Table of Contents
अधिगम उद्देश्य
इस अध्याय के अध्ययन के पश्चात् आप–
- नियंत्रण को परिभाषित कर सकेंगे;
- नियंत्रण का महत्त्व बता सकेंगे;
- नियोजन तथा नियंत्रण में संबंध स्थापित कर सकेंगे;
- नियंत्रण प्रक्रिया के चरणों की व्याख्या कर सकेंगे;
- नियंत्रण की तकनीक समझा सकेंगे।
प्रस्थान नियंत्रण प्रणाली (डी.सी.एस)
एक प्रस्थान नियंत्रण प्रणाली (डी.सी.एस.) एयरलाइंस एयर प्रबंधन संचालन को संसाधित करती है जिसमें एयरपोर्ट चेक-इन, प्रिंटिंग बोर्डिंग पास, सामान स्वीकृति, बोर्डिंग लोड कंट्रोल और एयरक्राफ्ट चेक के लिए जरूरी सूचनार्थियों का प्रबंधन शामिल है। आज डी.सी.एस. का लगभग 98 प्रतिशत चेक-इन कियोस्क, अॉनलाइन चेक-इन, मोबाइल बोर्डिंग पास और बैगेज हैंडलिंग सहित कई उपकरणों से इंटरफेस का उपयोग करके ई-टिकट का प्रबंधन करता है। डी.सी.एस. यात्री नाम रिकॉर्ड (पी.एन.आर.) नामक यात्रियों के लिए एयरलाइन कंप्यूटर आरक्षण प्रणाली से अद्यतन आरक्षण की पहचान और सुरक्षित करने में सक्षम है। आमतौर पर चेक-इन, बोर्ड किए गए और उड़ान भर चुके या अन्य स्थिति के रूप में आरक्षण अपडेट करने के लिए डी.सी.एस. का उपयोग किया जाता है।
विषय प्रवेश
स्टर्लिंग कोरियर के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार एक सुयोग्य प्रबंधक विपरीत व्यावसायिक परिस्थितियों को नियंत्रित कर लेता है। इसी उदाहरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कोई भयंकर नुकसान व्यवसाय को हो, उससे पहले ही प्रबंधक कुछ सकारात्मक कार्य करें जिससे उस हानि से बचा जा सके। एक प्रबंधक के लिए उसका प्रबंधन में नियंत्रण कार्य सुरक्षा कवच का कार्य करता है। यह केवल कार्य को विधिवत् चलाने में ही सहायता नहीं करता बल्कि द्रुत गति से उसे अग्रसर होने में भी आश्वस्त करता है तथा जो लक्ष्य पहले से निर्धारित किए गए थे उन्हें प्राप्त करता है।
प्रबंधकीय नियंत्रण के अंतर्गत वास्तविक प्रगति तथा निर्धारित प्रमापों की विचलनों का पता लगाया जाता है तथा उन्हें दूर करने के लिए सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है, ताकि नियोजन के अनुसार लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।
नियंत्रण का अर्थ
नियंत्रण प्रबधंक का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। अधीनस्थों से नियोजित परिणामों की इच्छा रखने के लिए एक प्रबंधक को उनके क्रियाकलापों पर प्रभावी नियंत्रण की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में नियंत्रण से तात्पर्य संगठन में नियोजन के अनुसार क्रियाओं के निष्पादन से है। नियंत्रण इस बात का भी आश्वासन है कि संगठन के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सभी संसाधनों का उपयोग प्रभावी तथा दक्षतापूर्ण ढंग से हो रहा है। अतः नियंत्रण एक उद्देश्य मूलक कार्य है।
प्रबंधक का नियंत्रण एक सर्वव्यापी कार्य है। यह प्रत्येक प्रबंधक का प्राथमिक कार्य भी है। प्रबंध के प्रत्येक स्तर-शीर्ष, मध्यम तथा निम्न पर प्रबंधक को अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की क्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए नियंत्रण कार्य को निष्पादित करना चाहिए। किसी भी व्यावसायिक इकाई की भाँति नियंत्रण शिक्षा संस्थानों, सेना, औषधालयों तथा क्लबों में भी उतना ही आवश्यक है जितना व्यावसायिक इकाइयों में। नियंत्रण को प्रबंध का अंतिम कार्य समझ लेना भूल होगी। यह प्रबंधन चक्र को वापिस नियोजन कार्य पर लाता है। नियंत्रण से निष्पादन एवं मानकों के विचलन का ज्ञान होता है। इन विचलनों का विश्लेषण करता है तथा उन्हीं के आधार पर उसके सुधार के लिए कार्य करता है। इस प्रक्रिया द्वारा भविष्य के लिए नियोजन करने में सहायता मिलती है। क्योंकि जो समस्याएँ नियंत्रण में सामने आईं उनके प्रकाश में भविष्य के लिए अच्छी योजनाएँ तैयार की जा सकती हैं। इस प्रकार नियंत्रण प्रबंध प्रक्रिया के एक चक्र को पूरा करता है तथा अगले चक्र के नियोजन में सुधार करता है।
नियंत्रण का महत्त्व
नियंत्रण प्रबंध का अनिवार्य कार्य है। बिना नियंत्रण उच्च कोटि की योजनाएँ भी उलट-पुलट हो जाती हैं। एक अच्छी नियंत्रण विधि एक संस्थान को निम्न प्रकार से सहायक होती है–
(क) संगठनात्मक लक्ष्यों की निष्पत्ति–नियंत्रण संगठन के लक्ष्यों की ओर प्रगति का मापन करके विचलनों का पता लगाता है। यदि कोई विचलन प्रकाश में आता है तो उसके सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है। इस प्रकार नियंत्रण संस्थान का मार्गदर्शन करता है तथा सद्मार्ग पर चलाकर संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करता है।
(ख) मानकों की यथार्थता को आँकना–एक अच्छी नियंत्रण प्रणाली द्वारा प्रबंध निर्धारित मानकों की यथार्थता तथा उद्देश्य पूर्णता को सत्यापित कर सकता है। एक दक्ष नियंत्रण प्रणाली से वातावरण तथा संगठन में होने वाले परिवर्तनों की सावधानी से जाँच पड़ताल की जाती है तथा इन्हीं परिवर्तनों के संदर्भ में उनके पुनरावलोकन तथा संशोधन में सहायता करता है।
(ग) संसाधनों का फलोत्पादक उपयोग– नियंत्रण का उपयोग करके एक प्रबंधक अपव्यय तथा बर्बादी को कम कर सकता है। प्रत्येक क्रिया का निष्पादन पूर्व निर्धारित मानकों के अनुरूप होता है। इस प्रकार सभी संसाधनों का उपयोग अति प्रभावी एवं दक्षता पूर्ण विधि से होता है।
(घ) कर्मचारियों की अभिप्रेरणा में सुधार– एक अच्छी नियंत्रण प्रणाली में कर्मचारियों को पहले से ही यह ज्ञात होता है कि उन्हें क्या कार्य करना है अथवा उनसे किस कार्य को करने की आशा की जाती है तथा उन्हें इस बात का भी ज्ञान होता है कि उनके कार्य निष्पादन के क्या मानक हैं जिनके आधार पर उनकी समीक्षा होगी?
