Abhyasan Part-1-001

अध्याय 2

प्रबंध के सिद्धांत


अधिगम उद्देश्य

इस अध्याय के अध्ययन के पश्चात् आप–

  • प्रबंध के सिद्धांतों का अर्थ, प्रकृति एवं महत्त्व को बता सकेंगे;
  • टेलर के वैज्ञानिक प्रबंध के सिद्धांत एवं तकनीकों को समझ सकेंगे;
  • फेयॉल के प्रबंध के सिद्धांतों को समझ सकेंगे।

टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन के व्यवसाय संबंधी सिद्धांत

टोयोटा अपने कार्य परिचालन को दिशानिर्देश देने वाले कुछ भली-भाँति परिभाषित व्यवसाय संबंधी सिद्धांतों का पालन करती है। ये सिद्धांत हैं–

1. प्रत्येक देश की भाषा एवं कानून की भावना का आदर करना खुली एवं उचित निगमत क्रियाओं को करें जिससे कि पूरे विश्व में एक अच्छा निगमत नागरिक बन सकें।

2. प्रत्येक देश की संस्कृति एवं रीति-रिवाजों का आदर करें एवं स्थानीय समुदायों के बीच निगमत क्रियाओं के माध्यम से आर्थिक एवं सामाजिक विकास में योगदान दें।

3. स्वच्छ एवं सुरक्षित उत्पाद उपलब्ध कराएँ तथा प्रत्येक जगह जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करें।

4. उन्नत तकनीक का निर्माण एवं विकास करें एवं उच्च स्तरीय उत्पाद एवं सेवाएँ उपलब्ध कराएँ जो पूरे विश्व में ग्राहकों की आवश्यकता की पूर्ति कर सकें।

5. एेसी निगमत संस्कृति का पालन जो प्रबंध एवं श्रम के बीच पारस्परिक विश्वास एवं सम्मान की रक्षा करते हुए व्यक्तिगत सृजनात्मकता एवं मिलजुल कर कार्य करने के मूल्यों में वृद्धि कर सकें।

6. नवीन प्रबंध के माध्यम से विश्व समुदाय के साथ विकास एवं एकता को अपनाएँ।

7. स्थायी, दीर्घ अवधि विकास एवं पारस्परिक लाभ को पाने के लिए अनुसंधान एवं सृजनात्मक के क्षेत्र में व्यावसायिक साझेदारी के साथ मिलकर कार्य करें एवं नए साझे के लिए तैयार रहें।

यह सिद्धांत कंपनी को अपने 2010 के वैश्विक स्वप्न को दिशा प्रदान करेंगे। यह वैश्विक स्वप्न भविष्य में निरंतर नयापन, पर्यावरण, मित्र तकनीकी, समाज के विभिन्न वर्गों का आदर करना एवं उनके साथ काम करना तथा समाज के साथ पारस्परिक विचार विमर्श करने की अपेक्षा रखता है।

स्रोत–http://www.toyota-global.com/company/historyoftoyota75years/data/conditions/philosophy/guidingprinciples.html


विषय प्रवेश

उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि टोयोटा मोटर कॉरपोरेशन में प्रबंध कार्य सिद्धांतों में निदेशित होता है जो कि कल्पना को स्पष्ट करने एवं इसको प्राप्त करने के मार्ग के संबंध में दिशानिर्देश का काम करते हैं। इसी प्रकार से अन्य बहुत से व्यावसायिक उद्यमों ने संचालन के लिए विभिन्न सिद्धांतों को अपनाया है। अनेक प्रबंध विषय के विचारक एवं लेखकों ने समय-समय पर प्रबंध के सिद्धांतों का अध्ययन किया है। वास्तव में प्रबंध विषय से संबंधित सोच का एक लंबा इतिहास है। प्रबंध के सिद्धांतों का विकास हुआ है एवं अभी भी यह प्रक्रिया जारी है।


प्रबंध के सिद्धांतों का विकास

प्रबंध के इतिहास की खोज करते हुए कई विचारधाराओं से परिचित होते हैं जिन्होंने प्रबंधकीय व्यवहार को दिशा देने के सिद्धांतों की रूपरेखा तैयार की है। इन विचारधाराओं को छः अलग-अलग चरणों में विभक्त किया जा सकता है।

1. प्रारंभिक स्वरूप 2. प्राचीन प्रबंध के सिद्धांत 3. नवीन प्रतिष्ठित सिद्धांत- मानवीय संबंध मार्ग 4. व्यावहारिक विज्ञान मार्ग - संगठनात्मक मानववाद 5. प्रबंधकीय विज्ञान/परिचलनात्मक अनुसंधान 6. आधुनिक प्रबंध

प्रारंभिक स्वरूप

सर्वप्रथम प्रबंध संबंधी विचारों को 3,000-4,000 ई. पू. में दर्ज किया गया। मिस्र के शासक क्योपास को 2,900 ई. पू. में एक पिरामिड के निर्माण के लिए 1 लाख आदमियों की 20 वर्ष तक कार्य करने की आवश्यकता हुई। यह 13 एकड़ ज़मीन पर बनाया गया तथा इसकी ऊँचाई 481 मीटर थी। पत्थर की शिलाओं को हजारों किलोमीटर से लाया जाता था। किवंदती के अनुसार इन पिरामिडों के आसपास के गाँवों में हथौड़े तक की आवाज़ सुनाई नहीं देती थी। एेसे यादगार कार्य को बिना सफल प्रबंधक सिद्धांतों का अनुसरण किए पूरा करना संभव नहीं था।

क्लासिकी प्रबंध सिद्धांत

इस चरण की विशेषता विवेकशील आर्थिक विचार, वैज्ञानिक प्रबंध प्रशासनिक सिद्धांत, अफसरशाही संगठन हैं। विवेकशील आर्थिक विचार की धारणा थी कि लोग मूलतः आर्थिक लाभों से प्रोत्साहित होते हैं। एल. डब्ल्यू. टेलर एवं अन्य का वैज्ञानिक प्रबंध उत्पादन आदि के लिए एक सर्वोत्तम ढंग पर जोर देता है। हेनरी फेयॉल के समान व्यक्तित्व वाले प्रशासनिक सिद्धांतवेत्ताओं ने पद एवं व्यक्तियों को एक सक्षम संगठन में परिवर्तित करने के लिए सर्वोत्तम मार्ग ढूँढ़ा। अफसरशाही संगठन के सिद्धांतवेत्ता, जिनमें अग्रणी मैक्स वैबर थे, ने अधिकारों के गलत प्रयोग, जिससे प्रभावशीलता समाप्त होती थी, के कारण प्रबंधकीय अनियमितताओं को समाप्त करने के मार्ग की खोज की। यह औद्योगिक क्रांति एवं उत्पादन की कारखाना प्रणाली का युग था। बिना संगठनबद्ध उत्पादन को शासित करने वाले सिद्धांतों का अनुसरण किए बिना बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव नहीं था। यह सिद्धांत श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण, मानव एवं मशीन के बीच पारस्परिक संबंध, लोगों का प्रबंधन आदि पर आधारित थे।

नवक्लासिकी सिद्धांत-मानवीय संबंध मार्ग

यह विचार धारा 1920 से 1950 के बीच विकसित हुई। इसका मानना था कि कर्मचारी मात्र नियम, अधिकार 

शृंखला एवं आर्थिक प्रलोभन के कारण ही विवेक से कार्य नहीं करते बल्कि वह सामाजिक आवश्यकताओं प्रेरणाओं एवं दृष्टिकोण से भी निर्देशित होते हैं। जी. ई. सी. आदि पर ‘हार्थेन’ अध्ययन किया गया। यह स्वभाविक था कि औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक दौर में तकनीक एवं प्रौद्योगिकी पर अधिक जोर था। मानवीय तत्व पर ध्यान देना इस विचारधारा का एक विशिष्ट पहलू था। इस पर ध्यान देना व्यावहारिक विज्ञान के विकास के अग्रदूत के रूप में कार्य करना था।

व्यावहारिक विज्ञान मार्ग-संगठनात्मक मानवतावाद–संगठनात्मक व्यवहारकर्ता जैसे क्रिस अएर्गरिस, डगलस मैकग्रैगर, अब्राहम मैसलो एवं लैडरिक-हर्जबर्ग ने इस मार्ग को विकसित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र, समाज शास्त्र एवं मानव शास्त्र के ज्ञान का उपयोग किया। संगठनात्मक मानवतावाद का दर्शन है जिसमें व्यक्तियों को कार्य स्थल पर एवं घर पर अपनी सभी योग्यताओं एवं रचनात्मक कौशल का उपयोग करना होता है।

प्रबंध विज्ञान/परिचालनात्मक अनुसंधान–यह प्रबंधकों को निर्णय लेने में सहायतार्थ परिमाण संबंधी तकनीक के उपयोग प्रचालन एवं अनुसंधान पर जोर देता है।

आधुनिक प्रबंध–यह आधुनिक संगठनों को एक जटिल प्रणाली के रूप में देखता है तथा संगठनात्मक एवं मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए आकस्मिक घटना के रूप में आधुनिक तकनीक का प्रयोग करता है।

स्रोत–इंटरनेट आधुनिक इतिहास स्रोत पुस्तक से साभार 


आपने देखा कि प्रबंध विषय का विकास बहुत मंत्रमुग्ध करने वाला रहा है। इस अध्याय में हम फैड्रिक विंसलो टेलर एवं हेनरी फेयॉल के योगदान का अध्ययन करेंगे। आप पढ़ ही चुके हैं कि यह दोनों एेतिहासिक (क्लासकी) व्यवसाय के सिद्धांतों से जुड़े रहे हैं। प्रबंध एक शास्त्र के रूप में अध्ययन में इन दोनों का बड़ा भारी योगदान रहा है। एल. डब्ल्यू. टेलर एक अमरीकन यांत्रिकी इंजीनियर रहा है जबकि हेनरी फेयॉल एक फ्रांसीसी खदान इंजीनियर। टेलर ने वैज्ञानिक प्रबंध की अवधारणा दी जबकि, फेयॉल ने प्रशासनिक सिद्धांतों पर बल दिया।

इससे पहले कि उनके योगदान का विस्तार से अध्ययन करें आइए प्रबंध के सिद्धांतों के अर्थ को समझें।

प्रबंध के सिद्धांत–एक अवधारणा

प्रबंध का सिद्धांत निर्णय लेने एवं व्यवहार के लिए व्यापक एवं सामान्य मार्गदर्शक होता है। उदाहरण के लिए माना कि एक कर्मचारी की पदोन्नति के संबंध में निर्णय लेना है तो एक प्रबंधक वरीयता को ध्यान में रखना चाहता है तो दूसरा योग्यता के सिद्धांत पर चलना चाहता है।

प्रबंध के सिद्धांतों को खालिस विज्ञान से भिन्न माना जा सकता है। प्रबंध के सिद्धांत खालिस विज्ञान के सिद्धांतों के समान बेलोच नहीं होते हैं। क्योंकि इनका संबंध मानवीय व्यवहार से है इसलिए इनको परिस्थिति की माँग के अनुसार उपयोग में लाया जाता है। व्यवसाय के प्रभावित करने वाले मानवीय व्यवहार एवं तकनीक कभी स्थिर नहीं होते हैं। यह सदा बदलते रहते हैं। उदाहरणार्थ, सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी के अभाव में एक प्रबंधक एक संकुचित क्षेत्र में फैले छोटे कार्यबल का पर्यवेक्षण कर सकता है। सूचना एवं संप्रेषण तकनीक के आगमन ने प्रबंधकों की पूरे विश्व में फैले विशाल व्यावसायिक साम्राज्य के प्रबंधन की योग्यता को बढ़ाया है। बैंगलोर में स्थित इनफोसिस का प्रधान कार्यालय इस पर गर्व कर सकता है कि उसके गोष्ठी कक्ष में एशिया का सबसे बड़ा चित्रपट है जहाँ बैठे उसके प्रबंधक विश्व के किसी भी भाग में बैठे अपने कर्मचारी एवं ग्राहक से संवाद कर सकते हैं।

प्रबंध के सिद्धांतों की समझ को विकसित करने के लिए यह जानना भी उपयोगी रहेगा कि यह सिद्धांत नया नहीं है। प्रबंध के सिद्धांतों एवं प्रबंध की तकनीकों में अंतर होता है। तकनीक अभिप्राय प्रक्रिया एवं पद्धतियों से है। यह इच्छित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न चरणों की  शृंखला होते हैं। सिद्धांत तकनीकों का प्रयोग करने में निर्णय लेने अथवा कार्य करने में मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। इसी प्रकार से सिद्धांतों को मूल्यों से भिन्न समझना चाहिए। मूल्यों से अभिप्राय किसी चीज को स्वीकार करने अथवा उसकी इच्छा रखने से है। मूल्य नैतिकतापूर्ण होते हैं। सिद्धांत व्यवहार के आधारभूत सत्य अथवा मार्गदर्शक होते हैं। मूल्य समाज में लोगों के व्यवहार के लिए सामान्य नियम होते हैं जिनका निर्माण समान व्यवहार के द्वारा होता है जबकि प्रबंध के सिद्धांतों का निर्माण कार्य की परिस्थितियों में अनुसंधान द्वारा होता है तथा ये तकनीकी प्रकृति के होते हैं। प्रबंध के सिद्धांतों को व्यवहार में लाते समय मूल्यों की अवहेलना नहीं कर सकते क्योंकि व्यवसाय को समाज के प्रति सामाजिक एवं नैतिक उत्तरदायित्वों को निभाना होता है।

प्रबंध के सिद्धांतों की प्रकृति

प्रकृति का अर्थ है किसी भी चीज के गुण एवं विशेषताएँ। सिद्धांत सामान्य औपचारिक कथन होते हैं जो कुछ परिस्थितियों में ही लागू होते हैं इनका विकास प्रबंधकों के अवलोकन, परीक्षण एवं व्यक्तिगत अनुभव से होता है प्रबंध को विज्ञान एवं कला दोनों के रूप में विकसित करने में उनका योगदान इस पर निर्भर करता है कि उन्हें किस प्रकार से प्राप्त किया जाता है तथा वह प्रबंधकीय व्यवहार को कितने प्रभावी ढंग से समझा सकते हैं एवं उसका पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इन सिद्धांतों को विकसित करना विज्ञान है तो इनके उपयोग को कला माना जा सकता है। यह सिद्धांत प्रबंध को व्यवहारिक पक्ष के अध्ययन एवं शैक्षणिक योग्यता को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। प्रबंध के उच्च पदों पर पहुँचना जन्म के कारण नहीं बल्कि आवश्यक योग्यताओं के कारण होता है। स्पष्ट है कि प्रबंध पेशे के रूप में विकास के साथ प्रबंध के सिद्धांतों के महत्त्व में वृद्धि हुई है।

सिद्धांत, कार्य के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। यह कारण एवं परिणाम में संबंध को स्पष्ट करते हैं। प्रबंध करते समय, प्रबंध के कार्य नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निदेशन एवं नियंत्रण प्रबंध की क्रियाएँ हैं। जबकि सिद्धांत इन कार्यों को करते समय प्रबंधकों को निर्णय लेने में सहायक होते हैं। निम्न बिंदु प्रबंध के सिद्धांतों की प्रकृति को संक्षेप में बताते हैं।

