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रघुवीर सहाय

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जन्मः सन् 1929, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

प्रमुख रचनाएँः अज्ञेय द्वारा संपादित दूसरा सप्तक (1951)में, आरंभिक कविताएँ, महत्त्वपूर्ण काव्य-संकलन सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो-हँसो जल्दी हँसो

पत्रकारिताः अॉल इंडिया रेडियो के हिंदी समाचार विभाग से संबद्ध रहे, फिर हैदराबाद से निकलने वाली पत्रिका कल्पना और उसके बाद दैनिक नवभारत टाइम्स तथा दिनमान से संबद्ध रहे

सम्मान साहित्य अकादेमी पुरस्कार

निधनः सन् 1990, दिल्ली में

कुछ होगा / कुछ होगा अगर मैं बोलूगाँ /

न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का / मेरे अंदर एक कायर टूटेगा

रघुवीर सहाय समकालीन हिंदी कविता के संवेदनशील ‘नागर’ चेहरा हैं। सड़क, चौराहा, दफ़तर, अखबार, संसद, बस, रेल और बाज़ार की बेलौस भाषा में उन्होंने कविता लिखी। घर-मुहल्ले के चरित्रों पर कविता लिखकर इन्हें हमारी चेतना का स्थायी नागरिक बनाया। हत्या-लूटपाट और आगज़नी, राजनैतिक भ्रष्टाचार और छल-छद्म इनकी कविता में उतरकर खोजी पत्रकारिता की सनसनीखेज रपटें नहीं रह जाते, आत्मान्वेषण का माध्यम बन जाते हैं। यह ठीक है कि पेशे से वे पत्रकार थे, लेकिन वे सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं , सिद्ध कथाकार और कवि भी थे। कविता को उन्होंने एक कहानीपन और एक नाटकीय वैभव दिया।

जातीय या वैयक्तिक स्मृतियाँ उनके यहाँ नहीं के बराबर हैं। इसलिए उनके दोनों पाँव वर्तमान में ही गड़े हैं। बावजूद इसके, मार्मिक उजास और व्यंग्य-बुझी खुरदरी मुसकानों से उनकी कविता पटी पड़ी है। छंदानुशासन के लिहाज़ से भी वे अनुपम हैं पर ज़्यादातर बातचीत की सहज शैली में ही उन्होंने लिखा और बखूबी लिखा।

बतौर पत्रकार और कवि घटनाओं में निहित विडंबना और त्रासदी को भी उन्होंने देखा। रघुवीर सहाय की कविताओं की दूसरी विशेषता है छोटे या लघु की महत्ता का स्वीकार। वे महज़ बड़े कहे जाने वाले विषयों या समस्याओं पर ही दृष्टि नहीं डालते, बल्कि जिनको समाज में हाशिए पर रखा जाता है, उनके अनुभवों को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाते हैं। रघुवीर जी ने भारतीय समाज में ताकतवरों की बढ़ती हैसियत और सत्ता के खिलाफ़ भी साहित्य और पत्रकारिता के पाठकों का ध्यान खींचा। ‘रामदास’ नाम की उनकी कविता आधुनिक हिंदी कविता की एक महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है।

अत्यंत साधारण और अनायास-सी प्रतीत होनेवाली शैली में समाज की दारुण विडंबनाओं को पकड़ने की जो कला रघुवीर सहाय की कविताओं में मिलती है, उसका प्रतिनिधि उदाहरण है यहाँ प्रस्तुत कविता कैमरे में बंद अपाहिज जो लोग भूल गये हैं संग्रह से ली गई है शारीरिक चुनौती को झेलते व्यक्ति से टेलीविज़न-कैमरे के सामने किस तरह के सवाल पूछे जाएँगे और कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए उससे कैसी भंगिमा की अपेक्षा की जाएगी–इसका लगभग सपाट तरीके से बयान करते हुए कवि ने एक तरह से पीड़ा के साथ दृश्य-संचार माध्यम के संबंध को रेखांकित किया है। किसी की पीड़ा को बहुत बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को उस पीड़ा के प्रति स्वयं संवेदनशील होने और दूसरों को संवेदनशील बनाने का दावेदार होना चाहिए। लेकिन विडंबना यह है कि आप जब पीड़ा को पर्दे पर उभारने का प्रयास करते हैं, तब कारोबारी दबाव के तहत आपका रवैया संवेदनहीन हो जाता है। सहाय जी की यह कविता टेलीविज़न स्टूडियो के भीतर की दुनिया को उभारती ज़रूर है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि इसे सिर्फ़ टेलीविज़न माध्यम से जोड़कर देखा जाए। अपनी व्यंजना में यह कविता हर एेसे व्यक्ति की ओर इशारा करती है, जो दुख-दर्द, यातना-वेदना को बेचना चाहता है।

इस कविता को शारीरिक चुनौती झेलते लोगों के प्रति संवेदनशील नज़रिया अपनाने के लिए प्रेरित करते पाठ के रूप में भी देखा जा सकता है। इसके लिए कवि ने धुर संवेदनहीनता को रेखांकित करने का तरीका अपनाया है। वह दिखलाता है कि किस तरह करुणा जगाने के मकसद से शुरू हुआ कार्यक्रम क्रूर बन जाता है।

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कैमरे में बंद अपाहिज

हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम समर्थ शक्तिवान

हम एक दुर्बल को लाएँगे

एक बंद कमरे में


उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?

