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 विद्यापति

(सन् 1380-1460)

विद्यापति का जन्म मधुबनी (बिहार) के बिस्पी गाँव के एक एेसे परिवार में हुआ जो विद्या और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। उनके जन्मकाल के संबंध में प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। उनके रचनाकाल और आश्रयदाता के राज्यकाल के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु वर्ष का अनुमान किया गया है। विद्यापति मिथिला नरेश राजा शिवसिंह के अभिन्न मित्र, राजकवि और सलाहकार थे।

विद्यापति बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के वे प्रकांड पंडित थे। उन्होंने संस्कृत, अवहट्ट (अपभ्रंश) और मैथिली–तीन भाषाओं में रचनाएँ कीं। इसके अतिरिक्त उन्हें और भी कई भाषाओं-उपभाषाओं का ज्ञान था।

वे आदिकाल और भक्तिकाल के संधिकवि कहे जा सकते हैं। उनकी कीर्तिलता और कीर्तिपताका जैसी रचनाओं पर दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य परंपरा का प्रभाव है तो उनकी पदावली के गीतों में भक्ति और शृंगार की गूँज है। विद्यापति की पदावली ही उनके यश का मुख्य आधार है। वे हिंदी साहित्य के मध्यकाल के पहले एेसे कवि हैं जिनकी पदावली में जनभाषा में जनसंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है।

मिथिला क्षेत्र के लोक-व्यवहार में और सांस्कृतिक अनुष्ठानों में उनके पद इतने रच-बस गए हैं कि पदों की पंक्तियाँ अब वहाँ के मुहावरे बन गई हैं। पद लालित्य, मानवीय प्रेम और व्यावहारिक जीवन के विविध रंग इन पदों को मनोरम और आकर्षक बनाते हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम के माध्यम से लौकिक प्रेम के विभिन्न रूपों का चित्रण, स्तुति-पदों में विभिन्न देवी-देवताओं की भक्ति, प्रकृति संबंधी पदों में प्रकृति की मनोहर छवि रचनाकार के अपूर्व कौशल, प्रतिभा और कल्पनाशीलता के परिचायक हैं। उनके पदों में प्रेम और सौंदर्य की अनुभूति की जैसी निश्छल और प्रगा\ढ़ अभिव्यक्ति हुई है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं–कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली और पदावली।


इस पाठ्यपुस्तक में विद्यापति के तीन पद लिए गए हैं। पहले में विरहिणी के हृदय के उद्गारों को प्रकट करते हुए उन्होंने उसको अत्यंत दुखी और कातर बताया है। उसका हृदय प्रियतम द्वारा हर लिया गया है और प्रियतम गोकुल छोड़कर मधुपुर जा बसे हैं। कवि ने उनके कार्तिक मास में आने की संभावना प्रकट की है।

दूसरे पद में प्रियतमा सखि से कहती है कि मैं जन्म-जन्मांतर से अपने प्रियतम का रूप ही देखती रही पंरतु अभी तक नेत्र संतुष्ट नहीं हुए हैं। उनके मधुर बोल कानों में गूँजते रहते हैं।

तीसरे पद में कवि ने विरहिणी प्रियतमा का दुखभरा चित्र प्रस्तुत किया है। दुख के कारण नायिका के नेत्राें से अश्रुधारा बहे चली जा रही है जिससे उसके नेत्र खुल नहीं पा रहे। वह विरह में क्षण-क्षण क्षीण होती जा रही है।

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पद

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(1)

के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।

हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास।।

एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।

सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।।

मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।

गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल।।

विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।

आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।।

(2)

सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।

सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।।

जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।

सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।

कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।।

लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।

कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।।

विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।


(3)

कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,

मूदि रहए दु नयान।

कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि,

कर देइ झाँपइ कान।।

माधब, सुन-सुन बचन हमारा।

तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि–

गुनि-गुनि प्रेम तोहारा।।

धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,

पुनि तहि उठइ न पारा।

कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि

नयन गरए जल-धारा।।

तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन–

चौदसि-चाँद-समान।

भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति

लखिमादेइ-रमान।।

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प्रश्न-अभ्यास

1. प्रियतमा के दुख के क्या कारण हैं?

2. कवि ‘नयन न तिरपित भेल’ के माध्यम से विरहिणी नायिका की किस मनोदशा को व्यक्त करना चाहता है?

3. नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने का कारण अपने शब्दों में लिखिए।

4. ‘सेह पिरित अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए’ से लेखक का क्या आशय है?

5. कोयल और भौरों के कलरव का नायिका पर क्या प्रभाव प\ड़ता है?

6. कातर दृष्टि से चारों तर\फ़ प्रियतम को ढूँढ़ने की मनोदशा को कवि ने किन शब्दों में व्यक्त
किया है?

7. निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए–

‘तिरपित, छन, बिदगध, निहारल, पिरित, साओन, अपजस, छिन, तोहारा, कातिक

8. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए–

(क) एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।

सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।।

(ख) जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।

सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।

(ग) कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान।

कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान।।


योग्यता-विस्तार

1. पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के काव्य में प्रयुक्त भाषा की पाँच विशेषताएँ उदाहरण सहित लिखिए।

2. विद्यापति के गीतों का आडियो रिकार्ड बाज़ार में उपलब्ध है, उसको सुनिए।

3. विद्यापति और जायसी प्रेम के कवि हैं। दोनों की तुलना कीजिए।


शब्दार्थ और टिप्पणी

पतिआ - पत्र, चिट्ठी

लए जाएत - ले जाए

सहए - सहना

साओन मास - सावन का महीना

एक सरि - अकेली

अनकर - अन्यतम

पतिआए - विश्वास करे

मधुपुर - मथुरा

अपजस - अपयश

मन भावन - मन को भाने वाला

पिरितप्रीत

बखानिअ - बखान करना

निहारल - देखा

तिरपित - तृप्त, संतुष्ट

भेल - हुए

सेहो - वही

स्रवनहिं - कानों में

स्रुति - श्रुति

कत - कितनी

मधु जामिनि - मधुर रात्रियाँ

रमस - रमण

गमाओलि - गवाँ दी, गुज़ार दी, बिता दी

कइसन - कैसा

केलि - मिलन का आनंद

जरनि - जलन

बिदगध - विदग्ध, दुखी

अनुमोदए - अनुमोदन

पेख - देख

जुड़ाइते - जुड़ाने के लिए

कमलमुख - कमल के समान मुख वाले

कानन - वन

नयान - नयन, नेत्र

झाँपइ - बंद कर दे

सुंदरि - सुंदरी, नायिका

गुनि-गुनि - सोच-सोचकर

धरनि - धरणी, धरती

धनि - स्त्री

धारि - धरकर, पकड़कर

कातर - दुखी

दिठि - दृष्टि

हेरि, हेरि - देख रही है

बइसइ - बैठ जाती है

चौदसि - चौदहवीं, चतुर्दशी

गरए - गिरना

जलधारा - अश्रुधारा

रमान - रमण