12108CH03.tif





अध्याय 3


समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व


परिचय

हमने देखा कि शीतयुद्ध के अंत के बाद संयुक्त राज्य अमरीका विश्व की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा और दुनिया में कोई उसकी टक्कर का प्रतिद्वंद्वी न रहा। इस घटना के बाद के दौर को अमरीकी प्रभुत्व या एकध्रुवीय विश्व का दौर कहा जाता है। इस अध्याय में हम अमरीकी प्रभुत्व की प्रकृति, विस्तार और सीमाओं को समझने की कोशिश करेंगे। पहले खाड़ी युद्ध से लेकर अमरीकी अगुआई में इराक पर हमले तक घटनाओं का एक सिलसिला है। एकध्रुवीय विश्व के उभार की इस कथा की शुरुआत हम इस घटनाक्रम के जिक्र से करेंगे। इसके बाद हम थोड़ा ठहरकर ‘वर्चस्व’ की अवधारणा के सहारे इस प्रभुत्व की प्रकृति को समझने के प्रयास करेंगे। अमरीकी वर्चस्व के राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं की जाँच-परख के बाद हम यह देखेंगे कि अमरीका से निबटने के लिए भारत के पास नीतिगत विकल्प क्या हैं। अध्याय के अंत में हम इस बात पर विचार करेंगे कि अमरीकी वर्चस्व के सामने क्या कोई चुनौती आन खड़ी है और क्या अमरीकी वर्चस्व से उबरा जा सकता है?


4

2001 के सितंबर में न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ। इसे समकालीन इतिहास की धारा को मोड़ देने वाली घटना के रूप में देखा जाता है। यहाँ हमले और उसके बाद की स्थिति को बयान करती एक तस्वीर दी गई है।

आयशा, जाबू और आंद्रेई

बगदाद के छोर पर कायम एक स्कूल में पढ़ रही आयशा अपनी पढ़ाई-लिखाई में अव्वल थी। उसने सोचा था कि आगे किसी विश्वविद्यालय में डॉक्टरी की पढ़ाई करूँगी। सन् 2003 में उसकी एक टाँग जाती रही। वह एक ठिकाने में अपने दोस्तों के साथ छुपी हुई थी और तभी हवाई हमले में दागी हुई एक मिसाइल उसके ठिकाने पर आ गिरी। आयशा अब फिर से चलना-फिरना सीख रही है। अब भी उसकी योजना डॉक्टर बनने की ही है, लेकिन तब ही जब विदेशी सेना उसके देश को छोड़कर चली जाए।

u1.tifमैं खुश हूँ कि मैंने विज्ञान के विषय नहीं लिए वर्ना मैं भी अमरीकी वर्चस्व का शिकार हो जाता। क्या आप बता सकते हैं क्यों?


डरबन (दक्षिण अप्रुीका) का रहने वाला जाबू एक प्रतिभाशाली कलाकार है। उसकी चित्रकारी पर पारंपरिक जनजातीय कला का गहरा असर है। उसकी योजना आर्ट स्कूल में पढ़ने और इसके बाद अपना स्टूडियो खोलने की है। लेकिन उसके पिता चाहते हैं कि जाबू एमबीए की पढ़ाई करे और परिवार का व्यवसाय संभाले। व्यवसाय फिलहाल मंदा चल रहा है और जाबू के पिता सोचते हैं कि वह परिवार के व्यवसाय को फायदेमंद बनाएगा।

युवा आंद्रेई पर्थ (आस्ट्रेलिया) में रहता है। उसके माँ-बाप बतौर आप्रवासी रूस से आये थे। चर्च जाते वक्त जब वह नीली जीन्स पहन लेता है तो उसकी माँ आपे से बाहर हो जाती हैं। वह चाहती हैं कि आंद्रेई चर्च में सभ्य-शालीन दिखाई पड़े। आंद्रेई अपनी माँ को बताता है कि जीन्स ‘कूल’ है और जीन्स पहनकर उसे आज़ादी का अहसास होता है। आंद्रेई के पिता उसकी माँ को याद दिलाते हैं कि हम लोग भी लेनिनग्राद में रहते हुए अपने जवानी के दिनों में जीन्स पहनते थे और उसी कारण से जिससे आज आंद्रेई पहनता है।

आंद्रेई की अपनी माँ से बहस हुई। हो सकता है जाबू को वह विषय पढ़ना पड़े जिसमें उसकी दिलचस्पी नहीं। इससे अलग, आयशा की एक टाँग जाती रही और उसका सौभाग्य है कि वह जीवित है। हम इन समस्याओं के बारे में एक साथ चर्चा कैसे कर सकते हैं? हम एेसा कर सकते हैं और हमें एेसा ज़रूर करना चाहिए। हम इस अध्याय में देखेंगे कि ये तीनों एक न एक तरीके से अमरीकी वर्चस्व का शिकार हैं। आयशा, जाबू और आन्द्रेई की चर्चा पर हम फिर लौटेंगे लेकिन पहले इस बात को समझें कि अमरीकी वर्चस्व की शुरुआत कैसे हुई और आज यह विश्व में कैसे असरमंद है।

हम अपनी चर्चा में ‘संयुक्त राज्य अमरीका’ की जगह ज्यादा लोकप्रिय शब्द ‘अमरीका’ का इस्तेमाल करेंगे। लेकिन यहाँ यह याद रखना उपयोगी होगा कि ‘अमरीका’ शब्द से उत्तरी अमरीका और दक्षिणी अमरीका नामक दो महाद्वीपों का अर्थ ध्वनित होता है और ‘संयुक्त राज्य अमरीका’ मात्र के लिए ‘अमरीका’ शब्द का प्रयोग खुद में उस वर्चस्व का प्रतीक है जिसे हम इस अध्याय में समझने की कोशिश करेंगे।

नयी विश्व-व्यवस्था की शुरुआत

सोवियत संघ के अचानक विघटन से हर कोई आश्चर्यचकित रह गया। दो महाशक्तियों में अब एक का वजूद तक न था जबकि दूसरा अपनी पूरी ताकत या कहें कि बढ़ी हुई ताकत के साथ कायम था। इस तरह, जान पड़ता है कि अमरीका के वर्चस्व की शुरुआत 1991 में हुई जब एक ताकत के रूप में सोवियत संघ अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब हो गया। एक हद तक यह बात सही है लेकिन हमें इसके साथ-साथ दो और बातों का ध्यान रखना होगा। पहली बात यह कि अमरीकी वर्चस्व के कुछ पहलुओं का इतिहास 1991 तक सीमित नहीं है बल्कि इससे कहीं पीछे दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय 1945 तक जाता है। इस पहलू के बारे में हम इसी अध्याय में पढ़ेंगे। दूसरी बात, अमरीका ने 1991 से ही वर्चस्वकारी ताकत की तरह बरताव करना नहीं शुरू किया। दरअसल यह बात ही बहुत बाद में जाकर साफ हुई कि दुनिया वर्चस्व के दौर में जी रही है। आइए, हम उस प्रक्रिया की चर्चा करें जिसने अमरीकी वर्चस्व की जड़ों को ज्यादा गहरे तक जमा दिया।

