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प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

हमें याद है कि पूर्ण प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत का निर्माण एक बाज़ार की संरचना के रूप में किया गया था जहाँ उपभोक्ता और फर्म दोनों कीमत स्वीकारकर्ता थे। अध्याय 4 में एेसी परिस्थिति में फर्म के व्यवहार का वर्णन किया गया था। हमने विचार किया था कि एक पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाज़ार की संरचना एक एेसी बाज़ार के सदृश्य होती है, जहाँ निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाता हैः

(i) जहाँ फर्म और वस्तु के उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या विद्यमान रहती है। सभी फर्मों के सम्मिलित कुल निर्गत की तुलना में प्रत्येक फर्म के द्वारा विक्रय की गयी निर्गत की मात्रा नगण्य ही होती है अर्थात् बहुत कम होती है तथा इसी प्रकार प्रत्येक उपभोक्ता के द्वारा खरीदी गई मात्रा सम्मिलित रूप से सभी उपभोक्ताओें द्वारा खरीदी गई मात्रा की तुलना में बहुत कम होती है;

(ii) वस्तु का उत्पादन करने अथवा उसे बंद कर रोक देने के लिए फर्में स्वतंत्र होती हैं; अर्थात प्रवेश एवं बहिर्गमन स्वतंत्र होता है;

(iii) किसी उद्योग में प्रत्येक फर्म के द्वारा उत्पादित निर्गत तथा अन्य फर्म के द्वारा उत्पादित निर्गत में कोई विशेष अंतर नहीं होता है और किसी अन्य उद्योग का निर्गत इस निर्गत का स्थानापन्न नहीं हो सकता है; और

(iv) उपभोक्ता और फर्म दोनों को निर्गत, आगत और उनकी कीमतों की पूर्ण जानकारी होती है।

इस अध्याय में हम उन परिस्थितियों पर चर्चा करेंगे जहाँ पर इनमें से एक या अधिक शर्तों की पूर्ति नहीं होती है। इस अध्याय में, हम उन स्थितियों के विषय में चर्चा करेंगे, जहाँ इनमें से कोई एक अथवा अधिक शर्तें पूरी नहीं होती हैं। यदि मान्यता (ii) को छोड़ दिया जाये और फर्मों के लिए बाजार में प्रवेश करना कठिन हो जाये, तो बाज़ार में हो सकता है अधिक फर्में न हो। विषम परिस्थिति में बाज़ार में एक ही फर्म हो सकती है। एेसा बाज़ार जिसमें एक फर्म होती हैं तथा क्रेता अधिक होते हैं, एकाधिकार कहलाता है। वह बाज़ार जिसमें बड़ी फर्मों की थोड़ी संख्या होती है, अल्पाधिकार कहलाता है। देखें मान्यता (ii) को छोड़ने से, मान्यताः (i) भी छूट जाती है। इसी भांति इस मान्यता को छोड़ने से कि एक फर्म द्वारा उत्पन्न वस्तुओं को, दूसरी फर्मों से अलग नहीं किया जा सकता (मान्यता iii), का अर्थ है कि फर्मों द्वारा उत्पन्न वस्तुएं निकट-स्थानापन्न हैं, परन्तु एक दूसरे के पूर्ण स्थानापन्न नहीं। एेसे बाज़ार को जहाँ मान्यताएं (i) तथा (ii) पाई जायें परन्तु (iii) न पाई जाये, ‘एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा’ कहते हैं। इस अध्याय में हम ‘एकाधिकार, एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा तथा अल्पाधिकार’ बाज़ार संरचनाओं का अध्ययन करेंगे।

6.1 वस्तु बाज़ार में सामान्य एकाधिकार

एक बाज़ार संरचना जिसमें एक एकल विक्रेता होता है, एकाधिकार कहलाता है। यद्यपि इस एक वाक्य की परिभाषा में छिपी शर्तों को स्पष्ट रूप से वर्णित करने की आवश्यकता है। एक एकाधिकारी बाज़ार संरचना में यह आवश्यक है कि एक विशेष वस्तु का एकल उत्पादक हों; उस वस्तु का कोई स्थानापन्न वस्तु नहीं हो और इस स्थिति को लम्बे समय तक बनाए रखने के लिए पर्याप्त प्रतिबंध की आवश्कता होती है, ताकि किसी अन्य फर्म को बाज़ार में प्रवेश करने तथा वस्तु का विक्रय करने से रोकी जा सके।


अन्य बाज़ार संरचनाओं की तुलना में वस्तु बाज़ार में एकाधिकार के परिणामस्वरूप संतुलन में अंतर की जाँच के क्रम में हमें यह कल्पना करनी होगी कि अन्य सभी बाज़ार पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में होते हैं। खास करके यह भी आवश्यकता होगी कि (i) वस्तु विशेष का बाज़ार माँग की ओर से पूर्णतः प्रतिस्पर्धी हो अर्थात् सभी उपभोक्ता कीमत स्वीकारकर्ता हो; और (ii) उस वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त आगतों का बाज़ार, पूर्ति और माँग दोनों पक्षों की ओर से पूर्णतः प्रतिस्पर्धी हो।

यदि उपर्युक्त सभी शर्तों की पूर्ति हो रही हो, तो हम इस स्थिति को एकल वस्तु बाज़ार में एकाधिकार के रूप में परिभाषित करते हैं।

प्रतिस्पर्धी व्यवहार बनाम प्रतिस्पर्धी संरचना

पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाज़ार को एक एेसे बाज़ार के रूप में परिभाषित किया गया है, जहाँ बाज़ार में उत्पादन का विक्रय जिस कीमत पर होता है, उस कीमत को प्रभावित करने में व्यक्तिगत फर्म असमर्थ होती हैं। चूँकि व्यक्तिगत फर्म के निर्गत के किसी भी स्तर के लिए कीमत समान रहती है, इसीलिए एेसी फर्म किसी भी मात्रा का विक्रय कर पाती हैं, जितनी मात्रा की वह दी हुई बाज़ार कीमत पर बेचने को इच्छुक हैं। अतः इसे अपने उत्पाद के लिए बाज़ार प्राप्त करने के लिए अन्य फर्मों से प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता नहीं होती है।

यह स्पष्ट रूप से उस धारणा के प्रतिकूल है जो साधारणतः प्रतिस्पर्धा अथवा प्रतिस्पर्धी व्यवहार से समझा जाता है। हम देखते हैं कि कोक और पेप्सी विक्रय का अधिक ऊँचा स्तर अथवा बाज़ार में अधिक हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार से एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके विपरीत, हम व्यक्तिगत किसानों को अत्यधिक मात्रा में अनाज को बेचने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए नहीं देखते हैं। एेसा इसलिए है क्योंकि कोक तथा पेप्सी के पास शीतल पेयों की बाज़ार कीमत को प्रभावित करने का सामर्थ्य है, जबकि व्यक्तिगत किसान के पास नहीं है।

अतः प्रतिस्पर्धी व्यवहार तथा प्रतिस्पर्धी बाज़ार संरचना आमतौर पर वयुत्क्रमानुपातिक रूप से संबद्ध होते हैं। बाज़ार संरचना अधिक प्रतिस्पर्धी होती है तो फर्मों का व्यवहार कम प्रतिस्पर्धी होता है। दूसरी ओर, बाज़ार संरचना कम प्रतिस्पर्धी होती है तो प्रतिस्पर्धी फर्मों का व्यवहार एक-दूसरे के प्रति अधिक प्रतिस्पर्धी होता है। एक एकाधिकार में प्रतिस्पर्धा के लिए कोई फर्म नहीं होती।


