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विषय नौ

शासक और इतिवृत्त:

मुग़ल दरबार

(लगभग सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियाँ)


मुग़ल साम्राज्य के शासक स्वयं को एक विशाल और विजातीय जनता पर शासन के लिए, नियुक्त मानते थे। हालाँकि असलियत में राजनीतिक परिस्थितियाँ इस भव्य दृष्टि को सीमाबद्ध कर देती थीं फिर भी एेसी दृष्टि सदैव महत्त्वपूर्ण रही। इस दृष्टि के प्रचार-प्रसार का एक तरीका राजवंशीय इतिहास लिखना-लिखवाना था। मुग़ल राजाओं ने दरबारी इतिहासकारों को विवरणों के लेखन का कार्य सौंपा। इन विवरणों में बादशाह के समय की घटनाओं का लेखा-जोखा दिया गया। इसके अतिरिक्त उनके लेखकों ने शासकों को अपने क्षेत्र के शासन में मदद के लिए उपमहाद्वीप के अन्य क्षेत्रों से ढेरों जानकारियाँ इकट्ठी कीं।

अंग्रेज़ी में लिखने वाले आधुनिक इतिहासकारों ने मूल-पाठ की इस शैली को क्रॉनिकल्स (इतिवृत्त/इतिहास) नाम दिया। ये इतिवृत्त घटनाओं का अनवरत कालानुक्रमिक विवरण प्रस्तुत करते हैं। मुग़लों का इतिहास लिखने के इच्छुक किसी भी विद्वान के लिए ये इतिवृत्त अपरिहार्य स्रोत हैं। एक ओर तो ये इतिवृत्त मुग़ल राज्य की संस्थाओं के बारे में तथ्यात्मक सूचनाओं का ख़ज़ाना थे, जिन्हें दरबार से घनिष्ठ रूप से जुड़े व्यक्तियों द्वारा काफ़ी मेहनत से एकत्रित एवं वर्गीकृत किया गया था। दूसरी ओर इन मूल-पाठों का उद्देश्य उन आशयों को संप्रेषित करना था जिन्हें मुग़ल शासक अपने क्षेत्र में लागू करना चाहते थे। अत: ये इतिवृत्त हमें इस बात की एक झलक देते हैं कि कैसे शाही विचारधाराएँ रची तथा प्रचारित की जाती थीं। यह अध्याय मुग़ल साम्राज्य के इस समृद्ध और लुभावने आयाम की कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालेगा।

9.1

चित्र 9.1

बाबर को राजवंशीय मुकुट सौंपता तैमूर, गोवर्धन द्वारा लगभग 1630 में चित्रित

1. मुग़ल शासक और उनका साम्राज्य

मुग़ल नाम मंगोल से व्युत्पन्न हुआ है। यद्यपि आज यह नाम एक साम्राज्य की भव्यता का अहसास कराता है लेकिन राजवंश के शासकों ने स्वयं के लिए यह नाम नहीं चुना था। उन्होंने अपने को तैमूरी कहा क्योंकि पितृपक्ष से वे तुर्की शासक तिमूर के वंशज थे। पहला मुग़ल शासक बाबर मातृपक्ष से चंगेज़ खाँ का संबंधी था। वह तुर्की बोलता था और उसने मंगोलों का उपहास करते हुए उन्हें बर्बर गिरोह के रूप में उल्लिखित किया है।

सोलहवीं शताब्दी के दौरान यूरोपियों ने परिवार की इस शाखा के भारतीय शासकों का वर्णन करने के लिए मुग़ल शब्द का प्रयोग किया। सोलहवीं शताब्दी से ही इस शब्द का निरंतर प्रयोग होता रहा है। यहाँ तक कि रडयार्ड किपलिंग की जंगल बुक के युवा नायक मोगली का नाम भी इससे व्युत्पन्न हुआ है।

मुग़लों व स्थानीय सरदारों के बीच राजनीतिक-मैत्रियों के ज़रिए तथा विजयों के ज़रिए भारत के विविध क्षेत्रीय राज्यों को मिलाकर साम्राज्य की रचना की गई। साम्राज्य के संस्थापक ज़हीरुद्दीन बाबर को उसके मध्य एशियाई स्वदेश फरगाना से प्रतिद्वंद्वी उज़बेकों ने भगा दिया था। उसने सबसे पहले स्वयं को काबुल में स्थापित किया और फिर 1526 में अपने दल के सदस्यों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए क्षेत्रों और संसाधनों की खोज में वह भारतीय उपमहाद्वीप में और आगे की ओर बढ़ा।

इसके उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन हुमायूँ (1530-40, 1555-56) ने साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया किंतु वह अफ़गान नेता शेरशाह सूर से पराजित हो गया जिसने उसे ईरान के सफ़ावी शासक के दरबार में निर्वासित होने को बाध्य कर दिया। 1555 में हुमायूँ ने सूरों को पराजित कर दिया किंतु एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।

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चित्र 9.2
हुमायूँ की पत्नी नादिरा का, राजस्थान के रेगिस्तान को पार करते दिखाता हुआ, अठारहवीं शताब्दी का चित्रण

कई लोग जलालुद्दीन अकबर (1556-1605) को मुग़ल बादशाहों में महानतम मानते हैं क्योंकि उसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार ही किया बल्कि इसे अपने समय का विशालतम, दृढ़तम और सबसे समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर हिंदुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार में सफल हुआ और उसने ईरान के सफ़ावियों और तूरान (मध्य एशिया) के उज़बेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर लगाम लगाए रखी। अकबर केे बाद जहाँगीर (1605-27), शाहजहाँ (1628-58) और औरंगज़ेब (1658-1707) के रूप में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों वाले तीन बहुत योग्य उत्तराधिकारी हुए। इनके अधीन क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा यद्यपि इसकी गति काफ़ी धीमी रही। तीनों शासकों ने शासन के विविध यंत्रों को बनाए रखा और उन्हें सुदृढ़ किया।

 सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान शाही संस्थाओं के ढाँचे का निर्माण हुआ। इनके अंतर्गत प्रशासन और कराधान के प्रभावशाली तरीके शामिल थे। मुग़ल शक्ति का सुस्पष्ट केंद्र दरबार था। यहाँ राजनीतिक संबंध गढ़े जाते थे, साथ ही श्रेणियाँ और हैसियतें परिभाषित की जाती थीं। मुग़लों द्वारा शुरू की गई राजनीतिक व्यवस्था सैन्य शक्ति और उपमहाद्वीप की भिन्न-भिन्न परंपराओं को समायोजित करने की चेतन नीति के संयोजन पर आधारित थी।

1707 के बाद औरंगज़ेब की मृत्योपरांत राजवंश की शक्ति घट गई। दिल्ली, आगरा अथवा लाहौर जैसे भिन्न राजधानी नगरों से नियंत्रित एक विशाल साम्राज्य तंत्र की जगह क्षेत्रीय शक्तियों ने अधिक स्वायत्तता अर्जित कर ली। फिर भी सांकेतिक रूप में ही सही पर मुग़ल शासक की प्रतिष्ठा ने अभी अपनी आभा नहीं खोई थी। 1857 में इस वंश के अंतिम वंशज बहादुरशाह ज़फर द्वितीय को अंग्रेज़ों ने उखाड़ फेंका।

चर्चा कीजिए...

पता लगाने की कोशिश कीजिए कि आप जिस राज्य में रहते हैं क्या वह मुग़ल साम्राज्य का भाग था? क्या साम्राज्य स्थापित होने के परिणामस्वरूप उस क्षेत्र में किसी तरह के परिवर्तन हुए थे? अगर आपका राज्य इस साम्राज्य का हिस्सा नहीं था तो समकालीन क्षेत्रीय शासकों, उनके उद्भव और उनकी नीतियों के बारे में और जानकारी प्राप्त कीजिए। वे किस प्रकार के विवरण का लेखा-जोखा रखते थे?

2. इतिवृत्तों की रचना

मुग़ल बादशाहों द्वारा तैयार करवाए गए इतिवृत्त साम्राज्य और उसके दरबार के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये इतिवृत्त इस साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य के दर्शन की प्रायोजना के उद्देश्य से लिखे गए थे। इसी तरह इनका उद्देश्य उन लोगों को, जिन्होंने मुग़ल शासन का विरोध किया था, यह बताना भी था कि उनके सारे विरोधों का असफल होना नियत है। शासक यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन का विवरण उपलब्ध रहे।

ताई तुर्क स्वयं को चंगेेज़ खाँ के सबसे बड़े पुत्र का वंशज मानते थे।

मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक निरपवाद रूप से दरबारी ही रहे। उन्होंने जो इतिहास लिखे उनके केंद्रबिंदु में थीं शासक पर केंद्रित घटनाएँ, शासक का परिवार, दरबार व अभिजात, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ। अकबर, शाहजहाँ और आलमगीर (मुग़ल शासक औरंगज़ेब की एक पदवी) की कहानियों पर आधारित इतिवृत्तों के शीर्षक अकबरनामा, शाहजहाँनामा, आलमगीरनामा यह संकेत करते हैं कि इनके लेखकों की निगाह में साम्राज्य व दरबार का इतिहास और बादशाह का इतिहास एक ही था।

2.1 तुर्की से फ़ारसी की ओर

मुग़ल दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। दिल्ली के सुल्तानों के काल में उत्तर भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदवी व इसकी क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ फ़ारसी, दरबार और साहित्यिक रचनाओं की भाषा के रूप में, खूब पुष्पित-पल्लवित हुई। चूँकि मुग़ल चग़ताई मूल के थे अत: तुर्की उनकी मातृभाषा थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और अपने संस्मरण इसी भाषा में लिखे थे।

लिखित शब्द की उड़ान

अबुल फ़ज़्ल के शब्दों में:

लिखित शब्द विगत युगों की बुद्धिमत्ता को मूर्त रूप दे सकता है और इस तरह वह बौद्धिक प्रगति का साधन बन सकता है। उच्चारित शब्द उनके दिलो-दिमाग में जाता है जो उसे सुनने के लिए उपस्थित होता है। लिखित शब्द न केवल पास रहने वाले लोगों बल्कि दूर स्थित लोगों को भी समझदारी सिखाता है। अगर लिखित शब्द न हो तो उच्चारित शब्द तो बहुत जल्दी ही मर जाएगा और हमारे पास उन लोगों की कोई निशानी नहीं रह जाएगी जो दिवंगत हो चुके हैं। सामान्य समझ के लोग तो अक्षरों को एक गहरी आकृति मात्र मानते हैं पर गहराई से देखने वाले लोगों को इनमें एक प्रज्ञा दीप (चिराग-ए-शिनासाई) नज़र आता है। अपने में हज़ारों किरणों को लिए होने के बावजूद लिखित शब्द काला दिखता है अथवा इस ढंग से कहा जा सकता है कि यह एक एेसा प्रकाश है जिस पर एक तिल है जो इसे बुरी नज़र से बचाता है। खत या पत्र समझदारी की तसवीर है; विचारों की दुनिया से निकाला हुआ ख़ाका है; दिन को लाने वाली गहरी रोशनी है; ज्ञान से भरा हुआ घना बादल है। पत्र मौन होते हैं फिर भी वे बोलते हैं; स्थिर होते हैं फिर भी वे सफ़र करते हैं; पन्ने पर फैले हुए, फिर भी ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं।

अकबर ने सोच-समझकर फ़ारसी को दरबार की मुख्य भाषा बनाया। संभवतया ईरान के साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक संपर्कों के साथ-साथ मुग़ल दरबार में पद पाने को इच्छुक ईरानी और मध्य एशियाई प्रवासियों ने बादशाह को इस भाषा को अपनाए जाने के लिए प्रेरित किया होगा। फ़ारसी को दरबार की भाषा का ऊँचा स्थान दिया गया तथा उन लोगों को शक्ति व प्रतिष्ठा प्रदान की गई जिनकी इस भाषा पर अच्छी पकड़ थी। राजा, शाही परिवार के लोग और दरबार के विशिष्ट सदस्य यह भाषा बोलते थे। कुछ और आगे यह सभी स्तरों के प्रशासन की भाषा बन गई जिससे लेखाकारों, लिपिकों तथा अन्य अधिकारियों ने भी इसे सीख लिया।

