कुछ उदाहरणों को देखें। जिस कमरे में आप अभी हैं वह एक सांस्कृतिक उत्पाद है। यह किसी का वास्तुकलात्मक विचार और भवन-निर्माण कला का परिणाम हो सकता है। आपका कमरा आयताकार हो सकता है किंतु कई स्थान एेसे होते हैं जहाँ कमरे आयताकार नहीं होते (यथा, एस्किमो के)। इस अध्याय को पढ़ते समय हो सकता है आप किसी कुर्सी पर बैठे हों जिसका किसी ने कुछ समय पहले रूपांकन एवं निर्माण किया हो। चूँकि कुर्सी पर बैठने की एक विशेष मुद्रा होती है, यह आविष्कार आपके व्यवहार का निरूपण कर रहा है। कई एेसे समाज हैं जहाँ कुर्सियाँ नहीं होती हैं। ज़रा सोचिए कि इन समाजों में लोग कुछ पढ़ने के लिए कैसे बैठते होंगे।
विद्यार्थी ‘कक्षा’ में कुर्सियों पर बैठते हैं, लेकिन सभी विद्यालयों में कुर्सियाँ नहीं होती। कई गाँवों के स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए कुर्सियाँ नहीं होतीं। वे या तो ज़मीन पर या उस पर बोरे बिछाकर बैठते हैं। कुछ समाजों में बच्चे एक कमरे में एकत्रित होकर, अध्यापक की ओर मुख करके बैठते हैं, जो कि एक अन्य प्रकार का सांस्कृतिक उत्पाद है, जिसे ‘शिक्षण’ कहते हैं। इस संस्थान का भौतिक पक्ष हो सकता है, जैसे-भवन और वैचारिक पक्ष हो सकता है, जैसे यह विचार कि शिक्षण एक विशिष्ट स्थान या समय पर होना चाहिए या यह विचार कि जो लोग ‘विद्यालय’ आते हैं उनका मूल्यांकन होना चाहिए, और सफलतापूर्वक शिक्षा पूरी करने पर उन्हें प्रमाणपत्र देना चाहिए। यह संस्थान उन लोगों को कुछ व्यवहारात्मक प्रत्याशाएँ भी प्रदान करते हैं जो इसमें भाग लेते हैं। अध्यापक और विद्यार्थी दोनों को ही कुछ भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं और कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी लेनी पड़ती हैं। व्यक्ति, परिवार और समुदाय के शिक्षा एवं शिक्षण के प्रति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होते हैं। कुछ का मत है कि विद्यालयी शिक्षा एक मूल्यवान चीज़ है। उनका यह अडिग विश्वास है कि विद्यालयी शिक्षा लोगों को अधिक शक्तिशाली बना सकती है और उनका भाग्य बदल सकती है। दूसरे लोग इसे न तो मूल्यवान समझते हैं और न ही इसकी शक्ति में विश्वास रखते हैं। कुछ समाज लड़के और लड़कियों की समान शिक्षा पर ज़ोर डालते हैं जबकि अन्य एेसा नहीं मानते। कुछ समूह शिक्षा की इस प्रक्रिया में व्यापक रूप से भाग लेते हैं जबकि दूसरे (जैसे- कुछ जनजातीय समूह) थोड़ा या बिलकुल भी भाग नहीं लेते। कुछ विशेष आवश्यकताओं वाले लोग बहुधा कई कारणों से विद्यालयी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। समुदाय, लिंग, जाति समूह और विशेष आवश्यकताओं वाले समूह और उनकी शैक्षणीयता के बारे में भिन्न-भिन्न समाजों में लोगों के भिन्न-भिन्न विचार होते हैं।
बॉक्स 3.1 जैविकीय एवं सांस्कृतिक संचरण
अपेक्षाकृत आधुनिक वर्षों में एक विद्याशाखा का उद्भव हुआ है, जिसे समाज-जीवविज्ञान कहा जाता है और जो जीवविज्ञान और समाज की अन्योन्यक्रिया से संबंधित है। विकासवादी ढाँचे में ‘समावेशी उपयुक्तता’ के आधार पर यह विद्याशाखा मनुष्य के सामाजिक व्यवहार की व्याख्या करती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रत्येक जीव से इस प्रकार के व्यवहार की प्रत्याशा की जाती है जिससे प्रजनन को अधिकाधिक बढ़ाया जा सके। जिन शोधकर्ताओं ने कई सामाजिक व्यवहारों (जैसे- प्रणययाचन, मैथुन, बच्चों का पालन-पोषण) का अध्ययन किया है उन्होंने जैविकीय रूप से संबंधित प्राणियों के विकास की निरंतरता का निम्न मूल्यांकन किया है। उनके अनुसार मनुष्य का व्यवहार केवल जैविकीय पूर्ववृत्तियों के कारण नहीं है। यह अधिगम से बहुत प्रभावित होता है। एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक, हाइडी केलर (Heidi Keller) के अनुसार, आनुवंशिक अक्षयनिधि को जीन और व्यवहार के बीच स्थिर, नियतिवादी संबंधों के भ्रामक अर्थ में नहीं समझना चाहिए। उन्होंने ‘आनुवंशिक तत्परता’ का विचार प्रतिपादित किया जिसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्यावरण के साथ हमारे अनुकूलन को बढ़ाने के लिए, हम कुछ विशिष्ट व्यवहारों को अधिगम के द्वारा अर्जित करते हैं।
अब यह माना जाता है कि मानव क्रमविकास में दोनों, आनुवंशिक और सांस्कृतिक, संचरण सम्मिलित हैं। यह संचरण प्रक्रियाएँ कुछ हद तक भिन्न हैं किंतु उनकी समांतर विशेषताएँ भी हैं। आनुवंशिक संचरण एक प्रक्रिया है जो सभी जीवों में एक ही तरह से घटित होती है जबकि सांस्कृतिक संचरण एक अनोखी मानव प्रक्रिया है। शिक्षण और अनुकरण के माध्यम से एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से जो सीखती है, वही अधिगम इसे जैविकीय संचरण से भिन्न बनाता है। सांस्कृतिक संचरण में, व्यक्ति अपने जैविक माता-पिता के अलावा अन्य लोगों से भी प्रभावित होता है, जबकि जैविकीय संचरण में केवल माता-पिता ही प्रभाव का कारण होते हैं। अतः केवल मनुष्यों में ही ‘सांस्कृतिक माता-पिता’ होते हैं (जैसे- विस्तृत परिवार के सदस्य, शिक्षक और अन्य प्रभावशाली लोग)। सांस्कृतिक क्रम विकास भी केवल पीढ़ियों के मध्य प्रभाव तक ही सीमित नहीं है। एक पीढ़ी में भी विचार संचारित हो सकते हैं यहाँ तक कि यह भी संभव है कि बड़े लोग अपने छोटों को आदर्श बनाएँ।