5

जले और टूटे हुए वाहनों की यह तस्वीर ‘हाईवे अॉव डेथ’ (मृत्यु का राजपथ) से ली गई है। कुवैत और बसरा के बीच की इस सड़क पर पीछे हटती इराकी सेना पर पहले खाड़ी युद्ध (फरवरी, 1991) के दौरान अमरीकी विमानों ने हमला किया था। कुछ विद्वानों का कहना है कि अमरीकी सेना ने जानबूझ कर सड़क के इस हिस्से पर हमला किया था। मैदान छोड़कर भागते हुए इराकी सैनिक सड़क के इस हिस्से पर अफरा-तफरी भरे ट्रैफिक-जाम में फँसे थे। अमरीकी विमानों के हमले में उनके साथ-साथ कुवैती बंदी और फिलिस्तीनी नागरिक शरणार्थी भी मारे गये। अनेक विद्वानों और पर्यवेक्षकों ने इसे ‘युद्ध-अपराध’ की संज्ञा दी और ‘जेनेवा समझौते’ का उल्लंघन माना।


1990 के अगस्त में इराक ने कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर कब्ज़ा जमा लिया। इराक को समझाने-बुझाने की तमाम राजनयिक कोशिशें जब नाकाम रहीं तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कुवैत को मुक्त कराने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे दी। शीतयुद्ध के दौरान ज्यादातर मामलों में चुप्पी साध लेने वाले संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिहाज से यह एक नाटकीय फैसला था। अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे ‘नई विश्व व्यवस्था’ की संज्ञा दी।

34 देशों की मिलीजुली और 660000 सैनिकों की भारी-भरकम फौज ने इराक के विरुद्ध मोर्चा खोला और उसे परास्त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस सैन्य अभियान को ‘अॉपरेशन डेजर्ट स्टार्म’ कहा जाता है जो एक हद तक अमरीकी सैन्य अभियान ही था। एक अमरीकी जनरल नार्मन श्वार्जकॉव इस सैन्य-अभियान के प्रमुख थे और 34 देशों की इस मिली जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमरीका के ही थे। हालाँकि इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का एेलान था कि यह ‘सौ जंगों की एक जंग’ साबित होगा लेकिन इराकी सेना जल्दी ही हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूर होना पड़ा।


u2.tifक्या यह बात सही है कि अमरीका ने अपनी जमीन पर कभी कोई जंग नहीं लड़ी? कहीं इसी वज़ह से जंगी कारनामे करना अमरीका के लिए बायें हाथ का खेल तो नहीं?     


प्रथम खाड़ी-युद्ध से यह बात ज़ाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्य-क्षमता के मामले में अमरीका से बहुत पीछे हैं और इस मामले में प्रौद्योगिकी के धरातल पर अमरीका बहुत आगे निकल गया है। बड़े विज्ञापनी अंदाज में अमरीका ने इस युद्ध में तथाकथित ‘स्मार्ट बमों’ का प्रयोग किया। इसके चलते कुछ पर्यवेक्षकों ने इसे ‘कंप्यूटर युद्ध’ की संज्ञा दी। इस युद्ध की टेलीविजन पर व्यापक कवरेज हुई और यह एक ‘वीडियो गेम वार’ में तब्दील हो गया। दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर दर्शक अपनी बैठक में बड़े इत्मीनान से देख रहे थे कि इराकी सेना किस तरह धराशायी हो रही है।

यह बात अविश्वसनीय जान पड़ती है लेकिन अमरीका ने इस युद्ध में मुनाफा कमाया। कई रिपोर्टों में कहा गया कि अमरीका ने जितनी रकम इस जंग पर खर्च की उससे कहीं ज्यादा रकम उसे जर्मनी, जापान और सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।


क्लिंटन का दौर

प्रथम खाड़ी युद्ध जीतने के बावजूद जार्ज बुश 1992 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार विलियम जेफर्सन (बिल) क्लिंटन से राष्ट्रपति-पद का चुनाव हार गए। क्लिंटन ने विदेश-नीति की जगह घरेलू नीति को अपने चुनाव-प्रचार का निशाना बनाया था। बिल क्लिंटन 1996 में दुबारा चुनाव जीते और इस तरह वे आठ सालों तक राष्ट्रपति-पद पर रहे। क्लिंटन के दौर में एेसा जान पड़ता था कि अमरीका ने अपने को घरेलू मामलों तक सीमित कर लिया है और विश्व के मामलों में उसकी भरपूर संलग्नता नहीं रही। विदेश नीति के मामले में क्लिंटन सरकार ने सैन्य-शक्ति और सुरक्षा जैसी ‘कठोर राजनीति’ की जगह लोकतंत्र के बढ़ावे, जलवायु-परिवर्तन तथा विश्व व्यापार जैसे ‘नरम मुद्दोें’ पर ध्यान केंद्रित किया।

बहरहाल, क्लिंटन के दौर में भी अमरीका जब-तब फौजी ताकत के इस्तेमाल के लिए तैयार दिखा। इस तरह की एक बड़ी घटना 1999 में हुई। अपने प्रांत कोसोवो में युगोस्लाविया ने अल्बानियाई लोगों के आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्य कार्रवाई की। कोसोवो में अल्बानियाई लोगों की बहुलता है। इसके जवाब में अमरीकी नेतृत्व में नाटो के देशों ने युगोस्लावियाई क्षेत्रों पर दो महीने तक बमबारी की। स्लोबदान मिलोसेविच की सरकार गिर गयी और कोसोवो पर नाटो की सेना काबिज हो गई। क्लिंटन के दौर में दूसरी बड़ी सैन्य कार्रवाई नैरोबी (केन्या) और दारे-सलाम (तंजानिया) के अमरीकी दूतावासों पर बमबारी के ज़वाब में 1998 हुई। अतिवादी इस्लामी विचारों से प्रभावित आतंकवादी संगठन ‘अल-कायदा’ को इस बमबारी का जिम्मेवार ठहराया गया। इस बमबारी के कुछ दिनों के अंदर राष्ट्रपति क्लिंटन ने ‘अॉपरेशन इनफाइनाइट रीच’ का आदेश दिया। इस अभियान के अंतर्गत अमरीका ने सूडान और अफ़गानिस्तान के अल-कायदा के ठिकानों पर कई बार क्रूज मिसाइल से हमले किए। अमरीका ने अपनी इस कार्रवाई के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुमति लेने या इस सिलसिले में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की परवाह नहीं की। अमरीका पर आरोप लगा कि उसने अपने इस अभियान में कुछ नागरिक ठिकानों पर भी निशाना साधा जबकि इनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था। पीछे मुड़कर अब देखने पर लगता है कि यह तो एक शुरुआत भर थी।


यह तो बड़ी बेतुकी बात है! क्या इसका यह मतलब लगाया जाए कि लिट्टे आतंकवादियों के छुपे होने का शुबहा होने पर श्रीलंका पेरिस पर मिसाइल दाग सकता है?


New_York_Times_9-11.tif

न्यूयार्क टाइम्स ने अगली सुबह 9/11 की रिपोर्टिंग इस तरह की थी।

 

9/11 और ‘आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध’

11 सितंबर 2001 के दिन विभिन्न अरब देशों के 19 अपहरणकर्त्ताओं ने उड़ान भरने के चंद मिनटों बाद चार अमरीकी व्यावसायिक विमानों पर कब्ज़ा कर लिया। अपहरणकर्त्ता इन विमानों को अमरीका की महत्त्वपूर्ण इमारतों की सीध में उड़ाकर ले गये। दो विमान न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावर से टकराए। तीसरा विमान वर्जिनिया के अर्लिंगटन स्थित ‘पेंटागन’ से टकराया। ‘पेंटागन’ में अमरीकी रक्षा-विभाग का मुख्यालय है। चौथे विमान को अमरीकी कांग्रेस की मुख्य इमारत से टकराना था लेकिन वह पेन्सिलवेनिया के एक खेत में गिर गया। इस हमले को ‘नाइन एलेवन’ कहा जाता है (अमरीका में महीने को तारीख से पहले लिखने का चलन है। इसी का संक्षिप्त रूप 9/11 है न कि 11/9 जैसा कि भारत में लिखा जाएगा)।

