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अध्याय 9
खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति
विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ खाद्य उत्पादन की वृद्धि एक प्रमुख आवश्यकता है। पशुपालन तथा पादप प्रजनन पर लागू होने वाले जैविक सिद्धांत, खाद्य उत्पादन बढ़ाने के हमारे प्रयासों में मुख्य भूमिका निभाते हैं। भविष्य में कई नई तकनीकें, जैसे भ्रूण स्थानांतरण प्रौद्योगिकी तथा ऊतक संवर्धन खाद्य उत्पादन में अतिरिक्त वृद्धि के लिए आधारीय भूमिका निभायेंगे।
9.1 पशुपालन
पशुपालन, पशुप्रजनन तथा पशुधन वृद्धि की एक कृषि पद्धति है। यह किसानों के लिए एक प्रमुख निपुणता तथा वैज्ञानिकों के लिए कला है। पशुपालन का संबंध पशुधन जैसे-भैंस, गाय, सूअर, घोड़ा, भेड़, ऊँट, बकरी आदि के प्रजनन तथा उनकी देखभाल से होता है जो मानव के लिए लाभप्रद हैं। यदि विस्तृत रूप से देखा जाय तो इसमें कुक्कुट तथा मत्स्य पालन भी शामिल हैं। मात्स्यिकी में मत्स्यों (मछलियों), मृदुकवची (मोलस्क), तथा क्रस्टेशिआई (प्रॉन, क्रैब आदि) का पालन पोषण, उनको पकड़ना (शिकार) बेचना आदि शामिल है। अति प्राचीनकाल से मानव द्वारा जैसे— मधुमक्खी, रेशमकीट, झींगा (प्रॉन), केकड़ा (क्रैब), मछलियाँ, पक्षी, सुअर, भेड़, ऊँट आदि का प्रयोग उनके उत्पादों जैसे— दूध, अंडे, माँस, ऊन, रेशम, शहद आदि प्राप्त करने के लिए किया जाता रहा है।
एक गणना के अनुसार विश्व की 70 प्रतिशत से भी अधिक पशुधन भारत तथा चीन में है। यद्यपि यह जानकर आश्चर्य होगा कि इनका विश्व फार्म उत्पादों का योगदान मात्र 25 प्रतिशत है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रति ईकाई उत्पादकता की दर बहुत ही कम है। अतः पशु प्रजनन तथा देखभाल की पारंपरिक पद्धतियों के अतिरिक्त गुणवत्ता तथा उत्पादकता में सुधार लाने के लिए नयी प्रौद्योगिकी का भी प्रयोग करना होगा।
9.1.1 फार्म तथा फार्म पशुओं का प्रबंधन
फार्म प्रबंधन की पारंपरिक पद्धतियों की एक व्यवसायिक पहुँच होनी चाहिए, जिससेे हमारे खाद्य उत्पादन को और अधिक आवश्यक बढ़ावा मिल सके। आइए! विभिन्न पशु-फार्म-प्रणाली में कुछ प्रबंधन प्रक्रियाएँ, जिन्हें प्रयोग में लाया जाता है, उन पर विचार विमर्श करें।
9.1.1.1 डेरी फार्म प्रबंधन
डेरी-उद्योग एक पशु प्रबंधन है, जिससे मानव खपत के लिए दुग्ध तथा इसके उत्पाद प्राप्त होते हैं। क्या आप एेसे पशुओं की सूची तैयार कर सकते हैं जो डेरी में रहते हैं? डेरी फार्म के दुग्ध से बने विभिन्न प्रकार के उत्पाद कौन-कौन से होते हैं? डेरी फार्म प्रबंधन में हम उन संसाधनों तथा तंत्राें के विषय में अध्ययन करते हैं जिनसे दुग्ध की गुणवत्ता में सुधार तथा उसका उत्पादन बढ़ता है। दुग्ध उत्पादन मूल रूप से फार्म में रहने वाले पशुओं की नस्ल की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। अच्छी नस्ल, जिसमें उच्च उत्पादन क्षमता वाली अच्छी नस्ल (क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियों के तहत) का चयन तथा उनकी रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अच्छी उत्पादन क्षमता प्राप्त करने के लिए पशुओं की अच्छी देखभाल, जिसमें उनकें रहने का अच्छा घर तथा पर्याप्त जल तथा रोगमुक्त वातावरण होना आवश्यक है। पशुओं को भोजन प्रदान करने का ढंग वैज्ञानिक होना चाहिए। इसमें विशेषकर चारे की गुणवत्ता तथा मात्रा पर बल दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त दुग्धीकरण, तथा दुग्ध उत्पादों के भंडारण, तथा परिवहन के दौरान कड़ी सफाई तथा स्वास्थ्य (पशु तथा पशु पर कार्य करने वाला व्यक्ति) का महत्त्व सर्वोपरि है। यद्यपि; इन दिनों इनमें से अधिकांश संसाधन यांत्रिक हो चुके हैं, परिणामस्वरूप जो व्यक्ति इस कार्य को देखता है; उसके संपर्क में यह उत्पाद सीधे नहीं आते। इन कठोर उपायों को सुनिश्चित करने के लिए सही-सही रिकार्ड रखने एवं निरीक्षण की आवश्यकता होती है। इससे समस्याओं की पहचान और उनका समाधान शीघ्रतापूर्वक निकालना संभव हो जाता है। पशु-चिकित्सक का नियमित जाँच हेतु आना अनिवार्य है।
संभवतः आपको अत्यंत ही रोचक लगेगा यदि आपको डेरी उद्योग के विविध पहलुओं पर एक प्रश्नावली तैयार करने को कहा जाय, आप अपने पास में स्थित डेरी फार्म जाकर उसका निरीक्षण करें और अपने द्वारा तैयार प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त करें।
9.1.1.2 कुक्कुट फार्म प्रबंधन
कुक्कुट, पालतू कुक्कुटादि का एक वर्ग है जिसका प्रयोग भोजन के लिए अथवा उनके अंडों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। प्रारूपिक रूप से इसमें कुक्कुट, बतख, तथा कभी-कभी टर्की और गीज भी शामिल किये गए हैं। बहुधा कुक्कुट (पोलट्री) शब्द का प्रयोग केवल इन पक्षियों के माँस के लिए ही किया जाता है; परंतु सामान्यतः अन्य पक्षियों का माँस भी इसमें शामिल है।
(अ)
(ब)
चित्र 9.1 उन्नत प्रजनित पशु तथा कुक्कुट (चिकिन) की नस्ल (अ) जर्सी (ब) लेगहार्न
डेरी उद्योग की भाँति कुक्कुट फार्म प्रबंधन के लिए भी उपयुक्त नस्लें, सही, सुरक्षित फार्म की परिस्थितियाँ, सही-सही आहार तथा जल और सफाई एवं स्वास्थ्य महत्त्वपूर्ण घटक हैं।
आपने टेलीवीज़न की खबरों तथा अखबारों में बर्ड फ्लू वायरस के बारे में तो अवश्य देखा, सुना और पढ़ा होगा। इससे देशभर में सनसनी और डर का वातावरण उत्पन्न हो गया था। इसके परिणाम स्वरूप अंडों तथा चिकन की खपत पर भयंकर प्रभाव पड़ा। इसके बारे में और अधिक जानने का प्रयत्न करो और विचार-विमर्श करके पुष्टि करो कि उत्पन्न डर का वातावरण कहाँ तक सही था? यदि कुछ कुक्कुट संक्रमित हों तब इस फ्लू को फैलने से किस प्रकार रोकेंगे।
9.1.2 पशु प्रजनन
पशु प्रजनन, पशु पालन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। पशु प्रजनन का उद्देश्य पशुओं के उत्पादन को बढ़ाना तथा उनके उत्पादों की वांछित गुणवत्ता में सुधार करना है। किस किस्म के लक्षणों को प्राप्त करने के लिए हम पशु-प्रजनन करते हैं? क्या लक्षणों का चयन पसंद के पशुओं से अलग है?
