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अध्याय 4
सत्ता के वैकल्पिक केंद्र
परिचय
1990 के दशक के श्ुारू में विश्व राजनीति में दो-ध्रुवीय व्यवस्था के टूटने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि राजनैतिक और आर्थिक सत्ता के वैकल्पिक केंद्र कुछ हद तक अमरीका के प्रभुत्व को सीमित करेंगे। यूरोप में यूरोपीय संघ और एशिया में दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के संगठन (आसियान) का उदय दमदार शक्ति के रूप मेें हुआ। यूरोपीय संघ और आसियान, दोनों ने ही अपने-अपने इलाके में चलने वाली एेतिहासिक दुश्मनियों और कमजोरियों का क्षेत्रीय स्तर पर समाधान ढूंढ़ा। साथ ही इन्होंने अपने-अपने इलाकों में अधिक शांतिपूर्ण और सहकारी क्षेत्रीय व्यवस्था विकसित करने तथा इस क्षेत्र के देशों की अर्थव्यवस्थाओं का समूह बनाने की दिशा में भी काम किया। चीन के आर्थिक उभार ने विश्व राजनीति पर काफी नाटकीय प्रभाव डाला। इस अध्याय में हम सत्ता के उभरते हुए कुछ वैकल्पिक केन्द्रों पर एक नज़र डालेंगे और यह जाँचने की कोशिश करेंगे कि भविष्य में उनकी क्या भूमिका हो सकती है।
1978 के दिसंबर में देंग श्याओपेंग ने ‘ओपेन डोर’ (मुक्त द्वार) की नीति चलायी। इसके बाद से चीन नेअद्भुत प्रगति की और अगले सालों में एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभरा। ये तस्वीरें चीन में विकासकी तेजी से बदलती प्रवृत्तियों का पता देती हैं। पहली तस्वीर क्रांति के तत्काल बाद के चीन की है। इसमेंकहा गया है कि ‘समाजवादी रास्ता ही सबसे व्यापक रास्ता है’। दूसरी तस्वीर शंघाई की है जो चीन की नई आर्थिक शक्ति का प्रतीक है।
यूरोपीय संघ
जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ तब यूरोप के अनेक नेता ‘यूरोप के सवालों’ को लेकर परेशान रहे। क्या यूरोप को अपनी पुरानी दुश्मनियों को फिर से शुरू करना चाहिए
या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सकारात्मक योगदान करने वाले सिद्धांतों और संस्थाओं के आधार पर उसे अपने संबंधों को नए सिरे से बनाना चाहिए? दूसरे विश्वयुद्ध ने उन अनेक मान्यताओं और व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया जिसके आधार पर यूरोपीय देशों के आपसी संबंध बने थे। 1945 तक यूरोपीय देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं की बर्बादी तो झेली ही, उन मान्यताओं और व्यवस्थाओं को ध्वस्त होते भी देख लिया जिन पर यूरोप खड़ा हुआ था।
1945 के बाद यूरोप के देशों में मेल-मिलाप को शीतयुद्ध से भी मदद मिली। अमरीका ने यूरोप की अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के लिए जबरदस्त मदद की। इसे मार्शल योजना के नाम से जाना जाता है। अमेरिका ने ‘नाटो’ के तहत एक सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को जन्म दिया। मार्शल योजना के तहत ही 1948 में यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना की गई जिसके माध्यम से पश्चिमी यूरोप के देशों को आर्थिक मदद दी गई। यह एक एेसा मंच बन गया जिसके माध्यम से पश्चिमी यूरोप के देशों ने व्यापार और आर्थिक मामलों में एक-दूसरे की मदद शुरू की। 1949 में गठित यूरोपीय परिषद् राजनैतिक सहयोग के मामले में एक अगला कदम साबित हुई। यूरोप के पूंजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था के आपसी एकीकरण की प्रक्रिया चरणबद्ध ढंग से आगे बढ़ी (इस एकीकरण का कालक्रम देखें) और इसके परिणामस्वरूप 1957 में यूरोपीयन इकॉनामिक कम्युनिटी का गठन हुआ। यूरोपीयन पार्लियामेंट के गठन के बाद इस प्रक्रिया ने राजनीतिक स्वरूप प्राप्त कर लिया। सोवियत गुट के पतन के बाद इस प्रक्रिया में तेजी आयी और 1992 में इस प्रक्रिया की परिणति यूरोपीय संघ की स्थापना के रूप में हुई। यूरोपीय संघ के रूप में समान विदेश और सुरक्षा नीति, आंतरिक मामलों तथा न्याय से जुड़े मुद्दों पर सहयोग और एकसमान मुद्रा के चलन के लिए रास्ता तैयार हो गया।
