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 पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी

(सन् 1883-1922)

पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म पुरानी बस्ती, जयपुर में हुआ। गुलेरी जी बहुभाषाविद् थे। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बाँग्ला के साथ अंग्रेज़ी, लैटिन तथा फ्रेंच आदि भाषाओं में भी उनकी अच्छी गति थी। वे संस्कृत के पंडित थे। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व उनका प्रिय विषय था। उनकी गहरी रुचि भाषा विज्ञान में थी। गुलेरी जी की सृजनशीलता के चार मुख्य पड़ाव हैं–समालोचक (1903-06 ई.), मर्यादा (1911-12), प्रतिभा (1918-20) और नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22) इन पत्रिकाओं में गुलेरी जी का रचनाकार व्यक्तित्व बहुविध उभरकर सामने आया। उन्होंने उत्कृष्ट निबंधों के अतिरिक्त तीन कहानियाँ–सुखमय जीवन, बुद्धू का काँटा और उसने कहा था–भी हिंदी जगत को दीं। सिर्फ़ उसने कहा था कहानी तो  गुलेरी जी का पर्याय ही बन चुकी है।

गुलेरी जी की विद्वत्ता का ही प्रमाण और प्रभाव था कि उन्होंने 1904 से 1922 तक अनेक महत्त्वपूर्ण संस्थानों में अध्यापन कार्य किया, इतिहास दिवाकर की उपाधि से सम्मानित हुए और पं. मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर 11 फरवरी 1922 ई. को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग के प्राचार्य बने।


सुमिरिनी के मनके नाम से तीन लघु निबंध–बालक बच गया, घड़ी के पुर्ज़े और ढेले चुन लो पाठ्यपुस्तक में दिए गए हैं। बालक बच गया निबंध का मूल प्रतिपाद्य है शिक्षा ग्रहण की सही उम्र। लेखक मानता है कि हमें व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य है मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखना। मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित किया जा सकेगा। लेखक ने अपने समय की शिक्षा प्रणाली और शिक्षकों की मानसिकता को प्रकट करने के लिए अपने जीवन के अनुभव को हमारे सामने अत्यंत व्यावहारिक रूप में रखा है। लेखक ने इस उदाहरण से यह बताने की कोशिश की है कि शिक्षा हमें बच्चे पर लादनी नहीं चाहिए बल्कि उसके मानस में शिक्षा की रुचि पैदा करने वाले बीज डाले जाएँ, ‘सहज पके सो मीठा होए’। घड़ी के पुर्ज़े में लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। ढेले चुन लो में लोक विश्वासों में निहित अंधविश्वासी मान्यताओं पर चोट की गई है। तीनों निबंध समाज की मूल समस्याओं पर विचार करने वाले हैं। इनकी भाषा-शैली सरल, बोलचाल की होते हुए भी गंभीर ढंग से विषय प्रवर्तन करने वाली है।

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सुमिरिनी के मनके

(क) बालक बच गया

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एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण वह सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने न मानने का शास्त्रार्थ कह गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बालक ने सीखा सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ़ कर नकली परदे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड्डू’। पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।


(ख) घड़ी के पुर्ज़े

धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वही कान ढलकाकर सुन ले, इस सत्ययुगी मत के समर्थन में घड़ी का दृष्टांत बहुत तालियाँ पिटवाकर दिया जाता है। घड़ी समय बतलाती है। किसी घड़ी देखना जाननेवाले से समय पूछ लो और काम चला लो। यदि अधिक करो तो घड़ी देखना स्वयं सीख लो किंतु तुम चाहते हो कि घड़ी का पीछा खोलकर देखें, पुर्ज़े गिन लें, उन्हें खोलकर फिर जमा दें, साफ़ करके फिर लगा लें–यह तुमसे नहीं होगा। तुम उसके अधिकारी नहीं। यह तो वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्ज़े जानें, तुम्हें इससे क्या? क्या इस उपमा से जिज्ञासा बंद हो जाती है? इसी दृष्टांत को बढ़ाया जाए तो जो उपदेशक जी कह रहे हैं उसके विरुद्ध कई बातें निकल आवें। घड़ी देखना तो सिखा दो, उसमें तो जन्म और कर्म की पख न लगाओ, फिर दूसरे से पूछने का टंटा क्यों? गिनती हम जानते हैं, अंक पहचानते हैं, सुइयों की चाल भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं तो हमें ही न देखने दो, पड़ोस की घड़ि़यों में दोपहर के बारह बजे हैं। आपकी घड़ी में आधी रात है, ज़रा खोलकर देख न लेने दीजिए कि कौन सा पेच बिगड़ रहा है, यदि पुर्ज़े ठीक हैं और आधी रात ही है तो हम फिर सो जाएँगे, दूसरी घड़ियों को गलत न मान लेंगे पर ज़रा देख तो लेने दीजिए। पुर्ज़े खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास कर आया है उसे तो देखने दो। साथ ही यह भी समझा दो कि आपको स्वयं घड़ी देखना, साफ़ करना और सुधारना आता है कि नहीं। हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्ज़े सुधारना तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते इत्यादि।