हम नस्ल शब्द से क्या समझते हैं। पशुओं का वह समूह जो वंश तथा सामान्य लक्षणों जैसे सामान्य दिखावट, आकृति, आकार, संरूपण आदि में समान हों, एक नस्ल के कहलाते हैं। आप अपने क्षेत्र के फार्म के पशुओं को कुछ सामान्य नस्लों के नामाें का पता लगाएँ।
एक ही नस्ल के पशुओं के मध्य जब प्रजनन होता है तो वह अंतःप्रजनन कहलाता है। जबकि भिन्न-भिन्न नस्लाें के मध्य प्रजनन कराया जाए वह बहिःप्रजनन कहलाता है।
(क) अंतः प्रजनन - अंतःप्रजनन का अर्थ एक ही नस्ल के अधिक निकटस्थ व्यक्ति के मध्य 4-6 पीढ़ी तक संगम होना है। प्रजनन की कार्यनीति निम्न प्रकार से होती है। एक नस्ल से उत्तम किस्म का नर तथा उत्तम किस्म की मादा को पहले अभिनिर्धारित किया जाता है तथा जोड़ों में उनका संगम कराया जाता है। एेसे संगम से जो संतति उत्पन्न होती है, उस संतति का मूल्यांकन किया जाता है तथा भविष्य में कराए जाने वाले संगम के लिए अत्यंत ही उत्तम किस्म के नर तथा मादा की पहचान की जाती है। पशुओं में श्रेष्ठ मादा, चाहे वह गाय अथवा भैंस हो, प्रति दुग्धीकरण पर अधिक दूध देती हैं। दूसरी ओर, साँड़ों में श्रेष्ठ अन्य नरों की तुलना में श्रेष्ठ किस्म की संतति उत्पन्न कर सकते हैं।
मेंडल द्वारा विकसित समयुग्मजी शुद्धवंशक्रम अध्याय 5 में वर्णित का पुनः स्मरण करें! ठीक इसी ही प्रकार की कार्यनीति का प्रयोग मटरों की भाँति पशुओं में शुद्ध वंशक्रम विकसित करने में किया गया है। अंतः प्रजनन समयुग्मता को बढ़ावा देता है। इस प्रकार यदि हम किसी भी प्रकार के पशु में शुद्ध वंशक्रम विकसित करना चाहते हैं तो अंतःप्रजनन आवश्यक है। अंतःप्रजनन हानिप्रद अप्रभावी जीन, जो चयन द्वारा निष्कासित किए जाते हैं, उन्हें उद्भासित करता है। यह श्रेष्ठ किस्म के जीनों के संचयन में तथा कम वांछनीय जीनों के निष्कासन में सहायता प्रदान करता है। अतः यह तरीका, जहाँ प्रत्येक पद पर चयन हो, वहाँ अंतप्रजात व्यष्टि की उत्पादकता बढ़ाती है। यद्यपि अंतः प्रजनन में यदि लगातार सतत् बनी रहे; विशेषकर निकट अंतःप्रजनन से; सामान्यतः जनन क्षमता और यहाँ तक कि उत्पादकता घट जाती है। इसे अंतःप्रजनन अवसादन कहते हैं। जब कभी यह समस्या के रूप में सामने आए; तब प्रजनन व्यष्टि के चयनित पशुओं का उसी नस्ल के असंबद्ध श्रेष्ठ पशुओं से संगम कराया जाए। इससे सामान्यतः जनन क्षमता तथा उत्पादन दोनों को बनाए रखने में सहायता मिलती है।
(ख) बहिःप्रजनन - बिना किसी संबंध वाले पशुओं के मध्य होने वाला प्रजनन ही बहिःप्रजनन होता है। इसमें एक नस्ल की (परंतु इनका पूर्वज सामान्य नहीं होना चाहिए) अथवा भिन्न-भिन्न नस्लों (पर प्रजनन) अथवा भिन्न प्रजातियों (अंत विशिष्ट संकरण) की व्यष्टियाँ भाग लेती हैं।
(ग) बहिःसंकरण - एक ही नस्ल के भीतर पशुओं के संगम की यह क्रिया बहिःसंकरण कहलाती है परंतु इसमें 4-6 पीढ़ियों तक दोनों ओर की किसी भी वंशावली में उभय पूर्वज नहीं होना चाहिए। इस संगम के परिणामस्वरूप जो संतति उत्पन्न होती है, वह बहिःसंकरण कहलाती है। प्रजनन की यह विधि एेसे पशुओं के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, जिनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता तथा माँसदायी दर औसत से कम होती है। एकल बहिःसंकरण से बहुधा अंतःप्रजनन अवसादन समाप्त हो जाता है।
(घ) संकरण - इस विधि में एक नस्ल के श्रेष्ठ नर का दूसरी नस्ल की श्रेष्ठ मादा के साथ संगम कराया जाता है। संकरण दो विभिन्न नस्लों के वांछनीय गुणों के संयोजन में सहायक होता है। संतति संकर पशुओं का प्रयोग व्यापारिक स्तर पर उत्पादन के लिए किया जा सकता है। इनका प्रयोग अंतः प्रजनन के किसी रूप एवं चयन के विकल्पी रूप में विकसित हो सके, जिससे नयी स्थायी नस्लें जो वर्तमान नस्लों से हर प्रकार से श्रेष्ठ हैं। इसी विधि द्वारा पशुओं की अनेक नयी नस्लों का विकास हुआ है। हिसरडैल भेड़ की एक नयी नस्ल है, जिसका विकास पंजाब में बीकानेरी एैवीज (भेड़) तथा मैरीनो रेम्स (मेढ़ा या मेष) के बीच संगम कराने से हुआ।
(ङ) अंतःविशिष्ट संकरण - इस विधि में दो विभिन्न प्रजातियों के नर तथा मादा पशुओं के मध्य संगम कराया जाता है। कुछ मामलों में संतति में दोनों जनकों के वांछनीय गुण सम्मिलित हो जाते हैं तथा इस संतति का पर्याप्त आर्थिक महत्त्व होता है; जैसे- खच्चर (चित्र 9.2)। क्या आप जानते हैं कि खच्चर की उत्पत्ति किस संकरण का परिणाम है?