यह दोनों प्रक्रियाएँ कई महत्वपूर्ण तरीके से समान हैं। पर्यावरण की माँगों के साथ दोनों अन्योन्यक्रिया में आगे बढ़ती हैं। दोनों में वे परिवर्तन सम्मिलित हैं जो या तो बने रहते हैं या खत्म हो जाते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे अनुकूलन के कितने योग्य हैं (अर्थात वे उस पर्यावरण के साथ कितनी अच्छी तरह से समायोजित होते हैं जिसमें वे पहली बार घटित हुए थे)। अतः मानव स्तर पर हम द्वैध-उत्तराधिकार सिद्धांत के प्रमाण पाते हैं। जैविकीय उत्तराधिकार जीन के माध्यम से घटित होते हैं जबकि सांस्कृतिक उत्तराधिकार मीम्स के द्वारा। पहले में ऊपर से नीचे का क्रम (माता-पिता से बच्चे) होता है जबकि दूसरे में नीचे से ऊपर का क्रम (बच्चों से माता-पिता) भी हो सकता है। द्वैध-उत्तराधिकार सिद्धांत यह भी प्रदर्शित करता है कि यद्यपि जैविकीय एवं सांस्कृतिक शक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएँ हो सकती हैं लेकिन वे समांतर शक्तियों की तरह कार्य करती हैं और एक दूसरे से अन्योन्यक्रिया करते हुए व्यक्ति के व्यवहार की व्याख्या करती हैं।
जब आप चारों ओर देखेंगे तो पाएँगे कि मनुष्य के रूप में हम कई प्रकार के सांस्कृतिक उत्पादों से अन्योन्यक्रिया करते हैं और उनके अनुरूप व्यवहार करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि संस्कृति एक महत्वपूर्ण ढंग से हमारे व्यवहार को प्रभावित करती है। फिर भी इस बिंदु पर यह भी समझने योग्य है कि जिस प्रकार संस्कृति हमारे व्यवहार को प्रभावित करती है हम भी अपनी संस्कृति को प्रभावित करते हैं। कई मानवशास्त्रियों ने इंगित किया है कि संस्कृति और मानस का एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव पड़ता है। उनके अनुसार व्यक्ति और उसके सामाजिक परिवेश के बीच संबंध अन्योन्यक्रियात्मक (परस्पर प्रभाव डालने वाला) है और इन्हीं अन्योन्यक्रियाओं के दौरान वे एक दूसरे को बनाते हैं। यह परिप्रेक्ष्य बताता है कि मनुष्य सांस्कृतिक शक्तियों का निष्क्रिय प्राप्तकर्ता नहीं है। बल्कि वे स्वयं एक संदर्भ बनाते हैं जिसमें उनके व्यवहारों का निरूपण होता है।
क्रियाकलाप 3.3
विभिन्न राज्यों के विद्यार्थियों के साथ उनके भोजन, त्योहारों, रीति-रिवाज़ों और पोशाकों आदि के बारे में बात कीजिए।
समानता और विभिन्नता की एक सूची तैयार कीजिए तथा उस पर अपने शिक्षक के साथ चर्चा कीजिए।
संस्कृति क्या है?
यद्यपि संस्कृति हर समय हमारे साथ रहती है, इसको परिभाषित करने में बहुत-सी भ्रांतियाँ हैं। यह बहुत कुछ भौतिकी में ‘ऊर्जा’ के विचार या समाजशास्त्र में ‘समूह’ के विचार जैसा ही है। कुछ के अनुसार संस्कृति हमारे बाहर रहती है और इसका व्यक्तियों के लिए बहुत महत्त्व है जबकि दूसरों के अनुसार संस्कृति का कोई अस्तित्व नहीं है बल्कि यह एक विचार है जो लोगों के एक समूह द्वारा बनाया और समान रूप से माना जाता है।
संस्कृति की असंख्य परिभाषाएँ साधारणतया इसकी कुछ अत्यावश्यक विशेषताओं की ओर इंगित करती हैं। पहली विशेषता यह है कि संस्कृति उन लोगों के व्यवहारात्मक उत्पादों को सम्मिलित करती है जो हमसे पहले आ चुके हैं। यह मूर्त और अमूर्त दोनों उत्पादों के बारे में इंगित करती है जो किसी न किसी रूप में पहले रह चुके हैं। अतः जैसे ही हम जीवन शुरू करते है संस्कृति वहाँ पहले से उपस्थित होती है। इसमें कुछ मूल्य होते हैं जो प्रकट किए जाते हैं और उनको प्रकट करने के लिए एक भाषा होती है। यह एक जीवन-पद्धति है जो हम में से बहुत लोगों के द्वारा अपनाई जाती है जो उस परिवेश में बड़े होते हैं। संस्कृति का इस प्रकार का संप्रत्ययीकरण इसे व्यक्ति के बाहर की बात समझता है, किंतु कुछ एेसी भी व्याख्याएँ हैं जो संस्कृति को लोगों के मन में समझती हैं। दूसरे प्रकार की व्याख्याओं में संस्कृति को कुछ प्रतीकों में अभिव्यक्त अर्थों के रूप में समझा जाता है जो कि एेतिहासिक रूप से लोगों में संचारित होते हैं। संस्कृति महत्वपूर्ण वर्ग बनाकर; जैसे- सामाजिक प्रथाएँ (जैसे- विवाह) और भूमिकाएँ (जैसे- वर) तथा मूल्य, विश्वास और आधार-वाक्य के माध्यम से एक अर्थ प्रदान करती है। जैसा कि, रिचर्ड श्वेडर (Richard Shweder) ने कहा है कि यह सीखने के लिए कि ‘माँ की बहन के पति मौसा होते हैं’, हमें दूसरों से ज्ञान का एक ढाँचा ग्रहण करना होता है ताकि हम किसी चीज़ का अर्थ समझ सकें।
संस्कृति को हम चाहे एक स्थित यथार्थ के रूप में देखें या उसका अमूर्तीकरण करें, या दोनों ही अर्थ में लें, यह मानव व्यवहार पर कई प्रकार से प्रभाव डालती है। मानव व्यवहार की बहुत सी एेसी भिन्नताएँ जो पहले जैविकीय कारणों से मानी जाती थीं उन्हें हम संस्कृति के कारण वर्गीकृत करके, उनकी व्याख्या कर सकते हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ जिनमें मनुष्य का विकास होता है वे समय और स्थान के कारण बहुत भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, बीस वर्ष पहले भारत में बच्चे बहुत से एेसे उत्पादों को नहीं जानते थे जो आज बाल संसार का एक हिस्सा हैं। उसी तरह एक आदिवासी जो दूरवर्ती वन या पहाड़ी क्षेत्र में रह रहा है, उसने कभी नाश्ते में ‘सैंडविच’ या ‘पिज्ज़ा’ नहीं खाया होगा।