(क) सर्व प्रयुक्त–प्रबंध के सिद्धांत सभी प्रकार के संगठनों में प्रयुक्त किए जा सकते हैं। यह संगठन व्यावसायिक एवं गैर-व्यावसायिक, छोटे एवं बड़े, सार्वजनिक तथा निजी, विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र के हो सकते हैं। लेकिन वह किस सीमा तक प्रयुक्त हो सकते हैं यह संगठन की प्रकृति, व्यावसायिक कार्यों, परिचालन के पैमाने आदि बातों पर निर्भर करेगा। उदाहरण के लिए, अधिक उत्पादकता के लिए कार्य को छोटे-छोटे भागों में बाँटा जाना चाहिए तथा प्रत्येक कर्मचारी को अपने कार्य में दक्षता के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। यह सिद्धांत सरकारी कार्यालयों में विशेष रूप से प्रयुक्त हो सकता है जहाँ डाक अथवा विलेखों को प्राप्त करने एवं भेजने के लिए दैयनांदिनी प्रेषण र्क्लक, कंप्यूटर में आँकड़ों को दर्ज करने के लिए आँकड़े प्रवेश परिचालक, चपरासी, अधिकारी आदि होते हैं। ये सिद्धांत सीमित दायित्व कंपनियों में भी प्रयुक्त होते हैं, उदाहरणार्थ उत्पादन, वित्त, विपणन तथा अनुसंधान एवं विकास आदि। कार्य विभाजन की सीमा परिस्थिति अनुसार भिन्न हो सकती है।

(ख) सामान्य मार्गदर्शन–सिद्धांत कार्य के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते हैं लेकिन ये, सभी प्रबंधकीय समस्याओं का तैयार, शतप्रतिशत समाधान नहीं होते हैं। इसका कारण है वास्तविक परिस्थितियाँ बड़ी जटिल एवं गतिशील होती हैं तथा यह कई तत्वों का परिणाम होती हैं। लेकिन सिद्धांतों के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता क्योंकि, छोटे से छोटा दिशानिर्देश भी किसी समस्या के समाधान में सहायक हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि दो विभागों में कोई विरोधाभास की स्थिति पैदा होती है, तो इससे निपटने के लिए प्रबंधक संगठन के व्यापक उद्देश्यों को प्राथमिकता दे सकते हैं।

(ग) व्यवहार एवं शोध द्वारा निर्मित–प्रबंध के सिद्धांतों का सभी प्रबंधकों के अनुभव एवं बुद्धि चातुर्य एवं शोध के द्वारा ही निर्माण होता है। उदाहरण के लिए सभी का अनुभव है कि किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन अनिवार्य है। यह सिद्धांत प्रबंध के सिद्धांतों का एक अंग है। दूसरी ओर कारखाने में कामगारों की थकान की समस्या के समाधान के लिए भारी दवाब को कम करने के लिए भौतिक परिस्थितियों में सुधार के प्रभाव की जांच हेतु परीक्षण किया जा सकता है।

(घ) लोच–प्रबंध के सिद्धांत बेलोच नुस्खे नहीं होते जिनको मानना अनिवार्य ही हो। ये लचीले होते हैं तथा परिस्थिति की माँग के अनुसार प्रबंधक इन में सुधार कर सकते हैं। एेसा करने के लिए प्रबंधकों को पर्याप्त छूट होती है उदाहरण के लिए सभी अधिकारों का एक ही व्यक्ति के पास होना (केंद्रीकरण) अथवा उनका विभिन्न लोगों में वितरण (विकेंद्रीकरण) प्रत्येक उद्यम की स्थिति एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। वैसे प्रत्येक सिद्धांत वे हथियार होते हैं जो अलग-अलग उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अलग-अलग होते है तथा प्रबंधक को निर्णय लेना होता है कि किस परिस्थिति में वह किस सिद्धांत का प्रयोग करे।

(ङ) मुख्यतः व्यावहारिक–प्रबंध के सिद्धांतों का लक्ष्य मानवीय व्यवहार को प्रभावित करना होता है। इसलिए प्रबंध के सिद्धांत मुख्यतः व्यावहारिक प्रकृति के होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि यह सिद्धांत वस्तु स्थिति एवं घटना से संबद्ध नहीं होते हैं। अंतर केवल यह होता है कि किसको कितना महत्त्व दिया जा रहा है। सिद्धांत संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के बीच पारस्परिक संबंध को भली-भाँति समझने में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए कारखाने की योजना बनाते समय यह ध्यान में रखा जाएगा कि व्यवस्था के लिए कार्य प्रवाह का माल के प्रवाह एवं मानवीय गतिविधियों से मिलान होना चाहिए।

(च) कारण एवं परिणाम का संबंध–प्रबंध के सिद्धांत, कारण एवं परिणाम के बीच संबंध स्थापित करते हैं जिससे कि उन्हें बड़ी संख्या में समान परिस्थितियों में उपयोग किया जा सके। यह हमें बताते हैं कि यदि किसी एक सिद्धांत को एक परिस्थिति विशेष में उपयोग किया गया है, तो इसके क्या परिणाम हो सकते हैं। प्रबंध के सिद्धांत कम निश्चित होते हैं क्योंकि यह मुख्यतः मानवीय व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। वास्तविक जीवन में परिस्थितियाँ सदा एक समान नहीं रहती हैं। इसलिए कारण एवं परिणाम के बीच सही-सही संबंध स्थापित करना कठिन होता है। फिर भी प्रबंध के सिद्धांत कुछ सीमा तक इन संबंधों को स्थापित करने में प्रबंधकों की सहायता करते हैं, इसीलिए ये उपयोगी होते हैं। आपात स्थिति में अपेक्षा की जाती है कि कोई एक उत्तरदायित्व तथा अन्य उसका अनुकरण करें। लेकिन यदि विभिन्न प्रकार की परिचलनात्मक विशिष्टता की परिस्थिति है जैसे कोई नया कारखाना लगाना है तो निर्णय लेने में अधिक सहयोग प्राप्त करना उचित रहेगा।

(छ) अनिश्चित–प्रबंध के सिद्धांतों का प्रयोग अनिश्चित होता है अथवा समय विशेष की मौजूदा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आवश्यकतानुसार सिद्धांतों के प्रयोग में परिवर्तन लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए कर्मचारियों को न्यायोचित पारिश्रमिक मिलना चाहिए, लेकिन न्यायोचित क्या है इसका निर्धारण बहुत से तत्वों के द्वारा होगा। इनमें सम्मिलित हैं, कर्मचारियों का योगदान, नियोक्ता की भुगतान क्षमता तथा जिस व्यवसाय का हम अध्ययन कर रहे हैं, उसमें प्रचलित मजदूरी दर।

प्रबंध के सिद्धांतों में निहित गुण एवं विशेषताओं का वर्णन कर लेने के पश्चात् आपके लिए प्रबंधकीय निर्णय लेने में इन सिद्धांतों के महत्त्व को समझना सरल होगा। लेकिन इससे पहले आप साथ में दिए गए बॉक्स में भारत के एक अत्यधिक सफल व्यवसायी एवं बायोकोन के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सी. ई. ओ.) किरन मजूमदार शॉ के ‘वस्तुस्थिति अध्ययन’ को पढ़ सकते हैं। आप देखेंगे कि किस प्रकार से वह बायोटेक्नोलॉजी क्षेत्र, जिसे बहुत ही कम लोग जानते थे, को एक अत्यधिक लाभ कमाने वाली कंपनी में परिवर्तित कर दिया तथा उन्होंने वह नाम कमाया जो किसी भी व्यक्ति का स्वप्न हो सकता है।

उपरोक्त कहानी से यह स्पष्ट है कि डॉ. किरन मजूमदार शॉ के प्रयत्नों के कारण बायोकॉन की सफलता संयोग मात्र नहीं थी। यह एक सद्-प्रयत्न था जिसमें गुणों का प्रयोग किया गया जो कि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रबंधक सिद्धांतों का भाग है। अब आप इन सिद्धांतों के महत्त्व को जान सकते हैं।

डॉ. किरण मजूमदार शॉ की कहानी बहुत प्रेरणादायक है। उन्होंने उस समय जैव प्रौद्योगिकी की जबर्दस्त क्षमता का पूर्वानुमान किया जब कोई भी इसके बारे में सोचने की हिम्मत नहीं करता था। आयरलैंड के बायोकॉन बायो केमिकल लिमिटेड के सहयोग से 10,000 रुपयों से उन्होंने गैराज में अपनी कंपनी बायोकॉन इंडिया की शुरूआत की।

कंपनी भारत और अन्य उभरते बाजारों में अभी तक मरीजों को उच्च गुणवत्ता, किफायती जीवविज्ञान और बायोसिमिलर का लाभ लाने में अग्रणी रही है। आज, यह भारत की सबसे बड़ी और पूरी तरह से एकीकृत बायोफर्मास्यूटिकल कंपनी है जो मधुमेह, कैंसर और अॉटोम्यून्यून स्थितियों के लिए उन्नत, जीवन-रक्षक बायोफर्मास्यूटिकल्स का विकास, निर्माण और आपूर्ति करती है और मूल्य बिंदुओं पर उन्हें सस्ती बनाती है ताकि वह पहुँच योग्य हो सकें।

एक नवाचार नेतृत्व वाले संगठन के रूप में किफायती पहुँच प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करने के बाद, कंपनी ने उन्नत विज्ञान से अंतर्निहित ताकत का विकास किया है ताकि छोटे अणुओं ए.पी.आई और फॉर्मूलेशन और कॉम्प्लेक्स बायोलॉजिकिक्स के समृद्ध पोर्टफोलियो को विकसित, निर्मित और वितरित किया जा सके-दोनों नोवल्स और बायोसिमिलर्स जिसमें मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (एम.ए.बी.एस. सहित), आर.एच.इंसुलिन और इंसुलिन एनालॉग सम्मिलित हैं।

उच्च गुणवत्ता, किफायती जैविक विज्ञान के निर्माण के लिए कंपनी की वैश्विक स्तर की क्षमता ने दुनिया के चौथे सबसे बड़े इंसुलिन निर्माता के रूप में कंपनी को स्थान दिया है, जिससे हमें दुनिया भर में मधुमेह के मरीजों की बढ़ती जरूरतों को दूर करने में मदद मिलती है। भारत में अग्रणी अॉन्कोलॉजी कंपनियों में से एक के रूप में, कंपनी देश में मरीजों, देखभाल करने वालों और चिकित्सकीय चिकित्सकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कैंसर के लिए सुरक्षित, प्रभावशाली और किफायती दवाएँ लाई है। 

स्रोत–http://biocon.com/https://www.biocon.com/biocon_aboutus_people_bod.asp 


प्रबंध के सिद्धांतों का महत्त्व  

प्रबंध के सिद्धांतों का महत्त्व उनकी उपयोगिता के कारण है। यह प्रबंध के व्यवहार का उपयोगी सूक्ष्म ज्ञान देता है एवं प्रबंधकीय आचरण को प्रभावित करता है। प्रबंधक इन सिद्धांतों को अपने दायित्व एवं उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए उपयोग में ला सकते हैं। आप यह तो मानेंगे कि प्रत्येक सारगर्भित चीज निहित सिद्धांत के द्वारा शासित होती है। [ सिद्धांत प्रंबंधकों को निर्णय लेने एवं उनको लागू करने में मार्गदर्शन करते हैं।] प्रबंध के सिद्धांतकार का प्रयत्न सदा निहित सिद्धांतों की खोज करना रहा है तथा रहना भी चाहिए जिससे कि इन्हें दोहराई जा रही परिस्थितियों में स्वभाविक रूप से प्रबंध के लिए उपयोग में लाया जा सके। प्रबंध के सिद्धांतों के महत्त्व को निम्न बिंदुओं के रूप में समझाया जा सकता है–

(क) प्रबंधकों को वास्तविकता का उपयोगी सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करना–प्रबंध के सिद्धांत, प्रबंधकों को वास्तविक दुनियावी स्थिति में उपयोगी पैंठ कराते हैं। इन सिद्धांतों को अपनाने से उनके प्रबंधकीय स्थिति एवं परिस्थितियों के संबंध में ज्ञान, योग्यता एवं समझ में वृद्धि होगी। इससे प्रबंधक अपनी पिछली भूलों से कुछ सीखेगा तथा बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तेजी से हल कर समय की बचत करेगा। इस प्रकार प्रबंध के सिद्धांत, प्रबंध क्षमता में वृद्धि करते हैं उदाहरण के लिये, एक प्रबंधक दिन प्रतिदिन के निर्णय अधीनस्थों के लिए छोड़ सकता है तथा स्वयं विशिष्ट कार्यों को करेगा जिसके लिए उसकी अपनी विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी। इसके लिए वह अधिकार अंतरण के सिद्धांत का पालन करेगा।

(ख) संसाधनों का अधिकतम उपयोग एवं प्रभावी प्रशासन–कंपनी को उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक दोनों संसाधन सीमित होते हैं। इनका अधिकतम उपयोग करना होता है। इनके अधिकतम उपयोग से अभिप्राय है, कि संसाधनों को इस प्रकार से उपयोग किया जाए कि उनसे कम से कम लागत पर अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके। सिद्धांतों की सहायता से प्रबंधक अपने निर्णयों एवं कार्यों में कारण एवं परिणाम के संबंध का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इससे गलतियों से शिक्षा ग्रहण करने की नीति में होने वाली क्षति से बचा जा सकता है। प्रभावी प्रशासन के लिए प्रबंधकीय व्यवहार का व्यक्तिकरण आवश्यक है जिससे कि प्रबंधकीय अधिकारों का सुविधानुसार उपयोग किया जा सके। प्रबंध के सिद्धांत, प्रबंध में स्वेच्छाचार की सीमा निर्धारित करते हैं जिससे कि प्रबंधकों के निर्णय व्यक्तिगत पंसद एवं पक्षपात से मुक्त रहें। उदाहरण के लिए, विभिन्न विभागों के लिए वार्षिक बजट के निर्धारण में प्रबंधकों द्वारा निर्णय उनकी व्यक्तिगत पंसद पर निर्भर करने के स्थान पर संगठन के उद्देश्यों के प्रति योगदान के सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

(ग) वैज्ञानिक निर्णय–निर्णय, निर्धारित उद्देश्यों के रूप में विचारणीय एवं न्यायोचित तथ्यों पर आधारित होने चाहिएँ। यह समयानुकूल, वास्तविक एवं मापन तथा मूल्यांकन के योग्य होने चाहिएँ। प्रबंध के सिद्धांत विचारपूर्ण निर्णय लेने में सहायक होने चाहिए। हाँ तर्क पर जोर देते हैं न कि आँख मूंदकर विश्वास करने पर। प्रबंध के जिन निर्णयों को सिद्धांतों के आधार पर लिया जाता है, वह व्यक्तिगत द्वेष भावना तथा पक्षपात से मुक्त होते हैं। यह परिस्थिति के तर्कसंगत मूल्यांकन पर आधारित होते हैं।