इस हमले में लगभग तीन हजार व्यक्ति मारे गये। अमरीकियों के लिए यह दिल दहला देने वाला अनुभव था। उन्होंने इस घटना की तुलना 1814 और 1941 की घटनाओं से की। 1814 में ब्रिटेन ने वाशिंग्टन डीसी में आगजनी की थी और 1941 में जापानियों ने पर्ल हार्बर पर हमला किया था। जहाँ तक जान-माल की हानि का सवाल है तो अमरीकी जमीन पर यह अब तक का सबसे गंभीर हमला था। अमरीका 1776 में एक देश बना और तब से उसने इतना बड़ा हमला नहीं झेला था।

9/11 के ज़वाब में अमरीका ने फौरन कदम उठाये और भयंकर कार्रवाई की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जार्ज डब्ल्यू. बुश राष्ट्रपति थे। ये पूर्ववर्ती राष्ट्रपति एच. डब्ल्यू. बुश के पुत्र हैं। क्लिंटन के विपरीत बुश ने अमरीकी हितों को लेकर कठोर रवैया अपनाया और इन हितों को बढ़ावा देने के लिए कड़े कदम उठाये। ‘आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध’ के अंग के रूप में अमरीका ने ‘अॉपरेशन एन्डयूरिंग प्रुीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभी के खिलाफ़ चला जिन पर 9/11 का शक था। इस अभियान में मुख्य निशाना अल-कायदा और अफगानिस्तान के तालिबान-शासन को बनाया गया। तालिबान के शासन के पाँव जल्दी ही उखड़ गए लेकिन तालिबान और अल-कायदा के अवशेष अब भी सक्रिय हैं। 9/11 की घटना के बाद से अब तक इनकी तरफ से पश्चिमी मुल्कों में कई जगहों पर हमले हुए हैं। इससे इनकी सक्रियता की बात स्पष्ट हो जाती है।

अमरीकी सेना ने पूरे विश्व में गिरफ्तारियाँ कीं। अक्सर गिरफ्तार लोगों के बारे में उनकी सरकार को जानकारी नहीं दी गई। गिरफ्तार लोगों को अलग-अलग देशों में भेजा गया और उन्हें खुफिया जेलखानाें में बंदी बनाकर रखा गया। क्यूबा के निकट अमरीकी नौसेना का एक ठिकाना ग्वांतानामो बे में है। कुछ बंदियों को वहाँ रखा गया। इस जगह रखे गए बंदियों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की सुरक्षा प्राप्त है और न ही अपने देश या अमरीका के कानूनों की। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रतिनिधियों तक को इन बंदियों से मिलने की अनुमति नहीं दी गई।

6


इराक पर आक्रमण

2003 के 19 मार्च को अमरीका ने ‘अॉपरेशन इराकी प्रुीडम’ के कूटनाम से इराक पर सैन्य-हमला किया। अमरीकी अगुआई वाले ‘कॉअलिशन अॉव वीलिंग्स (आकांक्षियों के महाजोट)’ में 40 से ज्यादा देश शामिल हुए। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इराक पर इस हमले की अनुमति नहीं दी थी। दिखावे के लिए कहा गया कि सामूहिक संहार के हथियार (वीपंस अॉव मास डेस्ट्रक्शन) बनाने से रोकने के लिए इराक पर हमला किया गया है। इराक में सामूहिक संहार के हथियारों की मौजूदगी के कोई प्रमाण नहीं मिले। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमले के मकसद कुछ और ही थे, जैसे इराक के तेल-भंडार पर नियंत्रण और इराक में अमरीका की मनपसंद सरकार कायम करना।

7

सद्दाम हुसैन की सरकार तो चंद रोज़ में ही जाती रही, लेकिन इराक को ‘शांत’ कर पाने में अमरीका सफल नहीं हो सका है। इराक में अमरीका के खिलाफ एक पूर्णव्यापी विद्रोह भड़क उठा। अमरीका के 3000 सैनिक इस युद्ध में मरे जबकि इराक के सैनिक कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में मारे गये। एक अनुमान के अनुसार अमरीकी हमले के बाद से लगभग 50000 नागरिक मारे गये हैं। अब यह बात बड़े व्यापक रूप में मानी जा रही है कि एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में इराक पर अमरीकी हमला सैन्य और राजनीतिक धरातल पर असफल सिद्ध हुआ है।


शीतयुद्ध के बाद हुए उन संघर्षों/युद्धों की सूची बनाएं जिसमें अमरीका ने निर्णायक भूमिका निभाई।


8


u3.tif

‘वर्चस्व’ जैसे भारी-भरकम शब्द का इस्तेमाल क्यों करें? हमारे शहर में इसके लिए ‘दादागिरी’ शब्द चलता है। क्या यह शब्द ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा?


क्या होता है वर्चस्व का अर्थ?

राजनीति एक एेसी कहानी है जो शक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी आम आदमी की तरह हर समूह भी ताकत पाना और कायम रखना चाहता है। हम रोजाना बात करते हैं कि फलां आदमी ताकतवर होता जा रहा है या ताकतवर बनने पर तुला हुआ है। विश्व राजनीति में भी विभिन्न देश या देशों के समूह ताकत पाने और कायम रखने की लगातार कोशिश करते हैं। यह ताकत सैन्य प्रभुत्व, आर्थिक-शक्ति, राजनीतिक रुतबे और सांस्कृतिक बढ़त के रूप में होती है।

इसी कारण, अगर हम विश्व-राजनीति को समझना चाहें तो हमें विश्व के विभिन्न देशों के बीच शक्ति के बँटवारे को समझना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, शीतयुद्ध के समय (1945-1991) दो अलग-अलग गुटों में शामिल देशों के बीच ताकत का बँटवारा था। शीतयुद्ध के समय अमरीका और सोवियत संघ इन दो अलग-अलग शक्ति-केंद्रों के अगुआ थे। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया में एकमात्र महाशक्ति अमरीका बचा। जब अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था किसी एक महाशक्ति या कहें कि उद्धत महाशक्ति के दबदबे में हो तो बहुधा इसे ‘एकध्रुवीय’ व्यवस्था भी कहा जाता है। भौतिकी के शब्द ‘ध्रुव’ का यह एक तरह से भ्रामक प्रयोग है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ताकत का एक ही केंद्र हो तो इसे ‘वर्चस्व’ (Hegemony) शब्द के इस्तेमाल से वर्णित करना ज्यादा उचित होगा।


वर्चस्व – सैन्य शक्ति के अर्थ में

‘हेगेमनी’ शब्द की जड़ें प्राचीन यूनान में हैं। इस शब्द से किसी एक राज्य के नेतृत्व या प्रभुत्व का बोध होता है। मूलतः इस शब्द का प्रयोग प्राचीन यूनान के अन्य नगर-राज्यों की तुलना में एथेंस की प्रबलता को इंगित करने के लिए किया जाता था। इस प्रकार ‘हेगेमनी’ के पहले अर्थ का संबंध राज्यों के बीच सैन्य-क्षमता की बुनावट और तौल से है। ‘हेगेमनी’ से ध्वनित सैन्य-प्राबल्य का यही अर्थ आज विश्व-राजनीति में अमरीका की हैसियत को बताने में इस्तेमाल होता है। क्या आपको आयशा की याद है जिसकी एक टाँग अमरीकी हमले में जाती रही? यही है वह सैन्य वर्चस्व जिसने उसकी आत्मा को तो नहीं लेकिन उसके शरीर को ज़रूर पंगु बना दिया।