(ङ) आदेश एवं अनुशासन की सुनिश्चितता– नियंत्रण से संगठन का वातावरण आदेश एवं अनुशासनमय हो जाता है। इससे अकर्मण्य कर्मचारियों की क्रियाओं का निकट से निरीक्षण करके उनके असहयोग व्यवहार को कम करने में सहायता मिलती है। बॉक्स में बताया गया है कि एक आयात- निर्यात कंपनी ने कंप्यूटर मॉनीटरिंग के उपयोग द्वारा बेईमान कर्मचारियों की कार्यवाहियों को किस प्रकार नियंत्रित किया।
(च) कार्य में समन्वय की सुविधा–नियंत्रण उन सभी क्रियाओं तथा प्रयासों को निर्देशन देता है जो संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए होते हैं। प्रत्येक विभाग तथा कर्मचारी पूर्व निर्धारित मानकों से बंधा हुआ होता है तथा वे आपस में सुव्यवस्थित ढंग से एक दूसरे से भली-भाँति समन्वित होते हैं। इससे यह आश्वासन मिलता है कि सभी संगठनात्मक उद्देश्यों को पूरा किया जा रहा है।
नियंत्रण की सीमाएँ
यद्यपि नियंत्रण प्रबंध का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है लेकिन फिर भी इसमें निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं–
(क) परिमाणात्मक मानकों के निर्धारण में कठिनाई–जब मानकों को परिमाणात्मक शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता तो नियंत्रण प्रणाली का प्रभाव कुछ कम हो जाता है। इसलिए निष्पादन का आकलन तथा मानकों से उनकी तुलना करना कठिन कार्य होता है। कर्मचारियों का मनोबल, कार्य संतुष्टि तथा मानवीय व्यवहार कुछ एेसे क्षेत्र हैं जहाँ यह समस्या सामने आ सकती है।
(ख) बाह्य घटकों पर अल्प नियंत्रण–सामान्य तौर पर एक उद्यम बाह्य घटकों, जैसे सरकारी नीतियों, तकनीकी परिवर्तनों, प्रतियोगिताओं आदि पर नियंत्रण नहीं कर पाता।
(ग) कर्मचारियों से प्रतिरोध–अधिकतर कर्मचारी इसका विरोध करते हैं। उनके मतानुसार, नियंत्रण उनकी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध है। उदाहरणार्थ यदि कर्मचारियों की गतिविधियों पर क्लोज सर्किट टेलीविजन द्वारा निगाह रखी जाती है तो वे इसका विरोध करते हैं।
(घ) महँगा सौदा–नियंत्रण में खर्चा, समय तथा प्रयासों की मात्रा अधिक होने के कारण, यह एक महँगा सौदा है। एक छोटा उद्यम महँगी नियंत्रण प्रणाली को वहन नहीं कर सकता, क्योंकि इसमें होने वाले खर्चें एक छोटे उद्यम के लिए न्यायसंगत नहीं होते। एक प्रबंधक को चाहिए कि वह यह देखे कि नियंत्रण प्रणाली को लागू करने पर क्या इसके ऊपर होने वाला व्यय लाभकारी होगा अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में वह आश्वस्त हो कि व्यय-आय से अधिक न हो।
दिए गए बॉक्स से यह प्रकट होता है कि फैडएेक्स कैसी नियंत्रण प्रणाली अपनाती है तथा यह नियंत्रण प्रणाली फैडएेक्स के लाभ में किस प्रकार वृद्धि करती है?
चित्र 8.1–प्रधानता तब भी रहती है यहाँ तक कि जब चीज़ें गलत होती हैं।
नियोजन एवं नियंत्रण में संबंध
नियोजन एवं नियंत्रण प्रबंध के अपृथक्करीय यमज (जुड़वाँ) हैं। नियंत्रण प्रणाली में कुछ मानकों को पहले से ही अस्तित्व में स्वीकार कर लिया जाता है। निष्पादन के यही मानक जो नियंत्रण के लिए आधार प्रदान करते हैं, ये नियोजन द्वारा ही सुलभ कराए जाते हैं। यदि एक बार नियोजन संक्रियात्मक हो जाता है तो नियंत्रण के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रगति की मॉनीटरिंग करें तथा विचलनों को खोजें तथा इस बात को निश्चित करें कि जो भी कार्यवाही हुई है वह नियोजन के अनुरूप ही है। यदि विचलन है तो उसकी सुधारात्मक कार्यवाही करें। इस प्रकार नियोजन बिना नियंत्रण अर्थहीन हैं उसी तरह नियंत्रण बिना नियोजन दृष्टिहीन है। यदि मानकों का पहले से ही निर्धारण न कर लिया जाए तो प्रबंधक को नियंत्रण क्रिया में करने के लिए कुछ भी नहीं है। यदि नियोजन नहीं है तो नियंत्रण का कोई आधार ही नहीं है।
नियंत्रण के लिए नियोजन स्पष्टतया पूर्व आवश्यकता है। बिना नियोजन के नियंत्रण करना नितांत मूर्खता ही है? बिना नियोजन इच्छित निष्पादन की कोई पूर्व निर्धारित उपयोगिता नहीं है। नियोजन कार्यक्रमों में समरूपता, संघटित करना तथा सुस्पष्टता की खोज होती है जबकि नियंत्रण में घटनाओं को नियोजन के अनुरूप घटित होने के लिए बाध्य किया जाता है।
नियोजन मूलतः एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसमें सोचना, उच्चारण तथा खोज का विश्लेषण एवं लक्ष्यों की उपलब्धि के लिए उपयुक्त कार्यविधि निर्धारित करना सम्मिलित है। दूसरी ओर नियंत्रण इस बात की जाँच करता है कि क्या निर्णयों को अपेक्षित परिणामों में परिणित किया गया है या नहीं। इस प्रकार नियोजन आदेशात्मक प्रक्रिया है जबकि नियंत्रण मूल्यांकन प्रक्रिया है।
प्रायः यह कहा जाता है कि नियोजन भविष्य में झाँकता है तो नियंत्रण पीछे की क्रिया का अवलोकन करता है। यद्यपि यह वाक्य आंशिक रूप से ही ठीक है। नियोजन भविष्य के लिए किया जाता है जिसका आधार भविष्य की दशाओं के विषय में भविष्यवाणी करना होता है। अतः नियोजन में आगे (भविष्य) देखना सन्निहित है और इसीलिए यह प्रबंध का दूरदर्शी कार्य कहलाता है। इसके विपरीत नियंत्रण भूतपूर्व क्रियाओं की शव-परीक्षा (पोस्मार्टम) है जो इस बात का पता लगाती है कि मानकों से कहाँ-कहाँ विचलन हैं। इस आधार पर नियंत्रण पीछे देखने वाला कार्य है। यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि नियोजन का पथ-प्रदर्शन, नियंत्रण भूतकालीन अनुभवों तथा सुधारात्मक कार्यों द्वारा प्रेरित भविष्य के निष्पादन को अधिक सुधारपूर्ण बनाकर करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि नियोजन तथा नियंत्रण दोनाें ही पीछे की ओर देखने वाले तथा दोनों भविष्य की ओर देखने वाले हैं। अर्थात् दोनों ही भूत एवं भविष्य दोनों का ध्यान रखते हैं।
अतः नियोजन तथा नियंत्रण दोनों ही परस्पर संबंधित हैं तथा दोनों ही एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं। जैसे-
1. नियोजन जिन तत्वों पर आधारित होता है ये ही नियंत्रण को सुगम तथा प्रभावी बनाते हैं तथा
2. नियंत्रण, नियोजन को पिछले अनुभवों की सूचनाएँ देकर भविष्य में सुधार लाता है।
नियंत्रण प्रक्रिया
नियंत्रण एक विधिवत् प्रक्रिया है जिसमें निम्न कदम निहित हैं–
1. निष्पादन मानकों का निर्धारण
2. वास्तविक निष्पादन की माप
3. मानकों एवं वास्तविक निष्पादन की तुलना
4. विचलनों का विश्लेषण
5. सुधारात्मक कार्यवाही करना।