(घ) बदलती पर्यावरण की आवश्यकताओं को पूरा करना–सिद्धांत यद्यपि सामान्य दिशा निर्देश प्रकृति के होते हैं तथापि इनमें परिवर्तन होता रहता है, जिससे यह प्रबंधकों की पर्यावरण पर बदलती आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। आप पढ़ चुके हैं कि प्रबंध के सिद्धांत लोचपूर्ण होते हैं, जो गतिशील व्यावसायिक पर्यावरण के अनुरूप ढाले जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, प्रबंध के सिद्धांत श्रम-विभाजन एवं विशिष्टीकरण को बढ़ावा देते हैं। आधुनिक समय में यह सिद्धांत सभी प्रकार के व्यवसायों पर लागू होते हैं। कंपनियाँ अपने मूल कार्य में विशिष्टता प्राप्त कर रही हैं तथा अन्य व्यावसायिक कार्यों को छोड़ रही हैं। इस संदर्भ में हिन्दुस्तान लीवर लि. के निर्णय का उदाहरण ले सकते हैं जिसने अपने मूलकार्य से अलग रसायन एवं बीज के व्यवसाय को छोड़ दिया है। कुछ कंपनियाँ गैर मूल कार्य जैसे शेयर हस्तांतरण प्रबंध एवं विज्ञापन को बाहर की एजेंसियों से करा रही हैं। यहाँ तक कि आज अनुसंधान एवं विकास, विनिर्माण एवं विपणन जैसे मूल कार्यों को भी बाहर अन्य इकाइयों से कराया जा रहा है। अपने व्यावसायिक प्रक्रिया बाह्य स्रोतीकरण एवं ज्ञान प्रक्रिया बाह्य स्रोतीकरण में बढ़ोतरी के संबंध में तो सुना ही होगा।

(ङ) सामाजिक उत्तरदायत्वों को पूरा करना–जनसाधारण में बढ़ती जागरुकता व्यवसायों विशेषत सीमित दायित्व कंपनियों, को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए बाध्यकारी रही हैं। प्रबंध के सिद्धांत एवं प्रबंध विषय का ज्ञान इस प्रकार की माँगों के परिणामस्वरूप ही विकसित हुआ है। तथा समय के साथ-साथ सिद्धांतों की व्याख्या से इनके नए एवं समकालीन अर्थ निकल रहे हैं। इसीलिए यदि आज कोई समता की बात करता है, तो यह मजदूरी के संबंध में ही नहीं होती। ग्राहक के लिए मूल्यवान, पर्यावरण का ध्यान रखना, व्यवसाय के सहयोगियों से व्यवहार पर भी यह सिद्धांत लागू होता है। जब इस सिद्धांत को लागू किया जाता है, तो हम पाते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने पूरे शहरों का विकास किया है, जैसे भेल (बी. एच. ई. एल.) ने हरिद्वार (उत्तराखंड) में रानीपुर का विकास किया है। श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ का भी उदाहरण दिया जा सकता है जिसे हम पृष्ठ पर दिए बॉक्स में देख सकते हैं।

(च) प्रबंध प्रशिक्षण, शिक्षा एवं अनुसंधान– प्रबंध के सिद्धांत प्रबंध विषय के ज्ञान का मूलाधार हैं। इनका उपयोग प्रबंध के प्रशिक्षण, शिक्षा एवं अनुसंधान के आधार के रूप में किया जाता है। आप अवश्य जानते होंगे कि प्रबंध संस्थानों में प्रवेश के पूर्व प्रबंध की परीक्षा ली जाती है। क्या आप समझते हैं कि इन परीक्षाओं का विकास बिना प्रबंध के सिद्धांतों की समझ एवं इनको विभिन्न परिस्थितियों में कैसे उपयोग किया जा सकता है, को जाने बिना किया जा सकता है। यह सिद्धांत प्रबंध को एक शास्त्र के रूप में विकसित करने का प्रारंभिक आधार तैयार करते हैं। पेशेवर विषय जैसे कि एम.बी.ए. (मास्टर अॉफ बिजिनेस एडमिनिस्ट्रेशन) बी.बी.ए. (बैचलर अॉफ बिजिनेस एडमिनिस्ट्रेशन) में भी प्रारंभिक स्तर के पाठ्यक्रम के भाग के रूप में इन सिद्धांतों को पढ़ाया जाता है।

अपनी समझ परखिए

1. क्या आप सोचते हैं कि टोयोटा एवं किरन मजूमदार शॉ के उदाहरण से जो नवीन विचार दृष्टि गोचर हो रहा है उसे प्रबंध के सिद्धांतों से जोड़ा जा सकता है?

2. भेल एवं श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ के प्रयत्नों को आप प्रबंध के सिद्धांतों के महत्त्व के किस पहलू से जोड़ेंगे?

यह सिद्धांत भी प्रबंध में विशिष्टता लाते हैं एवं प्रबंध की नयी तकनीकों के विकास में सहायक होते हैं। हम देखते हैं कि परिचालन अनुसंधान, लागत लेखांकन, समय पर, कैनबन एवं केज़न जैसे तकनीकों का विकास इन सिद्धांतों में और अधिक अनुसंधान के कारण हुआ है। इन तकनीकों का आगे बॉक्स में संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि प्रबंध के सिद्धांतों के अर्थ, प्रकृति एवं महत्त्व को यदि हम समझ लेते हैं तो वास्तविक जीवन में इनके उपयोग में यह हमारी सहायता करेंगे।

जैसा कि अध्याय के प्रारंभ में कहा जा चुका है प्रबंध के सिद्धांतों के विकास का लंबा इतिहास है तथा यह अभी भी विकसित हो रहे हैं। इसके पश्चात् पुरानी विचारधारा, विशेष रूप से एल. डब्ल्यू. टेलर एवं हेनरी फेयॉल द्वारा प्रतिपादित, प्रबंध के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है।

श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़–व्यवसाय एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का सम्मिश्रण (महिलाओं का संगठन–महिलाओं द्वारा एवं महिलाओं के लिए)

श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़-सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ व्यापार का संयोजन (महिलाओं का संगठन-महिलाओं द्वारा एवं महिलाओं के लिए)

श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ की कहानी प्रबंधकों के लिए बहुत प्रेरणादायक है। यह दिखाता है कि संगठन सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ व्यापार को कैसे जोड़ सकता है और अपने हितधारकों को आत्मनिर्भर बना सकता है। हितधारकों में विभिन्न महिलाएँ शामिल हैं, जिनकी संख्या 45,000 से अधिक है, उन्हें लिज्जत पापड़ बनाने का कार्य दिया जाता है, जो पूरी दुनिया में अपनी गुणवत्ता के लिए प्रसिद्ध हैं।

यह संगठन मात्र 80 रुपये के मामूली ऋण के साथ शुरू हुआ और अब यह 650 करोड़ रुपये का सफल उद्यम है। इसका निर्यात 60 करोड़ रुपये से अधिक है। इसके निर्यात व्यापारी निर्यातकों के माध्यम से ब्रिटेन, अमेरिका, मध्य पूर्व देशों, थाईलैंड, सिंगापुर, हांगकांग, हॉलैंड, जापान, अॉस्ट्रेलिया और अन्य देशों में हैं।

उनकी सफलता के मुख्य कारणों का आधार इनके मूल मूल्य हैं जिन्हें सतत् रूप से सन् 1959 में अपनी स्थापना के बाद से लगातार और नियमित रूप से लागू किया जा रहा है। इसने दिखाया है कि गांधीजी के मूल्यों को व्यापार के साथ कैसे जोड़ना संभव है। श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ तीन अलग-अलग अवधारणाओं (मूल मूल्य) का सम्मिश्रण है, अर्थात्-

1. व्यापार की अवधारणा

2. परिवार की अवधारणा

3. भक्ति की अवधारणा

इन सभी अवधारणाओं का समान रूप से इस संस्थान में पालन किया जाता है। इस सम्मिश्रण के परिणामस्वरूप, सोचने का एक अनोखा लिज्जत तरीका विकसित हुआ है।

व्यवसाय की अवधारणा के अलावा, संस्थान ने अपनी सभी सदस्य बहनों के साथ पारस्परिक पारिवारिक स्नेह, संबंध और विश्वास की अवधारणा को विकसित किया है। संस्था के सभी मामलों का निपटान अपने स्वयं के परिवार की भाँति किया जाता है। परंतु संस्था द्वारा अपनाई गई सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा भक्ति की अवधारणा है। सदस्य-बहनों, कर्मचारियों और शुभचिंतकों के लिए, संस्थान कभी भी मात्र आजीविका कमाने की जगह भर नहीं है - यह किसी की ऊर्जा को अपने फायदे के लिए उपयोग करना नहीं, बल्कि सभी के लाभ के लिए पूजा करने का एक स्थान है। लिज्जत पापड़ सदस्य-बहनों के बच्चों को छात्रवृत्ति प्रदान करता है जो हर साल 10वीं और 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करते हैं। इसका उद्देश्य महिला सदस्यों को अपने बच्चों को शिक्षा हेतु प्रोत्साहित करना है। संगठन को विभिन्न सम्मान भी प्राप्त हुए हैं।

स्रोत– http://www.lijjat.com से अनुकूलित 

टेलर का वैज्ञानिक प्रबंध

वैज्ञानिक प्रबंध, प्रारंभिक प्रंबंध की विचाराधारा की एक महत्त्वपूर्ण धारा जिसे ‘क्लासीकल विचारधारा’ कहा जाता है। क्लासीकल विचारधारा वर्ग की दो अन्य धाराएँ हैं। फेयॉल की प्रशासनिक ज्ञान एवं मैक्स वैबर्स की अफसरशाही। हम यहाँ अफसरशाही का वर्णन नहीं करेंगे। वैज्ञानिक प्रबंध के पश्चात् फेयॉल के सिद्धांतों का वर्णन किया जाएगा।

फैडरिक विंसलो टेलर (20 मार्च, 1856 से 21 मार्च, 1915 तक) एक अमरीका का मैकेनिकल इंजीनियर था जिसने औद्योगिक कार्यक्षमता में सुधार करना चाहा। 1874 में वह एक शिक्षार्थी मैकेनिक बना, जहाँ उसने नीचे के स्तर की कारखाना परिस्थितियों के संबंध में ज्ञान प्राप्त किया। उसने मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्री प्राप्त की। वह कार्यक्षमता आंदोलन के विद्वान नेताओं में से एक था। उसने उत्पादन की कारखाना प्रणाली के स्वरूप में परिवर्तन को बहुत अधिक प्रभावित किया। आप उसकी प्रशंसा अवश्य करेंगे वह औद्योगिक क्रांति के उस युग से जुड़ा था, बड़े पैमाने पर उत्पादन जिसकी विशेषता थी। आप यह भी समझते हैं कि प्रत्येक नए विकास को संपूर्णता प्राप्त करने में कुछ समय लगता है। टेलर के योगदान की उत्पादन की कारखाना प्रणाली को संपूर्णता दिलाने के प्रयत्नों के संदर्भ में देखना चाहिए।

फैडरिक विंसलो टेलर-वैज्ञानिक प्रबंध आंदोलन के संस्थापक

समय अवधि; - 20 मार्च, 1856 से 21 मार्च, 1915
पेशा– - अमरीकन मैकेनिकल इंजीनियर,
शिक्षा 1883 में स्टोवन्स इंस्टीट्यूट अॉफ टेक्नोलॉजी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्री, पद जिन पर रहे–
1. 1874 शिक्षार्थी मैकेनिस्ट
2. 1884 में मिडविले स्टील कंपनी में कार्यकारी अधिकारी
3. 1896 में बैथलेहम अॉयरन कंपनी, जो बाद में बैथलेहम स्टील कंपनी बन गई, में कार्यरत
4. 1900 में स्थापित टक स्कूल अॉफ बिजनेस में प्रोफेसर
5. 1906 से 1907 तक अमरीकन सोसाइटी अॉफ मैकेनिकल इंजीनियर्स के प्रधान
लेखन कार्य– (क) दि अमरीकन मैगजीन में ‘दि प्रिंसीपल्स अॉफ साइंटीफिक मैनेजमेंट, लेख शृंखला प्रकाशित (मार्च से मई 1911 के मध्य), बाद में पुस्तक के रूप में प्रकाशित
(ख) 1906 में ‘कॉन्क्रीट, प्लेन एंड रीइंफोर्स्
1. 1893 में नोट्स अॉन बैल्टिंग
2. दिसंबर 1906 में ‘अॉन दि आर्ट अॉफ कटिंग मैटलस्’
3. जून 1895 में ‘ए. पीसरेट सिस्टम’
4. 1915 में दि मेकिंग अॉफ ए पुटिंग ग्रीन लेख माला प्रकाशित
5. मार्च 1918 में ‘दि अमरीकन मैगजीन में प्रकाशित नॉट फॉर जीनियस बट फॉर दि एवरेज मैन।’

स्रोत–www.wikipedia.org and www.stevens.edu/library

टेलर का मानना था कि यदि कार्य का वैज्ञानिक रीति से विश्लेषण किया जाए तो इसको करने का सर्वोत्तम ढंग ढूँढ़ा जा सकता है। उसे सबसे अधिक उसके समय एवं गति अध्ययन के लिए याद किया जाता है। उसने किसी भी कार्य को उसके घटकों में विभाजित कर प्रत्येक को सेकेंड तक की समय अवधि में मापा।

टेलर का विश्वास था कि समकालीन प्रबंध अभी अपनी शैशव अवस्था में था तथा उसका एक शास्त्र के रूप में अध्ययन करने की आवश्यकता थी। वह यह भी चाहता था कि कर्मचारियों को प्रबंध में सहयोग करना चाहिए, इसलिए श्रम संगठनों की कोई आवश्यकता नहीं है। सर्वश्रेष्ठ परिणाम प्रशिक्षित एवं योग्य प्रबंधक तथा सहयोगी एवं नूतन विचार वाले कार्य दल के बीच साझेदारी से प्राप्त होंगे। दोनों पक्षों को एक दूसरे की आवश्यकता है।

1911 में ‘दि प्रिंसिपल्स अॉफ साइंटीफिक मैनेजमेंट’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में उसने ‘साइंटीफिक मैनेजमेंट’ शब्द की रचना की। जब उन्हें बैथलेहम स्टील कंपनी से निकाल दिया गया तब उसने ‘शॉप फ्लोर’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसकी ठीक-ठीक बिक्री हुई। उसे ‘अमरीकन सोसाइटी अॉफ मैकेनिकल इंजीनियर्स’ का प्रधान चुना गया जिस पद पर वह 1906 से 1907 तक रहे। वह 1900 (डार्ट माउथ कॉलेज) में स्थापित टक स्कूल अॉफ बिजनेस में प्रोफेसर रहे। 1884 में अपनी नेतृत्व क्षमताओं के कारण मिडवैले स्टील कंपनी में कार्यकारी अधिकारी बने। उसने अपने साथी कामगारों को अंतराल पर कार्य करने को कहा। उसने 1898 में बैथलेहम आयरन कंपनी में प्रवेश किया जो बाद में बैथलेहम स्टील कंपनी बनी। मूल रूप से उसे कार्यानुसार मजदूरी पद्धति लागू करने के लिए रखा गया था। मजदूरी प्रणाली के निर्धारण के पश्चात् उसका अधिकार बढ़ गया और शीघ्र ही उसे कंपनी के बड़े अधिकार सौंप दिए गए। अपने नए संसाधनों के मिलने पर उसने अपने कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि की तथा बैथलेहम को अनुसंधान कार्य का प्रदर्शन स्थल बना दिया। दुर्भाग्यवश इस कंपनी को उच्च शक्तिशाली लोगों को बेच दिया गया और टेलर की छुटी्ट कर दी गई। 1910 में टेलर के स्वास्थ्य ने जवाब देना शुरू कर दिया। 1915 में उसकी निमोनिया के कारण मृत्यु हो गई। उसके योगदान का एक सामान्य दर्शन दिए गए बॉक्स से हो सकता है।