6.1.1 बाज़ार माँग वक्र औसत संप्राप्ति वक्र है

रेखाचित्र 6.1 में बाज़ार माँग वक्र मात्राएँ दर्शाता है जिसे उपभोक्ता विभिन्न कीमतों पर सम्मिलित रूप से खरीदने के इच्छुक हैं। यदि बाज़ार कीमत ऊँचे स्तर p0 पर हो, तो उपभोक्ता कम मात्रा q0 खरीदने के इच्छुक होंगे। दूसरी ओर, यदि बाज़ार कीमत निम्न स्तर p1 पर हो, तो उपभोक्ता अधिक मात्रा q1 खरीदने के इच्छुक होंगे। अर्थात् कीमत बाज़ार में उपभोक्ता द्वारा माँग की गई मात्रा को प्रभावित करती है। इसे इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि उपभोक्ताओं द्वारा खरीदी गई मात्रा कीमत का ह्रासमान फलन है। एकाधिकार फर्म के लिए उपर्युक्त तर्क स्वयं विपरीत दिशा को अभिव्यक्त करता है। वृहत मात्रा में विक्रय करने का एकाधिकार फर्म का निर्णय केवल कम कीमत पर ही संभव है। विलोमतः यदि एकाधिकार फर्म अल्प मात्रा में बेचने के लिए वस्तु को बाज़ार में लाए, तो उसके लिए ऊँची कीमत पर वस्तु को बेचना संभव होगा। अतः एकाधिकार फर्म के लिए कीमत बेची गई वस्तु की मात्रा पर निर्भर करती है। इसे इस तरह भी अभिव्यक्त किया जाता है कि कीमत बेची गई मात्रा का ह्रासमान फलन है। अतः एकाधिकारी फर्म के लिए बाज़ार माँग वक्र पूर्ति की विभिन्न मात्रा के लिए उपभोक्ता देने के लिए इच्छुक है, कीमत को अभिव्यक्त करती है। इस कथन में यह विचार प्रतिबिम्बित हुआ है कि एकाधिकारी फर्म को बाज़ार माँग वक्र का सामना करना पड़ता है, जो नीचे की ओर प्रवण है।

बाज़ार माँग वक्रः बाज़ार माँग वक्र उस मात्रा को दर्शाता है जो उपभोक्ता विभिन्न कीमतों पर सम्मिलित रूप से क्रय करना चाहते हैं।

उपर्युक्त धारणा पर एक दूसरी दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। चूँकि यह मान लिया जाता है कि फर्म को बाज़ार माँग वक्र का पूर्ण ज्ञान है, इसलिए एकाधिकारी फर्म जिस कीमत पर अपनी वस्तु बेचना चाहती है और वस्तु की जितनी मात्रा बेचना चाहती है, दोनों के बारे में निर्णय ले सकती है। उदाहरण के लिए, रेखाचित्र 6.1 का दुबारा जाँच करने पर हम देखते हैं कि एकाधिकारी फर्म DD वक्र के आकार से अवगत रहती है, इसलिए वह p0 कीमत पर वस्तु को बेचना चाहती है। एेसा करने के लिए वह मात्रा q0 का उत्पादन अथवा विक्रय करेगी क्योंकि p0 कीमत पर उपभोक्ता q0 की मात्रा खरीदने को इच्छुक है। दूसरी तरफ, यदी वह q मात्रा बेचना चाहता है तो वह एेसा p कीमत पर ही कर सकेगा।

पूर्णतः प्रतिस्पर्धी बाज़ार संरचना में फर्म की विषमता को स्पष्ट होना चाहिए। उस स्थिति में फर्म बाज़ार में उतनी मात्रा में वस्तु लाएगी, जितनी लाने को वह इच्छुक होगी और उसे उसी कीमत पर बेचेगी। चूँकि एकाधिकारी फर्म के लिए एेसा नहीं होता है, इसलिए वस्तु की बिक्री के माध्यम से प्राप्त मुद्रा की मात्रा की पुनः जाँच करनी होगी।

तालिका 6.1ः कीमत तथा संप्राप्ति

q q कुल संप्राप्ति औसत संप्राप्ति सीमांत संप्राप्ति
0 10 0 - -
1 9.5 9.5 9.5 9.5
2 9 18 9 8.5
3 8.5 25.5 8.5 7.5
4 8 32 8 6.5
5 7.5 37.5 7.5 5.5
6 7 42 7 4.5
7 6.5 45.5 6.5 3.5
8 6 48 6 2.5
9 5.5 49.5 5.5 1.5
10 5 50 5 0.5
11 4.5 49.5 4.5 -0.5
12 4 48 4 -1.5
13 3.5 45.5 3.5 -2.5

हम एक अनुसूची, एक रेखाचित्र और सरल रेखीय माँग वक्र के सरल समीकरण का प्रयोग करके इसका अभ्यास करें, एक उदाहरण के रूप में माँग फलन को निम्न समीकरण के रूप में मान लें–

q = 20 2p

जहाँ q विक्रय की गई मात्रा तथा p रुपये में कीमत है। इस समीकरण को p के रूप में इस प्रकार लिखा जा सकता हैः

p = 10 0.5q

1 से 13 तक q की विभिन्न मूल्यों को प्रतिस्थापित करने पर हम 10 से 3.5 तक की कीमत प्राप्त करते हैं। इन्हें तालिका 6.1 के कॉलम q तथा p में दर्शाया गया है।

इन संख्याओं को रेखाचित्र 6.2 में एक ग्राफ़ में अंकित किया गया है जिसमें कीमत उर्ध्वाधर अक्ष पर एवं मात्राएँ समस्तरीय अक्ष पर दर्शायी गई हैं। वस्तु की विभिन्न मात्राओं के लिए उपलब्ध कीमतों को सरल रेखा D से दर्शाया गया है।

कुल, औसत तथा सीमांत सम्प्राप्ति वक्रः कुल संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति तथा सीमांत संप्राप्ति वक्र यहाँ दर्शाए गए हैं।

वस्तु की बिक्री से फर्म द्वारा प्राप्त कुल संप्राप्ति उत्पाद कीमत और विक्रय की गई मात्रा के गुणनफल के तुल्य होती है। एकाधिकारी फर्म की स्थिति में, कुल संप्राप्ति सरल रेखा में नहीं होती है। इसकी आकृति माँग वक्र की आकृति पर निर्भर करती है। गणितीय रूप से कुल संप्राप्ति को विक्रय की मात्रा के फलन के रूप में दर्शाया जाता है। अतः हमारे उदाहरण मेंः

कुल संप्राप्ति = p × q

= (10 0.5q ) × q

=10 q 0.5 q2

यह सरल रेखीय समीकरण नहीं है। यह एक द्विघातीय समीकरण है, जिसमें वर्ग वाले पद में एक ऋणात्मक गुणांक होता है। इस प्रकार के समीकरण से एक उल्टा उर्ध्वाधर परवलय निरूपित होता है।

तालिका 6.1 में कुल संप्राप्ति कॉलम p तथा q कॉलमों के गुणनफल का प्रतिनिधित्व करता है। ध्यातव्य है कि जैसे-जैसे मात्रा में वृद्धि होती है कुल संप्राप्ति में भी 50 रुपये तक वृद्धि होती है, जब तक कि निर्गत 10 इकाई हो जाता है, निर्गत के इस स्तर के पश्चात कुल संप्राप्ति में गिरावट आनी शुरू हो जाती है। एेसा ही इस रेखाचित्र 6.2 में स्पष्ट किया गया है।

फर्म द्वारा वस्तु की प्रति इकाई विक्रय से प्राप्त संप्राप्ति को औसत संप्राप्ति कहते हैं। गणितीय रूप में,

औसत संप्राप्ति 1

तालिका 6.1 में औसत संप्राप्ति कॉलम, कुल संप्राप्ति के मूल्य में मात्रा q के मूल्य से भाग देकर प्राप्त मूल्य को प्रदान करता है। द्रष्टव्य है कि औसत संप्राप्ति मूल्य p कॅालम के मूल्य के समान रहता है। केवल यही आशा की जाती है।

औसत संप्राप्ति 1

चूँकि कुल संप्राप्ति = कीमत × मात्रा, को औसत संप्राप्ति समीकरण में प्रतिस्थापित करने पर,

औसत संप्राप्ति 2

जैसा कि पहले देखा गया है, p का मूल्य बाज़ार माँग वक्र को प्रदर्शित करता है, जैसा कि रेखाचित्र 6.2 में दर्शाया गया है। अतः औसत संप्राप्ति वक्र ठीक बाज़ार माँग वक्र पर ही बनेगी। यह इस कथन से अभिव्यक्त है कि एकाधिकारी फर्म के लिए बाज़ार माँग वक्र ही औसत संप्राप्ति वक्र होता है।