जहाँ-जहाँ फ़ारसी प्रत्यक्ष प्रयोग में नहीं थी, वहाँ भी राजस्थानी, मराठी और यहाँ तक कि तमिल में शासकीय लेखों की भाषा को इसकी शब्दावली और मुहावरों ने व्यापक रूप से प्रभावित किया था। चूँकि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान फ़ारसी का प्रयोग करने वाले लोग उपमहाद्वीप के कई अलग-अलग क्षेत्रों से आए थे और वे अन्य भारतीय भाषाएँ भी बोलते थे अत: स्थानीय मुहावरों को समाविष्ट करने से फ़ारसी का भी भारतीयकरण हो गया था। फ़ारसी के हिंदवी के साथ पारस्परिक संपर्क से उर्दू के रूप में एक नयी भाषा निकल कर आई।

अकबरनामा जैसे मुग़ल इतिहास फ़ारसी में लिखे गए थे जबकि अन्य जैसे बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया गया था। मुग़ल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत ग्रंथों को फ़ारसी में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया। महाभारत का अनुवाद रज़्मनामा (युद्धों की पुस्तक) के रूप में हुआ।

2.2 पांडुलिपियों की रचना

मुग़ल भारत की सभी पुस्तकें पांडुलिपियों के रूप में थीं अर्थात् वे हाथ से लिखी होती थीं। पांडुलिपि रचना का मुख्य केंद्र शाही किताबख़ाना था। हालाँकि किताबख़ाना शब्द पुस्तकालय के रूप में अनुवादित किया जा सकता है, यह दरअसल एक लिपिघर था अर्थात एेसी जगह जहाँ बादशाह की पांडुलिपियों का संग्रह रखा जाता तथा नयी पांडुलिपियों की रचना की जाती थी।

पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले बहुत लोग शामिल होते थे। कागज़ बनाने वालों की पांडुलिपि के पन्ने तैयार करने, सुलेखकों की पाठ की नकल तैयार करने, को.फ्तगरों की पृष्ठों को चमकाने के लिए, चित्रकारों की पाठ से दृश्यों को चित्रित करने के लिए और जिल्दसाज़ों की प्रत्येक पन्ने को इकट्ठा कर उसे अलंकृत आवरण मेें बैठाने के लिए आवश्यकता होती थी। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था। इस तरह के सौंदर्य को अस्तित्व में लाकर इन पांडुलिपियों के संरक्षक मुग़ल बादशाह अपनी शक्ति को दर्शा रहे थे।

इसी तरह इन पांडुलिपियों की वास्तविक रचना में शामिल कुछ लोगों को भी पदवियों और पुरस्कारों के रूप में पहचान मिली। इनमें सुलेखकों और चित्रकारों को तो उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा मिली जबकि अन्य, जैसे कागज़ बनाने वाले अथवा जिल्दसाज़ गुमनाम कारीगर ही रह गए।

सुलेखन अर्थात् हाथ से लिखने की कला अत्यंत महत्त्वपूर्ण कौशल मानी जाती थी। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शैलियों में होता था। नस्तलिक अकबर की पसंदीदा शैली थी। यह एक एेसी तरल शैली थी जिसे लंबे सपाट प्रवाही ढंग से लिखा जाता था। इसे 5 से 10 मिलीमीटर की नोक वाले छँटे हुए सरकंडे, जिसे कलम कहा जाता है, के टुकड़े से स्याही में डुबोकर लिखा जाता है। सामान्यतया कलम की नोक में बीच में छोटा सा चीरा लगा दिया जाता था ताकि वह स्याही आसानी से सोख ले।

 9.3

चित्र 9.3

नस्तलिक़ शैली में लिखा हुआ एक पन्ना, जिसे अकबर के दरबार के सबसे अच्छे सुलेखकों में से एक काश्मीर के मुहम्मद हुसैन (लगभग 1575-1605) द्वारा तैयार किया गया था। इसके अक्षरों के विशुद्ध समानुपातिक घुमाव की कदरदानी में इसको ‘ज़रीन क़लम’ (सोने की क़लम) के खिताब से नवाज़ा गया। सुलेखक ने पृष्ठ के निचले भाग पर अपने हस्ताक्षर किए हैं। इस पृष्ठ का लगभग एक चौथाई हिस्सा इसी में प्रयुक्त हो गया है।

चर्चा कीजिए...

आज तैयार होने वाली पुस्तकें किन मायनों में मुग़ल इतिवृत्तों की रचना के तरीकों से भिन्न अथवा समान हैं?

3. रंगीन चित्र

जैसा कि हमने पिछले अनुभाग में पढ़ा, मुग़ल पांडुलिपियों की रचना में चित्रकार भी शामिल थे। एक मुग़ल बादशाह के शासन की घटनाओं का विवरण देने वाले इतिहासों में लिखित पाठ के साथ ही उन घटनाओं को चित्रों के माध्यम से दृश्य रूप में भी वर्णित किया जाता था। जब किसी पुस्तक में घटनाओं अथवा विषयों को दृश्य रूप में व्यक्त किया जाना होता था तो सुलेखक उसके आसपास के पृष्ठों को खाली छोड़ देते थे। चित्रकार शब्दों में वर्णित विषय को अलग से चित्र रूप में उतारकर वहाँ संलग्न कर देते थे। ये लघुचित्र होते थे जिन्हें पांडुलिपि के पृष्ठों पर आसानी से लगाया और देखा जा सकता था।

चित्रों को न केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य को बढ़ावा देने वाला बल्कि उन्हें तो, लिखित माध्यम से राजा और राजा की शक्ति के विषय में जो बात कही न जा सकी हों, एेसे विचारों के संप्रेषण का भी एक सशक्त माध्यम माना जाता था। इतिहासकार अबुल फज़्ल ने चित्रकारी का एक ‘जादुई कला’ के रूप में वर्णन किया है। उसकी राय में यह कला किसी निर्जीव वस्तु को भी इस रूप में प्रस्तुत कर सकती है कि जैसे उसमें जीवन हो।

9.4

चित्र 9.4

एक मुग़ल किताबखाना

इस लघुचित्र में चित्रित मुग़ल पांडुलिपि की रचना में संलग्न अलग-अलग कार्यों की पहचान कीजिए।

स्रोत 1

तसवीर की प्रशंसा में

अबुल फज़्ल चित्रकारी को बहुत सम्मान देता था :

किसी भी चीज़ का उसके जैसा ही रेखांकन बनाना तसवीर कहलाता है। अपनी युवावस्था के एकदम शुरुआती दिनों से ही महामहिम ने इस कला में अपनी अभिरुचि व्यक्त की है। वे इसे अध्ययन और मनोरंजन दोनों का ही साधन मानते हुए इस कला को हर संभव प्रोत्साहन देते हैं। चित्रकारों की एक बड़ी संख्या इस कार्य में लगाई गई है। हर हफ़्ते शाही कार्यशाला के अनेक निरीक्षक और लिपिक बादशाह के सामने प्रत्येक कलाकार का कार्य प्रस्तुत करते हैं और महामहिम प्रदर्शित उत्कृष्टता के आधार पर ईनाम देते तथा कलाकारों के मासिक वेतन में वृद्धि करते हैं... अब सर्वाधिक उत्कृष्ट चित्रकार मिलने लगे हैं और बिहज़ाद जैसे चित्रकारों की अत्युत्तम कलाकृतियों को तो उन यूरोपीय चित्रकारों के उत्कृष्ट कार्यों के समकक्ष ही रखा जा सकता है जिन्होंने विश्व में व्यापक ख्याति अर्जित कर ली है। ब्योरे की सूक्ष्मता, परिपूर्णता और प्रस्तुतीकरण की निर्भीकता जो अब चित्रों में दिखाई पड़ती है, वह अतुलनीय है। यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुएँ भी प्राणवान प्रतीत होती हैं। सौ से अधिक चित्रकार इस कला के प्रसिद्ध कलाकार हो गए हैं। हिंदू कलाकारों के लिए यह बात ख़ासतौर पर सही है। उनके चित्र वस्तुओं की हमारी परिकल्पना से कहीं परे हैं। वस्तुत: पूरे विश्व में कुछ लोग ही उनके समान पाए जा सकते हैं।

अबुल फज़्ल चित्रकला को महत्त्वपूर्ण क्यों मानता है? वह इस कला को वैध कैसे ठहराता है? 

बादशाह, उसके दरबार तथा उसमें हिस्सा लेने वाले लोगों का चित्रण करने वाले चित्रों की रचना को लेकर शासकों और मुसलमान रूढ़िवादी वर्ग के प्रतिनिधियों अर्थात उलमा के बीच निरंतर तनाव बना रहा। उलमा ने कुरान के साथ-साथ हदीस, जिसमें पैगम्बर मुहम्मद के जीवन से एक एेसा ही प्रसंग वर्णित है, में प्रतिष्ठापित मानव रूपों के चित्रण पर इस्लामी प्रतिबंध का आह्वान किया। इस प्रसंग में पैगम्बर साहब को प्राकृतिक तरीके से जीवित रूपों के चित्रण की मनाही करते हुए उल्लिखित किया गया है क्योंकि एेसा करने से यह लगता था कि कलाकार रचना की शक्ति को अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहा है। यह एक एेसा कार्य था जो केवल ईश्वर का ही था।

किंतु समय के साथ शरिया की व्याख्याओं में भी बदलाव आया। विभिन्न सामाजिक समूहों ने इस्लामी परंपरा के ढाँचे की अलग-अलग तरीकों से व्याख्या की। प्राय: प्रत्येक समूह ने इस परंपरा की एेसी व्याख्या प्रतिपादित की जो उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं से सबसे ज़्यादा मेल खाती थी। जिन शताब्दियों के दौरान साम्राज्य निर्माण हो रहा था उस समय कई एशियाई क्षेत्रों के शासकों ने नियमित रूप से कलाकारों को उनके चित्र तथा उनके राज्य के जीवन के दृश्य चित्रित करने के लिए नियुक्त किया। उदाहरण के लिए, ईरान के सफ़ावी राजाओं ने दरबार में स्थापित कार्यशालाओं में प्रशिक्षित उत्कृष्ट कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। बिहज़ाद जैसे चित्रकारों के नाम ने सफ़ावी दरबार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि को चारों ओर फैलाने में बहुत योगदान दिया।

ईरान से भी कलाकार मुग़लकालीन भारत आने में सफल हुए। कुछ को मुग़ल दरबार में लाया गया जैसे मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद को बादशाह हुमायूँ को दिल्ली तक साथ देने के लिए कहा गया। अन्य ने संरक्षण और प्रतिष्ठा के अवसरों की तलाश में प्रवास किया। बादशाह और रूढ़िवादी मुसलमान विचाराधारा के प्रवक्ताओं के बीच जीवधारियों के दृश्य निरूपण पर मुग़ल दरबार में तनाव बना हुआ था। अकबर का दरबारी इतिहासकार अबुल फज़्ल बादशाह को यह कहते हुए उद्धृत करता है, "कई लोग एेसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं एेसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे एेसा लगता है कि कलाकार के पास ख़ुदा को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। चूँकि कहीं न कहीं उसे यह महसूस होता है कि ख़ुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता..."

चर्चा कीजिए...

