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गोस्वामी तुलसीदास
जन्मः सन् 1532, बाँदा (उत्तर प्रदेश) ज़िले के राजापुर गाँव में माना जाता है
प्रमुख रचनाएँः रामचरितमानस, विनयपत्रिका, गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, दोहावली, कवितावली, रामाज्ञा-प्रश्न
निधनः सन् 1623, काशी में
हृदय-सिंधु मति सीप समाना। स्वाती सारद कहहिं सुजाना।।
जौं बरषै बर बारि विचारू। होहिं कबित मुकुतामनी चारू।।
कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
भक्तिकाल की सगुण काव्य-धारा में रामभक्ति शाखा के सर्वोपरि कवि गोस्वामी तुलसीदास में भक्ति से कविता बनाने की प्रक्रिया की सहज परिणति है। परंतु उनकी भक्ति इस हद तक लोकोन्मुख है कि वे लोकमंगल की साधना के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यह बात न सिर्फ़ उनकी काव्य-संवेदना की दृष्टि से, वरन् काव्यभाषा के घटकों की दृष्टि से भी सत्य है। इसका सबसे प्रकट प्रमाण तो यही है कि शास्त्रीय भाषा (संस्कृत) में सर्जन-क्षमता होने के बावजूद उन्होंने लोकभाषा (अवधी व ब्रजभाषा) को साहित्य-रचना के माध्यम के रूप में चुना और बुना। जिस प्रकार उनमें भक्त और रचनाकार का द्वंद्व है, उसी प्रकार शास्त्र व लोक का द्वंद्व है; जिसमें संवेदना की दृष्टि से लोक की ओर वे झुके हैं तो शिल्पगत मर्यादा की दृष्टि से शास्त्र की ओर। शास्त्रीयता को लोकग्राह्य तथा लोकगृहीत को शास्त्रीय बनाने की उभयमुखी प्रक्रिया उनके यहाँ चलती है। यह तत्त्व उन्हें विद्वानों तथा जनसामान्य में समान रूप से लोकप्रिय बनाता है। उनकी एक अनन्य विशेषता है कि वे दार्शनिक और लौकिक स्तर के नाना द्वंद्वों के चित्रण और उनके समन्वय के कवि हैं। ‘द्वंद्व-चित्रण’ जहाँ सभी विचारभावधारा के लोगों को तुलसी-काव्य में अपनी-अपनी उपस्थिति का संतोष देता है, वहीं ‘समन्वय’ उनकी ऊपरी विभिन्नता में निहित एक ही मानवीय सूत्र को उपलब्ध करा के संसार में एकता व शांति का मार्ग प्रशस्त करता है।
तुलसीदास की लोक व शास्त्र दोनों में गहरी पैठ है तथा जीवन व जगत की व्यापक अनुभूति और मार्मिक प्रसंगों की उन्हें अचूक समझ है। यह विशेषता उन्हें महाकवि बनाती है और इसी से प्रकृति व जीवन के विविध भावपूर्ण चित्रों से उनका रचना संसार समृद्ध है, विशेषकर ‘रामचरितमानस’। इसी से यह हिंदी का अद्वितीय महाकाव्य बनकर उभरा है। इसकी विश्वप्रसिद्ध लोकप्रियता के पीछे सीताराम कथा से अधिक लोक-संवेदना और समाज की नैतिक बनावट की समझ है। उनके सीता-राम ईश्वर की अपेक्षा तुलसी के देश काल के आदर्शों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं। गोस्वामी जी ग्रामीण व कृषक संस्कृति तथा रक्त संबंध की मर्यादा पर आदर्शीकृत गृहस्थ जीवन के चितेरे कवि हैं।
तुलसीदास इस अर्थ में हिंदी के जातीय कवि हैं कि अपने समय में हिंदी-क्षेत्र में प्रचलित सारे भावात्मक व काव्यभाषायी तत्त्वोें का प्रतिनिधित्व वे करते हैं। इस संदर्भ में भाव, विचार, काव्य-रूप, छंद और काव्यभाषा की जो बहुल समृद्धि उनमें दिखती है–वह अद्वितीय है। तत्कालीन हिंदी-क्षेत्र की दोनों काव्य भाषाओं–अवधी व ब्रजभाषा तथा दोनों संस्कृति कथाओं–सीताराम व राधाकृष्ण की कथाओं को साधिकार अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। उपमा अलंकार के क्षेत्र में जो प्रयोग-वैशिष्ट्य कालिदास की पहचान है, वही पहचान सांगरूपक के क्षेत्र में तुलसीदास की है।
विविध विषमताओं से ग्रस्त कलिकाल तुलसी का युगीन यथार्थ है, जिसमें वे कृपालु प्रभु राम व रामराज्य का स्वप्न रचते हैं। युग और उसमें अपने जीवन का न सिर्फ़ उन्हें गहरा बोध है, बल्कि उसकी अभिव्यक्ति में भी वे अपने समकालीन कवियों से आगे हैं। यहाँ पाठ में प्रस्तुत ‘कवितावली’ के दो कवित्त और एक सवैया इसके प्रमाणस्वरूप हैं। पहले छंद ("किसबी किसान..." )में उन्होंने दिखलाया है कि संसार के अच्छे-बुरे समस्त लीला-प्रपंचों का आधार ‘पेट की आग’ का दारुण व गहन यथार्थ है; जिसका समाधान वे राम-रूपी घनश्याम (मेघ) के कृपा-जल में देखते हैं। इस प्रकार, उनकी राम-भक्ति पेट की आग बुझाने वाली यानी जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान करने वाली है; साथ ही जीवन-बाह्य आध्यात्मिक मुक्ति देने वाली भी। दूसरे छंद ("खेती न किसान...") में प्रकृति और शासन की विषमता से उपजी बेकारी व गरीबी की पीड़ा का यथार्थपरक चित्रण करते हुए उसे दशानन (रावण) से उपमित करते हैं। तीसरे छंद ("धूत कहौ...") में भक्ति की गहनता और सघनता में उपजे भक्त-हृदय के आत्मविश्वास का सजीव चित्रण है, जिससे समाज में व्याप्त जात-पाँत और धर्म के विभेदक दुराग्रहों के तिरस्कार का साहस पैदा होता है। इस प्रकार भक्ति की रचनात्मक भूमिका का संकेत यहाँ है, जो आज के भेदभावमूलक सामाजिक-राजनीतिक माहौल में अधिक प्रासंगिक है।
