Abhyasan Part-1-001






अध्याय  4 

नियोजन

अधिगम उद्देश्य

इस अध्याय के अध्ययन के पश्चात् आप–

  • नियोजन का अर्थ बता सकेंगे;
  • नियोजन के लक्षण तथा महत्त्व की व्याख्या कर सकेंगे;
  • नियोजन की सीमाओं का वर्णन कर सकेंगे;
  • नियोजन प्रक्रिया में निहित आवश्यक कदमों का विश्लेषण कर सकेंगे;
  • विभिन्न प्रकार की योजनाओं की पहचान कर सकेंगे।


इंडियन अॉयल कंपनी लिमिटेड (आई.ओ.सी.एल.) स्थिरता के साथ ऊर्जा के लिए योजनाएँ

इंडियन अॉयल भारत का सबसे बड़ा वाणिज्यिक संगठन है। यह नवीनतम फॉर्च्यून ‘ग्लोबल 500’ लिस्टिंग (2017) में शीर्ष रैंकिंग वाली भारतीय कंपनी है। इंडियन अॉयल का दृष्टिकोण गतिशील नेताओं के एक समूह द्वारा संचालित होता है जिन्होंने इसे नाम देने के लिए कठिन परिश्रम किया है। 34,000 से अधिक मज़बूत कार्यबल के साथ, एक महारत्न कंपनी, इंडियन अॉयल भारत की ऊर्जा माँगों को पूरा करने और पाँच दशकों से अधिक समय तक भारत के हर हिस्से में पेट्रोलियम उत्पादों तक पहुँचने में मदद कर रही है। यह दुनिया भर में अपने व्यापार संचालन को बढ़ाने की योजना है।

कंपनी वर्ष 2017-18 के लिए 20,000 करोड़ रुपये का निवेश अधिग्रहण और विदेशों में विस्तार करने के लिये योजना बना रही है।

कंपनी हमेशा माँग से आगे होने में विश्वास रखती है। पिछले साल भी, आई.ओ.सी. ने करीब 20,000 करोड़ रुपये का निवेश किया था, जिसमें विभिन्न भारतीय परियोजनाओं में लगभग 16,000 करोड़ रुपये और रूस में अपस्ट्रीम के अधिग्रहण शामिल थे।

यह ध्यान देने योग्य है कि 2012-17 के बीच आई.ओ.सी.एल. ने करीब 56,200 करोड़ रुपये के लक्षित नियोजित निवेश के मुकाबले 75,000 करोड़ रुपये का निवेश किया। सभी निवेश रिफाइनरी विस्तार, रिफाइनरियों की गुणवत्ता के उन्नयन, नई पाइपलाइनों के निर्माण, पेट्रोकेमिकल परियोजनाओं में अधिक आक्रामक होने, नई प्राकृतिक गैस सुविधाओं आदि की स्थापना में हैं।

आई.ओ.सी. का ध्यान विदेशी बाजार की ओर भी है। कई मामलों पर बांग्लादेश सरकार से बात करने के अलावा हाल ही में बांग्लादेश में एक कार्यालय खोलने का फैसला किया गया था। बातचीत के मुद्दों में विशेष रूप से एल.पी.जी. और प्राकृतिक गैस शामिल थे, जहाँ कंपनी का प्रयास था कि दमरा परियोजना और पश्चिम बंगाल सीमा से होकर जाने वाली आई.ओ.सी. पाइपलाइन को बांग्लादेश नेटवर्क से जोड़ दिया जाए।

नेपाल के लिए मोतिहारी टर्मिनल और वहाँ अपनी सुविधाओं को बढ़ाने के लिए आई.ओ.सी. की एक पाइपलाइन बनाने की योजना है। कंपनी ने भूटान के साथ समझौता ज्ञापन (एम.ओ.यू.) पर हस्ताक्षर किए हैं और म्यांमार जैसे नए बाजारों को भी देख रहीे है।

कंपनी हमेशा नए अधिग्रहण के लिए तैयार रहती है। कंपनी के पास पर्याप्त रिज़र्व हैं और यह आंतरिक संसाधनों के माध्यम से धन एकत्र करने में सक्षम है। लेकिन आवश्यकता होने पर आई.ओ.सी. ऋण हेतु निश्चित रूप से भारत और विदेशी दोनों बाजारों में से जो भी सस्ता हो, में परियोजना आधार पर जाएगा।

स्रोत– http://www.business-standard.com/article/companies/ioc-to-invest-around-rs-20-000-in-2017-18-plans-expansion-acquisitions-117051600438_1.html 


विषय प्रवेश

अभी-अभी आप ‘भारतीय गैस प्राधिकरण लिमिटेड’ की योजनाओं के विषय में पढ़ चुके हैं। यह हमारी सरकारी क्षेत्र की एक अग्रणी कंपनी है। अध्यक्ष द्वारा बतलाई गई योजनाएँ, कंपनी की वास्तविक योजनाएँ हैं तथा वे योजनाएँ यह भी संकेत देती हैं कि कंपनी अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किस प्रकार आगे आयेंगी। वास्तव में ये कंपनी द्वारा दिये गये बड़े-बड़े कथन हैं। अतः इन्हें लागू करने के लिए इनको छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त कर देना चाहिए। यह सरकारी क्षेत्र की एक राष्ट्र व्यापी कंपनी का उदाहरण है जो देश की उच्च कोटि की कंपनी बनने के लिए संघर्षरत है। इसी प्रकार सभी संगठन चाहे वे सरकारी हों, या व्यक्तिगत व्यवसाय या निजी क्षेत्र की कंपनियाँ सभी को नियोजन की आवश्यकता होती है। सरकार देश के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनाती है। एक छोटे व्यवसाय की अपनी योजनाएँ होती हैं जबकि अन्य कंपनियाँ अपनी बड़ी-बड़ी योजनाएँ तैयार करती हैं जैसे- बिक्री योजना, उत्पादन योजना आदि। सभी की कुछ न कुछ योजनाएँ होती हैं।

सभी व्यवसायी भी सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तथा अधिक बिक्री करके उच्च स्तरीय लाभ अर्जित करना भी चाहते हैं। सभी प्रबंधक इसकी कामना करते हैं तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं। लेकिन अपनी आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए प्रत्येक प्रबंधक को भविष्य में झांकने, भविष्यवाणी करने तथा लक्ष्य प्राप्ति के लिए घोर परिश्रम करना पड़ता है। स्वप्नों को साकार किया जा सकता है यदि व्यवसायी भी पहले से यह निश्चय कर ले कि क्या करना है और कैसे करना है? यह नियोजन का सार है।

नियोजन का अर्थ

नियोजन का अर्थ पहले से यह निश्चिय करना है कि भविष्य में क्या करना है तथा कैसे करना है? यह प्रबंध के आधारभूत कार्यों में से एक है। कुछ भी करने से पहले प्रबंधक एक विचार मन में लाता है कि अमुक कार्य को कैसे किया जाए। अतः नियोजन, सृजनात्मकता तथा नवप्रवर्तन अति निकट से जुड़ा हुआ है। लेकिन प्रबंधक को सर्वप्रथम उद्देश्यों को निर्धारित करना पड़ता है। उसके उपरांत ही प्रबंधक यह जान पाता है कि उसे क्या करना है। इस तरह नियोजन, हम कहाँ खड़े हैं तथा हमें कहाँ पहुँचना है? इन दोनों के बीच में सेतु का काम करता है। नियोजन क्या है? जो प्रबंधक प्रत्येक स्तर पर करते हैं? इसमें निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। वास्तव में नियोजन की आवश्यकता उस समय पड़ती है जब किसी एक क्रिया को पूरा करने के लिए अनेक विकल्प विद्यमान हों।