चित्रकार के साहित्यिक और कलात्मक रचना प्रदर्शन (चित्र 9.4) की तुलना अबुल फ़ज़्ल की साहित्यिक और कलात्मक रचना-शक्ति से कीजिए (स्रोत 1)।

4. अकबरनामा और बादशाहनामा


महत्त्वपूर्ण चित्रित मुग़ल इतिहासों में सर्वाधिक ज्ञात अकबरनामा और बादशाहनामा (राजा का इतिहास) है। प्रत्येक पांडुलिपि में औसतन 150 पूरे अथवा दोहरे पृष्ठों पर लड़ाई, घेराबंदी, शिकार, इमारत-निर्माण, दरबारी दृश्य आदि के चित्र हैं।

अकबरनामा के लेखक अबुल फज़्ल का पालन-पोषण मुग़ल राजधानी आगरा में हुआ। वह अरबी, फारसी, यूनानी दर्शन और सूफ़ीवाद में पर्याप्त निष्णात था। इससे भी अधिक वह एक प्रभावशाली विवादी तथा स्वतंत्र चिंतक था जिसने लगातार दकियानूसी उलमा के विचारों का विरोध किया। इन गुणों से अकबर बहुत प्रभावित हुआ। उसने अबुल फज़्ल को अपने सलाहकार और अपनी नीतियों के प्रवक्ता के रूप में बहुत उपर्युक्त पाया। बादशाह का एक मुख्य उद्देश्य राज्य को धार्मिक रूढ़िवादियों के नियंत्रण से मुक्त करना था। दरबारी इतिहासकार के रूप में अबुल फज़्ल ने अकबर के शासन से जुड़े विचारों को न केवल आकार दिया बल्कि उनको स्पष्ट रूप से व्यक्त भी किया।

1589 में शुरू कर अबुल फज़्ल ने अकबरनामा पर तेरह वर्षों तक कार्य किया और इस दौरान कई बार उसने प्रारूप में सुधार किए। यह इतिहास घटनाओं के वास्तविक विवरणों (वाक़ई), शासकीय दस्तावेज़ों तथा जानकार व्यक्तियों के मौखिक प्रमाणों जैसे विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों पर आधारित है।

अकबरनामा को तीन जिल्दों में विभाजित किया गया है जिनमें से प्रथम दो इतिहास हैं। तीसरी जिल्द आइन-ए-अकबरी है। पहली जिल्द में आदम से लेकर अकबर के जीवन के एक खगोलीय कालचक्र तक (30 वर्ष) का मानव-जाति का इतिहास है। दूसरी ज़िल्द अकबर के 46वें शासन वर्ष (1601) पर ख़त्म होती है। अगले ही वर्ष अबुल फ़ज़्ल राजकुमार सलीम द्वारा तैयार किए गए षड्यंत्र का शिकार हुआ और सलीम के सहापराधी बीर सिंह बुंदेला द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।

अकबरनामा का लेखन राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण घटनाओं के समय के साथ विवरण देने के पारंपरिक एेतिहासिक दृष्टिकोण से किया गया। इसके साथ ही तिथियों और समय के साथ होने वाले बदलावों के उल्लेख के बिना ही अकबर के साम्राज्य के भौगोलिक, सामाजिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक सभी पक्षों का विवरण प्रस्तुत करने के अभिनव तरीके से भी इसका लेखन हुआ। आइन-ए-अकबरी में मुग़ल साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, बौद्धों और मुसलमानों की भिन्न-भिन्न आबादी वाले तथा एक मिश्रित संस्कृति वाले साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

अबुल फ़ज़्ल की भाषा बहुत अलंकृत थी और चूँकि इस भाषा के पाठों को ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था अत: इस भाषा में लय तथा कथन-शैली को बहुत महत्त्व दिया जाता था। इस भारतीय-फ़ारसी शैली को दरबार में संरक्षण मिला।

बादशाहनामा का सफ़र

मुग़लों के अधीन बहुमूल्य पांडुलिपियों की भेंट एक स्थापित राजनयिक प्रथा थी। इसी का अनुकरण करते हुए अवधनवाब ने 1799 में जार्ज तृतीय को सचित्र बादशाहनामा भेंट में दिया।
तभी से यह विडिंसर कासल के अंग्रेज़ी शाही संग्रहों में सुरक्षित है।

1994 में हुए संरक्षण कार्य में बँधी हुई पांडुलिपि को अलग-अलग करना आवश्यक हो गया। इसी की वजह से चित्रों को प्रदर्शित करना संभव हुआ और 1997 में पहली बार बादशाहनामा के चित्र नयी दिल्ली, लंदन और वाशिंगटन में हुई प्रदर्शनियों में दिखाए गए।

एेतिहासिक विवरण समयवार विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जबकि एककालिक विवरण एक ख़ास समय की स्थिति का वर्णन करता है।

अबुल फज़्ल का एक शिष्य अब्दुल हमीद लाहौरी बादशाहनामा के लेखक के रूप में जाना जाता है। इसकी योग्यताओं के बारे में सुनकर बादशाह शाहजहाँ ने उसे अकबरनामा के नमूने पर अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया। बादशाहनामा भी सरकारी इतिहास है। इसकी तीन जिल्दें (द.फ्तर) हैं और प्रत्येक जिल्द दस चंद्र वर्षों का ब्योरा देती है। लाहौरी ने बादशाह के शासन (1627-47) के पहले दो दशकों पर पहला व दूसरा द.फ्तर लिखा। इन जिल्दों में बाद में शाहजहाँ के वज़ीर सादुल्लाह खाँ ने सुधार किया। बुढ़ापे की अशक्तताओं की वजह से लाहौरी तीसरे दशक के बारे में न लिख सका जिसे बाद में इतिहासकार वारिस ने लिखा।

औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेज़ प्रशासकों ने अपने साम्राज्य के लोगों और संस्कृतियों (जिन पर वे लंबा शासन करना चाहते थे), को बेहतर ढंग से समझने के लिए भारतीय इतिहास का अध्ययन तथा उपमहाद्वीप के बारे में ज्ञान का अभिलेखागार स्थापित करना शुरू किया। 1784 में सर विलियम जोन्स द्वारा स्थापित एशियाटिक सोसाइटी अॉफ़ बंगाल ने कई भारतीय पांडुलिपियों के संपादन, प्रकाशन और अनुवाद का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया।

अकबरनामा और बादशाहनामा के संपादित पाठान्तर सबसे पहले एशियाटिक सोसाइटी द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकाशित किए गए। वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया। बादशाहनामा के केवल कुछ ही अंशों का अभी तक अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है, इसका मूल पाठ अपने संपूर्ण रूप में आज भी अनुवाद किए जाने की प्रतीक्षा में है।

प्रकाश के विचार का संप्रेषण

सुहरावर्दी दर्शन के मूल में प्लेटो की रिपब्लिक है जहाँ ईश्वर को सूर्य के प्रतीक द्वारा निरूपित किया गया है। सुहरावर्दी की रचनाओं को इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से पढ़ा जाता था। शेख मुबारक ने इसका अध्ययन किया था। इसके बारे में उसने अपने पुत्रों फैज़ी और अबुल फज़्ल को बताया जो उसके संरक्षण में प्रशिक्षित हुए थे।

चर्चा कीजिए...

पता लगाने की कोशिश कीजिए कि क्या आपके कस्बे अथवा गाँव में पांडुलिपियों को चित्रित करने की परंपरा रही है? इन पांडुलिपियों को कौन तैयार करता था? इन पांडुलिपियों में किन विषयों पर विचार किया गया था? इन्हें कैसे सुरक्षित रखा जाता था?

5. आदर्श राज्य

5.1 एक दैवीय प्रकाश

दरबारी इतिहासकारों ने कई साक्ष्यों का हवाला देते हुए यह दिखाया कि मुग़ल राजाओं को सीधे ईश्वर से शक्ति मिली थी। उनके द्वारा वर्णित दंतकथाओं में से एक मंगोल रानी अलानकुआ की कहानी है जो अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसके द्वारा जन्म लेने वाली संतान पर इस दैवीय प्रकाश का प्रभाव था। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रकाश हस्तांतरित होता रहा।

ईश्वर (फर-ए-इज़ादी) से नि:सृत प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीज़ों के पदानुक्रम में मुग़ल राजत्व को अबुल फज़्ल ने सबसे ऊँचे स्थान पर रखा। इस विषय में वह प्रसिद्ध ईरानी सूफ़ी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 में मृत) के विचारों से प्रभावित था जिसने सर्वप्रथम इस प्रकार का विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार एक पदानुक्रम के तहत यह दैवीय प्रकाश राजा में संप्रेषित होता था जिसके बाद राजा अपनी प्रजा के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत बन जाता था।

इतिवृत्तों के विवरणों का साथ देने वाले चित्रों ने इन विचारों को इस तरीके से संप्रेषित किया कि उन्होंने देखने वालों के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डाला। सत्रहवीं शताब्दी से मुग़ल कलाकारों ने बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करना शुरू किया। ईश्वर के प्रकाश के प्रतीक रूप इन प्रभामंडलों को उन्होंने ईसा और वर्जिन मेरी के यूरोपीय चित्रों में देखा था।

9.5

चित्र 9.5

अबुल हसन द्वारा बनाए गए इस चित्र में जहाँगीर को देदीप्यमान कपड़ों और आभूषणों में अपने पिता अकबर के चित्र को हाथ में लिए दिखाया गया है।

अकबर की पोशाक सफ़ेद है। सफ़ेद रंग को सूफ़ी परंपराओं में प्रबुद्ध जीव से जोड़ा गया है। वह एक गोलक अर्पित कर रहा है जो राजवंशीय सत्ता का प्रतीक है। मुग़ल साम्राज्य में एेसा कोई कानून नहीं था जो निर्धारित करे कि बादशाह के पुत्रों में से कौन सा पुत्र सिंहासन का उत्तराधिकारी होगा। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक राजवंशीय परिवर्तन का निर्णय भ्रातृघातक युद्ध से होने लगा। अकबर के शासन के अंतिम भाग में शहज़ादे सलीम ने अपने पिता के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया लेकिन बाद में उसे माफ कर दिया गया।

यह चित्र पिता-पुत्र के बीच के संबंध को कैसे चित्रित करता है? आपको क्यों लगता है कि मुग़ल कलाकारों ने निरंतर बादशाहों को गहरी अथवा फीकी पृष्ठभूमि के साथ चित्रित किया है? इस चित्र में प्रकाश के कौन से स्रोत हैं? 


5.2 सुलह-ए-कुल: एकीकरण का एक स्रोत

मुग़ल इतिवृत्त साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था, तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज़्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

सुलह-ए-कुल का आदर्श राज्य नीतियों के ज़रिए लागू किया गया। मुग़लों के अधीन अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था–अर्थात उसमें ईरानी, तूरानी, अफ़गानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे। इन सबको दिए गए पद और पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा पर आधारित थे। इसके अलावा, अकबर ने 1563 में तीर्थयात्रा कर तथा 1564 में जज़िया को समाप्त कर दिया क्योंकि यह दोनों कर धार्मिक पक्षपात पर आधारित थे। साम्राज्य के अधिकारियों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल के नियम का अनुपालन करने के लिए निर्देश दे दिए गए।

सभी मुग़ल बादशाहों ने उपासना-स्थलों के निर्माण व रख-रखाव के लिए अनुदान दिए। यहाँ तक कि युद्ध के दौरान जब मंदिरों को नष्ट कर दिया जाता था तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी किए जाते थे। एेसा हमें शाहजहाँ और औरंगज़ेब के शासन में पता चलता है, हालाँकि औरंगज़ेब के शासनकाल में गैर-मुसलमान प्रजा पर जज़िया फिर से लगा दिया गया।

9.6
चित्र 9.6
बादशाहनामा से एक दृश्य 
कलाकार पयाग द्वारा लगभग 1640 में चित्रित इस चित्र में जहाँगीर शहज़ादे खुर्रम को पगड़ी में लगाई जाने वाली मणि दे रहा है।

9.7

चित्र 9.7

अबुल हसन नामक एक कलाकार द्वारा बनाए गए चित्र में दरिद्रता की आकृति को मारते हुए जहाँगीर। कलाकार ने यहाँ लक्ष्य को गहरे बादल के आवरण में दिखाकर यह बताने की चेष्टा की है कि यह कोई वास्तविक व्यक्ति नहीं बल्कि एक अमूर्त लक्षण को प्रतीक के रूप में दिखाता एक मानवीय रूप है। कला और साहित्य में मानवीकरण के इस ढंग को रूपक-कथा कहा जाता है। न्याय की ज़ंजीर को स्वर्ग से उतरते हुए दिखाया गया है।


जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में न्याय की ज़ंजीर को इस प्रकार वर्णित किया है:

राज्यारोहण के बाद मैंने जो पहला आदेश दिया वह न्याय की जंज़ीर को लगाने का था ताकि न्याय के प्रशासन में संलग्न लोगों से यदि देर हो जाए अथवा वे न्याय चाहने वाले लोगों के विषय में मिथ्याचार का व्यवहार करें तो उत्पीड़ित व्यक्ति इस ज़ंजीर के पास आ सके और इसे हिला सके और उसकी ओर ध्यान आकर्षित हो सके। इस ज़ंजीर को शुद्ध सोने से बनाया गया था। यह 30 गज़ लम्बी थी तथा इसमें 60 घंटियाँ लगी हुई थीं।

इस चित्र के प्रतीकों की पहचान कर उनकी व्याख्या कीजिए और इस चित्र का सार प्रस्तुत कीजिए।

5.3 सामाजिक अनुबंध के रूप में न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता

अबुल फज़्ल ने प्रभुसत्ता को एक सामाजिक अनुबंध के रूप में परिभाषित किया है। वह कहता है कि बादशाह अपनी प्रजा के चार सत्त्वों की रक्षा करता है- जीवन (जन), धन (माल), सम्मान (नामस) और विश्वास (दीन) और इसके बदले में वह आज्ञापालन तथा संसाधनों में हिस्से की माँग करता है। केवल न्यायपूर्ण संप्रभु ही शक्ति और दैवीय मार्गदर्शन के साथ इस अनुबंध का सम्मान कर पाते थे।

न्याय के विचार के दृश्य रूप में निरूपण हेतु अनेक प्रतीकों की रचना की गई। न्याय के विचार को मुग़ल राजतंत्र में सर्वोत्तम सद्गुण माना गया। कलाकारों द्वारा प्रयुक्त सर्वाधिक पसंदीदा प्रतीकों में से एक था एक दूसरे के साथ चिपटकर शांतिपूर्वक बैठे हुए शेर और बकरी (या फिर गाय)। इसका उद्देश्य राज्य को एक एेसे क्षेत्र के रूप में दिखाना था जहाँ दुर्बल तथा सबल सभी परस्पर सद्भाव से रह सकते थे। सचित्र बादशाहनामा के दरबारी दृश्यों में एेसे प्रतीक का अंकन बादशाह के सिंहासन के ठीक नीचे एक आले में हुआ है (चित्र 9.6 देखिए)।

चर्चा कीजिए...

मुग़ल साम्राज्य में न्याय को राजतंत्र का इतना महत्त्वपूर्ण सद्गुण क्यों माना जाता था?

6. राजधानियाँ और दरबार

6.1 राजधानी नगर

मुग़ल साम्राज्य का हृदय-स्थल उसका राजधानी नगर था, जहाँ दरबार लगता था। सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान मुग़लों की राजधानियाँ बड़ी तेज़ी से स्थानांतरित होने लगीं। हालाँकि बाबर ने लोदियों की राजधानी आगरा पर अधिकार कर लिया था तथापि उसके शासन के चार वर्षों के दौरान राजसी दरबार भिन्न-भिन्न स्थान पर लगाए जाते रहे। 1560 के दशक में अकबर ने आगरा के किले का निर्माण करवाया। इसे आसपास के क्षेत्रों की खदानों से लाए गए लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया था।

1570 के दशक में उसने फतेहपुर सीकरी में एक नयी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। इस निर्णय का एक कारण यह हो सकता है कि सीकरी अजमेर को जाने वाली सीधी सड़क पर स्थित था, जहाँ शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह उस समय तक एक महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल बन चुकी थी। मुग़ल बादशाहों के चिश्ती सिलसिले के सूफ़ियों के साथ घनिष्ठ संबंध बने। अकबर ने सीकरी में जुम्मा मस्जिद के बगल में ही शेख सलीम चिश्ती के लिए सफेद संगमरमर का एक मकबरा बनाने का आदेश दिया। विशाल मेहराबी प्रवेशद्वार (बुलंद दरवाज़ा) के निर्माण का उद्देश्य वहाँ आने वाले लोगों को गुजरात में मुग़ल विजय की याद दिलाना था। 1585 में उत्तर-पश्चिम को और अधिक नियंत्रण में लाने के लिए राजधानी को लाहौर स्थानांतरित कर दिया गया और इस तरह तेरह वर्षों तक अकबर ने इस सीमा पर गहरी चौकसी बनाए रखी।

शाहजहाँ ने विवेकपूर्ण राजकोषीय नीतियों को आगे बढ़ाया तथा इमारत निर्माण के अपने शौक को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया। जैसाकि आपने पहले के शासकों के संदर्भ में देखा, राजतंत्रीय संस्कृतियों में इमारत निर्माण-कार्य राजवंशीय सत्ता, धन तथा प्रतिष्ठा का सर्वाधिक स्पष्ट और ठोस प्रतीक था। मुसलमान शासकों के संदर्भ में इसे धर्मनिष्ठा के एक कार्य के रूप में भी देखा जाता था।

1648 में दरबार, सेना व राजसी ख़ानदान आगरा से नयी निर्मित शाही राजधानी शाहजहाँनाबाद चले गए। दिल्ली के प्राचीन रिहायशी नगर में शाहजहाँनाबाद एक नयी और शाही आबादी थी। यहाँ लाल किला, जामा मस्जिद, चाँदनी चौक के बाज़ार की वृक्ष वीथि और अभिजात-वर्ग के बड़े-बड़े घर थे। शाहजहाँ का यह नया शहर विशाल एवं भव्य राजतंत्र की ज़्यादा औपचारिक कल्पना को व्यक्त करता था।

9.8

चित्र 9.8

बुलंद दरवाज़ा, फतहपुर सीकरी

6.2 मुग़ल दरबार

शासक पर केंद्रित दरबार की भौतिक व्यवस्था ने शासक के अस्तित्व को समाज के हृदय के रूप में प्रदर्शित किया। इसका केंद्रबिंदु इस प्रकार राजसिंहासन अथवा तख़्त था जिसने संप्रभु के कार्यों को भौतिक स्वरूप प्रदान किया था। इसे एक एेसे स्तंभ के रूप में देखा जाता था जिस पर धरती टिकी हुई थी। सहस्राब्दियों से भारत में राजतंत्र का प्रतीक रही छतरी, शासक की कांति को सूर्य की कांति से पृथक करने वाली मानी जाती थी।

इतिवृत्तों ने मुग़ल संभ्रांत वर्गों के बीच हैसियत को निर्धारित करने वाले नियमों को बड़ी सुस्पष्टता से सामने रखा है। दरबार में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास और दूर बैठा है। किसी भी दरबारी को शासक द्वारा दिया गया स्थान बादशाह की नज़र में उसकी महत्ता का प्रतीक था। एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था। दरबारी समाज में सामाजिक नियंत्रण का व्यवहार दरबार में मान्य संबोधन, शिष्टाचार तथा बोलने के ध्यानपूर्वक निर्धारित किए गए नियमों द्वारा होता था। शिष्टाचार का ज़रा सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उस व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।

शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की हैसियत का पता चलता था जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज़्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज़्यादा ऊँची मानी जाती थी। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (ज़मीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।

मुग़ल दरबार में राजनयिक दूतों संबंधी नयाचारों में भी एेसी ही सुस्पष्टता थी। मुग़ल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत होने वाले राजदूत से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अभिवादन के मान्य रूपों में से एक–या तो बहुत झुककर अथवा ज़मीन को चूमकर अथवा फ़ारसी रिवाज के मुताबिक छाती के सामने हाथ बाँधकर–तरीके से अभिवादन करेगा। जेम्स-I के अंग्रेज़ दूत टॉमस रो ने यूरोपीय रिवाज के अनुसार जहाँगीर के सामने केवल झुककर अभिवादन किया और इसके बाद बैठने के लिए कुर्सी का आग्रह कर पुन: दरबार को अचंभित कर दिया।

बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ व्यक्तिगत धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था और इसके बाद वह पूर्व की ओर मुँह किए एक छोटे छज्जे अर्थात झरोखे में आता था। इसके नीचे लोगों की भीड़ (सैनिक, व्यापारी, शिल्पकार, किसान, बीमार बच्चों के साथ औरतें) बादशाह की एक झलक पाने के लिए इंतज़ार करती थी। अकबर द्वारा शुरू की गई झरोखा दर्शन की प्रथा का उद्देश्य जन विश्वास के रूप में शाही सत्ता की स्वीकृति को और विस्तार देना था।

स्रोत 2

दरबार-ए-अकबरी

अबुल फज़्ल अकबर के दरबार का बड़ा सजीव विवरण देते हुए कहता है :

जब भी महामहिम (अकबर) दरबार लगाते हैं तो एक विशाल ढोल पीटा जाता है और साथ-साथ अल्लाह का गुणगान होता है। इस तरह सभी वर्गों के लोगों को सूचना मिल जाती है। महामहिम के पुत्र, पौत्र, दरबारी और वे सभी जिन्हें दरबार में प्रवेश की अनुमति थी, हाज़िर होते हैं और कोर्निश कर अपने स्थान पर खड़े रहते हैं। ख्यातिप्राप्त विद्वज्जन तथा विशिष्ट कौशलों में निपुण व्यक्ति आदर व्यक्त करते हैं; तथा न्याय अधिकारी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं। महामहिम अपनी सामान्य अंतर्दृष्टि के आधार पर आदेश देते हैं और सभी मामलों को संतोषजनक ढंग से निपटाते हैं। इस पूरे समय के दौरान विभिन्न देशों से आए तलवारिये व पहलवान अपने को तैयार रखते हैं और महिला तथा पुरुष गायक अपनी बारी की प्रतीक्षा में रहते हैं। चतुर बाज़ीगर और मज़ाकिया कलाबाज़ भी अपने कौशल और दक्षता का प्रदर्शन करने को उत्सुक हैं।

दरबार में होने वाली मुख्य गतिविधियों का वर्णन कीजिए।



कोर्निश औपचारिक अभिवादन का एक एेसा तरीका था जिसमें दरबारी दाएँ हाथ की तलहथी को ललाट पर रखकर आगे की ओर सिर झुकाते थे। यह इस बात का प्रतीक था कि कोर्निश करने वाला व्यक्ति अपने इंद्रिय और मन के स्थल को हाथ लगाते हुए झुककर विनम्रता के साथ शाही दरबार में अपने को प्रस्तुत कर रहा है।


अभिवादन का चार तसलीम तरीका दाएँ हाथ को ज़मीन पर रखने से शुरू होता है। इसमें तलहथी ऊपर की ओर होती है। इसके बाद हाथ को धीरे-धीरे उठाते हुए व्यक्ति खड़ा होता है तथा तलहथी को सिर के ऊपर रखता है। एेसी तसलीम चार बार की जाती है। तसलीम का शाब्दिक अर्थ आत्मनिवेदन है।


शब-ए-बारात हिजरी कैलेंडर के आठवें महीने अर्थात चौदहवें सावन को पड़ने वाली पूर्णचंद्र रात्रि है। भारतीय उपमहाद्वीप में प्रार्थनाओं और आतिशबाज़ियों के खेल द्वारा इस दिन को मनाया जाता है। एेसा माना जाता है कि इस रात मुसलमानों के लिए आगे आने वाले वर्ष का भाग्य निर्धारित होता है और पाप माफ़ कर दिए जाते हैं।

9.9

चित्र 9.9

आगरा में विवाह से पूर्व शहज़ादे औरंगज़ेब का सम्मान करते हुए शाहजहाँ। बादशाहनामा में पयाग द्वारा की गई चित्रकारी।

