केशवदास
(सन् 1555-1617)
केशवदास का जन्म बेतवा नदी के तट पर स्थित ओ\ड़छा नगर में हुआ एेसा माना जाता है। ओ\ड़छापति महाराज इंद्रजीत सिंह उनके प्रधान आश्रयदाता थे जिन्होंने 21 गाँव उन्हें भेंट में दिए थे। उन्हें वीरसिंह देव का आश्रय भी प्राप्त था। वे साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र और राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों के गंभीर अध्येता थे। केशवदास की रचना में उनके तीन रूप आचार्य, महाकवि और इतिहासकार दिखाई पड़ते हैं।
आचार्य का आसन ग्रहण करने पर केशवदास को संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति को हिंदी में प्रचलित करने की चिंता हुई जो जीवन के अंत तक बनी रही। केशवदास ने ही हिंदी में संस्कृत की परंपरा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। उनके पहले भी रीतिग्रंथ लिखे गए पर व्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण ग्रंथ–सबसे पहले उन्होंने प्रस्तुत किए। उनकी मृत्यु सन् 1617 ई. में हुई।
उनकी प्रमुख प्रामाणिक रचनाएँ हैं–रसिक प्रिया, कवि प्रिया, रामचंद्रचंद्रिका, वीरसिंह देव चरित, विज्ञान गीता, जहाँगीर जसचंद्रिका आदि। रतनबावनी का रचनाकाल अज्ञात है किंतु उसे उनकी सर्वप्रथम रचना माना जाता है।
केशव की काव्यभाषा ब्रज है। बुंदेल निवासी होने के कारण उनकी रचना में बुंदेली के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, संस्कृत का प्रभाव तो है ही। इस पुस्तक में उनकी प्रसिद्ध रचना रामचंद्रचंद्रिका का एक अंश दिया गया है जिसमें केशवदास ने माँ सरस्वती की उदारता और वैभव का गुणगान किया है। माँ सरस्वती की महिमा का एेसा वर्णन ऋषि, मुनियों और देवताओं के द्वारा भी संभव नहीं है। दूसरे छंद सवैया में कवि ने पंचवटी के माहात्म्य का सुंदर वर्णन किया है।
अंतिम छंद में अंगद द्वारा किया गया श्रीरामचंद्र जी के गुणों का वर्णन है। वह रावण को समझाते हुए कह रहा है कि राम का वानर हनुमान समुद्र को लाँघकर लंका में आ गया और तुमसे कुछ करते नहीं बना। इसी प्रकार तुमसे लक्ष्मण द्वारा खींची गई धनुरेखा भी पार नहीं की गई थी। तुम श्रीराम के प्रताप को पहचानो।
रामचंद्रचंद्रिका
सरस्वती वंदना
बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ एेसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध रिषिराज तपबृंद कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई।
भावी भूत बर्तमान जगत बखानत है ‘केसोदास’ क्यों हू ना बखानी काहू पै गई।
पति बर्नै चारमुख पूत बर्नै पाँचमुख नाती बर्नै षटमुख तदपि नई नई।।
पंचवटी-वन-वर्णन
सब जाति फटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी।
निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन की छूटी तटी।
अघओघ की बेरी कटी बिकटी निकटी प्रकटी गुरुज्ञान-गटी।
चहुँ ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी वन पंचबटी।।
अंगद
सिंधु तर्यो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधिकै बाट करी।
श्रीरघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछि जरी न जरी, जरी लंक जराइ-जरी।।
प्रश्न-अभ्यास
1. देवी सरस्वती की उदारता का गुणगान क्यों नहीं किया जा सकता?
2. चारमुख, पाँचमुख और षटमुख किन्हें कहा गया है और उनका देवी सरस्वती से क्या संबंध है?
3. कविता में पंचवटी के किन गुणों का उल्लेख किया गया है?
4. तीसरे छंद में संकेतित कथाएँ अपने शब्दों में लिखिए?
5. निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(क) पति बर्नै चारमुख पूत बर्नै पंच मुख नाती बर्नै षटमुख तदपि नई-नई।
(ख) चहुँ ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी वन पंचवटी।
(ग) सिंधु तर्यो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
(घ) तेलन तूलनि पूँछि जरी न जरी, जरी लंक जराई-जरी।
7. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) भावी भूत वर्तमान जगत बखानत है केसोदास, क्यों हू ना बखानी काहू पै गई।
(ख) अघओघ की बेरी कटी बिकटी निकटी प्रकटी गुरुज्ञान-गटी।
योग्यता-विस्तार
1. केशवदास की ‘रामचंद्रचंद्रिका’ से यमक अलंकार के कुछ अन्य उदाहरणों का संकलन कीजिए।
2. पाठ में आए छंदों का गायन कर कक्षा में सुनाइए।
3. केशवदास ‘कठिन काव्य के प्रेत हैं’ इस विषय पर वाद-विवाद कीजिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
बानी - वाणी, सरस्वती
मति - बुद्धि
रिषिराज - श्रेष्ठ ऋषि
चारमुख - चार मुख वाले ब्रह्मा
पाँच मुख - पाँच मुखवाले, शिव
षटमुख - छह मुख वाले षडानन, कार्तिकेय
मीचु - मृत्यु
तटी - समाधि
अघओघ - पापों का समूह
मुक्तिनटी - मुक्ति रूपी नटी
धूरजटी - शिव
वारिधि - समुद्र
दसकंठ - रावण