औसत संप्राप्ति और कुल संप्राप्ति वक्र के बीच संबंधः निर्गत के किसी भी स्तर पर औसत संप्राप्ति को उद्गम बिन्दु और विचाराधीन निर्गत स्तर के संगत कुल संप्राप्ति वक्र पर एक निर्दिष्ट बिन्दु को जोड़ने वाली रेखा की प्रवणता के द्वारा दिखाया गया है।

ग्राफ़ीय रूप में, विक्रय की मात्रा के किसी भी स्तर के लिए औसत संप्राप्ति का मूल्य कुल संप्राप्ति वक्र से प्राप्त किया जा सकता है। इसे रेखाचित्र 6.3 में सरल रचना के माध्यम से दर्शाया गया है। यहाँ जब मात्रा 6 इकाइयाँ हैं, तो समस्तरीय अक्ष पर मूल्य 6 से होकर एक उर्ध्वाधर रेखा गुजरती है। यह रेखा कुल संप्राप्ति वक्र को 'a' द्वारा चिन्हित बिन्दु, जो उर्ध्व अक्ष पर 42 को दर्शाती है, पर काटती है। अब उद्गम O और बिन्दु 'a' को एक सरल रेखा से जोड़ते हैं, उद्गम से किसी एक बिन्दु तक इस किरण की प्रवणता से कुल संप्राप्ति पर औसत संप्राप्ति का मूल्य प्राप्त होता है। इस किरण की प्रवणता 7 के बराबर है। अतः औसत संप्राप्ति का मूल्य 7 है। इसकी जाँच तालिका 6.1 से भी की जा सकती है।

6.1.2 कुल, औसत और सीमांत संप्राप्तियाँ

तालिका 6.1 को सावधानी पूर्वक देखने से यह स्पष्ट होता है कि मात्रा में प्रत्येक इकाई वृद्धि के लिए कुल संप्राप्ति में उसी परिमाण में वृद्धि नहीं होती है। प्रथम इकाई की बिक्री से कुल संप्राप्ति में 0 रु॰ से परिवर्तन होता है, जब मात्रा 0 इकाई से बढ़कर 1 इकाई होती है तो कुल संप्राप्ति में 9.5 रु॰ का परिवर्तन होता है। आगे जैसे-जैसे मात्रा में वृद्धि होती जाती है, कुल संप्राप्ति में वृद्धि कम होती है। उदाहरणार्थ– वस्तु की पाँचवीं इकाई के लिए कुल संप्राप्ति में 5.5 रु॰ (5वीं इकाई के लिए 37.5 रु॰ से 4 थी इकाई का 32 रु॰ घटाने पर) की वृद्धि होती है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है निर्गत की 10 इकाई के बाद कुल संप्राप्ति में ह्रास होने लगता है। इससे स्पष्ट है कि 10 इकाइयों से अधिक मात्रा की बिक्री से कुल संप्राप्ति का स्तर 50 रु॰ से कम होगा। इस प्रकार 12वीं इकाई से कुल संप्राप्ति में वृद्धिः 48 - 49.50 = - 1.50 अर्थात 1.50 रु॰ की गिरावट दर्ज़ होती है।

एक अतिरिक्त इकाई की बिक्री से कुल संप्राप्ति में परिवर्तन को सीमांत संप्राप्ति कहते हैं। तालिका 6.1 में इसे अंतिम कॉलम में दर्शाया गया है। प्रेक्षण कीजिए कि किसी मात्रा MR पर उस मात्रा TR तथा उससे पूर्व की मात्रा MT पर अन्तर होता है। उदाहरणार्थ, जब q=3, MR= (25.5-18)=7.5 होता है।

पिछले अनुच्छेद में यह दर्शाया गया है कि जैसे-जैसे विक्रय की मात्रा में वृद्धि होती है, कुल संप्राप्ति में भी धीरे-धीरे वृद्धि होती जाती है और 10वीं इकाई के बाद इसमें गिरावट आनी शुरू हो जाती है। इसका अवलोकन सीमांत संप्राप्ति के मूल्य के माध्यम से भी किया जा सकता है, जो कि मात्रा q में वृद्धि होने पर घटती है। मात्रा 10 इकाइयाँ होने पर सीमांत संप्राप्ति का मान ऋणात्मक हो जाता है। रेखाचित्र 6.2 में सीमांत संप्राप्ति को बिन्दु-रेखा के द्वारा चित्रित किया
गया है।

सीमांत संप्राप्ति और कुल संप्राप्ति वक्रों के बीच संबंधः निर्गत के किसी भी स्तर पर सीमांत संप्राप्ति को निर्गत के उस स्तर पर कुल संप्राप्ति वक्र की प्रवणता के द्वारा दिखाया गया है।

ग्राफ़ीय रूप में, सीमांत संप्राप्ति वक्र के मूल्य को कुल संप्राप्ति वक्र की प्रवणता के द्वारा दर्शाया गया है। किसी निष्कोण वक्र की प्रवणता को उस बिन्दु पर वक्र की स्पर्शज्या की प्रवणता के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसका चित्रांकन रेखाचित्र 6.4 में किया गया है। कुल संप्राप्ति वक्र पर अंकित 'a' बिन्दु पर सीमांत संप्राप्ति के मूल्य को रेखा L1 और बिन्दु 'b' पर रेखा L2 की प्रवणता के द्वारा दर्शाया गया है। द्रष्टव्य है कि दोनों रेखाओं की प्रवणता धनात्मक है किन्तु रेखा L2 रेखा L1 से अधिक सपाट है अर्थात् इसकी प्रवणता कम है। मात्रा के एक ही स्तर के लिए सीमांत संप्राप्ति का मूल्य भी कम होगा। जब वस्तु की 10 इकाइयों की बिक्री की जाती है तो कुल संप्राप्ति की स्पर्शज्या समस्तरीय होती है अर्थात् इसकी प्रवणता शून्य1 होती है। एक ही मात्रा के लिए सीमांत संप्राप्ति का मूल्य शून्य होता है। कुल संप्राप्ति वक्र पर अंकित बिन्दु 'd' पर, स्पर्शज्या की प्रवणता ऋणात्मक होती है, सीमांत संप्राप्ति का मूल्य ऋणात्मक होता है।

औसत संप्राप्ति वक्र और सीमांत संप्राप्ति वक्र के बीच संबंधः यदि औसत संप्राप्ति वक्र अतिप्रवण हो तो सीमांत संप्राप्ति वक्र औसत संप्राप्ति वक्र से बहुत नीचे होता है।

निष्कर्षतः कह सकते हैं कि जब कुल संप्राप्ति में वृद्धि होती है, तो सीमांत संप्राप्ति धनात्मक होती है और जब कुल संप्राप्ति में ह्रास होता है तो सीमांत संप्राप्ति ऋणात्मक होती है। औसत संप्राप्ति और सीमांत संप्राप्ति वक्रों में दूसरा संबंध भी देखा जा सकता है। रेखाचित्र 6.2 दर्शाता है कि सीमांत संप्राप्ति वक्र औसत संप्राप्ति वक्र के नीचे रहता है। तालिका 6.1 में भी इसे देखा जा सकता है, जहाँ निर्गत के किसी भी स्तर पर सीमांत संप्राप्ति का मूल्य औसत संप्राप्ति के संगत मूल्य से कम है। हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यदि औसत संप्राप्ति वक्र (अर्थात् माँग वक्र) अतिप्रवण होता है तो सीमांत संप्राप्ति वक्र औसत संप्राप्ति वक्र से अधिक नीचे रहता है। दूसरी ओर, यदि औसत संप्राप्ति वक्र की प्रवणता कम होती है, तो औसत संप्राप्ति वक्र और सीमांत संप्राप्ति वक्र के बीच उर्ध्वाधर दूरी कम होती है। रेखाचित्र 6.5 (a) में औसत संप्राप्ति वक्र अधिक सपाट है जबकि 6.5 (b) में औसत संप्राप्ति वक्र की प्रवणता अधिक है। वस्तु की समान इकाइयों के लिए औसत संप्राप्ति और सीमांत संप्राप्ति के बीच अंतर पैनल (a) में पैनल (b) की अपेक्षा कम है।