चित्र 9.2 खच्चर
कृत्रिम वीर्यसेचन का प्रयोग करते हुए नियंत्रित प्रजनन प्रयोगों को संपन्न किया जाता है। जिस नर का चयन एक जनक के रूप में किया गया हो, उसका वीर्य एकत्रित करके प्रजनक द्वारा चयनित मादा के जनन पथ में अंतक्षेप कर दिया जाता है। वीर्य का प्रयोग तुरंत किया जाना चाहिए या इसे हिमीकृत कर बाद में प्रयोग में लाना चाहिए। इसे हिमीकृत रूप में वहाँ अभिगमनित भी किया जा सकता है, जहाँ मादा रह रही हैं। इस प्रकार वांछनीय संगम की क्रिया संपन्न होती है। सामान्य संगम से उत्पन्न अनेक समस्याएँ कृत्रिम वीर्यसेचन की प्रक्रिया से दूर हो जाती है। क्या आप इस पर विचार-विमर्श कर कुछ को सूचीबद्ध कर सकते हैं?
यद्यपि कृत्रिम वीर्यसेचन की क्रिया को अपनाया जाता है फिर भी बहुधा परिपक्व नर तथा मादा पशुओं के मध्य होने वाले संगम से, उत्पन्न संकरण की दर से मिलने वाली सफलता कुछ कम ही होती है। संकरों के सफल उत्पादन में सुधार लाने के लिए अन्य विधियों का भी प्रयोग किया जाता है। मल्टीपिल औवियूलेशन, एैम्ब्रयो ट्रांसफर (भ्रूण अंतरण) तकनीक गौ पशुओं में सुधार का एक कार्यक्रम है। इस विधि में, एक गाय में पुटक परिपक्वन तथा उच्च अंडोत्सर्जन को प्रेरित करने के लिए जब एफएसएच प्रकार का हॉर्मोन दिया जाता है। सामान्यतः प्रतिचक्र में एक अंडे की तुलना में 6-8 अंडे उत्पन्न होते हैं। पशु को या तो सर्वोत्कृष्ट साँड़ (बैल) अथवा कृत्रिम वीर्यसेचन द्वारा संगमनित कराया जाता है। 8-32 कोशिका अवस्थाओं वाले निषेचित अंडे को बिना शल्य चिकित्सा से प्राप्त कर प्रतिनियुक्त मादा (माँ) में स्थानांतरित कर दिया जाता है आनुवंशिक मादा (माँ) उच्च अंडोत्सर्जन के दूसरी पारी के लिए उपलब्ध हो जाती है। यह प्रौद्योगिकी गौपशु, भेड़, खरगोश, भैंस, घोड़ी आदि में प्रदर्शित की जा चुकी है। उच्च दुग्ध उत्पादन वाली नस्ल की मादाओं तथा उच्च गुणवत्ता वाले माँस (कम वसा वाला माँस) प्रदान करने वाली नस्लों के बैलों को सफलतापूर्वक जनित किया गया है, जिससे अल्प काल में ही बड़ी संख्या में गौपशु प्राप्त हुए हैं।
9.1.3 मधुमक्खी पालन (Bee keeping)
शहद के उत्पादन के लिए मधुमक्खियों के छत्तों का रखरखाव ही मधुमक्खी पालन अथवा मौन पालन है। यह प्राचीन काल से चला आ रहा एक कुटीर उद्योग है। शहद उच्च पोषक महत्त्व का एक आहार है तथा औषधियों की देशी प्रणाली (आयुर्वेद) में भी इसका प्रयोग किया जाता है। मधुमक्खियाँ मोंम भी पैदा करती हैं जिसका कांतिवर्द्धक वस्तुओं की तैयारी तथा विभिन्न प्रकार के पालिश वाले उद्योगों में प्रयोग किया जाता है। शहद की बढ़ती हुई माँग ने मधुमक्खियों को बड़े पैमाने पर पालने के लिए बाध्य किया है।
यह उद्योग चाहे लघु अथवा वृहत् पैमाने का ही क्यों न हों, एक आय जनक व्यवसाय (उद्योग) बन चुका है।
मधुमक्खी पालन का व्यवसाय किसी भी क्षेत्र में जहाँ जंगली झाड़ियों, फलों के बगीचों तथा लहलहाती फसलों के पर्याप्त कृषि क्षेत्र या चारागाह हों, वहाँ किया जा सकता है। मधुमक्खी की बहुत सी प्रजातियाँ होती हैं जिन्हें पाला जा सकता है। इनमें एेपिस इंडिका अत्यंत ही सामान्य प्रजाति है। मक्खी के छत्तों को किसी के घर के आँगन तथा बरामदों अथवा यहाँ तक कि छत पर भी रखा जा सकता है। मधुमक्खी पालन में अत्यधिक श्रम की आवश्यकता नहीं होती।
मधुमक्खी पालन यद्यपि अपेक्षाकृत आसान है, परंतु इसके लिए विशेष प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता होती है तथा कई संगठन इस पालन की शिक्षा प्रदान करते हैं। सफल मधुमक्खी पालन के लिए निम्नलिखित बिन्दु अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हैं-
(क) मधुमक्खियों की प्रकृति तथा स्वभाव का ज्ञान (ख) मक्खी के छत्तों को रखने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन (ग) मक्खियों के समूह (दल) को पकड़ना तथा उन्हें छत्ते में रखना (घ) विभिन्न मौसमों में छत्तों का प्रबंधन (ङ) शहद तथा मोम का रख-रखाव तथा एकत्रीकरण। मधुमक्खियाँ हमारी बहुत सी फसलों (अध्याय 2 देखें) जैसे— सूर्यमुखी, सरसों, सेब तथा नाशपाती के लिए परागणक हैं। पुष्पीकरण के समय यदि इन छत्तों को खेतों के बीच रख दिया जाय तो इससे पौधों की परागण क्षमता बढ़ जाती है और इस प्रकार फसल तथा शहद दोनों के उत्पादन में सुधार हो जाता है।
9.1.4 मत्स्यकी (Fisheries)
