उसने पहली बार बस और रेलगा\ड़ी से यात्रा की और दिल्ली जैसे विशाल नगर को देखा। कुछ दिनों बाद उसी नगर ने, जिसने अपनी इमारतों, स\ड़कों, उन्नति के अवसरों और सुविधाओं तथा सुख-साधनों द्वारा उसे आकर्षित किया था, उसका मोह भंग कर दिया है।
नगर को अच्छी प्रकार देखने एवं समझने के बाद वह विरोधाभासों को समझने लगी, झुग्गी और गंदी बस्तियों के गुच्छ, ट्रै\फ़िक जाम, भी\ड़, अपराध, निर्धनता, ट्रैफिक लाइटों पर छोटे-छोटे बच्चों का भीख माँगना, फुटपाथ पर लोगों का सोना, प्रदूषित जल और वायु, विकास का दूसरा चेहरा उजागर करते हैं। वह सोचा करती थी क्या विकास और अल्प विकास में सहअस्तित्व पाया जाता है? क्या विकास जनसंख्या के कुछ खंडों को अन्य खंडों की अपेक्षा अधिक सहायता करता है? क्या विकास संपन्न और विपन्न पैदा करता है? आइए, इन विरोधाभासों का परीक्षण करें और परिघटनाओं को समझने का प्रयत्न करें।
इस कहानी में उल्लिखित हमारे समय के सभी विरोधाभासों में से विकास सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अल्पावधि में कुछ प्रदेशों और व्यक्तियों के लिए किया गया विकास ब\ड़े पैमाने पर पारिस्थितिक निम्नीकरण के साथ अनेक लोगों के लिए गरीबी और कुपोषण लाता है। क्या विकास वर्ग-पक्षपाती है?
प्रत्यक्ष रूप से एेसा माना जाता है कि ‘विकास स्वतंत्रता है’, जिसका संबंध प्रायः आधुनिकीकरण, अवकाश, सुविधा और समृद्धि से जु\ड़ा हुआ है। वर्तमान संदर्भ में कंप्यूटरीकरण, औद्योगीकरण, सक्षम परिवहन और संचार जाल बृहत् शिक्षा प्रणाली, उन्नत और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं, वैयक्तिक सुरक्षा इत्यादि को विकास का प्रतीक समझा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय एवं सरकार अपने निष्पादन तथा विकास स्तर को इन वस्तुओं की उपलब्धता तथा गम्यता के संदर्भ में मापते हैं। किंतु यह विकास का आंशिक और एकतर\फ़ा दृश्य हो सकता है। इसे प्रायः विकास का पश्चिम अथवा यूरोप-केंद्रित विचार कहा जाता है। भारत जैसे उत्तर उपनिवेशी देश के लिए उपनिवेशवाद, सीमांतीकरण सामाजिक भेदभाव और प्रादेशिक असमता इत्यादि विकास का दूसरा चेहरा दर्शाते हैं।
इस प्रकार, भारत के लिए विकास अवसरों के साथ-साथ उपेक्षाओं एवं वंचनाओं का मिला-जुला थैला है। यहाँ महानगरीय केंद्रों और अन्य विकसित अंतर्वेशों (इनक्लेव) जैसे कुछ क्षेत्र हैं जहाँ इनकी जनसंख्या के एक छोटे से खंड को आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। दूसरे छोर पर विशाल ग्रामीण क्षेत्र और नगरीय क्षेत्रों की गंदी बस्तियाँ हैं जिनमें पेयजल, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी आधारभूत सुविधाएँ और अवसंरचना इनकी अधिकांश जनसंख्या के लिए उपलब्ध नहीं है। यदि हमारे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच विकास के अवसरों का वितरण देखा जाए तो स्थिति और अधिक चिंताजनक प्रतीत होती है। यह एक सुस्थापित तथ्य है कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, भूमिहीन कृषि म\ज़दूरों, गरीब किसानों और गंदी बस्तियों में ब\ड़ी संख्या में रहने वाले लोगों इत्यादि का ब\ड़ा समूह सर्वाधिक हाशिए पर है। स्त्री जनसंख्या का ब\ड़ा खंड इन सबमें से सबसे \ज़्यादा कष्टभोगी है। यह भी समान रूप से सत्य है कि वर्षों से हो रहे विकास के बाद भी सीमांत वर्गों में से अधिकांश की सापेक्षिक के साथ-साथ निरपेक्ष दशाएँ भी बदतर हुई हैं। परिणामस्वरूप ब\ड़ी संख्या में लोग पतित निर्धनता पूर्ण और अवमानवीय दशाओं में जीने को विवश हैं।