6.1.3 सीमांत संप्राप्ति और माँग की कीमत लोच

सीमांत संप्राप्ति के मूल्य का संबंध माँग की कीमत लोच के साथ भी होता है। यहाँ विस्तृत संबंध व्युत्पन्न नहीं हुआ है। एक ही पहलू पर ध्यान देना पर्याप्त हैः जब सीमांत संप्राप्ति का मूल्य धनात्मक होता है, तो माँग की कीमत लोच 1 से अधिक होती है और जब सीमांत संप्राप्ति का मूल्य ऋणात्मक होता है, तो इकाई से कम हो जाती है। इसे तालिका 6.2 में देखा जा सकता है, जिसमें वही आँकड़े दर्शाए गए हैं जो तालिका 6.1 में है। जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा में वृद्धि होती है, सीमांत संप्राप्ति का मूल्य घटता है और माँग की कीमत लोच का मूल्य भी न्यून हो जाता है। स्मरण कीजिए कि माँग वक्र की लोच उस बिन्दु पर होती है जहाँ कीमत लोच इकाई से अधिक होती है, यह उस बिन्दु पर लोचहीन होती जहाँ कीमत लोच इकाई से कम होती है और जब कीमत लोच 1 के बराबर होती है, तो माँग वक्र इकाई लोच में होता है। तालिका 6.2 में दर्शाया गया है कि जब मात्रा 10 इकाइयों से कम है तब सीमांत संप्राप्ति धनात्मक होती है और माँग वक्र लोचदार है तथा जब मात्रा 10 इकाइयों से अधिक है तब माँग वक्र लोचहीन है। मात्रा की 10 इकाई के स्तर पर माँग वक्र इकाई लोचदार है।



1प्रश्नः तालिका 6.1में, MR, q=10 पर शून्य क्यों नहीं है? एेसा इसलिये है क्योंकि हम MR को अलग से देख रहे हैं अर्थात सीधे 9 इकाइयों से 10 इकाइयों पर जा कर। यदि आप TR की 10 के निकट के मूल्यों के लिये पुनः गणना करें जैसे 9.5, 9.75 अथवा 9.9 तो TR 50 के निकट तक हो जायेगा जैसे q=9.9 पर TR, 49.995 होगा।

तालिका 6.2ः सीमांत संप्राप्ति और कीमत लोच

q q सीमांत संप्राप्ति लोच
0 10 - -
1 9.5 9.5 19
2 9 8.5 9
3 8.5 7.5 5.67
4 8 6.5 4
5 7.5 5.5 3
6 7 4.5 2.33
7 6.5 3.5 1.86
8 6 2.5 1.5
9 5.5 1.5 1.22
10 5 0.5 1
11 4.5 -0.5 0.82
12 4 -1.5 0.67
13 3.5 -2.5 0.54

6.1.4 एकाधिकारी फर्म का अल्पकालीन संतुलन

पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में हम एकाधिकारी फर्म को अधिकतम लाभ कमाने वाले फर्म के रूप में देखते हैं। इस खंड में हम अधिकतम लाभ कमाने के इस व्यवहार का विश्लेषण एकाधिकारी फर्म के द्वारा उत्पादन की मात्रा और कीमत जिस पर उसकी बिक्री की जाती है, को निर्धारण करने के लिए करते हैं। हम मान लेंगे कि एक फर्म उत्पादित वस्तु की मात्रा के भंडार को कायम नहीं रखता है और समस्त उत्पादित मात्रा को बिक्री के लिए प्रस्तुत करता है।

शून्य लागत की सामान्य स्थिति

मान लीजिए कि कोई गाँव अन्य गाँवों से काफी दूरी पर अवस्थित है। इस गाँव में एक ही कुआँ है जिसमें पानी उपलब्ध होता है। सभी निवासी जल की आवश्यकता के लिए पूर्ण रूप से इसी कुएँ पर निर्भर हैं। कुएँ का स्वामी एक एेसा व्यक्ति है जो अन्य लोगों को कुएँ से जल निकालने के लिए रोकने में समर्थ है सिवाय इसके कि कोई जल का क्रय करे। इस कुएँ से जल का क्रय करने वाले स्वयं ही जल निकालते हैं। हम इस एकाधिकारी की स्थिति का विश्लेषण विक्रय जहाँ लागत शून्य है इस जल का परिमाण और उसकी कीमत जिस पर बेची जाती है, का निर्धारण करने के लिए करेंगे।

शून्य लागत के साथ एकाधिकारी का अल्पकालीन संतुलनः निर्गत के जिस स्तर के लिए कुल संप्राप्ति अधिकतम होती है, उस स्तर पर एकाधिकारी का लाभ अधिकतम होता है।

रेखाचित्र 6.6 में रेखाचित्र 6.2 के समान ही कुल संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति और सीमांत संप्राप्ति वक्र को दर्शाया गया है। फर्म के द्वारा प्राप्त लाभ, फर्म द्वारा प्राप्त संप्राप्ति से उपगत लागत को घटाने पर प्राप्त संप्राप्ति के बराबर होता है। अर्थात् लाभ = कुल संप्राप्ति - कुल लागत; चूँकि इस स्थिति में कुल लागत शून्य है, जब कुल संप्राप्ति सर्वाधिक है। लाभ सर्वाधिक है तो जैसा कि हमने पहले देखा है कि यह स्थिति तब होती है, जब निर्गत 10 इकाइयाँ हों। यह स्तर तब प्राप्त होता है जब सीमांत संप्राप्ति शून्य के बराबर होता है। लाभ का परिमाण 'a' से समस्तरीय अक्ष तक के उर्ध्वाधर रेखाखंड की लंबाई के द्वारा निर्दिष्ट है।

जिस कीमत पर निर्गत का विक्रय होगा उपभोक्ता समग्र रूप से उसी कीमत का भुगतान करेगा। इसे बाज़ार माँग वक्र D द्वारा दिया गया है। 10 इकाई के निर्गत के स्तर पर कीमत 5 रु॰ है। चूँकि एकाधिकारी फर्म के लिए बाज़ार माँग वक्र ही सीमांत संप्राप्ति वक्र है, इसलिए फर्म के द्वारा प्राप्त औसत संप्राप्ति 5 रु॰ है। कुल संप्राप्ति को औसत संप्राप्ति और बिक्री मात्रा के गुणनफल अर्थात् 5 रु॰ × 10 इकाइयाँ = 50 रु॰ के द्वारा प्रदत्त है। यह छायांकित आयत के द्वारा चित्रित है।

पूर्ण प्रतिस्पर्धा के साथ तुलना

उपर्युक्त परिणाम की तुलना हम उस परिणाम से करेंगे, जो पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार संरचना में प्राप्त होगा। कल्पना कीजिए कि इस प्रकार के अनगिनत कुएँ हैं। उपरोक्त निष्कर्ष को हम उस निष्कर्ष से तुलना करते हैं जो एक पूर्णतया स्पर्धात्मक बाज़ार संरचना के अंतर्गत होता। हम यह मान लेते हैं कि एेसे कुओं की एक विशाल संख्या है। मान लीजिये कि एक कुएं का स्वामी (रु. 5 प्रति पानी बाल्टी वसूलने का निणर्य लेता है। उससे पानी कौन खरीदेगा? ध्यान रखिये कुओं के अनेकों स्वामी है। कोई भी दूसरे कुएं का स्वामी, रु. 5 प्रति बाल्टी पानी खरीदने वाले सभी क्रेताओं को, कम कीमत पर पानी बेच कर, रु. 4 प्रति बाल्टी पर, अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। कोई और दूसरा कुँए के स्वामी, इससे भी कम कीमत पर पानी बेचने को तैयार हो सकता है और कहानी इसी प्रकार आगे दोहराती रहेगी। वास्तव में कुओं के स्वामियों के मध्य प्रतियोगिता, कीमत को शून्य तक कम कर देगी। इस कीमत पर 20 बाल्टी पानी की बिक्री होगी।