इसके पूर्व के अनुच्छेद में हमने ‘संस्कृति’ (culture) एवं ‘समाज’ (society) का कई बार उल्लेख किया है। अक्सर दोनों का एक ही अर्थ लगाया जाता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि दोनों का अर्थ एक नहीं है। समाज लोगों का एक समूह है जिनकी एक विशेष सीमा होती है और वे एक सामान्य भाषा बोलते हैं जो उनके पड़ोसी लोग सामान्यतया नहीं समझ पाते। एक समाज एकल राष्ट्र हो सकता है या नहीं हो सकता है लेकिन प्रत्येक समाज की अपनी एक संस्कृति होती है। ये संस्कृति ही है जो एक समाज से दूसरे समाज के मनुष्यों के व्यवहारों का निरूपण करती है। एक समाज से दूसरे समाज में जो विविधताएँ होती हैं उन्हीं को संस्कृति का नाम दिया जाता है। समाज की इन्हीं भिन्नताओं और मानव व्यवहार पर उनके प्रभाव का अध्ययन ही मनोवैज्ञानिकों की विषयवस्तु है। अतः लोगों का एक समूह जो अपनी आजीविका, शिकार और वनों में एकत्रीकरण से चलाता है उसके जीवन में कुछ एेसी विशेषताएँ परिलक्षित होंगी जो उन समाजों में नहीं पाई जाएँगी जो कृषि उत्पादाें या वेतन से अपनी आजीविका चलाते हैं।
सांस्कृतिक संचरण
हमने पहले भी देखा है कि एक मनुष्य होने के नाते हम जैविक और सामाजिक-सांस्कृतिक दोनों प्रकार के प्राणी हैं। जैविक प्राणी होने के नाते हमारी कुछ प्रमुख आवश्यकताएँ हैं। उनकी पूर्ति हमारी उत्तरजीविता दर को बढ़ाती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति में हम अपने बहुत सारे अर्जित कौशलों का उपयोग करते हैं। हमारे अंदर अपने और दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने की एक अतिविकसित क्षमता होती है। किसी अन्य प्राणी में इस सीमा तक सीखने की क्षमता नहीं होती जितनी हममें होती है। किसी अन्य प्राणी ने अधिगम का एक संगठित तंत्र, जिसे शिक्षा कहा जाता है, नहीं बनाया है, और इस सृष्टि में कोई और प्राणी इतना सीखना भी नहीं चाहता जितना हम सीखना चाहते हैं। परिणामस्वरूप हम कई प्रकार के व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं, जो मनुष्य की विशिष्टता है और जिन्हें हम संस्कृति कहते हैं, उसकी रचना है। संस्कृतीकरण और समाजीकरण की प्रक्रियाएँ हमें सांस्कृतिक व्यक्ति बनाती हैं।
संस्कृतीकरण
संस्कृतीकरण उस सभी प्रकार के अधिगम को कहते हैं जो बिना किसी प्रत्यक्ष और सुविचारित शिक्षण के होता है। हम कुछ विचार, संप्रत्यय और मूल्यों को सीखते हैं क्योकि वे हमारे सांस्कृतिक संदर्भ में हमें उपलब्ध हैं। उदाहरणार्थ, क्या ‘सब्जी’ है और क्या ‘घासपात’ है, क्या ‘अनाज’ है और क्या ‘अनाज नहीं’ है की परिभाषा हम उसी तरह से देते हैं, जिस तरह हमसे पहले ‘अनाज’ या ‘सब्जी’ का अर्थ बताया गया था और अधिकांश लोगों ने सहमति भी दी थी। इस तरह के संप्रत्यय प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरीके से संचारित होते हैं और बहुत अच्छी तरह से सीखे जाते हैं क्योंकि वे किसी भी सांस्कृतिक समूह के जीवन का एक अभिन्न अंग होते हैं जिन पर कभी प्रश्न चिह्न नहीं लगाए जाते। अधिगम के ये सभी उदाहरण ‘संस्कृतीकरण’ कहलाते हैं।
इस प्रकार संस्कृतीकरण उन सभी प्रकार के अधिगमों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन में इसलिए घटित होते हैं क्योंकि वे हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में हमें प्राप्त होते हैं। संस्कृतीकरण का मुख्य तत्व है प्रेक्षण द्वारा सीखना। जब भी हम अपने समाज की कोई भी चीज़ प्रेक्षण द्वारा सीखते हैं तो संस्कृतीकरण प्रमाणित होता है। पूर्ववर्ती पीढ़ियों द्वारा इन सारी चीज़ों का सांस्कृतिक निरूपण होता है। इस अर्थ में संस्कृतीकरण का तात्पर्य उस अधिगम से है जो कि हमें पहले से प्राप्त है। हमारे व्यवहार का एक बहुत बड़ा हिस्सा संस्कृतीकरण का उत्पाद है। भारतीय परिवारों में कई प्रकार की जटिल क्रियाएँ; जैसे- भोजन बनाना, प्रेक्षण द्वारा ही सीखी जाती हैं। इस तरह की क्रियाओं के लिए कोई निर्धारित पाठ्यक्रम या पाठ्यपुस्तक नहीं है और भोजन बनाने के लिए कोई सुविचारित अनुदेश भी नहीं हैं।
यद्यपि संस्कृतीकरण के प्रभाव काप.ηी स्पष्ट दिखाई देते हैं तथापि लोग साधारणतया इन प्रभावों के प्रति सजग नहीं होते। वे साधारणतया इस बात के लिए भी सजग नहीं होते कि समाज में सीखने के लिए क्या उपलब्ध नहीं है। अतः यह एक प्रत्यक्ष विरोधाभास को जन्म देता है कि जो लोग सबसे अधिक सुसांस्कृतिक होते हैं वे बहुधा स्वयं के निर्माण में अपनी संस्कृति की भूमिका के प्रति सबसे कम सजग होते हैं।
समाजीकरण
समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग ज्ञान, कौशल, और शील गुण अर्जित करते हैं जो उन्हें समाज और समूहों के प्रभावी सदस्यों के रूप में भाग लेने के योग्य बनाते हैं। यह एक एेसी प्रक्रिया है जो पूरी जीवन-विस्तृति तक निरंतर चलती है और जिसके माध्यम से विकास की किसी भी अवस्था में व्यक्ति प्रभावी ढंग से कार्य करने के तरीके सीखता है और विकसित करता है। समाजीकरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सामाजिक-सांस्कृतिक संचरण का आधार तैयार करता है। किसी समाज में इसकी असफलता उस समाज के अस्तित्व को खतरे में डाल सकती है।
समाजीकरण का संप्रत्यय यह इंगित करता है कि सभी मनुष्य सामान्यतः जो व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, उससे कहीं अधिक विविध प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं। हम एक विशेष सामाजिक संदर्भ में जीवन प्रारंभ करते हैं और वहाँ हम कुछ नियत अनुक्रियाएँ ही करना सीखते हैं दूसरी अन्य अनुक्रियाएँ नहीं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण हमारा भाषिक व्यवहार है। यद्यपि विश्व की कोई भी भाषा हम बोल सकते हैं तथापि हम वही भाषा बोलना सीखते हैं जो हमारे इर्द-गिर्द लोग बोलते हैं। इस सामाजिक संदर्भ में हम बहुत सी दूसरी बातें भी सीखते हैं (जैसे कि कब संवेगों को प्रदर्शित करना है और कब उन्हें दबाना है)।
एक विशेष प्रकार से व्यवहार करने की संभाव्यता हमारे संबंधियों से बहुत अधिक प्रभावित होती है। कोई भी वह व्यक्ति जिसके पास हमसे अधिक शक्ति है, हमें समाजीकृत कर सकता है। इस प्रकार के व्यक्ति ‘समाजीकरण के कारक’ कहे जाते हैं। ये कारक हमारे माता-पिता, शिक्षक और अन्य बड़े लोग हैं जिनके पास अपने समाज के तरीकों का अधिक ज्ञान है। हालाँकि कुछ खास स्थितियों में हमारे समवयस्क भी समाजीकरण को प्रभावित कर सकते हैं।
समाजीकरण कारक और व्यक्ति के बीच समाजीकरण की प्रक्रिया हमेशा सहज/सम संक्रमण की नहीं होती। इसमें कभी-कभी द्वंद्व भी होते हैं। एेसी स्थितियों में न केवल कुछ अनुक्रियाएँ दंडित होती हैं, बल्कि अन्य लोगों के व्यवहारों द्वारा प्रभावी ढंग से अवरुद्ध भी कर दी जाती हैं। वहीं कुछ अनुक्रियाओं को पुरस्कृत करने की आवश्यकता होती है ताकि वे अधिक बल अर्जित कर सकें। अतः पुरस्कार एवं दंड समाजीकरण के लक्ष्यों को प्राप्त करने के मूलभूत साधन हैं। इस अर्थ में, सभी समाजीकरण में दूसरों के द्वारा व्यवहार को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।
यद्यपि समाजीकरण मुख्यतः स्वीकृत व्यवहार को उत्पन्न करने के लिए सुविचारित शिक्षण है, तथापि यह प्रक्रिया एकदिशीय नहीं है। व्यक्ति न केवल अपने सामाजिक पर्यावरण के द्वारा प्रभावित होते हैं बल्कि वे भी उसे प्रभावित करते हैं। एेसे समाज में जहाँ बहुत से सामाजिक समूह होते हैं, व्यक्ति उन्हीं को चुन सकते हैं जिनसे वे संबद्ध होना चाहते हैं। प्रवसन के बढ़ने के साथ व्यक्ति केवल एक बार ही समाजीकृत नहीं होता बल्कि अपनी जीवन-विस्तृति में कई बार विभिन्न प्रकार से पुनः समाजीकृत होता है। इस प्रक्रिया को परसंस्कृतिग्रहण कहते हैं जिसकी हम इस अध्याय में बाद में चर्चा करेंगे।
संस्कृतीकरण और समाजीकरण की प्रक्रियाओं के कारण हम समाजों में व्यवहारात्मक समानताएँ तथा एक समाज से दूसरे समाजों के बीच व्यवहारात्मक भिन्नताएँ पाते हैं। दोनों प्रक्रियाओं में दूसरों से सीखना सम्मिलित होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया में अधिगम में सुविचारित शिक्षण सम्मिलित है, जबकि संस्कृतीकरण में अधिगम के लिए शिक्षण का होना आवश्यक नहीं है। संस्कृतीकरण का तात्पर्य लोगों का अपनी संस्कृति के अनुसार विविध कार्यों को करना है। चूँकि अपनी संस्कृति में कार्यो को करते रहने से अधिकांश अधिगम घटित होता है, समाजीकरण को संस्कृतीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत आसानी से सम्मिलित किया जा सकता है।
हमारे बहुत-से अधिगम में संस्कृतीकरण एवं समाजीकरण दोनों ही सम्मिलित होते हैं। भाषा-अधिगम इसका एक अच्छा उदाहरण है। जबकि अधिकांश भाषा-अधिगम स्वतः र्स्फूत होता है तथापि कुछ सीमा तक भाषा का प्रत्यक्ष शिक्षण भी होता है जैसा कि प्रारंभिक विद्यालयों में व्याकरण की शिक्षा में। दूसरी ओर मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा को सीखना, जैसे कि एक यूरोपियन बच्चे द्वारा हिंदी भाषा सीखना या एक भारतीय बच्चे द्वारा फ्रेंच सीखना पूर्णतया एक सोद्देश्य प्रक्रिया है।
समाजीकरण कारक
बहुत से लोग, जो हमसे संबद्ध हैं, वे हमें समाजीकृत करने की शक्ति रखते हैं। एेसे लोग ‘समाजीकरण कारक’ कहे जाते हैं। माता-पिता तथा घर के अन्य सदस्य सबसे महत्वपूर्ण समाजीकरण कारक होेते हैं। माता-पिता पर बच्चे की देखभाल का कानूनी उत्तरदायित्व भी होता है। उनका कार्य बच्चों का पालन-पोषण इस प्रकार करना होता है कि उनकी स्वाभाविक योग्यताओं का अधिकाधिक विकास हो और नकारात्मक व्यवहार की प्रवृत्ति कम से कम या नियंत्रित हो। चूँकि प्रत्येक बच्चा एक बृहत् समुदाय और समाज का भी हिस्सा होता है, दूसरे कई प्रभाव (जैसे- शिक्षक, समसमूह) भी उसके जीवन पर संक्रिया करते हैं। इनमें से कुछ प्रभावों की हम संक्षेप में चर्चा करेंगे।
माता-पिता