अतः नियोजन से तात्पर्य उद्देश्यों का निर्धारण तथा इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समुचित कार्यविधि को विकसित करने से है। सभी प्रबंधकीय निर्णयों तथा कार्यवाहियों को विकसित करने से है। नियोजन सभी प्रबंधकीय निर्णयों तथा कार्यवाहियों को दिशा उद्देश्य प्रदान करते हैं। अतः नियोजन पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विवेकपूर्ण मार्ग सुलभ कराते हैं। संस्था के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सभी सदस्यों को काम करने की आवश्यकता होती है। ये उद्देश्य ही हमारे लक्ष्य होते हैं जिन्हें प्राप्त करने की इच्छा होनी चाहिए तथा उसी के आधार पर वास्तविक निष्पादन का मापदंड होता है। अतः नियोजन से आशय उद्देश्यों तथा लक्ष्यों का निर्धारण तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए एक कार्य-विधि का निरूपण करने से है। यह, क्या करना है तथा कैसे करना है, दोनों से संबंधित है।

जो योजना विकसित की जाती है, उसे एक निश्चित समय दिया जाना चाहिए, क्योंकि समय एक सीमित संसाधन है। यह बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग में लाई जानी चाहिए। यदि समय का ध्यान नहीं रखा जाए तो वातावरण की अवस्थाओं में परिवर्तनों के कारण सारी व्यावसायिक योजनाएँ व्यर्थ हो जाती हैं। कोई भी व्यवसाय योजनाओं को अंतरहित सहन नहीं कर सकता तथा उन पर कार्य किए बिना भी नहीं रह सकता।

उपरोक्त विवरण से क्या आप स्पष्ट एवं विस्तृत शब्दों में नियोजन को परिभाषित कर सकते हैं? एेसा करने के लिए उनमें से एक विधि, नियोजन को परिभाषित करनी होगी।

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चित्र 4.1–नियोजन–उद्देश्यों को विचार में रखना और उनको कार्य रूप देना।

दिए हुए समय के लिए उद्देश्यों का निर्धारण, कार्य की उपलब्धि के लिए दशाओं को सूचित करना, तथा कार्य करने की विभिन्न विधियों में से सर्वोत्तम संभव विकल्प का चुनाव करना।

नियोजन का महत्त्व

आपने फिल्म तथा विज्ञापन अवश्य देखे होंगे। किस प्रकार लोग कार्यकारी योजना तैयार करते हैं तथा किस प्रभावशाली ढंग से परिषद् कक्ष में प्रस्तुत करते हैं? क्या वे योजनाएँ वास्तव में कार्य करती हैं? क्या यह कार्य क्षमता को बढ़ाती हैं? अंतत– हमें नियोजन क्यों करना चाहिए? ये कुछ एेसे प्रश्न हैं जिनका हमें उत्तर तलाशना है। नियोजन निश्चित रूप से प्रभावशाली है, क्योंकि यह बताता है कि हमें कहाँ जाना है? यह निर्देशन देता है तथा पूर्वानुमान द्वारा असंभावित (अनिश्चित) जोखिमों को कम करती है।

(क) नियोजन निर्देशन की व्यवस्था करता है–कार्य कैसे किया जाना है इसका पहले से मार्ग दर्शन कराकर नियोजन निर्देशन की व्यवस्था करता है। लक्ष्य अथवा उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से बताकर नियोजन आश्वसन देता है कि वे एक मार्ग दर्शक के रूप में यह बतलाते हैं कि किस दशा में क्या कार्य करना है। यदि लक्ष्यों को सही रूप में समझाया गया है तो कर्मचारियों को यह ज्ञात होता है कि संगठन कोे क्या करना है तथा लक्ष्यों तक पहुचने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए? विभिन्न विभाग तथा संगठन के व्यक्ति कार्य में सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ होते हैं। यदि कोई योजना नहीं होगी तो कर्मचारियों की कार्य करने की दिशाएँ भिन्न होंगी तथा संगठन अपने उद्देश्यों को कुशलता पूर्वक प्राप्त करने में असमर्थ होगा।

(ख) नियोजन अनिश्चितता की जोखिम को कम करता है–नियोजन एक एेसी क्रिया है जो प्रबंधक को भविष्य में झांकने का सुअवसर प्रदान करती है तथा संभावित परिवर्तनों का बोध कराती है। भविष्य में किए जाने वाले क्रिया कलापों का निश्चय करके, नियोजन अनिश्चित घटनाओं तथा परिवर्तनों से व्यवहार करने का मार्ग प्रशस्त करती है। परिवर्तनों तथा घटनाओं को रोका नहीं जा सकता लेकिन वे प्रत्याशित होती हैं तथा उनके लिए प्रबंधकीय प्रतिक्रियाएँ विकसित की जा सकती हैं।

(ग) नियोजन अतिव्यापित तथा अपव्ययी क्रियाओं को कम करता है–नियोजन विभिन्न मंडलों, विभागों तथा व्यक्तियों के क्रियाकलापों में सामंजस्य स्थापित करने का आधार प्रदान करता है। यह मतभेदों तथा शंकाओं को दूर करने में सहायता करता है। क्योंकि यह विचार एवं कार्यों में स्पष्टीकरण का आश्वासन देता है अतः कार्य निर्विघ्न रूप से अग्रसर होता जाता है। व्यर्थ एवं अनावश्यक क्रियाएँ या तो कम हो जाती हैं अथवा समाप्त हो जाती हैं। अक्षमताओं को खोज निकालना आसान करता है तथा उन्हें ठीक करने के उपाय सुझाता है।

(घ) नियोजन, नव-प्रवर्तन विचारों को प्रोत्साहित करता है–जैसा कि नियोजन प्रबंध का पहला कार्य है, नवीन विचार योजना का साकार रूप ले सकते हैं। यह प्रबंध के लिए प्रतियोगात्मक रुचि पैदा करने वाला कार्य है। यह व्यवसाय की उन्नति, विकास एवं भविष्य की कार्यवाहियों के लिए गाइड का काम करता है।

(ङ) नियोजन निर्णय लेने को सरल बनाता है–नियोजन प्रबंधक को भविष्य के विषय में जानकारी प्राप्त करने तथा तदनुसार कार्य करने की विभिन्न वैकल्पिक दशाओं में से चुनाव करने की स्वीकारोक्ति देने में सहायता प्रदान करता है। प्रबंधक विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन करके उनमें से सर्वोत्तम का चुनाव करता है। जैसा कि नियोजन लक्ष्यों का निर्धारण करता है तथा भविष्य की दशाओं पर भविष्यवाणी करता है। अतः बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय आसानी से लिए जा सकते हैं।

(च) नियोजन नियंत्रण के मानकों का निर्धारण करता है–नियोजन की परिभाषा में लक्ष्यों का निर्धारण सम्मिलित हैं। संपूर्ण प्रबंधकीय प्रक्रिया में पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करना सम्मिलित है तथा इसके कार्यों में नियोजन, संगठन, भरती, निर्देशन तथा नियंत्रण सम्मिलित हैं। नियोजन लक्ष्यों या मानकों की व्यवस्था करता है जिससे वास्तविक निष्पादन का आकलन संभव होता है। वास्तविक निष्पादन को मानकों से तुलना करने पर हम यह जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि क्या वास्तव में हमने लक्ष्यों की प्राप्ति कर ली है? यदि कुछ भिन्नता है तो नियंत्रण की आवश्यकता हो सकती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि नियोजन, नियंत्रण से पूर्व की आवश्यकता है। यदि कोई लक्ष्य या मानक न हों तो भिन्नताओं का पता लगाना, जो नियंत्रण के आवश्यक अंग हैं, संभव नहीं होगा। दोषनिवारक कार्यवाही की आवश्यकता इस बात पर निर्भर करती है कि मानकों तथा भिन्नताओं में कितना अंतर है। अतः नियोजन, नियंत्रण का आधार है।

नियोजन की विशेषताएँ

पोलरिस के उपरोक्त उदाहरण के आधार पर कंपनी ने अपने विस्तार की योजना तैयार की है। उनका मुख्य उद्देश्य अपनी क्षमता को बढ़ाना है जिससे वे 800 और अधिक व्यावसायियों को नियुक्त कर सकें। उनका लक्ष्य समय छः मास है। चालू वर्ष का लक्ष्य भी स्पष्ट रूप में प्रतिपादित किया गया है कि अपनी क्षमता को 1,500-2,000 और अधिक व्यावसायियों को बढ़ाना है। जैसा कि आयोजन, प्रबंध का मूलभूत कार्य है, उन्होंने अपनी लक्ष्यों को सर्वप्रथम रखा है। इस तरह सभी व्यवसायों की जो योजना है, उसी के प्रतिमान (पैटर्न) का अनुसरण करना चाहिए। नियोजन की विशेषताओं में आप इस प्रकार की समानताएँ पायेंगे तथा आप वास्तविक जीवन में क्या हैं? उन्हें खोजिए तथा परखिए।

