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अध्याय 9

अभिप्रेरणा एवं संवेग


इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप

  • मानव अभिप्रेरणा के स्वरूप को समझ सकेंगे,
  • कुछ महत्वपूर्ण अभिप्रेरकों के स्वरूप के वर्णन को जान सकेंगे,
  • संवेगात्मक अभिव्यक्ति के स्वरूप के वर्णन को जान सकेंगे,
  • संवेग एवं संस्कृति के बीच के संबंध को समझ सकेंगे, तथा अभिप्रेरणा एवं संवेग
  • जानेंगे कि आप अपने संवेगों का प्रबंधन कैसे कर सकते हैं।


विषयवस्तु

परिचय

अभिप्रेरणा का स्वरूप

अभिप्रेरकों के प्रकार

जैविक अभिप्रेरक; मनोसामाजिक अभिप्रेरक

मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम

स्व-अभिप्रेरणा (बॉक्स 9.1)

संवेगों का स्वरूप

संवेगों के शरीरक्रियात्मक आधार

संवेगों की शरीरक्रिया (बॉक्स 9.2)

असत्य खोज (बॉक्स 9.3)

संवेगों के संज्ञानात्मक आधार

संवेगों के सांस्कृतिक आधार

संवेगों की अभिव्यक्ति

संस्कृति एवं संवेगात्मक अभिव्यक्ति; संस्कृति एवं संवेगों का नामकरण

निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन

अभिघातज उत्तर दबाव विकार (बॉक्स 9.4)

परीक्षा-दुशि्ंचता का प्रबंधन (बॉक्स 9.5)

विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि

सांवेगिक बुद्धि (बॉक्स 9.6)

प्रमुख पद

सारांश

समीक्षात्मक प्रश्न

परियोजना विचार


परिचय

सुनीता एक बहुत कम जाने-माने शहर की लड़की है, इंजीनियरिंग की विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए वह प्रतिदिन लगभग 10-12 घंटे तक कठिन परिश्रम करती है। शारीरिक रूप से चुनौतीग्रस्त हेमंत एक पर्वतारोहण अभियान में भाग लेना चाहता है तथा एक पर्वतारोही संस्थान में गहन प्रशिक्षण ले रहा है। अमन अपनी छात्रवृत्ति में से कुछ रुपये बचा रहा है जिससे वह अपनी माँ के लिए एक उपहार खरीद सके। यह केवल कुछ एेसे उदाहरण हैं जो प्रदर्शित करते हैं कि मानव व्यवहार में अभिप्रेरणा की क्या भूमिका है। उपरोक्त में से प्रत्येक व्यवहार का कारण कोई अभिप्रेरक है। व्यवहार लक्ष्य-निर्धारित होता है। लक्ष्य-निर्धारित व्यवहार तब तक चलता रहता है जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लोग विभिन्न कार्यों की योजना बनाते हैं और उनका क्रियान्वयन करते हैं। यदि सुनीता कड़ी मेहनत के बावजूद भी सफल नहीं होती है तो उसे कैसा लगेगा, अथवा यदि अमन के छात्रवृत्ति धन की चोरी हो जाए तो उसे कैसा लगेगा? संभव है कि सुनीता दुखी हो जाए और अमन क्रुद्ध हो जाए। यह अध्याय आपको अभिप्रेरणा एवं संवेग के मूल संप्रत्ययों तथा इन दोनों क्षेत्रों से संबंधित विकास को समझने में सहायता करेगा। आप कुंठा एवं द्वंद्व के संप्रत्यय को भी जानेंगे। मूल संवेगों, उनके जैविक आधारों, प्रकट अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक प्रभावों, उनका अभिप्रेरणा के साथ संबंध और संवेगों के बेहतर प्रबंधन करने की प्रविधियों का भी यहाँ वर्णन किया जाएगा।


अभिप्रेरणा का स्वरूप

अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर फोकस करता है कि व्यवहार में ‘गति’ कैसे आती है। अंग्रेज़ी भाषा में ‘Motivation’ लैटिन शब्द ‘movere’ से बना है, जिसका संदर्भ क्रियाकलाप की गति से है। हमारे दैनिक जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या भी अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। आप विद्यालय या महाविद्यालय क्यों जाते हैं? इस व्यवहार के कई कारण हो सकते हैं, जैसे कि आप ज्ञान अर्जित करना चाहते हैं या मित्र बनाना चाहते हैं, या फिर, आपको एक अच्छी नौकरी पाने के लिए एक डिप्लोमा या डिग्री की आवश्यकता है, या आप अपने माता-पिता को प्रसन्न करना चाहते हैं इत्यादि। इन कारणों की कोई संयुक्ति या अन्य कारण भी आपके उच्च शिक्षा लेने की व्याख्या कर सकते हैं। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में भी सहायता करते हैं। यदि किसी व्यक्ति में तीव्र उपलब्धि अभिप्रेरक हो तो वह विद्यालय में, खेल में, व्यापार में, संगीत में, तथा अनेक अन्य परिस्थितियों में कड़ा परिश्रम करेगा। अतः अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ हैं जिनके आधार पर हम भिन्न परिस्थितियों में व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरणा व्यवहार के निर्धारकों में से एक है। मूल प्रवृत्तियाँ, अंतर्नोद, आवश्यकताएँ, लक्ष्य तथा उत्प्रेरक, अभिप्रेरणा के विस्तृत दायरे में आते हैं।


अभिप्रेरणात्मक चक्र

मनोवैज्ञानिक अब आवश्यकता के संप्रत्यय का उपयोग व्यवहार की अभिप्रेरणात्मक विशिष्टताओं का वर्णन करने के लिए करते हैं। किसी आवश्यक वस्तु का अभाव या न्यूनता ही आवश्यकता है। आवश्यकता अंतर्नोद को जन्म देती है। किसी आवश्यकता के कारण जो तनाव या उद्वेलन उत्पन्न होता है, वही अंतर्नोद है। इसके कारण यादृच्छिक क्रियाकलाप को ऊर्जा मिलती है। जब किसी एक यादृच्छिक क्रियाकलाप के द्वारा लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो अंतर्नाेद समाप्त हो जाता है तथा प्राणी भी क्रियाशील नहीं रहता है। प्राणी पुनः संतुलित दशा में लौट जाता है। इस प्रकार अभिप्रेΡरणात्मक घटनाओं के चक्र को चित्र 9.1 के द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।




चित्र 9.1 : अभिप्रेरणात्मक चक्र


क्या अभिप्रेरक विभिन्न प्रकार के होते हैं? क्या विभिन्न अभिप्रेरकों को जैविक आधार पर समझाया जा सकता है? यदि आपके अभिप्रेरक की संतुष्टि न हो पाए तो क्या होता है? इस अध्याय के आगे के खंडों में हम उपरोक्त एवं अन्य प्रश्नों पर चर्चा करेंगे।

अभिप्रेरकों के प्रकार

मूल रूप से, अभिप्रेरक दो प्रकार के होते हैं- जैविक एवं मनोसामाजिक। जैविक अभिप्रेरकों को शरीरक्रियात्मक अभिप्रेरक भी कहते हैं, क्योेंकि उनका संचालन मुख्यतः शरीर के शरीरक्रियात्मक तंत्र पर निर्भर करता है। इसके विपरीत, मनोसामाजिक अभिप्रेरक प्राथमिक रूप से विभिन्न पर्यावरणी कारकों के साथ व्यक्ति की अंतःक्रिया द्वारा सीखे गए होते हैं।

फिर भी, दोनों प्रकार के अभिप्रेरक परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। अर्थात कुछ परिस्थितियों में जैविक कारक कुछ अभिप्रेरकों को उत्पन्न करते हैं, जबकि कुछ अन्य परिस्थितियों में मनोसामाजिक कारक अभिप्रेरक को उत्पन्न कर सकते हैं। अतः आप यह याद रखें कि कोई भी अभिप्रेरक अपने आप में पूर्णतः जैविक अथवा मनोसामाजिक नहीं होता, बल्कि वे व्यक्ति में विभिन्न मिश्रणों में उद्दीप्त होते हैं।

जैविक अभिप्रेरक

अभिप्रेरणा को समझने के लिए जैविक अथवा शरीरक्रियात्मक उपागम सबसे पहले अपनाए गए। बाद में जो सिद्धांत विकसित हुए, उनमें भी जैविक उपागम के प्रभाव के शेष चिह्न दिखाई पड़ते हैं। अनुकूली क्रिया के संप्रत्यय पर दृढ़ रहने वाले उपागम भी मानते हैं कि प्राणी की आवश्यकताएँ (आंतरिक शरीरक्रियात्मक असंतुलन) अंतर्नोद उत्पन्न करती हैं तथा जो एेसे व्यवहारों को उद्दीप्त करती हैं जिनके कारण वे कुछ विशेष लक्ष्यों को प्राप्त करने की क्रिया करते हैं, जिससे अंतर्नाेद घट जाता है। अभिप्रेरणा की सबसे पुरानी व्याख्या मूल प्रवृत्ति के संप्रत्यय पर आधारित थी। मूल प्रवृत्ति उन सहज व्यवहारों के प्रतिरूप को सूचित करती है, जिनका निर्धारण जैविक कारकों से होता है न कि वे सीखे हुए होते हैं। कुछ सामान्य मानवीय मूल प्रवृत्तियाँ जिज्ञासा, पलायन, प्रतिकर्षण, प्रजनन, पैतृक देखभाल इत्यादि हैं। मूल प्रवृत्तियाँ एेसी अंतर्जात प्रवृत्तियाँ हैं जो एक प्रजाति के सभी सदस्यों में पाई जाती हैं तथा जो व्यवहार को पूर्वकथनीय तरीकों से निर्दिष्ट करती हैं। मूल प्रवृत्ति बहुधा कुछ कार्य करने के अंतःप्रेरण को प्रदर्शित करती है। मूल प्रवृत्ति का एक बल या आवेग होता है जो प्राणी को कुछ एेसी क्रिया करने के लिए चालित करता है जो उस बल या आवेग को कम कर सके। इस उपागम द्वारा जिन मूल जैविक आवश्यकताओं की व्याख्या की जाती है, वे हैं - भूख, प्यास तथा काम-वृत्ति जो कि व्यक्ति के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हैं।


चित्र 9.2 : अभिप्रेरकों के प्रकार

भूख

जब किसी को भूख लगी हो तो भोजन की आवश्यकता सर्वोपरि हो जाती है। यह व्यक्ति को भोजन प्राप्त करने और उसे खाने के लिए अभिप्रेरित करती है। लेकिन आपको भूख की अनुभूति क्यों होती है? अनेक अध्ययन सूचित करते हैं कि शरीर के भीतर तथा बाहर घटित होने वाली अनेक घटनाएँ भूख को उद्दीप्त या निरुद्ध कर सकती हैं। भूख के उद्दीपकों में अन्तर्निहित हैं - अमाशय में संकुचन, जो यह इंगित करता है कि अमाशय रिक्त है; रक्त में ग्लूकोज़ की निम्न सांद्रता; प्रोटीन का निम्न स्तर तथा शरीर में वसा के भंडारण की मात्रा। शरीर में ईंधन की कमी के प्रति यकृत भी प्रतिक्रिया करता है तथा वह मस्तिष्क को तंत्रिका आवेग प्रेषित करता है। भोजन की सुगंध, स्वाद या दर्शन भी खाने की इच्छा उत्पन्न करते हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें से कोई भी एक अपने आप में यह भाव नहीं जगाते कि आप भूखे हैं। ये सब बाह्य कारकों (जैसे- स्वाद, रंग, दूसरों को भोजन करते हुए देखना तथा भोजन की सुगंध इत्यादि) के साथ संयुक्त होकर, आपको यह समझने में सहायता करते हैं कि आप भूखे हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि हमारी भूख अधश्चेतक में स्थित पोषण-तृप्ति की जटिल व्यवस्था, यकृत और शरीर के अन्य अंगों तथा परिवेश में स्थित बाह्य संकेतों द्वारा नियंत्रित होती है।

कुछ शरीरक्रिया वैज्ञानिकों का मत है कि यकृत के उपापचयी क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों के कारण भूख की अनुभूति होती है। मस्तिष्क के उस भाग को जिसे अधश्चेतक कहते हैं, यकृत संकेत भेजता है। अधश्चेतक के दो क्षेत्र जिनका भूख से संबंध है, वे हैं पाशि्ρवक अधश्चेतक तथा अधर मध्य अधश्चेतक। पाशि्ρवक अधश्चेतक भूख संदीपन क्षेत्र समझा जाता है। पशुओं के इस क्षेत्र को उद्दीप्त करने पर वे भोजन करने लगते हैं। जब यह क्षतिग्रस्त हो जाता है तो पशु खाना छोड़ देते हैं तथा अनशन से उनकी मृत्यु भी हो जाती है। अधर मध्य अधश्चेतक अधश्चेतक के मध्य में स्थित होता है, इसे भूख नियंत्रण क्षेत्र कहते हैं तथा यह भूख के अंतर्नोद को निरुद्ध कर देता है। क्या अब आप उन लोगों के बारे में अनुमान लगा सकते हैं जो अत्यधिक भोजन करते हैं और अत्यंत मोटे हो जाते हैं तथा उन लोगों के बारे में भी जो बहुत कम भोजन करते हैं, या जो कम खाकर दुबले होने की चेष्टा करते हैं?