मत्स्यकी एक प्रकार का उद्योग है जिसका संबंध मछली अथवा अन्य जलीय जीव को पकड़ना, उनका प्रसंस्करण तथा उन्हें बेचने से होता है। हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग आहार के रूप में मछली, मछली उत्पादों तथा अन्य जलीय जंतुआें जैसे— झींगा (प्रॉन), केकड़ा (क्रैब), लॉबस्टर, खाद्य आयस्टर आदि पर आश्रित है। कुछ मछलियाँ जैसे— कतला, रोहू, तथा कॉमन कार्प सामान्यतः अलवण जल में पाई जाती हैं। कुछ समुद्री मछलियाँ जैसे—हिलसा, सरडाइन, मैकेरेल, तथा पामफ्रैट आदि भी खाई जाती हैं। पता लगाओ कि आपके क्षेत्र में कौन सी मछलियाें को सामान्यतः खाया जाता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में मत्स्यकी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह तटीय राज्यों में विशेषकर लाखों मछुआराें तथा किसानों को आय तथा रोजगार प्रदान करती है। बहुत से लोगों के लिए यही जीविका का एक मात्र साधन है। मत्स्यकी की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए इसके उत्पादन को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार की तकनीकें अपनाई जा रही हैं। उदाहरण के लिए जलकृषि तथा मत्स्य पालन के द्वारा हम अलवण तथा लवण जलीय पादपों तथा जंतुओं के उत्पादन को बढ़ा सके हैं। मत्स्य पालन तथा जल कृषि के मध्य पाए जाने वाले भेदों का पता लगाओ। इससे मत्स्यकी उद्योग विकसित हुआ है तथा फला-फूला है, जिससे सामान्यतः देश को तथा विशेषतः किसानों को काफी आमदनी हुई है। अब हम ‘नील क्रांति’ की बात करने लगे हैं। हरित क्रांति की भाँति इस पर भी वही बातें लागू होती हैं।
9.2 पादप प्रजनन
पारंपरिक खेती-बाड़ी से मनुष्यों तथा पशुओं के भोजन के लिए सीमित मात्रा में जैवमात्रा का उत्पादन होता है। अच्छे प्रबंधन के तौर-तरीकों तथा भूमि का क्षेत्रफल बढ़ने से उत्पादन बढ़ सकता है, परंतु केवल एक सीमा तक। बड़ी सीमा तक उत्पादन को बढ़ाने में पादप प्रजनन ने एक प्रौद्योगिकी के रूप में सहायता की है। भारत में कौन एेसा व्यक्ति है जिसने हरित क्रांति शब्द न सुना हो? जो खाद्य उत्पादन की राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति ही नहीं; बल्कि इसके निर्यात के लिए भी उत्तरदायी है। हरित क्रांति काफी हद तक पादप प्रजनन तकनीकों पर गेहूँ, धान, मक्का आदि में अधिक उत्पादन तथा रोग निरोधक किस्मों के विकास के लिए आश्रित थी।
9.2.1 पादप प्रजनन क्या है?
पादप प्रजनन पादप प्रजातियों का एक उद्देश्यपूर्ण परिचालन है; ताकि वांछित पादप किस्में तैयार हो सकें। यह किस्में खेती के लिए अधिक उपयोगी, अच्छा उत्पादन करने वाली एवं रोग प्रतिरोधी होती हैं। मानव सभ्यता के आरंभ से हजारों वर्ष पूर्व से पारंपरिक रूप में पादप प्रजनन पर कार्य चल रहा है। पादप प्रजनन के बारे में लगभग 9000-11000 वर्षों पूर्व के लिखित प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। आज भी एेसी फसलें उपलब्ध हैं जो प्राचीन काल से घरों में प्रयोग होती आ रही हैं। आज जितनी भी मुख्य फसलें हैं; वह सभी पुरानी किस्मों के व्युत्पन्न हैं। प्रतिष्ठित पादप-प्रजनन में शुद्ध वंशक्रम का संकरण अथवा क्रासिंग शामिल है, जिसके पश्चात् कृत्रिम चयन होता है; ताकि अधिक उत्पादन देने वाले, पोषणज तथा रोगों के प्रति प्रतिरोधी, पादपों के वांछनीय विशेषक को तैयार किया जा सके। आनुवंशिकी, आण्विक, जीव विज्ञान तथा ऊतक संवर्धन में हुई उन्नति के साथ साथ आण्विक आनुवंशिक साधन का प्रयोग अब पादप प्रजनन में किया जा रहा है।
यदि हमें ट्रेटों अथवा लक्षणों की सूची तैयार करनी पड़े जिसे प्रजनक इन लक्षणों को अपनी फसलों में समाविष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं तो बढ़े हुए फसली उत्पादन तथा उन्नत गुणवत्ता वाली प्रथम सूची तैयार होगी। पर्यावरणीय तनाव (लवणता, अत्यधिक ताप, सूखा) के प्रति सहनशीलता, रोगजनकों (विषाणु, कवक तथा जीवाणु) के प्रति प्रतिरोधकता तथा पीड़कों के प्रति सहनशीलता आदि भी हमारी सूची में होंगे।
पादप प्रजनन कार्यक्रम अत्यंत सुव्यवस्थित रूप से पूरे विश्व के सरकारी संस्थानों तथा व्यापारिक कंपनियों द्वारा चलाए जाते हैं। फसल की एक नयी आनुवंशिक नस्ल के प्रजनन में निम्न मुख्य पद होते हैं—
(क) परिवर्तनशीलता का संग्रहण- आनुवांशिक परिवर्तनशीलता किसी भी प्रजनन कार्यक्रम का मूलाधार है। बहुत सी शस्यों (फसलों) में पूर्ववर्ती आनुवंशिक परिवर्तनशीलता उन्हें अपनी जंगली प्रजातियों से प्राप्त होती है। विभिन्न जंगली किस्मों, प्रजातियों, तथा कृष्टय प्रजातियों के संबंधियों का संग्रहण एवं परिरक्षण तथा उनके अभिलक्षणों का मूल्यांकन उनके समष्टि में उपलब्ध प्राकृतिक जीन के प्रभावकारी समुपयोजन के लिए पूर्वापेक्षित होता है। किसी फसल में पाए जाने वाले सभी जीनों के विविध अलील का समस्त संग्रहण (पादपों/बीजों) को उसका जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म) संग्रहण कहते हैं।
(ख) जनकों का मूल्यांकन तथा चयन— जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म) मूल्यांकित किए जाते हैं, ताकि पादपों को उनके लक्षणों के वांछनीय संयोजनों के साथ अभिनिर्धारित किया जा सके। चयनित पादपों को बहुगुणित कर उनका प्रयोग संकरण की प्रक्रिया में किया जाता है। इस प्रकार जहाँ वांछनीय तथा संभव है, वहाँ शुद्ध वंशक्रम उत्पन्न कर ली जाती है।