‘रामचरितमानस’ के लंका कांड से गृहीत लक्ष्मण के शक्ति बाण लगने का प्रसंग कवि की मार्मिक स्थलों की पहचान का एक श्रेष्ठ नमूना हैै। भाई के शोक में विगलित राम का विलाप धीरे-धीरे प्रलाप में बदल जाता है, जिसमें लक्ष्मण के प्रति राम के अंतर में छिपे प्रेम के कई कोण सहसा
अनावृत हो जाते हैं। यह प्रसंग ईश्वरीय राम का पूरी तरह से मानवीकरण कर देता है, जिससे पाठक का काव्य-मर्म से सीधे जुड़ाव हो जाता है और वह भक्त तुलसी के भीतर से कवि तुलसी के उभर आने और पूरे प्रसंग पर उसके छा जाने की अनुभूति करता है। इस घने शोक-परिवेश में हनुमान का संजीवनी लेकर आ जाना कवि को करुण रस के बीच वीर रस के उदय के रूप में दिखता है। यह उपमा अद्भुत है और काव्यगत करुण-प्रसंग को जीवन के मंगल-विकास की ओर ले जाती है।
कवितावली (उत्तर कांड से)
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार , चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी।।
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबैं पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।
लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप
दोहा
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।
उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी।।
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायऊ।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।
जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।
साैंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।।
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।।
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई।।
सोरठा
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह बीर रस।।
हरषि राम भेटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।।
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।।
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।।
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा।।
यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा।।
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई।।
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे।।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।।
अपर महोदर आदिक बीरा । परे समर महि सब रनधीरा।।
दोहा
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।।
अभ्यास
पाठ के साथ
1. कवितावली में उद्धृत छंदों के आधार पर स्पष्ट करें कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है।
2. पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है– तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
3. तुलसी ने यह कहने की ज़रूरत क्यों समझी?
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ / काहू की बेटीसों बेटा न
ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ। इस सवैया में काहू के बेटासों बेटी न ब्याहब कहते
तो सामाजिक अर्थ में क्या परिवर्तन आता?
4. धूत कहौ... वाले छंद में ऊपर से सरल व निरीह दिखलाई पड़ने वाले तुलसी की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है। इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?
5. व्याख्या करें–
(क) मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
(ख) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।
(ग) माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।
(घ) ऊँचे नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।।
6. भ्रातृशोक में हुई राम की दशा को कवि ने प्रभु की नर लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप में रचा है। क्या आप इससे सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
7. शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अवतरण को करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव क्यों कहा गया है?
8. जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
भाई के शोक में डूबे राम के इस प्रलाप-वचन में स्त्री के प्रति कैसा सामाजिक दृष्टिकोण संभावित है?