प्यास

यदि आपको लंबे समय तक पानी से वंचित रखा जाए तो आपको क्या होगा? आपको प्यास क्यों लगती है? जब हम कई घंटे तक पानी से वंचित रह जाते हैं तो हमारा मुँह तथा गला सूखने लगता है तथा शरीर के ऊतकों में निर्जलीकरण होने लगता है। सूखे मुँह को आर्द्र करने के लिए पानी पीना आवश्यक है। किंतु केवल मुँह का सूखना ही पानी पीने के व्यवहार में परिणत नहीं होता, बल्कि शरीर के भीतर घटित होने वाली प्रक्रियाएँ प्यास तथा पानी पीने को नियंत्रित करती हैं। निर्जलीकरण में शरीर के ऊतकों में पर्याप्त मात्रा में जल पहुँचने पर ही मुँह तथा गले का सूखना दूर हो पाता है।

शारीरिक स्थितियाँ पानी पीने के व्यवहार को प्रमुखतः उद्दीप्त करती हैं: कोशिकाओं से पानी का क्षय तथा रत्त के परिमाण का घटना। जब शरीर से तरल द्रव्यों का क्षय होता है तो कोशिकाओं के भीतर से भी जल का ह्रास होता है। अग्र अधश्चेतक में कुछ तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें परासरणग्राही कहते हैं, जो कोशिकाओं के निर्जलीकरण की स्थिति में तंत्रिका-आवेग उत्पन्न करती हैं। यह तंत्रिका-आवेग प्यास तथा पानी पीने के लिए संकेत का कार्य करते हैं; जब प्यास का नियंत्रण परासरणग्राही द्वारा होता है तो उसे कोशिकीय- निर्जलीकरण प्यास कहते हैं। अभी कुछ शोधकर्ताओं की मान्यता है कि जो तंत्र पानी पीने की व्याख्या करता है, वही पानी पीने को रोकने के लिए भी उत्तरदायी है। दूसरे शोधकर्ता मानते हैं कि पानी पीने के परिणामस्वरूप, अमाशय में जो उद्दीपन होता है वह पानी पीने को रोकने में प्रभावी होता है। किंतु प्यास के अंतर्नोद के अंतर्निहित सुनिश्चित शरीरक्रियात्मक तंत्र को समझना अभी शेष है।

काम

मनुष्य तथा पशुओं दोनों में ही एक अत्यंत शक्तिशाली अंतर्नोद, काम अंतर्नोद है। काम-क्रिया की अभिप्रेरणा, मानव व्यवहार को प्रभावित करने वाला एक अत्यंत बलशाली कारक है। किंतु काम केवल एक जैविक अभिप्रेरक से कहीं अधिक है। यह अन्य प्राथमिक अभिप्रेरकों (भूख, प्यास) से अनेक प्रकार से भिन्न है, जैसे - (क) काम-क्रिया एक व्यक्ति के जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक नहीं है; (ख) काम-क्रिया का लक्ष्य समस्थिति (प्राणी की एक समग्र के रूप में स्थिरता बनाए रखने की प्रवृत्ति, या स्थिरता के भंग हो जाने पर साम्यावस्था को पुनः स्थापित करना) नहीं है; तथा (ग) काम-अंतर्नोद आयु के साथ विकसित होता है इत्यादि। निम्न प्रजातियों के पशुओं में यह उनकी अनेक शरीरक्रियात्मक दशाओं पर निर्भर करता है; मानव में काम-अंतर्नोद जैविक कारकों द्वारा गहनता से नियंत्रित होता है, किंतु कभी-कभी काम को एक जैविक अंतर्नोद की श्रेणी में रखना अत्यंत कठिन प्रतीत होता है।

शरीरक्रिया वैज्ञानिकों का सुझाव है कि कामेच्छा की तीव्रता रक्त में प्रवाहित हो रहे उन रासायनिक तत्वों पर निर्भर करती है जिन्हें यौन हार्माेन कहते हैं। पशुओं तथा मनुष्यों पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि जननग्रंथि अर्थात पुरुषों में शुक्रग्रंथि एवं स्त्रियों में डिंबग्रंथि, के द्वारा स्रावित होने वाले यौन हार्मोन ही काम अभिप्रेरणा के लिए उत्तरदायी हैं। काम अभिप्रेरणा पर अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों; जैसे- अधिवृक्क और पीयूष ग्रंथियों, का भी प्रभाव पड़ता है। मनुष्यों में काम अंतर्नोद का उद्दीपन, प्राथमिक रूप से बाह्य उद्दीपकों पर तथा उसकी अभिव्यक्ति संस्कृति पर आधारित अधिगम पर निर्भर करती है।

मनोसामाजिक अभिप्रेरक

सामाजिक अभिप्रेरक अधिकांशतः सीखे हुए या अर्जित होते हैं। सामाजिक अभिप्रेरकों को अर्जित करने में सामाजिक समूहों; जैसे- परिवार, पड़ोस, मित्रगण और संबंधियों का बहुत योगदान होता है। ये अभिप्रेरकों के जटिल रूप हैं जो व्यक्ति की उसके सामाजिक परिवेश के साथ अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं।

संबंधन अभिप्रेरक

प्रतिदिन हमें दूसरों के साथ की या मित्रों की आवश्यकता होती है या हम दूसरों के साथ किसी प्रकार का संबंध बनाना चाहते हैं। कोई भी सदैव अकेले नहीं रहना चाहता। जैसे ही लोग परस्पर आपस में कुछ समानताएँ देखते हैं, वे एक समूह बना लेते हैं। समूह का निर्माण अथवा सामूहिकता मानव जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। अक्सर लोग दूसरों के निकट पँहुचने, उनकी सहायता प्राप्त करने तथा उनके समूह का सदस्य बनने के लिए घोर प्रयास करते हैं। दूसरों को चाहना तथा भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से उनके निकट आने की चाह को संबंधन कहते हैं। इसमें सामाजिक संपर्क की अभिप्रेरणा अंतर्निहित है। संबंधन की आवश्यकता उस समय उद्दीप्त होती है, जब लोग अपने को खतरे में या असहाय महसूस करते हैं और उस समय भी जब वे प्रसन्न होते हैं। जिन व्यक्तियों में यह आवश्यकता प्रबल होती है वे दूसरों का साथ खोजते हैं तथा दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखते हैं।

शक्ति अभिप्रेरक

शक्ति की आवश्यकता व्यक्ति की वह योग्यता है जिसके कारण वह दूसरों के संवेगों तथा व्यवहारों पर अभिप्रेत प्रभाव डालता है। शक्ति अभिप्रेरक के विभिन्न लक्ष्य हैंः प्रभाव डालना, नियंत्रण करना, सम्मत कराना, नेतृत्व करना तथा दूसरों को मोहित कर लेना और सबसे अधिक महत्वपूर्ण, दूसरों की दृष्टि में अपनी प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाना।

डेविड मैकक्लीलैंड (David McClelland, 1975) ने शक्ति अभिप्रेरक की अभिव्यक्ति के चार सामान्य तरीके बताएँ हैं। प्रथम, व्यक्ति शक्ति या सामर्थ्य का बोध प्राप्त करने के लिए अपने बाहर के स्रोतों का उपयोग करता है जैसे, खेल के सितारों के बारे में कहानियाँ पढ़ कर या, किसी लोकप्रिय व्यक्ति के साथ संलग्न होकर। द्वितीय, शक्ति का बोध अपने भीतर के स्रोताें द्वारा भी किया जा सकता है और उसकी अभिव्यक्ति शारीरिक सौष्ठव का निर्माण करके तथा अपने आवेगों एवं अंतःप्रेरणाओं पर नियंत्रण करके की जा सकती है। तृतीय, व्यक्ति कुछ कार्य व्यक्तिगत स्तर पर दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए करता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति बहस करता है, या किसी अन्य व्यक्ति के साथ इसलिए प्रतियोगिता करता है कि उसको प्रभावित कर सके या उससे प्रतिस्पर्द्धा कर सके। चतुर्थ, व्यक्ति किसी संगठन के सदस्य के रूप में दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए भी कार्य करता है जैसे कि किसी राजनीतिक दल के नेता के रूप में; वह राजनीतिक दल के तंत्र का उपयोग दूसरों को प्रभावित करने के लिए कर सकता है। इनमें से कोई भी तरीका किसी व्यक्ति की शक्ति अभिप्रेरणा की अभिव्यक्ति में प्रमुख हो सकता है या उस पर छा सकता है किंतु इसमें आयु और जीवन अनुभवों के साथ परिवर्तन भी आता है।

उपलब्धि अभिप्रेरक

आपने देखा होगा कि कुछ विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक या श्रेणी पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं या, दूसरे के साथ स्पर्द्धा करते हैं क्योंकि अच्छे अंक या श्रेणी उनके लिए उच्च शिक्षा और बेहतर नौकरी का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त करने की यह आवश्यकता उपलब्धि अभिप्रेरक कहलाती है। उपलब्धि की आवश्यकता, जिसे n-Ach भी कहते हैं, व्यवहारों का ऊर्जन एवं निर्देशन करती है तथा परिस्थितियों के प्रत्यक्षण को प्रभावित करती है।

सामाजिक विकास के शुरू के वर्षों में बच्चे उपलब्धि अभिप्रेरक को अर्जित करते हैं। वे स्रोत, जिनसे वे यह अभिप्रेरक अर्जित करते हैं उनमें माता-पिता, दूसरे भूमिका प्रतिरूप तथा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव शामिल हैं। वे व्यक्ति जिनमें उच्च उपलब्धि अभिप्रेरक होते हैं, एेसे कृत्यों को वरीयता देते हैं जो मध्यम कठिनाई स्तर तथा चुनौती वाले हों। उनमें अपने निष्पादन के संबंध में जानकारी या पुनर्भरण प्राप्त करने की इच्छा सामान्य से अधिक होती है, अर्थात वे ज्ञात करना चाहते हैं कि वे कैसा निष्पादन कर रहे हैं, जिससे कि वे चुनौती से निपटने के लिए अपने लक्ष्यों में आवश्यक फेर-बदल कर सकें।

जिज्ञासा एवं अन्वेषण

कभी-कभी व्यक्ति एेसे कार्य भी करते हैं जिनका कोई सुस्पष्ट लक्ष्य नहीं होता किंतु वे एेसे कार्यों से भी कुछ आनंद प्राप्त करते हैं। किसी विशिष्ट पहचाने जाने वाले लक्ष्य के बिना भी कार्य करना एक अभिप्रेरणात्मक प्रवृत्ति है। नए अनुभव प्राप्त करने की इच्छा, सूचनाएँ प्राप्त करने से प्रसन्नता की अनुभूति, इत्यादि जिज्ञासा के संकेत हैं। अतः, जिज्ञासा उन व्यवहारों का वर्णन करती है जिनका मुख्य अभिप्रेरक अपने क्रियाकलापों में व्यस्त रहना प्रतीत होता है।

यदि आकाश हमारे ऊपर गिर जाए तो क्या होगा? इस प्रकार के प्रश्न (क्या होगा यदि----?) बुद्धिजीवियों को उत्तर खोजने के लिए उद्दीप्त करते हैं। अनेक अध्ययन प्रदर्शित करते हैं कि जिज्ञासापूर्ण व्यवहार केवल मानवों में ही परिलक्षित नहीं होते, बल्कि पशु भी इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। हम अपनी जिज्ञासा एवं संवेदी उद्दीपन की आवश्यकता के कारण परिवेश का अन्वेषण करने के लिए परिचालित होते हैं। विभिन्न प्रकार के संवेदी उद्दीपन की आवश्यकता जिज्ञासा से घनिष्ट रूप से संबद्ध होती है। यह मूल अभिप्रेरक है, तथा अन्वेषण एवं जिज्ञासा उसकी अभिव्यक्ति है।