विकास का एक अन्य अंतर संबंधित पक्ष भी है जिसका निम्नतर मानवीय दशाओं से सीधा संबंध है। इसका संबंध पर्यावरणीय प्रदूषण से है जो पारिस्थितिक संकट का कारक है। वायु, मृदा, जल और ध्वनि प्रदूषण न केवल ‘हमारे साझा संसाधनों की त्रासदी’ का कारण बने हैं अपितु हमारे समाज के अस्तित्व के लिए भी खतरा बन गए हैं। परिणामस्वरूप, निर्धनों में सामर्थ्य के गिरावट के लिए तीन अंतर्संबंधित प्रक्रियाएँ कार्यरत हैं– (क) सामाजिक सामर्थ्य में कमी विस्थापन और दुर्बल होते सामाजिक बंधनों के कारण (ख) पर्यावरणीय सामर्थ्य में कभी प्रदूषण के कारण, और (ग) व्यक्तिगत सामर्थ्य में कभी ब\ढ़ती बीमारियों और दुर्घटनाओं के कारण। अंततः उनके जीवन की गुणवत्ता और मानव विकास पर इसका प्रतिकूल प्रभाव प\ड़ता है।
उपर्युक्त अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान विकास सामाजिक अन्याय, प्रादेशिक असंतुलन और पर्यावरणीय निम्नीकरण के मुद्दों के साथ स्वयं को जो\ड़ नहीं पाया है। इसके विपरीत इसे व्यापक रूप से सामाजिक वितरक अन्यायों, जीवन की गुणवत्ता और मानव विकास में गिरावट, पारिस्थितिक संकट और सामाजिक अशांति का कारण माना जा रहा है।
इस प्रकार लोगों के विभिन्न प्रकार के विकल्पों की श्रेणी में विस्तार मानव विकास का सर्वाधिक सार्थक पक्ष है। लोगों के विकल्पों में अनेक प्रकार के अन्य मुद्दे हो सकते हैं, किंतु दीर्घ और स्वस्थ जीवन जीना, शिक्षित होना और राजनीतिक स्वतंत्रता, गारंटीकृत मानवाधिकारों और व्यक्तिगत आत्मसम्मान से युक्त शिष्ट जीवन स्तर के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुँच जैसे मानव विकास के कुछ मुद्दों के साथ समझौता नहीं किया जा सकता।
क्या विकास इन संकटों की उत्पत्ति, प्रबलन और स्थिरीकरण करता है? इस प्रकार, यह सोचा गया कि मानव विकास के मुद्दे को विकास की प्रचलित पश्चिमी धारणा, जो मानव विकास, प्रादेशिक विषमता और पर्यावरणीय संकट सहित सभी रोगों का उपचार मानती है, के विपरीत अलग से उठाया जाए।
पहले भी अनेक बार विकास को विवेचनात्मक ढंग से देखने के लिए सम्मिलित प्रयास किए गए। किंतु इस दिशा में सर्वाधिक व्यवस्थित प्रयास 1990 ई. में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा प्रथम मानव विकास रिपोर्ट का प्रकाशन है। तब से यह संस्था प्रतिवर्ष विश्व मानव विकास रिपोर्ट को प्रकाशित करती आ रही है। यह रिपोर्ट न केवल मानव विकास को परिभाषित करती है व इसके सूचकों में संशोधन और परिवर्तन लाती है अपितु परिकलित स्कोरों के आधार पर विश्व के देशों का कोटि-क्रम भी बनाती है। 1993 ई. की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, "प्रगामी लोकतंत्रीकरण और ब\ढ़ता लोक सशक्तीकरण मानव विकास की न्यूनतम दशाएँ हैं।" इसके अतिरिक्त यह, यह भी उल्लेख करता है कि "विकास लोगों को केंद्र में रखकर बुना जाना चाहिए न कि विकास को लोगों के बीच रखकर" जैसा कि पहले होता था।