वैज्ञानिक प्रबंध में टेलर का योगदान

नीचे दिए गए अंश टेलर के 1912 में यू. एस. हाउस अॉफ रिप्रेजेंटेटिवस् सर्वेशियल कमेटी के समक्ष दिए साक्ष्य एवं उसके सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य 1911 में प्रकाशित ‘दि प्रिंसीपल्स अॉफ साइंटीफिक मैनेजमेंट’ से लिए गए हैं।

वैज्ञानिक प्रबंध के अनुसार सर्वप्रथम अंगूठा टेक नियम के अंतर्गत विकसित कार्यपद्धति में विभिन्न सुधारों में से प्रत्येक की ध्यानपूर्वक जांच की आवश्यकता है दूसरे प्रत्येक कार्य पद्धतियों की सहायता से प्राप्त गति से समय एवं गति अध्ययन के पश्चात् उनमें से कईयों के अच्छे बिंदुओं को एक मानक कार्य पद्धति में एकीकृत कर लिया जाएगा। जिससे कि कामगार पहले की अपेक्षा अधिक तेजी से एवं अधिक सरलता से कार्य कर सकेगा। यह कार्यपद्धति पहले से प्रयुक्त विभिन्न कार्यपद्धतियों के स्थान पर मानक कार्यपद्धति के रूप में अपनाई जाती है तथा यह सभी कर्मचारियों के लिए तब तक मानक बनी रहती है जब तक कि गति एवं समय अध्ययन द्वारा कोई अन्य इससे भी श्रेष्ठ पद्धति इसका स्थान न ले ले। (वैज्ञानिक प्रबंध पृष्ठ 119)

वैज्ञानिक प्रबंध के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं–(वैज्ञानिक प्रबंध पृष्ठ 129-130)

"समय अध्ययन

क्रियात्मक अथवा विशिष्ट पर्यवेक्षण

उपकरणों का मानकीकरण

कार्य पद्धतियों का मानकीकरण

पृथक नियोजन कार्य

अपवाद द्वारा प्रबंध का सिद्धांत

‘स्लाइड रूल्स एवं इसी प्रकार के अन्य समय बचाने वाले साधनों का प्रयोग

कार्य का आवंटन एवं सफल निष्पादन के लिए बड़ी बोनस राशि

‘विभेदात्मक दर’ का प्रयोग

उत्पाद एवं कार्य प्रणालियों की नेमोनिक प्रणाली

कार्यक्रम प्रणाली

आधुनिक लागत प्रणाली आदि"

टेलर इन तत्वों को ‘प्रबंध के तंत्र के मात्र तत्व अथवा विस्तृत विवरण’ कहता था। वह इन्हें प्रबंध के चार सिद्धांतों के विस्तार के रूप में देखता था।

(वैज्ञानिक प्रबंध पृष्ठ 130)

1. वास्तविक विज्ञान का विकास

2. कर्मचारी का वैज्ञानिक पद्धति से चयन

3. कर्मचारी का वैज्ञानिक रीति से शिक्षा एवं विकास

4. प्रबंध एवं कर्मचारियों के बीच नजदीकी एवं मित्रतापूर्ण सहयोग

स्रोत–www.quality.org/TQM-MSI/taylor.html      


वैज्ञानिक प्रबंध के सिद्धांत

औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक दिनों में, जबकि कारखाना संगठन की कोई स्थापित पद्धति मीमांशा नहीं थी, कारखाना मालिक अथवा प्रबंधक प्रबंध कार्य करते हुए आने वाली समस्याओं का समाधान करते समय अधिकांश व्यक्तिगत निर्णयों पर ही निर्भर करते थे। इसे अंगूठा टेक नियम कहा जाता है। अंगूठा टेक नियम अपनाने पर कारखानों का प्रबंध करते समय प्रबंधक परिस्थिति के अनुसार कार्य कर सकते थे लेकिन उन्हें प्रयत्न एवं मूल की पद्धति की सीमाओं का सामना करना पड़ता था। उनके अनुभव को विशिष्टता प्रदान करने के लिए यह जानना महत्त्व रखता था कि कौन कार्य को करता है तथा यह एेसा क्यों करता है? इसके लिए जिस मार्ग पर चलना था, वह वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित थी अर्थात् समस्या को परिभाषित करना, वैकल्पिक समाधानों का विकास करना, परिणामों का पूर्वानुमान लगाना, प्रगति को मापना एवं परिणाम निकालना आदि।

इस परिदृश्य में टेलर वैज्ञानिक प्रबंध के जनक के रूप में उभर कर आए। उन्होंने अंगूठा टेक के स्थान पर वैज्ञानिक प्रबंध सुझाया। उन्होंने मानवीय क्रियाओं को छोटे-छोटे भागों में बाँटा तथा यह पता किया कि वह इसे कम समय एवं अधिक उत्पादकता से किस प्रकार से कर सकता है। इसमें व्यावसायिक क्रियाओं को स्तरीय उपकरण, (उत्पादन में वृद्धि हेतु, पद्धतियों एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों द्वारा करना, गुणवत्ता में सुधार करना एवं लागत तथा बर्बादी को कम करना निहित था)।

टेलर के शब्दों में "वैज्ञानिक प्रबंध यह जानने की कला है कि आप श्रमिकों से क्या काम कराना चाहते हैं और फिर यह देखना कि वे उसको सर्वोत्तम ढंग से एवं कम से कम लागत पर करें।" बैथलहम स्टील कंपनी जिसमें टेलर स्वयं कार्यरत थे, में वैज्ञानिक प्रबंध के सिद्धांतों को लागू करने से उत्पादकता में तीन गुणा वृद्धि हुई। इसलिए इन सिद्धांतों पर विचार करना उचित ही होगा।

(क) विज्ञान पद्धति न कि, अंगूठा टेक नियम–टेलर ने प्रबंध के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धति को लागू करने की पहल की। हम पहले ही प्रबंध अंगूठा टेक नियम की सीमाओं की चर्चा कर चुके हैं। अब क्योंकि सभी प्रबंधक अपने-अपने अंगूठा टेक नियमों को अपनाएँगे इसलिए स्वभाविक है कि सभी समान रूप से प्रभावी नहीं होंगे। टेलर का विश्वास था कि अधिकतम कार्यक्षमता में वृद्धि केवल एक ही सर्वोत्तम विधि थी। इस पद्धति को अध्ययन एवं विश्लेषण के द्वारा विकसित किया जा सकता है। इस प्रकार से विकसित पद्धति को पूरे संगठन में ‘अंगूठा टेक नियम’ के स्थान पर लागू करना चाहिए। वैज्ञानिक पद्धति में प्रारंभिक प्रणालियों का कार्य अध्ययन, सर्वश्रेष्ठ तरीकों का एकीकरण एवं स्तरीय पद्धति के विकास के माध्यम से जाँच पड़ताल सम्मिलित थी, जिसे कि पूरे संगठन में अपनाया जाना चाहिए। टेलर के अनुसार लोहे की छड़ों को डब्बा बंद गाड़ियों में लादने की छोटी सी उत्पादन क्रिया को भी वैज्ञानिक ढंग से नियोजित किया जा सकता है एवं उसका प्रबंधन किया जा सकता है। इससे मानवीय शक्ति एवं समय तथा माल की बर्बादी में भारी बचत होगी। जितनी अधिक व्यवस्थित प्रक्रिया होगी उतनी ही अधिक बचत होगी।

वर्तमान संदर्भ में इंटरनेट का प्रयोग आंतरिक कार्यकुशलता एवं ग्राहक की संतुष्टि में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया है।

(ख) सहयोग न कि टकराव–उत्पादन की कारखाना प्रणाली में प्रबंधक, मालिक एवं श्रमिकों के बीच की कड़ी होते हैं। प्रबंधकों को श्रमिकों से कार्य पूरा कराने का अधिकार मिला होता है इसलिए आप सरलता से समझ सकते हैं कि एक प्रकार वे वर्ग भेद अर्थात् प्रबंधक बनाम श्रमिक, की सदा संभावना बनी रहती है। टेलर ने पाया कि इस टकराव से, श्रमिक, प्रबंधक अथवा कारखाना मालिक किसी को लाभ नहीं पहुँचाता है। उसने प्रबंध एवं श्रमिकों के बीच पूरी तरह से सहयोग पर जोर दिया। दोनों को समझना चाहिए कि दोनों का ही महत्त्व है। इस स्थिति को पाने के लिए टेलर ने प्रबंधक एवं श्रमिक दोनों में संपूर्ण मानसिक क्रांति का आहवान किया। इसका अर्थ था कि प्रबंधक एवं श्रमिक दोनों की सोच में बदलाव आना चाहिए। एेसा होने पर श्रमिक संगठन भी हड़ताल करने आदि की नहीं सोचेंगे।

यदि कंपनी को लाभ होता है तो प्रबंधकों को चाहिए कि वह इसे कर्मचारियों में बाँटे। कर्मचारियों को भी चाहिए कि कंपनी की भलाई के लिए वह परिश्रम करें एवं परिवर्तन को अपनाएँ। टेलर के अनुसार वैज्ञानिक प्रबंध इस दृढ़ विश्वास पर आधारित है कि दोनों का हित समान है, कर्मचारियों की समृद्धि के बिना प्रबंधकों की समृद्धि और इसके विपरीत प्रबंधकों की समृद्धि के बिना कर्म श्रमिकों की समृद्धि भी अधिक समय तक नहीं रह सकती।

जापानियों की कार्य संस्कृति इस स्थिति का उत्कृष्ट उदाहरण है। जापानी कंपनियों में पितृवत्त शैली का प्रबंध होता है। प्रबंधक एवं श्रमिकों के बीच कुछ भी छुपा नहीं होता। श्रमिक यदि हड़ताल करते हैं तो वह काले बिल्ले लगा लेते हैं लेकिन प्रबंध की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए सामान्य घंटों से भी अधिक कार्य करते हैं।

(ग) सहयोग, न कि व्यक्तिवाद–व्यक्तिवाद के स्थान पर श्रम एवं प्रबंध में पूर्णरूप सहयोग होना चाहिए। यह सहयोग, न कि टकराव के सिद्धांत का विस्तार है। प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग होना चाहिए। दोनों को समझना चाहिए कि दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता है।

इसके लिए आवश्यक है कि यदि कर्मचारियों की ओर से कोई रचनात्मक सुझाव आता है तो उस पर ध्यान देना चाहिए। यदि उनके सुझाव से लागत में पर्याप्त कमी आती है तो उन्हें इसका पुरस्कार मिलना चाहिए। उनकी प्रबंध में भागीदारी होनी चाहिए और जब भी कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया जाए तो श्रमिकों को विश्वास में लेना चाहिए।

इसके साथ-साथ श्रमिकों को भी चाहिए कि वह हड़ताल न करें तथा प्रबंध से अनुचित माँग न करें। वास्तव में यदि खुली संप्रेषण व्यवस्था एवं आपस में विश्वास होगा तो श्रम संगठन की आवश्यकता ही नहीं होगी। जापानी कंपनियों के समान पितृवत शैली का प्रबंध होगा जिसमें नियोक्ता कर्मचारियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखेगा।


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चित्र 2.1–प्रबंधक और कर्मचारी लाभ की आपस में भागीदारी करते हुए।

टेलर के अनुसार श्रमिक एवं प्रबंध के बीच कार्य एवं उत्तरदायित्व का लगभग समान विभाजन होगा। पूरे समय प्रबंध कर्मचारियों के कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करेगा। उनकी सहायता करेगा, प्रोत्साहित करेगा एवं उनका मार्ग प्रशस्त करेगा।

(घ) प्रत्येक व्यक्ति का उसकी अधिकाधिक क्षमता एवं समृद्धि के लिए विकास–औद्योगिक कार्य क्षमता अधिकांश रूप से कर्मचारियों की योग्यताओं पर निर्भर करती है। वैज्ञानिक प्रबंध भी कर्मचारियों के विकास को मान्यता देता है। वैज्ञानिक तरीके से कार्य करने के परिणामस्वरूप जो श्रेष्ठतम पद्धति विकसित की गई उसको सीखने के लिए कर्मचारियों का प्रशिक्षण आवश्यक था। टेलर का विचार था कि कार्यकुशलता की नींव कर्मचारी चयन प्रक्रिया में ही पड़ जाती है। प्रत्येक व्यक्ति का चयन वैज्ञानिक रीति से होना चाहिए। जो कार्य उसे सौंपा जाता है वह उसकी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि के लिए उनको आवश्यक प्रशिक्षण मिलना चाहिए। कार्यकुशल कर्मचारी दोनों की अधिकतम कार्यकुशलता एवं समृद्धि सुनिश्चित होगी।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि टेलर व्यवसाय के उत्पादन में वैज्ञानिक पद्धति का कट्टर समर्थक था


वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीक

आइए उसके द्वारा निर्धारित तकनीकों पर चर्चा करें। यह उसके अपने कैरियर/जीवन वृत्ति के दौरान किए गए शोध कार्यों पर आधारित हैं।

कार्यात्मक फोरमैनशिप

कारखाना प्रणाली में फोरमैन वह प्रबंधक होता है, जिसके सीधे सर्म्पक में श्रमिक प्रतिदिन आते हैं। इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में आपने पढ़ा कि फोरमैन निम्नतम स्तर कर प्रबंधक और उच्चतम श्रेणी का श्रमिक होता है। वह केंद्र बिंदु होता है जिसके चारों ओर पूरा उत्पादन नियोजन, क्रियान्वयन एवं नियंत्रण घूमता है। टेलर ने कारखाना ढाँचे में इस भूमिका के निष्पादन के सुधार पर ध्यान दिया। वास्तव में एक अच्छे फोरमैन/पर्यवेक्षक की योग्यताओं की सूची तैयार की लेकिन पाया कि कोई भी व्यक्ति इनको पूरा नहीं कर सका इसलिए उसने आठ व्यक्तियों के माध्यम से क्रियात्मक फोरमैनशिप का सुझाव दिया।

टेलर ने नियोजन एवं उसके क्रियान्वयन को अलग-अलग रखने की वकालत की। इस अवधारणा को कारखाने के निम्नतम् स्तर बढ़ा दिया गया। यह क्रियात्मक फोरमैनशिप कहलाता है। कारखाना प्रबंधक के अधीन योजना अधिकारी एवं उत्पादन अधिकारी थे। नियोजन अधिकारी के अधीन चार कर्मचारी कार्य कर रहे थे; जिनके नाम हैं निर्देशन कार्ड क्लर्क, कार्यक्रम क्लर्क, समय एवं लागत क्लर्क, एवं कार्यशाला अनुशासक। यह चार क्रमशः कर्मचारी, कर्मचारियों के लिए निर्देश तैयार करेंगे, उत्पादन का कार्यक्रम तैयार करेंगे, समय एवं लागत सूची तैयार करेंगे एवं अनुशासन सुनिश्चित करेंगे।

उत्पादन अधिकारी के अधीन जो कर्मचारी कार्य करेंगे वे हैं-गतिनायक, टोलीनायक, मरम्मत नायक एवं निरीक्षक। ये क्रमशः कार्य समय ठीक से तैयार करने, श्रमिकों द्वारा मशीन उपकरणों को कार्य के योग्य रखने एवं कार्य की गुणवत्ता की जाँच करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।

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चित्र 2.2–क्रियात्मक फोरमैनशिप