चरण 1–निष्पादन मानकों का निर्धारण– नियंत्रण प्रक्रिया का सर्वप्रथम कार्य निष्पादन मानकों का निर्धारण करना है। मानक एक मानदंड है जिसके तहत् वास्तविक निष्पादन की माप की जाती है। अतः मानक मील के पत्थर की भाँति होता है जिसे प्राप्त करने के लिए संगठन ललायित रहते हैं।
मानकों को परिमाणात्मक तथा गुणात्मक दोनों रूपों में निर्धारित किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर मानकों का निर्धारण लागत के रूप में, आगम अर्जन के रूप में, उत्पादन इकाइयों के उत्पादन या विक्रय के रूप में, कार्य पूरा करने में समय का लगना, सभी परिमाणात्मक मानकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कभी-कभी मानकों को गुणात्मक रूपों में भी निर्धारित किया जाता है। सुनाम तथा कर्मचारियों के प्रेरणा स्तर में वृद्धि गुणात्मक मानकों के उदाहरण हैं।
दी गई सारणी में व्यवसाय के विभिन्न कार्यात्मक क्षेत्रों के निष्पादन माप में प्रयोग होने वाले मानकों की झलक दिखाई गई है।
मानकों का निर्धारण करते समय प्रबंधक को चाहिए कि वह मानकों को संक्षिप्त परिमाणात्मक शब्दों में निर्धारित करें ताकि उनकी तुलना वास्तविक निष्पादन से आसानी से हो सके। उदाहरणस्वरूप- निर्मित प्रत्येक 1000 वस्तुओं में से 10 का खराब होना घटकर प्रत्येक 1000 वस्तुओं में से 5 का खराब होना है। यद्यपि जब गुणात्मक मानकों का निर्धारण किया जाता है तो उनकी व्याख्या इस प्रकार की जाए जिससे उनकी गणना आसानी से हो सके। उदाहरणार्थ - एक फास्टफूड स्वयं सेवा शृंखला में ग्राहकों की संतुष्टि में वृद्धि करने के लिए मानकों का निर्धारण इस प्रकार किया जा सकता है– ग्राहकों को टेबल के लिए इंतजार करने के लिए लिया गया समय, सामान पूर्ति के अॉर्डर देने में लिया गया समय तथा अॉर्डर की वस्तुओं को प्राप्त करने में लगा समय।
कार्यात्मक क्षेत्रों के निष्पादन माप में मानकों का उपयोग–
यह महत्त्वपूर्ण है कि मानक इतने लचीले हों कि आवश्यकतानुसार सुधारे जा सकें। व्यवसाय के आंतरिक एवं बाह्य वातावरण में परिवर्तन होने पर कुछ सुधारों की आवश्यकता हो सकती है वे परिवर्तन व्यावसायिक वातावरण के अनुरूप ही होने चाहिए।
चरण 2– वास्तविक निष्पादन की माप–जब एक बार निष्पादन मानकों का निर्धारण कर लिया जाता है तो अगला कदम वास्तविक निष्पादन की माप होता है। निष्पादन की माप उद्देश्यपूर्ण तथा विश्वसनीय विधि से होनी चाहिए। निष्पादनों की माप की बहुत-सी तकनीकियाँ हैं। इनमें व्यक्तिगत देख-रेख, नमूना जाँच, निष्पादन रिपोर्ट आदि सम्मिलित हैं जहाँ तक संभव हो निष्पादन की माप उसी इकाई में हो जिसमें मानकों का निर्धारण हुआ है। इस तरह उनकी तुलना सहज होगी।
सामान्यतया यह माना जाता है कि माप तभी की जाए जब कार्य पूर्ण हो जाए। फिर भी जहाँ भी संभव हो निष्पादन की माप जब कार्य चल रहा हो तब भी की जानी चाहिए। उदाहरणार्थ व्यवस्थापन या विभिन्न उत्पादों को एकजुट करके नया उत्पाद तैयार करने के कार्य में, जोड़ने का कार्य करने से पहले हर एक भाग का उचित निरीक्षण होना चाहिए। ठीक इसी तरह एक निर्णायक इकाई में हवा में गैस के कणों के स्तर, सुरक्षा के लिए आसानी से लगातार मॉनीटर किए जा सकते हैं।
एक कर्मचारी के निष्पादन की माप करने के लिए उसके उच्चाधिकारी द्वारा एक निष्पादन रिपोर्ट बनाना आवश्यक होता है। एक कंपनी के निष्पादन की माप करने के लिए समायांतर पर कुछ अनुपातों, जैसे सकल लाभ अनुपात, शुद्ध लाभ अनुपात तथा विनियोगों पर लाभ आदि की गणना की जाती है। संचालन के कुछ क्षेत्रों की प्रगति, जैसे विपणन की माप, बेची गई इकाईयों की संख्या को ध्यान में रखकर की जा सकती है तथा बाज़ार में अंशों की वृद्धि से भी की जाती है। जबकि उत्पादन क्षमता की माप उत्पादित इकाइयों की गणना करके की जा सकती है तथा इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक खेप की कितनी इकाईयाँ दोषपूर्ण हैं। छोटे संगठनों में प्रत्येक उत्पादिक इकाई का निरीक्षण इस बात को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए कि क्या उत्पादन के लिए निर्धारित विनिर्देशनों का अनुपालन किया गया है अथवा नहीं। यद्यपि बड़े संगठनों में यह संभव नहीं हो पाता है। अतः बड़े संगठनों में गुणवत्ता के लिए कुछ इकाइयों का अनियमित विधि से निरीक्षण किया जाता है। इसे नमूने का निरीक्षण नाम से पुकारा जाता है।
चरण 3–वास्तविक निष्पादन की मानकों से तुलना–इस कार्यवाही में वास्तविक निष्पादन की तुलना निर्धारित मानकों से की जाती है। एेसी तुलना में इच्छित तथा वास्तविक परिणामों में अंतर हो सकता है। मानकों का निर्धारण यदि परिमाणात्मक शब्दों में किया जाता है तो तुलना सरल होती है। उदाहरणार्थ एक श्रमिक की एक सप्ताह में उत्पादित इकाईयों की माप सरलता से की जा सकेगी यदि साप्ताहिक उत्पादन मानक तैयार किए हुए होंगे
चरण 4–विचलन विश्लेषण–हर प्रकार के क्रियाकलापों में कार्य संपूर्ण होने में कुछ विचलनों का होना स्वाभाविक है। अतः यह आवश्यक है कि यह निश्चय किया जाए कि विचलनों का क्षेत्र अनुमानतः क्या होगा? इसके साथ ही यह भी ध्यानपूर्वक देखा जाए कि विचलन के मुख्य क्षेत्र क्या हैं जिन पर कार्यवाही तुरंत की जानी है अपेक्षाकृत उन क्षेत्रों के जो अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इसके लिए यह उचित होगा कि विचलनों के लिए अधिकतम व न्यूनतम सीमाओं का निर्धारण किया जाए। इस संदर्भ में एक प्रबंधक को जटिल बिंदुओं का नियंत्रण तथा अपवाद द्वारा प्रबंध को उपयोग में लाना चाहिए।
(क) जटिल या संकट बिंदु नियंत्रण–एक संगठन की प्रत्येक क्रिया पर निगरानी रखना न तो यह अल्पव्ययी है और न ही इतना आसान है जो सभी को नियंत्रित किया जा सके। नियंत्रक द्वारा उन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो अति जटिल हैं तथा संगठन की प्रगति में बाधक हैं। यही मुख्य परिणाम क्षेत्र जटिल बिंदु कहलाता है। यदि जटिल बिंदु गलत होता है तो उसका परिणाम संपूर्ण संगठन को भुगतना पड़ता है। उदाहरण के रूप में एक निर्णायक संगठन में मजदूरी लागत में केवल 5 प्रतिशत की वृद्धि डाक व्यय में 15 प्रतिशत की वृद्धि से अधिक घातक सिद्ध हो सकती है।