आप ‘मानव भूगोल के मूलभूत सिद्धांत’ नामक अपनी पाठ्यपुस्तक में इन संकल्पनाओं, सूचकों और मानव विकास के उपागमों तथा सूचकांक के परिकलन की विधियों का पहले ही अध्ययन कर चुके हैं। आइए, इस अध्याय में हम भारत पर इन संकल्पनाओं और सूचकों के अनुप्रयोज्यता को समझें।
भारत में मानव विकास
120 करो\ड़ से अधिक जनसंख्या के साथ भारत मानव विकास सूचकांक के संदर्भ में विश्व के 189 देशों में 130 के कोटि क्रम पर है। HDI के संयुक्त मूल्य 0.640 के साथ भारत मध्यम मानव विकास दर्शाने वाले (UNDP 2017) देशों की श्रेणी में आता है। (तालिका में भारत की HDI के कुछ अन्य देशों के साथ तुलना की गई है।)
मानव विकास सूचकांक में निम्न स्कोर का होना गंभीर चिंता का विषय है, किंतु उपागम और राज्यों/देशों के सूचकांक मूल्यों के परिकलन के लिए चुने गए सूचकों और उनके कोटि क्रम निर्धारण पर कुछ आपत्तियाँ उठाई गई हैं। उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और नव-साम्राज्यवाद जैसे एेतिहासिक कारकों; मानवाधिकार उल्लंघन, प्रजाति, धर्म, लिंग और जाति के आधार पर सामाजिक भेदभाव जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक कारक; अपराध, आतंकवाद और युद्ध जैसी सामाजिक समस्याएँ और राज्य की प्रकृति, सरकार का स्वरूप (लोकतंत्र अथवा तानाशाही), सशक्तिकरण का स्तर जैसे राजनीतिक कारकों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव जैसे कुछ कारक हैं जो मानव विकास की प्रकृति के निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। भारत तथा अन्य अनेक विकासशील देशों के संबंध में इन पक्षों का विशेष महत्त्व है।
यू.एन.डी.पी. द्वारा चुने गए सूचकों का प्रयोग करते हुए भारत के योजना आयोग ने भी भारत के लिए मानव विकास रिपोर्ट तैयार की है। इसमें राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को विश्लेषण की इकाई के रूप में प्रयोग किया गया है। तदनंतर, \ज़िलों को विश्लेषण की इकाई मानते हुए प्रत्येक राज्य सरकार ने भी मानव विकास रिपोर्ट तैयार करना आरंभ कर दिया। यद्यपि भारत के योजना आयोग ने अंतिम मानव विकास सूचकांक का परिकलन जिनके बारे में आप पहले ही अपनी पुस्तक मानव भूगोल के मूल सिद्धांत में प\ढ़ चुके हैं। उन तीन सूचकों के आधार पर किया है, तथापि इस रिपोर्ट में आर्थिक उपलब्धि, सामाजिक सशक्तिकरण, सामाजिक वितरण न्याय, अभिगम्यता, स्वास्थ्य और राज्य द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कल्याणकारी उपायों जैसे सूचकों की भी चर्चा की गई है। कुछ महत्त्वपूर्ण सूचकों की निम्नलिखित पृष्ठों में विवेचना की गई है।
आर्थिक उपलब्धियों के सूचक