 

बादशाह की पहचान कीजिए

औरंगज़ेब को एक पीला जामा (ऊपरी वस्त्र) तथा छोटे-छोटे बौरों वाले हरे जैकेट में दिखाया गया है। वह कहाँ है और पिता के प्रति उसकी भाव-भंगिमा से क्या पता चलता है? दरबारियों को कैसे दिखाया गया है? क्या आप बाईं ओर बड़ी पगड़ियों वाली आकृतियों का पता लगा सकते हैं? ये विद्वानों के चित्रण हैं।

 झरोखे में एक घंटा बिताने के बाद बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों के संचालन हेतु सार्वजनिक सभा भवन (दीवान-ए आम) में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी रिपोर्ट प्रस्तुत करते तथा निवेदन करते थे। दो घंटे बाद बादशाह दीवान-ए-ख़ास में निजी सभाएँ और गोपनीय मुद्दों पर चर्चा करता था। राज्य के वरिष्ठ मंत्री उसके सामने अपनी याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे और कर अधिकारी हिसाब का ब्योरा देते थे। कभी-कभी बादशाह उच्च प्रतिष्ठित कलाकारों के कार्यों अथवा वास्तुकारों (मिमार) के द्वारा बनाए गए इमारतों के नक्शों को देखता था।

9.10

चित्र 9.10

जश्न-ए-वज़्न अथवा तुलादान समारोह में शहज़ादे खुर्रम को बहुमूल्य धातुओं से तौला जाना (जहाँगीर के संस्मरणों से)

रत्नजड़ित सिंहासन

आगरा महल के सार्वजनिक सभा भवन में रखे शाहजहाँ के रत्नजड़ित सिंहासन (तख़्त-ए-मुरस्सा) के बारे में बादशाहनामा में लिखा है:

सिंहासन की भव्य संरचना में एक छतरी है जो द्वादशकोणीय स्तंभों पर टिकी हुई है। इसकी ऊँचाई सीढ़ियों से गुंबद तक पाँच क्यूबिट (लगभग 10 फुट) है। अपने राज्यारोहण के समय महामहिम ने यह आदेश दिया कि 86 लाख रुपए के रत्न तथा बहुमूल्य पत्थर और एक लाख तोला सोना जिसकी कीमत चौदह लाख रुपए है, से इसे सजाया जाना चाहिए। सिंहासन की साज-सज्जा में सात वर्ष लग गए। इसकी सजावट में प्रयुक्त हुए बहुमूल्य पत्थरों में रूबी था जिसकी कीमत एक लाख रुपए थी और जिसे शाह अब्बास सफ़ावी ने दिवंगत बादशाह जहाँगीर को भेजा था। इस रूबी पर महान बादशाह तिमूर साहिब-ए किरान, मिर्ज़ा शाहरूख, मिर्ज़ा उलुग बेग और शाह अब्बास के साथ-साथ अकबर, जहाँगीर और स्वयं महामहिम के नाम अंकित थे।


9.12
चित्र 9.11
 (क) दाराशिकोह का विवाह

9.11

चित्र 9.11 (ख)

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चित्र 9.11 (ग)

चित्र में आप जो देख रहे हैं उसका वर्णन कीजिए।

शाही परिवारों में विवाहों का आयोजन काफ़ी खर्चीला होता था। 1633 में दाराशिकोह और नादिरा (राजकुमार परवेज़ की पुत्री) के विवाह की व्यवस्था राजकुमारी जहाँआरा और दिवंगत महारानी मुमताज़ महल की प्रमुख नौकरानी सती उन निसाखानुम द्वारा की गई। शादी के उपहारों के प्रदर्शन की व्यवस्था दीवान-ए-आम में की गई थी। बादशाह तथा हरम की स्त्रियाँ दोपहर में इसे देखने के लिए आईं तथा शाम के समय अभिजात यहाँ आए। दुलहन की माँ ने भी इसी तरह उसी विशाल कक्ष में उपहारों को सजाया था। शाहजहाँ इन्हें देखने के लिए वहाँ गया। हिनाबंदी (मेंहदी लगाना) की रस्म दीवान-ए-ख़ास में अदा की गई। दरबार में उपस्थित व्यक्तियों के बीच पान, इलायची तथा मेवे बाँटे गए। विवाह पर कुल 32 लाख रुपए खर्च हुए थे जिसमें 6 लाख रुपए शाही खज़ाने से, 16 लाख रुपए जहाँआरा (मुमताज़ महल द्वारा आरंभ में अलग से रखे गए रुपयों को मिलाते हुए) और शेष दुलहन की माँ द्वारा दिए गए थे। बादशाहनामा से लिए गए इन चित्रों में इस अवसर से जुड़ी कुछ गतिविधियों को दिखाया गया है।

सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, ईद, शब-ए-बारात तथा होली जैसे कुछ विशिष्ट अवसरों पर दरबार का माहौल जीवंत हो उठता था। सजे हुए डिब्बों में रखी सुगंधित मोमबत्तियाँ और महल की दीवारों पर लटक रहे रंग-बिरंगे बंदनवार आने वालों पर आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ते थे। मुग़ल शासक वर्ष में तीन मुख्य त्यौहार मनाया करते थे: सूर्यवर्ष और चंद्रवर्ष के अनुसार शासक का जन्मदिन और वसंतागमन पर फ़ारसी नववर्ष ‘नौरोज़’। जन्मदिन पर शासक को विभिन्न वस्तुओं से तौला जाता था तथा बाद में ये वस्तुएँ दान में बाँट दी जाती थीं।

 6.3 पदवियाँ, उपहार और भेंट

राज्याभिषेक के समय अथवा किसी शत्रु पर विजय के बाद मुग़ल बादशाह विशाल पदवियाँ ग्रहण करते थे। उद्घोषकों (नक़ीब) द्वारा जब इन गुंजायमान और लयबद्ध पदवियों की घोषणा की जाती थी तो वे सभा में विस्मय का माहौल बना देती थीं। मुग़ल सिक्कों पर राजसी नयाचार के साथ शासनरत बादशाह की पूरी पदवी होती थी।

योग्य व्यक्तियों को पदवियाँ देना मुग़ल राज्यतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। दरबारी पदानुक्रम में किसी व्यक्ति की उन्नति को उसके द्वारा धारण की जानेवाली पदवियों से जाना जा सकता था। उच्चतम मंत्रियों में से एक को दी जाने वाली आसफ खाँ की पदवी का उद्भव पैगम्बर शासक सुलेमान के कल्पित मंत्री से हुआ था। औरगज़ेब ने अपने दो उच्च पदस्थ अभिजातों जयसिंह और जसवंत सिंह को मिर्ज़ा राजा की पदवी प्रदान की। पदवियाँ या तो अर्जित की जा सकती थीं अथवा इन्हें पाने के लिए पैसे दिए जा सकते थे। मीर ख़ान ने अपने नाम में अलिफ़ अर्थात ‘अ’ अक्षर लगाकर उसे अमीर ख़ान करने के लिए औरंगज़ेब को एक लाख रुपए देने का प्रस्ताव किया।

अन्य पुरस्कारों में सम्मान का जामा (ख़िल्लत) भी शामिल था जिसे पहले कभी न कभी बादशाह द्वारा पहना गया हुआ होता था। इसलिए यह समझा जाता था कि वह बादशाह के आशीर्वाद का प्रतीक है। सरप्पा (‘सर से पाँव तक’) एक अन्य उपहार था। इस उपहार के तीन हिस्से हुआ करते थे: जामा, पगड़ी और पटका। बादशाह द्वारा अकसर रत्नजड़ित आभूषण भी उपहार के रूप में दिए जाते थे। बहुत ख़ास परिस्थितियों में बादशाह कमल की मंजरियों वाला रत्नजड़ित गहनों का सेट (पद्म मुरस्सा) भी उपहार में प्रदान करता था।

एक दरबारी बादशाह के पास कभी खाली हाथ नहीं जाता था। वह या तो नज़्र के रूप में थोड़ा धन या पेशकश के रूप में मोटी रकम बादशाह को पेश करता था। राजनयिक संबंधों में उपहारों को सम्मान और आदर का प्रतीक माना जाता था। राजदूत प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक शक्तियों के बीच संधि और संबंधों के ज़रिए समझौता करवाने के महत्त्वपूर्ण कार्य का संपादन करते थे। एेसी परिस्थितियों में उपहारों की महत्त्वपूर्ण प्रतीकात्मक भूमिका होती थी। टॉमस रो को इस बात से बहुत निराशा हुई थी कि उसने आसफ ख़ाँ को जो अँगूठी भेंट की थी, वह उसे केवल इसलिए वापस कर दी गई कि वह क्यों मात्र चार सौ रुपए मूल्य की थी।

9.13

चित्र 9.12

पगड़ी रखने के काम आने वाला एक मुग़लकालीन डिब्बा

चर्चा कीजिए...

क्या मुग़लों से जुड़े कुछ रिवाजों और व्यवहारों का अनुपालन आज के राजनेता करते हैं?

7. शाही परिवार

‘हरम’ शब्द का प्रयोग प्राय: मुग़लों की घरेलू दुनिया की ओर संकेत करने के लिए होता है। यह शब्द फ़ारसी से निकला है जिसका तात्पर्य है ‘पवित्र स्थान’। मुग़ल परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपपत्नियाँ, उसके नज़दीकी और दूर के रिश्तेदार (माता, सौतेली व उपमाताएँ, बहन, पुत्री, बहू, चाची-मौसी, बच्चे आदि) व महिला परिचारिकाएँ तथा गुलाम होते थे। बहुविवाह प्रथा भारतीय उपमहाद्वीप में विशेषकर शासक वर्गों में व्यापक रूप से प्रचलित थी

9.14

चित्र 9.13

फतेहपुर सीकरी में आंतरिक कमरों का एक हिस्सा।


राजपूत कुलों एवं मुग़लों, दोनों के लिए विवाह राजनीतिक संबंध बनाने व मैत्री-संबंध स्थापित करने का एक तरीका थे। विवाह में पुत्री को भेंटस्वरूप दिए जाने के साथ प्राय: एक क्षेत्र भी उपहार में दे दिया जाता था। इससे विभिन्न शासक वर्गों के बीच पदानुक्रमिक संबंधों की निरंतरता सुनिश्चित हो जाती थी। इस तरह के विवाह और उनके फलस्वरूप विकसित संबंधों के कारण ही मुग़ल बंधुता के एक व्यापक तंत्र का निर्माण कर सके। इससे वे महत्त्वपूर्ण वर्गों से जुड़े और उन्हें एक बृहद साम्राज्य को इकट्ठा रखने में मदद मिली।

मुग़ल परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रियों (बेगमों) और अन्य स्त्रियों (अगहा), जिनका जन्म कुलीन परिवार में नहीं हुआ था, में अंतर रखा जाता था। मेहर के रूप में अच्छा-ख़ासा नकद और बहुमूल्य वस्तुएँ लेने के बाद विवाह करके आई बेगमों को अपने पतियों से स्वाभाविक रूप से अगहाओं की तुलना में अधिक ऊँचा दर्जा और सम्मान मिलता था। राजतंत्र से जुड़े महिलाओं के पदानुक्रम में उपत्नियों (अगाचा) की स्थिति सबसे निम्न थी। इन सभी को नकद मासिक भत्ता तथा अपने-अपने दर्जे के हिसाब से उपहार मिलते थे। वंश आधारित पारिवारिक ढाँचा पूरी तरह स्थायी नहीं था। यदि पति की इच्छा हो और उसके पास पहले से ही चार पत्नियाँ न हों तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थीं। प्रेम तथा मातृत्व एेसी स्त्रियों को विधिसम्मत विवाहित पत्नियों के दर्जे तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।

