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जयशंकर प्रसाद
(सन् 1889-1937)
जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में हुआ। वे विद्यालयी शिक्षा केवल आठवीं कक्षा तक प्राप्त कर सके, किंतु स्वाध्याय द्वारा उन्होंने संस्कृत, पालि, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं तथा साहित्य का गहन अध्ययन किया। इतिहास, दर्शन, धर्मशास्त्र और पुरातत्त्व के वे प्रकांड विद्वान थे।
प्रसाद जी अत्यंत सौम्य, शांत एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे परनिंदा एवं आत्मस्तुति दोनों से सदा दूर रहते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। मूलतः वे कवि थे, लेकिन उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में उच्चकोटि की रचनाओं का सृजन किया।
प्रसाद-साहित्य में राष्ट्रीय जागरण का स्वर प्रमुख है। संपूर्ण साहित्य में विशेषकर नाटकों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के गौरव के माध्यम से प्रसाद जी ने यह काम किया। उनकी कविताओं, कहानियों में भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों की झलक मिलती है। प्रसाद ने कविता के साथ नाटक, उपन्यास, कहानी संग्रह, निबंध आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं–अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चंद्र्रगुप्त, राजश्री, ध्रुवस्वामिनी (नाटक); कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) (उपन्यास), आँधी, इंद्रजाल, छाया, प्रतिध्वनि और आकाशदीप (कहानी संग्रह), काव्य और कला तथा अन्य निबंध (निबंध संग्रह), झरना, आँसू, लहर, कामायनी, कानन कुसुम, और प्रेमपथिक (कविताएँ)।
देवसेना का गीत प्रसाद के स्कंदगुप्त नाटक से लिया गया है। देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन है। हूणों के आक्रमण से आर्यावर्त संकट में है। बंधुवर्मा सहित उस परिवार के सभी लोगों को वीरगति प्राप्त हुई। बची हुई देवसेना भाई के स्वप्नों को साकार करने के लिए और राष्ट्रसेवा का व्रत लिए हुए है। जीवन में देवसेना को स्कंदगुप्त की चाह थी, किंतु स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या (विजया) का स्वप्न देखते थे। जीवन के अंतिम मो\ड़ पर स्कंदगुप्त देवसेना को पाना चाहता है। किंतु देवसेना तब तक वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर भीख माँगती है और महादेवी की समाधि परिष्कृत करती है। स्कंदगुप्त के अनुनय-विनय पर जब वह तैयार नहीं होती तो स्कंदगुप्त आजीवन कुँवारा रहने का व्रत ले लेता है। इधर देवसेना कहती है–"हृदय की कोमल कल्पना सो जा! जीवन में जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आए हुए लौटा दिया था उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए अच्छी बात है? आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा–सबसे मैं विदा लेती हूँ", तब वह गीत गाती है–आह! वेदना मिली विदाई! देवसेना का गीत कविता में देवसेना अपने जीवन पर दृष्टिपात करते हुए अपने अनुभवों में अर्जित वेदनामय क्षणों को याद कर रही है। जीवन के इस मो\ड़ पर अर्थात् जीवन संध्या की बेला में वह अपने यौवन के क्रियाकलापों को याद कर रही है। वह अपने यौवन के क्रियाकलापों को भ्रमवश किए गए कर्मों की श्रेणी में ही रख रही है और उस समय की गई नादानियों के पश्चाताप स्वरूप उसकी आँखों से आँसू की अजस्र धारा बहती जा रही है। अपने आसपास उसे सबकी प्यासी निगाहें ही दिखाई प\ड़ती हैं और वह स्वयं को इनसे बचाने की कोशिश करती है। फिर भी जो उसके जीवन की पूँजी है, सारी कमाई है, वह उसे बचा नहीं सकी, यही विडंबना है, यही वेदना है। प्रलय स्वयं देवसेना के जीवनरथ पर सवार है। वह अपनी द्रुतमान दुर्बलताओं और हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है। गीत के शिल्प में रची गई यह कविता वेदना के क्षणों में मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को भी व्यक्त करती चलती है।