क्रियात्मक फोरमैनशिप श्रमविभाजन एवं विशिष्टीकरण के सिद्धांत का निम्नतम स्तर तक विस्तार है। प्रत्येक श्रमिक को उत्पादन कार्य अथवा संबंधित प्रक्रिया के इन आठ फोरमैनाें से आदेश लेने होंगे। फोरमैन में बुद्धि, शिक्षा, चातुर्थ, स्थिरता, निर्णय, विशिष्ट ज्ञान, शारीरिक दक्षता एवं ऊर्जा, ईमानदारी तथा अच्छा स्वास्थ्य। क्योंकि यह सभी गुण किसी एक व्यक्ति में नहीं मिल सकते इसलिए टेलर ने आठ विशेषज्ञों की टीम का सुझाव दिया। प्रत्येक विशेषज्ञ को उसकी अपनी योग्यतानुसार कार्य सौंपा जाता है। उदाहरण के लिए, जो तकनीकी में सिद्धस्थ हैं, बुद्धिमान हैं एवं स्थिर मस्तिष्क के हैं उनको नियोजन कार्य सौंपा जा सकता है। जो ऊर्जावान हैं एवं अच्छा स्वास्थ्य लिए हैं उनको क्रियान्वयन कार्य सौंपा जा सकता है।

कार्य का प्रमापीकरण एवं सरलीकरण

टेलर प्रमापीकरण का जबरदस्त पक्षधर था। उसके अनुसार अगूंठा टेक नियम के अंतर्गत उत्पादन पद्धतियों के विश्लेषण के लिए वैज्ञानिक पद्धति को अपनाना चाहिए। सर्वश्रेष्ठ प्रणाली को प्रमाप के विकास के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है तथा उसमें और सुधार किया जा सकता है जिसे पूरे संगठन में उपयोग में लाया जाना चाहिए। इसको कार्य अध्ययन तकनीकों के माध्यम से किया जा सकता है जिसमें समय अध्ययन, गति अध्ययन, थकान अध्ययन एवं कार्यविधि अध्ययन सम्मिलित हैं तथा जिनका वर्णन इसी अध्याय में आगे किया गया है। ध्यान रहे कि व्यावसायिक प्रक्रिया के समकालीन तकनीक पुनः इंजीनियरिंग, कैमेन (निरंतर सुधार) एवं मील का पत्थर का भी लक्ष्य कार्य का प्रमापीकरण होता था।

प्रमापीकरण से अभिप्राय प्रत्येक व्यावसायिक क्रिया के लिए मानक निर्धारण प्रक्रिया से है। प्रमापीकरण प्रक्रिया, कच्चा माल, समय, उत्पाद, मशीनरी, कार्य पद्धति अथवा कार्य-शर्तों का हो सकता है। यह मानक मानदंड होते 

हैं, उत्पादन के दौरान जिनका पालन करना होता है।

प्रमापीकरण के उद्देश्य इस प्रकार हैं–

(क) किसी एक वर्ग अथवा उत्पाद को स्थायी प्रकार, आकार एवं विशेषताओं में सीमित कर देना।

(ख) विनिर्मित भाग एवं उत्पादों को परस्पर बदल लेने की योग्यता स्थापित करना।

(ग) माल की श्रेष्ठता एवं गुणवत्ता को स्थापित करना।

(घ) व्यक्ति एवं मशीन के निष्पादन के मानक निर्धारित करना।

सरलीकरण का उद्देश्य व्यर्थ किस्मों, आकार एवं आयामों को समाप्त करना होता है, जबकि प्रमापीकरण का अर्थ है वर्तमान किस्मों के स्थान पर नयी किस्में तैयार करना। सरलीकरण में उत्पादन की अनावश्यक अनेकताओं को समाप्त किया जाता है। इससे श्रम, मशीन एवं उपकरणों की लागत की बचत होती है। इसमें मालरहित या कम रखना, उपकरणों का संपूर्ण उपयोग एवं आवर्त में वृद्धि सम्मिलित हैं।

अधिकांश बड़ी कंपनियाँ जैसे माइक्रोसॉफ्ट आदि ने प्रमापीकरण एवं सरलीकरण का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया है। अपने-अपने बाज़ार में इनकी भारी हिस्सेदारी से यह स्पष्ट है।

कार्य पद्धति अध्ययन 

कार्य पद्धति अध्ययन का उद्देश्य कार्य को करने की सर्वश्रेष्ठ पद्धति को ढूँढ़ना है। किसी कार्य को करने की कई पद्धतियाँ होती हैं। सर्वश्रेष्ठ मार्ग के निर्धारण के कई प्राचल (Parameters) हैं। कच्चा माल प्राप्त करने से लेकर तैयार माल को ग्राहक तक पहुँचाने तक प्रत्येक क्रिया कार्य पद्धति अध्ययन के अंतर्गत आती है। टेलर ने कार्य पद्धति अध्ययन के माध्यम से कई क्रियाओं को एक साथ जोड़ने की अवधारणा का निर्माण किया। फोर्ड मोटर कंपनी ने इस अवधारणा का सफलतापूर्वक उपयोग किया। आज भी अॉटो कंपनियाँ इसको अपना रही हैं।

इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य उत्पादन लागत को न्यूनतम रखना एवं ग्राहक को अधिकतम गुणवत्ता एवं संतुष्टि प्रदान करना है। इसके लिए कई तकनीकों का प्रयोग होता जैसे, प्रक्रिया चार्ट एवं परिचालन अनुसंधान आदि का प्रयोग।

एक कार का डिजाइन तैयार करने के लिए समुच्य रेखा का अर्थ है परिचालन क्रियाओं, कर्मचारियों का स्थान, मशीन एवं कच्चा माल आदि का क्रम निर्धारित करना। यह सभी कुछ कार्यविधि अध्ययन का भाग है।

गति अध्ययन

गति अध्ययन में विभिन्न मुद्राओं की गति, जो किसी विशेष प्रकार के कार्य को करने के लिए की जाती है, का अध्ययन किया जाता है जैसा कि उठाना, रखना, बैठना या फिर स्थान बदलना आदि। अनावश्यक चेष्टाओं को समाप्त किया जाता है जिससे कि कार्य को भली-भाँति पूरा करने में कम समय लगता है। उदाहरण के लिए, टेलर एवं उसका सहयोगी फ्रैंक गिलबर्थ ईंट बनाने की चेष्टाओं को 18 से 5 तक घटा लाए। टेलर ने यह दिखा दिया कि इस प्रक्रिया को अपनाने से उत्पादकता चार गुणा बढ़ गई।

यदि शरीर की मुद्राओं का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो पता लगेगा कि–

(क) उत्पादक मुद्राएँ

(ख) प्रासंगिक चेष्टाएँ (जैसे स्टोर तक जाना)

(ग) अन-उत्पादक मुद्राएँ

विभिन्न मुद्राओं की पहचान करने के लिए टेलर ने स्टॉपवाच, विभिन्न चिह्नों एवं रंगों का प्रयोग किया, गति अध्ययन की सहायता से टेलर एेसे उपकरण डिजाइन करने में सफल रहा जो श्रमिकों को उनके प्रयोग के संबंध में शिक्षित करने में उपयुक्त थे। इसके जो परिणाम निकले वह वास्तव में अद्भुत थे।

समय अध्ययन

भली-भाँति परिभाषित कार्य को पूरा करने के लिए यह मानक समय का निर्धारण करता है। कार्य के प्रत्येक घटक के लिए समय मापन विधियों का प्रयोग किया जाता है। कई बार माप कर पूरे कार्य का मानक समय निश्चित किया जाता है। समय अध्ययन की पद्धति कार्य की मात्रा एवं बारंबारता, परिचालन की समय चक्र एवं समय मापन की लागत पर निर्भर करेगी। समय अध्ययन का उद्देश्य कर्मियों की संख्या का निर्धारण, उपयुक्त प्रेरक योजनाओं को तैयार करना एवं श्रम लागत का निर्धारण करना है। उदाहरण के लिए बार-बार के अवलोकन से यह तय किया गया कि एक कार्ड बोर्ड के बक्से को तैयार करने के लिए एक कर्मचारी का मानक समय 20 मिनट है। इस प्रकार से एक घंटे में वह तीन बक्से तैयार करेगा। यह मानकर चलते हैं कि एक श्रमिक एक पारी में 8 घंटे कार्य करता है। जिसमें से एक घंटा दोपहर के भोजन एवं आराम का निकाल देते हैं। इस प्रकार से तीन बक्से प्रति घंटे की दर से सात घंटे के कार्य में वह इक्कीस बक्से तैयार करेगा। अब यह एक कर्मी का मानक कार्य हुआ। इसके अनुसार मजदूरी का निर्धारण किया जाएगा।

थकान अध्ययन

कोई भी व्यक्ति कार्य करते-करते शारीरिक रूप से एवं मानसिक रूप से थकान अनुभव करने लगेगा। समय-समय पर आराम मिलने पर व्यक्ति आंतरिक बल पुनः प्राप्त कर लेगा तथा पूर्व क्षमता से कार्य कर सकेगा। इससे उत्पादकता में वृद्धि होगी। थकान अध्ययन किसी कार्य को पूरा करने के लिए आराम के अंतराल की अवधि एवं बारंबारता का निर्धारण करता है। उदाहरण के लिए, किसी संयंत्र में सामान्यतः आठ घंटे की एक पारी के हिसाब से तीन पारियों में कार्य होता है। यदि कार्य एक पारी में हो रहा है तो श्रमिक को भोजन आदि के लिए कुछ आराम का समय देना होगा। यदि कार्य भारी शारीरिक श्रम वाला है तो श्रमिक को कई बार थोड़ी-थोड़ी अवधि का आराम देना होगा। जिससे कि उसकी ऊर्जा की क्षतिपूर्ति हो जाए और वह अपना अधिकतम योगदान दे सके।

थकान के कई कारण हो सकते हैं जैसे लंबे कार्य के घंटे, अनुपयुक्त कार्य करना, अपने अधिकारी से संबंधों में माधुर्य की कमी अथवा कार्य की खराब परिस्थितियाँ आदि। अच्छे कार्य निष्पादन में आने वाली अड़चनों को दूर कर देना चाहिए।

विभेदात्मक पारिश्रमिक प्रणाली

टेलर विभेदात्मक पारिश्रमिक प्रणाली का जबरदस्त पक्षधर था। वह कुशल एवं अकुशल कारीगर में अंतर करना चाहता था। मानक अवधि एवं अन्य मानदंड का ऊपर वर्णित कार्य-अध्ययन के आधार पर निर्धारण करना चाहिए। कारीगरों को इन प्रमापों के आधार पर कुशल एवं अकुशल वर्गों में बाँटा जा सकता है। वह चाहता था कि कुशल कर्मचारियों को पारितोषिक मिलना चाहिए। इसलिए उसने प्रमापित कार्यों को पूरा करने के लिए भिन्न तथा प्रमापित से कम करने पर भिन्न मजदूरी दर प्रारंभ की। उदाहरण के लिए यह निर्धारित किया गया कि मानक उत्पादन प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 10 इकाई है एवं जो इस मानक को प्राप्त कर लेंगे अथवा इससे अधिक कार्य करेंगे उनको 50 रुपए प्रति इकाई से मजदूरी मिलेगी जबकि इससे नीचे कार्य करने पर 40 रुपए प्रति इकाई से मजदूरी प्राप्त होगी। इस प्रकार से एक कुशल कर्मचारी को 11×50 = 550 रुपए प्रतिदिन भुगतान मिलेगा जबकि अकुशल कर्मचारी, जिसने इकाई तैयार की है, को 9 × 40 = 360 रुपए प्रतिदिन मिलेगा।

टेलर के अनुसार 190 रुपए का अंतर एक अकुशल कर्मचारी के लिए कार्य को और अधिक श्रेष्ठता से करने के लिए पर्याप्त अभिप्रेरक है। अपने स्वयं के अनुभव से टेलर ने ‘Schmidi’ नाम के कर्मचारी का उदाहरण दिया है जो बैथलेहम स्टील में कार्य करता था। उसने, वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीकों के अनुसार कार्य करते हुए प्रतिदिन बॉक्स-कार में कच्चे लोहे के लदान में 12.5 टन प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से बढ़ाकर 47 टन प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन वृद्धि कर दी जिससे आय में 1.15 डॉलर से 1.85 डॉलर वृद्धि होने से 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीकों पर एक बार फिर से निगाह डालना महत्त्वपूर्ण होगा क्योंकि यह कार्यकुशलता, टेलर के सभी तरीकों को एकीकृत कर संपूर्णता लिए हुए है। कार्यकुशलता की खोज के लिए एक सर्वश्रेष्ठ पद्धति की खोज करनी होती है तथा चयन की गई पद्धति दिन के उचित कार्य के निर्धारण में सहायक होती है। जो दिन के उचित कार्य को पूरा कर लेते हैं अथवा उससे भी अधिक कर लेते हैं उनको दूसरों से अलग से मानने के लिए क्षतिपूर्ति की प्रणाली होनी चाहिए। यह विभेदात्मक पद्धति इस धारणा पर आधारित होनी चाहिए कि कार्यकुशलता प्रबंधक एवं श्रमिक दोनों के संयुक्त प्रयत्न का परिणाम होती है। इसलिए उन्हें आधिक्य में हिस्सेदारी पर विवाद नहीं करना चाहिए बल्कि उत्पादन को सीमित रखने के स्थान पर उसमें वृद्धि करने के लिए पारस्परिक सहयोग करना चाहिए। स्पष्ट है कि टेलर के विचारों का सार/वैज्ञानिक प्रबंध के तकनीक एवं सिद्धांतों के अलग-अलग वर्णन में नहीं है, बल्कि मानसिक धारणा के परिवर्तन में है जिसे ‘मानसिक क्रांति’ कहते हैं। मानसिक क्रांति कर्मचारी एवं प्रबंध के एक दूसरे के प्रति व्यवहार में परिवर्तन को कहते हैं अर्थात् प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग। दोनों को समझना चाहिए कि उन्हें एक दूसरे की आवश्यकता है दोनों के लक्ष्य आधिक्य में वृद्धि करना होना चाहिए। इससे किसी भी प्रकार के आंदोलन की आवश्यकता नहीं होगी। प्रबंध को आधिक्य के कुछ भाग को कर्मचारियों के बीच बाँटना चाहिए। कर्मचारियों को भी अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिए जिससे कि कंपनी अधिकाधिक लाभ कमाएँ। यह दृष्टिकोण दोनों पक्ष एवं कंपनी के हित में होगा। दीर्घ काल में कर्मचारियों की भलाई ही व्यवसाय की समृद्धि को सुनिश्चित करेगी।

वैज्ञानिक प्रबंध के तत्व, सिद्धांत एवं तकनीकों का अध्ययन करने के पश्चात् हम टेलर के समय में एवं वर्तमान में इनके व्यवहार में लाने का अध्ययन करेंगे।