(ग) चयनित जनकों के बीच पर संकरण— वांछित लक्षणों को बहुधा दो भिन्न पादपों (जनकों) से प्राप्त कर संयोजित किया जाता है, उदाहरणार्थ एक जनक जिसमें उच्च प्रोटीन गुणवत्ता है और अन्य जनक जिसमें रोग निरोधक गुण हैं, दोनों के संयोजन की आवश्यकता है। यह परसंकरण द्वारा संभव है कि दो जनक एेसे संकर पैदा करें, जिससे आनुवंशिक वांछित लक्षणों का संगम एक पौधे में हो सके। वांछित पौधे के परागकण का संग्रहण जिसे नर जनक के रूप में चुना गया है तथा उसे मादा पौधे के वर्तिकाग्र पर डालना जिसे मादा जनक के रूप में चुना गया है (संकरण के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए अध्याय 2 देखें), यह काफी कठिन तथा अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। यह भी आवश्यक नहीं है कि संकर वांच्छनीय लक्षणों को संयोजित करे ही। सामान्यतः कुछ सैकड़ों से हजार क्रॉस में केवल एक में ही वांच्छनीय संयोजन प्रदर्शित होता है।
(घ) श्रेष्ठ पुनर्योगज का चयन तथा परीक्षण— इसके अंतर्गत संकरों की संतति के बीच से पादप का चयन किया जाता है जिनमें वांच्छित लक्षण संयोजित हों। प्रजनन उद्देश्यों को प्राप्त करने में चयन की यह प्रक्रिया काफी महत्त्वपूर्ण है। अतः संतति का वैज्ञानिक मूल्यांकन की आवश्यकता होती है। इस चरण के परिणामस्वरूप एेसे पादप उत्पन्न होते हैं, जो दोनों जनकों में श्रेष्ठ होते हैं (बहुधा एक से अधिक श्रेष्ठ संतति पादप उपलब्ध होता है)। ये कई पीढ़ियों तक स्वपरागण तब तक करते हैं जब तक कि समरूपता की अवस्था नहीं आ जाती (समयुग्मजता)। जिससे संतति में लक्षण विसंयोजित नहीं हो पाते।
(ङ) नये कंषणों का परीक्षण, निर्मुक्त होना तथा व्यापारीकरण— नव चयनित वंशक्रम का उनके उत्पादन तथा अन्य गुणवत्ता वाली शस्यी विशेषकों, रोगप्रतिरोधकता आदि गुणों के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है। मूल्यांकित पौधों को अनुस्ांधान वाले खेतों में जहाँ उन्हें आदर्श उर्वरक प्राप्त हो रहे हों, उन्हें सिंचाई का पानी मिल रहा हो तथा अन्य समुचित शस्य प्रबंधन आदि उपलब्ध हों, वहाँ पैदा किया जाता है तथा उसमें उपर्युक्त गुणों का मूल्यांकन किया जाता है। अनुसंधानिक खेत में मूल्यांकन के बाद पौधों का परीक्षण देश भर में किसानों के खेत में कई स्थानों पर, कम से कम तीन ऋतुओं तक किया जाता है। इन स्थानों में सभी शस्य खंडों का निरूपण होना चाहिए, जहाँ सामान्यतः खेती होती है। उपरोक्त विधि से उत्पन्न शस्य की तुलना सर्वोत्तम उपलब्ध स्थानीय शस्य कंषणों चेक या संदर्भ कंषण से करने के बाद मूल्यांकित करना चाहिए।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद (डी जी पी) की लगभग 33 प्रतिशत आय तथा समष्टि की लगभग 62 प्रतिशत जनता को रोजगार कृषि सेे प्राप्त होता है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् देश के सामने मुख्य चुनौती उसकी बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पर्याप्त आहार उत्पादन करना था। जैसा कि हमें ज्ञात है कि खेती के लिए सीमित भूमि ही उपलब्ध है। अतः भारत को इसी उपलब्ध भूमि से प्रति यूनिट उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयास करने होंगे। 1960 के मध्य से गेहूँ, तथा धान की बहुत सी उच्च उत्पादन वाली किस्मों का विकास पादप प्रजनन तकनीकों के प्रयोग से किया गया। परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई। यही प्रावस्था सामान्यतः हरितक्रांति के नाम से जानी जाती है। चित्र 9.3 में उच्च उत्पादन वाली किस्मों की भारतीय संकर फसलों को दर्शाया गया है।
गेहूँ तथा धान - 1960 से 2000 तक के वर्षों के दौरान गेहूँ का उत्पादन 11 मिलियन टन से बढ़कर 75 मिलियन टन हुआ जबकि धान का उत्पादन 35 मिलियन टन से बढ़कर 89.5 मिलियन टन तक पहुँच गया। इसका कारण गेहूँ तथा धान की अर्द्ध-वामन किस्मों का विकसित होना है। मैक्सिको स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर व्हीट एंड मेंज में नोबेल पुरस्कार पुरस्कृत नॉरमैन ई. बारलौग ने गेहूँ की अर्द्ध-वामन किस्म का विकास किया। यह उसी का परिणाम है कि 1963 में उच्च उत्पादन तथा रोग प्रतिरोधी किस्मों की वंश रेखाएँ जैसे सोनालिका तथा कल्याण सोना का विकास कर उन्हें भारतवर्ष की गेहूँ पैदा करने वाले क्षेत्रों में प्रयोग किया गया। अर्द्ध-वामन धान की किस्मों को IR-8 (इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट IRRI, फिलिपींस में पैदा) तथा थाइचूंग नेटिव-1 (तायवान से) से व्युत्पन्न किया गया। 1966 में इन व्युत्पन्नों को प्रयोग में लाया गया। बाद में और अधिक अच्छा उत्पादन देने वाली अर्द्ध-वामन किस्में जया तथा रत्ना को भारत में विकसित किया गया।
(अ)
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चित्र 9.3 कुछ भारतीय संकर फसलें (अ) मक्का (ब) गेहूूँ (स) उद्यानी मटर
गन्ना— सैकेरम बारबरी को मूलतः उत्तरी भारत में पैदा किया जाता था, परंतु इसका शर्करा अंश तथा उत्पादन क्षमता बहुत कम था। दक्षिण भारत में पैदा होने वाला उष्णकटिबंधीय गन्ना सैकेरम अॉफीसिनेरम का तना मोटा था तथा इसमें शर्करा अंश कहीं अधिक था, परंतु यह उत्तरी भारत में ठीक से नहीं पनप पाया। इन दोनों किस्मों को सफलता पूर्वक संकरित कराया गया ताकि उच्च उत्पादन के वांच्छनीय गुण जैसे कि मोटा तना तथा उच्च शर्करा वाले पौधे प्राप्त हो सकें और साथ ही इसे उत्तरी भारत के गन्ना उत्पादन क्षेत्रों में भी पैदा किए जा सकें।