दूसरी कविता कार्नेलिया का गीत प्रसाद के चंद्रगुप्त नाटक का एक प्रसिद्ध गीत है। कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सिल्यूकस की बेटी है। सिंधु के किनारे ग्रीक शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी हुई है। कहती है–"सिंधु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखों के सामने एक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण से धीरे-धीरे उठती हुई प्रशांत स्निग्धता जैसे हृदय में घुस रही है। लंबी यात्रा करके जैसे मैं वहीं पहुँच गई हूँ जहाँ के लिए चली थी। यह कितना निसर्ग सुंदर है, कितना रमणीय है? हाँ वह! आज वह भारतीय संगीत का पाठ देखूँ भूल तो नहीं गई?" तब वह यह गीत गाती है–‘अरुण यह मधुमय देश हमारा!’ इस गीत में हमारे देश की गौरवगाथा तथा प्राकृतिक सौंदर्य को भारतवर्ष की विशिष्टता और पहचान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पक्षी भी अपने प्यारे घोंसले की कल्पना कर जिस ओर उड़ते हैं वही यह प्यारा भारतवर्ष है। अनजान को भी सहारा देना और लहरों को भी किनारा देना हमारे देश की विशेषता है सही मायने में भारत देश की यही पहचान है।
देवसेना का गीत
आह! वेदना मिली विदाई!
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी–
नीरवता अनंत अँग\ड़ाई।
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने–
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई।
–(स्कंदगुप्त नाटक से)
कार्नेलिया का गीत
अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर–नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर–मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधनु से पंख पसारे–शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए–समझ नीड़ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल–बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकराती अनंत की–पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे–भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब–जगकर रजनी भर तारा।
–(चंद्रगुप्त नाटक से)
प्रश्न-अभ्यास
देवसेना का गीत
1. "मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई"–पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
2. कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है?
3. "मैंने निज दुर्बल....हो\ड़ लगाई" इन पंक्तियों में ‘दुर्बल पद बल’ और ‘हारी होड़’ में निहित व्यंजना स्पष्ट कीजिए।
4. काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) श्रमित स्वप्न की मधुमाया ................ तान उठाई।
(ख) लौटा लो ................................ लाज गँवाई।
5. देवसेना की हार या निराशा के क्या कारण हैं?
कार्नेलिया का गीत
1. कार्नेलिया का गीत कविता में प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है?
2. ‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखों के बादल’ में क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है?
3. काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए–
हेम कुंभ ले उषा सवेरे–भरती ढुलकाती सुख मेरे
मदिर ऊँघते रहते जब–जगकर रजनी भर तारा।
4. ‘जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’–पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
5. कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्रों को अपने शब्दों में लिखिए।
योग्यता-विस्तार
1. भोर के दृश्य को देखकर अपने अनुभव काव्यात्मक शैली में लिखिए।
2. जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘आँसू’ पढ़िए।
3. जयशंकर प्रसाद की कविता ‘हमारा प्यारा भारतवर्ष’ तथा रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘हिमालय के प्रति’ का कक्षा में वाचन कीजिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
देवसेना का गीत
संचित - एकत्रित
मधुकरियों - भिक्षा
नीरवता - खामोशी
अनंत - अंतहीन, न रुकने वाली
श्रमित - परिश्रम करके थका हुआ
विपिन - जंगल, वन
उनींदी - नींद से भरी हुई
श्रुति - सुनने की क्रिया
विहाग - अर्धरात्रि में गाया जाने वाला राग
सतृष्ण - तृष्णा के साथ
दीठ - दृष्टि
कार्नेलिया का गीत
अरुण - लालिमा युक्त
मधुमय - मिठास से भरा हुआ
क्षितिज - जहाँ धरती और आकाश एक साथ मिलते हुए दिखाई देते हैं
तामरस - तांबे जैसा लाल रंग
नी\ड़ - घोंसला
मदिर - मस्ती पैदा करने वाला
रजनी - रात्रि
मलय समीर - दक्षिणी वायु, मलय पर्वत की ओर से आने वाली सुगंधित हवा