9

स्त्रोतः http://www.c6f.navy.mil/about/area-responsibility

नोटः सीमांकन आवश्यक रूप से आधिकारिक नहीं है।

अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बढ़ी-चढ़ी सैन्य शक्ति है। आज अमरीका की सैन्य शक्ति अपने आप में अनूठी है और बाकी देशों की तुलना में बेजोड़। अनूठी इस अर्थ में कि आज अमरीका अपनी सैन्य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है। एकदम सही समय में अचूक और घातक वार करने की क्षमता है उसके पास। अपनी सेना को युद्धभूमि से अधिकतम दूरी पर सुरक्षित रखकर वह अपने दुश्मन को उसके घर में ही पंगु बना सकता है।

अमरीकी सैन्य शक्ति का यह अनूठापन अपनी जगह लेकिन इससे भी ज्यादा विस्मयकारी तथ्य यह है कि आज कोई भी देश अमरीकी सैन्य शक्ति की तुलना में उसके पासंग के बराबर भी नहीं है। अमरीका से नीचे के कुल 12 ताकतवर देश एक साथ मिलकर अपनी सैन्य क्षमता के लिए जितना खर्च करते हैं उससे कहीं ज्यादा अपनी सैन्य क्षमता के लिए अकेले अमरीका करता है। इसके अतिरिक्त, पेंटागन अपनी बजट का एक बड़ा हिस्सा रक्षा अनुसंधान और विकास के मद में अर्थात् प्रौद्योगिकी पर खर्च करता है। इस प्रकार अमरीका के सैन्य प्रभुत्व का आधार सिर्फ उच्च सैन्य व्यय नहीं बल्कि उसकी गुणात्मक बढ़त भी है। अमरीका आज सैन्य प्रौद्योगिकी के मामले में इतना आगे है कि किसी और देश के लिए इस मामले में उसकी बराबरी कर पाना संभव नहीं है।

विश्व की अधिकांश सशस्त्र सेनाएँ अपनी सैन्य-कार्रवाई के क्षेत्र को विभिन्न कमानों में बाँटती हैं। हर ‘कमान’ के लिए अलग-अलग कमांडर होते हैं। इस मानचित्र में अमरीकी सशस्त्र सेना के छः अलग-अलग कमानों के सैन्य कार्रवाई के क्षेत्र को दिखाया गया है। इससे पता चलता है कि अमरीकी सेना का कमान-क्षेत्र सिर्फ संयुक्त राज्य अमरीका तक सीमित नहीं बल्कि इसके विस्तार में समूचा विश्व शामिल है। अमरीका की सैन्य शक्ति के बारे में यह मानचित्र क्या बताता है?

इसमें कोई शक नहीं कि इराक पर अमरीकी हमले से अमरीका की कुछ कमजोरियाँ उजागर हुई हैं। अमरीका इराक की जनता को अपने नेतृत्व वाली गठबंधन सेना के आगे झुका पाने में सफल नहीं हुआ है। बहरहाल, अमरीका की कमजोरी को पूरी तरह से समझने के लिए हमें इसे एेतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। इतिहास इस बात का गवाह है कि साम्राज्यवादी शक्तियों ने सैन्य बल का प्रयोग महज चार लक्ष्यों - जीतने, अपरोध करने, दंड देने और कानून व्यवस्था बहाल रखने के लिए किया है। इराक के उदाहरण से प्रकट है कि अमरीका की विजय-क्षमता विकट है। इसी तरह अपरुद्ध करने और दंड देने की भी उसकी क्षमता स्वतःसिद्ध है। अमरीकी सैन्य क्षमता की कमजोरी सिर्फ एक बात में जाहिर हुई है। वह अपने अधिकृत भू-भाग में कानून व्यवस्था नहीं बहाल कर पाया है।

15 सर्वाधिक रक्षा बजट 2017 (अरब डॉलर में)

Class%2012%20CWP%20Page%2040%20Defence%20budget.tif

स्त्रेतः दि मिलिट्री बैलेंस 2018 (इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट प़फ़ॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज, लंदन)


अमरीका के नीचे के 12 ताकतवर देश एक साथ मिलकर जितना अपनी सैन्य सुरक्षा पर खर्च करते हैं उससे कहीं ज्यादा खर्च अकेले अमरीका करता है। यहोँ आप देख सकते हैं कि सैन्य मद में ज्यादा खर्च करने वाले अधिकांश देश अमरीका के मित्र और सहयोगी हैं। इस कारण, अमरीका की शक्ति से बराबरी कर पाने की रणनीति कारगर नहीं होगी।


वर्चस्व  ढाँचागत ताकत के अर्थ में

वर्चस्व का दूसरा अर्थ पहले अर्थ से बहुत अलग है। इसका रिश्ता वैश्विक अर्थव्यवस्था की एक खास समझ से है। इस समझ की बुनियादी धारणा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मर्जी चलाने वाला एक एेसा देश ज़रूरी होता है जो अपने मतलब की चीजों को बनाए और बरकरार रखे। एेसे देश के लिए ज़रूरी है कि उसके पास व्यवस्था कायम करने के लिए कायदों को लागू करने की क्षमता और इच्छा हो। साथ ही ज़रूरी है कि वह वैश्विक व्यवस्था को हर हालत में बनाए रखे। दबदबे वाला देश एेसा अपने फायदे के लिए करता है लेकिन अक्सर इसमें उसे कुछ आपेक्षिक हानि उठानी पड़ती है। दूसरे प्रतियोगी देश वैश्विक अर्थव्यवस्था के खुलेपन का फायदा उठाते हैं जबकि इस खुलेपन को कायम रखने के लिए उन्हें कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता।

वर्चस्व के इस दूसरे अर्थ को ग्रहण करें तो इसकी झलक हमें विश्वव्यापी ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ को मुहैया कराने की अमरीकी भूमिका में मिलती है। ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ से आशय एेसी चीजों से है जिसका उपभोग कोई एक व्यक्ति करे तो दूसरे को उपलब्ध इसी वस्तु की मात्रा में कोई कमी नहीं आए। स्वच्छ वायु और सड़क सार्वजनिक वस्तु के उदाहरण हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सार्वजनिक वस्तु का सबसे बढ़िया उदाहरण समुद्री व्यापार-मार्ग (सी लेन अॉव कम्युनिकेशन्स – SLOCs) हैं जिनका इस्तेमाल व्यापारिक जहाज करते हैं। खुली वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुक्त-व्यापार समुद्री व्यापार-मार्गों के खुलेपन के बिना संभव नहीं। दबदबे वाला देश अपनी नौसेना की ताकत से समुद्री व्यापार-मार्गों पर आवाजाही के नियम तय करता है और अंतर्राष्ट्रीय समुद्र में अबाध आवाजाही को सुनिश्चित करता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश नौसेना का जोर घट गया। अब यह भूमिका अमरीकी नौसेना निभाती है जिसकी उपस्थिति दुनिया के लगभग सभी महासागरों में है।

वैश्विक सार्वजनिक वस्तु का एक और उदाहरण है - इंटरनेट। हालाँकि आज इंटरनेट के जरिए वर्ल्ड वाइड वेव (जगत-जोड़ता- जाल) का आभासी संसार साकार हो गया दीखता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट अमरीकी सैन्य अनुसंधान परियोजना का परिणाम है। यह परियोजना 1950 में शुरू हुई थी। आज भी इंटरनेट उपग्रहों के एक वैश्विक तंत्र पर निर्भर है और इनमें से अधिकांश उपग्रह अमरीका के हैं।