प्रबंध के कार्य के रूप में नियोजन की कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं। ये विशेषताएँ नियोजन की प्रकृति तथा क्षेत्र पर प्रकाश डालती हैं–

(क) नियोजन का केंद्र-बिंदु लक्ष्य प्राप्ति होता है–देखने में आता है कि संस्थानों की स्थापना सामान्य उद्देश्यों से होती है। विशिष्ट उद्देश्य, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले क्रियाकलापों के साथ योजनाओं में निर्धारित किए जाते हैं। अतः नियोजन उद्देश्यपूर्ण होता है। नियोजन तब तक निरर्थक होता है जब तक यह संस्थानों के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग प्रदान नहीं करता है।

(ख) नियोजन प्रबंधन का प्राथमिक कार्य है–नियोजन, प्रबंधन के अन्य कार्यों के लिए आधार प्रदान करता है। निर्धारित नियोजन के ढाँचे के अंतर्गत ही समस्त प्रबंधकीय कार्यों की निष्पत्ति की जाती है। अतः नियोजन अन्य कार्यों से पहले आता है। यह आयोजन का प्रमुख कहा जाता है। प्रबंधन के विभिन्न कार्य आपस में परस्पर संबंधित हैं तथा समान महत्त्वपूर्ण हैं। फिर भी नियोजन सभी के लिए आधार प्रदान करता है।

(ग) नियोजन सर्वव्यापी है–नियोजन संस्थानों के सभी विभागों तथा प्रबंधन के सभी स्तरों पर वांछनीय होता है। यह न तो उच्च स्तरीय प्रबंधन का और न ही किसी विशेष विभाग का अनन्य कार्य है, लेकिन नियोजन का क्षेत्र विभिन्न स्तरों तथा विभिन्न विभागों में भिन्न होता है। उदाहरणार्थ, यदि उच्च स्तरीय प्रबंध संपूर्ण संस्थान के नियोजन को अपने हाथ में लेते हैं तो मध्य स्तरीय प्रबंध विभागीय नियोजन करते हैं, तथा निम्न स्तर पर दैनिक क्रियाकलापों का नियोजन पर्यवेक्षकों द्वारा संपन्न किया जाता है।

(घ) नियोजन अविरत है–योजनाएँ एक विशिष्ट समय के लिए तैयार की जाती हैं जैसे एक माह के लिए, एक त्रैमासिक समय के लिए या एक वर्ष के लिए। उस समय के पूर्ण हो जाने पर नवीन आवश्यकतानुसार या भविष्य की आवश्यकतानुसार नयी योजना बनाने की आवश्यकता होती है। अतः नियोजन कभी न समाप्त होने वाली क्रिया है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। नियोजन की निरंतरता नियोजन चक्र से संबंधित है। इसका तात्पर्य यह है कि योजना तैयार की जाती है, कार्यांवित की जाती है तथा अन्य योजनाओं द्वारा अनुकरणीय है, इत्यादि।

(ङ) नियोजन भविष्यवादी है–नियोजन में तत्वतः दूरदर्शिता सन्निहित है तथा यह भविष्य के लिए तैयार की जाती है। नियोजन का उद्देश्य भविष्य की घटनाओं से संस्थान के हित में कुशलतापूर्वक सामना करना है। इसमें भविष्य में झाँकना तथा विश्लेषण व भविष्यवाणी (पूर्वानुमान) सम्मिलित हैं। अतः नियोजन भविष्यवाणी (पूर्वानुमान) पर आधारित भविष्य मूलक कार्य है। भविष्य की घटनाओं तथा दशाओं के पूर्वानुमान से संभावनानुसार योजनाएँ क्रमशः तैयार की जाती हैं। उदाहरणस्वरूप बिक्री के पूर्वानुमान के अनुसार ही एक व्यावसायिक फर्म अपनी उत्पादन तथा विक्रय योजनाएँ तैयार करती हैं।

(च) नियोजन में निर्णय रचना निहित है–नियोजन निश्चित रूप से विभिन्न विकल्पों तथा क्रियाओं में से सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करता है। यदि केवल एक ही संभावित लक्ष्य या केवल एक ही कार्य करने की विधि हो तो नियोजन की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि वहाँ कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। नियोजन की आवश्यकता केवल उसी समय होती है जब विकल्प होते हैं। वास्तविक जीवन में नियोजन में यह मान लिया जाता है कि हर क्रिया का विकल्प उपलब्ध है। अतः नियोजन प्रत्येक विकल्प का पूर्ण परीक्षण तथा मूल्यांकन करने के उपरांत ही उनमें से किसी एक सर्वोत्तम का चुनाव करता है।

(छ) नियोजन एक मानसिक अभ्यास है– नियोजन में दूरदर्शिता को साथ लेते हुए मस्तिष्क के अनुप्रयोग की आवश्यकता होती है। साथ ही बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना एवं ठोस निर्णय भी आवश्यक होते हैं। वास्तव में यह करने की अपेक्षा मानसिक चिंतन की क्रिया है, क्योंकि नियोजन में जो कार्य करना है उसका निर्णय लिया जाता है। फिर भी नियोजन के लिए अटकलबाजी अथवा इच्छा जनित धारणा की अपेक्षा तार्किक तथा नियमित विचारधारा की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि नियोजन के लिए सोच क्रमानुसार तथा तत्वों एवं पूर्वानुमानों के विश्लेषण पर आधारित होनी चाहिए।

नियोजन की सीमाएँ

यह हम देख चुके हैं कि नियोजन व्यावसायिक संस्थानों के लिए कितना आवश्यक है? औपचारिक नियोजन के गतिविधियों के बिना प्रबंध करना कठिन कार्य है। संस्थानों के लिए लक्ष्य प्राप्त करना अति महत्त्वपूर्ण है। लेकिन हमने अपने दैनिक जीवन में देखा है कि सभी गतिविधियाँ हमारी योजनानुसार नहीं चल पातीं। अप्रत्याशित घटनाएँ तथा परिवर्तन जैसे, पर्यावरणीय परिवर्तन, सरकारी हस्तक्षेप, कानूनी नियमन सभीव्यावसायिक नियोजन को प्रभावित करते हैं तथा लागत एवं कीमत में वृद्धि कर देते हैं अतः योजनाओं में संशोधन करना पड़ता है। यदि हम अपनी योजनाओं पर भरोसा नहीं कर सकते तो हम नियोजन करते ही क्यों हैं? यही वजह है जिसके विश्लेषण की आवश्यकता है।

(क) नियोजन दृढ़ता उत्पन्न करता है– एक संस्थान में एक लक्ष्य को निश्चित समय में पाने के लिए सुनियोजित योजना तैयार की जाती है। यही योजनाएँ भविष्य में कार्य करने की विधि निर्धारित करती हैं। प्रबंधक इनमें परिवर्तन करने की अवस्था में नहीं होते हैं। नियोजनों में इस तरह की दृढ़ताएँ परेशानियाँ पैदा करती हैं। प्रबंधकों को बदले हुए हालात में उनसे सहयोग करने के लिए कुछ छूट अवश्य दी जानी चाहिए। किसी अमुक योजना का बदली हुई परिस्थितियों में अनुसरण करना, संस्थान के हित में नहीं होता।


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चित्र 4.2–नियोजन–प्रबंधन का पहला कदम।