बालक के विकास पर सबसे अधिक प्रत्यक्ष और महत्वपूर्ण प्रभाव माता-पिता का पड़ता है। वे विभिन्न स्थितियों में माता-पिता के प्रति भिन्न प्रकार से प्रतिक्रिया करते हैं। माता-पिता उनके कुछ व्यवहारों को शाब्दिक रूप से पुरस्कृत करके (जैसे- प्रशंसा करना) या अन्य मूर्त तरह से पुरस्कृत करके (जैसे- चॉकलेट या बच्चे की पसंद की वस्तु का खरीदना) प्रोत्साहित करते हैं। वे कुछ अन्य व्यवहारों का अनुमोदन न करके निरुत्साहित करते हैं। वे बच्चों को भिन्न प्रकार की स्थितियों में रख के उन्हें विध्यात्मक अनुभव, सीखने के अवसर और चुनौतियाँ प्रदान करते हैं। बच्चों से अन्योन्यक्रिया करते समय माता-पिता विभिन्न युक्तियाँ अपनाते हैं जिन्हें सामान्यतः पैतृक शैली कहा जाता है। प्राधिकृत, सत्तावादी और लोकतांत्रिक या अनुज्ञात्मक पैतृक शैलियों में विभेद किया गया है। शोध अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि माता-पिता के अपने बच्चों के प्रति व्यवहारों में स्वीकृति और नियंत्रण की हद के विषय में बहुत भिन्नताएँ होती हैं। जीवन की वे स्थितियाँ भी जिनमें माता-पिता रहते हैं (गरीबी, बीमारी, कार्य-दबाव, परिवार का स्वरूप), उन शैलियों को प्रभावित करती हैं जो माता-पिता अपने बच्चों को समाजीकृत करने के लिए अपनाते हैं। दादा-दादी एवं नाना-नानी से समीपता तथा सामाजिक संबंधों का ढाँचा, बच्चे के समाजीकरण में प्रत्यक्षतः या माता-पिता के माध्यम से बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।
विद्यालय
विद्यालय एक अन्य महत्वपूर्ण समाजीकरण कारक है। चूँकि बच्चे विद्यालय में लंबा समय व्यतीत करते हैं, जो उन्हें अपने शिक्षकों और समकक्षियों के साथ अन्योन्यक्रिया करने का एक सुसंगठित ढाँचा प्रदान करता है, इसी कारण आजकल विद्यालय को माता-पिता तथा परिवार की तुलना में बालक के समाजीकरण का अधिक महत्वपूर्ण कारक समझा जा रहा है। बच्चे केवल संज्ञानात्मक कौशल (जैसे- पढ़ना, लिखना, गणित को करना) ही नहीं सीखते हैं बल्कि बहुत से सामाजिक कौशल (जैसे- बड़ों तथा समवयस्कों के साथ व्यवहार करने के ढंग, भूमिकाएँ स्वीकारना, उत्तरदायित्व निभाना) भी सीखते हैं। वे समाज के नियमों और मानकों को सीखते भी हैं और उनका आंतरीकरण भी करते हैं। कई अन्य विध्यात्मक गुण; जैसे- स्वयं पहल करना, आत्म-नियंत्रण, उत्तरदायित्व लेना, और सर्जनात्मकता इत्यादि विद्यालयों में प्रोत्साहित किए जाते हैं। ये गुण बच्चाें को अधिक आत्मनिर्भर बनाते हैं। यदि ये कार्य संपादन सफल होते हैं तो जो कौशल और ज्ञान बच्चे विद्यालय में, अपने पाठ्यक्रम द्वारा या अपने शिक्षकों और समकक्षियों के साथ अन्योन्यक्रिया द्वारा अर्जित करते हैं, वे उनके जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी स्थानांतरित हो जाते हैं। कई शोधकर्ताओं का विश्वास है कि एक अच्छा विद्यालय बच्चे के व्यक्तित्व का पूर्णतया ही रूपांतरण कर सकता है। इसी कारण हम पाते हैं कि निर्धन माता-पिता भी अपने बच्चों को अच्छे विद्यालय में भेजना चाहते हैं।
समसमूह
मध्य बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताओं में से एक है घर के बाहर सामाजिक जालक्रम का विस्तार। इस संदर्भ में मित्रता का बहुत अधिक महत्त्व हो जाता है। यह बच्चों को न केवल दूसरों के साथ होने का अवसर प्रदान करती है बल्कि अपनी उम्र के साथियों के साथ सामूहिक रूप से विभिन्न क्रियाकलापों (यथा - खेल) को आयोजित करने का भी अवसर प्रदान करती है। एेसे गुण; जैसे- सहभाजन, विश्वास, आपसी समझ, भूमिका स्वीकृति एवं निर्वहन भी समकक्षियों के साथ अन्योन्यक्रिया के दौरान विकसित होते हैं। बच्चे, अपने दृष्टिकोण को दृढ़तापूर्वक रखना और दूसरों के दृष्टिकोण को स्वीकार करना, और उनसे अनुकूलन करना भी सीखते हैं। समसमूह के कारण आत्म-तादात्म्य का विकास बहुत सुगम हो जाता है। चूँकि बच्चों का समसमूह के साथ संप्रेषण प्रत्यक्ष होता है, समाजीकरण की प्रक्रिया सामान्यतः निर्बाध होती है।
जन संचार का प्रभाव
आधुनिक वर्षों में जन संचार ने भी समाजीकरण कारक के गुणों को अर्जित किया है। दूरदर्शन, समाचारपत्रों, पुस्तकों और चलचित्रों के माध्यम से बाह्य जगत ने हमारे जीवन और हमारे घरों में अपना स्थान बना लिया है और बना रहा है। जबकि बच्चे बहुत सारी बातें इन माध्यमों से सीखते हैं, किशोर और युवा प्रौढ़ अक्सर इन्हीं में से अपना आदर्श प्राप्त करते हैं, विशेषकर दूरदर्शन और चलचित्रों से। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली हिंसा, परिचर्चा का एक मुख्य विषय है, चूँकि अध्ययन यह इंगित करते हैं कि दूरदर्शन पर हिंसा को देखना, बच्चों में आक्रामक व्यवहार को बढ़ाता है। समाजीकरण के इस कारक को अधिक अच्छी तरह से उपयोग करने की आवश्यकता है जिससे बच्चों में अवांछित व्यवहारों के विकास को रोका जा सके।
क्रियाकलाप 3.4
पाँच दिनों तक, सुबह और शाम, लगभग आधे घंटे के लिए, चार-पाँच परिवारों का, जो भिन्न सांस्कृतिक एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के हों, अपने बच्चों के साथ अन्योन्यक्रिया करते हुए प्रेक्षण कीजिए।
क्या आप माता-पिता को अपने पुत्र-पुत्रियों के साथ भिन्न प्रकार से अन्योन्यक्रिया करते हुए पाते हैं?