हम वैज्ञानिक प्रबंध की वर्तमान स्थिति की भी जाँच कर सकते हैं। वर्तमान युग में वैज्ञानिक प्रबंध के क्रम में कई नयी तकनीकों का विकास किया गया है। युद्ध सामग्री की अधिकतम तैनाती के लिए परिचालन अनुसंधान का विकास किया गया। इसी प्रकार से टेलर ने क्रमिक संयोजन की खोज की जिसका फोर्ड मोटर कंपनी ने जनसाधारण के लिए ‘मॉडल टी’ के विनिर्माण में सफलतापूर्वक प्रयोग किया। इस अवधारणा का अब बहुत अधिक प्रयोग हो रहा है। वैज्ञानिक प्रबंध में एकदम नया विकास विनिर्माण है। आजकल उत्पादन एवं अन्य व्यावसायिक गतिविधियों में रोबोट्स एवं कंप्यूटर का उपयोग किया जा रहा है। इन क्रियाओं का यह वैज्ञानिक प्रबंध स्वरूप है। इससे उत्पादन स्तर में वृद्धि हुई है। परिचालन अनुसंधान के तकनीकों का विकास किया गया है तथा वैज्ञानिक प्रबंध के कारण इनका उपयोग किया जा रहा है। नीचे दिए गए बॉक्स में आधुनिक विनिर्माण में प्रयुक्त कुछ शब्दों का अर्थ दिया गया है।

टेलर एवं उसके समकालिकों द्वारा वैज्ञानिक प्रबंध का उपयोग

1. टेलर ने बैथलेहम स्टील कंपनी में कार्य-अध्ययन में अनुसंधान की शृंखलाओं के माध्यम से पाया कि प्रतिव्यक्ति अधिकतम भार जो उठाया गया वह 21 पाउंड था। क्रियान्वयन से कंपनी को प्रति वर्ष 7,500 डॉलर से 80,000 डॉलर बचत हुई।

2. कच्चा लोहा (पिग आयरन) की ढुलाई प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 12.5 टन से बढ़कर 47 टन हो गई। इससे श्रमिकों की मजदूरी में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई बल्कि कंपनी में मजदूरों की संख्या 500 से घटकर 140 हो गई जिससे कंपनी को लाभ हुआ।

3. उसका ‘दि आर्ट अॉफ कटिंग मैटल’ (धातु को काटने की कला) के नाम से लेख प्रकाशित हुआ जो विज्ञान बन गया।

4. उसने बैथलेहम स्टील के लिए कार्यानुसार मजदूरी की रचना की जिसमें प्रेरणाएँ भी सम्मिलित थीं।

5. टेलर के सहयोगी फ्रैंक गिलब्रथ ने ईंटों की चिनाई की कला में वैज्ञानिक प्रबंध का उपयोग किया तथा गति अध्ययन के द्वारा कुछ एेसी मुद्राओं को समाप्त कर दिया जिनको थापने वाले आवश्यक समझते थे (इसमें 18 मुद्राओं को घटाकर 5 कर दिया गया)। सरल यंत्र, जैसे समायोजन योग्य मचान 

एवं ईंटों का जमाए रखने हेतु की रचना की और अंत में ईंट थापने वालों को एक साथ दोनों हाथों का प्रयोग करने को कहा। यह ईंट थापने के सरल कार्य में वैज्ञानिक प्रबंध के उपयोग का वर्णन योग्य उदाहरण है।

आधुनिक उत्पादन/वैज्ञानिक प्रबंध के कुछ शब्दों का संग्रह

1. समयावधि में विनिर्माण–यह प्रक्रिया में संचित माल तथा इससे जुड़ी लागत को कम कर निवेश पर प्रति प्राप्ति में सुधार हेतु माल संचय प्रबंधन की व्यूह-रचना है। इस प्रणाली का क्रियान्वयन दृष्टव्य इशारों अथवा ‘केनबेन’ द्वारा किया जाता है जो हमें यह बताता है कि उत्पादन प्रक्रिया के किसी स्तर पर हमें पुनः पूर्ति की आवश्यकता है अथवा नहीं।

2. धीमा विनिर्माण–यह प्रबंध का दर्शन है। जिसमें किसी भी प्रकार की विनिर्माण प्रक्रिया अथवा किसी भी प्रकार के व्यवसाय में उत्पादन अधिक्य की सात हानियों में कमी लाने पर ध्यान दिया जाता है। ये हानियाँ हैं - इंतजार का समय, परिवहन, प्रक्रियण, गति, संचित माल एवं रद्दी। रद्दी/बर्बादी को यदि समाप्त कर दिया जाए तो गुणवत्ता में सुधार होगा, उत्पादन के समय में कमी आएगी तथा लागत में भी कमी आएगी।

3. केज़न–यह एक जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है श्रेष्ठतर के लिए परिवर्तन अथवा सुधार। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् जापानियों के द्वारा अपनाया गया। अमरीका के विशेषज्ञ जैसे कि एफ. डब्ल्यू. टेलर के सिद्धांतों का उपयोग के माध्यम से उत्पादकता में सुधार का मार्ग है। केज़न के उद्देश्यों में अपव्यय शामिल हैं (जिसका अर्थ है वे क्रियाएँ जो वस्तु एवं सेवाओं की लागत तो बढ़ाती हैं लेकिन मूल्य में वृद्धि नहीं करती) को कम करना, समय पर सुपुर्दगी, उत्पादन भार राशि एवं प्रकारों का एक समान करना, प्रमाणीकृत कार्य, ठीक आकार के उपकरण एवं अन्य। जापानी इस शब्द का और भी अधिक गहराई से अर्थ लगाते हैं, ‘एक ओर ले जाकर अधिक उपयुक्त स्थिति में रखना’। जिसे अलग से देखा जाता है वह है प्रक्रिया, प्रणाली, उत्पाद अथवा सेवा। यह एक से प्रतिदिन की क्रिया है कार्य स्थल का मानवीकरण करती है, शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के कठोर परिश्रम को समाप्त करती है, लोगों को सिखाती है कि किस प्रकार से वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग कर तेजी से अनुसंधान कार्य किया जा सकता है तथा कैसे व्यावसायिक प्रक्रिया में अपव्यय के संबंध में जाना जा सकता है तथा उसे समाप्त किया जा सकता है।

4. सिक्स सिगमा–यह डाटा से प्रेरित मार्ग है जो किसी भी क्षेत्र में कार्यरत संगठन को गुणवत्ता की भिन्नताओं में कमी लाकर अकुशलता में कमी लाते हैं तथा समय एवं धन की बचत करने में सहायता करता है। इसका ग्राहक मूल दृष्टिकोण है जिसमें और अधिक कुशल प्रक्रिया अथवा वर्तमान प्रक्रिया को और श्रेष्ठ बनाने के लिए आँकड़ों पर निर्भर करना पड़ता है। निर्धारित मानदंडों के अनुसार प्रति दस लाख अवसरों में से तीन या चार से अधिक दोष नहीं होने चाहिए। इसे किसी भी प्रक्रिया में प्रयोग में लाया जा सकता है, पर आवश्यकतानुसार संगठनात्मक आलंबन/समर्थन प्राप्ति की भी आवश्यकता पड़ती है

अपनी समझ परखिए

1. माना आप स्टेशनरी के सामान के विनिर्माण के लिए एक छोटे पैमाने की औद्योगिक इकाई की स्थापना करना चाहते हैं तथा साथ ही अपना पुस्तक प्रकाशन का कार्य भी करना चाहते हैं। वैज्ञानिक प्रबंध के क्रियान्वयन के लिए आप क्या कदम उठाएँगे? वैज्ञानिक प्रबंध के जिन तत्वों का आप क्रियान्वयन चाहेंगे उनकी पहचान कीजिए तथा उनको लाभों को सूचीबद्ध कीजिए।

फेयॉल के प्रबंध के सिद्धांत

प्रबंध की क्लासिकल विचारधारा के विकास में फेयॉल के प्रशासनिक सिद्धांत महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं। जहाँ टेलर कारखाने में कर्मशाला स्तर पर श्रेष्ठतम कार्य पद्धति की रचना करने, दिन का उचित कार्य, विभेदात्मक मजदूरी प्रणाली, एवं क्रियात्मक फोरमैनशिप के रूप कार्य करने में क्रांति लाने में सफल रहा वहीं हेनरी फेयॉल ने समझाया कि प्रबंधक का क्या कार्य है एवं इसे पूरा करने के लिए किन सिद्धांतों का पालन किया जाएगा। कारखाना प्रणाली में यदि श्रमिक की कार्य क्षमता का महत्त्व है, तो प्रबंधक की कुशलता का भी उतना ही महत्त्व है। फेयॉल के योगदान को प्रबंध की कुशलता में सुधार में उसके सिद्धांतों के प्रभाव जो वर्तमान में भी हैं के रूप में समझना चाहिए।

हेनरी फेयॉल (1841-1925) फ्रांसीसी प्रबंध सिद्धांतकार था। जिसके श्रम वैज्ञानिक संगठन से संबंधित सिद्धांतों का 20वीं सदी के प्रारंभ में व्यापक प्रभाव था। वह 1860 में सैंट एेटेने की खनन अकादमी से खनन इंजीनियरिंग में स्नातक हुए।

19 वर्षीय इंजीनियर ने खनन कंपनी ‘कम्पेने डी कमैन्टरी फोरचम्बीन डीकैजे विल्ले’ में कार्य प्रारंभ किया तथा अंत में 1888 से 1918 तक प्रबंध निदेशक के पद पर रहे। उसके सिद्धांत उत्पादन संगठन के प्रतियोगी उद्यम जो जिसे अपनी उत्पादन लागत को नियंत्रण में रखना होता है के संदर्भ में प्रयुक्त किए जाते हैं। फेयॉल पहला व्यक्ति था जिसने प्रबंध के चार कार्य निर्धारित किए- नियोजन, संगठन, निदेशन एवं नियंत्रण करना। फेयॉल के अनुसार किसी औद्योगिक इकाई के कार्यों को इस प्रकार बाँटा जा सकता था–तकनीकी, वाणिज्यिक, वित्तीय, सुरक्षा, लेखाकर्म, एवं प्रबंधन। उसने यह सुझाव दिया कि एक प्रबंधक में जो गुण होने आवश्यक हैं, वे हैं–शारीरिक, नैतिक, शैक्षणिक, ज्ञान एवं अनुभव। उसका मानना था कि प्रबंध का वह सिद्धांत जो संगठन के प्रचालन का सुधार में सहायक हो सकते हैं, जिसकी क्षमता की कोई सीमा नहीं है।

अधिकांश रूप से अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर उसने प्रशासन की अवधारणा को विकसित किया। उसके द्वारा प्रतिपादित 14 सिद्धांतों पर 1917 में प्रकाशित पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेशन इंडस्ट्रेली एट जैनेरेली, में विस्तार से चर्चा की गई थी। 1949 में यह अंग्रेजी में ‘जनरल एंड इंडस्ट्रीयल मैनेजमेंट’ के शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उसके योगदान के कारण उसे ‘सामान्य प्रबंध का जनक’ कहा जाता है।

हेनरी फेयॉल

Henry.tif

1. जीवन–1841 से 1925

2. पेशा–खनन इंजीनियर एवं प्रबंध विषय का सिद्धांतकार (फ्रांस का नागरिक)

3. शिक्षा–1880 में सेंट एंटाइन की माइनिंग अकादमी से स्नातक

4. पद– कैम्पेनी डी कमैन्टरी फोर कैम्क्यू-डी. के.जी. बिल्ले खनन की कंपनी की स्थापना की तथा 1888 में इसके प्रबंध निदेशक बने और 1918 तक इस पद पर रहे।

5. लेखन–एडमिनिस्ट्रेशन इंडस्ट्रेली के एट जैनेरेली जो 1949 में जनरल एंड इंडस्ट्रीयल मैनेजमेंट के शीर्षक से अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। इसे क्लाीसकल प्रबंध विषय का आधार भूत कार्य माना जाता है।

6. योगदान–मुख्यतः 14 प्रबंध के सिद्धांत जिन्हें प्रशासकीय प्रकृति का माना जाता है जिसमें उच्च प्रबंध एवं दूसरे प्रबंधकों के आचरण का उच्चस्तर से नीचे स्तर की ओर की दृष्टि से देखना।

स्रोत–www.en.wikipedia.org

चित्र स्रोत–www.image.google.com 

उसके प्रबंध के 14 सिद्धांत नीचे दिए गए हैं–

1. कार्य विभाजन–कार्य विभाजन को करने के लिए कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभक्त किया जाता है। प्रत्येक कार्य हेतु एक योग्य व्यक्ति जो, प्रशिक्षित विशेषज्ञ है की आवश्यकता होती है। इस प्रकार से कार्य विभाजन से विशिष्टीकरण होता है। फेयॉल के अनुसार, "कार्य विभाजन का उद्देश्य एक बार के परिश्रम से अधिक उत्पादन एवं श्रेष्ठ कार्य करना है। विशिष्टीकरण मानवीय शक्ति के उपयोग करने का कुशलतम तरीका है।"

व्यवसाय में कार्य को अधिक कुशलता से पूरा किया जा सकता है, यदि उसे विशिष्ट कार्यों में विभाजित कर दिया गया है तथा प्रत्येक कार्य विशिष्ट अथवा प्रशिक्षित कर्मचारी ही करता है। इससे उत्पादन अधिक प्रभावी ढंग से एवं कुशलता से होता है। इस प्रकार से एक कंपनी में अलग-अलग विभाग हैं, जैसे वित्त, विपणन, उत्पादन एवं मानव संसाधन विकास आदि। प्रत्येक में कार्य करने के लिए विशेषज्ञ होते हैं। जो मिलकर कंपनी के उत्पादन एवं विक्रय का लक्ष्य प्राप्त करते हैं। फेयॉल के अनुसार कार्य विभाजन का सिद्धांत सभी क्रियाओं में चाहे वह प्रबंधकीय हों या तकनीकी, समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।

2. अधिकार एवं उत्तरदायित्व–फेयॉल के अनुसार ‘अधिकार आदेश देने एवं आज्ञा पालन कराने का अधिकार है, जबकि उत्तरदायित्व अधिकार का उप-सिद्धांत है। अधिकार दो प्रकार का होता है अधिकृत जो कि आदेश देने का अधिकार है एवं व्यक्तिगत अधिकार जो कि प्रबंधक का व्यक्तिगत अधिकार है।’

अधिकार औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों होता है। प्रबंधक को अधिकार और उसके समान उत्तरदायित्व की आवश्यकता होती है। अधिकार एवं उत्तरदायित्व में समानता होनी चाहिए। संगठन को प्रबंधकीय शक्ति के दुरुपयोग से बचाव की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके साथ-साथ प्रबंधक के पास उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए आवश्यक अधिकार होने चाहिए। उदाहरण के लिए, एक विक्रय प्रबंधक को क्रेता से सौदा करना होता है। वह देखता है कि ग्राहक को 60 दिन के उधार की सुविधा दे दें तो शायद सौदा हो जाए और कंपनी को शुद्ध 50 करोड़ रुपए का लाभ होगा। माना कंपनी प्रबंधक को 40 दिन के उधार देने का अधिकार देती है। इससे स्पष्ट होता है कि अधिकार एवं दायित्व में समानता नहीं है। इस मामले में कंपनी के हित को ध्यान में रखते हुए प्रबंधक को 60 दिन के उधार देने का अधिकार मिलना चाहिए। इस उदाहरण में प्रबंधक को 100 दिन के लिए उधार देने का अधिकार भी नहीं मिलना चाहिए क्योंकि यहाँ इसकी आवश्यकता ही नहीं है। एक प्रबंधक को वैध आदेश का जानबूझ कर पालन न करने पर अधीनस्थ को सजा देने का अधिकार होना चाहिए लेकिन साथ ही अधीनस्थ को भी अपनी स्थिति स्पष्ट करने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए।