हमारे आस-पास की वस्तुओं के प्रति हमारा अज्ञान, अपने आस-पास के संसार का अन्वेषण करने के लिए प्रबल अभिप्रेरक का कार्य करता है। बारम्बार होने वाले अनुभवों से हम ऊब जाते हैं, अतः हम कुछ नया ढूँढ़ने लगते हैं।

शिशुओं तथा छोटे बच्चों में यह अभिप्रेरक अत्यन्त प्रबल होता है। उन्हें अन्वेषण करने की स्वतंत्रता संतोष प्रदान करती है जो उनकी मुस्कराहट तथा बबलाने में प्रकट होता है। जैसा कि आप अध्याय 4 में पढ़ चुके हैं, जब बालकों में अन्वेषण के अभिप्रेरक को हतोत्साहित किया जाता है तो वे सरलता से दुःखी हो जाते हैं।

मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम

मानव अभिप्रेरणा के संबंध में कई मत हैं। इनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धांत अब्राहम एच. मैस्लो (Abraham H. Maslow, 1968; 1970) के द्वारा दिया गया है। उन्होंने मानव व्यवहार को चित्रित करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है। उनके सिद्धांत को ‘‘आत्म-सिद्धि का सिद्धांत’’ कहते हैं (चित्र 9.3 देखें) और यह सिद्धांत अपने सैद्धांतिक एवं अनुप्रयुक्त मूल्यों के कारण अत्यंत लोकप्रिय है।

मैस्लो का मॉडल एक पिरामिड के रूप में संप्रत्ययित किया जा सकता है, जिसमें पदानुक्रम के तल में मूल शरीरक्रियात्मक या जैविक आवश्यकताएँ हैं जो कि जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक हैं; जैसे- भूख, प्यास इत्यादि। जब इन आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है तभी व्यक्ति में खतरे से सुरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है। इसका तात्पर्य भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रकार के खतरों से सुरक्षा का है। इसके पश्चात दूसरों का उनसे प्रेम करना तथा उनका प्रेम प्राप्त करना आता है। यदि हम इस आवश्यकता को पूरा करने में सफल हो जाते हैं तब हम स्वयं आत्म-सम्मान तथा दूसरों से सम्मान प्राप्त करने की ओर बढ़ते हैं। पदानुक्रम में इससे ऊपर आत्म-सिद्धि की आवश्यकता है, जो एक व्यक्ति की अपनी सम्भाव्यताओं को पूर्ण रूप से विकसित करने के अभिप्रेरण में परिलक्षित होती है। आत्म-सिद्ध व्यक्ति आत्म-जागरूक, समाज के प्रति अनुक्रियाशील, सर्जनात्मक, स्वतः स्फूर्त तथा नवीनता एवं चुनौती के प्रति मुक्त होता है। एेसे व्यक्ति में हास्य भावना होती है तथा गहरे अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाने की क्षमता होती है।


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चित्र 9.3 :मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम


पदानुक्रम में निम्न स्तर की आवश्यकताएँ (शरीरक्रियात्मक) जब तक संतुष्ट नहीं हो जातीं तब तक प्रभावी रहती हैं। एक बार जब वे पर्याप्त रूप से संतुष्ट हो जाती हैं तब उच्च स्तर की आवश्यकताएँ व्यक्ति के ध्यान एवं प्रयासों में केंद्रित हो जाती हैं। किंतु यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश व्यक्ति निम्न स्तर की आवश्यकताओं के लिए अत्यधिक सरोकार होने के कारण सर्वोच्च स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते।

क्रियाकलाप 9.1

वास्तविक क्रियाएँ कभी-कभी आवश्यकता पदानुक्रम के विपरीत होती हैं। सैनिक, पुलिस के अधिकारी और अग्निशमन के कर्मचारी कभी-कभी स्वयं को अत्यंत जोखिम में डाल कर दूसरों की रक्षा करते देखे गए हैं। प्रकट रूप से उनके ये व्यवहार सुरक्षा की आवश्यकता के विरुद्ध प्रतीत होते हैं।

एेसा क्यों होता है? अपने समूह में इस पर चर्चा कीजिए तथा फिर अपने अध्यापक से इस पर चर्चा कीजिए।


कुंठा एवं द्वंद्व

अब तक हमने अभिप्रेरणा के विभिन्न सिद्धांतों पर दृष्टिपात किया है। ये सिद्धांत अभिप्रेरणा की प्रक्रिया को समझाते हैं कि अभिप्रेरित व्यवहार क्यों घटित होता है तथा विभिन्न प्रकार के अभिप्रेरित व्यवहारों के कारण क्या-क्या हैं? अब हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि जब अभिप्रेरित क्रिया अवरुद्ध हो जाती है अथवा जब वह कुछ कारणों से असफल हो जाती है तब क्या होता है? हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि जब व्यक्ति में एक ही समय में एक से अधिक अभिप्रेरक अथवा आवश्यकताएँ जागृत हो जाती हैं तब क्या होता है। इन दोनों सरोकारों की व्याख्या अभिप्रेरणा से संबंधित दो महत्वपूर्ण संप्रत्यय, कुंठा (frustration) तथा द्वंद्व (conflict) द्वारा की जा सकती है।

कुंठा

अनेक अवसरों पर स्थितियाँ अप्रत्याशित मोड़ ले लेती हैं और हम अपने लक्ष्य तक पहुँचने में असफल हो जाते हैं। एक इष्ट लक्ष्य का अवरुद्ध हो जाना दुःखदायी होता है किंतु हम सभी ने उसका अनुभव जीवन में भिन्न-भिन्न स्तरों पर किया है। कुंठा तब उत्पन्न होती है जब पूर्वापेक्षित इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं होता तथा अभिप्रेरक अवरुद्ध हो जाता है। यह एक विमुखी दशा है तथा कोई भी इसे पसंद नहीं करता। कुंठा के कारण विभिन्न व्यवहारात्मक तथा संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इनके अंतर्गत आक्रामक व्यवहार, स्थिरण, पलायन, परिहार तथा रोना शामिल हैं। वस्तुतः डोलॉर्ड (Dollard) तथा मिलर (Miller) द्वारा दी गई कुंठा-आक्रामकता (frustration-aggression) की परिकल्पना (hypothesis) अत्यंत प्रसिद्ध है। यह परिकल्पना कहती है कि आक्रामकता कुंठा का ही उत्पादन है। आक्रामक क्रियाएँ या तो स्व, या अवरोध उत्पन्न करने वाले कारक या किसी प्रतिस्थानिक की दिशा में निर्दिष्ट होती हैं। प्रत्यक्ष आक्रामक व्यवहार दंड के भय से निरुद्ध हो सकते हैं। कुंठा के प्रमुख स्रोत या कारण निम्नलिखित में पाए जाते हैं: (1) पर्यावरणी बल जो कि भौतिक वस्तुएँ, निरुद्ध करने वाली परिस्थितियाँ या एेसे दूसरे व्यक्ति हो सकते हैं जो किसी को एक विशेष लक्ष्य तक पहुँचने से रोकते है; (2) वैयक्तिक कारक जैसे अपर्याप्तताएँ, या संसाधनों का अभाव जिनके कारण लक्ष्य तक पहुँचना कठिन हो जाता है या संभव ही नहीं हो पाता है, तथा (3) विभिन्न अभिप्रेरकों के मध्य द्वंद्व।

द्वंद्व

जब कभी एक व्यक्ति को परस्पर विरोधी आवश्यकताओं, इच्छाओं, अभिप्रेरकों तथा माँगों के बीच चयन करना पड़ता है, तो द्वंद्व होता है। द्वंद्व तीन प्रकार के होते हैं, उपागम-उपागम द्वंद्व (approach-approach conflict), परिहार-परिहार द्वंद्व (avoidance-avoidance conflict) और उपागम-परिहार द्वंद्व (approach-avoidance conflict)।

जब दो विध्यात्मक तथा इष्ट विकल्पों में से एक का चयन करना पड़ता है तो उपागम-उपागम द्वंद्व होता है। किंतु जब दो निषेधात्मक एवं परस्पर अवांछनीय विकल्पों में से एक को चुनना पड़ता है तो परिहार-परिहार द्वंद्व होता है। वास्तविक जीवन में इस प्रकार के द्वि-परिहार द्वंद्व हो सकते हैं जब व्यक्ति के सामने एेसी द्विविधा हो; जैसे- दाँत के डाक्टर के पास जाने या दाँत सड़ने, या सड़क के किनारे भोजन करने या भूखे रह जाने के विकल्पों में से चयन करना हो। उपागम-परिहार द्वंद्व तब उत्पन्न होता है जब एक ही लक्ष्य या क्रिया आकृष्ट भी करे और प्रतिकर्षित भी। उपागम-परिहार द्वंद्व का प्रमुख लक्षण उभयभाविता होता है, अर्थात विध्यात्मक तथा निषेधात्मक द्वंद्वों का मिश्रण। उपागम-परिहार द्वंद्व के कुछ उदाहरण हैं: एक व्यक्ति नयी मोटर साइकिल तो खरीदना चाहता है किंतु उसका मासिक भुगतान नहीं देना चाहता, मोटापा है किंतु भोजन करना चाहता है और किसी एेसे व्यक्ति से विवाह करना चाहता/चाहती है जिसे उसके माता-पिता नापसंद करते हैं। जीवन के अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों में इस प्रकार के उपागम-परिहार द्वंद्व के लक्षण दिखाई पड़ते हैं।



चित्र 9.4: आवश्यकता-द्वंद्व-कुंठा पथ

कुंठा का एक प्रमुख स्रोत अभिप्रेरणात्मक द्वंद्व है। अपने जीवन में हम प्रायः अनेक परस्पर प्रतिस्पर्धी बलों से प्रभावित होते हैं, जो हमें भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींचते हैं। एेसी परिस्थितियों में द्वंद्व परिलक्षित होता है। अतः, एक ही समय में अनेक इच्छाओं तथा आवश्यकताओं का अस्तित्व द्वंद्व की विशेषता है।

द्वंद्व की सभी परिस्थितियों में, किसी एक विकल्प का चयन करना और दूसरे विकल्पों को छोड़ देना कई कारकों पर निर्भर करता है; जैसे- उनके एक-दूसरे की अपेक्षा अधिक या कम बल अथवा महत्त्व का होना और पर्यावरणी कारक। द्वंद्वात्मक परिस्थितियों का समाधान, प्रत्येक विकल्प के पक्ष तथा विपक्ष के तर्कों पर सोच विचार करने के बाद ही करना चाहिए। एक बात यहाँ नोट करने योग्य है कि द्वंद्व के कारण कुंठा होती है, जिसकी परिणति आक्रामकता में हो सकती है। उदाहरण के लिए, एक युवा जो कि एक संगीतज्ञ बनना चाहता है किंतु माता-पिता के दबाव में प्रबंधन की शिक्षा ग्रहण कर रहा है। वह अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के अनुरूप निष्पादन नहीं कर पा रहा है, उससे यदि उसके खराब निष्पादन के बारे में पूछताछ की जाए तो वह आक्रामक हो सकता है।


बॉक्स 9.1 स्व-अभिप्रेरणा

स्वयं आपको तथा दूसरों को अभिप्रेरित करने के कुछ उपाय इस प्रकार हैं:

  1. आप जो भी करें योजनाबद्ध तथा व्यवस्थित ढंग से करें।
  2. अपने लक्ष्यों का प्राथमिकता के आधार पर क्रम निर्धारण करना सीखिए (उनका 1, 2, 3 .... इस क्रम से निर्धारण कीजिए)।
  3. अल्पकालिक लक्ष्य निर्धारित करें (कुछ दिनों में, एक सप्ताह, एक माह, इत्यादि)।
  4. अपने लक्ष्य को पाने पर स्वयं को पुरस्कृत कीजिए (आप अपने आपको एक नयी कलम, चॉकलेट या किसी अन्य वस्तु जिसकी आपको चाह है, से पुरस्कृत कर सकते हैं, किंतु उसे किसी लक्ष्य के साथ जोड़ दीजिए)।
  5. प्रत्येक बार लक्ष्य प्राप्त करने पर स्वयं अपनी प्रशंसा एक उपलब्धि करने वाले के रूप में कीजिए (कहिए ‘वाह! मैंने यह कर लिया’, ‘मैं इस कार्य में वास्तव में अच्छा हूँ’, ‘मैं वास्तव में कार्य चतुराई से करता हूँ’ इत्यादि)।
  6. यदि लक्ष्य प्राप्त करना कठिन प्रतीत होने लगे तो उसे छोटे अंशों में विभाजित कर लीजिए और तब एक-एक अंश को पूर्ण कीजिए।
  7. अपने अपेक्षित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अपने कठिन परिश्रम के परिणाम का सदा मानसिक चित्रण या कल्पना करने का प्रयत्न करते रहिए।


क्रियाकलाप 9.2

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए तथा जिन क्षेत्रों में आप दुर्बल हैं उनमें कार्य कीजिए:

  1. उन योजनाओं/क्रियाओं को सूचीबद्ध कीजिए जिनका आप इस सप्ताह क्रियान्वयन करना चाहते हैं।
  2. क्या आपने अगले माह के लिए लक्ष्य निर्धारित किए हैं? यदि हाँ, तो वे क्या हैं? उनकी सूची बनाने का प्रयास कीजिए।
  3. क्या आपके पास दैनिक नेमी चार्ट है? यदि नहीं, तो अपने समय को विवेकपूर्ण तरीके से अध्ययन, विश्राम, मनोरंजन, तथा अन्य दूसरे कार्यों के लिए बाँटते हुए चार्ट तैयार कीजिए।
  4. क्या आप अपने नेमी चार्ट का सफलता से अनुसरण कर पाते हैं? (यदि आपका नेमी चार्ट है तो)।
  5. यदि आप चार्ट का अनुसरण नहीं कर पाते हैं तो उन उपायों को सोचिए जिनके द्वारा आप अपनी अनियमित आदतों पर विजय प्राप्त कर सकें। इन उपायों का अनुसरण करने का प्रयास करें।


संवेगों का स्वरूप

‘‘स्वाति बहुत प्रसन्न है। आज उसका परीक्षाफल घोषित हुआ है और उसने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। वह उल्लासोन्मादित है। किंतु उसका मित्र प्रणय दुखी है क्योंकि उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं है। उनके मित्रों में कुछ स्वाति की उपलब्धि से ईर्ष्या का अनुभव कर रहे हैं। जीवन अपनी आशा के अनुरूप प्रदर्शन न कर पाने के कारण अपने आपसे क्रुद्ध है; वह दुखी है क्योंकि उसके माता-पिता काप.ηी निराश होंगे।’’

हर्ष, दुख, आशा, प्रेम, उत्तेजना, क्रोध, घृणा तथा अनेक अन्य भावनाएँ हम सब दिन भर के दौरान अनुभव करते हैं। संवेग का पद अक्सर ‘भावना’ तथा ‘मनःस्थिति’ का पर्यायवाची समझा जाता है। भावना, संवेग के सुख-दुख की विमाओं को निर्दिष्ट करती है। इसमें अक्सर शारीरिक क्रियाएँ भी अंतर्निहित होती हैं। मनःस्थिति कुछ लंबे समय तक बनी रहने वाली भावावस्था है किंतु यह संवेग से कम तीव्र होती है। यह दोनों ही पद संवेग के संप्रत्यय की अपेक्षा अधिक संकुचित हैं। संवेग, उद्वेलन, आत्मनिष्ठ भावनाओं तथा संज्ञानात्मक व्याख्या का एक जटिल स्वरूप होता है। संवेग, जैसाकि हम अनुभव करते हैं, हमारे भीतर गति लाते हैं तथा इस प्रक्रिया में शरीरक्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही प्रकार की प्रतिक्रियाएँ अंतर्निहित होती हैं।

संवेग एक आत्मनिष्ठ भावना है, अतः संवेग का अनुभव एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होता है। आधुनिक मनोविज्ञान ने मूल संवेगों को पहचानने का प्रयास किया है। यह देखा गया है कि कम से कम छः संवेग सब जगह अनुभव किए जाते हैं तथा पहचाने जाते हैं; ये हैं - क्रोध, विरुचि, भय, प्रसन्नता, दुख, तथा आश्चर्य। इजार्ड (Izard) ने दस मूल संवेगों का एक समुच्चय प्रस्तुत किया है; ये हैं - हर्ष, आश्चर्य, क्रोध, विरुचि, अवमान, भय, शर्म, अपराध, अभिरुचि तथा उत्तेजना। इनकी संयुक्तियाँ अन्य प्रकार के संवेग उत्पन्न करती हैं। प्लुचिक (Plutchik) के अनुसार, आठ मूल या प्राथमिक संवेग होते हैं। अन्य सभी संवेग इन्हीं मूल संवेगों के विभिन्न मिश्रणों के ही परिणाम होते हैं। उन्होंने इन संवेगों को चार विरोधी युग्मों के रूप में प्रस्तुत किया है; ये हैं- हर्ष-विषाद; स्वीकृति-विरुचि; भय-क्रोध; तथा आश्चर्य-पूर्वाभास।

संवेगों में तीव्रता (उच्च, निम्न) तथा गुणों (प्रसन्नता, दुख, भय) के आधार पर अंतर होता है। आत्मनिष्ठ कारक तथा स्थितिपरक संदर्भ संवेगों के अनुभव को प्रभावित करते हैं। ये कारक हैं - लिंग, व्यक्तित्व तथा कुछ प्रकार की मनोविकृतियाँ। साक्ष्य बताते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ क्रोध के अतिरिक्त अन्य संवेगों का अधिक तीव्रता से अनुभव करती हैं। पुरुषों में क्रोध को अधिक तीव्रता तथा अधिक आवृत्ति में अनुभव करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इस लिंग-भेद को पुरुषों (स्पर्द्धात्मक) तथा महिलाओं (संबंधन एवं देखभाल) से जुड़ी सामाजिक भूमिकाओं पर आरोपित किया जाता है।

संवेगों के शरीरक्रियात्मक आधार

‘‘दिव्या नौकरी पाने के लिए व्याकुल है। उसने साक्षात्कार के लिए अच्छी तैयारी की है और आत्म-विश्वास का अनुभव कर रही है। जैसे ही वह साक्षात्कार कक्ष में जाती है और साक्षात्कार प्रारंभ होता है, वह अत्यधिक तनाव में आ जाती है। उसके हाथ-पाँव ठंडे पड़ जाते हैं, उसका हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है, और वह उपयुक्त तरीके से उत्तर देने में असमर्थ हो जाती है।’’

एेसा क्यों हुआ? किसी एेसी घटना के बारे में सोचने की कोशिश कीजिए जो इससे मिलती हुई हो और जिसका अनुभव स्वयं आपने किया हो। क्या आप उसका कोई संभाव्य कारण सोच सकते हैं। जैसाकि हम आगे देखेंगे, जब हम किसी संवेग का अनुभव करते हैं तो अनेक शरीरक्रियात्मक परिवर्तन होते हैं। जब हम उत्तेजित, भयभीत या क्रुद्ध होते हैं तो इन शारीरिक परिवर्तनों को चिह्नित करना अपेक्षाकृत सरल होता है। जब आप किसी चीज़ के बारे में उत्तेजित या क्रुद्ध होते हैं तो आपने अनुभव किया होगा कि आपकी हृदय गति बढ़ जाती है, सिर चकराने लगता है, पसीना आने लगता है तथा हाथ-पाँव में कंपन होने लगता है। परिष्कृत उपकरणों की सहायता से उन शरीरक्रियात्मक परिवर्तनों का यथार्थ मापन किया जा सकता है जो संवेग की अनुभूति के साथ उत्पन्न होते हैं। स्वायत्त तथा कायिक तंत्रिका-तंत्र दोनों ही संवेगात्मक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। संवेग का अनुभव तंत्रिका-शरीरक्रियात्मक सक्रियकरण की शृंखला पर निर्भर करता है, जिसमें चेतक, अधश्चेतक, उपवल्कुटिय व्यवस्था तथा प्रमस्तिष्कीय वल्कुट महत्वपूर्ण रूप से अंतर्निहित होते हैं। वे व्यक्ति जिनके मस्तिष्क के इन क्षेत्रों में व्यापक क्षति हो जाती है, उनकी संवेगात्मक योग्यताएँ दोषपूर्ण होते हुए देखी गई हैं। प्रयोगाें में शिशुओं तथा वयस्कों में भी विभिन्न मस्तिष्क के क्षेत्रों में चयनात्मक सक्रियकरण, भिन्न-भिन्न संवेगों का उद्वेलन प्रदर्शित करता है।

बॉक्स 9.2 संवेगों की शरीरक्रिया

केंद्रीय तथा परिधीय तंत्रिका तंत्र, संवेगों के नियमन में अत्यावश्यक भूमिका का निर्वाह करते हैं।

चेतक: यह तंत्रिका कोशिकाओं के समूह से संगठित होता है तथा संवेदी तंत्रिकाओं के प्रसारण केंद्र का कार्य करता है। चेतक का उत्तेजन भय, दुशि्ंचता तथा स्वायत्त प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करता है। कैनन तथा बार्ड (1931) का संवेग का सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि चेतक की भूमिका समस्त संवेगों को प्रारंभ करने तथा चलाए रखने में महत्वपूर्ण है।

अधश्चेतक: यह संवेगों के नियमन का प्राथमिक केंद्र समझा जाता है। यह समस्थिति संतुलन का भी नियमन करता है, स्वायत्त क्रियाओं तथा अंतःस्रावी ग्रंथियों के स्राव को नियंत्रित करता है, तथा संवेगात्मक व्यवहाराें के कायिक स्वरूप को व्यवस्थित करता है।

उपवल्कुटीय तंत्र: चेतक तथा अधश्चेतक के साथ उपवल्कुटीय तंत्र भी संवेगों के नियमन में अत्यावश्यक भूमिका का निवार्ह करता है। गलतुंडिका उपवल्कुटीय व्यवस्था का एक भाग है जो संवेगात्मक नियंत्रण के लिए उत्तरदायी है तथा संवेगात्मक स्मृतियों के निर्माण में अंतर्निहित है।

वल्कुट: संवेगों में वल्कुट घनिष्ठ रूप से अंतर्निहित है। किंतु इसके गोलार्ध परस्पर विरुद्ध भूमिका निभाते हैं। वाम अग्र वल्कुट, विध्यात्मक भावनाओं से संबद्ध है, जबकि दाहिना अग्र वल्कुट निषेधात्मक भावनाओं से संबद्ध है।


संवेग के शरीरक्रियात्मक सिद्धांतों में सबसे पुराने सिद्धांतों में से एक जेम्स (James, 1884) द्वारा दिया गया था और लैंगे (Lange) ने उसका समर्थन किया था, अतः इसे जेम्स-लैंगे सिद्धांत (James-Lange theory) के नाम से जाना जाता है (चित्र 9.5 देखें)। इस सिद्धांत के अनुसार, पर्यावरणी उद्दीपक विसेरा या अंतरांग (आंतरिक अंग जैसे - हृदय तथा फेफड़े) में शरीरक्रियात्मक अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं, जो कि पेशीय गति से संबद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए, अप्रत्याशित अत्यंत तीव्र शोर के द्वारा चौंकना, आंतरांगी तथा पेशीय अंगों में सक्रियकरण को उत्पन्न करता है, जिसका अनुसरण करता है संवेगात्मक उद्वेलन। दूसरे शब्दों में, जेम्स-लैंगे सिद्धांत का तर्क यह है कि आपके शारीरिक परिवर्तनों का आपके द्वारा किया गया प्रत्यक्षण, जैसे- किसी घटना के बाद साँस का तेज़ चलना, हृदय की तेज़ धड़कन, टाँगों का दौड़ना, संवेगात्मक उद्वेलन को उत्पन्न करता है। इस सिद्धांत का निहितार्थ यह है कि विशिष्ट घटनाएँ या उद्दीपक विशिष्ट शरीरक्रियात्मक परिवर्तनों को उत्तेजित करती हैं तथा व्यक्ति इन परिवर्तनों का जिस प्रकार से प्रत्यक्षण करता है, संवेगों की अनुभूति उसी का परिणाम होती है।