पत्नियों के अतिरिक्त मुग़ल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम होते थे। वे साधारण से साधारण कार्य से लेकर कौशल, निपुणता तथा बुद्धिमता के अलग-अलग कार्यों का संपादन करते थे। गुलाम हिजड़े (ख़्वाजासर) परिवार के अंदर और बाहर के जीवन में रक्षक, नौकर और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाली महिलाओं के एजेंट होते थे।

नूरजहाँ के बाद मुग़ल रानियों और राजकुमारियों ने महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया। शाहजहाँ की पुत्रियों, जहाँआरा और रोशनआरा, को ऊँचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी। इसके अतिरिक्त जहाँआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का एक लाभप्रद केंद्र था, से राजस्व प्राप्त होता था।

9.15

चित्र 9.14

फतेहपुर सीकरी में शहज़ादे सलीम का जन्म, अकबरनामा, रामदास द्वारा चित्रित

इस चित्र के प्रत्येक हिस्से में जिन गतिविधियों का चित्रण कलाकार ने किया है उसका वर्णन कीजिए। अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा संपादित किए जा रहे कार्यों के आधार पर आप इस दृश्य के शाही प्रतिष्ठान के सदस्यों को पहचानने की कोशिश कीजिए।

संसाधनों पर नियंत्रण ने मुग़ल परिवार की महत्त्वपूर्ण स्त्रियों को इमारतों व बागों के निर्माण का अधिकार दे दिया। जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। इनमें से आँगन व बाग के साथ एक दोमंजिली भव्य कारवाँसराय थी। शाहजहाँनाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी।

गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गई एक रोचक पुस्तक हुमायूँनामा से हमें मुग़लों की घरेलू दुनिया की एक झलक मिलती है। गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हूमायूँ की बहन तथा अकबर की फूफी थी। गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फ़ारसी में धाराप्रवाह लिख सकती थी। जब अकबर ने अबुल फज़्ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया तो उसने अपनी फूफी से बाबर और हुमायूँ के समय के अपने पहले संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया ताकि अबुल फज़्ल उनका लाभ उठाकर अपनी कृति को पूरा कर सके।

गुलबदन ने जो लिखा वह मुग़ल बादशाहों की प्रशस्ति नहीं थी बल्कि उसने राजाओं और राजकुमारों के बीच चलने वाले संघर्षों और तनावों के साथ ही इनमें से कुुछ संघर्षों को सुलझाने में परिवार की उम्रदराज़ स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा।

8. शाही नौकरशाही

8.1 भर्ती की प्रक्रिया तथा पद

मुग़ल इतिहास विशेषकर अकबरनामा ने साम्राज्य की एेसी कल्पना दी जिसमें क्रिया और सत्ता लगभग पूरी तरह से एकमात्र बादशाह में निहित होती है जबकि शेष राज्य को बादशाह के आदेशों का अनुपालन करते हुए प्रदर्शित किया गया है। किंतु मुग़ल राज्य-तंत्र के बारे में इन इतिहासों से प्राप्त समृद्ध जानकारी को हम ध्यान से देखें तो हम उन तरीकों को समझ सकते हैं जिनसे कई भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्थाओं पर आधारित शाही संगठन प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में सक्षम हुआ। मुग़ल राज्य का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकार सामूहिक रूप से अभिजात-वर्ग भी कहते हैं।

अभिजात-वर्ग में भर्ती विभिन्न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके। मुग़लों के अधिकारी-वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफ़ादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य के निर्माण के आरंभिक चरण से ही तूरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे। इनमें से कुछ हुमायूँ के साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुग़ल दरबार में आए थे।

1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों–राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखज़ादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया अंबेर का राजा भारमल कछवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था।

मुग़ल अभिजात-वर्ग

चंद्रभान ब्राह्मण ने शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान लिखी अपनी पुस्तक चार चमन (चार बाग़) में मुग़ल अभिजात-वर्ग का इस प्रकार वर्णन किया है:

विभिन्न जातियों (अरब, ईरानी, तुर्की, ताजिक, कुर्द, ततार, रूसी, अबिसीनियाई इत्यादि) और देशों (तुर्की, मिस्र, सीरिया, इराक, अरब, ईरान, खुरासान, तूरान) के लोगों, वस्तुत: सभी समाजों से विभिन्न समूहों और श्रेणियों के लोगों को शाही दरबार में आश्रय प्राप्त हुआ। भारत से विभिन्न समूहों, ज्ञान और शिल्प में निपुण व्यक्तियों के साथ-साथ योद्धाओं, उदाहरण के लिए बुखारी और भक्करी, विशुद्ध वंशों के सैय्यद, अभिजात वंश के शेखज़ादा, लोधी, रोहिल्ला, युसुफज़ई जैसी अफ़गान जनजातियों, राणा, राजा, राव व रायाँ अर्थात, राठौर, सिसोदिया, कछवाहा, हाड़, गौड़, चौहान, पँवार, भादुरिया, सोलंकी, बुंदेला, शेखावत नाम से संबोधित की जाने वाली राजपूत जातियों व घक्कर, खोकर, बलूची और अन्य सभी भारतीय जनजातियाँ जो तलवार चलाती थीं व 100 से 7000 ज़ात के मनसब, घास के मैदानों और पर्वतीय भागों से भू-स्वामी, कर्नाटक, बंगाल, असम, उदयपुर, श्रीनगर, कुमायूँ, तिब्बत व किश्तवाड़ इत्यादि क्षेत्रों से सभी जनजातियों और समूहों को शाही दरबार को चूमने (में आने) अथवा रोज़गार पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

 स्रोत 3

दरबार में अभिजात

अकबर के दरबार में ठहरा हुआ जेसुइट पादरी फादर एंटोनियो मान्सेरेट उल्लेख करता है:

सत्ता के बेधड़क उपयोग से उच्च अभिजातों को रोकने के लिए राजा उन्हें दरबार में बुलाता है और निरंकुश आदेश देता है जैसे कि वे उसके दास हों। इन आदेशों का पालन उन अभिजातों के उच्च ओहदे और हैसियत से मेल नहीं खाता था।

फादर मान्सेरेट की टिप्पणी मुग़ल बादशाह व उनके अधिकारियों के बीच संबंध के बारे में क्या संकेत देती है?

तजवीज़ एक अभिजात द्वारा बादशाह के सामने प्रस्तुत की जाने वाली एेसी याचिका थी जिसमें किसी उम्मीदवार को मनसबदार के रूप में नियुक्त करने की सिफ़ारिश की जाती थी।

जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (मृत्यु 1645) ईरानी थी। औंरगज़ेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी खासी संख्या में थे।

सभी सरकारी अधिकारियों के दर्जे और पदों में दो तरह के संख्या-विषयक ओहदे होते थे: ‘ज़ात’ शाही पदानुक्रम में अधिकारी (मनसबदार) के पद और वेतन का सूचक था और ‘सवार’ यह सूचित करता था कि उससे सेवा में कितने घुड़सवार रखना अपेक्षित था। सत्रहवीं शताब्दी में 1,000 या उससे ऊपर ज़ात वाले मनसबदार अभिजात (उमरा जो कि अमीर का बहुवचन है) कहे गए।

सैन्य अभियानों में ये अभिजात अपनी सेनाओं के साथ भाग लेते थे तथा प्रांतों में वे साम्राज्य के अधिकारियों के रूप में भी कार्य करते थे। प्रत्येक सैन्य कमांडर घुड़सवारों को भर्ती करता था, उन्हें हथियारों आदि से लैस करता था और उन्हें प्रशिक्षण देता था। घुड़सवारी फ़ौज मुग़ल फ़ौज का अपरिहार्य अंग थी। घुड़सवार सिपाही शाही निशान से पार्श्वभाग में दागे गए उत्कृष्ट श्रेणी के घोड़े रखते थे। निम्नतम ओहदों के अधिकारियों को छोड़कर बादशाह स्वयं सभी अधिकारियों के ओहदों, पदवियों और अधिकारिक नियुक्तियों के बदलाव का पुनरीक्षण करता था। मनसब प्रथा की शुरुआत करने वाले अकबर ने अपने अभिजात-वर्ग के कुछ लोगों को शिष्य (मुरीद) की तरह मानते हुए उनके साथ आध्यात्मिक रिश्ते भी कायम किए।

अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक ज़रिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के ज़रिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज़ प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख़्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था। केंद्र में दो अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे: दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) और सद्र-उस-सुदुर (मदद-ए-माश अथवा अनुदान का मंत्री और स्थानीय न्यायाधीशों अथवा काज़ियों की नियुक्ति का प्रभारी)। ये तीनों मंत्री कभी-कभी इकटे्ठ एक सलाहकार निकाय के रूप में काम करते थे लेकिन ये एक दूसरे से स्वतंत्र होते थे। अकबर ने इन तथा अन्य सलाहकारों के साथ मिलकर साम्राज्य की प्रशासनिक, राजकोषीय व मौद्रिक संस्थाओं को आकार प्रदान किया।

दरबार में नियुक्त (तैनात-ए-रकाब) अभिजातों का एक एेसा सुरक्षित दल था जिसे किसी भी प्रांत या सैन्य अभियान में प्रतिनियुक्त किया जा सकता था। वे प्रतिदिन दो बार सुबह व शाम को सार्वजनिक सभा-भवन में बादशाह के प्रति आत्मनिवेदन करने के कर्तव्य से बँधे थे। दिन-रात बादशाह और उसके घराने की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी वे उठाते थे।

8.2 सूचना तथा साम्राज्य

सटीक और विस्तृत आलेख तैयार करना मुग़ल प्रशासन के लिए मुख्य रूप से महत्त्वपूर्ण था। मीर बख़्शी दरबारी लेखकों (वाकिया नवीस) के समूह का निरीक्षण करता था। ये लेखक ही दरबार में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी अर्ज़ियों व दस्तावेज़ों तथा सभी शासकीय आदेशों (रमान) का आलेख तैयार करते थे। इसके अतिरिक्त अभिजातों और क्षेत्रीय शासकों के प्रतिनिधि (वकील) दरबार की बैठकों (पहर) की तिथि और समय के साथ "उच्च दरबार से समाचार" (अख़बारात-ए-दरबार- ए-मुअल्ला) शीर्षक के अंतर्गत दरबार की सभी कार्यवाहियों का विवरण तैयार करते थे। अख़बारात में हर तरह की सूचनाएँ होती हैं जैसे दरबार में उपस्थिति, पदों और पदवियों का दान, राजनयिक शिष्टमंडलों, ग्रहण किए गए उपहारों अथवा किसी अधिकारी के स्वास्थ्य के विषय में बादशाह द्वारा की गई पूछताछ। राजाओं और अभिजातों के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन का इतिहास लिखने के लिए यह सूचनाएँ बहुत उपयोगी होती हैं।

समाचार वृत्तांत और महत्त्वपूर्ण शासकीय दस्तावेज़ शाही डाक के ज़रिए मुग़ल शासन के अधीन क्षेत्रों में एक छोर से दूसरे छोर तक जाते थे। बाँस के डिब्बों में लपेटकर रखे कागज़ों को लेकर हरकारों (कसीद अथवा पथमार) के दल दिन-रात दौड़ते रहते थे। काफ़ी दूर स्थित प्रांतीय राजधानियों से भी वृत्तांत बादशाह को कुछ ही दिनों में मिल जाया करते थे। राजधानी से बाहर तैनात अभिजातों के प्रतिनिधि अथवा राजपूत राजकुमार तथा अधीनस्थ शासक बड़े मनोयोग से इन उद्घोषणाओं की नकल तैयार करते थे व संदेशवाहकों के ज़रिए अपनी टिप्पणियाँ अपने स्वामियों के पास भेज देते थे। सार्वजनिक समाचार के लिए पूरा साम्राज्य आश्चर्यजनक रूप से तीव्र सूचना तंत्र से जुड़ा हुआ था।