(ख) परिवर्तनशील वातावरण में नियोजन प्रभावी नहीं रहता– व्यावसायिक वातावरण परिवर्तनशील है। कुछ भी स्थाई नहीं है। वातावरण में बहुत से आयाम सम्मिलित होते हैं जैसे- आर्थिक, राजनैतिक, भौतिक, कानूनी तथा सामाजिक आयाम। संस्थान अपने आय को स्थाई रूप से इन परिवर्तनों के अनुसार बदल लेते हैं। यदि आर्थिक नीतियों में संशोधन कर दिया जाए या देश की राजनैतिक दशा स्थाई न हो या कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए तो वातावरण के रुझान का सही-सही मूल्यांकन कठिन होता है। बाज़ार की प्रतियोगिता वित्तीय योजना को तितर-बितर कर देती है। बिक्री के लक्ष्य की पुनरावृत्ति करनी पड़ती है तथा रोकड़ बजट में भी संशोधन आवश्यक हो जाता है क्योंकि ये सभी बिक्री पर ही आश्रित होते हैं। नियोजन हर चीज़ का पूर्वज्ञान नहीं रख सकता। अतः ये सभी प्रभाव नियोजन में रुकावटें पैदा करते हैं।

(ग) नियोजन रचनात्मकता को कम करता है– नियोजन एक एेसी क्रिया है जिसकी रचना शीर्ष स्तरीय प्रबंधन के द्वारा की जाती है। बाकी संगठन इन योजनाओं को कार्यांवित करते हैं। अनुक्रमानुसार, मध्य स्तरीय प्रबंधन तथा अन्य निर्णायकगण न तो इनमें कोई विचलन करने के लिए अधिकृत होते हैं और न ही आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए अनुमति मिलती है। इस तरह से बहुत सी पहल क्षमता तथा सृजनात्मकता जो उनके अंदर छुपी हुई है दब कर रह जाती है। कई बार कर्मचारी योजनाओं का निरूपण ही नहीं करते वे केवल आज्ञा पालन करते हैं। अतः नियोजन की सृजनात्मकता कम हो जाती है क्योंकि कार्यकर्ता उसी तरह सोचना प्रारंभ कर देते हैं जैसा कि आम लोग समझते हैं। कुछ भी नया या नवप्रवर्तन नहीं होता है।

(घ) नियोजन में भारी लागत आती है–जब नियोजन किया जाता है तो इसमें बड़ी भारी लागत आती है। ये धन के रूप में भी हो सकती है या समय के रूप में भी। उदाहरण स्वरूप परिशुद्धता की जाँच में बहुत अधिक समय लगना स्वाभाविक होता है। विस्तृत योजनाओं की वैज्ञानिक गणनाओं के लिए, तथ्य तथा अंकों को ज्ञात करने की आवश्यकता होती है। कभी-कभी लगात यह सफाई भी नहीं दे पाती कि योजना से क्या लाभ होंगे या होंगे भी या नहीं। कभी-कभी नियोजन की व्यवहार्यता को परखने के लिए बहुत से आकस्मिक व्यय जैसे- परिषद् कक्ष मीटिंग, व्यावसायिक विशेषज्ञों के साथ वाद-विवाद तथा प्रारंभिक खोजबीन करने पड़ते हैं।

(ङ) नियोजन समय नष्ट करने वाली प्रक्रिया है–कभी-कभी योजनाएँ तैयार करने में इतना समय बर्बाद हो जाता है कि उनके लागू करने के लिए पर्याप्त समय बचता ही नहीं है।

(च) नियोजन सफलता का आश्वासन नहीं है–एक उद्यम की सफलता तभी संभव होती है जब उसकी योजनाएँ ठीक प्रकार से बनाई जाए तथा उन्हें समुचित रूप में लागू किया जाए। प्रत्येक योजना कार्य में बदली जाती है, अथवा उसे मूर्त रूप दिया जाता है अन्यथा वह सारहीन हो जाती है। प्रबंधकों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे पहले से जाँची एवं परखी गयी सफल योजनाओं पर ही भरोसा करते हैं। यह हमेशा उचित नहीं होता कि कोई योजना जो पहले सफल हो चुकी है वही आगे भी कार्य करेगी। इसके अतिरिक्त दूसरे अनजान तत्व भी होते हैं जिनका ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार का आत्मसंतोष तथा झूठी सुरक्षा का भाव सफलता के बजाय असफलता ही देता है। इस अपवाद के बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि नियोजन व्यर्थ की कसरत नहीं है। यह एक एेसा यंत्र है जिसका उपयोग सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। यह भविष्य में की जाने वाली कार्यवाही के विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। लेकिन ये सभी समस्याओं का समाधान भी नहीं है।


योजनाओं के प्रकार- मिट्टीकूल का उद्देश्य, रणनीति और नीति

जनवरी 2001 के विनाशकारी भूकंप के दौरान, मनसुखभाई को भारी नुकसान पकहुँचा और उनका अधिकांश सामान क्षतिग्रस्त हो गया। उन्होंने कच्छ के भूकंप प्रभावित लोगों को बचे हुए स्टॉक को वितरित किया। इसके बाद एक तस्वीर सामने आई जो भूकंप के ठीक बाद ली गयी थी और जिसे फरवरी 2001 में गुजराती दैनिक ‘संदेश’ में प्रकाशित किया गया। इस तस्वीर में एक टूटा हुआ पानी का ε.फल्टर दिखाया गया था जिसे मनसुखभाई ने बनाया था। तस्वीर का शीर्षक था- "गरीब आदमी का टूटा हुआ फ्रिज"।

उस समय, वह गुजरात नवाचार उन्नति नेटवर्क (G.I.A.N), अहमदाबाद से मिले, जिसने मनसुखभाई को अपने प्रयासों में आगे बढ़ने में सहायता की। अंत में कड़ी मेहनत और फ्रिज की संरचना एवं मिट्टी के विभिन्न परीक्षणों के बाद उन्हें 2005 में मिट्टीकूल फ्रिज बनाने में सफलता प्राप्त हुई। इसके बाद उनके द्वारा मिट्टी का उपयोग करके विभिन्न उत्पादों का नवाचार किया गया।

• कंपनी अपने सभी उत्पादों को कम दर पर रखने की अपनी नीति पर दृढ़ है जो गरीब लोगों के लिए सस्ती होगी।

• उनकी भविष्य की योजनाओं में आई.आई.एम. अहमदाबाद में नेशनल इनोवेशन फॉउंडेशन की सहायता से एक कारखाना शुरू करना और मिट्टीकूल घर बनाना शामिल है। यह मिट्टी के साथ एक हरित (पर्यावरण अनुकूल) घर होगा जिसमें बिजली नहीं होगी लेकिन केवल आरामदायक तापमान बनाए रखने के लिए अक्षय ऊर्जा होगी।

 

नियोजन प्रक्रिया

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि नियोजन से तात्पर्य है पहले से यह तय करना कि हमें क्या करना है? तथा कैसे करना है? यह निर्णय लेने की एक प्रक्रिया है कि हम एक योजना कैसे तैयार करते हैं। जैसा कि नियोजन एक क्रिया है, अतः प्रत्येक प्रबंधक को कुछ निश्चित तार्किक कदमों का अनुसरण करना चाहिए।

(क) उद्देश्यों का निर्धारण–सर्वप्रथम प्रमुख कदम उद्देश्यों का निर्धारण है। प्रत्येक संगठन के कुछ उद्देश्य होते हैं। उद्देश्य पूरे संगठन तथा प्रत्येक विभाग के लिए या प्रत्येक इकाई के लिए संगठन के अंतर्गत ही निर्धारित किए जाने चाहिए। उद्देश्य अथवा लक्ष्य बतलाते हैं कि संगठन क्या पाना चाहता है? संपूर्ण संगठन का एक उद्देश्य यह भी हो सकता है कि वे बिक्री में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी करना चाहते हैं। इसके लिए सभी विभाग किस प्रकार सहयोग करेंगे। इसे नियोजन कहते हैं, जो कि तैयार करना होता है। सभी विभागों की इकाइयों को तथा कर्मचारियों के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण होना चाहिए। वे सभी विभागों को निर्देशन देते हैं। सभी विभाग/इकाई, संगठन की विचारधारा में अनुकूल अपने अलग उद्देश्य निर्धारित करते हैं। उद्देश्यों की जानकारी प्रत्येक इकाई तथा सभी स्तर के कर्मचारियों तक पहुँचनी चाहिए। साथ ही प्रबंधकों को उद्देश्यों के निर्धारण प्रक्रिया में अपने विचार भी देने चाहिए तथा सहयोग भी। उनकी समझ में यह बात भी आनी चाहिए कि उनके क्रियाकलाप लक्ष्य प्राप्ति में किस प्रकार सहायक हो रहे हैं। यदि अंतिम परिणाम स्पष्ट है तो लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होना आसान होता है।