चित्र 9.5: जेम्स-लैंगे का संवेग सिद्धांत

किंतु इस सिद्धांत को बहुत आलोचनाओं का सामना करना पड़ा और इसका उपयोग कम किया जाने लगा। एक अन्य सिद्धांत कैनन (Cannon, 1927) तथा बार्ड (Bard, 1934) के द्वारा प्रतिपादित किया गया। कैनन-बार्ड सिद्धांत (Cannon-Bard theory) का दावा है कि संवेगों की सारी प्रक्रिया की मध्यस्थता चेतक के द्वारा की जाती है जो कि संवेग उद्दीप्त करने वाले उद्दीपकों के प्रत्यक्षण के पश्चात यह सूचना सहकालिक रूप से प्रमस्तिष्कीय वल्कुट, कंकाल-पेशियों तथा अनुकंपी तंत्रिका-तंत्र को देता है। इसके बाद, प्रमस्तिष्कीय वल्कुट पूर्व अनुभवों के आधार पर प्रत्यक्षित उद्दीपक की प्रकृति का निर्धारण करता है। यह संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव का निर्धारण करता है। इसी समय अनुकंपी तंत्रिका-तंत्र तथा मांसपेशियाँ शरीरक्रियात्मक उद्वेलन उत्पन्न करते हैं जो व्यक्ति को क्रिया करने के लिए तैयार करते हैं (चित्र 9.6 देखें)। 


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चित्र 9.6: कैनन-बार्ड का संवेग सिद्धांत


स्वायत्त तंत्रिका तंत्र दो तंत्रों में विभक्त होता है - अनुकंपी तथा परानुकंपी। ये दोनों तंत्र परस्पर अन्योन्य तरीके से कार्य करते हैं। एक दबावमय स्थिति में अनुकंपी तंत्र शरीर को स्थिति का सामना करने के लिए तैयार करता है। यह व्यक्ति के आंतरिक परिवेश को सशक्त करता है और हृदय गति, रक्तचाप, रक्त में शर्करा की मात्रा इत्यादि में कमी न होने देने के लिए नियंत्रित करता है। यह व्यक्ति में शरीरक्रियात्मक उद्वेलन का उत्प्रेरण करता है जो व्यक्ति को दबावमय स्थिति का सामना करने के लिए ‘संघर्ष अथवा पलायन अनुक्रिया’ के लिए तैयार करता है। जब खतरा टल जाता है तब परानुकंपी तंत्र सक्रिय हो जाता है तथा संतुलन वापस लाने के लिए शरीर को शांत करता है। वह ऊर्जा संरक्षण तथा पुनर्नवीकरण करता है तथा व्यक्ति को सामान्य स्थिति में पुनः लौटाता है। अनुकंपी एवं परानुकंपी तंत्र यद्यपि परस्पर विरोधी तरीके से कार्य करते हैं किंतु वे संवेगों के अनुभव तथा अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को पूरा करने में परस्पर पूरक हैं। 

बॉक्स 9.3 असत्य खोज

असत्य का संसूचन करने वाले यंत्र को पॉलीग्राफ भी कहते हैं, क्योंकि ये कई शारीरिक प्रतिक्रियाओं का एक ही समय आलेखित अभिलेख लेते हैं जो व्यक्ति के शारीरिक उद्वेलन का मापन करते हैं। विशिष्ट रूप से एक असत्य संसूचक रक्तचाप, हृदयगति, श्वास की गति और गहराई, तथा गैल्वेनिक त्वक् अनुक्रिया में होने वाले परिवर्तनों का मापन करता है।

जिस व्यक्ति का परीक्षण किया जाता है, उससे कुछ तटस्थ प्रश्न पूछे जाते हैं जिससे मूल रेखा का निर्धारण किया जा सके। सरल प्रश्नों के पश्चात एेसे विशिष्ट प्रश्न पूछे जाते हैं जो इस प्रकार निर्मित होते हैं कि वे आपराधिक ज्ञान पर आधारित अनुक्रियाएँ दे सकें, जो कि जिस अपराध की जाँच की जा रही है उसमें अनुमानतः उस व्यक्ति के लिप्त रहने की जानकारी प्रदान करते हैं। असत्य संसूचक या पॉलीग्राफ तंत्रिका- शरीरक्रियात्मक क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों का अभिलेख तैयार करता है जो संदेहास्पद व्यक्ति में इन प्रश्नों का उत्तर देने के दौरान घटित होते हैं।

यद्यपि पॉलीग्राफ कई वस्तुपरक अभिलेख तैयार करता है, किंतु इन अभिलेखों की व्याख्या परीक्षक के आत्मनिष्ठ निर्णय पर बहुत अधिक निर्भर करती है। एेसा भी संभव है कि परीक्षण के दौरान घटित होने वाले अनेक असंबद्ध कारक; जैसे- भय, दुशि्ंचता या पीड़ा व्यक्ति के उद्वेलन स्तर को प्रभावित कर देते हैं। व्यक्ति के लिए इसके साथ भी झूठ बोलना संभव है। इसलिए, पॉलीग्राफ के परिणाम संदिग्ध होते हैं, किंतु फिर भी इसका उपयोग कानून-व्यवस्था वाली एजेंसी के द्वारा असत्य की खोज के लिए किया जाता है।


संवेगों के संज्ञानात्मक आधार 

आज अधिकांश मनोवैज्ञानिक यह विश्वास करते हैं कि हमारे संज्ञान अर्थात हमारे प्रत्यक्षण, स्मृतियाँ एवं व्याख्याएँ, हमारे संवेगों के आवश्यक अवयव हैं। स्टैनली शैक्टर (Stanley Schachter) तथा जेरोम सिंगर (Jerome Singer) ने संवेगों के द्विकारक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसके अंतर्गत संवेगों के दो अवयव है: शारीरिक उद्वेलन तथा संज्ञानात्मक लेबल। उनका अनुमान है कि हमारे संवेगों की अनुभूति, हमारे तात्कालिक उद्वेलन के प्रति जागरूकता के द्वारा उत्पन्न होती है। उनका यह भी विश्वास है कि हमारे संवेगों में शरीरक्रियात्मक समानता होती है। उदाहण के लिए, आपका हृदय उस समय तेज़ी से धड़कता है जब आप उत्तेजित, भयभीत या क्रुद्ध होते हैं। आप शरीरक्रियात्मक रूप से उद्वेलित होते हैं तथा बाह्य वातावरण का इस आशा से अवलोकन करते हैं कि इस उद्वेेलन की व्याख्या कर सकें। इस प्रकार, उनका मत है कि किसी संवेगात्मक अनुभव के लिए उद्वेलन की चेतन व्याख्या की आवश्यकता होती है। 

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चित्र 9.7: शैक्टर-सिंगर का संवेग सिद्धांत


  यदि आप शारीरिक कसरत के कारण भी उद्वेलित हैं और कोई आपको चिढ़ाता है, तो वह उद्वेलन, जो कसरत के कारण पहले ही हो चुका है अब इस छेड़खानी पर झूठे ही आरोपित कर दिया जाता है। शैक्टर तथा सिंगर (1962) ने प्रतिभागियों को एपाइनफ्राइन के इंजेक्शन दिए। यह एक उच्च स्तर का उद्वेलन उत्पन्न करने वाली औषधि है। इसके बाद इन प्रतिभागियों से दूसरों के व्यवहारों का प्रेक्षण करने को कहा गया, जो कि या तो उल्लासोन्माद (जैसे- रद्दी की टोकरी पर कागज़ फेंकना), या क्रोध (जैसे- पैर पटकते हुए कमरे के बाहर जाना) के द्योतक थे। जैसा कि पूर्वानुमान किया गया था, दूसरों के उल्लासोन्मादित एवं क्रोधित व्यवहार ने प्रतिभागी के स्वयं के उद्वेलन की व्याख्या को प्रभावित किया। 

संवेगों के सांस्कृतिक आधार 

अब तक हम संवेगों के शरीरक्रियात्मक तथा संज्ञानात्मक आधारों की ही चर्चा करते रहे हैं। इस खंड में, संवेगों में संस्कृति की भूमिका का परीक्षण किया जाएगा। अध्ययनों से यह पता लगा है कि अधिकांश मूल संवेग सहज या जन्मजात होते हैं और उन्हें सीखना नहीं पड़ता। अधिकांशतः मनोवैज्ञानिक यह विश्वास करते हैं कि संवेगों, विशेषकर चेहरे की अभिव्यक्तियों के प्रबल जैविक संबंध (बंधन) होते हैं। उदाहरण के लिए, वे बालक जो जन्म से दृष्टिहीन हैं तथा जिन्होंने दूसरों को मुस्कराते हुए, या दूसरों का चेहरा भी नहीं देखा है, वे भी उसी प्रकार मुस्कराते हैं या माथे पर बल डालते हैं जिस प्रकार कि सामान्य दृष्टि वाले बालक।

किंतु विभिन्न संस्कृतियों की तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि संवेगों में अधिगम की प्रमुख भूमिका होती है। यह दो प्रकार से होता है। प्रथम, सांस्कृतिक अधिगम संवेगों के अनुभव की अपेक्षा संवेगों की अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावित करता है, उदाहरण के लिए, कुछ संस्कृतियों में मुक्त सांवेगिक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित किया जाता है, जबकि कुछ दूसरी संस्कृतियाँ, मॉडलिंग तथा प्रबलन के द्वारा व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपने संवेगों को सीमित रूप से प्रकट करना सिखाती हैं।

द्वितीय, अधिगम उन उद्दीपकों पर बहुत निर्भर करता है जो सांवेगिक प्रतिक्रियाएँ जनित करते हैं। यह प्रदर्शित किया जा चुका है कि वे व्यक्ति जो लिफ्ट, मोटर गाड़ी इत्यादि के प्रति अत्यधिक भय (दुर्भीति) प्रदर्शित करते हैं, उन्होंने यह भय मॉडल, प्राचीन अनुबंधन या परिहार अनुबंधन के द्वारा सीखे होते हैं।

संवेगों की अभिव्यक्ति

क्या आपको यह ज्ञात हो जाता है कि कब आपका मित्र प्रसन्न होता है या दुखी या तटस्थ-सा होता है? क्या वह आपकी भावनाओं को समझ पाती/पाता है? संवेग एक आंतरिक अनुभूति होता है जिसका दूसरे सीधे प्रेक्षण नहीं कर सकते। संवेगों का अनुमान उनके वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होता है। ये वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियाँ संचार माध्यम का कार्य करती हैं तथा इनके द्वारा व्यक्ति अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करने तथा दूसरों की अनुभूतियों को समझने में समर्थ होता है।


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चित्र 9.8: संवेगों की मुख द्वारा अभिव्यक्तियों के रेखाचित्र


संस्कृति एवं संवेगात्मक अभिव्यक्ति

संचार के वाचिक माध्यम में वाचिक शब्द तथा बोलने की दूसरी विशेषताएँ; जैसे- स्वरमान या पिच, तथा बोली का ऊँचापन सन्निहित हैं। भाषा की ये दूसरी अवाचिक विशेषताएँ तथा कालिक विशेषताएँ पराभाषीय कहलाती हैं। दूसरे अवाचिक माध्यमों में, चेहरे के हाव-भाव, गतिक (मुद्रा, भंगिमा तथा शरीर की गति) तथा समीपस्थ (आमने-सामने की अंतःक्रिया में भौतिक दूरी) व्यवहार भी निहित हैं। चेहरे के हाव-भावों से होने वाली अभिव्यक्ति सांवेगिक संचार का सबसे अधिक प्रचलित माध्यम है। चेहरा क्योंकि सबके समक्ष पूरी तरह अनावृत रहता है (चित्र 9.8 देखें), अतः चेहरे से अभिव्यक्त होने वाली सूचना का प्रकार तथा मात्रा आसानी से समझ में आ जाती है। व्यक्ति के संवेगों का सुखद या दुखद होना तथा उनकी तीव्रता चेहरे के हाव-भाव से आसानी से प्रकट हो जाती है। मुख की अभिव्यक्ति हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। डारविन (Darwin) के इस मत को पुष्ट करने वाले कुछ शोध प्रमाण प्राप्त होते हैं, जैसे कि मूल संवेगों (basic emotions) की मुख द्वारा अभिव्यक्ति (हर्ष, भय, क्रोध, विरुचि, दुख तथा आश्चर्य) जन्मजात तथा सार्वभौम होती है।