8.3 केंद्र से परे: प्रांतीय प्रशासन

केंद्र में स्थापित कार्यों के विभाजन को प्रांतों (सूबों) में दुहराया गया था। यहाँ भी केंद्र के समान मंत्रियों के अनुरूप अधीनस्थ (दीवान, बख़्शी और सद्र) होते थे। प्रांतीय शासन का प्रमुख गवर्नर (सूबेदार) होता था जो सीधा बादशाह को प्रतिवेदन प्रस्तुत करता था।

प्रत्येक सूबा कई सरकारों में बँटा हुआ था। अकसर सरकार की सीमाएँ फ़ौजदारों के नीचे आने वाले क्षेत्रों की सीमाओं से मेल खाती थीं। इन इलाकों में फ़ौजदारों को विशाल घुड़सवार फ़ौज और तोपचियों के साथ रखा जाता था। परगना (उप-ज़िला) स्तर पर स्थानीय प्रशासन की देख-रेख तीन अर्ध-वंशानुगत अधिकारियों, कानूनगो (राजस्व आलेख
का रखवाला), चौधरी (राजस्व संग्रह का प्रभारी) और काज़ी द्वारा की जाती थी।

शासन के प्रत्येक विभाग के पास लिपिकों का एक बड़ा सहायक समूह, लेखाकार, लेखा-परीक्षक, संदेशवाहक और अन्य कर्मचारी होते थे जो तकनीकी रूप से दक्ष अधिकारी थे। ये मानकीकृत नियमों और प्रक्रियाओं के अनुसार कार्य करते तथा प्रचुर संख्या में लिखित आदेश व वृत्तांत तैयार करते थे। सर्वत्र फ़ारसी को शासन की भाषा बना दिया गया लेकिन ग्राम-लेखा के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होता था।

मुग़ल इतिहासकारों ने प्राय: बादशाह और उसके दरबार को ग्राम स्तर तक के संपूर्ण प्रशासनिक तंत्र का नियंत्रण करते हुए प्रदर्शित किया है। पर जैसा कि आपने देखा (अध्याय 8), इस प्रक्रिया का तनावमुक्त रहना असंभव सा ही था। स्थानीय ज़मींदारों और मुग़ल साम्राज्य के प्रतिनिधियों के बीच के संबंध कई बार संसाधनों और सत्ता के बँटवारों को लेकर संघर्ष का रूप ले लेते थे। ज़मींदार प्राय: राज्य के खिलाफ़ किसानों का समर्थन संघटित करने में सफल हो जाते थे।

चर्चा कीजिए...

अध्याय 8 का अनुभाग 2 पुन: पढ़िए। गाँवों में बादशाह की उपस्थिति को किस हद तक महसूस किया गया होगा, इस पर चर्चा कीजिए।

9. सीमाओं के परे

इतिवृत्तों के लेखकों ने मुग़ल बादशाहों द्वारा धारण की गई कई गुंजायमान पदवियों को सूचीबद्ध किया है। इनके अंतर्गत शहंशाह (राजाओं का राजा) जैसी सामान्य पदवियाँ अथवा जहाँगीर (विश्व पर कब्ज़ा करने वाला), अथवा शाहजहाँ (विश्व का राजा) जैसे अलग-अलग राजाओं द्वारा अपनाई गई ख़ास उपाधियाँ शामिल थीं। मुग़ल बादशाहों के अविजित क्षेत्रीय व राजनीतिक नियंत्रण के दावों को दुहराने के लिए इतिहासकार प्राय: इन पदवियों और उनके अर्थों का हवाला देते थे। लेकिन यही समसामयिक इतिहास पड़ोसी राजनीतिक शक्तियों के साथ राजनयिक रिश्तों और संघर्ष का विवरण देते हैं जिसमें प्रतिस्पर्धी क्षेत्रीय हितों की वजह से कुछ तनाव और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का पता चलता है।

9.16

चित्र 9.15

कंधार की घेराबंदी

9.1 सफ़ावी और कंधार

मुग़ल राजाओं तथा ईरान व तूरान के पड़ोसी देशों के राजनीतिक व राजनयिक रिश्ते अफ़गानिस्तान को ईरान व मध्य एशिया के क्षेत्रों से पृथक करने वाले हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में आने को इच्छुक सभी विजेताओं को उत्तर भारत तक पहुँचने के लिए हिंदूकुश को पार करना होता था। मुग़ल नीति का यह निरंतर प्रयास रहा कि सामरिक महत्त्व की चौकियों विशेषकर काबुल व कंधार पर नियंत्रण के द्वारा इस संभावित खतरे से बचाव किया जा सके।

9.17

चित्र 9.16

जहाँगीर का स्वप्न

इस लघुचित्र के अभिलेख से पता चलता है कि जहाँगीर ने हाल ही में देखे गए एक स्वप्न को अबुल हसन से चित्र में उतारने के लिए कहा। अबुल हसन ने इस दृश्य में दो शासकों- जहाँगीर व सफ़ावी शाह अब्बास को मित्रवत् गले लगाते हुए प्रदर्शित करते हुए चित्र बनाया। दोनों ही राजाओं का चित्रण उनकी पारंपरिक पोशाकों में किया गया है। शाह की आकृति 1613 में मुग़ल राजदूत वर्ग के साथ ईरान गए बिशनदास द्वारा बनाए गए चित्रों पर आधारित है। इससे इस दृश्य को, जोकि काल्पनिक है क्योंकि दोनों शासक कभी आपस में नहीं मिले, एक तरीके की प्रामाणिकता मिली।

चित्र को ध्यान से देखिए। जहाँगीर और शाह अब्बास के संबंध को किस तरह दर्शाया गया है? इनके शरीर की बनावट तथा हाव-भाव की तुलना कीजिए। जानवरों का क्या अभिप्राय है? चित्र में मानचित्र क्या सूचित करता है?

कंधार सफ़ावियों और मुग़लों के बीच झगड़े की जड़ था। यह किला-नगर आरंभ में हुमायूँ के अधिकार में था जिसे 1595 में अकबर द्वारा पुन: जीत लिया गया। यद्यपि सफ़ावी दरबार ने मुग़लों के साथ अपने राजनयिक संबंध बनाए रखे तथापि कंधार पर यह दावा करता रहा। 1613 में जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार में रहने देने की वकालत करने के लिए एक राजनयिक दूत भेजा लेकिन यह शिष्टमंडल अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। 1622 की शीत ऋतु में एक फ़ारसी सेना ने कंधार पर घेरा डाल दिया। मुग़ल रक्षक सेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी। अत: वह पराजित हुई और उसे किला तथा नगर सफ़ावियों को सौंपने पड़े।

9.2 अॉटोमन साम्राज्य: तीर्थयात्रा और व्यापार

अॉटोमन साम्राज्य के साथ मुग़लों ने अपने संबंध इस हिसाब से बनाए कि वे अॉटोमन नियंत्रण वाले क्षेत्रों में व्यापारियों व तीर्थयात्रियों के स्वतंत्र आवागमन को बरकरार रखवा सकें। यह हिजाज़ अर्थात अॉटोमन अरब के उस हिस्से के लिए विशेष रूप से सत्य था जहाँ मक्का और मदीना के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल स्थित थे। इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों में मुग़ल बादशाह आमतौर पर धर्म एवं वाणिज्य के मुद्दों को मिलाने की कोशिश करता था। वह लाल सागर के बंदरगाह अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहन देता था और इनकी बिक्री से अर्जित आय को उस इलाके के धर्मस्थलों व फ़कीरों में दान में बाँट देता था। हालाँकि औरंगज़ेब को जब अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया क्योंकि उसका मानना था कि "यह भी वैसा ही ईश्वर का घर है जैसा कि मक्का।"

स्रोत 4

बादशाह तक सुलभ पहुँच

पहले जेसुइट शिष्टमंडल का एक सदस्य मान्सेरेट अपने अनुभवों का विवरण लिखते हुए कहता है :

उससे (अकबर से) भेंट करने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए उसकी पहुँच कितनी सुलभ है इसके बारे में अतिशयोक्ति करना बहुत कठिन है। लगभग प्रत्येक दिन वह एेसा अवसर निकालता है कि कोई भी आम आदमी अथवा अभिजात उससे मिल सके और बातचीत कर सके। उससे जो भी बात करने आता है उन सभी के प्रति कठोर न होकर वह स्वयं को मधुरभाषी और मिलनसार दिखाने का प्रयास करता है। उसे उसकी प्रजा के दिलो-दिमाग से जोड़ने में इस शिष्टाचार और भद्रता का बड़ा असाधारण प्रभाव है।

स्रोत 2 के साथ इस विवरण की तुलना कीजिए।

9.3 मुग़ल दरबार में जेसुइट धर्म प्रचारक

यूरोप को भारत के बारे में जानकारी जेसुइट धर्म प्रचारकों, यात्रियों, व्यापारियों और राजनयिकों के विवरणों से हुई। मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराने वृत्तांत हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। पुर्तगाली राजा भी सोसाइटी अॉफ़ जीसस (जेसुइट) के धर्मप्रचारकों की मदद से ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में रुचि रखता था। सोलहवीं शताब्दी के दौरान भारत आने वाले जेसुइट शिष्टमंडल व्यापार और साम्राज्य निर्माण की इस प्रक्रिया का हिस्सा थे।

अकबर ईसाई धर्म के विषय में जानने को बहुत उत्सुक था। उसने जेसुइट पादरियों को आमंत्रित करने के लिए एक दूतमंडल गोवा भेजा। पहला जेसुइट शिष्टमंडल फतेहपुर सीकरी के मुग़ल दरबार में 1580 में पहुँचा और वह वहाँ लगभग दो वर्ष रहा। इन जेसुइट लोगों ने ईसाई धर्म के विषय में अकबर से बात की और इसके सद्गुणों के विषय में उलमा से उनका वाद-विवाद हुआ। लाहौर के मुग़ल दरबार में दो और शिष्टमंडल 1591 और 1595 में भेजे गए।

जेसुइट विवरण व्यक्तिगत प्रेक्षणों पर आधारित हैं और वे बादशाह के चरित्र और सोच पर गहरा प्रकाश डालते हैं। सार्वजनिक सभाओं में जेसुइट लोगों को अकबर के सिंहासन के काफ़ी नज़दीक स्थान दिया जाता था। वे उसके साथ अभियानों में जाते, उसके बच्चों को शिक्षा देते तथा उसके फुरसत के समय में वे अकसर उसके साथ होते थे। जेसुइट विवरण मुग़लकाल के राज्य अधिकारियों और सामान्य जन-जीवन के बारे में फारसी इतिहासों में दी गई सूचना की पुष्टि करते हैं। 

चर्चा कीजिए...

वे कौन-कौन से मुद्दे और सरोकार थे जिन्होंने मुग़ल शासकों के उनके समसामायिकों के साथ संबंधों को निर्धारित किया?