(ख) अपवाद द्वारा प्रबंध–अपवाद द्वारा प्रबंध से आशय जिसका नियंत्रण प्रायः अपवादों द्वारा किया जाता है। यह प्रबंध का अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है कि यदि आप सभी चीजों को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं तो किसी भी चीज को नियंत्रित नहीं कर पाते। अतः केवल वही महत्त्वपूर्ण विचलन प्रबंध को सूचित किए जाने चाहिए जो अनुमति देने की सीमा से बाहर के हैं। यदि एक निर्माणीय संगठन में श्रम लागत में 2 प्रतिशत वृद्धि करने की योजना तैयार की जाती है तो श्रम लागत में 2 प्रतिशत से और अधिक वृद्धि होने पर ही प्रबंध को सूचित किया जाना चाहिए। यदि निर्धारित मानकों में भारी अंतर होता है (जैसे 5 प्रतिशत) तो तुरंत ही प्रबंध द्वारा एेसी परिस्थिति में प्राथमिकता के आधार पर कार्यवाही करनी चाहिए। क्योंकि यह व्यवसाय एक जटिल क्षेत्र है।
नीचे लिखे विवरण द्वारा संकट बिंदु नियंत्रण तथा अपवाद द्वारा प्रबंध के लाभों पर प्रकाश डाला गया है।
एेसे विचलनों की जिन पर प्रबंध को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है की पहचान कर लेने के उपरांत उनके कारणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता होती है। विचलनों के अभ्युदय के बहुत से कारण हो सकते हैं। ये अवास्तविक मानक, त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया, अनुपयुक्त संसाधन, ढाँचागत कमियाँ, संगठनात्मक प्रतिबंध तथा एेसे वातावरणीय तत्व जो संगठन के नियंत्रण के बाहर होते हैं आदि-आदि हो सकते हैं। अतः यह अति आवश्यक होता है कि कारणों का सही-सही पता लगाया जाए। यदि इस कार्य में ढिलाई होती है तो उपयुक्त सुधारक कार्यवाही कठिन ही होगी। विचलनों तथा उनके कारणों को उसके उपरांत उचित कार्यवाही हेतु उपयुक्त स्तर पर प्रस्तुत किया जाता है।
चरण 5–सुधारात्मक कार्यवाही करना–नियंत्रण प्रक्रिया का अंतिम चरण सुधारात्मक कार्यवाही करना है। यदि विचलन अपनी निर्धारित सीमा के अंतर्गत हैं तो किसी सुधारात्मक कार्यवाही की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि विचलन अपनी निर्धारित सीमा लाँघ जाते हैं विशेषकर महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में, तो प्रबंधकीय कार्यवाही की तुरंत आवश्यकता होती है ताकि विचलन फिर अपना सिर न उठा सके तथा मानकों को प्राप्त किया जा सके। सुधारात्मक कार्यवाही में कर्मचारियों का प्रशिक्षण भी हो सकता है उस अवस्था में जबकि उत्पाद का लक्ष्य न प्राप्त हो पाता हो। इसी तरह यदि कोई महत्त्वपूर्ण उद्यम अपने निर्धारित कार्यक्रम से पीछे चल रहा हो तो समाधान संबंधी उपायों में अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती की जा सकती है तथा अतिरिक्त संयंत्रों की व्यवस्था भी की जा सकती है तथा कर्मचारियों को अतिरिक्त समय काम करने की इजाज़त भी दी जा सकती है। यदि प्रबंधकों के प्रयासों से विचलनों को ठीक रास्ते पर न लाया जा सकता हो तो मानकों का पुनः निरीक्षण करना चाहिए। सारणी विचलनों के कारणों को बतलाती है तथा कुछ संबंधित सुधारात्मक कार्यवाही जो प्रबंधकों को करनी चाहिए के विषय में चर्चा करती है–
बॉक्स में दी गई सूचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साको डिफेंस ने अपनी जटिल अवस्था को कैसे सुधारा–
सुधारात्मक कार्यवाही के कुछ उदाहरण
प्रबंधकीय नियंत्रण की तकनीक
प्रबंधकीय नियंत्रण की विभिन्न तकनीकों को मुख्यतः दो विस्तृत श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है–
(1) पारंपरिक तकनीकें (2) आधुनिक तकनीकें
पारंपरिक तकनीकें
पारंपरिक तकनीकों से तात्पर्य उन तकनीकों से है जिनका उपयोग कंपनियाँ लंबे समय से करती चली आ रही हैं। फिर भी ये तकनीकें आज भी अप्रचलित नहीं हुई हैं तथा अभी भी कंपनियाँ इनका उपयोग कर रही हैं। इनमें निम्न सम्मिलित हैं–
(क) व्यक्तिगत अवलोकन या निरीक्षण
(ख) सांख्यकीय रिपोर्ट्स/प्रतिवेदन
(ग) बिना हानि-लाभ व्यापार विश्लेषण
(घ) बजटीय नियंत्रण
आधुनिक तकनीकें
आधुनिक तकनीकों से तात्पर्य उन तकनीकों से है जिनका अभ्युदय अभी-अभी हुआ है तथा जो प्रबंध के क्षेत्र भी नहीं हैं। इन तकनीकों से उन नयी विचाराधाराओं को जन्म मिलता है जिनके माध्यम से संगठन के विभिन्न क्षेत्रों
में उचित नियंत्रण किया जा सकता है। ये निम्नलिखित हैं–
(क) विनियोगों पर आय
(ख) अनुपात विश्लेषण
(ग) उत्तरदायित्व लेखांकन
(घ) प्रबंध अंकेक्षण
(ङ) कार्यक्रम मूल्यांकन तथा पुनर्विचार तकनीक (पी. ई. आर. टी.) एवं समालोचनात्मक पथ विधि (सी. पी. एम.)
(च) प्रबंध सूचना विधि
संकट बिंदु नियंत्रण तथा अपवाद द्वारा प्रबंध के लाभ
जब एक प्रबंधक जटिल बिंदुओं का निर्धारण करता है तथा उन महत्त्वपूर्ण विचलनों पर ध्यान केंद्रित करता है जो अपनी सीमा से परे होते हैं तो निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं–
1. इससे प्रबंधकों का समय तथा प्रयासों की बचत होती है क्योंकि उनका ध्यान केवल महत्त्वपूर्ण विचलनों पर ही केंद्रित होता है।
2. यह प्रबंधकों के ध्यान को महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों तक ही केंद्रित रखता है जिससे उनके प्रबंधकीय चातुर्य का सही उपयोग होता है।
3. जो दैनिक समस्याएँ हैं वे अधीनस्थों के हवाले कर दी जाती हैं। इस तरह अपवाद द्वारा प्रबंध के माध्यम से अधिकार अंतरण की सुविधा प्राप्त होती है तथा कर्मचारियों का मनोबल बढ़ता है।
4. इससे जटिल समस्याओं का बोध होता है जिन्हें समय रहते कार्यवाही की आवश्यकता होती है। इस प्रकार संगठन अपने यथोचित मार्ग पर आगे बढ़ता रहता है।
चित्र 8.2–उपचारात्मक कार्ययोजना–विचलन विश्लेषण करना
पारंपरिक तकनीकें
व्यक्तिगत अवलोकन
यह नियंत्रण की सर्वाधिक पारंपरिक विधि है। प्रबंधक का व्यक्तिगत रूप से निरीक्षण करना उसे सर्वप्रथम सूचना प्राप्त करने में सहायक होता है। यह कर्मचारियों पर इस बात का मनोवैज्ञानिक दवाब बनाती है कि वे अपना कार्य अच्छी से अच्छी विधि से करें। क्योंकि काम करते समय उन्हें इस बात का आभास रहता है कि वे अपने उच्चाधिकारियों की व्यक्तिगत निगरानी में हैं। यद्यपि यह अधिक समय लेने वाली क्रिया है तथा सभी प्रकार के उद्यमों में प्रभावपूर्ण ढंग से उपयोग में नहीं लाई जा सकती है।
सांख्यकीय प्रतिवेदन (रिपोर्ट्स)
सांख्यकीय विश्लेषण, औसत, प्रतिशत, अनुपात, परस्पर संबंध आदि के रूप में प्रबंधकों को संगठन के विभिन्न क्षेत्रों के निष्पादन की उपयोगी सूचनाएँ प्रस्तुत करता है। जब इन सूचनाओं को चार्ट, ग्राफ या सारणी आदि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो प्रबंधकों को विगत वर्षों के निष्पादन का तुलनात्मक अध्ययन करने में आसानी रहती है तथा वे इन्हें कम से कम समय में तथा आसानी से हृदयांगम भी कर लेते हैं और उसे विश्वास के साथ अपना भी लेते हैं।
साको डिफेंस ने अपनी स्थिति को कैसे नियंत्रित किया?