यूरोपीय संघ का झंडा
सोने के रंग के सितारों का घेरा यूरोप के लोगों की एकता और मेलमिलाप का प्रतीक है। इसमें 12 सितारें हैं क्योंकि बारह की संख्या को वहाँ पारंपरिक रूप से पूर्णता, समग्रता और एकता का प्रतीक माना जाता है।
स्रोत: http:// europa.eu/abc/symbols/emblem/index_en.htm
एक लम्बे समय में बना यूरोपीय संघ आर्थिक सहयोग वाली व्यवस्था से बदलकर ज्यादा से ज्यादा राजनैतिक रूप लेता गया है। अब यूरोपीय संघ स्वयं काफी हद तक एक विशाल राष्ट्र-राज्य की तरह ही काम करने लगा है। हाँलाकि यूरोपीय संघ का एक संविधान बनाने की कोशिश तो असफल हो गई लेकिन इसका अपना झंडा, गान, स्थापना-दिवस और अपनी मुद्रा है। अन्य देशों से संबंधों के मामले में इसने काफी हद तक साझी विदेश और सुरक्षा नीति भी बना ली है। नये सदस्यों को शामिल करते हुए यूरोपीय संघ ने सहयोग के दायरे में विस्तार की कोशिश की। नये सदस्य मुख्यत: भूतपूर्व सोवियत खेमे के थे। यह प्रक्रिया आसान नहीं रही। अनेक देशों के लोग इस बात को लेकर कुछ ख़ास उत्साहित नहीं थे कि जो ताकत उनके देश की सरकार को हासिल थी वह अब यूरोपीय संघ को दे दी जाए। यूरोपीय संघ में कुछ देशों को शामिल करने के सवाल पर भी असहमति है।
यूरोपीय संघ का मानचित्र
ओ! अब समझ में आया शांगेन वीजा का मतलब। जिस समझौते पर शांगेन में दस्तख़त हुए उसके अनुसार आपको सिर्फ एक देश का वीजा लेना होगा और इस वीजा के बूते आप यूरोपीय संघ में शामिल अधिकांश देशों में जा सकेंगे।
यूरोपीय संघ का आर्थिक, राजनैतिक, कूटनीतिक तथा सैनिक प्रभाव बहुत ज़बरदस्त है। 2016 में यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी और इसका सकल घरेलू उत्पादन 17000 अरब डालर से ज़्यादा था जो अमरीका के ही लगभग है। इसकी मुद्रा यूरो अमरीकी डालर के प्रभुत्व के लिए खतरा बन सकती है। विश्व व्यापार में इसकी हिस्सेदारी अमरीका से तीन गुनी ज़्यादा है और इसी के चलते यह अमरीका और चीन से व्यापारिक विवादों में पूरी धौंस के साथ बात करता है। इसकी आर्थिक शक्ति का प्रभाव इसके नज़दीकी देशोें पर ही नहीं, बल्कि एशिया और अफ्रीका के दूर-दराज के मुल्क़ों पर भी है। यह विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठनोें के अंदर एक महत्त्वपूर्ण समूह के रूप में काम करता है।
यूरोपीय संघ के दो सदस्य देश ब्रिटेन और फ्रांस सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हैं। यूरोपीय संघ के कई और देश सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्यों में शामिल हैं। इसके चलते यूरोपीय संघ अमरीका समेत सभी मुल्कों की नीतियों को प्रभावित करता है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम से संबंधित अमरीकी नीतियों को हाल के दिनों में प्रभावित करना इसका एक उदाहरण है। चीन के साथ मानवाधिकारों के उल्लंघन और पर्यावरण विनाश के मामलों पर धमकी या सैनिक शक्ति का उपयोग करने की जगह कूटनीति, आर्थिक निवेश और बातचीत की इसकी नीति ज्यादा प्रभावी साबित हुई है।