हम जानते हैं कि अमरीका दुनिया के हर हिस्से, वैश्विक अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र तथा प्रौद्योगिकी के हर हलके में मौजूद है। विश्व की अर्थव्यवस्था में अमरीका की 21 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। यदि विश्व के व्यापार में यूरोपीय संघ के अंदरूनी व्यापार को भी शामिल कर लें तो विश्व के कुल व्यापार में अमरीका की लगभग 14 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। विश्व की अर्थव्यवस्था का एक भी क्षेत्र एेसा नहीं है जिसमें कोई अमरीकी कंपनी अग्रणी तीन कंपनियों में से एक नहीं हो।

3684.png

अमरीका की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन सैन्य शक्ति के दायरे के उलट विश्व की अर्थव्यवस्था में अमरीका के कई तगड़े प्रतिद्वंद्वी हैं। यदि हम तुलनात्मक क्रयशक्ति के हिसाब से देखें तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है। दाएं आरेख से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। तुलनात्मक क्रयशक्ति (PPP-पर्चेजिंग पावर पैरेटी) से आशय किसी राष्ट्र की मुद्रा में वस्तुओं और सेवाओं की वास्तविक खरीददारी से लिया गया है।

ध्यान रहे कि अमरीका की आर्थिक प्रबलता उसकी ढाँचागत ताकत यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक खास शक्ल में ढालने की ताकत से जुड़ी हुई है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड प्रणाली कायम हुई थी। अमरीका द्वारा कायम यह प्रणाली आज भी विश्व की अर्थव्यवस्था की बुनियादी संरचना का काम कर रही है। इस तरह हम विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन को अमरीकी वर्चस्व का परिणाम मान सकते हैं।

M4.tifयह देश इतना धनी कैसे हो सकता है? मुझे तो यहाँ बहुत-से ग़रीब लोग दीख रहे हैं! इनमें अधिकांश अश्वेत हैं।

अमरीका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एमबीए (मास्टर अॉव बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) की अकादमिक डिग्री है। यह विशुद्ध रूप से अमरीकी धारणा है कि व्यवसाय अपने आप में एक पेशा है जो कौशल पर निर्भर करता है और इस कौशल को विश्वविद्यालय में अर्जित किया जा सकता है। यूनिवर्सिटी अॉव पेन्सिलवेनिया में वार्ह्टन स्कूल के नाम से विश्व का पहला ‘बिजनेस स्कूल’ खुला। इसकी स्थापना सन् 1881 में हुई। एमबीए के शुरूआती पाठ्यक्रम 1900 से आरंभ हुए। अमरीका से बाहर एमबीए के किसी पाठ्यक्रम की शुरुआत सन् 1950 में ही जाकर हो सकी। आज दुनिया में कोई देश एेसा नहीं जिसमें एमबीए को एक प्रतिष्ठित अकादमिक डिग्री का दर्जा हासिल न हो। इस बात से हमें अपने दक्षिण अप्रुीकी दोस्त जाबू की याद आती है। ढाँचागत वर्चस्व को ध्यान में रखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जाबू के पिता क्यों जोर दे रहे थे कि वह पेंटिंग की पढ़ाई छोड़कर एमबीए की डिग्री ले।


ब्रेटनवुड प्रणाली के अंतर्गत वैश्विक व्यापार के नियम तय किए गए थे। क्या ये नियम अमरीकी हितों के अनुकूल बनाए गए थे? ब्रेटनवुड प्रणाली के बारे में और जानकारी जुटायें।


Sr.Unni4.tifयदि मैंने विज्ञान लिया होता तो मुझे मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा में बैठना पड़ता। इसका मतलब होता बहुत-से उन लोगों से मुकाबला करना जो डॉक्टर या इंजीनियर बन कर अमरीका जाना चाहते हैं।



वर्चस्व – सांस्कृतिक अर्थ में

अमरीकी वर्चस्व को शुद्ध रूप से सैन्य और आर्थिक संदर्भ में देखना भूल होगी। हमें अमरीकी वर्चस्व पर विचारधारा या संस्कृति के संदर्भ में भी विचार करना चाहिए। वर्चस्व के इस तीसरे अर्थ का रिश्ता ‘सहमति गढ़ने’ की ताकत से है। यहाँ वर्चस्व का आशय है सामाजिक, राजनीतिक और ख़ासकर विचारधारा के धरातल पर किसी वर्ग की बढ़त या दबदबा। कोई प्रभुत्वशाली वर्ग या देश अपने असर में रहने वालों को इस तरह सहमत कर सकता है कि वे भी दुनिया को उसी नज़रिए से देखने लगें जिसमें प्रभुत्वशाली वर्ग या देश देखता है। इससे प्रभुत्वशाली की बढ़त और वर्चस्व कायम होता है। विश्व राजनीति के दायरे में वर्चस्व के इस अर्थ को लागू करें तो स्पष्ट होगा कि प्रभुत्वशाली देश सिर्फ सैन्य शक्ति से काम नहीं लेता; वह अपने प्रतिद्वंद्वी और अपने से कमजोर देशों के व्यवहार-बरताव को अपने मनमाफिक बनाने के लिए विचारधारा से जुड़े साधनों का भी इस्तेमाल करता है। कमजोर देशों के व्यवहार-बरताव को इस तरह से प्रभावित किया जाता है कि उससे सबसे ताकतवर देश का हितसाधन हो; उसका प्राबल्य बना रहे। इस तरह, प्रभुत्वशाली देश ज़ोर-जबर्दस्ती और रजामंदी दोनों ही तरीकों से काम लेता है। अक्सर रजामंदी का तरीका ज़ोर-जबर्दस्ती से कहीं ज्यादा कारगर साबित होता है।

आज विश्व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्कृतिक मौजूदगी भी इसका एक कारण है। चाहे हम इस बात को मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि आज अच्छे जीवन और व्यक्तिगत सफलता के बारे में जो धारणाएँ पूरे विश्व में प्रचलित हैं; दुनिया के अधिकांश लोगों और समाजों के जो सपने हैं- वे सब बीसवीं सदी के अमरीका में प्रचलित व्यवहार-बरताव के ही प्रतिबिंब हैं। अमरीकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। वर्चस्व का यह सांस्कृतिक पहलू है जहाँ ज़ोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है। समय गुज़रने के साथ हम उसके इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अब हम इसे इतना ही सहज मानते हैं जितना अपने आस-पास के पेड़-पक्षी या नदी को।

आपको आन्द्रेई और उसकी ‘कूल’ जीन्स की याद होगी। आन्द्रेई के माता-पिता जब सोवियत संघ में युवा थे तो उनकी पीढ़ी के लिए नीली जीन्स ‘आजादी’ का परम प्रतीक हुआ करती थी। युवक-युवती अक्सर अपनी साल-साल भर की तनख्वाह किसी ‘चोरबाज़ार’ में विदेशी पर्यटकों से नीली जीन्स खरीदने पर खर्च कर देते थे। एेसा चाहे जैसे भी हुआ हो लेकिन सोवियत संघ की एक पूरी पीढ़ी के लिए नीली जीन्स ‘अच्छे जीवन’ की आकांक्षाओं का प्रतीक बन गई थी - एक एेसा ‘अच्छा जीवन’ जो सोवियत संघ में उपलब्ध नहीं था।

cul_heg1.tif

cul_heg3.tif

cul_heg2.tif


शीतयुद्ध के दौरान अमरीका को लगा कि सैन्य शक्ति के दायरे में सोवियत संघ को मात दे पाना मुश्किल है। अमरीका ने ढाँचागत ताकत और सांस्कृतिक प्रभुत्व के दायरे में सोवियत संघ से बाजी मारी। सोवियत संघ की केंद्रीकृत और नियोजित अर्थव्यवस्था उसके लिए अंदरूनी आर्थिक संगठन का एक वैकल्पिक मॉडल तो थी लेकिन पूरे शीतयुद्ध के दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था पूँजीवादी तर्ज़ पर चली। अमरीका ने सबसे बड़ी जीत सांस्कृतिक प्रभुत्व के दायरे में हासिल की। सोवियत संघ में नीली जीन्स के लिए दीवानगी इस बात को साफ-साफ ज़ाहिर करती है कि अमरीका एक सांस्कृतिक उत्पाद के दम पर सोवियत संघ में दो पीढ़ियों के बीच दूरियाँ पैदा करने में कामयाब रहा।


m3.tifबड़ी विचित्र बात है! अपने लिए जीन्स खरीदते समय तो मुझे अमरीका का ख्याल तक नहीं आता! फिर मैं अमरीकी वर्चस्व के चपेट में कैसे आ सकती हूँ?