साको डिफेंस में गुणवत्ता की कमी के कारण परेशानी खड़ी हो गई थी। जब सरकार ने इसे बंद किया उस समय यह गुणवत्ता मानकों पर खरी नहीं उतर रही थी। साको ने टी. क्यू. एम. कार्यक्रम के तहत फिर से गुणवत्ता को सुधारा, उत्पादन को बढ़ाया तथा लागत को कम किया। साको स्थित ‘मैंने’ डिफेंस कंपनी जो 178 वर्ष पुरानी थी यू. एस. ए. नेवी की गुणवत्ता मानकों की पूर्ति नहीं कर पा रही थी। यद्यपि साको के शस्त्रों ने अच्छा काम किया था, तो सरकार ने कंपनी द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों एवं प्रयोगों पर प्रश्न चिह्न लगाया। उदाहरणार्थ यदि किसी कर्मचारी को कोई घटिया बोल्ट उस समय दिखाई देता है जब जोड़ने की प्रक्रिया लगभग पूर्ण ही है, उस समय परिचालक उस बोल्ट को बदल ही देगा न कि समस्या को आगे बढ़ाएगा। एक घटिया बोल्ट का अर्थ है कि उसी आपूर्तिकर्ता से अन्य बोल्ट भी घटिया किस्म के आए होंगे अथवा पूरी खेप ही घटिया थी लेकिन पता नहीं चल पा रहा था। जब तक इस चीज पर कड़ी निगरानी नहीं रखी जाएगी तब तक समस्या का न तो पता चलेगा और न ही उसका निदान होगा।
इन समस्याओं के निराकरण हेतु साको डिफेंस ने एक संगठनात्मक रूपांतरण की प्रक्रिया को अपनाया, जिसके मूल तत्व थे- (1) कर्मचारियों को उनका उत्तरदायित्व तथा उत्तरदेयता को समझाकर इतना सामर्थ्यवान बनाया कि वे उत्पादन की त्रुटिपूर्ण क्रिया को रोककर समस्या को सुलझा सकें (2) काम की टोलियाँ बनाईं, जैसे कंपनी के अंतर्गत छोटे व्यावसायिक ग्रुप बनाए गए ताकि अपने सीमित पर्यवेक्षण से प्रबंधन कार्य जो उत्पादन का था को आसानी से पूरा कर सके। (3) 760 से घटाकर कर्मचारियों की संख्या लगभग 460 की गई तथा प्रबंध के कई स्तरों को हटाया गया। इसके अतिरिक्त प्रगतिशील उद्यमों में जो कंपनी के कार्य क्षेत्र में ही थे उनके समय चक्र में कमी की गई तथा लागत मूल्य को कम किया गया ताकि दक्षता पूर्ण एकीकरण कार्यक्रम को लागू किया जा सके। उत्पादन बढ़ाया गया, आवर्त घटाया गया तथा कंपनी अपने अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय को बढ़ा रही है।
स्रोत–स्टोनर ए.एफ. जेम्स, आर. एडवर्ड फ्रीमैन एंड डेनियल आर. गिलबर्ट, जे.आर. मैनेजमेंट, प्रैंटिस हाल अॉफ इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, 1998, चैप्टर 20, पृष्ठ 564 (संदर्भ– जॉयस ई. संतोरा, "ए क्वालिटि प्रोग्राम ट्रांसफॅार्म्स साको डिफेंस", पर्सनल जरनल, मई 1993, पृष्ठ 90-101)
बिना लाभ-हानि व्यापार विश्लेषण
बिना लाभ-हानि व्यापार विश्लेषण एक तकनीक है जिसका उपयोग प्रबंधकों द्वारा लागत, आकार तथा लाभों में संबंध का अध्ययन करने के लिए किया जाता है। इससे विभिन्न क्रियाओं के विभिन्न स्तरों पर होने वाले संभावित लाभ या हानि का निर्धारण किया जाता है। बिक्री या वह आकार जिससे न लाभ हो तथा न हानि बिना लाभ-हानि व्यापार बिंदु कहलाता है। प्रबंधकों के लिए यह एक उपयोगी तकनीक है क्योंकि यह क्रियाओं के विभिन्न स्तरों पर लाभों का अनुमान लगाने में सहायता प्रदान करती है।
चित्र में, एक फर्म का बिना लाभ-हानि व्यापार चार्ट दर्शाता है। बिना लाभ-हानि-व्यापार बिंदु का निर्धारण कुल आगम तथा कुल लागत वर्क के प्रतिच्छेदन द्वारा किया जाता है। चित्र से यह स्पष्ट होता है कि यदि फर्म 50,000 यूनिटों का उत्पादन करती है तो फर्म बिना लाभ-हानि व्यापार की स्थिति में होगी। इस बिंदु पर न लाभ है और न हानि। इस बिंदु से आगे फर्म लाभ कमाना आरंभ कर देगी।
बिना लाभ-हानि व्यापार बिंदु की गणना निम्नलिखित सूत्र से भी की जा सकती है।
बिना लाभ-हानि व्यापार विश्लेषण से एक फर्म को परिवर्तनीय लागत पर कड़ा नियंत्रण रखने में सहायता मिलती है तथा क्रिया के उस स्तर को निर्धारित करती है जहाँ से फर्म लाभ के लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है।
बजटीय नियंत्रण
बजटीय नियंत्रण प्रबंधकीय नियंत्रण की वह तकनीक है जिसके अंतर्गत सभी कार्यों का नियोजन पहले से ही बजट के रूप में किया जाता है तथा वास्तविक परिणामों की तुलना बजटीय मानकों से की जाती है। यह तुलनात्मक अध्ययन ही इस ओर अग्रसर करता है कि संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए क्या आवश्यक कार्यवाही की जाए?