शारीरिक गति संवेगों के संचार को और भी सरल बना देती है। क्या आप अपनी शारीरिक गति में उस समय भिन्नता महसूस कर सकते हैं जब आप क्रुद्ध होते हैं या जब आप शर्मीलापन महसूस करते हैं। थियेटर तथा नाटक बहुत ही अच्छा अवसर, यह समझने के लिए प्रदान करते हैं कि संवेगों के संचार में शारीरिक गति का क्या प्रभाव होता है। चेष्टा तथा समीपस्थ व्यवहाराें की भूमिका भी इस संबंध में महत्वपूर्ण है। आपने अवश्य देखा होगा कि भारतीय शास्त्रीय नृत्यों; जैसे- भरतनाट्यम, ओडिसी, कुचीपुड़ी, कत्थक तथा अन्य, में भी आँखों, टाँगों तथा उँगलियों की क्रिया द्वारा कैसे संवेग अभिव्यक्त होते हैं। नृत्यांगनाओं/नर्तकों को हर्ष, दुख, प्रेम, क्रोध तथा अन्य प्रकार के संवेगों की अभिव्यक्ति के लिए शरीर की गति तथा अवाचिक संचार के नियमों का कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है।

यह ज्ञात है कि संवेगों में अंतर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा प्रभावित होती हैं। सम्प्रति शोध विशेष रूप से इस प्रश्न पर केंद्रीकृत है कि संवेगों में कितनी सर्वव्यापकता या सांस्कृतिक विशिष्टता पाई जाती है। इनमें से अधिकांश शोध मुख की अभिव्यक्तियों पर किए गए हैं क्योंकि मुख का प्रेक्षण सरलता से किया जा सकता है, वह जटिलताओं से अपेक्षाकृत मुक्त होता है तथा वह संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव तथा प्रकट अभिव्यक्ति के बीच एक कड़ी का कार्य करता है। किंतु फिर भी इस बात पर बल देना आवश्यक है कि संवेग केवल मुख द्वारा ही अभिव्यक्त नहीं होते। एक अनुभव किया हुआ संवेग अन्य अवाचिक माध्यमों; जैसे- टकटकी लगा कर देखने, चेष्टा, पराभाषा तथा समीपस्थ व्यवहार इत्यादि से भी अभिव्यक्त होता है। चेष्टा (शरीर भाषा) के द्वारा व्यक्त संवेगात्मक अर्थ एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में भिन्न होता है। उदाहरण के लिए, चीन में ताली बजाना आकुलता या निराशा का सूचक है तथा क्रोध को हँसी के द्वारा व्यक्त किया जाता है। मौन भी विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न अर्थ व्यक्त करता है। उदाहरण के लिए, भारत में गहरे संवेग कभी-कभी मौन द्वारा अभिव्यक्त किए जाते हैं। जबकि पाश्चात्य देशों में यह व्याकुलता या लज्जा को व्यक्त कर सकता है। टकटकी लगा कर देखने में भी सांस्कृतिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। यह भी देखा गया है कि लैटिन अमरीकी तथा दक्षिण यूरोपीय लोग अंतःक्रिया कर रहे व्यक्ति की आँखों में टकटकी लगा कर देखते हैं। जबकि एशियाई लोग, विशेषकर भारतीय तथा पाकिस्तानी मूल के लोग, किसी अंतःक्रिया के दौरान दृष्टि को परिधि (अंतःक्रिया करने वाले से दूर से दृष्टिपात) पर केंद्रित करते हैं। संवेगात्मक आदान-प्रदान के दौरान, शारीरिक दूरी (सान्निध्य) विभिन्न प्रकार के संवेगात्मक अर्थों को व्यक्त करती है। उदाहरण के लिए, अमरीकी लोग अंतःक्रिया करते समय बहुत निकट नहीं आना चाहते; जबकि भारतीय लोग नज़दीकी का प्रत्यक्षण आरामदेह स्थिति के रूप में करते हैं। वास्तव में, कम दूरी में छूना या स्पर्श करना संवेगात्मक उष्णता या सहृदयता का परिचायक समझा जाता है। उदाहरण के लिए, यह पाया गया कि अरबी मूल के लोग उन उत्तर अमरीकी लोगों के प्रति विमुखता महसूस करते हैं जो अंतःक्रिया के दौरान सूँघने की दूरी (अत्यधिक निकट) के बाहर रह कर ही अंतःक्रिया करना पसंद करते हैं।

क्रियाकलाप 9.3

सांवेगिक अभिव्यक्तियाँ अपनी तीव्रता तथा विविधता में भिन्न होती हैं। आप अपने खाली समय में अखबारों तथा पत्रिकाओं से जितने संभव हों, दूसरे व्यक्तियों के चित्रों, जिनमें विविध संवेग अभिव्यक्त हो रहे हों, को एकत्रित कीजिए। प्रत्येक चित्र को एक गत्ते पर चिपका कर चित्र-कार्ड बनाइए। आप विभिन्न संवेगों को अभिव्यक्त करने वाले चित्र-कार्डों का एक सेट तैयार कर सकते हैं। अपने कुछ मित्रों को भी इस क्रियाकलाप में लगाइए। अब अपने मित्रों को यह कार्ड एक-एक करके दिखाइए तथा उनसे प्रत्येक अभिव्यक्त हो रहे संवेग को पहचानने को कहिए। उनकी अनुक्रियाओं को लिखिए तथा देखिए कि वे परस्पर एक-दूसरे से एक ही संवेग को लेबल करने में कितने भिन्न हैं। आप इन चित्रों को श्रेणीबद्ध भी कर सकते हैं, इस प्रकार की श्रेणियाँ लेते हुए, जैसे- विध्यात्मक-निषेधात्मक, तीव्र एवं सूक्ष्म संवेग इत्यादि। यह देखिए कि लोग एक ही संवेग को अभिव्यक्त करने में परस्पर एक-दूसरे से कैसे भिन्न हैं। इन भिन्नताओं के क्या कारण हो सकते हैं? कक्षा में चर्चा कीजिए।

संस्कृति एवं संवेगों का नामकरण

मूल संवेग, श्रेणीगत नामों या लेबल तथा विस्तारण में भी परस्पर भिन्न होते हैं। टाहिटी भाषा में अंग्रेजी के शब्द ‘क्रोध’ के लिए 46 लेबल या नाम हैं। जब उत्तरी अमरीकियों से मुक्त रूप से लेबल लगाने को कहा गया तो क्रोध अभिव्यक्त करने वाले चेहरे के लिए उन्होंने 40 लेबल दिए, तथा अवमानना अभिव्यक्त करने वाले चेहरे को देख कर 81 लेबल दिए। जापानियों ने विभिन्न संवेग अभिव्यक्त करने वाले चेहरों को देखकर भिन्न-भिन्न लेबल प्रस्तुत किए। प्रसन्नता अभिव्यक्त करने वाले चेहरे को देखकर (10 लेबल), क्रोध (8 लेबल), तथा घृणा (6 लेबल) के लिए लेबल की मात्रा अलग-अलग थी। प्राचीन चीनी साहित्य में सात संवेगों का उल्लेख है, जिनके नाम हैं - हर्ष, क्रोध, दुख, भय, प्रेम, नापसंद तथा पसंद। प्राचीन भारतीय साहित्य में आठ प्रकार के संवेगों को चिह्नित किया गया है, जिनके नाम हैं - प्रेम, आमोद-प्रमोद, ऊर्जा, आश्चर्य, क्रोध, शोक, घृणा, तथा भय। पाश्चात्य साहित्य में कुछ संवेग; जैसे - प्रसन्नता, दुख, भय, क्रोध तथा घृणा को एकसमान रूप से मनुष्यों के लिए मूल समझा जाता है। जबकि कुछ अन्य संवेग; जैसे- आश्चर्य, अवमानना, शर्म तथा अपराध बोध को सबके लिए मूल नहीं समझा जाता है।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि कुछ मूल संवेग, सभी लोगों द्वारा अभिव्यक्त किए जाते और समझे जाते हैं चाहे उनमें नृजाति या संस्कृति के आधार पर कितने भी अंतर हों तथा कुछ संवेग किसी संस्कृति विशेष के लिए विशिष्ट होते हैं। यह याद रखना आवश्यक है कि संवेगों की सभी प्रक्रियाओं में संस्कृति की विशेष भूमिका है। संवेगों की अभिव्यक्ति तथा अनुभूति दोनों ही संस्कृति विशेष के ‘प्रदर्शन नियमों’ के द्वारा प्रभावित होती हैं जो कि उनकी मध्यस्थता एवं रूपांतरण दोनों करती हैं। अर्थात उन दशाओं की सीमा तय करती हैं जिनमें संवेगों की अभिव्यक्ति की जा सकती है तथा जितनी तीव्रता से वे प्रदर्शित किए जाते हैं।

निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन

कोई एेसा दिन जीने का प्रयास कीजिए जब आपने किसी संवेग का अनुभव न किया हो। आप शीघ्र ही समझ जाएँगे कि एेसे जीवन की कल्पना करना ही कठिन है जिसमें संवेग न हों। संवेग हमारे दैनिक जीवन तथा अस्तित्व के अंश हैं। वे हमारे जीवन के ताने-बाने तथा अंतर्वैयक्तिक संबंधों को बनाते हैं।
संवेग एक सांतत्यक के अंश हैं। किसी संवेग को अनेक तीव्रताओं पर अनुभव किया जा सकता है। आप थोड़ी-सी प्रसन्नता या उल्लास का, थोड़ा विचार-मग्नता या शोकाकुलता का अनुभव कर सकतेे हैं। यद्यपि हममें से अधिकांश लोग संवेगों में संतुलन बनाए रखने में सफल होते हैं।
जब द्वंद्वात्मक परिस्थिति होती है तो व्यक्ति उसके साथ समायोजन करने का प्रयास करते हैं तथा सामना करने के लिए या तो कार्योन्मुख या रक्षा-उन्मुख उपाय अपनाते हैं। ये समायोजी उपाय उन्हें कुछ असामान्य संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं; जैसे- दुशि्ंचता, अवसाद इत्यादि को करने से रोकते हैं। दुशि्ंचता (anxiety) वह दशा है जो व्यक्ति उपयुक्त अहं रक्षा को न अपनाने के कारण हुई असफलता की स्थिति में विकसित कर लेता है। उदाहरण के लिए, यदि व्यक्ति अपने किसी अनैतिक कार्य (जैसे- नकल या धोखाधड़ी या चोरी करना) को तर्कसंगत ठहराने के रक्षा उपाय में असफल हो जाता है, तो वह इस कार्य के परिणामों के बारे में तीव्र आशंका से ग्रस्त हो जाता है। दुशि्ंचतित व्यक्तियों को ध्यान केंद्रित करने में तथा तुच्छ विषय पर भी निर्णय लेने में अत्यंत कठिनाई का अनुभव होता है।
अवसाद की स्थिति, व्यक्ति के तर्कसंगत सोचने की, वास्तविकता का अनुभव करने की तथा सक्षम रूप से कार्य करने की योग्यता पर विषम प्रभाव डालती है। वह व्यक्ति की मनोदशा को पूर्णतः अभिभूत कर देती है। अवसाद क्योंकि दीर्घकाल तक चलता है, अतः अवसादग्रस्त व्यक्ति में अनेक लक्षण विकसित हो जाते हैं; जैसे- नींद आने में कठिनाई, मनःचालित क्षोभ या मंदन में वृद्धि होना, सोचने या ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, तथा सामाजिक एवं वैयक्तिक क्रियाकलापों में नीरसता अनुभव करना, इत्यादि।