ये सारी तस्वीरें जकार्ता (इंडोनेशिया) की हैं। हर तस्वीर में अमरीकी वर्चस्व के तत्त्वों को ढूँढें। स्कूल से घर लौटते समय क्या आप रास्ते में एेसी चीजों की पहचान कर सकते हैं?


अमरीकी शक्ति के रास्ते में अवरोध

इतिहास बताता है कि साम्राज्यों का पतन उनकी अंदरूनी कमजोरियों के कारण होता है। ठीक इसी तरह अमरीकी वर्चस्व की सबसे बड़ी बाधा खुद उसके वर्चस्व के भीतर मौजूद है। अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध हैं। 11 सितंबर 2001 की घटना के बाद के सालों में ये व्यवधान एक तरह से निष्क्रिय जान पड़ने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट होने लगे हैं।

पहला व्यवधान स्वयं अमरीका की संस्थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंगों के बीच शक्ति का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य शक्ति के बेलगाम इस्तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है।

अमरीका की ताकत के आड़े आने वाली दूसरी अड़चन भी अंदरूनी है। इस अड़चन के मूल में है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्मुक्त है। अमरीका में जन-संचार के साधन समय-समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के विदेशी सैन्य-अभियानों पर अंकुश रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।

बहरहाल, अमरीकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्यवधान सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी ताकत पर लगाम कस सकता है और इस संगठन का नाम है ‘नाटो’ अर्थात् उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। स्पष्ट ही अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा है क्योंकि इन देशों में बाज़ारमूलक अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि ‘नाटो’ में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ अंकुश लगा सकें।

अमरीका से भारत के संबंध

शीतयुद्ध के वर्षों में भारत अमरीकी गुट के विरुद्ध खड़ा था। इन सालों में भारत की करीबी दोस्ती सोवियत संघ से थी। सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारत ने पाया कि लगातार कटुतापूर्ण होते अंतर्राष्ट्रीय माहौल में वह मित्रविहीन हो गया है। इसी अवधि में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने तथा उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ने का भी फैसला किया। इस नीति और हाल के सालों में प्रभावशाली आर्थिक वृद्धि-दर के कारण भारत अब अमरीका समेत कई देशों के लिए आकर्षक आर्थिक सहयोगी बन गया है।

10

हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हाल के सालों में भारत-अमरीकी संबधों के बीच दो नई बातें उभरी हैं। इन बातों का संबंध प्रौद्योगिकी और अमरीका में बसे अनिवासी भारतीयों से है। दरअसल, ये दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। निम्नलिखित तथ्यों पर विचार कीजिए –

» सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत के कुल निर्यात का 65 प्रतिशत अमरीका को जाता है।

» बोईंग के 35 प्रतिशत तकनीकी कर्मचारी भारतीय मूल के हैं।

» 3 लाख भारतीय ‘सिलिकन वैली’ में काम करते हैं।

» उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की 15 प्रतिशत कंपनियों की शुरुआत अमरीका में बसे भारतीयों ने की है।

यह अमरीका के विश्वव्यापी वर्चस्व का दौर है और बाकी देशों की तरह भारत को भी फैसला करना है कि अमरीका के साथ वह किस तरह के संबंध रखना चाहता है। यह तय कर पाना कोई आसान काम नहीं। भारत में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही है -

» भारत के जो विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को सैन्य शक्ति के संदर्भ में देखते-समझते हैं, वे भारत और अमरीका की बढ़ती हुई नज़दीकी से भयभीत हैं। एेसे विद्वान यही चाहेंगे कि भारत वाशिंग्टन से अपना अलगाव बनाए रखे और अपना ध्यान अपनी राष्ट्रीय शक्ति को बढ़ाने पर लगाये।

» कुछ विद्वान मानते हैं कि भारत और अमरीका के हितों में हेलमेल लगातार बढ़ रहा है और यह भारत के लिए एेतिहासिक अवसर है। ये विद्वान एक एेसी रणनीति अपनाने की तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमरीकी वर्चस्व का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों के आपसी हितों का मेल हो और भारत अपने लिए सबसे बढ़िया विकल्प ढूँढ़ सके। इन विद्वानों की राय है कि अमरीका के विरोध की रणनीति व्यर्थ साबित होगी और आगे चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।

» कुछ विद्वानों की राय है कि भारत अपनी अगुआई में विकासशील देशों का गठबंधन बनाए। कुछ सालों में यह गठबंधन ज्यादा ताकतवर हो जाएगा और अमरीकी वर्चस्व के प्रतिकार में सक्षम हो जाएगा।

शायद भारत और अमरीका के बीच संबंध इतने जटिल हैं कि किसी एक रणनीति पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। अमरीका से निर्वाह करने के लिए भारत को विदेश नीति की कई रणनीतियों का एक समुचित मेल तैयार करना होगा।


u1.tif

जैसे ही मैं कहता हूँ कि मैं भारत से आया हूँ, ये लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या तुम कंप्यूटर इंजीनियर हो?’ यह सुनकर अच्छा लगता है।



लोकसभा की बहस भारत-अमरीकी संबंध

भारत और अमरीका के बीच परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर समझौता हुआ। लोकसभा में इस मसले पर बहस हुई। नीचे प्रधानमंत्री और विपक्ष के दो नेताओं के भाषण के कुछ अंश दिए जा रहे हैं। ये तीन अलग-अलग वैचारिक स्थितियों की ओर संकेत करते हैं। क्या ये अध्याय में दी गई

तीन रणनीतियों से जुड़े हैं?

डॉ-ॅ- मनमोहन सिंहं, कांग्रेस्र

‘‘मान्यवर, मैं इस महनीय सदन से ससम्मान निवेदन करता हूँ कि वह भारत के प्रति विश्व की बदली हुई मनोदशा को पहचाने। मेरे कहने का मतलब यह नहीं कि ताकत की राजनीति अब बीते दिनों की बात हो गई है या अब कभी भी हमारी बाँह मरोड़ने की कोशिशें नहीं होंगी। हम सुनिश्चित करेंगे कि मौजूद खतरों से हमारी सुरक्षा पर आँच न आए। लेकिन, जो अवसर सामने आए हैं उनका लाभ न उठाना ग़्ालत होगा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि सभी शक्तिशाली देशों से अच्छे संबंधा रखना भारत के हित में है। मैं निस्संकोच कहता हूँ कि हम संयुक्त राज्य अमरीका से अच्छे संबंधा बनाना चाहते हैं।’’

श्री बासुदेब आचार्य, भाकपा (मार्क्सवादी)