पाठ के आसपास
1. कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में पत्नी (इंदुमती) के मृत्यु-शोक पर अज तथा निराला की सरोज-स्मृति में पुत्री (सरोज) के मृत्यु-शोक पर पिता के करुण उद्गार निकले हैं। उनसे भ्रातृशोक में डूबे राम के इस विलाप की तुलना करें।
2. पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी तुलसी के युग का ही नहीं आज के युग का भी सत्य है। भुखमरी में किसानों की आत्महत्या और संतानों (खासकर बेटियों) को भी बेच डालने की हृदय-विदारक घटनाएँ हमारे देश में घटती रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों और तुलसी के युग की तुलना करें।
3. तुलसी के युग की बेकारी के क्या कारण हो सकते हैं? आज की बेकारी की समस्या के कारणों के साथ उसे मिलाकर कक्षा में परिचर्चा करें।
4. राम कौशल्या के पुत्र थे और लक्ष्मण सुमित्रा के। इस प्रकार वे परस्पर सहोदर (एक ही माँ के पेट से जन्मे) नहीं थे। फिर, राम ने उन्हें लक्ष्य कर एेसा क्यों कहा– "मिलइ न जगत सहोदर भ्राता"? इस पर विचार करें।
5. यहाँ कवि तुलसी के दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, सवैया–ये पाँच छंद प्रयुक्त हैं। इसी प्रकार तुलसी साहित्य में और छंद तथा काव्य-रूप आए हैं। एेसे छंदों व काव्य-रूपों की सूची बनाएँ।
शब्द-छवि
कसब (किसबी) - धंधा
चेटकी - बाज़ीगर
तव - तुम्हारा, आपका
राखि - रखकर
जैहउँ - जाऊँगा
अस - इस तरह
आयसु - आज्ञा
मुहुँ - में
कपि - बंदर (यहाँ हनुमान के लिए प्रयुक्त)
सराहत - बड़ाई कर रहे हैं
मनुज अनुसारी - मानवोचित
काऊ - किसी प्रकार
लागि - के लिए
तजहु - त्यागते हो
बिपिन - जंगल
आतप - धूप
बाता - हवा, तूफ़ान
जनतेउँ - (यदि) जानता
मनतेउँ - (तो) मानता
बित - धन
नारि - स्त्री, पत्नी (यहाँ पर पत्नी)
बारहिं बारा - बार-बार ही
जियँ - मन में
बिचारि - विचार कर
सहोदर - एक ही माँ की कोख से जन्मे
जथा - जैसे
दीना - दरिद्र
ताता - भाई के लिए संबोधन
मनि - नागमणि
फनि - साँप(यहाँ मणि-सर्प)
करिवर - हाथी
कर - सूँड़
मम - मेरा
बिनु तोही - तुम्हारे बिना
बरु - चाहे
अपजस - अपयश, कलंक
सहतेउँ - सहना पड़ेगा
छति - क्षति, हानि
निठुर - निष्ठुर, हृदयहीन
तासु - उसके
मोहि - मुझे
पानी - हाथ
उतरु काह दैहउँ - क्या उत्तर दूँगा
सोच-बिमोचन - शोक दूर करने वाला
स्रवत - चूता है
प्रलाप - तर्क हीन वचन-प्रवाह
निकर - समूह
हरषि - प्रसन्न होकर
भेंटेउ - भेंट की, मिले
कृतग्य - कृतज्ञ
सुजाना - अच्छा ज्ञानी, समझदार
कीन्हि - किया
हरषाई - हर्षित
हृदयँ - हृदय में
ब्राता - समूह, झुंड
लइ आया - ले आए
सिर धुनेऊ - सिर धुनने लगा
पहिं - (के) पास
निसिचर - रात में चलने वाला
हरि आनी - हरण कर लाए
जोधा - योद्धा
संघारे - मार डाले
दुर्मुख - कड़वी ज़बान वाला
दसकंधर - दशानन, रावण
महोदर - बड़े पेट वाला
अपर - दूसरा
भट - योद्धा
सठ - दुष्ट
रनधीरा - युद्ध में अविचल रहने वाला
इन्हें भी जानें
चौपाई
चौपाई सम मात्रिक छंद है। यह चार पंक्तियों का होता है जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 16-16 मात्राएँ होती हैं। चालीस चौपाइयों वाली रचना को चालीसा कहा जाता है–यह तथ्य लोकप्रसिद्ध है।
दोहा
दोहा अर्धसम मात्रिक छंद है। इसके सम चरणों (दूसरे और चौथे चरण) में 11-11 मात्राएँ होती हैं तथा विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 13-13 मात्राएँ होती हैं। इनके साथ अंत लघु (।) वर्ण होता है।
सोरठा
दोहे को उलट देने से सोरठा बन जाता है। इसके सम चरणों (दूसरे और चौथे चरण) में 13-13 मात्राएँ होती हैं तथा विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 11-11 मात्राएँ होती हैं। परंतु दोहे के विपरीत इसके सम चरणों (दूसरे और चौथे चरण) में अंत्यानुप्रास या तुक नहीं रहती, विषम चरणों (पहले और तीसरे) में तुक होती है।
कवित्त
यह वार्णिक छंद है। इसे मनहरण भी कहते हैं। कवित्त के प्रत्येक चरण में 31-31 वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के 16वें और फिर 15वें वर्ण पर यति रहती है। प्रत्येक चरण का अंतिम वर्ण गुरु होता है।
सवैया
चूँकि सवैया वार्णिक छंद है, इसलिए सवैया छंद के कई भेद हैं। ये भेद गणों के संयोजन के आधार पर बनते हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध मत्तगयंद सवैया है इसे मालती सवैया भी कहते हैं। सवैया के प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते हैं। यहाँ प्रस्तुत तुलसी का सवैया कई भेदों को मिलाकर बनता है।