समृद्ध संसाधन आधार और इन संसाधनों तक सभी, विशेष रूप से निर्धन, पद-दलित और हाशिए पर छो\ड़ दिए गए लोगों की पहुँच, उत्पादकता, कल्याण और मानव विकास की कुंजी है। सकल घरेलू उत्पादन और इसकी प्रति व्यक्ति उपलब्धता को किसी देश के संसाधन आधार/अक्षयनिधि का माप माना जाता है। आर्थिक उपलब्धि और लोगों की भलाई आर्थिक विकास, रो\ज़गार के अवसर तथा परिसंपत्तियों तक पहुँच पर निर्भर करती है। विगत वर्षाें में भारत में प्रति-व्यक्ति आय और उपभोग व्यय में वृद्धि हुई है। जिसके कारण गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या के अनुपात में लगातार गिरावट आई है। वर्ष 2011-12 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों मे 25.7 प्रतिशत, शहरी क्षेत्रों में
13.7 प्रतिशत और पूरे देश में 21.9 प्रतिशत के रूप में अनुमानित किया गया था।
गरीबी के आँक\ड़े दर्शाते हैं कि छत्तीसग\ढ़, मध्य प्रदेश, मणिपुर, ओडिशा, तथा दादर एवं नगर हवेली में उनकी 30 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जा रही है। गुजरात, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैण्ड, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में उनकी जनसंख्या का 10 से 20 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे है। आंध्र प्रदेश, दिल्ली, गोआ, हिमाचल प्रदेश, केरल, पंजाब, सिक्किम, पुदुुच्चेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दमन और दीव तथा लक्षद्वीप की 10 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है। "गरीबी वंचित रहने की अवस्था है। निरपेक्ष रूप से यह व्यक्ति की सतत, स्वस्थ और यथोचित उत्पादक जीवन जीने के लिए आवश्यक \ज़रूरतों को संतुष्ट न कर पाने की असमर्थता को प्रतिबिंबित करती है।" किसी देश का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) उस देश की जीवन की गुणवत्ता को पूरी तरह प्रतिबिंबित नही करता है। कुछ अन्य कारक, जैसे- आवास, सार्वजनिक परिवहन, हवा की गुणवत्ता और पीने के पानी की पहुँच भी जीवन स्तर के मानक का निर्धारण करते हैं। बिना रो\ज़गार की आर्थिक वृद्धि और अनियंत्रित बेरो\ज़गार भारत में गरीबी के अधिक होने के महत्वपूर्ण कारणों में से हैं।
भारत में किस राज्य की जनसंख्या का उच्चतम अनुपात गरीबी रेखा के नीचे है?
गरीबी रेखा के नीचे जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर राज्यों को आरोही क्रम में व्यवस्थित कीजिए।
गरीबी रेखा के नीचे उच्च अनुपात वाले 10 राज्यों का चयन कीजिए और आँक\ड़ों को दंड आरेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए।
स्वस्थ जीवन के सूचक
रोग और पी\ड़ा से मुक्त जीवन और यथोचित दीर्घायु एक स्वस्थ जीवन के सूचक हैं। शिशु मर्त्यता और माताओं में प्रजननोत्तर मृत्यु दर को घटाने के उद्देश्य से पूर्व और प्रसवोत्तर स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता, वृद्धों के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ, पर्याप्त पोषण और व्यक्तियों की सुरक्षा एक स्वस्थ और लंबे जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण माप हैं।
स्वच्छ भारत मिशन