"आज़ादी के बाद से हम अपने राष्ट्रीय हितों के कारण स्वतंत्र विदेश नीति पर अमल करते आ रहे हैं। हमने इराक और ईरान के मामले में क्या देखा? जुलाई वाले बयान के बाद और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में मतदान के समय हमने संयुक्त राज्य अमरीका का पक्ष लिया। अमरीका और पी-5 द्वारा लाये गए प्रस्ताव का हमने समर्थन किया। पहले ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। हम पाकिस्तान के रास्ते ईरान से गैस लाना चाह रहे थे और जिसकी हमें ज़रूरत है। फिर भी हमने ईरान के संबंध में अमरीकी पक्ष का साथ दिया। हम देखते हैं कि ऐसे में हमारी स्वतंत्र विदेश नीति पर दुष्प्रभाव पड़ा है।"

मेजेजेजर जेनेनेनरल (सेवेवेवानिवृतृत) बी- सी- खंडूरी, भाजपा

फ्चाहे हमें पसंद हो या न हो, हमें इस तथ्य का ध्यान रखना होगा कि अमरीका इस एकध्रुवीय विश्व में एकमात्र महाशक्ति है। लेकिन साथ ही हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत भी एक विश्व-शक्ति और महाशक्ति के रूप में तेजी से उभर रहा है। इसलिए, हमारा मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में संयुक्त राज्य अमरीका के साथ हमारे संबंध अच्छे होने चाहिए लेकिन अपनी सुरक्षा की कीमत पर नहीं।"


वर्चस्व से कैसे निपटें?

कब तक चलेगा अमरीकी वर्चस्व? इस वर्चस्व से कैसे बचा जा सकता है? ज़ाहिरा तौर पर ये सवाल हमारे वक्त के सबसे झंझावाती सवाल हैं। इतिहास से हमें इन सवालों के जवाब के कुछ सुराग मिलते हैं। लेकिन बात यहाँ इतिहास की नहीं वर्तमान और भविष्य की हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एेसी चीज़ें गिनी-चुनी ही हैं जो किसी देश की सैन्यशक्ति पर लगाम कस सकें। हर देश में सरकार होती है लेकिन विश्व-सरकार जैसी कोई चीज नहीं होती। अध्याय-6 में यह बात स्पष्ट होगी कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन विश्व-सरकार नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति दरअसल ‘सरकार विहीन राजनीति’ है। कुछ कायदे-कानून ज़रूर हैं जो युद्ध पर कुछ अंकुश रखते हैं लेकिन ये कायदे-कानून युद्ध को रोक नहीं सकते। फिर, शायद ही कोई देश होगा जो अपनी सुरक्षा को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के हवाले कर दे। तो क्या इन बातों से यह समझा जाए कि न तो वर्चस्व से कोई छुटकारा है और न ही युद्ध से?


फिलहाल हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि कोई भी देश अमरीकी सैन्यशक्ति के जोड़ का मौजूद नहीं है। भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अमरीकी वर्चस्व को चुनौती दे पाने की संभावना है लेकिन इन देशों के बीच आपसी विभेद हैं और इन विभेदों के रहते अमरीका के विरुद्ध इनका कोई गठबंधन नहीं हो सकता।

कुछ लोगों का तर्क है कि वर्चस्वजनित अवसरों के लाभ उठाने की रणनीति ज्यादा संगत है। उदाहरण के लिए, आर्थिक वृद्धि-दर को ऊँचा करने के लिए व्यापार को बढ़ावा, प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण और निवेश ज़रूरी है और अमरीका के साथ मिलकर काम करने से इसमें आसानी होगी न कि उसका विरोध करने से। एेसे में सुझाव दिया जाता है कि सबसे ताकतवर देश के विरुद्ध जाने के बजाय उसके वर्चस्व-तंत्र में रहते हुए अवसरों का फायदा उठाना कहीं उचित रणनीति है। इसे ‘बैंडवैगन’ अथवा ‘जैसी बहे बयार पीठ तैसी कीजै’ की रणनीति कहते हैं।

देशों के सामने एक विकल्प यह है कि वे अपने को ‘छुपा’ लें। इसका अर्थ होता है दबदबे वाले देश से यथासंभव दूर-दूर रहना। इस व्यवहार के कई उदाहरण हैं। चीन, रूस और यूरोपीय संघ सभी एक न एक तरीके से अपने को अमरीकी निगाह में चढ़ने से बचा रहे हैं। इस तरह से अमरीका के किसी बेवजह या बेपनाह क्रोध की चपेट में आने से ये देश अपने को बचाते हैं। बहरहाल, बड़े या मँझले दर्जे के ताकतवर देशों के लिए यह रणनीति ज्यादा दिनों तक काम नहीं आने वाली। छोटे देशों के लिए यह संगत और आकर्षक रणनीति हो सकती है, लेकिन यह कल्पना से परे है कि चीन, भारत और रूस जैसे बड़े देश अथवा यूरोपीय संघ जैसा विशाल जमावड़ा अपने को बहुत दिनों तक अमरीकी निगाह में चढ़ने से बचाकर रख सके।

कुछ लोग मानते हैं कि अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह नहीं कर पाएगा क्योंकि आज सभी देश अमरीकी ताकत के आगे बेबस हैं। ये लोग मानते हैं कि राज्येतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व के प्रतिकार के लिए आगे आएंगी। अमरीकी वर्चस्व को आर्थिक और सांस्कृतिक धरातल पर चुनौती मिलेगी। यह चुनौती स्वयंसेवी संगठन, सामाजिक आंदोलन और जनमत के आपसी मेल से प्रस्तुत होगी; मीडिया का एक तबका, बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखक आदि अमरीकी वर्चस्व के प्रतिरोध के लिए आगे आएंगे। ये राज्येतर संस्थाएँ विश्वव्यापी नेटवर्क बना सकती हैं जिसमें अमरीकी नागरिक भी शामिल होंगे और साथ मिलकर अमरीकी नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध किया जा सकेगा।


12

अमरीका इकलौती महाशक्ति के रूप में कब तक कायम रहेगा? इसके बारे में आप क्या सोचते हैं? अगर यह चित्र आप बनाते तो अगली महाशक्ति के रूप में किस देश को दिखाते?


आपने यह जुमला सुना होगा कि अब हम ‘विश्वग्राम’ में रहते हैं। इस विश्वग्राम में एक चौधरी है और हम सभी उसके पड़ोसी। यदि चौधरी का बरताव असहनीय हो जाय तो भी विश्वग्राम से चले जाने का विकल्प हमारे पास मौजूद नहीं क्योंकि यही एकमात्र गाँव है जिसे हम जानते हैं और रहने के लिए हमारे पास यही एक गाँव है। एेसे में प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्प बचता है।


letsTogether.tif

चरण

© अमरीका को प्रमाण मानकर विश्व के बड़े भू-राजनीतिक क्षेत्र (मध्य अमरीका, दक्षिण अमरीका, अप्रुीका, यूरोप, भूतपूर्व सोवियत संघ, दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और आस्ट्रेेलिया) छात्रों को सौंपे। आप छात्रों को एेसे क्षेत्र भी सौंप सकते हैं जो शीतयुद्ध के बाद के सालों में युद्ध के क्षेत्र रहे और जहाँ अमरीका शामिल रहा (जैसे - अफगानिस्तान, इराक, इज़रायल-फिलीस्तीन या कोसोवो अथवा इस पाठ को पढ़ाते समय जिस क्षेत्र में संघर्ष चल रहा है।)