ज्वार— भारत में संकर मक्का, ज्वार, तथा बाजरा का सफलतापूर्वक विकास किया जा चुका है। जल अभाव के प्रति प्रतिरोधी उच्च उत्पादन वाली किस्में हैं उनका विकास संकर प्रजनन के परिणामस्वरूप हुआ।
9.2.2 रोग प्रतिरोधकता के लिए पादप प्रजनन
कवक, जीवाणु तथा विषाणु रोगजनकों का एक विशाल वर्ग उष्णकटिबंधीय जलवायु को कृष्य प्रजातियों के उत्पादों को प्रभावित करते हैं। अक्सर शस्य हानि महत्त्वपूर्ण होती है तथा यह हानि 20-30 प्रतिशत अथवा कभी-कभी तो इससे पूर्ण हानि होती है। इन परिस्थितियों में रोग के प्रति प्रतिरोधी खेतिहार जातियों (कल्टीवास) के प्रजनन तथा विकास से खाद्य उत्पादन बढ़ जाएगा। इससे कवकनाशियाें तथा जीवाणुनाशियों का प्रयोग कम हो जाता है तथा उन पर आश्रिता भी घट जाती है। पोषी पादपों की प्रतिरोधकता उसकी रोगजनकों को रोग उत्पन्न करने से रोकने की क्षमता है तथा इसका निर्धारण पोषी पादप के आनुवंशिक ढाँचे द्वारा किया जाता है। प्रजनन की क्रिया अपनाने से पूर्व रोगकारक जीव के बारे में जानकारी तथा उसके प्रसार की क्रियाविधि की जानकारी महत्त्वपूर्ण है। कवकों द्वारा उत्पन्न कुछ रोगों के उदाहरण हैं - गेहूँ का भूरा किट्ट, गन्ने का रैड रॉट रोग तथा आलू पछेती अंगमारी जीवाणु द्वारा उत्पन्न रोग है। क्रूसीफर का ब्लैक रॉट तथा विषाणु द्वारा उत्पन्न रोग तंबाकू मोजेक, शलजम मोजेक आदि है।
रोगप्रतिरोधकता के लिए प्रजनन विधियाँ— प्रजनन, पारंपरिक प्रजनन तकनीकों (जिनका वर्णन पहले किया जा चुका है) अथवा उत्परिवर्तन (म्यूटेसन) द्वारा संपन्न किया जाता है। रोग प्रतिरोधकता के लिए प्रजनन की पारंपरिक विधि संकरण तथा चयन हैं। इसके पद अन्य शस्यी लक्षणों जैसे—उच्च उत्पादन के लिए प्रजनन की विधि के आवश्यक रूप से समरूप हैं। विभिन्न पद क्रमानुसार इस प्रकार हैं— प्रतिरोधकता स्रोतों के लिए जननद्रव्य को छानना, चयनित जनकों का संकरण, संकरों का चयन तथा मूल्यांकन तथा नयी किस्माें का परीक्षण तथा उन्हें उत्पन्न करना।
संकरण तथा चयन द्वारा प्रजनित कुछ शस्य कवकों, जीवाणुओं तथा विषाणुओं के प्रति रोग प्रतिरोधक होती है। ये शस्य किस्में सारणी 9.1 में दी गयी है।
रोग प्रतिरोधी जीन जो विभिन्न फसलों की किस्मों अथवा उनके जंगली प्रजातियों में उपस्थित रहती हैं। लेकिन इनकी सीमित संख्या की उपलब्धता के कारण पारंपरिक प्रजनन बहुधा निरूद्ध होती हैं। पादपों में विविध उपायों द्वारा उत्परिवर्तन प्रेरित किया जाता है तथा बाद में प्रतिरोधकता के लिए पादप पदार्थों का स्क्रीनिंग करने से वांछनीय जीन की पहचान प्राप्त हो जाती है। वांछनीय लक्षण वाले पादप को या तो सीधे ही गुणित किया जा सकता है अथवा इसका प्रयोग प्रजनन में किया जा सकता है। उत्परिवर्तन सोमाक्लोनल वैरिएंट तथा आनुवंशिक अभियांत्रिकी में चुनाव की अन्य प्रजनन विधियाँ हैं। जिनका प्रयोग इस कार्य में किया जाता है।
उत्परिवर्तन— जीन के भीतर आधार अनुक्रम में परिवर्तन द्वारा जो आनुवंशिक विविधताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, वही उत्परिवर्तन है (अध्याय 5 देखें)। इसी के परिणामस्वरूप नए लक्षण अथवा ट्रेट (विशेषक) विकसित होते हैं। वह जनकों में नहीं पाए जाते। उत्परिवर्तन को कृत्रिम रूप से रसायनों के प्रयोग, अथवा विकिरण (गामा विकिरण के समान) द्वारा प्रेरित किया जा सकता है तथा एेसे पादपों के चयन एवं प्रयोग द्वारा जिनमें प्रजनन के लिये वांच्छनीय लक्षण स्रोत के रूप में हों, उत्परिवर्तन प्रजनन कहलाता है। मूँग (बीन) में जो पीत मोजेक वायरस तथा चूर्णिल आसिता के प्रति प्रतिरोधक क्षमता हैं; वह उत्परिवर्तन द्वारा प्रेरित थी।
उपर्युक्त सभी उदाहरण में प्रतिरोधक जीन के स्रोत शामिल हैं। यह जीव उसी फसल की प्रजाति अथवा संबंधी जंगली प्रजाति के होते है; जिन्हें रोग प्रतिरोधकता के लिए प्रजनित करना पड़ता है। प्रतिरोधक जीनों का स्थानांतरण लक्ष्य तथा स्रोत पादप के मध्य लैंगिक संकरण करने के पश्चात् चयन द्वारा संपन्न किया जाता है।
9.2.3 पीड़कों (नाशीकीट) के प्रति प्रतिरोधकता के विकास के लिए पादप-प्रजनन
शस्य पादप तथा शस्य उत्पादों के बड़े पैमाने पर विनाश का अन्य प्रमुख कारण कीट तथा पीड़कों का ग्रसन है। पोषी पादप फसलों में कीट प्रतिरोधकता आकारिकीय, जैव रसायन, अथवा शरीर क्रियात्मक अभिलक्षणों के कारण होता है। अधिकांश पादपों में रोमिल पत्तियाँ पीड़कों के प्रति प्रतिरोधकता से संबंध रखती हैं; जैसे कपास में जैसिड तथा गेहूँ में धान्यपर्ण भृंग। गेहूँ के विशेष प्रकार के तने की वजह से स्टैम सॉफ्लाई उनके पास नहीं आती तथा चिकनी पत्तियाें वाली तथा नैक्टर विहीन कपास की किस्में बॉलवर्म को अपनी ओर आकर्षित नहीं करते। मक्का में उच्च एेस्पारटिक एसिड, लघु नाइट्रोजन तथा शर्करा अंश मक्का के तना भेदक के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न करते हैं।