बजट एक परिमाणात्मक विवरण है जिसका निर्माण भविष्य के लिए तैयार की गई नीतियों का उस समय में अनुगमन करने के लिए किया जाता है और उस बजट का उद्देश्य निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। नीचे दी गई सारणी इस बात का द्योतक है कि ये वे बजट हैं जो एक संगठन द्वारा सामान्यतया उपयोग में लाए जाते हैं।
बजट बनाने के निम्नलिखित लाभ हैं–
(क) बजट के केंद्र बिंदु, विशिष्ट तथा लक्ष्य की समय सीमा होते हैं अतः यह संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है।
(ख) बजट कर्मचारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत होता है। उनको यह भली-भाँति ज्ञान होता है कि हमारे निष्पादन का किन मानकों के आधार पर मूल्यांकन होगा। इस तरह बजट उन्हें कार्य के अच्छे निष्पादन के लिए सामर्थ्यवान बनाता है।
(ग) बजट विभिन्न विभागों को उनकी आवश्यकतानुसार संसाधनों का आवंटन करके उनके अधिकतम उपयोग में सहायता करता है।
(घ) बजट एक संगठन के विभिन्न विभागों में सामंजस्य बनाए रखने तथा उनके अपने अस्तित्व को पृथक बनाए रखने में भी सहायता करता है। उदाहरण के तौर पर बिक्री बजट तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक कि उत्पादन कार्यक्रम तथा समय सारणी का ज्ञान न हो।
(ङ) यह प्रबंध में अपवादों द्वारा उन प्रक्रियाओं पर दवाब बनाकर सहायता करता है जो बजटीय मानकों से एक महत्त्वपूर्ण दिशा में विचलित होती हैं।
तथापि बजट की प्रभावपूर्णता इस बात पर निर्भर करती है कि भविष्य के लिए लगाए गए अनुमान कितने सही हैं। बजट लचीला तैयार किया जाना चाहिए। यदि किसी कारणवश परिस्थितियाँ विपरीत दिशा में चलती हैं, विशेषकर जब वातावरण में कुछ परिवर्तन होता है तो लचीले बजट में परिवर्तन सुगम होता है। यहाँ यह कहना अति आवश्यक है कि प्रबंधक को इस बात का सदैव ध्यान रहे कि बजट ही कार्य संपादन का अंतिम पड़ाव नहीं है, यह तो संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन मात्र है।
आधुनिक तकनीकें
निवेश पर प्रत्याय
निवेश पर प्रत्याय एक उपयोगी तकनीक है जिससे हमें वे आधारभूत मानदंड मिलते हैं जो विनियोजित पूँजी के प्रभावूपर्ण ढंग से विनियोजन को मापने में सहायक होते हैं तथा इस बात का बोध कराते हैं कि पूँजी पर संतुलित लाभ उपार्जित हो रहे हैं या नहीं। निवेश पर प्रत्याय का उपयोग संगठन की संपूर्ण निष्पादन की माप करने के लिए भी उपयोग किया जा सकता है। विभिन्न विभागों तथा खंडों की व्यक्तिगत रूप में प्रगति मापन का भी एक उपयोगी साधन है। इसकी गणना निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है–
कर से पूर्व या बाद की निवल (शुद्ध) आय का उपयोग तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए किया जा सकता है। कुल विनियोग से तात्पर्य कार्यशील पूँजी एवं स्थाई पूँजी के व्यवसाय में विनियोजन से है। इस तकनीक के अनुसार निवेश पर प्रत्याय में वृद्धि या तो कुल बिक्री की मात्रा में कुल विनियोग से अनुपाततः अधिक वृद्धि करके या कुल विनियोग में, बिक्री में किसी प्रकार की कमी किए बगैर, कमी करना। निवेश पर प्रत्याय से उच्च स्तरीय प्रबंधन को विभिन्न विभागों के निष्पादन की तुलना करने में सहायता मिलती है। यह तकनीक विभागीय प्रबंधकों को निवेश पर प्रत्याय के विपरीत ढंग से प्रभावित करने वाली समस्याओं को ज्ञात करने में भी सहायता करती है।
बजटों के प्रकार
बिक्री बजट– एक विवरण है जिससे एक संगठन भविष्य में बिक्री की मात्रा तथा प्राप्त होने वाले मूल्य की अपेक्षा करता है।
उत्पादन बजट– एक विवरण है जिससे एक संगठन भविष्य में निश्चित समय के अंतर्गत उत्पादन की अपेक्षा करता है।
माल बजट– एक विवरण है जो भविष्य में कितने माल की आवश्यकता तथा उसकी कितनी लागत होगी का अनुमान लगाता है।
रोकड़ बजट– एक निश्चित समय में रोकड़ का कितना अंतर्गमन तथा कितना बहिर्गमन होगा इस बात का पूर्वानुमान लगाता है।
पूँजी बजट– अनुमानित व्यय दीर्घ कालीन संपत्तियों के क्रय के लिए, जैसे नयी फैक्ट्री के क्रय के लिए अथवा मुख्य-मुख्य उपकरणों के क्रय के लिए की व्याख्या करता है।
अनुसंधान – उत्पादों और प्रक्रियाओं पर होने वाले अनुमानित व्यय के लिए विकास तथा
तथा विकास परिष्करण।
बजट
अनुपात विश्लेषण
अनुपात विश्लेषण से तात्पर्य वित्तीय विवरणों का विभिन्न अनुपातों की गणना करके विश्लेषण से है। विभिन्न संगठनों द्वारा अधिकतर उपयोग में आने वाले विभिन्न अनुपातों को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है–
(क) तरलता अनुपात–तरलता अनुपात की गणना व्यवसाय की अल्पकालीन देयता के निर्धारण के लिए की जाती है। इस अनुपात से यह पता लगता है कि कंपनी अपनी अल्पकालीन संपत्तियों से अपने अल्पकालीन दायित्वों का भुगतान करने के लिए सामर्थ्यवान है या नहीं।
(ख) शोधन क्षमता अनुपात–वे अनुपात जिनकी गणना कंपनी की दीर्घ कालीन शोधन क्षमता की जाँच करने के लिए की जाती है शोधन क्षमता अनुपात कहलाते हैं। इन अनुपातों से यह भी ज्ञात किया जाता है कि क्या कंपनी अपनी ऋण ग्रस्तता की आवश्यकतानुसार सेवा करने अर्थात् ब्याज आदि का भुगतान करने की अवस्था में है या नहीं।
(ग) लाभदायकता अनुपात–इन अनुपातों की गणना कंपनी की लाभदायकता की गणना करने के लिए की जाती है। इन अनुपातों में लाभ की गणना बिक्री या कोष अथवा विनियोजित पूँजी के संबंधित विश्लेषण से होती है।
(घ) आवर्त अनुपात–ये अनुपात यह बताते हैं कि कोई संस्था अपने व्यवसाय में लगी हुई संपत्तियों का कितनी कार्यकुशलता से उपयोग कर रही है। यह अनुपात जितना ऊँचा होगा उतना ही संसाधनों का उपयोग अच्छा समझा जाएगा।
प्रबंधकों द्वारा सामान्यतया प्रयोग में लाए जाने वाले कुछ अनुपातों के उदाहरण
उत्तरदायित्व लेखाकरण
उत्तरदायित्व लेखाकरण, लेखांकन की एक विधि है जिसके अंतर्गत एक संगठन के विभिन्न विभागों, खंडों तथा वर्गों को उत्तरदायित्व केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। केंद्र का प्रधान, अपने केंद्र के लिए निर्धारित किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उत्तरदायी होता है।
उत्तरदायित्व केंद्र निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं–
(क) लागत केंद्र–एक लागत या व्यय केंद्र एक संगठन का वह उपखंड या भाग है जिसका प्रबंधक उस केंद्र पर व्यय होने वाली लागत के लिए तो उत्तरदायी होता है लेकिन आगम के लिए नहीं। उदाहरणार्थ एक संगठन के निर्मायक विभाग का उत्पादन विभाग लागत केंद्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
(ख) आगम केंद्र–आगम केंद्र एक संस्थान का वह उपखंड या भाग है जो मुख्य रूप से आगम संवर्धन के लिए उत्तरदायी होता है। उदाहरण के रूप में विपणन विभाग के एक संगठन का आगम केंद्र वर्गीकृत किया जाता है।
(ग) लाभ केंद्र–लाभ केंद्र एक संस्थान का वह उपखंड है जिसका प्रबंधक आगम एवं लागत दोनों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। उदाहरणार्थ- मरम्मत एवं रखरखाव किसी संगठन का लाभ केंद्र माना जाता है यदि उसे यह अधिकार हो कि उत्पादन के अन्य विभागों से उसके द्वारा सुलभ कराई गई सेवाओं के बदले पारिश्रमिक ले सकें।
(घ) विनियोग केंद्र–एक विनियोग केंद्र केवल लाभ के लिए ही उत्तरदायी नहीं होता है बल्कि संपत्तियों के रूप में केंद्र में विनियोगों के लिए भी उत्तरदायी होता है। प्रत्येक केंद्र में विनियोजनों का पृथक निर्धारण किया जाता है तथा निवेश पर प्रत्याय को केंद्र के निष्पादन के निर्णय के आधार के रूप में उपयोग में लाया जाता है।
प्रबंध अंकेक्षण
प्रबंध अंकेक्षण से तात्पर्य एक संगठन के संपूर्ण निष्पादन की विधिवत समीक्षा से है। इसका उद्देश्य प्रबंध की दक्षता तथा प्रभाविता का पुनरावलोकन करना है तथा भविष्य में इसकी कार्यप्रणाली में सुधार लाना है। प्रबंध कार्यों के निष्पादन में होने वाली कमियों को उजागर करने में सहायता करता है। इस प्रकार प्रबंध अंकेक्षण एक संगठन की कार्य प्रणाली, निष्पादन तथा प्रभाविता का मूल्यांकन करता है।
प्रबंध अंकेक्षण के मुख्य लाभ निम्नानुसार हैं–
1. प्रबंधकीय कार्यों के निष्पादन में वर्तमान एवं संभावित कमियों को बतलाने में सहायक होता है।
2. यह एक संगठन के निष्पादन प्रबंध को लगातार अनुश्रवण कर (मॉनीटरिंग) उसकी नियंत्रण प्रणाली को उन्नतिशील बनाने में सहायक होता है।
3. विभिन्न कार्यशील विभागों में समन्वय को उन्नतिशील बनाता है जिससे वे उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रभावपूर्ण विधि से साथ-साथ कार्य करते हैं।
4. वातावरणीय परिवर्तनों के साथ-साथ यह वर्तमान प्रबंधकीय नीतियों तथा मुक्तियों को आधुनिक बनाने का आश्वासन देता है।
कभी-कभी प्रबंध अंकेक्षण अपनाने में कुछ समस्याएँ सामने आ जाती हैं क्योंकि प्रबंध अंकेक्षण की कोई मानक तकनीक नहीं हैं। इसके अतिरिक्त किसी भी विधान के अंतर्गत प्रबंध अंकेक्षण आवश्यक भी नहीं है। यद्यपि प्रबुद्ध प्रबंधक संस्थान के संपूर्ण निष्पादन में सुधार लाने के लिए इसकी उपयोगिता को समझते हैं।
पुनरावलोकन तकनीक (पी. ई. आर. टी.) एवं आलोचनात्मक उपाय प्रणाली (सी. पी.एम.)