उनके व्यवहार के सुस्पष्ट प्रतिरूप को नोट कीजिए और अपने शिक्षक से उसकी चर्चा कीजिए।
परसंस्कृतिग्रहण
परसंस्कृतिग्रहण का तात्पर्य दूसरी संस्कृतियों के साथ संपर्क के फलस्वरूप आए हुए सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों से है। यह संपर्क प्रत्यक्ष (जैसे- कोई नयी संस्कृति में स्थानांतरित होता है और उसमें बस जाता है) या अप्रत्यक्ष (जैसे- जन संचार या अन्य माध्यमों से) रूप में होता है। यह एेच्छिक (जैसे- कोई विदेश उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण, नौकरी या व्यापार के लिए जाता है) या अनैच्छिक (जैसे- औपनिवेशिक अनुभव, आक्रमण या राजनीतिक शरण के द्वारा) हो सकता है। दोनों ही स्थितियों में लोगों को कुछ नया सीखने की आवश्यकता होती है (और वे सीखते भी हैं) ताकि वे दूसरे सांस्कृतिक समूहों के लोगों के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। उदाहरणार्थ, भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के समय बहुत से लोगों और समूहों ने ब्रिटिश जीवन शैली के कई पक्षों को अपना लिया। वे अंग्रेज़ी विद्यालयों में जाना, वैतनिक कार्यों को करना, अंग्रेज़ी कपड़े पहनना, अंग्रेज़ी भाषा बोलना और अपना धर्म परिवर्तित करना पसंद करते थे।
किसी के जीवन में परसंस्कृतिग्रहण किसी भी समय घटित हो सकता है। यह जब कभी भी घटित होता है तब इसमें मानकों, मूल्यों, गुणों और व्यवहार के प्रारूपों को पुनः सीखना होता है। इन पक्षों में परिवर्तन लाने में पुनः समाजीकरण की आवश्यकता होती है। कभी-कभी लोग इन नयी बातों को सीखना सरल समझते हैं और यदि उनका सीखना सफल रहता है तो उनके व्यवहार में उस समूह की दिशा की ओर परिवर्तन आसानी से हो जाता है, जो उनके लिए परसंस्कृतिग्रहण लाता है। एेसी स्थिति में नए जीवन की ओर संक्रमण अपेक्षाकृत निर्बाध और समस्यारहित होता है। दूसरी ओर, बहुत सी स्थितियों में लोग परिवर्तन की नयी माँगों के अनुसार कार्य व्यवहार करने में कठिनाई अनुभव करते हैं। उन्हें यह परिवर्तन कठिन लगता है और वे द्वंद्व की स्थिति में पड़ जाते हैं। यह स्थिति अपेक्षाकृत कष्टप्रद होती है क्योंकि यह परसंस्कृतिग्राही लोगों और समूहों को दबाव और अन्य व्यवहारात्मक कठिनाइयों का अनुभव कराती है।
मनोवैज्ञानिकों ने विशद अध्ययन किया है कि लोग परसंस्कृतिग्रहण के दौरान किस प्रकार मनोवैज्ञानिक तरीके से परिवर्तित होते हैं। किसी भी परसंस्कृतिग्रहण के घटित होने के लिए दूसरे सांस्कृतिक समूह के साथ संपर्क अत्यावश्यक है। यह अक्सर कुछ द्वंद्व भी उत्पन्न करता है। चूँकि लोग लंबे समय तक द्वंद्व की स्थिति में नहीं रह सकते, वे द्वंद्व का समाधान करने के लिए कुछ युक्तियों को अपनाते हैं। एक लंबे समय तक यह समझा जाता था कि आधुनिकता की ओर उन्मुख सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन एकदिशीय था, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि वे सभी लोग जो परिवर्तन की समस्या का सामना कर रहे हैं वे पारंपरिक स्थिति से आधुनिकता की स्थिति की ओर अग्रसर हो जाएँगे। तथापि पश्चिमी देशों के प्रवासियों तथा विश्व के विभिन्न भागों के देशवासियों या आदिवासियों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि लोगों के पास परसंस्कृतिग्राही परिवर्तनों से निपटने के लिए कई विकल्प होते हैं। अतः परसंस्कृतिग्राही परिवर्तन का मार्ग बहुदिशीय होता है।
क्रियाकलाप 3.5
उन लोगों को ढूँढ़ने का प्रयास कीजिए जो विभिन्न संस्कृतियों में लंबे समय तक रह चुके हैं। उनसे साक्षात्कार कीजिए तथा उनसे अभिवृत्तियों, मानकों और मूल्यों में प्रदर्शित कुछ सांस्कृतिक समानताओं और विभिन्नताओं के कुछ उदाहरण देने के लिए कहिए।
परसंस्कृतिग्रहण के कारण आने वाले परिवर्तनों का आत्मनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ स्तर पर परीक्षण किया जा सकता है। आत्मनिष्ठ स्तर पर परिवर्तन बहुधा लोगों की परिवर्तन के प्रति अभिवृत्तियों में प्रतिबिंबित होता है। इन्हें परसंस्कृतिग्रहण अभिवृत्तियाँ कहते हैं। वस्तुनिष्ठ स्तर पर परिवर्तन, लोगों के दिन-प्रतिदिन के व्यवहार और क्रियाकलापों में प्रतिबिंबित होता है। इन्हें परसंस्कृतिग्रहण युक्तियाँ कहा जाता है। परसंस्कृतिग्रहण को समझने के लिए इसका दोनों स्तरों पर परीक्षण आवश्यक है। परसंस्कृतिग्रहण के वस्तुनिष्ठ स्तर पर हम लोगों के जीवन में बहुत प्रकार के प्रत्यक्ष परिवर्तनों को देख सकते हैं। भाषा, वेशभूषा शैली, जीवनयापन के साधन, घर का प्रबंध और घर की चीज़ें, आभूषण, फर्नीचर, मनोरंजन के साधन, प्रौद्योगिकी का उपयोग, यात्रा के अनुभव, चलचित्रों का प्रदर्शन इत्यादि हमें उन परिवर्तनों का स्पष्ट संकेत दे सकते हैं जिसे व्यक्तियों और समूहों ने अपने जीवन में अपना लिया हो। इन संकेतकों के आधार पर हम परसंस्कृतिग्रहण से हुए परिवर्तन की मात्रा को आसानी से जान सकते हैं जो व्यक्ति या समूह के जीवन में प्रवेश कर चुका है। केवल एक समस्या है कि ये संकेतक हमेशा ही यह नहीं दर्शाते कि समूहों या व्यक्तियों ने इस परिवर्तन को सचेतन स्वीकृति दी है। ये संकेतक लोगों द्वारा इसलिए रखे जाते हैं क्योंकि ये आसानी से प्राप्त होते हैं और आर्थिक रूप से सामर्थ्य में होते हैं। अतः कुछ स्थितियों में ये संकेतक थोड़े भ्रामक प्रतीत होते हैं।