(ख) विकासशील आधार–नियोजन का संबंध भविष्य से है जो अनिश्चित है तथा प्रत्येक नियोजन, का भविष्य में कुछ भी हो सकता है इस संकटकालीन अवधारणा को उपयोग में लाता है। अतः प्रबंधक को भविष्य के विषय में कुछ अवधारणाएँ बना लेनी चाहिए। यही अवधारणएँ आधार कहलाती हैं। अवधारणाएँ ही भौतिक आधार (वस्तु स्थिति) हैं जिनपर योजनाएँ तैयार की जाती हैं। यह भौतिक आधार पूर्वानुमान, वर्तमान योजना या नीतियों के विषय में कोई भूतकालीन सूचना हो सकती है। आधार या मान्यताएँ सभी के लिए समान होनी चाहिए तथा योजना निर्माताओं को आपस में एक मत होना चाहिए। सभी प्रबंधक जो नियोजन में सम्मिलित हैं जानकार होने चाहिए तथा समान मान्यताओं का उपयोग करना चाहिए। आधार विकसित करने में पूर्वानुमान महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सूचनाएँ एकत्रित करने की एक तकनीक है। किसी खास उत्पाद की माँग के विषय में पूर्वानुमान किया जा सकता है यह नीति परिवर्तन, ब्याज दर, पूँजीगत माल की कीमत, कर दर आदि के बारे में भी पूर्वानुमान किया जा सकता है। एक सफल नियोजन के लिए यथार्थ पूर्वानुमान आवश्यक है।

(ग) कार्यवाही की वैकल्पिक विधियों की पहचान–जब एक बार उद्देश्यों का निर्धारण हो गया, मान्यताएँ निश्चित हो गईं तो आगामी कदम उन पर कार्यवाही करना होता है। कार्यवाही करने तथा लक्ष्यों को प्राप्त करने की अनेक विधियाँ हो सकती हैं। सभी विधियाँ जानी पहचानी होनी चाहिए। जो भी कार्यविधि हाथ में ली जाय वह, जानी पहचानी तथा स्पष्ट होनी चाहिए। कभी-कभी नये कार्य के लिए भी अधिक व्यक्तियों को उनमें विचार के लिए सम्मिलित करते हुए सोचा जा सकता है। यदि परियोजना अधिक महत्त्वपूर्ण है तो संगठन सदस्यों में परिचर्चा करके अधिक महत्त्वपूर्ण विकल्प के विषय में विचार किया जा सकता है।

(घ) विकल्पों का मूल्यांकन–आगामी कदम प्रत्येक विकल्प के गुण व दोषों की जानकारी प्राप्त करना है। एक ही विकल्प के कई रूप हो सकते हैं जिनकी आपस में तुलना करनी चाहिए। प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक प्रस्ताव के पक्ष एवं विपक्ष के दोनों पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। वित्तीय योजनाओं में उदाहरण के रूप में ‘रिस्क-रिटली ट्रेड अॉफ’ बहुत सामान्य है। अधिक जोखिम वाले विनियोगों से अधिक आय पाना आम बात होती है। इस तरह के प्रस्तावों के लिए आय, आय प्रति अंश, ब्याज, कर तथा लाभांश आदि की गणना करके ही निर्णय लिए जाते हैं। एेसे प्रस्तावों के लिए निश्चितता/अनिश्चितता की दशा में उचित पूर्वानुमान, ओजस्वी संकल्पना बन जाती है। विकल्पों का मूल्यांकन उनकी संभाव्यता तथा परिणामों को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(ङ) विकल्पों का चुनाव–यह निर्णय लेने का उपयुक्त बिन्दु है। सर्वोत्तम योजना ही स्वीकृत की जानी चाहिए तथा उसी को लागू करना चाहिए। एक आदर्श योजना ही वास्तव में सर्वाधिक साध्य, लाभकारी तथा कम से कम विपरीत परिणामों वाली होती है। बहुत सी योजनाएँ सदैव, अंकगणितीय विश्लेषण के क्षेत्र में नहीं आतीं। एेसी अवस्थाओं में व्यक्तिनिष्ठता तथा प्रबंधकों का अनुभव, निर्णय तथा सामयिक सहज बोध ही सर्वाधिक व्यवहार्य विकल्प चुनने में मुख्य भूमिका अदा करते हैं। कभी-कभी किसी एक सर्वोत्तम विकल्प को चुनने की अपेक्षा कुछ योजनाओं का समिश्रण (संयोजन) भी चुना जा सकता है। प्रबंधक सर्वोत्तम संभव कार्य प्रणाली का चुनाव करता है तथा परिवर्तन तथा संयोजन को अपनाता है।

(च) योजना को लागू करना– यह वह कदम है जिसमें प्रबंधन के अन्य कार्य भी आते हैं। इसका संबंध योजना को लागू करने से है। यह वह कार्य है जो वांछनीय है। उदाहरणार्थ यदि योजना अधिक उत्पादन करने के लिए है तो अधिक श्रम तथा अधिक मशीनों की आवश्यकता होगी। इस कदम की पूर्ति के लिए काम करने तथा मशीनें क्रय करने के लिए और अधिक बड़े संगठन की आवश्यकता होगी।

(छ) अनुवर्तन–यह देखना कि योजनाएँ लागू की गईं या नहीं तथा निर्धारित अनुसूची के अनुसार कार्य चल रहा है या नहीं, यह भी नियोजन प्रक्रिया का ही एक अंग है। योजनाओं का कार्यान्वयन तथा उद्देश्यों को पूरा किया जा रहा है इस बात का आश्वासन भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।

नियोजन के प्रकार

योजनाएँ क्या प्राप्त करना चाहती हैं? तथा योजनाएँ कार्यान्वयन में किस विधि का प्रयोग करेंगी? के आधार पर योजनाओं को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। वे उद्देश्य-व्यूह रचना, कार्यविधि पद्धति, नियम, कार्यक्रम, बजट आदि हो सकते हैं।

नियोजन के प्रकार

एकल प्रयोग तथा स्थायी योजनाएँ

व्यवसाय प्रचालन के संबंध में कोई निर्णय लेने अथवा किसी परियोजना को प्रारंभ करने से पूर्व एक संगठन को योजना बनानी होती है। योजनाओं को प्रयोग तथा नियोजन अवधि की लंबाई के आधार पर कई प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ योजनाएँ अल्पकालिक होती हैं तथा प्रचालन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होती हैं। ये योजनाएँ एकल प्रयोग योजनाओं तथा स्थायी योजनाओं में वर्गीकृत की जा सकती हैं।

एकल प्रयोग योजना – एक एकल प्रयोग योजना केवल एक बारी की घटना अथवा परियोजना हेतु विकसित की जाती है। एेसी क्रियाविधि भविष्य में दोहराई नहीं जाती अर्थात् ये अनावृत परिस्थितियों हेतु होती हैं। इस योजना की अवधि परियोजना के प्रकार पर निर्भर करती है। इनका विस्तार एक सप्ताह अथवा एक माह हो सकता है। कभी-कभी एक परियोजना केवल एक दिन की होती है जैसे किसी घटना अथवा संगोष्ठी अथवा सम्मेलन का आयोजन करना। इन योजनाओं में बजट, कार्यक्रम तथा परियोजनाएं सम्मिलित हैं। इनमें कई विवरण, उन कर्मचारियों के नाम जो कार्य हेतु उत्तरदायी होते है तथा एकल प्रयोग योजना में योगदान देते है, सम्मिलित होते हैं। उदाहरणार्थ, एक कार्यक्रम में चरणों, अन्य छोटे निर्माण कार्यों से व्यवहार करने हेतु एक नया विभाग खोलने के लिए आवश्यक कार्यविधियों को पहचानना सम्मिलित है। परियोजनाएँ कार्यक्रमों जैसे होती हैं परंतु इनके क्षेत्र तथा जटिलता में अंतर होता है। एक बजट एक विशिष्ट अवधि हेतु व्ययों, आगमों तथा आय का विवरण होता है।