पीड़क प्रतिरोधकता के लिए प्रजनन विधियों के वही क्रम लागू होते हैं जो अन्य शस्य संबंधी विशेषकों में पाए जाते हैं; जैसे उत्पादन, गुणवत्ता आदि, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। कृषि तथा इसकी जंगली प्रजातियों के प्रतिरोधक जीन का स्रोत कृषक किस्में तथा जननद्रव्य संग्रहण है।
नाशी कीटों के प्रति प्रतिरोधकता विकसित करने के लिए संकरण तथा चयन द्वारा प्रजनित फसलों की कुछ विमुक्त किस्में सारणी 9.2 में प्रदर्शित की गई है-
9.2.4 उन्नत खाद्य गुणवत्ता के लिए पादप प्रजनन
विश्व में लगभग 840 मिलियन से भी अधिक लोगों को उनकी रोजाना की खाद्य तथा पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त आहार प्राप्त नहीं होता। इस संख्या से कही अधिक लोग तीन बिलियन सूक्ष्मपोषकों, प्रोटीन तथा विटामिन अपर्याप्तता अथवा छिपी भूख के शिकार हैं, क्योंकि ये लोग फल, सब्जियाँ, लैग्यूम (फलियाँ), मछली तथा मीट आदि को पर्याप्त मात्रा में नहीं खरीद सकते। भोजन जिसमें आवश्यक सूक्ष्मपोषक विशेषकर विटामिन-ए, आयोडीन, तथा जिंक का अभाव होता है; उससे रोग उत्पन्न होने का जोखिम बढ़ जाता है, परिणामस्वरूप जीवन काल तथा मानसिक सामर्थ्य घट जाती है। जैवपुष्टि-कारण-विटामिन तथा खनिज के उच्च स्तर वाली अथवा उच्च प्रोटीन तथा स्वास्थ्य वर्द्धक वसा वाली प्रजनित फसलें जन स्वास्थ्य को सुधारने के अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रायोगिक माध्यम हैं। उन्नत पोषण/पोषक गुणवत्ता के लिए निम्न को सुधारने के उद्देश्य से प्रजनन किया गया है—
(क) प्राटीन अंश तथा गुणवत्ता
(ख) तेल अंश तथा गुणवत्ता
(ग) विटामिन अंश
(घ) सूक्ष्मपोषक तथा खनिज अंश
पहले से विद्यमान संकर मक्का की तुलना में, 2000 में विमुक्त संकर मक्का में अमीनो एसिड, लायसीन तथा ट्रिप्टोफैन की दुगनी मात्रा विकसित की गई। गेहूँ की किस्म जिसमें उच्च प्रोटीन अंश हों, एटलस 66 कृष्य गेहूँ की एेसी उन्नतशील किस्म तैयार करने के लिए दाता की तरह से प्रयोग किया गया है। लौह तत्व बहुल धान की किस्म को विकसित करना अब संभव हो गया है, इसमें सामान्यतः प्रयोग में लाई गई किस्मों की तुलना में लौह तत्व की मात्रा पाँच गुना अधिक होती है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली ने बहुत सी सब्जियाें की फसलों का मोचन किया है जिनमें विटामिन तथा खनिज प्रचुर मात्रा में होते हैं जैसे गाजर, पालक, कद्दू में विटामिन—ए; करेला, बथुआ, सरसों, टमाटर में विटामिन—सी; पालक तथा बथुआ जिनमें आयरन तथा कैल्सियम प्रचुर मात्रा में; तथा ब्रॉड बींस, लबलब, फ्रैंच तथा गार्डन मटर में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।
9.3 एकल कोशिका प्रोटीन
धान्यों, दलहनों, सब्जियों, फलों आदि के पारंपरिक कृषि उत्पादन से मनुष्यों तथा पशुओं की संख्या जिस दर से बढ़ रही है; आहार संबंधी उसकी माँग पूरी नहीं हो पाती। अनाज से माँसाहार की ओर झुकने से भी धान्यों की माँग बढ़ गई है क्योंकि पशुओं के फार्मिंग (रख-रखाव) के दौरान एक किग्रा. माँस उत्पन्न करने के लिए उसे 3-10 किग्रा. धान्यों की आवश्यकता होती है। 25प्रतिशत से भी अधिक मानव की जनसंख्या भूख तथा कुपोषण का शिकार है। पशु तथा मानव पोषण के लिए प्रोटीन के वैकल्पिक स्रोतों में से एक एकल कोशिका प्रोटीन (एस टी पी) हैं।
सूक्ष्मजीवों का प्रोटीन के अच्छे स्रोत के रूप में बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा रहा है वास्तव में, अधिकांश लोगों द्वारा मशरूम भोजन के रूप में खाए जाने लगे हैं। अतः बड़े पैमाने पर मशरूम संवर्धन एक प्रकार से बढ़ता हुआ उद्योग है। जिससे अब विश्वास सा होने लगा है कि सूक्ष्मजीव भी आहार के रूप में स्वीकार्य हो जायेंगे। नील-हरित शैवाल जैसे स्पाइरूलाइना को, आलू संसाधन संयत्र (जिसमें स्टार्च है), घासफूस, शीरा, पशुखाद और यहाँ तक कि वाहितमल पर आसानी से उगाया जा सकता है; ताकि बड़ी मात्रा में यह प्राप्त हो सके। स्पाइरूलाइना में प्रोटीन, खनिजों, वसा, कार्बाेहाइड्रेटों तथा विटामिनों की प्रचुर मात्रा विद्यमान है। संयोग से इसका उपयोग पर्यावरणीय प्रदूषण को भी कम करता है।
जीवाणुओं की कुछ प्रजातियाँ जैसे, मिथायलोफिलस मिथायलोट्रोपस इनकी वृद्धि तथा बायोमास उत्पादन की उच्च दर से संभावित 25 टन तक प्रोटीन उत्पन्न कर सकते हैं।
9.4 ऊतक संवर्धन
पर्याप्त एवं उन्नत किस्म की फसलें प्रदान करने वाले दक्ष तंत्र द्वारा भोजन की बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिए हमारी पारंपरिक प्रजनन तकनीकें जब असफल हुई तब एक अन्य प्रौद्योगिकी का जन्म हुआ जिसे ऊतक संवर्धन कहते हैं। ऊतक संवर्धन का क्या अर्थ है? 