कार्यक्रम मूल्यांकन तथा पुनरावलोकन तकनीक एवं आलोचनात्मक उपाय प्रणाली नियोजन तथा नियंत्रण में अत्यंत उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण नेटवर्क तकनीकें हैं। विशेषकर ये तकनीकें नियोजन, सूचीयन तथा विभिन्न प्रकार के समयबद्ध परियोजनाओं को लागू करने जिनमें विभिन्न जटिल समस्याओं का निष्पादन निहित है विशेष तौर से उपयोगी हैं। ये तकनीकें समय-सारणी तथा संसाधनों के नियतन में व्यवहार में लाई जाती हैं तथा इनका लक्ष्य परियोजना के दिए हुए समय के अंतर्गत तथा लागत ढाँचे के अनुरूप प्रभावी कार्यान्वयन ही होता है।
कार्यक्रम मूल्यांकन तथा पुनरावलोकन तकनीक/ आलोचनात्मक उपाय प्रणाली के उपयोग में निहित कदम निम्नांकित हैं–
1. परियोजना विभिन्न प्रकार की स्पष्ट पहचान योग्य एवं सुव्यस्थित क्रियाओं में विभाजित होती है जो तर्कसंगत अनुक्रम में व्यवस्थित की जाती है।
2. परियोजना की क्रियाओं प्रारंभिक बिंदुओं तथा अंतिम बिंदुओं के अनुक्रम को स्पष्ट करने के लिए नेवटर्क आरेख (डायग्राम) तैयार किया जाता है।
3. प्रत्येक क्रिया के वास्ते समय आंकलन तैयार किया जाता है। कार्यक्रम मूल्यांकन पुनरावलोकन तकनीक के लिए तीन समय आकलनों की आवश्यकता होती है। आशावादी (अथवा कम से कम समय), निराशावादी (अथवा अधिकतम समय) तथा अधिकतम संभावित समय। आलोचनात्मक उपाय प्रणाली (आ. उ. प्र.) में केवल एक समय आकलन तैयार किया जाता है। इसके अतिरिक्त आलोचनात्मक उपाय प्रणाली आंकलन तैयार करने की भी आवश्यकता होती है।
4. नेटवर्क में सबसे लंबी विधि को जटिल विधि के रूप में समझा जाता है। इससे उन क्रियाओं का क्रम प्रस्तुत होता है जो परियोजना को समय से पूरा करने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं तथा जहाँ कोई भी विलंब, बिना पूर्ण परियोजना में विलंब किए स्वीकृत नहीं है।
5. आवश्यकतानुसार योजना में परिवर्तन किया जा सकता है ताकि परियोजना का समय के अनुसार पूरा करना तथा संपादन नियंत्रण में रहे।
कार्यक्रम मूल्यांकन तथा पुनरावलोकन तकनीक एवं आलोचनात्मक उपाय प्रणाली का उपयोग विस्तीर्णता से उन क्षेत्रों, जैसे जहाज-भवन निर्माण परियोजना, हवाई जहाज निर्माण आदि में किया जाता है।
प्रबंध सूचना पद्धति
प्रबंध सूचना पद्धति (प्र. सू. प.) कंप्यूटर पर आधारित सूचना पद्धति है जो सूचना सुलभ कराती है तथा प्रभावी प्रबंधकीय निर्णय लेने में सहायता प्रदान करती है। निर्णय लेने वाले के लिए आधुनिकतम, यथार्थ तथा सामायिक सूचनाओं की आवश्यकता होती है। प्रबंध सूचना पद्धति प्रबंधक को क्रमबद्ध रूप से तैयार की गई एक संगठन की बड़ी भारी मात्रा में तैयार सामग्री सुलभ कराती है। इस प्रकार प्र. सू. प. प्रबंधकों के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण संसूचन उपकरण है।
प्रबंध सूचना पद्धति एक महत्त्वपूर्ण नियंत्रण तकनीक भी सुलभ कराती है। यह प्रबंधकों को समयानुसार समंक एवं आवश्यक सूचना देती है ताकि मानकों से विचलन की दशा में उपयुक्त सुधारात्मक कार्यवाही की जा सके।
प्रबंध सूचना पद्धति के प्रबंधकों को लाभ
1. यह संगठन में संकलन, प्रबंध तथा प्रबंध के विभिन्न स्तरों एवं विभिन्न विभागों के दूसरी ओर सूचनाओं के प्रसार को सरल बनाती है।
2. यह सभी स्तरों पर नियोजन, निर्णय लेने तथा नियंत्रण को सहायता प्रदान करती है।
3. सूचनाओं की गुणवत्ता में जिसकी प्रबंधकों को काम करने के लिए आवश्यकता होती है सुधार करती है।
4. प्रबंधकीय सूचनाओं की लागत प्रभाविता को सुनिश्चित करती है।
5. यह प्रबंधकों पर सूचनाओं का अधिक भार नहीं होने देती क्योंकि उन्हें केवल संबंधित सूचनाएँ ही सुलभ कराई जाती हैं।
मुख्य शब्दावली
नियंत्रण ।। अनुपात विश्लेषण ।। आलोचनात्मक उपाय प्रणाली ।। उत्तरदायित्व लेखाकरण अपवादों द्वारा प्रबंध ।। प्रबंध अंकेक्षण ।। बिना लाभ-हानि व्यापार विश्लेषण कार्यक्रम मूल्यांकन तथा पुनरावलोकन तकनीक एवं बजटीय नियंत्रण ।। आलोचनात्मक-उपाय प्रणाली ।। निवेश पर प्रत्याय ।। प्रबंध सूचना पद्धति
सारांश
नियंत्रण का अर्थ
नियंत्रण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से वर्तमान निष्पादन मापन किया जाता है और कुछ पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए इसका मार्गदर्शन करता है।
नियंत्रण का महत्त्व
नियंत्रण के महत्त्व के संबंध में यह कहा जा सकता है कि यह संगठनात्मक लक्ष्यों की निष्पत्ति करता है, मानकों की यथार्थता को आँकता है, संसाधनों का फलोत्पादक उपयोग करता है, कर्मचारियों की अभिप्रेरणा में सुधार लाता है तथा आदेश एवं अनुशासन को सुनिश्चित करता है।
नियंत्रण की सीमाएँ
नियंत्रण की कुछ सीमाएँ भी हैं- जैसे परिमाणात्मक मानकों के निर्धारण में कठिनाई, बाह्य घटकों पर अल्प नियंत्रण, कर्मचारियों का प्रतिरोध, महँगा सौदा विशेषकर छोटे-छोटे संस्थानों में। इसके अतिरिक्त यह हमेशा संभव नहीं होता कि प्रबंध निष्पादन के लिए मात्रात्मक मानकों का निर्धारण कर सके जिसकी अनुपस्थिति के कारण नियंत्रण का प्रभावीकरण कुछ कम हो जाता है।
नियंत्रण प्रक्रिया
नियंत्रण प्रक्रिया में निष्पादन मानकों का निर्धारण, वास्तविक निष्पादन की माप, मानकों एवं वास्तविक निष्पादन की तुलना, विचलनों का विश्लेषण तथा सुधारात्मक कार्यवाही करना सम्मिलित हैं।