यूरोपीय एकता के महत्त्वपूर्ण पड़ाव
अप्रैल 1951 : पश्चिमी यूरोप के छह देशों – फ्रांस, पश्चिम जर्मनी, इटली, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्जमबर्ग ने पेरिस संधि पर दस्तखत करके यूरोपीय कोयला और इस्पात समुदाय का गठन किया।
मार्च 1957 : इन्हीं छह देशों ने रोम की संधि के माध्यम से यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) और यूरोपीय एटमी ऊर्जा समुदाय (Euratom) का गठन किया।
जनवरी 1973 : डेनमार्क, आयरलैंड और ब्रिटेन ने भी यूरोपीय समुदाय की सदस्यता ली।
जून 1979 : यूरोपीय संसद के लिए पहला प्रत्यक्ष चुनाव।
जनवरी 1981 : यूनान (ग्रीस) ने यूरोपीय समुदाय की सदस्यता ली।
जून 1985 : शांगेन संधि ने यूरोपीय समुदाय के देशों के बीच सीमा नियंत्रण समाप्त किया।
जनवरी 1986 : स्पेन और पुर्तगाल भी यूरोपीय समुदाय में शामिल हुए।
अक्टूबर 1990 : जर्मनी का एकीकरण।
फरवरी 1992 : यूरोपीय संघ के गठन के लिए मास्ट्रिस्ट संधि पर दस्तखत।
जनवरी 1993 : एकीकृत बाजार का गठन।
जनवरी 2002 : नई मुद्रा यूरो को 12 सदस्य देशों ने अपनाया।
मई 2004 : साइप्रस, चेक गणराज्य, एस्टोनिया, हंगरी, लताविया, लिथुआनिया, माल्टा, पोलैंड, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया भी यूरोपीय संघ में शामिल।
जनवरी 2007 : बुल्गारिया और रोमानिया यूरोपीय संघ में शामिल। स्लोवेनिया ने यूरो को अपनाया।
दिसंबर 2009 : लिस्बन संधि लागू हुई।
2012 : यूरोपीय संघ को नोबेल शांति पुरुस्कार।
2013 : क्रोएशिया यूरोपीय संघ का 28वां सदस्य बना।
2016 : ब्रिटेन में जनमत संग्रह, 51.9 प्रतिशत मतदाताओं ने फैसला किया कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर (Brexit) हो जाए।
सैनिक ताकत के हिसाब से यूरोपीय संघ के पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है। इसका कुल रक्षा बजट अमरीका के बाद सबसे अधिक है। यूरोपीय संघ के दो देशों – ब्रिटेन और फ्रांस के पास परमाणु हथियार हैं और अनुमान है कि इनके ज़खीरे में करीब 550 परमाणु हथियार हैं। अंतरिक्ष विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के मामले में भी यूरोपीय संघ का दुनिया में दूसरा स्थान है।
अधिराष्ट्रीय संगठन के तौर पर यूरोेपीय संघ आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक मामलों में दखल देने में सक्षम है। लेकिन अनेक मामलों में इसके सदस्य देशों की अपनी विदेश और रक्षा नीति है जो कई बार एक-दूसरे के खिलाफ भी होती है। यही कारण है कि इराक पर अमरीकी हमले में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर तो उसके साथ थे लेकिन जर्मनी और फ्रांस इस हमले के खिलाफ थे। यूरोपीय संघ के कई नए सदस्य देश भी अमरीकी गठबंधन में थे। यूरोप के कुछ हिस्सों में यूरो को लागू करने के कार्यक्रम को लेकर काफी नाराजगी है। यही कारण है कि ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने ब्रिटेन को यूरोपीय बाज़ार से अलग रखा। डेनमार्क और स्वीडन ने मास्ट्रिस्ट संधि और साझी यूरोपीय मुद्रा यूरो को मानने का प्रतिरोध किया। इससे विदेशी और रक्षा मामलों में काम करने की यूरोपीय संघ की क्षमता सीमित होती है।
2003 में यूरोपीय संघ ने एक साझा संविधान बनाने की कोशिश की थी। यह कोशिश नाकामयाब रही। इसी को लक्ष्य करके यह कार्टून बना है। कार्टूनिस्ट ने यूरोपीय संघ को टाइटैनिक ज़हाज के रूप में क्यों दिखाया है?
दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों का संगठन (आसियान)
दुनिया के न ़क्शे पर एक नज़र डालें। आपके ख़्याल से कौन-से देश एशिया के दक्षिणी क्षेत्र में आने चाहिए? दूसरे विश्व युद्ध से पहले और उसके दौरान, एशिया का यह हिस्सा बार-बार यूरोपीय और जापानी उपनिवेशवाद का शिकार हुआ तथा भारी राजनैतिक और आर्थिक कीमत चुकाई। युद्ध समाप्त होने पर इसे राष्ट्र-निर्माण, आर्थिक पिछड़ेपन और गरीबी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसे शीतयुद्ध के दौर में किसी एक महाशक्ति के साथ जाने के दबावों को भी झेलना पड़ा। टकरावों और भागमभाग की एेसी स्थिति को दक्षिण-पूर्व एशिया संभालने की स्थिति में नहीं था। बांडुंग सम्मेलन और गुटनिरपेक्ष आंदोलन वगैरह के माध्यम से एशिया और तीसरी दुनिया के देशों में एकता कायम करने के प्रयास अनौपचारिक स्तर पर सहयोग और मेलजोल कराने के मामले में कारगर नहीं हो रहे थे। इसी के चलते दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने दक्षिण-पूर्व एशियाई संगठन (आसियान) बनाकर एक वैकल्पिक पहल की।
आसियान का झंडा
आसियान के प्रतीक-चिह्न में धान की दस बालियाँ दक्षिण-पूर्व एशिया के दस देशों को इंगित करती हैं जो आपस में मित्रता और एकता के धागे से बंधे हैं। वृत्त आसियान की एकता का प्रतीक है।
स्रोत: www.aseansec.org
1967 में इस क्षेत्र के पाँच देशों ने बैंकॉक घोषणा पर हस्ताक्षर करके ‘आसियान’ की स्थापना की। ये देश थे इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर और थाईलैंड। ‘आसियान’ का उद्देश्य मुख्य रूप से आर्थिक विकास को तेज करना और उसके माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक विकास हासिल करना था। कानून के शासन और संयुक्त राष्ट्र के कायदों पर आधारित क्षेत्रीय शांति और स्थायित्व को बढ़ावा देना भी इसका उद्देश्य था। बाद के वर्षों में ब्रुनेई दारुस्सलाम, वियतनाम, लाओस, म्यांमार और कंबोडिया भी आसियान में शामिल हो गए तथा इसकी सदस्य संख्या दस हो गई।
नोट: यूनीसेफ साइट पर दिए गए मानचित्र में किसी भी देश या क्षेत्र या किसी भी सीमा के परिसीमन की कानूनी स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं किया गया है।
यूरोपीय संघ की तरह इसने खुद को अधिराष्ट्रीय संगठन बनाने या उसकी तरह अन्य व्यवस्थाओं को अपने हाथ में लेने का लक्ष्य नहीं रखा। अनौपचारिक, टकरावरहित और सहयोगात्मक मेल-मिलाप का नया उदाहरण पेश करके आसियान ने काफी यश कमाया है और इसको ‘आसियान शैली’ (ASEAN way) ही कहा जाने लगा है। आसियान के कामकाज में राष्ट्रीय सार्वभौमिकता का सम्मान करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है।
दुनिया में सबसे तेज रफ्तार से आर्थिक तरक्की करने वाले सदस्य देशों के समूह आसियान ने अब अपने उद्देश्यों को आर्थिक और सामाजिक दायरे से ज्यादा व्यापक बनाया है। 2003 में आसियान ने आसियान सुरक्षा समुदाय, आसियान आर्थिक समुदाय और आसियान सामाजिक-सांस्कृतिक समुदाय नामक तीन स्तम्भों के आधार पर आसियान समुदाय बनाने की दिशा में कदम उठाए जो कुछ हद तक यूरोपीय संघ से मिलता-जुलता है।
नक्शे में आसियान के सदस्य देेशों को पहचानिए। नक़्शे में आसियान के सचिवालय को दिखाएँ।
क्या भारत दक्षिण-पूर्व एशिया का हिस्सा नहीं है? भारत के पूर्वोत्तरी राज्य आसियान देशों के इतने निकट हैं।