स्थायी येाजना – एक स्थायी योजना एक समयावधि के दौरान नियमित रूप से घटित होने वाली क्रियाओं हेतु प्रयोग की जाती है इसे यह सुनिश्चित करने हेतु अभिकल्पित किया जाता है कि एक संगठन के आंतरिक प्रचालन भली प्रकार से चल रहे हैं। एेसी योजना मुख्य रूप से नैत्यिक निर्णयन में कार्यकुशलता को बढ़ाती है। यह सामान्यतः एक बार विकसित की जाती पंरतु जरूरत पड़ने पर समय-समय पर व्यवसाय की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संशोधित की जाती है स्थायी योजनाओं में नीतियां, कार्यविधियाँ तथा नियम सम्मिलित हैं।

नीतियाँ स्थायी योजनाओं के सामान्य प्रकार हैं जो एक निश्चित परिस्थिति, जैसे एक शैक्षिक संस्थान की प्रवेश नीति, के प्रति संगठन के प्रत्युत्तरों को विशिष्टिकृत करती हैं। कार्यविधियाँ विशिष्ट परिस्थितियों जैसे उत्पादन में प्रगति प्रतिवेदन की कार्यविधि, में अपनाये जाने वाले कदमों का विवेचन करती हैं विधियाँ वह तरीका उपलब्ध कराती है। जिससे किसी कार्य को निष्पादित किया जाना है नियम बहुत स्पष्ट रूप से बताते हैं कि निश्चितः क्या करना है जैसे एक विशेष समय पर कार्य का प्रतिवेदन देना।

योजनाओं के प्रकार भी हैं जो एकल प्रयोग अथवा स्थायी योजनाओं के रूप में वर्गीकृत नहीं किये जाते। एक व्यूहरचना, उदाहरणार्थ सामरिक नियोजन अथवा प्रबंध का एक भाग है। यह उच्च स्तरीय प्रबंध द्वारा बनाई गई एक सामान्य योजना है जो संसाधन आबंटन की रूपरेखा, प्राथमिकताएँ तथा व्यवसाय वातावरण तथा प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखती हैं। उद्देश्य सामान्यतः उच्च स्तरीय प्रबंध द्वारा निर्धारित किये जाते हैं तथा समग्र नियोजन हेतु एक मार्गदर्शक होते हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक इकाई समग्र संगठनात्मक लक्ष्यों को दृष्टिगत रखते हुए अपने उद्देश्य निर्धारित करती है। एकल प्रयोग तथा स्थायी योजनाएँ प्रचालन नियोजन प्रक्रिया के भाग हैं।

इस अधार पर कि योजनाएँ क्या प्राप्त करने हेतु बनी हैं, योजनाएँ उद्देश्य, व्यूहरचना, नीति, कार्यविधि, विधि, नियम, कार्यक्रम तथा बजट के रूप में वर्गीकृत की जा सकती हैं।

उद्देश्य

नियोजन में सबसे पहला कार्य उद्देश्यों का निर्धारण करना होता है। उद्देश्य, प्रबंधन का वह गंतव्य स्थान है जहाँ उसे भविष्य में पहुँचना है। उद्देश्य संस्थान के आदि हैं, तथा प्रबंधन जिन्हें अपने प्रयत्नों से प्राप्त करना चाहता है वे अन्त हैं। अतः साधारणरूप में यह कहा जा सकता है कि एक उद्देश्य वह है जिसे आप क्रिया के अंततः– परिणाम के रूप मेें प्राप्त करना चाहते हैं। उदाहरण के रूप में एक संगठन का उद्देश्य बिक्री को 10 प्रतिशत बढ़ाना हो सकता है। अथवा व्यापार में विनियोजित पूँजी पर 20 प्रतिशत संतुलित लाभ अर्जित करना चाहते हैं वे नियोजन का अंतिम लक्ष्य दिखाते हैं। प्रबंधन की अन्य क्रियाएँ भी इन उद्देश्यों की ओर ही निर्देशित हैं। वे सामान्यतया संस्थान के उच्च स्तरीय प्रबंधकों द्वारा निर्धारित की जाती हैं तथा वे विस्तृत, सामान्य परिणामों पर केंद्रित होती हैं। वे भविष्य के क्रियाकल्पों को परिभाषित करते हैं जिन्हें पाने के लिए संस्थान संघर्षरत रहते हैं। वे संपूर्ण व्यावसायिक नियोजन के लिए परिदर्शक का काम करते हैं। संगठन में विभिन्न विभाग या इकाइयाँ अपने-अपने उद्देश्य अलग रख सकते हैं।

उद्देश्यों को किसी खास अवधि में व्यक्त किया जाना चाहिए। वे मात्रा के रूप में मापने योग्य हो सकते हैं या दिए हुए समय के अंतर्गत इच्छित फलों को प्राप्त करने के लिए लिखित रूप में हो सकते हैं।

व्यूह-रचना

व्यूह-रचना एक व्यावसायिक संस्थान की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। यह संगठन के दीर्घकालीन निर्णय तथा निर्देशन में संबंध स्थापित करती है। अतः यह कहा जा सकता है कि व्यूह-रचना एक व्यापक योजना है जो संगठन के उद्देश्यों को पूरा करती है। विस्तृत योजना में तीन आयाम होते हैं- (क) दीर्घकालीन लक्ष्यों का निर्धारण

(ख) अमुक कार्य की क्रियाविधि का चुनावतथा (ग) उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक स्रोतों का नियतन।

जब कभी एक व्यूह-रचना तैयार की जाती है तो व्यावसायिक पर्यावरण को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, कानूनी तथा तकनीकी पर्यावरण में परिवर्तन, संगठन की व्यूह-रचना को प्रभावित करते हैं। व्यावसायिक पर्यावरण व्यूह-रचना प्राय– व्यवसाय की पहचान बनाने में सहायक होती है। बड़ी व्यूह-रचना के निर्णयों में, क्या व्यवसाय उसी कार्यशैली पर चालू रहेगा? या वर्तमान व्यवसाय के साथ कार्य करने की कोई नयी विधि अपनायेगा या उसी बाज़ार में प्रभावशाली स्थान प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा, सम्मिलित होते हैं। उदाहरणस्वरूप, कंपनी बाज़ार की व्यूह-रचना में कुछ प्रश्नों को जैसे-क्रेता कौन हैं? उत्पाद की माँग क्या है? वितरण का कौन सा माध्यम प्रयोग में आयेगा? मूल्य नीति क्या है? तथा हम उत्पाद का किस प्रकार विज्ञापन करेंगे? किसी संगठन के लिए बाज़ार की व्यूह-रचना करने के लिए इन सभी तथा अन्य बहुत सी समस्याओं के निराकरण की आवश्यकता है।

नीति

नीतियाँ सामान्य कथन हैं जो विचारों का मार्गदर्शन अथवा एक विशिष्ट दिशा में अग्रसर होने के लिए मार्ग प्रशस्त करती हैं। सामान्य शर्तों में व्यक्त की गई व्यूह-रचना, नीति विश्लेषण का आधार होती हैं। उदाहरण के लिए, कंपनी की कोई भर्ती नीति हो सकती है जिसके अंतर्गत उद्देश्य निर्धारित किए जा सकते हैं या निर्णय लिए जा सकते हैं। यदि कोई सुस्थापित नीति होती है तो समस्याओं अथवा मतभेदों का समाधान आसानी से किया जा सकता है। वास्तव में नीतियाँ किसी विशेष समाज या अवस्था के लिए सामान्य प्रतिक्रिया है।