कारखानों से निकलने वाले विषैले और जैविक क्रियाओं से नष्ट न हो पाने वाले कचरे, शहरों के सीवर तथा खुले में शौच आदि के कारण स्वास्थ्य से संबंधित बहुत से खतरे पैदा हुए हैं। भारत सरकार ने इन समस्याओं का समाधान करने के लिए बहुत से कदम उठाए हैं, स्वच्छ भारत मिशन उनमें से एक है।
स्वस्थ मस्तिष्क एक स्वस्थ शरीर में निवास करता है और एक स्वस्थ शरीर के लिए स्वच्छ वातावरण विशेष रूप से स्वच्छ हवा, पानी, शोर मुक्त माहौल और स्वच्छ परिवेश प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं।
नगर निगम के कचरे, उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित जल और परिवहन से निकलने वाले धुएँ - आदि शहरों में प्रदूषण केमुख्य स्रोत हैं। ग्रामीण इलाकों और शहरों मे झुग्गी-झोप\ड़ियों में खुले में शौच प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं।
भारत सरकार ने देश को प्रदूषण रहित बनाने के विचार से स्वच्छ भारत अभियान चलाया है जिसके उद्देश्य निम्न हैं -
• स्वच्छ भारत अभियान का उद्देश्य देश को खुले में शौच से मुक्ति और नगर निगम के शत-प्रतिशत ठोस कचरे कावैज्ञानिक तरीके से उचित प्रबंधन, घरों में शौचालय, सामुदायिक शौचालय, सार्वजनिक शौचालय का निर्माण है।
• ग्रामीण भारत में घराें से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए सा\फ़ इंρधन के तौर पर एल.पी.जी. को सुलभ करना।
• जल से होने वाले रोगों की रोकथाम के लिए प्रत्येक घर मे पीने लायक जल की व्यवस्था करना।
• अपंरपरागत ईंधन के स्रोत, जैसे- पवन तथा सौर ऊर्जा को ब\ढ़ावा देना।
कुछ स्वास्थ्य सूचकों के क्षेत्र में भारत में सराहनीय कार्य हुए हैं, जैसे मृत्यु दर का 1951 में 25.1 प्रतिशत से घटकर 2015 में 6.5 प्रति ह\ज़ार होना और इसी अवधि में शिशु मर्त्यता का 148 प्रति ह\ज़ार से 37 प्रति ह\ज़ार होना। इसी प्रकार 1951 से 2015 की अवधि में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में पुरुषों के लिए 37.1 वर्ष से 66.9 वर्ष तथा स्त्रियों के लिए 36.2 वर्ष से 70.0 वर्ष की वृद्धि करने में भी सफलता मिली। यद्यपि ये महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं, फिर भी बहुत कुछ करना बाकी है। इसी प्रकार, इसी अवधि के दौरान भारत ने जन्म दर को 40.8 से 20.8 तक नीचे लाकर अच्छा कार्य किया है, किंतु यह जन्म दर अभी भी अनेक विकसित देशों की तुलना में का\फ़ी ऊँची है।
लिंग विशिष्ट और ग्रामीण व नगरीय स्वास्थ्य सूचकों के संदर्भ में देखने पर स्थिति और चिंताजनक प्रतीत होती है। भारत मेंस्त्री लिंगानुपात घट रहा है। भारत की जनगणना (2011) के निष्कर्ष, विशेष रूप से 0-6 आयु वर्ग के बच्चों के लिंग अनुपात के संबंध में, बहुत ही अवांछनीय हैं। रिपोर्ट के अन्य महत्त्वपूर्ण लक्षण ये हैं कि यदि केरल को अपवाद मान लिया जाए तो सभी राज्यों में बच्चों का लिंग अनुपात घटा है और पंजाब और हरियाणा जैसे विकसित राज्यों में यह सबसे अधिक चिंताजनक है जहाँ यह लिंगानुपात प्रति ह\ज़ार बालकों की तुलना में 850 बालिकाओं से भी नीचे है। इसके लिए कौन-कौन से कारक उत्तरदायी हैं? क्या यह सामाजिक दृष्टिकोण है अथवा लिंग-निर्धारण की वैज्ञानिक विधियाँ?