© हर क्षेत्र के लिए छात्रों का समूह बनाएँ। प्रत्येक समूह में छात्रों की समान संख्या हो। प्रत्येक समूह अपने हिस्से के युद्धक्षेत्र में अमरीका द्वारा निभाई गई भूमिका से जुड़े तथ्यों को संकलित करें। संकलन में जोर इस बात पर रहे कि इस क्षेत्र में अमरीका के हित क्या थे, उसने क्या कदम उठाए और क्षेत्र में अमरीका को लेकर कैसा जनमत बना। छात्र उपलब्ध स्रोतों से चित्र/कार्टून भी जुटाकर प्रस्तुत कर सकते हैं।

© प्रत्येक समूह अपना संकलन कक्षा के सामने प्रस्तुत करे।


अध्यापकों के लिए

* तथ्यों के संकलन का इस्तेमाल बुनियादी जानकारी के रूप में करते हुए अध्यापक छात्रों का ध्यान अमरीका द्वारा किए गए हस्तक्षेप पर केंद्रित करें और बताएँ कि अमरीका जिन सिद्धांतों की पैरोकारी करता है उनसे ये हस्तक्षेप मेल खाते हैं या नहीं।

* किसी युद्धक्षेत्र या इलाके का भविष्य अब से 20 साल बाद कैसा होगा? अमरीकी वर्चस्व कितने दिनों तक कायम रहेगा? उस क्षेत्र में अमरीकी वर्चस्व को कौन-से देश चुनौती दे सकते हैं? इन सवालों पर छात्रों को सोचने के लिए उत्साहित करें।



ये सारी बातें ईर्ष्या से भरी हुई हैं। अमरीकी वर्चस्व से हमें परेशानी क्या है? क्या यही कि हम अमरीका में नहीं जन्मे? या कोई और बात है?

इतिहास हमें वर्चस्व के बारे में क्या सिखाता है?

शक्ति-संतुलन के तर्क को देखते हुए वर्चस्व की स्थिति अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक असामान्य परिघटना है। इसका कारण बड़ा सीधा-सादा है। विश्व-सरकार जैसी कोई चीज नहीं होती और एेसे में हर देश को अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनी होती है। कभी-कभी अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में उसे यह भी सुनिश्चित करना होता है कि कम से कम उसका वजूद बचा रहे। इस कारण, अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में विभिन्न देश शक्ति-संतुलन को लेकर बड़े सतर्क होते हैं और आम तौर पर वे किसी एक देश को इतना ताकतवर नहीं बनने देते कि वह बाकी देशों के लिए भयंकर खतरा बन जाय।

ऊपर जिस शक्ति-संतुलन की बात कही गई है उसे इतिहास से भी पुष्ट किया जा सकता है। चलन के मुताबिक हम 1648 को वह साल स्वीकार करते हैं जब संप्रभु राज्य विश्व-राजनीति के प्रमुख किरदार बने। इसके बाद से साढ़े तीन सौ साल गुजर चुके हैं। इस दौरान सिर्फ दो अवसर आए जब किसी एक देश ने अंतर्राष्ट्रीय फलक पर वही प्रबलता प्राप्त की जो आज अमरीका को हासिल है। यूरोप की राजनीति के संदर्भ में 1660 से 1713 तक प्रुांस का दबदबा था और यह वर्चस्व का पहला उदाहरण है। ब्रिटेन का वर्चस्व और समुद्री व्यापार के बूते कायम हुआ उसका साम्राज्य 1860 से 1910 तक बना रहा। यह वर्चस्व का दूसरा उदाहरण है।

इतिहास यह भी बताता है कि वर्चस्व अपने चरमोत्कर्ष के समय अजेय जान पड़ता है लेकिन यह हमेशा के लिए कायम नहीं रहता। इसके ठीक विपरीत शक्ति-संतुलन की राजनीति वर्चस्वशील देश की ताकत को आने वाले समय में कम कर देती है। 1660 में लुई 14वें के शासनकाल में प्रुांस अपराजेय था लेकिन 1713 तक इंग्लैंड, हैबस्बर्ग, आस्ट्रिया और रूस प्रुांस की ताकत को चुनौती देने लगे। 1860 में विक्टोरियाई शासन का सूर्य अपने पूरे उत्कर्ष पर था और ब्रिटिश साम्राज्य हमेशा के लिए सुरक्षित लगता था। 1910 तक यह स्पष्ट हो गया कि जर्मनी, जापान और अमरीका ब्रिटेन की ताकत को ललकारने के लिए उठ खड़े हुए हैं। इसी तरह, अब से 20 साल बाद एक और महाशक्ति या कहें कि शक्तिशाली देशों का गठबंधन उठ खड़ा हो सकता है क्योंकि तुलनात्मक रूप से देखें तो अमरीका की ताकत कमजोर पड़ रही है।

क्रिस्टोफर लेयने के लेख ‘द यूनिपोलर इल्लुजन : व्हाई न्यू ग्रेट पावर्स विल राइज’ पर आधारित

 



प्रश्नावली

1. वर्चस्व के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?

(क) इसका अर्थ किसी एक देश की अगुआई या प्राबल्य है।

(ख) इस शब्द का इस्तेमाल प्राचीन यूनान में एथेंस की प्रधानता को चिह्नित करने के लिए किया जाता था।

(ग) वर्चस्वशील देश की सैन्यशक्ति अजेय होती है।

(घ) वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया।

2. समकालीन विश्व-व्यवस्था के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?

(क) एेसी कोई विश्व-सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।

(ख) अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अमरीका की चलती है।

(ग) विभिन्न देश एक-दूसरे पर बल-प्रयोग कर रहे हैं।

(घ) जो देश अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ कठोर दंड देता है।

3. ‘अॉपरेशन इराकी प्रुीडम’ (इराकी मुक्ति अभियान) के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?

(क) इराक पर हमला करने के इच्छुक अमरीकी अगुआई वाले गठबंधन में 40 से ज्यादा देश शामिल हुए।

(ख) इराक पर हमले का कारण बताते हुए कहा गया कि यह हमला इराक को सामूहिक संहार के हथियार बनाने से रोकने के लिए किया जा रहा है।

(ग) इस कार्रवाई से पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुमति ले ली गई थी।

(घ) अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन को इराकी सेना से तगड़ी चुनौती नहीं मिली।

4. इस अध्याय में वर्चस्व के तीन अर्थ बताए गए हैं। प्रत्येक का एक-एक उदाहरण बतायें। ये उदाहरण इस अध्याय में बताए गए उदाहरणों से अलग होने चाहिए।

5. उन तीन बातों का जिक्र करें जिनसे साबित होता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमरीकी प्रभुत्व का स्वभाव बदला है और शीतयुद्ध के वर्षों के अमरीकी प्रभुत्व की तुलना में यह अलग है।

6. निम्नलिखित में मेल बैठायें –

(1) अॉपरेशन इनफाइनाइट रीच

(2) अॉपरेशन इंड्यूरिंग प्रुीडम

(3) अॉपरेशन डेजर्ट स्टार्म

(4) अॉपरेशन इराकी प्रुीडम

(क) तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ जंग

(ख) इराक पर हमले के इच्छुक देशों का गठबंधन

(ग) सूडान पर मिसाइल से हमला

(घ) प्रथम खाड़ी युद्ध।

7. अमरीकी वर्चस्व की राह में कौन-से व्यवधान हैं। आपके जानते इनमें से कौन-सा व्यवधान आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा?

8. भारत-अमरीका समझौते से संबंधित बहस के तीन अंश इस अध्याय में दिए गए हैं। इन्हें पढ़ें और किसी एक अंश को आधार मानकर पूरा भाषण तैयार करें जिसमें भारत-अमरीकी संबंध के बारे में किसी एक रुख का समर्थन किया गया हो।

9. "यदि बड़े और संसाधन संपन्न देश अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएंगी।" इस कथन की जाँच करें और अपनी राय बताएँ।