परिवर्तन की सचेतन स्वीकृति में कुछ विश्वास के लिए आत्मनिष्ठ स्तर पर उन संकेतकों का विश्लेषण करना आवश्यक है। जॉन बेरी (John Berry) नाम के मनोवैज्ञानिक, परसंस्कृतिग्रहण पर अपने मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के लिए सर्वप्रसिद्ध हैं। वे तर्क देते हैं कि दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनको संस्कृति संपर्क की स्थितियों में सभी परसंस्कृतिग्रहण करने वाले व्यक्तियों या समूहों को सामना करना पड़ता है। पहले प्रश्न का संबंध इस बात से है कि वे किस मात्रा तक अपनी संस्कृति और अनन्यता को बनाए रखना चाहते हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि वे अन्य सांस्कृतिक समूह के सदस्यों के साथ दैनिक अन्योन्यक्रिया में किस मात्रा तक अपने को लगाए रखना चाहते हैं।
इन प्रश्नों पर प्राप्त लोगों के सकारात्मक और नकारात्मक उत्तरों के आधार पर निम्न चार परसंस्कृतिग्राही युक्तियाँ खोजी गई हैं:
समाकलन: वह अभिवृत्ति है जिसमें दोनों ही बातों में रुचि होती है, अपनी मूल संस्कृति एवं अनन्यता को बनाए रखना, साथ ही दूसरे सांस्कृतिक समूहों के साथ दैनिक अन्योन्यक्रिया करते रहना। इस स्थिति में दूसरे सांस्कृतिक समूहों के साथ अन्योन्यक्रिया करते हुए कुछ मात्रा में सांस्कृतिक अखंडता बनाए रखी जाती है।
आत्मसात्करण: वह अभिवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक अनन्यता को बनाए नहीं रखना चाहते और वे दूसरी संस्कृति का अभिन्न अंग बनने के लिए व्यवहार करते हैं। इस स्थिति में अपनी संस्कृति और अनन्यता की क्षति होती है।
पृथक्करण: वह अभिवृत्ति है जिसमें लगता है कि लोग अपनी मूल संस्कृति को धारण किए रहना मूल्यवान समझते हैं और वे दूसरे सांस्कृतिक समूहों से अन्योन्यक्रिया से बचना चाहते हैं। इस स्थिति में लोग प्रायः अपनी सांस्कृतिक अनन्यता को गौरवान्वित करते हैं।
सीमांतकरण: वह अभिवृत्ति है जहाँ अपने सांस्कृतिक अनुरक्षण की या तो संभाव्यता कम होती है या रुचि कम होती है और दूसरे सांस्कृतिक समूहों से संबंध रखने की इच्छा भी कम होती है। इस स्थिति में लोग सामान्यतः अनिश्चय की स्थिति में रहते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और वे एक अत्यंत दबावमय स्थिति में बने रहते हैं।
आपने इस अध्याय में पढ़ा है कि मानव व्यवहार केवल जैविकीय कारकों द्वारा ही पूर्णतया नियंत्रित नहीं होता है। सामाजिक-सांस्कृतिक कारक व्यक्ति के जैविकीय गुणों के साथ अन्योन्यक्रिया करते हैं जिससे एक विशेष समाज में उसके व्यवहार को विशेष रूप दिया जा सके। चूँकि पूरे भूमंडल में समाज और संस्कृतियाँ समजातीय नहीं होतीं, अतः मानव व्यवहार भी सब जगह एक ही प्रकार से अभिव्यक्त नहीं होता। इससे हम यह कह सकते हैं कि जैविक जड़ों के अतिरिक्त मानव व्यवहार की सांस्कृतिक जड़ें भी होती हैं। जीन यदि जैविक संचरण की पांडुलिपि लिखते हैं तो मीम्स सांस्कृतिक संचरण की पांडुलिपि लिखते हैं। जीन और मीम्स एक साथ काम करते हैं ताकि समाज में और परस्पर समाजों में व्यवहार को आंशिक रूप से समान और आंशिक रूप से भिन्न ढंगों में प्रकट किया जा सके। व्यवहार के सांस्कृतिक आधार को समझने से आप अनुभव करेंगे कि व्यक्तियों या समूहों के बीच व्यवहारात्मक भिन्नताएँ, केवल जैविक तंत्र के संरचनात्मक और प्रकार्यात्मक गुणों के कारण ही नहीं होतीं। व्यवहारात्मक भिन्नताओं को उत्पन्न करने में व्यक्तियों और समूहों की सांस्कृतिक विशेषताओं का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।
प्रमुख़ पद
परसंस्कृतिग्रहण, पूर्ण या शून्य सिद्धांत, भाव प्रबोधन, अक्षतंतु, मस्तिष्क स्तंभ, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, अनुमस्तिष्क, प्रमस्तिष्कीय वल्कुट, गुणसूत्र, वल्कुट, संस्कृति, डिअॉक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड, संस्कृतीकरण, अंतःस्रावी ग्रंथियाँ, पर्यावरण, क्रमविकास, जीन, गोलार्द्ध, आनुवंशिकता, प्राज्ञ मानव, समस्थिति, अधश्चेतक, मेडुला, मीम्स, तंत्रिका आवेग, तंत्रिका कोशिका, केंद्रक, रेटिक्युलर एक्टिवेटिंग सिस्टम, कंकालीय पेशियाँ, समाजीकरण, काय (काय कोशिका), कायिक तंत्रिका तंत्र, प्रजाति, संधिस्थलीय पुटिका
सारांश
- मानव तंत्रिका तंत्र में अरबों अंतःसंबंधित, अतिविशिष्ट कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें तंत्रिका कोशिकाएँ कहते हैं। तंत्रिका कोशिकाएँ समस्त मानव-व्यवहार को नियंत्रित और समन्वित करती हैं।
- केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु होते हैं। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से निकल कर परिधीय तंत्रिका तंत्र की शाखाएँ शरीर के प्रत्येक अंग में जाती हैं। इसके दो भाग हैं:कायिक तंत्रिका तंत्र (कंकालीय पेशियों के नियंत्रण से संबंधित) और स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (आंतरिक अंगों के नियंत्रण से संबंधित)। स्वायत्त तंत्र, अनुकंपी और परानुकंपी तंत्र में उपविभाजित हैं।