इस तुलना के माध्यम से हम देख सकते हैं कि पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक संतुलन के परिणामस्वरूप कम कीमत पर अधिक मात्रा का विक्रय होता है। अब हम उत्पादन की धनात्मक लागत वाले आम उदाहरण पर विचार कर सकते हैं।

धनात्मक लागत का परिचय

कुल लागत के प्रयोग द्वारा विश्लेषण

अध्याय 3 में हमने लागत की संकल्पना पर चर्चा की है तथा रेखाचित्र 6.7 में कुल लागत वक्र की आकृति को कुल लागत के द्वारा चित्रित किया गया है। इस आरेख में कुल संप्राप्ति वक्र को भी दर्शाया गया है। कुल संप्राप्ति से कुल लागत को घटाने पर शेष राशि फर्म का लाभ है। रेखाचित्र में हम देख सकते हैं जब मात्रा q1 का उत्पादन होता है तो कुल संप्राप्ति1 और कुल लागत1 है। अतः अन्तर कुल संप्राप्ति1-कुल लागत1 फर्म द्वारा प्राप्त लाभ है। इसे रेखाखंड AB की लम्बाई अर्थात् निर्गत के q1 स्तर पर कुल संप्राप्ति और कुल लागत वक्रों के बीच की उर्ध्वाधर दूरी से दर्शाया गया है। स्पष्ट है कि यह उर्ध्वाधर दूरी निर्गत के विभिन्न स्तरों के लिए बदलती रहती है। जब निर्गत स्तर q2 से कम हो तो कुल लागत वक्र कुल संप्राप्ति वक्र से ऊपर स्थित होगा अर्थात् कुल लागत कुल संप्राप्ति से अधिक होगी। अतः लाभ ऋणात्मक होता है और फर्म को घाटा होता है।

कुल लागत के पदों में एकाधिकारी का संतुलनः एकाधिकारी का लाभ निर्गत के उस स्तर पर अधिकतम होता है, जिस पर कुल संप्राप्ति और कुल लागत के बीच उर्ध्वाधर दूरी अधिकतम होती है और कुल संप्राप्ति वक्र कुल लागत के ऊपर अवस्थित होता है।

यही स्थिति q3 से अधिक निर्गत स्तर के लिए भी विद्यमान रहती है। अतः फर्म केवल q2 और q3 के बीच के निर्गत स्तर पर ही धनात्मक लाभ प्राप्त करता है। जहाँ कुल संप्राप्ति वक्र कुल लागत वक्र के ऊपर अवस्थित होता है। एकाधिकारी फर्म निर्गत के उस स्तर का चयन करेंगे, जिस पर उसका लाभ अधिकतम होगा। यह निर्गत का वह स्तर होगा जिसके लिए कुल संप्राप्ति और कुल लागत के बीच उर्ध्वाधर दूरी अधिकतम होगी तथा कुल संप्राप्ति वक्र कुल लागत वक्र के ऊपर अवस्थित होगा, अर्थात् कुुल संप्राप्ति - कुल लागत अधिकतम है। एेसा निर्गत q0 के स्तर पर होता है। यदि कुल संप्राप्ति - कुल लागत के अन्तर की गणना की जाए और एक ग्रा.फ के रूप में इसे दर्शाया जाय तो यह रेखाचित्र 6.7 में अंकित लाभ के जैसा होगा। ध्यातव्य है कि निर्गत स्तर q0 पर लाभ वक्र का मूल्य अधिकतम है।

जिस कीमत पर इस निर्गत का विक्रय किया जाता है, उपभोक्ता वस्तु की इस q0 मात्रा के लिए उस कीमत को अदा करने के इच्छुक होते हैं। अतएव, एकाधिकारी फर्म माँग वक्र पर संबंधित मात्रा स्तर q0 पर कीमत का निर्धारण करेगी।


औसत और सीमांत वक्र के प्रयोग द्वारा

उपर्युक्त विश्लेषण को औसत एवं सीमांत संप्राप्ति और औसत तथा सीमांत लागत के प्रयोग द्वारा भी विश्लेषित किया जा सकता है। यद्यपि यह विधि थोड़ी जटिल है, किन्तु इससे प्रक्रम को अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत किया जा सकता है।

रेखाचित्र 6.8 में औसत लागत, तथा सीमांत लागत वक्र को माँग (औसत संप्राप्ति) वक्र तथा सीमांत संप्राप्ति वक्र के साथ दर्शाया गया है।

द्रष्टव्य है कि q0 के नीचे निर्गत स्तर पर सीमांत संप्राप्ति स्तर सीमांत लागत स्तर से ऊँचा है। तात्पर्य यह है कि वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के विक्रय से प्राप्त कुल संप्राप्ति में वृद्धि उस अतिरिक्त इकाई की उत्पादन लागत में वृद्धि से अधिक होती है। इसका अर्थ यह है कि निर्गत की एक अतिरिक्त इकाई से अतिरिक्त लाभ का सृजन होगा। चूँकि लाभ में परिवर्तन = कुल संप्राप्ति में परिवर्तन - कुल लागत में परिवर्तन। अतः यदि फर्म q0 से कम स्तर पर निर्गत का उत्पादन कर रही है, तो वह अपने निर्गत में वृद्धि लाना चाहेगी क्योंकि इससे उसके लाभ में बढ़ोत्तरी होगी। जब तक सीमांत संप्राप्ति वक्र सीमांत लागत वक्र के ऊपर अवस्थित है, तब तक उपर्युक्त तर्क का अनुप्रयोग होगा। अतः फर्म अपने निर्गत में वृद्धि करेगी। इस प्रक्रम में तब रुकावट आयेगी, जब निर्गत का स्तर q0 पर पहुँचेगा, क्योंकि इस स्तर पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत समान होंगे और निर्गत में वृद्धि से लाभ में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होगी।

औसत और सीमांत वक्र के पदों में एकाधिकारी का संतुलनः एकाधिकारी का लाभ निर्गत के उस स्तर पर अधिकतम होता है जिसके लिए सीमांत संप्राप्ति = सीमांत लागत तथा सीमांत लागत में वृद्धि हो रही है।

दूसरी ओर, यदि फर्म q0 से अधिक मात्रा में निर्गत का उत्पादन करती है तो सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि निर्गत की एक इकाई कम करने से कुल लागत में जो कमी होती है, वह इस कमी के कारण कुल संप्राप्ति में हुई हानि से अधिक होती है। अतः फर्म के लिए यह उपयुक्त है कि वह निर्गत में कमी लाए। यह तर्क तब तक समीचीन होगा जब तक सीमांत लागत वक्र सीमांत संप्राप्ति वक्र के ऊपर अवस्थित होगा और फर्म अपने निर्गत में कमी को जारी रखेगी। एक बार निर्गत स्तर के q0 पर पहुँचने पर सीमांत लागत और सीमांत संप्राप्ति के मूल्य समान हो जाएँगे और फर्म अपने निर्गत में कमी को रोक देगी।

q0 पर फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त करेगी। इसको q0 से परिवर्तन करने का कोई प्रोत्साहन नहीं है। इस स्तर को निर्गत का संतुलन स्तर कहते हैं। चूँकि निर्गत का यह संतुलन स्तर उस बिन्दु के संगत होता है जहाँ सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत के बराबर होती है। इस समानता को एकाधिकारी फर्म द्वारा उत्पादित निर्गत के लिए संतुलन की शर्त कहते हैं।

q0 निर्गत के संतुलन स्तर पर, औसत लागत बिंदु 'd' द्वारा दी गई है, जहाँ उर्ध्वाधर रेखा q0 से औसत लागत वक्र को काटती है। अतः औसत लागत को dq0 के ऊँचाई पर दर्शाया गया है। चूँकि कुल लागत, औसत लागत और उत्पादित मात्रा q0 के गुणनफल के बराबर होती है, इसीलिए इसे आयत Oq0dc के द्वारा दर्शाया गया है।