नियोजन एवं नियंत्रण में संबंध
नियोजन एवं नियंत्रण प्रबंध के अपृथक्करीय यमज (जुड़वाँ) हैं। नियोजन प्रबंध प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है तो नियंत्रण प्रक्रिया को पूरा करता है। नियोजन, नियंत्रण के लिए आधार प्रदान करता है तो बिना नियंत्रण सुनियोजित एवं सुसंगठित योजनाएँ भी निष्फल ही सिद्ध होती हैं तथा प्रायः निरर्थक ही रहती हैं।
नियंत्रण की पारंपरिक तकनीकें
व्यक्तिगत अवलोकन, सांख्यकीय रिपोर्ट्स/प्रतिवेदन, बिना हानि-लाभ व्यापार विश्लेषण तथा बजटीय नियंत्रण, नियंत्रण की पारंपरिक तकनीकें हैं।
नियंत्रण की आधुनिक तकनीकें
विनियोगों पर आय, अनुपात विश्लेषण, उत्तरदायित्व लेखांकन, तथा प्रबंध अंकेक्षण नियंत्रण की आधुनिक तकनीकें हैं। इसके अतिरिक्त कार्यक्रम मूल्यांकन तथा पुनरावलोकन एवं अलोचनात्मक उपाय प्रणाली भी आधुनिक तकनीकों के अंग हैं।
अभ्यास
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
1. नियंत्रण का अर्थ समझाइए।
2. उस सिद्धांत का नाम बताएँ जिस पर एक प्रबंधक को विचलन से प्रभावी ढंग से निपटने के दौरान विचार करना चाहिए। कोई एक स्थिति बताएँ जिसमें एक संगठन की नियंत्रण प्रणाली अपनी प्रभावशीलता खो देती है।
3. कोई दो मानक बताएँ जो किसी कंपनी द्वारा वित्त और लेखा विभाग के प्रबंधन का मूल्यांकन करने के लिए उपयोग किए जा सकते हैं।
4. मानक प्रदर्शन और वास्तविक प्रदर्शन के बीच अंतर को इंगित करने के लिए किस शब्द का उपयोग किया जाता है?
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. ‘नियोजन आगे की ओर और नियंत्रण पीछे की ओर देखना है।’ टिप्पणी करें।
2. ‘सब कुछ नियंत्रित करने का प्रयास कुछ भी नियंत्रित न कर पाने में समाप्त हो सकता है।’
चर्चा करें।
3. प्रबंधकीय नियंत्रण की तकनीक के रूप में बजटीय नियंत्रण पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
4. बताएँ कि प्रबंधन लेखा परीक्षा कैसे नियंत्रित करने की प्रभावी तकनीक के रूप में कार्य करती है।
5. श्री अर्फाज स्टेशनरी उत्पाद बनाने वाली कंपनी राइटवेल प्रोडक्ट्स लिमिटेड के उत्पादन विभाग का कार्यभार देख रहे थे। फर्म को एक निर्यात आदेश मिला जिसे प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाना था और उत्पादन लक्ष्यों को सभी कर्मचारियों के लिए परिभाषित किया गया। श्रमिकों में से एक, भानू प्रसाद, लगातार दो दिन तक अपने दैनिक उत्पादन लक्ष्य से 10 इकाइयाँ कम रहा। श्री अर्फाज ने भानू प्रसाद के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के लिए कंपनी की सी.ई.ओ. वसुंधरा से संपर्क किया और उनसे उसकी सेवाओं को समाप्त करने का अनुरोध किया। उस प्रबंधन नियंत्रण के सिद्धांत की व्याख्या करें जिस पर वसुंधरा को अपना निर्णय लेने के दौरान विचार करना चाहिए।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. नियंत्रण की प्रक्रिया में शामिल विभिन्न चरणों की व्याख्या करें।
2. प्रबंधकीय नियंत्रण की तकनीक की व्याख्या करें।
3. किसी संगठन में नियंत्रण के महत्व की व्याख्या करें। एक प्रभावी प्रणाली को लागू करने में संगठन द्वारा सामना की जाने वाली समस्याएँ क्या हैं?
4. योजना और नियंत्रण के बीच संबंधों पर चर्चा करें।
5. एक कंपनी ‘एम’ लिमिटेड घरेलू भारतीय बाजार के साथ-साथ निर्यात के लिए मोबाइल फोन का निर्माण करती है। कंपनी ने पर्याप्त बाजार हिस्सेदारी का आनंद लिया था और उसके पास वफादार ग्राहक आधार भी था। लेकिन हाल ही में यह कंपनी समस्याओं का सामना कर रही है क्योंकि बिक्री और ग्राहक संतुष्टि के संबंध में इसके लक्ष्य पूरे नहीं किए जा सके हैं। भारत में भी मोबाइल बाजार में काफी वृद्धि हुई है और नए खिलाड़ी बेहतर तकनीक और मूल्य निर्धारण के साथ आए हैं। इससे कंपनी के लिए समस्याएँ पैदा हो रही हैं। कंपनी अपनी नियंत्रण प्रणाली को संशोधित करने और समस्याओं का समाधान करने के लिए आवश्यक अन्य कदम उठाने की योजना बना रही है।
(i) कंपनी को एक अच्छी नियंत्रण प्रणाली से प्राप्त होने वाले लाभों की पहचान करें।
(ii) यह सुनिश्चित करने के लिए कि कंपनी की योजनाएँ वास्तव में कार्यान्वित की गई हैं और
लक्ष्य प्राप्त किए गए हैं, कंपनी कैसे कारोबार के इस क्षेत्र में नियंत्रण के साथ योजना को संबद्ध कर सकती है?
(iii) कंपनी को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनके निवारण के लिए कंपनी द्वारा उठाए जा सकने वाले नियंत्रण प्रक्रिया के कदम बताएँ।
6. श्री शांतनु वस्त्र बनाने वाली एक प्रतिष्ठित कंपनी के मुख्य प्रबंधक हैं। उन्होंने उत्पादन प्रबंधक को बुलाया और निर्देश दिया कि वह अपने विभाग से संबंधित सभी गतिविधियों पर निरंतर जाँच करें ताकि सब कुछ निर्धारित योजना के अनुसार हो। उन्होंने उन्हें संगठन के सभी कर्मचारियों के प्रदर्शन पर न ़जर रखने का भी सुझाव दिया ताकि लक्ष्य प्रभावी ढंग से और कुशलतापूर्वक हासिल किए जा सकें।
(i) उपर्युक्त स्थिति में वर्णित नियंत्रण की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन करें।
(ii) नियंत्रण के चार महत्व बताएँ।