‘विकास मुक्ति है।’ भूख, गरीबी, दासता, बँधुआकरण, अज्ञानता, निरक्षरता और किसी की अन्य प्रकार की प्रबलता से मुक्ति मानव विकास की कुंजी है। वास्तविक अर्थों में मुक्ति तभी संभव है जब लोग समाज में अपने सामर्थ्यों और विकल्पों के प्रयोग के लिए सशक्त हों और प्रतिभागिता करें। समाज और पर्यावरण के बारे में ज्ञान तक पहुँच ही मुक्ति का मूलाधार है। ज्ञान और मुक्ति का रास्ता साक्षरता से होकर जाता है।
सामाजिक सशक्तीकरण के सूचक
‘विकास मुक्ति है।’ भूख, गरीबी, दासता, बँधुआकरण, अज्ञानता, निरक्षरता और किसी की अन्य प्रकार की प्रबलता से मुक्ति मानव विकास की कुंजी है। वास्तविक अर्थों में मुक्ति तभी संभव है जब लोग समाज में अपने सामर्थ्यों और विकल्पों के प्रयोग के लिए सशक्त हों और प्रतिभागिता करें। समाज और पर्यावरण के बारे में ज्ञान तक पहुँच ही मुक्ति का मूलाधार है। ज्ञान और मुक्ति का रास्ता साक्षरता से होकर जाता है।
राष्ट्रीय औसत से अधिक साक्षरता दर वाले राज्यों को अवरोही क्रम में व्यवस्थित करके उन्हें दंड आरेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए।
केरल, मि\ज़ोरम, लक्षद्वीप और गोआ की साक्षरता दरें अन्य राज्यों की तुलना में ऊँची क्यों हैं?
क्या साक्षरता मानव विकास के स्तर को परिलक्षित करती है? वाद-विवाद कीजिए।
भारत में साक्षरों का प्रतिशत दर्शाती तालिका 3.3 कुछ रोचक विशेषताओं को उजागर करती है–
• भारत में कुल साक्षरता लगभग 74.04 प्रतिशत है जबकि स्त्री साक्षरता 65.46 प्रतिशत है (2011)।
• दक्षिण भारत के अधिकांश राज्यों में कुल साक्षरता और महिला साक्षरता राष्ट्रीय औसत से ऊँची है।
• भारत के राज्यों में साक्षरता दर में व्यापक प्रादेशिक असमानता पाई जाती है। यहाँ बिहार जैसे राज्य भी हैं जहाँ बहुत कम (63.82 प्रतिशत) साक्षरता है और केरल और मि\ज़ोरम जैसे राज्य भी हैं जिनमें साक्षरता दर क्रमशः 93.09 प्रतिशत और 91.58 प्रतिशत है।
क्या आप उपर्युक्त समस्याओं के कारणों का पता लगा सकते हैं?
स्थानिक भिन्नताओं के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों और स्त्रियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, कृषि म\ज़दूरों इत्यादि जैसे हमारे समाज में सीमांत वर्गों में साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम है। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि यद्यपि सीमांत वर्गों में साक्षरों का प्रतिशत सुधरा है तथापि धनी और सीमांत वर्गों की जनसंख्या के बीच अंतर समय के साथ ब\ढ़ा है। भारत में मानव विकास सूचकांक
उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण सूचकों की पृष्ठभूमि में योजना आयोग ने राज्यों और केंद्र-शासित प्रदशों को विश्लेषण की इकाई मानते हुए मानव विकास सूचकांक का परिकलन किया है।
भारत को मध्यम मानव विकास दर्शाने वाले देशों में रखा गया है। विश्व के 188 देशों में इसका 131वाँ स्थान है। भारत के विभिन्न राज्यों में (तालिका 3.4), 0.790 संयुक्त सूचकांक मूल्य के साथ केरल कोटिक्रम में सर्वोच्च है। इसके बाद दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, गोवा और पंजाब आते हैं। अपेक्षा के अनुरूप बिहार, ओडिशा और छत्तीसग\ढ़ जैसे राज्य देश के 23 प्रमुख राज्यों में सबसे नीचे हैं।