1950 के दौरान वैज्ञानिकों ने जान लिया कि एक पूर्ण पादप कर्त्तोतकी से पुनर्जनित किया जा सकता है; जैसे पादप का कोई भाग ले लीजिए; उसे विशिष्ट पोषक मीडिया तथा रोगाणुरहित स्थिति में एक टेस्टट्यूब में उगने दिया। किसी कोशिका कत्तोेρतकी से पूर्ण पादप में जनित्र होने की यह क्षमता पूर्णशक्तता कहलाती है। उच्च वर्ग के प्राणियों में आप इसे किस प्रकार निष्पादित करेंगे? इसके बारे में जब आप बड़ी कक्षा में जाएँगे तो ज्ञान प्राप्त होगा। इस बात पर यहाँ बल देने की आवश्यकता है कि पोषक माध्यम कार्बन स्रोत जैसे स्युक्रोज तथा अकार्बनिक लवण, विटामिन, अमीनो अम्ल तथा वृद्धि नियंत्रक जैसे अॉक्सिन, सायटोकाइनिन आदि प्रदान करें! इन विधियों के प्रयोग द्वारा अत्यंत ही अल्प अवधि में हजारों पादपों का प्रवर्धन संभव हो सका। ऊतक संवर्धन द्वारा हजारों की संख्या में पादपों को उत्पन्न करने की विधि सूक्ष्मप्रवर्धन कहलाती है। इनमें प्रत्येक पादप आनुवंशिक रूप से मूलपादप के समान होते हैं, जहाँ से वह पैदा हुए हैं, यह सोमाक्लोन कहलाते हैं। अधिकांश महत्त्वपूर्ण खाद्य पादपों जैसे—टमाटर, केला, सेब आदि का बड़े पैमाने पर उत्पादन इस विधि द्वारा किया गया है। किसी ऊतक संवर्धन प्रयोगशाला में आप अपने अध्यापक के साथ जाएँ, ताकि आप इस क्रिया का अवलोकन कर सकें तथा समझ सकें।
इस विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण उपयोग रोग ग्रसित पादपों से स्वस्थ पादपों में पुनर्लाभ है, यदि पादप विषाणु से संक्रमित है, तब भी विभज्योतक (शीर्ष तथा कक्षीय) विषाणु से अप्रभावित रहता है। अतः विभज्योतक (मेरेस्टेम) को अलग कर उसे विट्रो में उगाया जाता है ताकि विषाणु मुक्त पादप तैयार हो सकें। वैज्ञानिकों को केला, गन्ना, आलू आदि संवर्धित विभज्योतक तैयार करने में काफी सफलता मिली है।
यहाँ तक कि वैज्ञानिकाें ने पादपों से एकल कोशिकाएँ अलग की हैं तथा उनकी कोशिका भित्ति का पाचन हो जाने से प्लाज्मा झिल्ली द्वारा घिरा नग्न प्रोटोप्लास्ट पृथक किया जा सका है। प्रत्येक किस्म में वांछनीय लक्षण विद्यमान होते हैं। पादपों की दो विभिन्न किस्मों से अलग किया गया प्रोटोप्लास्ट युग्मित होकर संकर प्रोटोप्लास्ट उत्पन्न करता है जो आगे चलकर नए पादप को जन्म देता है। यह संकर कायिक संकर; जबकि यह प्रक्रम कायिक संकरण कहलाता है। एेसी स्थिति की कल्पना करो जब टमाटर का प्रोटोप्लास्ट आलू के प्रोटोप्लास्ट से युग्मित होता है तथा वृद्धि करने के बाद इससे नए संकर पादप का जन्म होता है। इसमें टमाटर तथा आलू के अभिलक्षण संयुक्त रूप से होते हैं। इस प्रक्रम के परिणामस्वरूप ‘पोमेटो’ का निर्माण होता है; परंतु दुर्भाग्यवश इस पादप में व्यावसायिक उपयोग के लिए वांच्छित समुच्चित अभिलक्षणों का अभाव था।
सारांश
वैज्ञानिक सिद्धांतों को अपनाते हुए पालतू पशुओं की देखभाल तथा उनकी प्रजनन संबंधी प्रक्रियाएँ ही पशुपालन हैं। गुणात्मक तथा मात्रात्मक दोनाें के दृष्टिगत अच्छी पशुपालन पद्धतियों को अपनाने से पशुओं तथा पशु उत्पादों से खाद्यों की बढ़ती हुई माँग को पूरा किया जा सकता है। इन पद्धतियों में (क) फार्म तथा फार्म पशु प्रबंधन तथा (ख) पशु प्रजनन शामिल हैं। शहद का उच्च पोषक मान तथा इसके औषधीय महत्त्व को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खी पालन अथवा मौन पालन पद्धति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। मात्स्यकी एक अन्य फलता-फूलता उद्योग है, जो मछली, मछली उत्पादों तथा अन्य जलीय खाद्यों की बढ़ती हुई माँग को पूरा कर रहा है।
पादप प्रजनन का प्रयोग एेसी नयी किस्मों के विकास में किया जा रहा है जो रोगजनकों तथा नाशीकीटों के प्रति प्रतिरोधक हैं। इससे खाद्य उत्पादन बढ़ा है इस विधि का प्रयोग पादप खाद्यों के प्रोटीन अंशों तथा खाद्य की गुणवत्ता को बढ़ाने में किया जाता है। भारतवर्ष में शस्य पादपों की भिन्न-भिन्न किस्में पैदा की गई हैं। इन सभी उपायों से खाद्य उत्पादन बढ़ा है। ऊतक संवर्धन तथा कायिक संकरण की तकनीकों एवं पादपों के पत्ति संवर्धन से नई किस्में प्राप्त करने की विपुल संभावना है।
अभ्यास
1. मानव कल्याण में पशु पालन की भूमिका की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
2. यदि आपके परिवार के पास एक डेरी फार्म है तब आप दुग्ध उत्पादन में उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा में सुधार लाने के लिए कौन-कौन से उपाय करेंगे।
3. ‘नस्ल’ शब्द से आप क्या समझते हैं? पशु प्रजनन के क्या उद्देश्य हैं?
4. पशु प्रजनन के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली विधियों के नाम बताएँ। आपके अनुसार कौन सी विधि सर्वाेत्तम है? क्यों?
5. मौन (मधुमक्खी) पालन से आप क्या समझते हैं? हमारे जीवन में इसका क्या महत्त्व है?
6. खाद्य उत्पादन को बढ़ाने में मत्स्यकी की भूमिका की विवेचना करें।
7. पादप प्रजनन में भाग लेने वाले विभिन्न चरणों का संक्षेप में वर्णन करो।
8. जैव प्रबलीकरण का क्या अर्थ है? व्याख्या कीजिए।
9. विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप का कौन सा भाग सबसे अधिक उपयुक्त है तथा क्यों?
10. सूक्ष्मप्रवर्धन द्वारा पादपों के उत्पादन के मुख्य लाभ क्या हैं?
11. पत्ती में कर्त्तोतक पादप के प्रवर्धन में जिस माध्यम का प्रयोग किया गया है, उसमें विभिन्न घटकों का पता लगाओ।
12. शस्य पादपों के किन्हीं पाँच संकर किस्मों के नाम बताएँ, जिनका विकास भारतवर्ष में हुआ है।