बॉक्स 9.4 अभिघातज उत्तर दबाव विकार

कोई आपदा, मानव समाज की क्रियाओं में गंभीर व्यवधान उत्पन्न कर देती है जिससे विस्तृत भौतिक एवं पर्यावरणी नुकसान होता है, इसकी भरपाई उपलब्ध संसाधनों से तत्काल संभव नहीं होती। यह आपदा प्राकृतिक (जैसे- भूकंप/तूफान/सुनामी) हो सकती है, या मनुष्य-निर्मित (जैसे- युद्ध) हो सकती है। इन आपदाओं में व्यक्ति जो मानसिक अभिघात अनुभव करता है वह केवल उनके प्रत्यक्षण से लेकर उनका सामना करने तक कुछ भी हो सकता है, जो जीवन के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर सकता है। इनमें से कोई भी दशा अभिघातज उत्तर दबाव विकार उत्पन्न कर सकती है, जहाँ व्यक्ति उन अभिघात पहुँचाने वाले अनुभवों को बारंबार अनैच्छिक रूप से सोचता है, वे पूर्व दृश्य बार-बार उसके मन में कौंध जाते हैं तथा काफी समय बीत जाने पर भी उस घटना से संबंधित विचार उसे भयंकर रूप से ग्रस्त किए रहते हैं। यह स्थिति व्यक्ति को सांवेगिक रूप से व्याकुल करती रहती है तथा व्यक्ति दैनिक जीवन की नियमित क्रियाओं के लिए उपयुक्त साधक युक्तियाँ विकसित नहीं कर पाता। विशिष्ट एवं पहचाने जा सकने वाले कुसमायोजित व्यवहारों (जैसे- अवसाद) तथा स्वायत्त उद्वेलन के स्वरूप में संवेग प्रकट होते हैं।

दैनिक जीवन में हम अक्सर द्वंद्वात्मक परिस्थितियों का सामना करते हैं। कठिन और दबावमय परिस्थितियों में किसी व्यक्ति में बहुत से निषेधात्मक संवेग; जैसे- भय, दुशि्ंचता, विरुचि इत्यादि विकसित हो जाते हैं। यदि इस प्रकार के निषेधात्मक संवेगों को लंबे समय तक चलते रहने दिया जाए, तो वे व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकते हैं। यही कारण है कि अधिकांश दबाव प्रबंधन के कार्यक्रम, संवेगों के प्रबंधन को दबाव प्रबंधन के लिए आवश्यक मानते हैं। संवेग प्रबंधन का फोकस निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि करने पर होता है।
यद्यपि अधिकांश शोधकर्ताओं का फोकस निषेधात्मक संवेगों; जैसे- क्रोध, भय, दुशि्ंचता इत्यादि रहा है किंतु निकट समय में ‘विध्यात्मक मनोविज्ञान’ के क्षेत्र ने उत्कर्ष हासिल किया है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, विध्यात्मक मनोविज्ञान का सरोकार उन विशेषताओं के अध्ययन से है जो जीवन को वैभवशाली बनाती हैं; जैसे- भरोसा, प्रसन्नता, सर्जनात्मकता, साहस, आशावादिता, उल्लास इत्यादि।

बॉक्स 9.5 परीक्षा-दुशि्ंचता का प्रबंधन

हममें से अधिकांश लोगों को परीक्षा के निकट आने पर पेट में मंथन तथा दुशि्ंचता का अनुभव होने लगता है। वस्तुतः अधिकांश व्यक्तियों के लिए कोई भी वह परिस्थिति जहाँ उन्हें निष्पादन करना है तथा उन्हें ज्ञात है कि उनके निष्पादन का मूल्यांकन किया जाना है, एक दुशि्ंचता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति होती है। एक स्तर तक तो दुशि्ंचता का होना आवश्यक है क्योंकि वह हमें अभिप्रेरित करती है कि हम अपना सर्वोत्तम निष्पादन करें किंतु दुशि्ंचता का उच्च स्तर इष्टतम निष्पादन तथा उपलब्धि में बाधक होता है। दुशि्ंचतित व्यक्ति, शारीरिक एवं संवेगात्मक रूप से प्रबल रूप से उद्वेलित होता है और इसीलिए अपनी योग्यता के उच्चतम स्तर पर निष्पादन नहीं कर पाता।
परीक्षा एक दबाव जनित करने की संभावना वाली परिस्थिति है तथा दूसरी दबावमय परिस्थितियों की तरह उसका सामना दो प्रकार की युक्तियों द्वारा किया जा सकता है, परिवीक्षण अथवा प्रभावोत्पादक क्रिया तथा भोथरा या कुंद हो जाना या परिस्थिति से पलायन।
परिवीक्षण या मॉनीटरिंग के अंतर्गत दबावमय स्थिति से निपटारा करने के लिए सीधे तथा प्रभावी क्रिया की आवश्यकता होती है। निम्नलिखित युक्तियों के द्वारा परिवीक्षण किया जा सकता है:
  • अच्छी तैयारी: परीक्षा की अच्छी तैयारी कीजिए तथा समय से पूर्व तैयारी कीजिए। अपने आपको पर्याप्त समय दीजिए। अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों तथा प्रश्न-पत्रों के स्वरूप से परिचित हो जाइए। इससे आपको नियंत्रण एवं पूर्वानुमान का बोध होगा तथा परीक्षा के कारण दबाव की संभाव्यता में कमी आएगी।
  • पूर्वाभ्यास कीजिए: आप स्वयं एक बनावटी परीक्षा दीजिए। अपने मित्र से कहिए कि वह आपके ज्ञान की परीक्षा ले। आप मानसिक रूप से कल्पना में भी पूर्वाभ्यास कर सकते हैं। कल्पना में अपने आपको पूरी तरह शांत होकर एवं विश्वास से भर कर परीक्षा देते हुए देखिए तथा फिर कल्पना कीजिए कि आप उत्तम श्रेणी से सफल हुए हैं।
  • प्रतिरोधक टीका लगाना: दबाव के लिए अपना टीकाकरण कीजिए। पूर्वाभ्यास तथा भूमिका निर्वहन के द्वारा आप परीक्षा की परिस्थिति का सामना करने के लिए शारीरिक तथा मानसिक रूप से अधिक तैयार हो सकते हैं तथा उसका सामना अधिक विश्वास के साथ कर सकते हैं
  • सकारात्मक चिंतन: अपने आप पर भरोसा कीजिए। अपने विचारों को व्यवस्थित कीजिए। उन विचारों को, जो आपको चिंतित करते हैं क्रमवार व्यवस्थित कीजिए और फिर एक-एक करके उनका समाधान कीजिए। अपनी प्रबलताओं और क्षमताओं पर अधिक ज़ोर दीजिए। अपने आपको विध्यात्मक सोच और उत्साह बनाए रखने के लिए प्रेरित कीजिए।
  • आलंब (सहारा) ढूँढ़िए: अपने मित्रों, माता-पिता, शिक्षकों या अपने से वरिष्ठ जनों से सहायता माँगने में मत हिचकिचाइए। अपने किसी निकट व्यक्ति के साथ दबावमय परिस्थिति के विषय में बातचीत करने से बोझ हलका लगने लगता है तथा व्यक्ति को अंतर्दृष्टि विकसित करने में सहायता मिलती है। हो सकता है परिस्थिति उतनी खराब न हो जितनी प्रतीत हो रही थी।
दूसरी ओर, भोथरी करने वाली युक्तियों में पलायन पर बल रहता है। यह सही है कि परीक्षा की स्थिति में न तो पलायन वांछनीय है, न संभव ही है, फिर भी निम्नलिखित युक्तियाँ उपयोगी सिद्ध हो सकती हैंः
  • विश्राम करिए: शिथिल होकर विश्राम करना सीखिए। विश्राम की तकनीकें आपको शांत करती हैं तथा अपने विचारों को पुनःगठित करने का अवसर प्रदान करती हैं। विश्राम की कई तकनीकें हैं। सामान्यतः, इसके अंतर्गत किसी शांत जगह में आराम से बैठना या लेटना होता है, मांसपेशियों को ढीला छोड़ कर, बाह्य उत्तेजनाओं को कम करते हुए तथा विचार शृंखला को भी कम करते हुए फोकस करना होता है।
  • व्यायाम: दबावमय स्थिति अनुकंपी तंत्रिका तंत्र को अति उत्तेजित कर देती है। इसके द्वारा उत्पन्न ऊर्जा को व्यायाम द्वारा दूसरे माध्यम की ओर मोड़ा जा सकता है। कुछ अवधि का हलका व्यायाम या खेल आपको अपना ध्यान अपनी पढ़ाई पर केंद्रित करने में सहायता देगा।

आधुनिक काल में सफल संवेग प्रबंधन ही प्रभावी सामाजिक प्रबंधन की कुंजी है। निम्नलिखित युक्तियाँ सम्भवतः संवेगों के वांछित संतुलन बनाए रखने के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी।
  • आत्म-जागरूकता को बढ़ाइए: अपने संवेगों और अनुभूतियों को जानिए, उनके प्रति जागरूक होइए। अपनी अनुभूतियों के ‘क्यों’ तथा ‘कैसे’ के बारे में अंतर्दृष्टि विकसित कीजिए।
  • परिस्थिति का वास्तविकता पूर्ण आकलन कीजिए: यह मत प्रतिपादित किया गया है कि संवेग के पूर्व घटना का मूल्यांकन किया जाता है। यदि घटना का अनुभव बाधा पहुँचाने वाला होता है, तो आपका अनुकंपी तंत्रिका-तंत्र उद्वेलित हो जाता है तथा आप दबाव का अनुभव करने लगते हैं। यदि आप घटना का अनुभव बाधा पहुँचाने वाले के रूप में नहीं करते तो कोई दबाव भी नहीं होता। अतः वस्तुतः आप ही यह निर्णय करते हैं कि दुखी और दुशि्ंचतित अनुभव करें या प्रसन्न और शांत।
  • आत्म-परिवीक्षण कीजिए: इसके अंतर्गत, सतत या समय-समय पर अपनी पूर्व उपलब्धियों, संवेगात्मक और शारीरिक दशा, तथा वास्तविक एवं प्रतिस्थानिक अनुभवों का मूल्यांकन शामिल है। एक सकारात्मक मूल्यांकन आपके स्वयं पर विश्वास की वृद्धि करेगा तथा कल्याण एवं संतोष की भावना बढ़ाएगा।
  • आत्म-प्रतिरूपण का निर्माण कीजिए: स्वयं अपना आदर्श बनिए। अपने पुराने अच्छे निष्पादन का बार-बार प्रेक्षण कीजिए तथा उनका उपयोग भविष्य के लिए प्रेरणा और अभिप्रेरणा के रूप में और भी बेहतर निष्पादन के लिए कीजिए।
  • प्रात्यक्षिक पुनर्व्यवस्था तथा संज्ञानात्मक पुनर्रचना: घटनाओं के दूसरे पहलू का निरीक्षण कीजिए तथा सिक्के के दूसरे पहलू पर भी ध्यान दीजिए। अपने विचारों का पुनर्गठन, विध्यात्मक तथा संतोष प्रदान करने वाली अनुभूतियों में वृद्धि करने तथा निषेधात्मक विचारों का परिहार करने के लिए कीजिए।
  • सर्जनात्मक बनिए: कोई रुचि या शौक विकसित कीजिए। किसी एेसी क्रिया, जो आपकी रुचि की है तथा आपका मनोरंजन करती है, मेें भाग लीजिए।
  • अच्छे संबंधों को विकसित कीजिए तथा पोषण कीजिए: अपने मित्रों का चयन संभाल कर कीजिए। यदि आपके मित्र प्रसन्न और हर्षित होंगे तो उनके साथ सामान्यतः आप भी प्रसन्न रहेंगे।
  • तदनुभूति रखिए: दूसरों की भावनाओं को समझने का प्रयास कीजिए। अपने संबंधों को अर्थपूर्ण तथा मूल्यवान बनाइए। पारस्परिक रूप से सहायता माँग भी लीजिए और दीजिए भी।
  • सामुदायिक सेवा में भागीदारी कीजिए: दूसरों की सहायता करके अपनी सहायता कीजिए। सामुदायिक सेवा (उदाहरण के लिए, किसी बौद्धिक रूप से चुनौतीपूर्ण बालक को कोई अनुकूली कौशल सीखने में सहायता कीजिए) करने से आपको अपनी कठिनाइयों के विषय में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी।

क्रियाकलाप 9.4

निकट समय में आपने जो तीव्र संवेगात्मक अनुभव किया हो उसके बारे में सोचिए तथा घटनाक्रम की व्याख्या कीजिए। आपने उसका निस्तारण कैसे किया? अपनी कक्षा में उसकी चर्चा कीजिए।