जैसा कि पहले दर्शाया गया है कि एक बार उत्पादित निर्गत के मात्रा का निर्धारण होने पर, जिस कीमत पर निर्गत का विक्रय होता है, वह उस परिमाण से निर्धारित होती है जिसका उपभोक्ता भुगतान करना चाहता है। इसे बाज़ार माँग वक्र के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। अतः कीमत बिन्दु a से दर्शायी गई है, जहाँ q0 से होकर उर्ध्वाधर रेखा बाज़ार माँग वक्र d से मिलती है। इससे aq0 की ऊँचाई द्वारा दर्शायी गई कीमत प्राप्त होती है। चूँकि फर्म द्वारा प्राप्त कीमत निर्गत की प्रति इकाई संप्राप्ति होती है, अतः यह फर्म के लिए औसत संप्राप्ति है। कुल संप्राप्ति, औसत संप्रप्ति और निर्गत q0 के स्तर का गुणनफल होती है, इसलिए इसे आयत Oq0ab के क्षेत्रफल के रूप में दर्शाया गया है।

आरेख से स्पष्ट है कि आयत Oq0ab का क्षेत्रफल आयत Oq0dc के क्षेत्रफल से बड़ा है अर्थात कुल संप्राप्ति कुल लागत से अधिक है। आयत cdab का क्षेत्रफल इनके बीच का अन्तर है अतः लाभ = कुल संप्राप्ति - कुल लागत को cdab के क्षेत्रफल से प्रदर्शित किया जा सकता है।



पुनः पूर्ण प्रतिस्पर्धा से तुलना

अब हम एकाधिकारी फर्म की संतुलन मात्रा और कीमत की तुलना पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म की संतुलन मात्रा और कीमत से करें। याद रहे कि पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म कीमत स्वीकारकर्ता होती है। यदि बाज़ार कीमत दी हुई हो तो पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार संरचना में फर्म यह विश्वास करती है कि वह निर्गत की मात्रा का अधिक या कम उत्पादन करके कीमत को नहीं बदल सकती है। मान लीजिए कि ऊपर हमने जिस फर्म के संबंध में विचार किया है, वह विश्वास करती है कि वह पूर्णतः प्रतिस्पर्धी फर्म है। दिए गए निर्गत स्तर q0 और वस्तु की कीमत aq0 = Ob पर वह कीमत के Ob पर स्थिर रहने की अपेक्षा करेगा और इस प्रकार वह निर्गत की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई को उसी कीमत पर बेचना चाहेगी। चूँकि एक अतिरिक्त इकाई की उत्पादन लागत जो कि सीमांत लागत भी है, eq0 द्वारा प्रदर्शित है, जो कि aq0 से कम है। फर्म पुनः यह विश्वास करती है कि अधिक मात्रा में निर्गत का उत्पादन करने से उसके लाभ में वृद्धि होगी। यह तब तक चलता रहेगा जब तक कीमत सीमांत लागत से अधिक रहेगी। रेखाचित्र 6.8 में बिन्दु f पर जहाँ पर सीमांत लागत वक्र माँग वक्र को काटता है, फर्म द्वारा प्राप्त कीमत सीमांत लागत के बराबर हो जाती है। अतः अब यह पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म द्वारा नहीं माना जाता है कि निर्गत में वृद्धि के लिए यह स्थिति लाभकारी होगी। इसका कारण यह है कि कीमत = सीमांत लागत को पूर्णतः प्रतिस्पर्धी फर्म के लिए संतुलन की शर्त के रूप में माना जाता है।

आरेख से प्रदर्शित होता है कि निर्गत के इस स्तर पर उत्पादित मात्रा qc,q0 से ज़्यादा है। उपभोक्ता द्वारा अदा की गई कीमत भी pc पर न्यून होगी। इससे निष्कर्ष निकलता है कि पूर्णतः प्रतिस्पर्धी बाज़ार एकाधिकारी फर्म की तुलना में वस्तु की अत्यधिक मात्रा में उत्पादन और बिक्री प्रदान करता है। पूर्ण प्रतिस्पर्धा में वस्तु की कीमत एकाधिकार की तुलना में न्यून होती है तथा इसमें फर्म द्वारा प्राप्त लाभ भी एकाधिकार की तुलना में कम होता है।

दीर्घकाल में

अध्याय - 5 में, हमने देखा कि निर्बाध प्रवेश और बहिर्गमन के साथ पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म शून्य लाभ प्राप्त करती है। उसका कारण यह था कि यदि फर्म के द्वारा अर्जित लाभ धनात्मक है, बाज़ार में अधिक से अधिक फर्म प्रवेश करेगी और निर्गत में वृद्धि होगी जिससे कीमत घट जायेगी। और इससे विद्यमान फर्म के उपार्जन में ह्रास होने लगेगा। उसी तरह यदि फर्म घाटे की स्थिति में हो तो कुछ फर्म उत्पादन बंद कर देंगी और निर्गत में गिरावट आएगी, जिससे कीमत में वृद्धि होगी और मौजूद फर्म के उपार्जन में बढ़ोतरी होगी। एकाधिकारी फर्म के लिए एेसी स्थिति नहीं होती है। चूँकि अन्य फर्मों के बाज़ार में प्रवेश पर प्रतिबंध रहता है इसीलिए एकाधिकारी फर्म का उपार्जन दीर्घकाल तक बना रहता है।

कुछ आलोचनात्मक मत

हम देख चुके हैं कि एक एकाधिकारी विशिष्ट रूप से, एक स्पर्धात्मक फर्म के अपेक्षा अधिक कीमत वसूलता है। इस अर्थ में एकाधिकारों को बहुधा शोषणकारी समझा जाता है।

यद्यपि एकाधिकार के संबंध में अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं। प्रथम, यह तर्क दिया जाता है कि ऊपर जिस प्रकार के एकाधिकार की व्याख्या की गई है, वह वास्तविक जगत में नहीं पाया जाता है। क्योंकि हर वस्तु का कोई न कोई स्थानापन्न होता ही है। एेसा इसीलिए होता है, चूँकि अंतिम विश्लेषण में आय की प्राप्ति के लिए सभी वस्तु उत्पादक फर्मों की प्रतिस्पर्धा उपभोक्ताओं पर ही निर्भर करती है।

दूसरा तर्क यह है कि शुद्ध एकाधिकार की स्थिति में भी फर्मों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। इसका कारण यह है कि अर्थव्यवस्था कभी स्थिर नहीं होती। इसमें नयी वस्तुओं तथा तकनीकों का आगमन सतत जारी रहता है जो कि एकाधिकारी फर्म द्वारा उत्पादित वस्तुओं का निकट स्थानापन्न होती है। अतः दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म हमेशा प्रतिस्पर्धा की स्थिति में होती है। अल्पकाल में भी प्रतिस्पर्धा की चिन्ता बनी रहती है और एकाधिकारी फर्म उस तरह से व्यवहार नहीं कर पाती है जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है।

एक अन्य मत के अनुसार, एकाधिकार का अस्तित्व समाज के लिए लाभकारी होगा। चूँकि एकाधिकारी फर्म अत्यधिक लाभ अर्जित करती है, इसीलिए उनके पास अनुसंधान और विकास कार्य के लिए पर्याप्त निधि होती है। किन्तु पूर्ण प्रतिस्पर्धी फर्म इस कार्य को पूरा करने में असमर्थ होती है। इस प्रकार अनुसंधान करके एकाधिकारी फर्म वस्तुओं का उत्पादन अच्छी गुणवत्ता अथवा कम कीमत पर या दोनों कर पाती है।

6.2 अन्य पूर्ण प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

6.2.1 एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा

अब हम एक एेसी बाज़ार संरचना पर विचार करें, जिसमें फर्मों की संख्या काफी अधिक होती है और फर्मों का निर्बाध प्रवेश और बहिर्गमन होता है, किन्तु उनके द्वारा उत्पादित वस्तु सजातीय नहीं होती हैं। एेसी बाज़ार संरचना को एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा कहते हैं।