- तंत्रिका कोशिका में पार्श्वतंतु होते हैं जो आवेगों को ग्रहण करते हैं; और अक्षतंतु जो आवेगाें को काय कोशिका से दूसरी अन्य तंत्रिका कोशिकाओं या पेशी ऊतकों तक संचारित करते हैं।
- प्रत्येक अक्षतंतु एक खाली स्थान से विभाजित होता है जिसे तंत्रिका-कोष संधि कहते हैं। तंत्रिका-संचारक नामक रसायन जो अक्षतंतु सीमांत से निकलता है संदेश को अन्य तंत्रिका कोशिकाओं तक पहुँचाता है।
- मानव मस्तिष्क के केंद्रीय क्रोड में पश्च मस्तिष्क (जिसमें मेडुला, सेतु, जालाकार रचना तथा अनुमस्तिष्क होते हैं), मध्य मस्तिष्क तथा चेतक और अधश्चेतक होते हैं। केंद्रीय क्रोड के ऊपर अग्र मस्तिष्क या प्रमस्तिष्कीय गोलार्द्ध होते हैं।
- उपवल्कुटीय तंत्र एेसे व्यवहार जैसे लड़ना, भागना इत्यादि को नियमित करता है। इसमें हिप्पोकेम्पस, गलतुंडिका तथा अधश्चेतक होते हैं।
- अंतःस्रावी तंत्र में ग्रथियाँ होती हैं; पीयूष ग्रंथि, अवटुग्रंथि, अधिवृक्क ग्रंथि, अग्न्याशय तथा जननग्रंथियाँ। हमारे व्यवहार एवं विकास में इन ग्रंथियों द्वारा प्रवाहित अंतःस्रावों की निर्णायक भूमिका होती है।
- जैविकीय कारकों के साथ, संस्कृति भी मानव व्यवहारों की एक महत्वपूर्ण निर्धारक मानी गई है। इसका संदर्भ पर्यावरण के मानव-निर्मित भाग से है जिसके दो पक्ष हैं - भौतिक एवं आत्मिक। इसका संदर्भ लोगों के समूह से है जो एक जीवन-पद्धति के सहभागी होते हैं, जिससे वे अपने व्यवहार का अर्थ व्युत्पन्न करते हैं तथा जिसे अभ्यास का आधार बनाते हैं। ये अर्थ और अभ्यास पीढ़ियों द्वारा संचारित होते हैं।
- यद्यपि जैविक कारक हमें सामान्यतः समर्थ बनाते हैं, विशिष्ट कौशलों का विकास और क्षमताएँ सांस्कृतिक कारकों एवं प्रक्रियाओं पर निर्भर होती हैं।
- संस्कृतीकरण तथा समाजीकरण की प्रक्रियाओं के माध्यम से हम संस्कृति के बारे में सीखते हैं। संस्कृतीकरण का संदर्भ उन समस्त अधिगमों से है जो बिना किसी प्रत्यक्ष और सोद्देश्य शिक्षण के होता है।
- समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति ज्ञान, कौशल और शील गुण अर्जित करते हैं, जो उन्हें समाज एवं समूहों में प्रभावशाली सदस्यों की तरह भाग लेने में सक्षम बनाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण समाजीकरण कारक माता-पिता, विद्यालय, समसमूह, जन संचार इत्यादि होते हैं।
- परसंस्कृतिग्रहण का तात्पर्य सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों से है जो दूसरी संस्कृतियों के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप होते हैं। परसंस्कृतिग्रहण के मार्ग में लोगों द्वारा जो परसंस्कृतिग्राही युक्तियाँ अपनाई जाती हैं, वे हैं:समाकलन, आत्मसात्करण, पृथक्करण तथा सीमांतकरण।
समीक्षात्मक प्रश्न
- विकासवादी परिप्रेक्ष्य व्यवहार के जैविक आधार की किस प्रकार व्याख्या करता है?
- तंत्रिका कोशिकाएँ सूचना को किस प्रकार संचारित करती हैं? वर्णन कीजिए।
- प्रमस्तिष्कीय वल्कुट के चार पालियों के नाम बताइए। ये क्या कार्य करते हैं?
- विभिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों और उनसे निकलने वाले अंतःस्रावों के नाम बताएँ। अंतःस्रावी तंत्र हमारे व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है?
- स्वायत्त तंत्रिका तंत्र किस प्रकार आपातकालीन स्थितियों में कार्य-व्यवहार करने में हमारी सहायता करता है?
- संस्कृति का क्या अर्थ है? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि ‘जैविक कारक हमें समर्थ बनाने की भूमिका निभाते हैं जबकि व्यवहार के विशिष्ट पहलू सांस्कृतिक कारकों से जुड़े हैं’। अपने उत्तर के समर्थन के लिए कारण दीजिए।
- समाजीकरण के मुख्य कारकों का वर्णन कीजिए।
- संस्कृतीकरण और समाजीकरण में हम किस प्रकार विभेद कर सकते हैं? व्याख्या कीजिए।
- परसंस्कृतिग्रहण से क्या तात्पर्य है? क्या परसंस्कृतिग्रहण एक निर्बाध प्रक्रिया है? विवेचना कीजिए।
- परसंस्कृतिग्रहण के दौरान लोग किस प्रकार की परसंस्कृतिग्राही युक्तियाँ अपनाते हैं? विवेचना कीजिए।
परियोजना विचार
- एक एेसे व्यक्ति के बारे में सूचना एकत्रित कीजिए जिसका मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो। इसके लिए आप चिकित्सक, पुस्तक या इंटरनेट से सहायता ले सकते हैं। इसकी सामान्य मस्तिष्क की कार्य प्रणाली से तुलना करते हुए एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
- अपनी दैनिक दिनचर्या लिखिए। इसमें सारे क्रियाकलाप तथा उनके किए जाने का समय भी सम्मिलित होना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि आप सायंकाल 7 बजे से 8 बजे तक रोज़ टेलीविज़न देखते हैं तो आपको क्रियाकलाप और उसका समय भी लिखना चाहिए। जितना अधिक विस्तार से लिख सकें लिखिए। टेलीविज़न पर जो खास कार्यक्रम आप देखते हैं उनके नाम आप सम्मिलित कर सकते हैं। साप्ताहिक दिनों और सप्ताहांत की अलग अनुसूची बनाइए। पूरी कक्षा दैनिक अनुसूचियों की जाँच कर सकती है और देख सकती है कि विद्यार्थियों में कौन से क्रियाकलाप समान हैं। क्या कुछ समान सांस्कृतिक मूल्यों/विश्वासों का अनुमान लगाया जा सकता है जिसके वे सहभागी हैं? (उदाहरणार्थ, सभी विद्यार्थी रोज़ कई घंटे विद्यालय में बिताते हैं, यह प्रतिबिंबित करता है कि सभी उस संस्कृति से आते हैं जहाँ विद्यालयी शिक्षा का मूल्य है)।