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(ग) ढेले चुन लो

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शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक ‘मर्चेंट अॉफ वेनिस’ में पोर्शिया अपने वर को बड़ी सुंदर रीति से चुनती है। बबुआ हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं–एक सोने की, दूसरी चाँदी की, तीसरी लोहे की। तीनों में (से) एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक को चुन ले। अकड़बाज़ सोने को चुनता है और उलटे पैरों लौटता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अंखूठा दिखाती है। सच्चा प्रेमी लोहे को छूता है और घुड़दौड़ का पहिला इनाम पाता है। ठीक एेसी ही लाटरी वैदिक काल में हिंदुओं में चलती थी। इसमें नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता। वह उसे गौ भेंट करता। पीछे वह कन्या के सामने कुछ मट्टी के ढेले रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा ले। कहीं सात, कहीं कम, कहीं ज़्यादा। नर जानता था कि ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया हूँ और किस-किस जगह की (मट्टी) इनमें है। कन्या जानती न थी। यही तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। वेदि की मट्टी, गौशाला की मट्टी, खेत की मट्टी, चौराहे की मट्टी, मसान की धूल–कई चीज़ें होती थीं। बूझो मेरी मुट्ठी में क्या है–चित्त या पट्ट? यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान ‘वैदिक पंडित’ होगा। गोबर चुना तो ‘पशुओं का धनी’ होगा। खेत की मट्टी छू ली तो ‘ज़मींदार पुत्र’ होगा। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाए–जनमभर जलाती रहेगी। यदि एक नर के सामने मसान की मट्टी छू ली तो उसका यह अर्थ नहीं है कि उस कन्या का कभी ब्याह न हो। किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। बहुत से गृह्यसूत्रों में इस ढेलों की लाटरी का उल्लेख है–आश्वलायन, गोभिल, भारद्वाज–सभी में है। जैसे राजपूतों की लड़कियाँ पिछले समय में रूप देखकर, जस सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे वैदिक काल के हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नीवरण करते थे। आप कह सकते हैं कि जन्मभर के साथी की चुनावट मट्टी के ढेलों पर छोड़ना कैसी बुद्धिमानी है! अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों–मंगल और शनैश्चर और बृहस्पति–की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ? बकौल वात्स्यायन के, आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल के मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की तेज पिण्ड से! बकौल कबीर के–

पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।

इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।


प्रश्न-अभ्यास

(क) बालक बच गया

1. बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए?

2. बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा?

3. बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी?

4. बालक की प्रवृत्तियों का गला घोटना अनुचित है, पाठ में एेसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोटा जाता है?

5. "बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं" कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।

6. उम्र के अनुसार बालक में योग्यता का होना आवश्यक है किन्तु उसका ज्ञानी या दार्शनिक होना ज़रूरी नहीं। ‘लερंनग आउटकम’ के बारे में विचार कीजिए।


(ख) घड़ी के पुर्ज़े

1. लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्ज़े’ का दृष्टांत क्यों दिया है?

2. ‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।

3. घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते?

4. धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा? अपनी राय लिखिए।

5. ‘जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।

6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए–

(क) ‘वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्ज़े जानें, तुम्हें इससे क्या?

(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।’

(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्ज़े सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’


(ग) ढेले चुन लो

1. वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लाटरी चलती थी जिसका ज़िक्र लेखक ने किया है।

2. ‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।

3. ‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं।

4. मिट्टी के ढेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए-

पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।

इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।

5. जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के संदर्भ में विचार कीजिए।

6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए–

(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना
क्यों बुरा
है और लाखों करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों–मंगल,
शनिश्चर
और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों
अच्छा है।’

(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से।
आँखों देखा
ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’


योग्यता-विस्तार

(क) बालक बच गया

1. बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है– कक्षा में संवाद कीजिए।

2. ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं। अपने विचार
प्रकट कीजिए।

(ख) घड़ी के पुर्जे

1. धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख / निबंध लिखिए।

2. ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस
रहस्य को
जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’–टिप्पणी कीजिए।

(ग) ढेले चुन लो

1. समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए।

2. अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए।


शब्दार्थ और टिप्पणी

(क) बालक बच गया

वार्षिकोत्सव - सालाना जलसा

नुमाइश - प्रदर्शनी, दिखावा

कोल्हू - तेल निकालने की मशीन जिसमें बैल बाँधकर तेल निकाला जाता था।

यावज्जन्म - जीवनभर

उल्लास - खुशी, हर्ष

कुर्सीनामा - राज की अवधि

(ख) घड़ी के पुर्ज़े

कान ढलकाकर - कान खोलकर

दृष्टांत - उदाहरण

टंटा - झंझट, संकट

घड़ीसाज़ी - घड़ी बनाने की कला, घड़ी मरम्मत करने का गुर

(ग) ढेले चुन लो

मर्चेंट अॉफ वेनिस - शेक्सपियर का प्रसिद्ध नाटक

पोर्शिया - शेक्सपियर के नाटक ‘मर्चेंट अॉफ वेनिस’ की नायिका

प्रतिमूर्ति - प्रतिमा, उसके ही जैसा

अकड़बाज़ - अकड़ने वाला, अपने फैसले को ही सही मानने वाला, अपने आगे किसी की न मानने वाला

जस - यश, कीर्ति

मिट्टी के डगले - मिट्टी के ढेले


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