कंपनियों की बड़ी नीतियों से लेकर छोटी नीतियों तक हर स्तर पर तथा हर विभाग में नीतियाँ होती हैं। बड़ी नीतियाँ ग्राहकों तथा प्रतियोगियों आदि की जानकारी के लिए होती हैं तो छोटी नीतियाँ आंतरिक जगत के लिए जिसमें सूक्ष्म विवरण दिए हुए होेते हैं। लेकिन दूसरों को सूचना देने का कुछ आधार होना चाहिए। नीतियाँ विस्तृत प्राचल (पैरामीटर्स) की व्याख्या करती हैं जिनके अंतर्गत प्रबंधक कार्य कर सकते हैं। प्रबंधक नीतियों को अपनाने तथा निर्वाचन के लिए उपयोग में ला सकता है। उदाहरण के लिए क्रय नीतियों के अंतर्गत लिए गये निर्णय माल के निर्माण या क्रय के रूप में हो सकते हैं। क्या कंपनी को पैकेजेज़ की आवश्यकता पूर्ति के लिए स्वयं निर्माण करना चाहिए या क्रय करने चाहिए? तथा क्या यातायात सेवाओं के लिए स्वयं की व्यवस्था करनी चाहिए या बाज़ार से किराये पर वाहनों की व्यवस्था करनी चाहिए? प्रिटिंग व स्टेशनरी की आवश्यकता पूर्ति तथा पानी एवं विद्युत पूर्ति तथा अन्य मदों के विषय में किस प्रकार की नीति निर्धारित करनी चाहिए। किस प्रकार से माल की पूर्ति करने वाले विक्रेताओं का चुनाव करना चाहिए? कितने पूर्तिकताओं से कंपनी क्रय करेगी? पूर्तिकर्त्ताओं के चुनाव कैसे होगा? इन सभी प्रश्नों का उत्तर कंपनी की क्रय नीति ही होगी।

प्रक्रिया

प्रक्रिया से तात्पर्य दैनिक गतिविधियों के संचालन से है। कार्य कैसे संपन्न करना है? इसकी विस्तृत विधि, प्रक्रिया ही बतलाती है। ये प्रक्रियाएँ एक विशिष्ट कालानुक्रमिक क्रम में होती हैं। जैसे उत्पादन से पहले माल मँगाने की कोई प्रक्रिया हो सकती है। विशेष परिस्थितियों में प्रक्रियाओं के चुनाव के विशिष्ट ढंग हैं। वे सामान्यतया आंतरिक लोगों के अनुसरण के लिए होते हैं। कार्य जो करता है या कार्य का क्रम सामान्यत–पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नीति का दवाब ही होता है। नीतियाँ तथा प्रक्रिया दोनों आपस में एक दूसरे से संबंधित हैं। प्रक्रिया, विस्तृत नीतिगत ढाँचे के अंतर्गत कार्य करने से है।

विधि

विधि उन निर्धारित तरीकों या व्यवहारों को उपलब्ध कराती है जिसके द्वारा उद्देश्य के अनुसार एक कार्य को निष्पादित किया जाता है। यह प्रक्रिया के एक चरण के एक घटक से निपटता है तथा यह स्पष्टीकृत करता है कि यह चरण कैसे निष्पादित करना है। यह विधि प्रत्येक कार्य हेतु भिन्न-भिन्न हो सकती है। उपयुक्त विधि का चयन समय, धन तथा प्रयास को बचाता है और क्षमता को बढ़ाता है। कर्मचारियों में प्रशिक्षण को पर्यवेक्षक से प्रबंधक स्तर तक प्रदान करने हेतु विभिन्न विधियों को अपनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए उच्चस्तरीय प्रबंधकीय अभिमुखी करण कार्यक्रम, व्याख्यान और संगोष्ठियाँ आदि आयोजित की जा सकती हैं जबकि पर्यवेक्षक स्तर पर कार्य प्रशिक्षण प्रविधि तथा कार्याभिमुख प्रशिक्षण प्रविधियाँ औचित्यपूर्ण होती हैं।

नियम

नियम विशिष्ट विवरण हैं जो बतलाते हैं कि क्या करना है? वे किसी प्रकार की समझ-बूझ या लचीलेपन की इजाज़त नहीं देते हैं। ये प्रबंधकों द्वारा लिए निर्णयों का प्रतिबिम्ब होते हैं कि अमुक कार्य निश्चित रूप से होना है तथा अमुक कार्य निश्चित रूप से नहीं होना है। ये सबसे सरल योजनाएँ होती हैं क्योंकि इनमें न तो कोई समझौता होता है और न ही कोई परिवर्तन, जब तक कि कोई नीति संबंधी निर्णय न लिया जाए।

कार्यक्रम

कार्यक्रम एक परियोजना के विषय में विस्तृत विवरण होते हैं। जो आवश्यक उद्देश्यों, नीतियों, कार्यविधियों, नियमों, कार्यों, मानवीय तथा भौतिक संसाधनों तथा किसी कार्य को करने के बजट की रूपरेखा बनाते हैं। कार्यक्रम में संगठन की सभी क्रियाएँ तथा नीतियाँ सम्मिलित होती हैं कि वे व्यवसाय की कुल योजना में कैसे सहयोग करेगी। विस्तृत नीतिगत ढाँचे के अंतर्गत छोटी से छोटी कार्यविधि, नियम व बजट की गणना की जाती है।

बजट

बजट से तात्पर्य आशान्वित परिणामों को संख्यात्मक मदों के रूप में व्यक्त करना है। यह एक एेसी योजना है जो भविष्य के तथ्यों तथा संख्याओं को परिभाषित करती है। उदाहरण के लिए बिक्री बजट किसी विशिष्ट मास के लिए विभिन्न उत्पादों की बिक्री का पूर्वानुमान करता है। एक फैक्टरी में उत्पादन की चरम सीमा पर कार्य करने के लिए कितने कर्मचारियों की आवश्यकता होगी, इसका भी बजट तैयार किया जा सकता है।

क्योंकि बजट सभी मदों को संख्याओं में प्रदर्शित करता है, अतः वास्तविक संख्याओं की संभावित संख्याओं से आसानी से तुलना की जा सकती है तथा तुरंत ही आवश्यक कार्यवाही भी संभव होती है। इस प्रकार बजट नियंत्रण करने का एक उपकरण है जिससे विचलनों को आसानी से ठीक किया जा सकता है। लेकिन बजट बनाना, अपने आप में पूर्वानुमान करना है, अतः यह स्पष्ट रूप में नियोजन ही है। यह विभिन्न संस्थानों में नियोजन का आधारभूत उपकरण है।

यदि हम रोकड़ बजट का एक उदाहरण लें तो पाते हैं कि रोकड़ बजट, रोकड़ प्रबंधन का आधारभूत यंत्र है। यह प्रबंधन के लिए रोकड़ के प्रयोग का नियोजन तथा नियंत्रण में सहायता करने की एक कला है। यह एक समय विशेष में रोकड़ के अंतर्गमन तथा बहिर्गमन का विवरण है। रोकड़ का अंतर्गमन प्रायः माल के विक्रय से होता है जबकि बहिर्गमन व्यवसाय के संचालन में व्ययों के भुगतान तथा माल के क्रय से संबंधित होता है। शुद्ध रोकड़ की गणना बजट के माध्यम से अंतर्गमन घटा (-) बहिर्गमन = आधिक्य अथवा कमी ज्ञात करके की जाती है।

प्रबंधन को विभिन्न प्रयोजनों के लिए पर्याप्त मात्रा में रोकड़ को रखना पड़ता है। लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि आवश्यकता से अधिक रोकड़ का रखना, उचित नहीं क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं होता। व्यवसाय को रोकड़ की वांच्छित मात्रा के लिए उचित योजना बनानी चाहिए तथा सही निर्धारण करना चाहिए।


मुख्य शब्दावली

नियोजन 1163.png विकल्प 1163.pngउद्देश्य 1163.png व्यूह-रचना 1163.pngलक्ष्य 1163.png नीति 1163.png निर्णय 1163.png कार्यविधि 1163.png मानक 1163.png नियम 1163.png नियंत्रण 1163.png कार्यक्रम 1163.png परिसर 1163.png  मान्यताएँ 1163.png  बजट


सारांश

नियोजन

नियोजन का अर्थ पहले से यह निश्चिय करना है कि भविष्य में क्या करना है तथा कैसे करना है, अतः नियोजन से तात्पर्य उद्देश्यों का निर्धारण तथा इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समुचित कार्यविधि को विकसित करने से है।