एेसी हालातों के लिए अनेक सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और एेतिहासिक कारण उत्तरदायी हैं। केरल के मानव विकास सूचकांक का उच्चतम मूल्य इसके द्वारा शत-प्रतिशत के आस-पास साक्षरता दर को प्राप्त करने के लिए किए गए प्रभावी कार्यशीलता के कारण है। एक अलग दृश्य में बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम और उत्तर प्रदेश जैसे निम्न साक्षरता वाले राज्य हैं। उच्चतर कुल साक्षरता दर्शाने वाले राज्यों में पुरुष और स्त्री साक्षरता के बीच कम अंतर पाया गया है।
शैक्षिक उपलब्धियों के अतिरिक्त आर्थिक विकास भी मानव विकास सूचकांक पर सार्थक प्रभाव डालता है। आर्थिक दृष्टि से विकसित महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों के मानव विकास सूचकांक का मूल्य असम, बिहार, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों की तुलना में ऊँचा है।
उपनिवेश काल में विकसित प्रादेशिक विकृतियाँ और सामाजिक विषमताएँ अब भी भारत की अर्थव्यवस्था, राजतंत्र और समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सामाजिक वितरण न्याय के अपने मुख्य ध्येय के साथ भारत सरकार ने नियोजित विकास के माध्यम से संतुलित विकास के सांस्थितिकरण के लिए सम्मिलित प्रयास किए हैं। इसने अधिकांश क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं किंतु ये वांछित स्तर से अभी भी बहुत नीचे हैं।
जनसंख्या, पर्यावरण और विकास
विकास सामान्य रूप से और मानव विकास विशेष रूप से सामाजिक विज्ञानों में प्रयुक्त होने वाली एक जटिल संकल्पना है। यह जटिल है क्योंकि युगों से यही सोचा जा रहा है कि विकास एक मूलभूत संकल्पना है और यदि एक बार इसे प्राप्त कर लिया गया तो यह समाज की सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समस्याओं का निदान हो जाएगा। यद्यपि विकास ने मानव जीवन की गुणवत्ता में अनेक प्रकार से महत्त्वपूर्ण सुधार किया है किंतु प्रादेशिक विषमताएँ, सामाजिक असमानताएँ, भेदभाव, वंचना, लोगों का विस्थापन, मानवाधिकारों पर आघात और मानवीय मूल्यों का विनाश तथा पर्यावरणीय निम्नीकरण भी ब\ढ़ा है।
संबद्ध मुद्दों की गंभीरता और संवेदनशीलता को भाँपते हुए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने अपनी 1993 की मानव विकास रिपोर्ट में विकास की अवधारणा में अभिभूत कुछ स्पष्ट पक्षपातों और पूर्वाग्रहों को संशोधित करने का प्रयत्न किया है। लोगों की प्रतिभागिता और उनकी सुरक्षा 1993 की मानव विकास रिपोर्ट के प्रमुख मुद्दे थे। इसमें मानव विकास की न्यूनतम दशाओं के रूप में उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण और लोगों के ब\ढ़ते सशक्तीकरण पर बल दिया गया था। रिपोर्ट ने शांति और मानव विकास लाने में नागरिक समाजों की बहुत ब\ड़ी सकारात्मक भूमिका को भी स्वीकार किया। नागरिक समाजों को विकसित देशों द्वारा प्रतिरक्षा खर्चों में कटौती, सशस्त्र बलों के अपरियोजन, प्रतिरक्षा से आधारभूत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की ओर संक्रमण और विशेष रूप से निशस्त्रीकरण तथा नाभिकीय युद्धास्त्रों की संख्या घटाने के लिए जनमत तैयार करने की दिशा में कार्य करना चाहिए। एक नाभिकीय-कृत विश्व में शांति और कल्याण दो प्रमुख वैश्विक चिंताएँ हैं।