आपके क्रोध का प्रबंधन

क्रोध एक निषेधात्मक संवेग है। यह मन को कहीं और खींच ले जाता है, या दूसरे शब्दों में क्रोध की दशा में व्यक्ति का नियंत्रण अपने व्यवहारात्मक कार्यों पर नहीं रहता। क्रोध का प्रमुख स्रोत अभिप्रेरकों का कुंठित होना है। किंतु, क्रोध कोई प्रतिवर्त नहीं है, बल्कि यह हमारी सोच का परिणाम है। न तो यह स्वचालित है और न ही नियंत्रण के परे है, और न ही यह दूसरों के द्वारा उत्पन्न होता है। यह व्यक्ति के द्वारा चयनित विकल्प के द्वारा उत्पन्न होता है, क्योंकि क्रोध आपके अपने चिंतन के द्वारा उत्पन्न होता है इसलिए उसका नियंत्रण भी आपके विचारों के द्वारा ही किया जा सकता है। क्रोध प्रबंधन में कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं:
  • अपने विचारों की शक्ति को पहचानें।
  • जान लीजिए कि आप, अकेले आप ही इसे नियंत्रित कर सकते हैं।
  • एेसा ‘आत्म-संवाद’ ना कीजिए जो आपको जला कर रख दे। निषेधात्मक भावनाओं को बढ़ा कर अतिरंजित मत कीजिए।
  • दूसरों के व्यवहारों के पीछे इरादों तथा गुप्त अभिप्रेरकों का आरोपण मत कीजिए।
  • दूसरे व्यक्तियों तथा घटनाओं के संबंध में अतार्किक विश्वासों को मत पनपने दीजिए।
  • अपने क्रोध को व्यक्त करने के लिए रचनात्मक तरीके ढूँढ़िए। अपने क्रोध की अभिव्यक्ति की मात्रा तथा अवधि को नियंत्रित कीजिए।
  • क्रोध के नियंत्रण के लिए अपने भीतर झाँकिए न कि बाहर।
  • परिवर्तन लाने के लिए स्वयं को समय दीजिए। किसी आदत में परिवर्तन लाने में प्रयास और समय लगाना पड़ता है।

विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि

हमारे संवेगों का एक उद्देश्य होता है। वे हमें निरंतर परिवर्तनशील पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने में सहायता करते हैं तथा उनका महत्त्व हमारे अस्तित्व तथा कल्याण के लिए है। निषेधात्मक संवेग; जैसे- भय, क्रोध या विरुचि हमें मानसिक तथा शारीरिक रूप से एेसे उद्दीपक जो चुनौतीपूर्ण हैं, के प्रति तत्काल क्रिया करने के लिए तैयार करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि भय न होता तो हम विषधारी सर्प को हाथ में पकड़ लेते। यद्यपि निषेधात्मक संवेग इस प्रकार की परिस्थितियों में हमें सुरक्षा प्रदान करते हैं, किंतु एेसे संवेगों का अत्यधिक अथवा अनुप्रयुक्त उपयोग हमारे जीवन के लिए संकट उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि यह हमारी प्रतिरोधक प्रणाली को क्षति पहुँचा सकता है तथा हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है।

विध्यात्मक संवेग; जैसे- भरोसा, हर्ष, आशावाद, संतोष, और आभार हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं तथा हमारे भीतर संवेगात्मक कल्याण के भाव को जगाते हैं। जब हम विध्यात्मक संवेगों का अनुभव करते हैं तब हम विविध प्रकार के विचारों तथा संक्रियाओं के लिए स्वीकारोक्ति प्रदर्शित करते हैं। जो भी समस्याएँ हमारे समक्ष हों उनसे निपटने के लिए हम अधिक संभाव्यताओं तथा विकल्पों को सोच सकते हैं, इस प्रकार हम अग्रलक्षी हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि जिन लोगों को क्रोध तथा भय उत्पन्न करने वाली फिल्में दिखाई गईं, उनकी अपेक्षा उन व्यक्तियों ने, जिन्हें हर्ष एवं संतोष प्रदर्शित करने वाली फिल्में दिखाई गईं, एेसे कार्यों के बारे में अधिक विचार अभिव्यक्त किए जिन्हें वे कार्यरूप देना चाहेंगे। विध्यात्मक संवेग हमें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने तथा जल्दी से सामान्य स्थिति में लौटने के लिए अधिक योग्यता प्रदान करते हैं। वे हमारी दीर्घ-कालिक योजनाएँ तथा लक्ष्य निर्धारित करने में तथा नए संबंधों का निर्माण करने में सहायता करते हैं। विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि के लिए कुछ उपाय आगे दिए गए हैं।

बॉक्स 9.6 सांवेगिक बुद्धि

संवेगों की अभिव्यक्ति, स्वयं अपने तथा दूसरों के लिए, उनके नियमन पर निर्भर करती है। वे व्यक्ति जो अपने तथा दूसरों के संवेगों के प्रति जागरूक होते हैं तथा तदनुसार उनका नियमन कर लेते हैं, वे सांवेगिक रूप से बुद्धिमान कहे जाते हैं। जो लोग एेसा नहीं कर पाते वे विसामान्य हो जाते हैं तथा अपसामान्य प्रतिक्रिया करते हैं, जिससे अनेक प्रकार की मनोविकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
सांवेगिक बुद्धि से हम समझते हैं, ‘वह योग्यता जिसके द्वारा स्वयं अपने तथा दूसरों के संवेगों का परिवीक्षण किया जाए, उनमें विभेदन किया जा सके तथा उस सूचना का उपयोग अपने चिंतन तथा क्रियाओं को निर्देशित करने के लिए किया जा सके’ (मेयर तथा सैलोवी, 1999)। सांवेगिक बुद्धि के संप्रत्यय में, व्यक्ति के भीतर तथा अंतर्वैयक्तिक दोनों प्रकार के तत्व अंतर्निहित हैं। व्यक्ति के भीतर के तत्वों में एेसे कारक अंतर्निहित हैं; जैसे- आत्म-जागरूकता (अपनी निषेधात्मक संवेगों तथा आवेगों को नियंत्रित रखने की योग्यता) तथा स्व-अभिप्रेरणा (गतिरोध के बाद भी उपलब्धि अंतर्नोद, लक्ष्य प्राप्ति के लिए कौशलों को विकसित करना, तथा अवसर मिलने पर कार्य प्रारंभ करना)। सांवेगिक बुद्धि के अंतर्वैयक्तिक तत्वों में दो अंश अंतर्निहित हैं: सामाजिक जागरूकता (दूसरों की भावनाओं के प्रति जागरूकता तथा उनके महत्त्व को समझना) तथा सामाजिक सक्षमता (वे सामाजिक कौशल जिनके द्वारा दूसरों के साथ समायोजन किया जा सकता है, जैसे कि टीम या दल का निमार्ण, द्वंद्व प्रबंधन, संप्रेषण कौशल इत्यादि)।

  • व्यक्तित्व विशेष गुण; जैसे- आशावाद, भरोसा करना, प्रसन्नता, तथा विध्यात्मक आत्ममान।
  • भयंकर परिस्थितियों में भी विध्यात्मक अर्थ खोजना।
  • दूसरों के साथ उत्कृष्ट संबंध तथा निकट संबंधों का समर्थक जाल या नेटवर्क रखना।
  • काम-काज तथा प्रवीणता उपलब्ध करने में व्यस्त रहना।
  • विश्वास जिसमें सामाजिक आलंब, उद्देश्य तथा आशा, और उद्देश्यपूर्ण जीवनयापन सम्मिलित हो।
  • अधिकांश दैनिक घटनाओं की विध्यात्मक व्याख्याएँ।

प्रमुख़ पद 

गलतुंडिका, दुशि्ंचता, उद्वेलन, मूल संवेग, जैविक आवश्यकताएँ (भूख, प्यास, काम), केंद्रीय तथा स्वायत्त तंत्रिका तंत्र, द्वंद्व, सांवेगिक बुद्धि, सम्मान संबंधी आवश्यकताएँ, परीक्षा-दुशि्ंचता, संवेगों की अभिव्यक्ति, कुंठा, आवश्यकताओं का पदानुक्रम, अभिप्रेरणा, अभिप्रेरक, आवश्यकता, शक्ति अभिप्रेरक, मनोसामाजिक अभिप्रेरक, आत्मसिद्धि, आत्म-सम्मान।

सारांश

  • किसी विशेष लक्ष्य की ओर निर्दिष्ट सतत व्यवहार की प्रक्रिया, जो किन्हीं अंतर्नोद शक्तियों का नतीजा होती है, को अभिप्रेरणा कहते हैं।
  • अभिप्रेरणाएँ दो प्रकार की होती हैं - जैविक तथा मनोसामाजिक।
  • जैविक अभिप्रेरणा में फोकस, अभिप्रेरणा के सहज या जन्मजात, जैविक कारकों; जैसे- हार्मोन, तंत्रिका-संचारक, मस्तिष्क संरचना अधश्चेतक, उपवल्कुटीय तंत्र इत्यादि पर केंद्रित होता है। जैविक अभिप्रेरणा के उदाहरण हैं, भूख, प्यास तथा काम।
  • मनोसामाजिक अभिप्रेरणा उन अभिप्रेरकों की व्याख्या करती है जो प्रमुखतः व्यक्ति के उसके सामाजिक पर्यावरण के साथ अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। मनोसामाजिक अभिप्रेरकों के उदाहरण, संबंधन की आवश्यकता, उपलब्धि की आवश्यकता, जिज्ञासा एवं अन्वेषण, तथा शक्ति की आवश्यकता हैं।
  • मैस्लो ने विभिन्न मानव आवश्यकताओं को आरोही पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है, जो मूल शरीरक्रियात्मक आवश्यकताओं से प्रारंभ होकर, फिर सुरक्षा की आवश्यकताएँ, प्रेम तथा आत्मीयता की आवश्यकताएँ, सम्मान की आवश्यकताएँ और अंत में सबसे ऊपर आत्म-सिद्धि की आवश्यकताओं तक विस्तृत हैं।
  • अभिप्रेरणा से संबंधित अन्य संप्रत्यय कुंठा तथा द्वंद्व हैं।
  • संवेग उद्वेलन का एक जटिल स्वरूप है जिसमें शरीरक्रियात्मक सक्रियकरण, अनुभूतियों के प्रति चेतन जागरूकता, तथा एक विशिष्ट संज्ञानात्मक लेबल जो इस प्रक्रिया की व्याख्या करते हैं, अंतर्निहित हैं।
  • कुछ संवेग मूल होते हैं; जैसे- हर्ष, क्रोध, दुःख, आश्चर्य, भय आदि। दूसरे संवेगों का अनुभव इन संवेगों के संयोजन के कारण होता है।
  • संवेगों के नियमन में केंद्रीय तथा स्वायत्त तंत्रिका तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • संवेगों की अभिव्यक्ति तथा व्याख्या में संस्कृति पूरी शक्ति से प्रभाव डालती है।
  • संवेग वाचिक और अवाचिक माध्यमों से अभिव्यक्त होते हैं।
  • शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक कल्याण के लिए संवेगों का सफल प्रबंधन महत्वपूर्ण है।


समीक्षात्मक प्रश्न

  1. अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
  2. भूख तथा प्यास की आवश्यकताओं के जैविक आधार क्या हैं?
  3. किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताएँ कैसे प्रभावित करती हैं? उदाहरणों के साथ समझाइए।
  4. मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार क्या हैं? उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से व्याख्या कीजिए।
  5. क्या शरीरक्रियात्मक उद्वेलन सांवेगिक अनुभव के पूर्व या पश्चात घटित होता है? व्याख्या कीजिए।
  6. क्या संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उनको समझने के लिए महत्वपूर्ण है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
  7. संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है?
  8. निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन क्यों महत्वपूर्ण है? निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय सुझाइए।


परियोजना विचार

  1. मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम का उपयोग करते हुए विश्लेषण कीजिए कि महान गणितज्ञ एस.ए. रामानुजन तथा महान संगीताचार्य शहनाई वादक उस्ताद बिसमिल्लाह खान (भारत रत्न) को अपने-अपने क्षेत्रों में अति विशिष्ट निष्पादन के लिए किस प्रकार की अभिप्रेरक शक्तियों ने अभिप्रेरित किया होगा। अब अपने आपको तथा पाँच अन्य प्रसिद्ध व्यक्तियों को आवश्यकता संतुष्टि की परिस्थिति में रखिए। चिंतन और चर्चा कीजिए।
  2. बहुत से घरों में लोग बिना नहाए भोजन नहीं करते तथा धार्मिक व्रत रखते हैं। आपकी भूख तथा प्यास की अभिव्यक्ति को विभिन्न सामाजिक रीतिरिवाजों ने कैसे प्रभावित किया है? विभिन्न पृष्ठभूमि के पाँच लोगों पर सर्वेक्षण करके एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।