इस प्रकार की संरचना आमतौर पर देखने को मिलती है। बिस्कुट का उत्पादन करने वाले अनेक फर्म इसके उदाहरण हैं। किन्तु कई बिस्कुट कुछ ब्रांड नाम से जुड़े हैं और इस ब्रांड नाम और पैकेजिंग के कारण ये एक-दूसरे से भिन्न हैं। इनके स्वाद में भी थोड़ा अंतर होता है। धीरे-धीरे उपभोक्ता को एक विशेष ब्रांड वाले बिस्कुट खाने की आदत पड़ जाती है अथवा किसी कारण से वे इसके प्रति निष्ठावान हो जाते हैं। अतः वे इस विशेष ब्रांड के बिस्कुट को दूसरे बिस्कुट से स्थानापन्न करने के लिए जल्द इच्छुक नहीं होते हैं। किन्तु यदि कीमत में अन्तर अधिक हो तो उपभोक्ता दूसरे ब्रांड वाले बिस्कुट का चयन करना चाहेंगे। एक उपभोक्ता की किसी ब्रांड के प्रति अधिमान की गहराई अलग-अलग होती है, इसलिए अपने ब्रांड को बदलने के लिये कीमत में परविर्तन भी अलग-अलग होंगे। अतः यदि किसी विशेष ब्रांड की कीमत कम हो तो उपभोक्ता उस ब्रांड का उपयोग करने के लिए उसकी ओर शिफ्ट होंगे। पुनः कीमत कम करने से अधिक-से-अधिक उपभोक्ताओं का कम कीमत वाली ब्रांड की ओर स्थानान्तरण होगा।

याद कीजिये कि एक फर्म का माँग वक्र, उसका TR वक्र भी होता है। इसलिये इस फर्म TR वक्र नीचे की ओर ढलवां होता है। सीमान्त संप्राप्ती औसत संप्राप्ती से कम होती है और नीचे की ओर ढलवां भी होती है। इस फर्म का संतुलन कैसा दिखाई देगा? एक एकधिकारी प्रतिस्पर्धा, लाभ अधिकतमी भी होती है। इसलिये यह अपना उत्पादन तक बढ़ायेगी, तब तक इसकी कुल संपत्ति में वृद्धि इसकी कुल लागतों में वृद्धि से अधिक है। अन्य शब्दों में, यह फर्म (जैसा कि पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म तथा एकाधिकार दोनों में) वह मात्रा उत्पन्न करना पसंद करेगा जिस पर इसकी सीमान्त संप्राप्ती, इस के सीमांत लागत के बराबर हो जाये। यह मात्रा, एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म की मात्रा से किस प्रकार मेल खाती है? याद कीजिये, एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म की सीमांत संप्राप्ती, इस के AR के बराबर होती है। इसलिये एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म, एक एेसी ही समान स्थिति में, अपनी AR को MC के बराबर कर लेगी। अतः एकाधिकार प्रतिस्पर्धा के अंतर्गत, एक फर्म, एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म की तुलना में कम उत्पादन करेगा। इसीलिए दिए हुए निम्न निर्गत स्तर पर वस्तु की कीमत पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में ऊँची होगी।

ऊपर वर्णित स्थिति अल्पकाल में विद्यमान रहती है। किन्तु एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा की बाज़ार संरचना में नये फर्मों का निर्बाध रूप से प्रवेश होता है। यदि उद्योग में फर्म अल्पकाल में धनात्मक लाभ प्राप्त कर रहा हो, तो इससे नये फर्म आकर्षित होंगे (बाज़ार में प्रवेश के लिए)। जैसे ही नई फर्में प्रवेश करती हैं, कुछ ग्राहक वर्तमान फर्मों से नई फर्मों मेें शिफ्ट हो जाते हैं। वर्तमान फर्मों को पता लगता है कि उनका मांगवक्र बायें ओर को शिफ्ट हो गया है और कीमत जो वे प्राप्त करती हैं, गिर जाती है। इससे लाभ भी कम हो जाता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक अति-सामान्य लाभ समाप्त न हो जायें और फर्म सामान्य लाभ कमाने लगें। विलोमतः यदि अल्पकाल में उद्योग में फर्मों को घाटा हो रहा हो, तो कुछ फर्म उत्पादन बंद कर देंगी (बाज़ार से बहिर्गमन)। वर्तमान फर्मों का माँग वक्र, दायें ओर को शिफ्ट कर जायेगा। इससे कीमत और लाभ में वृद्धि होगी। एक बार अति-सामान्य लाभ शून्य होने के बाद प्रवेश और बहिर्गमन रुक जाएगा तथा इससे दीर्घकाल में संतुलन प्राप्त होगा।

6.2.2 अल्पाधिकार में फर्म कैसे व्यवहार करती हैं?

यदि किसी वस्तु विशेष के बाज़ार में एक से अधिक विक्रेता हों, किन्तु विक्रेताओं की संख्या अत्यल्प हों तो उस बाज़ार संरचना को अल्पाधिकार कहते हैं। अल्पाधिकार की एक विशेष स्थिति जिसमें केवल दो विक्रेता होते हैं उसे द्वि-अधिकार कहते हैं। इस बाज़ार संरचना के विश्लेषण में हम मान लेते हैं कि दोनों फर्मों द्वारा बेचे गए उत्पाद सजातीय हैं और किसी दूसरे फर्म द्वारा उस उत्पाद के स्थानापन्न उत्पाद का उत्पादन नहीं किया जाता है।

मान लीजिये कि बाज़ार में कुछ फर्म हैं। प्रत्येक फर्म, बाज़ार के आकार की तुलना में सापेक्षतः बड़ी है। फलस्वरूप, प्रत्येक फर्म, बाज़ार में कुल पूर्ति को प्रभावित करने की स्थिति में होती है और इस प्रकार से बाज़ार कीमत को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिये, यदि द्वि-अधिकार के अन्तर्गत दो फर्म आकार में समान हैं और उनमें से एक अपने उत्पादन को दोगुना करने का निर्णय लेती है, बाजार में कुल पूर्ति में भारी वृद्धि होगी, और कीमत गिर जायेगी। कीमत की यह कमी उद्योग की सभी फर्माें के लाभों को प्रभावित करती है। कितना उत्पादन किया जाये के संबंध में नवीन निर्णय लेकर, अन्य फर्में अपने लाभों की सुरक्षा के लिए, इस कदम की अनुक्रिया करेंगी। इसलिये, उद्योग में उत्पादन का स्तर, कीमतों का स्तर और लाभ, इसका परिणाम हैं कि फर्में किस प्रकार एक दूसरे से अंतप्रक्रिया कर रही है।

एक पराकाष्ठा के रूप में, फर्म अपने सामूहिक लाभों को अधिकतम करने के लिए, एक दूसरे के साथ ‘सांठ-गांठ’ करने का निणर्य ले सकती हैं। एेसी अवस्था में, फर्में एक ‘कार्टेल’ बना लेती हैं जो एक एकाधिकारी की भांति काम करता है। उद्योग द्वारा सामूहिक पूर्ति की मात्रा और उसकी कीमत वही होती हैं जो एक अकेले एकाधिकारी द्वारा की जाती है।

दूसरी पराकाष्ठा के रूप में, फर्में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने का निर्णय ले सकती हैं। उदाहरणार्थ, उनके ग्राहकों को आकृषित करने के लिये, एक फर्म अपनी कीमत को अन्य फर्मों से थोड़ा कम कर दे। स्पष्टतया, दूसरी फर्में भी एेसा ही कर के प्रतिकार करेंगी। इस प्रकार बाज़ार कीमत गिरती रहती है, जब तक फर्में एक दूसरे की कीमतों को ‘अंडरकट’ करती हैं। यदि यह प्रक्रिया अपने तर्कसंगत निष्कर्ष तक चलती है, तो कीमत, सीमांत लागत तक गिर सकती है (कोई भी फर्म, सीमांत लागत से कम पर पूर्ति नहीं करेंगी)। याद कीजिये, कि यह वही है जैसी पूर्णतया प्रतिस्पर्धात्मक कीमत।