नियोजन का महत्त्व

नियोजन निर्देशन की व्यवस्था करता है, नियोजन अनिश्चितता की जोखिम को कम करता है, नियोजन अतिव्यापित तथा अपव्ययी क्रियाओं को कम करता है, नियोजन, नव-प्रवर्तन विचारों को प्रोत्साहित करता है, नियोजन निर्णय लेने को सरल बनाता है, नियोजन नियंत्रण के मानकों का निर्धारण करता है।

नियोजन की विशेषताएँ

नियोजन का केंद्र-बिंदु लक्ष्य प्राप्त करना है, नियोजन प्रबंधन का प्राथमिक कार्य है, नियोजन सर्वव्यापी है, नियोजन अविरत है, नियोजन भविष्यवादी है, नियोजन में निर्णय रचना निहित है, नियोजन एक मानसिक अभ्यास है।

नियोजन की सीमाएँ

नियोजन दृढ़ता उत्पन्न करता है, परिवर्तनशील वातावरण में नियोजन प्रभावी नहीं रहता, नियोजन रचनात्मकता को कम करता है, नियोजन में भारी लागत आती है, नियोजन समय नष्ट करने वाली प्रक्रिया है, नियोजन सफलता का आश्वासन नहीं है।

नियोजन प्रक्रिया

उद्देश्यों का निर्धारण–प्रत्येक संगठन के कुछ उद्देश्य होते हैं। उद्देश्य पूरे संगठन तथा प्रत्येक विभाग के लिए या प्रत्येक इकाई के लिए संगठन के अंतर्गत ही निर्धारित किए जाने चाहिएँ।

विकासशील आधार–नियोजन का संबंध भविष्य से है जो अनिश्चित है तथा प्रत्येक नियोजन, का भविष्य में कुछ भी हो सकता है, इस संकटकालीन अवधारणा को उपयोग में लाता है।

कार्यवाही की वैकल्पिक विधियों की पहचान–जब एक बार उद्देश्यों का निर्धारण हो गया, मान्यताएँ निश्चित हो गईं तो आगामी कदम उन पर कार्यवाही करना होता है।

विकल्पों का मूल्यांकन–आगामी कदम प्रत्येक विकल्प के गुण व दोषों की जानकारी प्राप्त करना है।

विकल्पों का चुनाव–यह निर्णय लेने का उपयुक्त बिंदु है। सर्वोत्तम योजना ही स्वीकृत की जानी चाहिए तथा उसी को लागू करना चाहिए।

योजना को लागू करना–इसका संबंध योजना को लागू करने से है।

अनुवर्तन–यह देखना कि योजनाएँ लागू की गईं या नहीं तथा निर्धारित अनुसूची के अनुसार कार्य चल रहा है या नहीं।

नियोजन के प्रकार

उद्देश्य–नियोजन में सबसे पहला कार्य उद्देश्यों का निर्धारण करना होता है। उद्देश्य, प्रबंधन का वह गंतव्य स्थान है जहाँ उसे भविष्य में पहुँचना है।

व्यूह-रचना–व्यूह-रचना एक व्यावसायिक संस्थान की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। यह संगठन के दीर्घकालीन निर्णय तथा निर्देशन में संबंध स्थापित करती है।

नीति–नीतियाँ सामान्य कथन हैं जो विचारों का मार्गदर्शन अथवा एक विशिष्ट दिशा में अग्रसर होने के लिए मार्ग प्रशस्त करती हैं।

कार्यविधि–कार्यविधि से तात्पर्य दैनिक गतिविधियों के संचालन से है।

नियम–नियम विशिष्ट विवरण हैं जो बतलाते हैं कि क्या करना है?

कार्यक्रम–कार्यक्रम एक परियोजना के विषय में विस्तृत विवरण होते हैं जो आवश्यक उद्देश्यों, नीतियों, कार्यविधियों, नियमों, कार्यों, मानवीय तथा भौतिक संसाधनों तथा किसी कार्य को करने के बजट के लिए रूपरेखा बनाते हैं।

बजट–बजट से तात्पर्य आशांवित परिणामों को संख्यात्मक मदों के रूप में व्यक्त करना है। यह एक एेसी योजना है जो भविष्य के तथ्यों तथा संख्याओं को परिभाषित करती है। 


अभ्यास

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

1. योजना कैसे दिशा प्रदान करती है?

2. एक कंपनी अगले वित्तीय वर्ष के अंत तक बाजार में प्रमुख स्थिति बनाए रखने के लिए अपनी वर्तमान बाजार हिस्सेदारी को 10 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहती है। बिक्री प्रबंधक रजनी से एक प्रस्ताव तैयार करने के लिए कहा गया है, जो इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उपलब्ध विकल्पों की रूपरेखा तैयार करेंगी। उनकी रिपोर्ट में निम्नलिखित विकल्प जैसे - नए बाजारों में प्रवेश, ग्राहकों को उत्पाद पेशकश का विस्तार, विक्रय प्रोत्साहन के लिए छूट या विज्ञापन गतिविधियों के लिए बजट में वृद्धि के रूप में बिक्री संवर्धन तकनीक का उपयोग आदि शामिल थे। रजनी ने नियोजन प्रक्रिया का कौन-सा कदम उठाया?

3. नियमों को योजना क्यों माना जाता है?

4. राम स्टेशनरी मार्ट ने केवल ई-ट्रांसफर द्वारा सभी भुगतान करने का निर्णय लिया है। राम स्टेशनरी मार्ट द्वारा अपनाई गई योजना के प्रकार की पहचान करें।

5. क्या बदलते वातावरण में नियोजन कार्य करता है? अपने उत्तर को औचित्य देने का एक कारण दें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. योजना की परिभाषा में मुख्य पहलू क्या हैं?

2. यदि योजना में भविष्य के लिए विवरण तैयार करना शामिल है, तो यह सफलता सुनिश्चित क्यों नहीं करता है?

3. व्यापार संगठनों द्वारा किस प्रकार के रणनीतिक निर्णय किए जाते हैं?

4. योजना रचनात्मकता को कम कर देती है। टिप्पणी करें।

5. वर्ष 2018 में रिलायंस जियो की प्रतिस्पर्धा से निपटने के प्रयास में, भारती एयरटेल ने ₹ 149 की प्रीपेड योजना शुरू की, जिसमें प्रति दिन 3जी/4जी स्पीड पर दो जी.बी. डेटा की पेशकश करने का निर्णय लिया गया। इस उदाहरण में योजना के किस प्रकार को दर्शाया गया है। इसके आयामों को भी बताएँ।

6. योजना के प्रकार बताएँ कि क्या वे एकल उपयोग या स्थायी योजना हैं-

(i) एक प्रकार की योजना जो एक नियंत्रण उपकरण के रूप में भी कार्य करती है। (बजट)

(ii) अनुसंधान और विश्लेषण पर आधारित योजना, जो शारीरिक और तकनीकी कार्यों से संबद्ध है। (विधि)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. एेसा क्यों है कि संगठन हमेशा अपने सभी उद्देश्यों को पूरा करने में सक्षम नहीं होते?

2. योजना प्रक्रिया में प्रबंधन द्वारा उठाए गए कदम क्या हैं?

3. बाजार में अन्य नए और मौजूदा खिलाड़ियों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते एक अॉटो कंपनी सी लिमिटेड को बाजार हिस्सेदारी में गिरावट की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इसके प्रतियोगी बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं के लिए कम मूल्य वाले मॉडल पेश कर रहे हैं जो मूल्य संवेदनशील हैं। सी लिमिटेड को एहसास हुआ कि भविष्य में बाजार में बने रहने के लिए तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है। गुणवत्ता वाले जागरूक उपभोक्ताओं के लिए, सी लिमिटेड ने अतिरिक्त सुविधाओं और नई तकनीकी प्रगति के साथ नए मॉडल पेश करने की योजना बनाई। कंपनी ने प्रबंधन के सभी स्तरों के प्रतिनिधियों के साथ एक टीम बनाई। यह टीम उपरोक्त रणनीति को लागू करने के लिए संगठन द्वारा अपनाए गए कदमों को समझेगी और निर्धारित करेगी। ऊपर दी गई स्थिति में चिन्हांकित योजना की विशेषताओं की व्याख्या करें। (संकेत- योजना व्यापक है, योजना भविष्य है और योजना एक मानसिक व्यायाम है)।