10. औपचारिक धर्म पर प्रश्न उठाना

जेसुइट शिष्टमंडल के सदस्यों के प्रति अकबर ने जो उच्च आदर प्रदर्शित किया उससे वे बहुत प्रभावित हुए। ईसाई धर्म सिद्धांतों में बादशाह की स्पष्ट दिलचस्पी की व्याख्या उन्होंने अपने मत में बादशाह के धर्म-परिवर्तन के संकेत रूप में की। इसे पश्चिमी यूरोप में हावी धार्मिक असहिष्णुता के माहौल के प्रकाश में समझा जा सकता है। मान्सेरेट ने टिप्पणी की कि, "राजा ने इस बात की बहुत कम परवाह की कि सभी को उसके धर्म के अनुपालन की अनुमति देकर उसने वास्तव में सबका तिरस्कार किया।"

धार्मिक ज्ञान के लिए अकबर की तलाश ने फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में विद्वान मुसलमानों, हिंदुओं, जैनों, पारसियों और ईसाइयों के बीच अंतर-धर्मीय वाद-विवादों को जन्म दिया। अकबर के धार्मिक विचार, विभिन्न धर्मों व संप्रदायों के विद्वानों से प्रश्न पूछने और उनके धर्म-सिद्धांतों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने से, परिपक्व हुए। धीरे-धीरे वह धर्मों को समझने के रूढ़िवादी तरीकों से दूर प्रकाश और सूर्य पर केंद्रित दैवीय उपासना के स्व-कल्पित विभिन्नदर्शन ग्राही रूप की ओर बढ़ा। हमने देखा कि अकबर और अबुल फज़्ल ने प्रकाश के दर्शन का सृजन किया और राजा की छवि तथा राज्य की विचारधारा को आकार देने में इसका प्रयोग किया। इसमें दैवीय रूप से प्रेरित व्यक्ति का अपने लोगों पर सर्वोच्च प्रभुत्व तथा अपने शत्रुओं पर पूर्ण नियंत्रण होता है।

9.18

चित्र 9.17

दरबार में धार्मिक वाद-विवाद। पार्दे रुडोल्फ एक्वाविवा पहले जेसुइट शिष्टमंडल का नेता था। उसका नाम चित्र के ऊपरी भाग पर लिखा है।

हरम में होम

यहाँ अब्दुल कादिर बदायूँनी के मुन्तख़ाब-उत-तवारीख से एक अंश दिया गया है। एक धर्मविज्ञानी और दरबारी बदायूँनी अपने नियोक्ता की नीतियों का आलोचक था और अपनी पुस्तक की विषयवस्तु को वह सार्वजनिक नहीं करना चाहता था।

युवावस्था के आरंभ से ही महामहिम अपनी पत्नियों अर्थात हिंद के राजाओं की पुत्रियों के सम्मान में हरम में होम का आयोजन कर रहे थे। यह एेसी धर्मक्रिया है जो अग्नि-पूजा (आतिश-परस्ती) से व्युत्पन्न हुई है। परंतु अपने 25वें शासन वर्ष (1578) के नए वर्ष पर उसने सार्वजनिक रूप से सूर्य और अग्नि को दंडवत् प्रणाम किया। शाम को चिराग और मोमबत्तियाँ जलाए जाने पर सारे दरबार को आदरपूर्वक उठना पड़ा।

 ये विचार दरबारी इतिहासकारों के परिप्रेक्ष्य से संगति रखते थे। ये इतिहासकार हमें उन प्रक्रियाओं का बोध कराते हैं जिनके द्वारा मुग़ल शासक बड़े प्रभावशाली तरीके से एेसी विजातीय जनता को एक शाही संरचना के अंतर्गत सम्मिलित कर सके। भौगोलिक विस्तार और राजनीतिक नियंत्रण के व्यापक रूप से ह्रास के बाद भी लगभग डेढ़ शताब्दी तक इस राजवंश का नाम भारतीय उपमहाद्वीप में वैध रहा।

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चित्र 9.18

ईरान के प्रवासी कलाकारों द्वारा मुल्तान के मकबरे से लाई गई नीली टाइलें।

काल-रेखा

कुछ प्रमुख मुग़ल इतिवृत्त तथा संस्मरण

लगभग 1530 बाबर के संस्मरणों की पाण्डुलिपि का तिमूरियों के पारिवारिक संग्रह का हिस्सा बनना। तुर्की भाषा में लिखे गए यह संस्मरण किसी तरह एक तूफ़ान से बचा लिए गए।

लगभग 1587 गुलबदन बेगम द्वारा हुमायूँनामा के लेखन की शुरुआत

1589 बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के रूप में फ़ारसी में अनुवाद

1589-1602 अबुल फज़्ल द्वारा अकबरनामा पर कार्य करना

1605-22 जहाँगीर द्वारा जहाँगीरनामा नाम से अपना संस्मरण लिखना

1639-47 लाहौरी द्वारा बादशाहनामा के पहले दो द.फ्तरों का लेखन

लगभग 1650 मुहम्मद वारिस द्वारा शाहजहाँ के शासन के तीसरे दशक के इतिवृत्त लेखन की शुरुआत

1668 मुहम्मद काज़िम द्वारा औरंगज़ेब के शासन के पहले दस वर्षों के इतिहास का आलमगीरनामा के नाम से संकलन

9.20

चित्र 9.19

कई मुग़ल पांडुलिपियों में चिड़ियों का अंकन हुआ था।

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

1. मुग़ल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।

2. मुग़ल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?

3. मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।

4. वे कौन से मुद्दे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?

5. मुग़ल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह से प्रांतों पर नियंत्रण रखता था?

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों)

6. उदाहरण सहित मुग़ल इतिहासों के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।

7. इस अध्याय में दी गई दृश्य-साम्रगी किस हद तक अबुल फज़्ल द्वारा किए गए ‘तसवीर’ के वर्णन (स्रोत 1) से मेल खाती है?

8. मुग़ल अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके संबंध किस तरह बने।

9. राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों की पहचान कीजिए।

मानचित्र कार्य

10. विश्व मानचित्र के एक रेखाचित्र पर उन क्षेत्रों को अंकित कीजिए जिनसे मुग़लों के राजनीतिक व सांस्कृतिक संबंध थे?

परियोजना (कोई एक) 

11. किसी मुग़ल इतिवृत्त के विषय में और जानकारी ढूँढ़िए। इसके लेखक, भाषा, शैली और विषयवस्तु का वर्णन करते हुए एक वृत्तांत तैयार कीजिए। आपके द्वारा चयनित इतिहास की व्याख्या में प्रयुक्त कम-से-कम दो चित्रों का, बादशाह की शक्ति को इंगित करने वाले संकेतों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वर्णन कीजिए?

12. राज्यपद के आदर्शों, दरबारी रिवाजों और शाही सेवा में भर्ती की विधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए व समानताओं और विभिन्नताओं पर प्रकाश डालते हुए मुग़ल दरबार और प्रशासन की वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था से तुलना कर एक वृत्तांत तैयार कीजिए।

9.19

 चित्र 9.20

एक पेड़ पर गिलहरियों को दर्शाती एक मुग़ल चित्रकारी

यदि आप और जानकारी चाहते हैं तो इन्हें पढ़िए:

  • बैम्बर गैसकोइने, 1971, दि ग्रेट मुगल्स, जोनाथन केप लिमिटेड, लंदन
  • शीरीन मूसवी, 2006 (पुनर्मुद्रित) एपिसोड्स इन दि लाइफ अॉफ़ अकबर नेशनल बुक ट्रस्ट, न्यू दिल्ली
  • हरबंस मुखिया, 2004 दि मुगल्स अॉफ़ इंडिया, ब्लैकवेल, अॉक्सफोर्ड
  • जॉन एफ. रिचर्ड्स, 1996 दि मुग़ल एम्पायर (दि न्यू कैम्ब्रिज हिस्ट्री अॉफ़ इंडिया, वोल्यूम-1) कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज
  • एन्नेमेरी शीमेल, 2005 दि एम्पायर अॉफ़ दि ग्रेट मुगल्स: हिस्ट्री, आर्ट एंड कल्चर, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू दिल्ली

अधिक जानकारी के लिए आप निम्नलिखित वेबसाइट देख सकते हैं।

www.mughalgardens.org


चित्रों के लिए श्रेय

विष5

चित्र 5.1: Ritu Topa.

चित्र 5.2 : Henri Stierlin, The Cultural History of the Arabs,

Aurum Press, London, 1981.

चित्र 5.4, 5.13: FICCI, Footprints of Enterprise: Indian Business Through the Ages, Oxford University Press, New Delhi, 1999.

चित्र 5.5: Calcutta Art Gallery, printed in E.B. Havell,

The Art Heritage of India, D.B. Taraporevala Sons & Co., Bombay, 1964.

चित्र 5.6, 5.7, 5.12: Bamber Gascoigne, The Great Moghuls,

Jonathan Cape Ltd., London, 1971.

चित्र 5.8, 5.9: Sunil Kumar.

चित्र 5.10: Rosemary Crill, Indian Ikat Textiles, Weatherhill, London, 1998.

चित्र 5.11, 5.14: C.A. Bayly (ed). An Illustrated History of Modern India, 1600-1947, Oxford University Press, Bombay, 1991.

विषय 6

चित्र 6.1: Susan L. Huntington, The Art of Ancient India,

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चित्र 6.3, 6.17: Jim Masselos, Jackie Menzies and Pratapaditya Pal, Dancing to the Flute: Music and Dance in Indian Art,

The Art Gallery of New South Wales, Sydney, Australia, 1997.

चित्र 6.4, 6.5: Benjamin Rowland, The Art and Architecture of India, Penguin, Harmondsworth, 1970.

चित्र 6.6: Henri Stierlin, The Cultural History of the Arabs,

Aurum Press, London, 1981.

चित्र 6.8: http:èkèkwww.us.iis.ac.ukèkview_article.aspèkContentID=104228

चित्र 6.9: http:èkèkwww.thekkepuram.ourfamily.comèkmiskal.htm

चित्र 6.10: http:èkèka bangladesh.comèkbanglapediaèkImagesèkA_0350A.JPG

चित्र 6.11: foziaqazi@kashmirvision.com

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विष7

चित्र 7.1, 7.11, 7.12, 7.14, 7.15, 7.16, 7.18: Vasundhara Filliozat and

George Michell (eds), The Splendours of Vijayanagara,

Marg Publications, Bombay, 1981.

चित्र 7.2: C.A. Bayly (ed). An Illustrated History of Modern India,

1600-1947, Oxford University Press, Bombay, 1991.

चित्र 7.3: Susan L. Huntington, The Art of Ancient India, Weatherhill, New York, 1993.

चित्र 7.4, 7.6, 7.7, 7.20, 7. 23, 7.26, 7.27, 7.32: George Michell, Architecture and Art of South India, Cambridge University Press, Cambridge, 1995.

चित्र7.5, 7.8, 7.9, 7.21 http:èkèkwww.museum.upenn.eduèknewèk researchèkExp_Rese_DiscèkAsiaèkvrpèkHTMLèkVijay_Hist.shtml

चित्र 7.10: Catherine B. Asher and Cynthia Talbot.

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चित्र 7.17, 7.22, 7.24, 7.28, 7.29, 7.30, 7.31, 7.33: George Michell and M.B.Wagoner, Vijayanagara: Architectural Inventory of the Sacred Centre, Munshiram Manoharlal, New Delhi.

चित्र 7.25: CCRT.

विषय 8

चित्र 8.1, 8.9: Milo Cleveland Beach and Ebba Koch, King of the World,

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चित्र 8.3: India Office Library, printed in C.A. Bailey (ed). An Illustrated History of Modern India, 1600-1947, Oxford University Press, Bombay, 1991.

चित्र 8.4: Harvard University Art Museum, printed in Stuart Cary Welch, Indian Art and Culture 1300-1900, The Metropolitan Museum of Art, New York, 1985.

चित्र 8.6, 8.11, 8.12, 8.14: C.A. Bayly (ed). An Illustrated History of Modern India, 1600-1947, Oxford University Press, Bombay, 1991.

चित्र 8.13, 8.15: Bamber Gascoigne, The Great Moghuls,

Jonathan Cape Ltd., London, 1971.

विषय 9

चित्र 9.1, 9.2, 9.12, 9.13, 9.19: Bamber Gascoigne, The Great Moghuls,

Jonathan Cape, London, 1971.

चित्र 9.3, 9.4, 9.17: Michael Brand and Glenn D. Lowry, Akbar’s India, New York, 1986.

चित्र 9.5, 9.15: Amina Okada, Indian Miniatures of the Mughal Court.

चित्र 9.6, 9.7: The Jahangirnama (tr. Wheeler Thackston)

चित्र 9.8: Photograph Friedrich Huneke.

चित्र 9.9, 9.11 a, b, c : Milo Cleveland Beach and Ebba Koch,

King of the World, Sackler Gallery, New York, 1997.

चित्र 9.10, 9.16, 9.20: Stuart Carey Welch, Imperial Mughal Painting,

George Braziller, New York, 1978.

चित्र 9.14: Geeti Sen, Paintings from the Akbarnama.

चित्र 9.18: Hermann Forkl et al. (eds), Die Gärten des Islam.