व्यवहार में, इस प्रकार का सहयोग जो एकाधिकार जैसे परिणाम सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है, वास्तविक जगत में प्राप्त करना बहुत कठिन है। दूसरी तरफ, फर्में यह महसूस करने लगती हैं कि लगातार कीमतों के भारी प्रतिस्पर्धा द्वारा ‘अंडरकट’ करना उनके अपने हितों के लिये हानिकारक है। अतः अल्पाधिकारी संतुलन ‘एकाधिकार’ एवं पूर्ण स्पर्धा की दो सीमाओं के बीच कहीं होगा।

6.3 सारांश

• जिस बाज़ार संरचना में केवल एक विक्रेता होता है उसे एकाधिकार कहते हैं।

• यदि वस्तु का एक ही विक्रेता हो, वस्तु का कोई स्थानापन्न नहीं हो तथा उद्योग में अन्य फर्मों का प्रवेश वर्जित हो तो उस वस्तु बाज़ार की संरचना एकाधिकार कहलाता है।

• वस्तु की बाज़ार कीमत एकाधिकार फर्म की पूर्ति की मात्रा पर निर्भर करती है। एकाधिकार फर्म के लिए बाज़ार माँग वक्र ही औसत संप्राप्ति वक्र कहलाती है।

• कुल संप्राप्ति वक्र का आकार औसत संप्राप्ति वक्र के आकार पर निर्भर करता है। ऋणात्मक प्रवणता वाली सरल रेखीय माँग वक्र की स्थिति में कुल संप्राप्ति वक्र प्रतिलोमित उर्ध्वाधर परवलय के रूप में होता है।

• किसी भी मात्रा स्तर के लिए औसत संप्राप्ति की माप कुल संप्राप्ति वक्र पर उद्गम से संबद्ध बिन्दु की ओर जाती हुई रेखा की प्रवणता से की जाती है।

• किसी भी मात्रा स्तर के लिए सीमांत संप्राप्ति की माप कुल संप्राप्ति वक्र पर अवस्थित संबद्ध बिन्दु की स्पर्शज्या की प्रवणता से की जाती है।

• यदि सीमांत संप्राप्ति का मूल्य औसत संप्राप्ति के मूल्य से कम हो तो औसत संप्राप्ति वक्र नीचे की ओर होती है।

• ऋणात्मक प्रवणता वाला माँग वक्र अति प्रवण होता है और यह सीमांत संप्राप्ति वक्र के नीचे होता है। माँग वक्र तब लोचदार होता है, जब सीमांत संप्राप्ति का मूल्य धनात्मक होता है और यह तब लोचहीन होता है जब सीमांत संप्राप्ति का मूल्य ऋणात्मक होता है।

• यदि एकाधिकारी फर्म की लागत शून्य हो अथवा केवल स्थिर लागत हो तो संतुलन में पूर्ति की मात्रा को उस बिन्दु द्वारा दर्शाया जाता है, जिस पर सीमांत संप्राप्ति शून्य होती है। इसके विपरीत पूर्ण प्रतिस्पर्धा में संतुलन की मात्रा उस बिन्दु द्वारा दर्शाया जाता है, जिस पर औसत संप्राप्ति शून्य होता है।

• एकाधिकार के संतुलन को उस बिन्दु से परिभाषित किया जाता है जिस पर सीमांत संप्राप्ति = सीमांत लागत और सीमांत लागत वृद्धि की स्थिति में होती है। यह बिन्दु उत्पादन की संतुलन मात्रा को बताती है। दी हुई संतुलन मात्रा से माँग वक्र के द्वारा संतुलन कीमत को दर्शाया जाता है।

• एकाधिकारी फर्म का धनात्मक लाभ दीर्घकाल में भी जारी रहता है।

• वस्तु बाज़ार में एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा असजातीय वस्तु के कारण उत्पन्न होती है।

• एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में अल्पकालीन संतुलन के परिणामस्वरूप पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में उत्पादन की मात्रा कम होती है और कीमत अधिक होती है। यह स्थिति दीर्घकाल में भी यथावत रहती है, लेकिन दीर्घकाल में लाभ शून्य होता है।

• वस्तु बाज़ार में अल्पाधिकार की स्थिति तब होती है, जब सजातीय वस्तु के उत्पादक फर्मों की संख्या अल्प होती है।


6.4 मूल संकल्पनाएँ

एकाधिकार

एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा

अल्पाधिकार

6.5 अभ्यास

1. माँग वक्र का आकार क्या होगा ताकि कुल संप्राप्ति वक्र

(a) a मूल बिंदु से होकर गुजरती हुई धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो।

(b) a समस्तरीय रेखा हो।

2. नीचे दी गई सारणी से कुल संप्राप्ति माँग वक्र और माँग की कीमत लोच की गणना कीजिए।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9

सीमांत संप्राप्ति 10 6 2 2 2 0 0 0 -5

3. जब माँग वक्र लोचदार हो तो सीमांत संप्राप्ति का मूल्य क्या होगा?

4. एक एकाधिकारी फर्म की कुल स्थिर लागत 100 रु॰ और निम्नलिखित माँग सारणी हैः

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10

कीमत 100 90 80 70 60 50 40 30 20 10

अल्पकाल में संतुलन मात्रा, कीमत और कुल लाभ प्राप्त कीजिए। दीर्घकाल में संतुलन क्या होगा? जब कुल लागत 1,000 रु॰ हो, तो अल्पकाल और दीर्घकाल में संतुलन का वर्णन करें।

5. यदि अभ्यास 3 का एकाधिकारी फर्म सार्वजनिक क्षेत्र का फर्म हो, तो सरकार इसके प्रबंधक के लिए दी हुई सरकारी स्थिर कीमत (अर्थात् वह कीमत स्वीकारकर्ता है और इसलिए पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार के फर्म जैसा व्यवहार करता है) स्वीकार करने के लिए नियम बनाएगी और सरकार यह निर्धारित करेगी कि एेसी कीमत निर्धारित हो, जिससे बाज़ार में माँग और पूर्ति समान हो। उस स्थिति में संतुलन कीमत, मात्रा और लाभ क्या होंगे?

6. उस स्थिति में सीमांत संप्राप्ति वक्र के आकार पर टिप्पणी कीजिए, जिसमें कुल संप्राप्ति वक्र 

(i) धनात्मक प्रवणता वाली सरल रेखा हो (ii) समस्तरीय सरल रेखा हो।

7. नीचे सारणी में वस्तु की बाज़ार माँग वक्र और वस्तु उत्पादक एकाधिकारी फर्म के लिए कुल लागत दी हुई है। इनका उपयोग करके निम्नलिखित की गणना करेंः

मात्रा 0 1 2 3 4 5 6 7 8

कीमत 52 44 37 31 26 22 19 16 13

मात्रा 0 1 2 3 4 5 6 7 8

कुल लागत 10 60 90 100 102 105 109 115 125

(a) सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत सारणी

(b) वह मात्रा जिसपर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत बराबर है

(c) निर्गत की संतुलन मात्रा और वस्तु की संतुलन कीमत

(d) संतुलन में कुल संप्राप्ति, कुल लागत और कुल लाभ

8. निर्गत के उत्तम अल्पकाल में यदि घाटा हो, तो क्या अल्पकाल में एकाधिकारी फर्म उत्पादन को जारी रखेगी?

9. एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में किसी फर्म की माँग वक्र की प्रवणता ऋणात्मक क्यों होती है? व्याख्या कीजिए।

10. एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में दीर्घकाल के लिए किसी फर्म का संतुलन शून्य लाभ पर होने का क्या कारण है?

11. तीन विभिन्न विधियों की सूची बनाइए, जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकता है।

12. यदि द्वि-अधिकारी का व्यवहार कुर्नोट के द्वारा वर्णित व्यवहार के जैसा हो, तो बाज़ार माँग वक्र को समीकरण q = 200 4p द्वारा दर्शाया जाता है तथा दोनों फर्मों की लागत शून्य होती है। प्रत्येक फर्म के द्वारा संतुलन और संतुलन बाज़ार कीमत में उत्पादन की मात्रा ज्ञात कीजिए।

13. आय अनम्य कीमत का क्या अभिप्राय है? अल्पाधिकार के व्यवहार से इस प्रकार का निष्कर्ष कैसे निकल सकता है?