3. अनुशासन–अनुशासन से अभिप्राय संगठन के कार्य करने के लिए आवश्यक नियम एवं नौकरी की शर्तों के पालन करने से है। फेयॉल के अनुसार अनुशासन के लिए प्रत्येक स्तर पर अच्छे पर्यावेक्ष, स्पष्ट एवं संतोषजनक समझौते एवं दंड के न्यायोचित विधान की आवश्यकता होती है।

माना कि, प्रबंध एवं श्रमिक संघ के बीच समझौता हुआ है जिसके अनुसार कंपनी को हानि की स्थिति से उबारने के लिए कर्मचारियों ने बिना अतिरिक्त मजदूरी लिए अतिरिक्त घंटे कार्य करने का समझौता किया है। प्रबंध ने इसके बदले में उद्देश्य के पूरा हो जाने पर कर्मचारियों की मजदूरी वृद्धि का वायदा किया है। यहाँ अनुशासन का अर्थ है कि श्रमिक एवं प्रबंधक दोनों ही अपने-अपने वायदों को एक दूसरे के प्रति किसी भी प्रकार के द्वेष भाव के पूरा करेंगे।

4. आदेश की एकता–फेयॉल के अनुसार प्रत्येक कर्मचारी का केवल एक ही अधिकारी होना चाहिए। यदि कोई कर्मचारी एक ही समय में दो अधिकारियों से आदेश लेता है तो इसे आदेश की एकता के सिद्धांत का उल्लंघन माना जाएगा। आदेश की एकता के सिद्धांत के अनुसार किसी भी औपचारिक संगठन में कार्यरत व्यक्ति को एक ही अधिकारी से आदेश लेने चाहिए एवं उसी के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। फेयॉल ने इस सिद्धांत को काफी महत्त्व दिया। उसको एेसा लगा कि यदि इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है तो ‘अधिकार प्रभावहीन हो जाता है, अनुशासन संकट में आ जाता है, आदेश में व्यवधान पड़ जाता है एवं स्थायित्व को खतरा हो जाता है।’ यह फेयॉल के सिद्धांतों से मेल खाता है। इससे जो कार्य करना है उसके संबंध में किसी प्रकार की भ्रांति नहीं रहेगी। माना कि एक विक्रयकर्ता को एक ग्राहक से सौदा करने के लिए कहा जाता है तथा उसे विपणन प्रबंधक 10 प्रतिशत 

की छूट देने का अधिकार देता है। लेकिन वित्त विभाग का आदेश है कि छूट 5 प्रतिशत से अधिक नहीं दी जाए। यहाँ आदेश की एकता नहीं है। यदि विभिन्न विभागों में समन्वयन है तो इस स्थिति से बचा जा सकता है।

5. निदेश की एकता–संगठन को सभी इकाईयों को समन्वित एवं केंद्रित प्रयत्नों के माध्यम से समान उद्देश्यों की ओर अग्रसर होना चाहिए। गतिविधियों के प्रत्येक समूह जिनके उद्देश्य समान हैं उनका एक ही अध्यक्ष एवं एक ही योजना होनी चाहिए। यह कार्यवाही की एकता एवं सहयोग को सुनिश्चित करेगा। उदाहरणार्थ एक कंपनी मोटर साईकल एवं कार का उत्पादन कर रही है। इसके लिए उसे दो अलग-अलग विभाग बनाने चाहिए। प्रत्येक विभाग की अपनी प्रभारी योजना एवं संसाधन होने चाहिए। किसी भी तरह से दो विभागों के कार्य एक दूसरे पर आधारित नहीं होने चाहिए। आइए अब इन दो सिद्धांत-आदेश की एकता एवं निर्देश की एकता में अंतर्भेद करें।

आदेश की एकता एवं निर्देश की एकता में अंतर

आधार

आदेश की एकता

निर्देश की एकता

1. अर्थ किसी भी अधीनस्थ को एक ही अधिकारी से आदेश प्राप्त करने चाहिए एवं उसी के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए  समान उद्देश्यों वाली क्रियाओं के  लिए एक अध्यक्ष एवं एक  योजना अधिकारी होनी चाहिए।
2. लक्ष्य यह दोहरी अधीन स्थिति को रोकता है यह क्रियाओं के एक  दूसरे पर आच्छादन रोकता है।
3. प्रभाव यह कर्मचारी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है।  यह पूरे संगठन को प्रभावित  करता है

6. सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का समर्पण–फेयॉल के अनुसार संगठन के हितों को कर्मचारी विशेष के हितों की तुलना में प्राथमिकता देनी चाहिए। कंपनी में कार्य करने में प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई हित होता है। कंपनी के भी अपने उद्देश्य होते हैं। उदाहरण के लिए, कंपनी अपने कर्मचारियों से प्रतियोगी लागत (वेतन) पर अधिकतम उत्पादन चाहेगी। जबकि कर्मचारी यह चाहेगा कि उसे कम-से-कम कार्य कर अधिकतम वेतन प्राप्त हो। दूसरी परिस्थिति में एक कर्मचारी कुछ न कुछ छूट चाहेगा जैसे वह कम समय काम करे, जो किसी भी अन्य कर्मचारी को नहीं मिलेगी। सभी परिस्थितियों में समूह/कंपनी के हित, किसी भी व्यक्ति के हितों का अधिक्रमण करेंगे। क्योंकि कर्मचारियों एवं हितोधिकारियों के बड़े हित किसी एक व्यक्ति के हितों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होेते हैं। उदाहरण के लिए विभिन्न हिताधिकारी जैसे कि स्वामी, अंशधारी, लेनदार, देनदार, वित्तप्रदाता, कर अधिकारी, ग्राहक एवं समाज के हितों का, किसी एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के एक छोटे समूह, जो कंपनी पर दवाब बनाना चाहते हैं कि हितों के लिए कुर्बानी नहीं दी जा सकती। एक प्रबंधक इसे अपने अनुकरणीय व्यवहार से सुनिश्चित कर सकता है। उदाहरण के लिए उसे कंपनी/कर्मचारियों के बड़े सामान्य हितों की कीमत पर व्यक्ति/परिवार के लाभ के लिए अपने अधिकारों के दुरुपयोग के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए। इससे कर्मचारियों की निगाहों में उसका सम्मान बढ़ेगा एवं कर्मचारी भी समान व्यवहार करेंगे।

7. कर्मचारियों को प्रतिफल–कुल प्रतिफल एवं क्षतिपूर्ति कर्मचारी एवं संगठन दोनों के लिए ही संतोषजनक होना चाहिए। कर्मचारियों को इतनी मजदूरी अवश्य मिलनी चाहिए कि कम-से-कम उनका जीवन स्तर तर्क संगत हो सके। लेकिन साथ ही यह कंपनी की भुगतान क्षमता की सीमाओं में होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में प्रतिफल न्यायोचित होना चाहिए। इससे अनुकूल वातावरण बनेगा एवं कर्मचारी तथा प्रबंध के बीच संबंध भी सुमधुर रहेंगे। इसके परिणाम स्वरूप कंपनी का कार्य सुचारू रूप से चलता रहेगा।

8. केंद्रीकरण एवं विकेंद्रीकरण–निर्णय लेने का अधिकार यदि केंद्रित है तो इसे केंद्रीकरण कहेंगे जबकि अधिकार यदि एक से अधिक व्यक्तियों को सौंप दिया जाता है तो इसे ‘विकेंद्रीकरण’ कहेंगे। फेयॉल के शब्दों में अधीनस्थों का विकेंद्रीकरण के माध्यम से अंतिम अधिकारों को अपने पास रखने में संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। केंद्रीकरण की सीमा कंपनी की कार्य परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। सामान्यतः बड़े संगठनों में छोटे संगठनों की तुलना में अधिक विकेंद्रीकरण होता है। उदाहरण के लिए, हमारे देश में पंचायतों को गाँवों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा प्रदत्त निधि के संबंध में निर्णय लेने एवं उनको व्यय करने के अधिक अधिकार दिए हैं। यह राष्ट्रीय स्तर पर विकेंद्रीकरण है।

9. सोपान शृंखला–किसी भी संगठन में उच्च अधिकारी एवं अधीनस्थ कर्मचारी होते हैं। उच्चतम पद से निम्नतम पद तक की औपचारिक अधिकार रेखा को ‘सोपान शृंखला’ कहते हैं। फ्रेयॉल के शब्दों में संगठनों में अधिकार एवं संप्रेषण की शृंखला होनी चाहिए जो ऊपर से नीचे तक हो तथा उसी के अनुसार प्रबंधक एवं अधीनस्थ होने चाहिए।

आइए एक स्थिति को देखें जिसमें एक अध्यक्ष है जिसके अधीन दो अधिकार 

शृंखलाएँ हैं। एक में ‘ख’ ‘ग’ ‘घ’ ‘ङ’ ‘च’ तथा दूसरे में ‘छ’, ‘ज’, ‘झ’, ‘ञ’, एवं ‘त’ हैं। यदि ‘ङ’ को ‘ण’ से संप्रेषण करना है तो उसे ङ, घ, ग, ख, क, छ, ज, झ, ण के मार्ग से चलना होगा। क्योंकि यहाँ सोपान शृंखला के सिद्धांत का पालन हो रहा है।

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चित्र 2.3–फेयॉल की सोपान शृंखला

फेयॉल के अनुसार औपचारिक संप्रेषण में सामान्यतः इस शृंखला का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यदि कोई आकस्मिक स्थिति है तो ङ सीधे ण से समतल संपर्क के द्वारा संपर्क साधे सकता है जैसा चित्र में दर्शाया गया है। यह छोटा मार्ग है तथा इसका प्रावधान इसीलिए किया गया है कि संप्रेषण में देरी न हो। व्यवहार में आप देखते हैं कि कंपनी में कोई श्रमिक सीधा मुख्य कार्यकारी अधिकारी से संपर्क नहीं कर सकता। यदि उसे आवश्यकता है भी तो सभी औपचारिक स्तर अर्थात् फोरमैन अधीक्षक, प्रबंधक, निदेशक आदि को विषय से संबंधित ज्ञान होना चाहिए। केवल आकस्मिक परिस्थितियों में ही एक श्रमिक मुख्य कार्यकारी अधिकार से संपर्क कर सकता है।

10. व्यवस्था–फेयॉल के अनुसार, "अधिकतम कार्य कुशलता के लिए लोग एवं सामान उचित समय पर उचित स्थान पर होने चाहिए।" व्यवस्था का सिद्धांत कहता है कि "प्रत्येक चीज (प्रत्येक व्यक्ति) के लिए एक स्थान तथा प्रत्येक चीज (प्रत्येक व्यक्ति) अपने स्थान पर होनी चाहिए।" तत्वतः इसका अर्थ है व्यवस्था। यदि प्रत्येक चीज के लिए स्थान निश्चित है तो तथा यह उस स्थान पर है तो व्यवसाय कारखाना की क्रियाओं में कोई व्यवधान नहीं पैदा होगा। इससे उत्पादकता एवं क्षमता में वृद्धि होगी।

11. समता–फेयॉल के शब्दों में, "सभी कर्मचारियों के प्रति निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए सद्बुद्धि एवं अनुभव की आवश्यकता होती है। इन कर्मचारियों के साथ जितना संभव हो सके निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। प्रबंधकों के श्रमिकों के प्रति व्यवहार में यह सिद्धांत दयाभाव एवं न्याय पर जोर देता है। फेयॉल यदा-कदा बल प्रयोग को अनियमित नहीं मानता है। बल्कि उसका कहना है कि सुस्त व्यक्तियों के साथ सख्ती से व्यवहार करना चाहिए जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति को यह संदेश पहुँचे कि प्रबंध की निगाहों में प्रत्येक व्यक्ति बराबर है। किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग, धर्म, भाषा, जाति, विश्वास अथवा राष्ट्रीयता आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। व्यवहार में हम अवलोकन करते हैं कि आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियों में विभिन्न राष्ट्रीयता के लोग भेदभाव रहित वातावरण में साथ-साथ काम करते हैं। इन कंपनियों में प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति के समान अवसर प्राप्त होते हैं। तभी तो हम पाते हैं कि रजत गुप्ता जैसी भारतीय मूल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैकिन्से इन्कोर्पाेरेशन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के मुखिया बने। अभी हाल ही में ‘भारत में जन्मे अमेरिकावासी अरुण सरीन ब्रिटेन की बड़ी टेलीकॉम कंपनी के वोडाफोन लि. के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने हैं।


अपनी समझ परखिए

प्रश्न

1. क्या आप सोचते हैं कि परामर्शदाता ने वैज्ञानिक प्रबंध को लागू करने की जो संस्तुति की है, से इच्छित परिणाम निकलेंगे?

2. परिवर्तनों के क्रियान्वयन में कंपनी को क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए? समस्यात्मक अध्ययन में दिए गए 1 से 6 तक के बिंदुओं में घोषित प्रत्येक तकनीकी को ध्यान में रखकर उत्तर दीजिए।

12. कर्मचारियों की उपयुक्तता–फेयॉल के अनुसार "संगठन की कार्यकुशलता को बनाए रखने के लिए कर्मचारियों की आवर्त को न्यूनतम किया जा सकता है।" कर्मचारियों का चयन एवं नियुक्ति उचित एवं कठोर प्रक्रिया के द्वारा की जानी चाहिए। लेकिन चयन होने के पश्चात् उन्हें न्यूनतम निर्धारित अवधि के लिए पद पर बनाए रखना चाहिए। उनका कार्यकाल स्थिर होना चाहिए। उन्हें परिणाम दिखाने के लिए उपयुक्त समय दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में किसी भी प्रकार की तदर्थता कर्मचारियों में अस्थिरता असुरक्षा पैदा करेगी। वह संगठन को छोड़ना चाहेंगे। भर्ती, चयन एवं प्रशिक्षण लागत ऊँची होगी। इसीलिए कर्मचारी के कार्यकाल की स्थिरता व्यवसाय के लिए श्रेष्ठकर रहती है।

13. पहल क्षमता–फेयॉल का मानना है कि, "कर्मचारियों को सुधार के लिए अपनी योजनाओं के विकास एवं उनको लागू करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। पहल क्षमता का अर्थ है- स्वयं अभिप्रेरणा की दिशा में पहला कदम उठाना। इसमें योजना पर विचार कर फिर उसको क्रियांवित किया जाता है। यह एक बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षणों में से एक है। पहल-क्षमता को प्रोत्साहित करना चाहिए लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अपने आपको कुछ भिन्न दिखाने के लिए कंपनी की स्थापित रीति-नीति के विरुद्ध कार्य करें। एक अच्छी कंपनी वह है जिसमें कर्मचारी द्वारा सुझाव पद्धति हैं जिसके अनुसार उस पहल-क्षमता सुझावों को पुरस्कृत किया जाता है जिनके कारण लागत/समय में ठोस कमी आए।

14. सहयोग की भावना–फेयॉल के अनुसार, "प्रबंध को कर्मचारियों में एकता एवं पारस्परिक सहयोग की भावना को बढ़ावा देना चाहिए।" प्रबंध के सामूहिक कार्य को बढ़ावा देना चाहिए, विशेष रूप से बड़े संगठनों में। क्योंकि एेसा न होने पर उद्देश्यों को प्राप्त करना कठिन हो जाएगा। इससे समन्वय की भी हानि होगी। सहयोग की भावना के पोषण के लिए प्रबंधक को कर्मचारियों से पूरी बातचीत में ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ का प्रयोग करना चाहिए। इससे समूह के सदस्यों में पारस्परिक विश्वास एवं अपनेपन की भावना पैदा होगी। इससे जुर्माने की आवश्यकता भी न्यूनतम हो जाएगी।

उपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि फेयॉल के प्रबंध के 14 सिद्धांत प्रबंध की समस्याओं पर विस्तृत रूप से लागू होते हैं तथा आज इनका प्रबंध की सोच पर गहरा प्रभाव पड़ा है। लेकिन जिस बदले हुए पर्यावरण में आज व्यवसाय किया जा रहा है, उसमें इन सिद्धांतों की व्याख्या बदल गई है। उदाहरण के लिए अब तक अधिकार एवं उत्तरदायित्व का अर्थ प्रबंधकों को शक्ति प्रदान करना था लेकिन आज हम फेयॉल के सिद्धांतों के वर्तमान गुणार्थ को समझने की स्थिति में हैं जो कि साथ के बॉक्स में दिए गए हैं।

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चित्र 2.4–कर्मचारी सुझाव प्रणाली–प्रशिक्षु प्रबंधकों का उत्साहवर्द्धन।

समन्वय की परिभाषाएँ

आइए अब देखें कि समकालीन व्यावसायिक स्थितियों, विशेष रूप से अमरीका जैसी सेवा आधारित एवं उच्च तकनीक अर्थव्यवस्थाओं में फेयॉल के सिद्धांतों का क्या अर्थ है- मोंट क्लेयर स्टेट यूनीवर्सिटी, अपर मोंट क्लेयर, न्यूजर्सी, यू. एस. ए. के रौडरिग्स ने "फेयॉल के 14 सिद्धांत तब और अब- आज के संगठनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए एक कार्ययोजना" नाम से लेख लिखा जो ‘मैनेजमेंट डिसिजियन’ जरनल 39/10/2001 पृष्ठ 880-889 में प्रकाशित से निम्न निष्कर्ष निकाले हैं–

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फेयॉल बनाम टेलर-तुलना

अब हम फेयॉल एवं टेलर के योगदान की तुलना करने की स्थिति में हैं। दोनों का प्रबंध के ज्ञान में भारी योगदान है जो प्रबंधकों के आगे कार्य का आधार बने हुए हैं। यह ध्यान रहे कि इनका योगदान एक-दूसरे का पूरक है। हम निम्न बिंदुओं पर इनके योगदान में अंतर कर सकते हैं–

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आप प्रबंध के ज्ञान के उत्थान में भारतीयों के योगदान के संबंध में भी जानना चाहेंगे। यह साथ के बॉक्स में दिया है।

क्या हम प्रबंध के भारतीय स्वभाव पर ध्यान दे रहे हैं? साहनी जो कैलोग में अपने विद्यार्थियों को पंचतंत्र एवं भगवत गीता में से उद्धरण देते रहते हैं का कहना है कि, "हाँ, और यह इसके जेड आध्यात्मिक ज्ञान में हैं। प्रबंध का दर्शन ‘कुत्ता कुत्ते का दुश्मन’, जो अब तक प्रचलित रहा है, के स्थान पर भविष्य में व्यवसाय के अनुरूप इससे कुछ अतिरिक्त है।" क्या भविष्य के इन निगमों के संचालन में कोई अंतर आएगा? शायद इसका उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप से बह रही हवा दे सके।

(नीलम राज के। ‘मैनेजमेंट गुरु’ थिन्क इंडियन नाऊ से रूपांतरित, आधारित एवं गृहित)

मुख्य शब्दावली

कार्यात्मक फोरमैनशिप  ।। विभेदात्मक मजदूरी प्रणाली  ।। कार्य का प्रमापीकरण

।।  मानसिक क्रांति।। समय अध्ययन ।। आदेश की एकता ।। गति अध्ययन

।। निदेश की एकता ।। थकान अध्ययन ।। सोपान शृंखला एव समतल संपर्क

।। कार्य-पद्धति अध्ययन ।। पारस्परिक सहयोग का सिद्धांत


सारांश

अर्थ

प्रबंध के सिद्धांत सामान्य दिशा निर्देश हैं जिन्हें कुछ स्थितियों में कार्यस्थलों के संचालन के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। यह प्रबंधकों को निर्णयों के क्रियान्वयन में सहायक होते हैं।

प्रकृति

प्रबंध की प्रकृति को इन शीर्षकों के अंतर्गत वर्णन किया जा सकता है - अभ्यास द्वारा रचित, सामान्य मार्गदर्शन, सार्वभौमिक, लोचपूर्ण, व्यावहारिक, अनिश्चित कारण एवं

महत्त्व

प्रबंधक ठोस निर्णय ले सकें इसके लिए प्रबंध के सिद्धांतों की ठीक से समझ आवश्यक है। प्रबंध के महत्त्व का इन शीर्षकों के अंतर्गत वर्णन किया जा सकता है- कार्य कुशलता में वृद्धि, संसाधनों की सोपान शृंखला एव समतल संपर्क अधिकतम उपयोग, वैज्ञानिक रीति से निर्णय लेना, परिवर्तित पर्यावरण को अपनाना, सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करना, उचित अनुसंधान एवं विकास, प्रबंधकाें को प्रशिक्षण एवं प्रभावपूर्ण प्रशासन हेतु प्रेरित करना।

वैज्ञानिक प्रबंध

टेलर के वैज्ञानिक प्रबंध के सिद्धांत हैं- विज्ञान है न कि व्यवहाराधीन (Rule of Thumb) सहयोग न कि विरोध, सहयोग न कि व्यक्तिवाद, अधिकतम न कि सीमित उत्पादन, प्रत्येक व्यक्ति का उसकी (ड.) केंद्रीकरण एवं विकेंद्रीकरण क्रम सं.सिद्धांत के नाम तब अब अधिकतम कुशलता एवं समृद्धि तक विकास, टेलर के अनुसार वैज्ञानिक प्रबंध की तकनीक इस प्रकार थीं-कार्यात्मक फोरमैनशिप, कार्य का प्रमापीकरण एवं सरलीकरण, थकान अध्ययन, पद्धति अध्ययन, समय अध्ययन, एवं विभेदात्मक मजदूरी प्रणाली।

हम टेलर एवं फेयॉल के योगदान में अंतर भी कर सकते हैं लेकिन प्रकृति से यह एक-दूसरे के पूरक थे।

फेयॉल के प्रबंध के सिद्धांत

फेयॉल के अनुसार प्रबंध के कार्य हैं–- योजना बनाना, आदेश देना, समन्वय करना एवं नियंत्रण करना। एक औद्योगिक संस्थान की क्रियाओं को इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है- तकनीकी, वाणिज्यिक, वित्तीय सुरक्षा, लेखांकन एवं प्रबंधन। उसने यह भी सुझाव दिया कि एक प्रबंधक में यह गुण होने चाहिएः शारीरिक, नैतिक शिक्षा, ज्ञान, एवं अनुभव। फेयॉल ने 14 सिद्धांतों को सूचीबद्ध किया- कार्य विभाजन, अधिकार एवं उत्तरदायित्व, अनुशासन, आदेश की एकता, निर्देश की एकता, व्यक्तिगत हितों का सामान्य हितों के पक्ष में समर्पण, कर्मचारियों का प्रतिफल, कर्मचारियों के कार्यकाल में स्थिरता, पहल क्षमता एवं सहयोग की भावना। 


अभ्यास

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

1. प्रबंधन के सिद्धांतों को क्यों लचीला माना जाता है?

2. समय अध्ययन के मुख्य उद्देश्य बताएँ।

3. उस सिद्धांत का नाम दें जो ‘सहयोग, न कि व्यक्तिवाद’ का विस्तार है।

4. थकान के कोई दो कारण बताएँ जो कर्मचारी के प्रदर्शन में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।

5. एक कठोर भर्ती प्रक्रिया के माध्यम से जाने के बाद सनकलाल और गगन ने वेल्स लिमिटेड में अपना कॅरियर शुरू किया। चूंकि उनके पास कोई पूर्व-कार्य अनुभव नहीं था, इसलिए फर्म ने स्वयं को साबित करने के लिए उन्हें एक वर्ष देने का फैसला किया। वेल्स लिमिटेड के इस प्रबंधन सिद्धांत का नाम बताएँ।

6. कुशल और अक्षम श्रमिकों को अलग करने के लिए टेलर द्वारा किस तकनीक का उपयोग किया जाता है?

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. ‘आदेश की एकता’ का सिद्धांत किस प्रकार प्रबंधन के लिए उपयोगी है? संक्षेप में बताएँ।

2. वैज्ञानिक प्रबंधन को परिभाषित करें। किन्हीं तीन सिद्धांतों के बारे में बताएँ।

3. यदि कोई संगठन भौतिक एवं मानव संसाधनों के लिए उचित स्थान प्रदान नहीं करता है, तो यह कौन से सिद्धांत का उल्लंघन है? इसके परिणाम क्या हैं?

4. प्रबंधन के सिद्धांतों के महत्व के संबंध में किन्हीं चार बिंदुओं की व्याख्या करें।

5. ‘सोपान शृंखला’ और ‘समतल संपर्क’ के सिद्धांत की व्याख्या करें।

6. एक प्रतिष्ठित कॉर्पोरेट में शीर्ष स्तर पर कार्यरत उत्पादन प्रबंधक श्री राठौर फर्म के लिए कच्चे माल का आदेश देने की ज़िम्मेदारी रखते हैं। वित्तीय वर्ष 2017-18 के लिए आपूर्तिकर्ता पर निर्णय लेने के दौरान, उन्होंने फर्म के सामान्य सप्लायर की बजाय प्रति यूनिट की उच्च कीमत पर अपने चचेरे भाई को अॉर्डर दिया, जो अॉर्डर के लिए दरों को कम करने के इच्छुक थे। यहाँ प्रबंधक के द्वारा किस सिद्धांत का उल्लंघन किया गया?

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. टेलर द्वारा दिए गए वैज्ञानिक प्रबंधन के सिद्धांतों की व्याख्या करें।

2. फेयोल द्वारा दिए गए प्रबंधन के निम्नलिखित सिद्धांतों की उदाहरण सहित व्याख्या करें–

(क) निर्देश की एकता

(ख) समता

(ग) सहयोग की भावना

(घ) व्यवस्था

(ड.) केंद्रीकरण एवं विकेंद्रीकरण

(च) पहल-क्षमता

3. टेलर द्वारा अनुमोदित ‘कार्यात्मक फोरमैनशिप’ की तकनीक और ‘मानसिक क्रांति’ की अवधारणा की व्याख्या करें।

4. वैज्ञानिक कार्य अध्ययन की निम्नलिखित की चर्चा करेें-

(क) समय अध्ययन

(ख) गति अध्ययन

(ग) थकान अध्ययन

(घ) कार्यविधि अध्ययन

(ड.) सरलीकरण और कार्य का मानकीकरण

5. टेलर और फेयोल के योगदान के बीच विभिन्नताओं पर चर्चा करें।

6. समकालीन व्यावसायिक पर्यावरण में टेलर और फेयोल के योगदान की प्रासंगिकता पर चर्चा करें।

7. भसीन लिमिटेड खाद्य प्रसंस्करण के व्यवसाय में है और अपने उत्पादों को एक लोकप्रिय ब्रांड के तहत बेच रही है। अच्छी गुणवत्ता और उचित मूल्यों के कारण हाल ही में इसका कारोबार बढ़ रहा था। इसके अलावा संसाधित खाद्य सामग्री के लिए बाजार में काम करने वाले अधिक लोग बढ़ रहे थे। नई प्रवृत्ति पर नए व्यापार भी बढ़ रहे थे। अपनी बाजार हिस्सेदारी को बनाए रखने के लिए कंपनी ने अपने मौजूदा कर्मचारियों को ओवरटाइम पर काम करने का निर्देश दिया। लेकिन इसके परिणामस्वरूप कई समस्याएं उत्पन्न हुईं। काम के बढ़ते दबाव के कारण श्रमिकों की दक्षता में कमी आई। कभी-कभी अधीनस्थों को एक से अधिक वरिष्ठों के लिए काम करना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप दक्षता में गिरावट आई। पहले एक उत्पाद पर काम कर रही डिवीजनों को दो या दो से अधिक उत्पादों पर काम करने के लिए कहा गया। इसके परिणामस्वरूप काम का दोहराव और क्षति हुई। मज़दूराें में अनुशासनहीनता की भावना बढ़ने लगी। श्रमिकों को धोखा महसूस हो रहा था। उत्पादों की गुणवत्ता में गिरावट शुरू हो रही थी और बाजार हिस्सेदारी घटने के कगार पर थी। वास्तव में कंपनी ने आवश्यक बुनियादी ढांचे के बिना परिवर्तन लागू किए थे।

(क) प्रबंधन के सिद्धांतों (हेनरी फेयोल द्वारा दिए गए 14 में से) की पहचान करें जिनका कंपनी द्वारा उल्लंघन किया जा रहा था।

(ख) संक्षेप में इन सिद्धांतों की व्याख्या करें।

(ग) कंपनी के पुराने गौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए उपरोक्त सिद्धांतों के संबंध में कंपनी प्रबंधन को क्या कदम उठाने चाहिए?

(उपरोक्त प्रश्न 7 से संबद्ध अतिरिक्त जानकारी) भसीन लिमिटेड के प्रबंधन ने अब अपनी कमियों को महसूस किया। स्थिति को सुधारने और पुनर्गठन योजना के लिए उन्होंने प्रबंधन परामर्शदाता ‘मुक्ति कंसल्टेंट्स’ को नियुक्त किया। मुक्ति कंसल्टेंट्स ने भसीन लिमिटेड का अध्ययन किया और निम्नलिखित परिवर्तनों की सिफारिश की-

(i) कंपनी को उत्पादन के संबंध में वैज्ञानिक प्रबंधन शुरू करना चाहिए।

(ii) मार्ग, निर्धारण, प्रेषण और प्रतिक्रियाओं सहित उत्पादन योजना लागू की जाये।

(iii) योजना को संचालन प्रबंधन से अलग करने के लिए ‘कार्यात्मक फोरमैनशिप’ को लाया जाना चाहिए।

(iv) संसाधनों के उपयोग को अनुकूलित करने के लिए ‘कार्य अध्ययन’ किया जाना चाहिए।

(v) दक्षता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए सभी गतिविधियों का ‘मानकीकरण’ लागू किया जाना चाहिए।

(vi) श्रमिकों को प्रेरित करने के लिए ‘विभेदक दर प्रणाली’ लागू की जानी चाहिए।

(उपरोक्त प्रश्न 7 के भाग ‘ग’ के उत्तर के रूप में उपर्युक्त परिवर्तन भी लागू किए जाने चाहिए)

यह उम्मीद की गई कि ये परिवर्तन कंपनी के कामकाज में अनुकूल बदलाव ला सकेंगे।

(क) क्या आपको लगता है कि सलाहकारों द्वारा अनुशंसित वैज्ञानिक प्रबंधन की शुरूआत का सकारात्मक परिणाम होगा?

(ख) कंपनी को बदलावों को लागू करने के लिए क्या सावधानी बरतनी चाहिए?

(ग) प्रश्न में बिन्दु (i) से (vi) के अंतर्गत दी गई प्रत्येक तकनीक के संबंध में अपना अलग-अलग उत्तर दें।