इस उपागम के दूसरे छोर पर नव-माल्थस वादियों, पर्यावरणविदों और आमूलवादी पारिस्थितिकविदों द्वारा व्यक्त विचार हैं। उनका विश्वास है कि एक प्रसन्नचित्त एवं शांत सामाजिक जीवन के लिए जनसंख्या और संसाधनों के बीच उचित संतुलन एक आवश्यक दशा है। इन विचारकों के अनुसार जनसंख्या और संसाधनों के बीच का अंतर 18वीं शताब्दी के बाद ब\ढ़ा है। विगत 300 वर्षों में विश्व के संसाधनों में बहुत थो\ड़ी वृद्धि हुई है जबकि मानव जनसंख्या में विपुल वृद्धि हुई है। विकास ने केवल विश्व के सीमित संसाधनों के बहुविध प्रयोगों को ब\ढ़ाने में योगदान दिया है जबकि इन संसाधनों की माँग में अतिशय वृद्धि हुई है। इस प्रकार विकास के किसी भी क्रियाकलाप के समक्ष परम कार्य जनसंख्या और संसाधनों के बीच समता बनाए रखना है। सर राबर्ट माल्थस मानव जनसंख्या की तुलना में संसाधनों के अभाव के विषय में चिंता व्यक्त करने वाले पहले विद्वान थे। प्रत्यक्ष रूप से यह विचार तर्कसंगत और विश्वासप्रद लगता है परंतु यदि विवेचनात्मक ढंग से देखा जाए तो इसमें कुछ अंतर्निहित दोष हैं जैसे कि संसाधन एक तटस्थ वर्ग (Cateogry) नहीं है। संसाधनों की उपलब्धता का होना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनका सामाजिक वितरण। संसाधन हर जगह असमान रूप से वितरित हैं। समृद्ध देशों और लोगों की संसाधनों के विशाल भंडारों तक ‘पहुँच’ है जबकि निर्धनों के संसाधन सिकु\ड़ते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त शक्तिशाली लोगों द्वारा अधिक से अधिक संसाधनों पर नियंत्रण करने के लिए किए गए अनंत प्रयत्नों और उनका अपनी असाधारण विशेषता को प्रदर्शित करने के लिए प्रयोग करना ही जनसंख्या संसाधनों और विकास के बीच संघर्ष और अंतर्विरोधों का प्रमुख कारण हैं।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता लंबे समय से ही जनसंख्या, संसाधनों और विकास के प्रति संवेदनशील रही हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्राचीन ग्रंथ मूलतः प्रकृति के तत्त्वों के बीच संतुलन और समरसता के प्रतिचिंतित थे। महात्मा गांधी ने अभिनव समय में ही दोनों के बीच संतुलन और समरसता के प्रबलन को प्रेषित किया है। गांधी जी हो रहे विकास, विशेष रूप से इसमें जिस प्रकार औद्योगीकरण द्वारा नैतिकता, आध्यात्मिकता, स्वावलंबन, अहिंसा और पारस्परिक सहयोग और पर्यावरण के ह्रास का सांस्थितीकरण (institutionalised) किया गया है, के प्रति आशंकित थे। उनके विचार में व्यक्तिगत मितव्ययता, सामाजिक धन की न्यासधारिता और अहिंसा एक व्यक्ति और एक राष्ट्र के जीवन में उच्चतर लक्ष्य प्राप्त करने की कुंजी है। उनके विचार क्लब अॉ\फ़ रोम की रिपोर्ट ‘लिमिट्स टू ग्रोथ’ (1972), शूमाकर की पुस्तक ‘स्माल इ\ज़ ब्यूटीफुल’ (1974) ब्रुंडलैंड कमीशन की रिपोर्ट ‘अॉवर कामन फ्यूचर’ (1987) और अंत में ‘एजेंडा-21 रिपोर्ट अॉ\फ़ द रियो कांफ्रेंस’ (1993) में भी प्रतिध्वनित हुए हैं।