तो आप क्यों अपाहिज हैं?

आपका अपाहिजपन तो दुख देता होगा

देता है?

(कैमरा दिखाओ इसे बड़ा बड़ा)

हाँ तो बताइए आपका दुख क्या है

जल्दी बताइए वह दुख बताइए

बता नहीं पाएगा


सोचिए

बताइए

आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है

कैसा

यानी कैसा लगता है

(हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या एेसा?)

सोचिए

बताइए

थोड़ी कोशिश करिए

(यह अवसर खो देंगे?)

आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते

हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे

इंतज़ार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का

करते हैं?

(यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा)

 

फिर हम परदे पर दिखलाएँगे

फूली हुई आँख की एक बड़ी तसवीर

बहुत बड़ी तसवीर

और उसके होंठों पर एक कसमसाहट भी

(आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे)

एक और कोशिश

दर्शक

धीरज रखि

देखिए

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हमें दोनों एक संग रुलाने हैं

आप और वह दोनों

(कैमरा

बस करो

नहीं हुआ

रहने दो

परदे पर वक्त की कीमत है)

अब मुसकुराएँगे हम


आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम

(बस थोड़ी ही कसर रह गई)

धन्यवाद।

 

अभ्यास

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 कविता के साथ

1. कविता में कुछ पंक्तियाँ कोष्ठकों में रखी गई हैं–आपकी समझ से इसका क्या औचित्य है?

2. कैमरे में बंद अपाहिज करुणा के मुखौटे में छिपी क्रूरता की कविता है–विचार कीजिए।

3. हम समर्थ शक्तिवान और हम एक दुर्बल को लाएँगे पंक्ति के माध्यम से कवि ने क्या व्यंग्य किया है?

4. यदि शारीरिक रूप से चुनौती का सामना कर रहे व्यक्ति और दर्शक, दोनों एक साथ रोने लगेंगे, तो उससे प्रश्नकर्ता का कौन-सा उद्देश्य पूरा होगा?

5. परदे पर वक्त की कीमत है कहकर कवि ने पूरे साक्षात्कार के प्रति अपना नज़रिया किस रूप में रखा है?


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 कविता के आसपास

1. यदि आपको शारीरिक चुनौती का सामना कर रहे किसी मित्र का परिचय लोगों से करवाना हो, तो किन शब्दों में करवाएँगी?

2. सामाजिक उद्देश्य से युक्त एेसे कार्यक्रम को देखकर आपको कैसा लगेगा? अपने विचार संक्षेप में लिखें।

3. यदि आप इस कार्यक्रम के दर्शक हैं तो टी.वी. पर एेसे सामाजिक कार्यक्रम को देखकर एक पत्र में अपनी प्रतिक्रिया दूरदर्शन निदेशक को भेजें।

4. नीचे दिए गए खबर के अंश को पढ़िए और बिहार के इस बुधिया से एक काल्पनिक साक्षात्कार कीजिए–


उम्र पाँच साल, संपूर्ण रूप से विकलांग और दौड़ गया पाँच किलोमीटर। सुनने में थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन यह कारनामा कर दिखाया है पवन ने। बिहारी बुधिया के नाम से प्रसिद्ध पवन जन्म से ही विकलांग है। इसके दोनों हाथ का पुलवा नहीं है, जबकि पैर में सिर्फ़ एड़ी ही है।

पवन ने रविवार को पटना के कारगिल चौक से सुबह 8.40 पर दौना शुरू किया। डाकबंगला रोड, तारामंडल और आर ब्लाक होते हुए पवन का सफ़र एक घंटे बाद शहीद स्मारक पर जाकर खत्म हुआ। पवन द्वारा तय की गई इस दूरी के दौरान ‘उम्मीद स्कूल’ के तकरीबन तीन सौ बच्चे साथ दौड़ कर उसका हौसला बढ़ा रहे थे। सड़क किनारे खड़े दर्शक यह देखकर हतप्रभ थे कि किस तरह एक विकलांग बच्चा जोश एवं उत्साह के साथ दौड़ता चला जा रहा है। जहानाबाद ज़िले का रहने वाला पवन नवरसना एकेडमी, बेउर में क्षा एक का छात्र है। असल में पवन का सपना उड़ीसा के बुधिया जैसा करतब दिखाने का है। कुछ माह पूर्व बुधिया 65 किलोमीटर दौड़ चुका है। लेकिन बुधिया पूरी तरह से स्वस्थ है जबकि पवन पूरी तरह से विकलांग। पवन का सपना कश्मीर से कन्याकुमारी तक की दूरी पैदल तय करने का है।

9 अक्तूबर, 2006 हिंदुस्तान से साभार

 

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