बुनियादी रूप से आसियान एक आर्थिक संगठन था और वह एेसा ही बना रहा। आसियान क्षेत्र की कुल अर्थव्यवस्था अमरीका, यूरोपीय संघ और जापान की तुलना में काफी छोटी है पर इसका विकास इन सबसे अधिक तेजी से हो रहा है। इसके चलते इस क्षेत्र में और इससे बाहर इसके प्रभाव में तेजी से वृद्धि हो रही है। आसियान आर्थिक समुदाय का उद्देश्य आसियान देशों का साझा बाज़ार और उत्पादन आधार तैयार करना तथा इस इलाके के सामाजिक और आर्थिक विकास में मदद करना है। यह संगठन इस क्षेत्र के देशों के आर्थिक विवादों को निपटाने के लिए बनी मौजूदा व्यवस्था को भी सुधारना चाहेगा।
आसियान ने निवेश, श्रम और सेवाओं के मामले में मुक्त व्यापार क्षेत्र (FTA) बनाने पर भी ध्यान दिया है। इस प्रस्ताव पर आसियान के साथ बातचीत करने की पहल अमरीका और चीन ने कर भी दी है।
हमें इसकी आदत डालनी होगी
भारत ने 1991 से लुक ईस्ट (Look East) और 2014 से एक्ट ईस्ट (Act East) नीति अपनायी। इससे पूर्वी एशिया के देशों (आसियान, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया) से उसके आर्थिक संबंधों में बढ़ोत्तरी हुई है।
25 जनवरी 2018 को नई दिल्ली में भारत और आसियान साझेदारी की रजत जयंती मनाने के लिए डाक टिकट जारी करते हुए आसियान नेताओं के साथ भारत के प्रधानमंत्री।
आसियान क्षेत्रीय मंच (ARF) के सदस्य कौन हैं?
आसियान तेज़ी से बढ़ता हुआ एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन है। इसके विजन दस्तावेज़ 2020 में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में आसियान की एक बहिर्मुखी भूमिका को प्रमुखता दी गई है। आसियान द्वारा अभी टकराव की जगह बातचीत को बढ़ावा देने की नीति से ही यह बात निकली है। इसी तरक़ीब से आसियान ने कंबोडिया के टकराव को समाप्त किया, पूर्वी तिमोर के संकट को सम्भाला है और पूर्व-एशियाई सहयोग पर बातचीत के लिए 1999 से नियमित रूप से वार्षिक बैठक आयोजित की है।
आसियान की मौजूदा आर्थिक शक्ति, खास तौर से भारत और चीन जैसे तेजी से विकसित होने वाले एशियाई देशों के साथ व्यापार और निवेश के मामले में उसकी प्रासंगिकता ने इसे और भी आकर्षक बना दिया है। शुरुआती वर्षों में भारतीय विदेश नीति ने आसियान पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन हाल के वर्षों में भारत ने अपनी नीति सुधाारने की कोशिश की है। भारत ने दो आसियान सदस्यों, मलेशिया, सिंगापुर और थाईलैंड के साथ मुक्त व्यापार का समझौता किया है। 2010 में आसियान-भारत मुक्त व्यापार क्षेत्र व्यवस्था लागू हुई। आसियान की असली ताकत अपने सदस्य देशों, सहभागी सदस्यों और बाकी गैर-क्षेत्रीय संगठनों के बीच निरंतर संवाद और परामर्श करने की नीति में है। यह एशिया का एकमात्र एेसा क्षेत्रीय संगठन है जो एशियाई देशों और विश्व शक्तियों को राजनैतिक और सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिए राजनैतिक मंच उपलब्ध कराता है।
आसियान क्यों सफल रहा और दक्षेस (सार्क) क्यों नहीं? क्या इसलिए कि उस क्षेत्र में कोई बहुत बड़ा देश नहीं है?
चीनी अर्थव्यवस्था का उत्थान
आइए, अब हम अपने बिल्कुल नज़दीक के पड़ोसी और शक्ति के तीसरे बड़े केंद्र चीन की ओर रुख़ करें। आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के उदय को पूरे विश्व में जिस तरह देखा जा रहा है उसे अगले पन्ने पर अंकित कार्टून एकदम ठीक-ठीक बता रहा है। 1978 के बाद से जारी चीन की आर्थिक सफलता को एक महाशक्ति के रूप में इसके उभरने के साथ जोड़कर देखा जाता है। आर्थिक सुधारों की शुरुआत करने के बाद से चीन सबसे ज़्यादा तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रहा है और माना जाता है कि इस रफ्तार से चलते हुए 2040 तक वह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति, अमरीका से भी आगे निकल जाएगा। आर्थिक स्तर पर अपने पड़ोसी मुल्कों से जुड़ाव के चलते चीन पूर्व एशिया के विकास का इंजन-जैसा बना हुआ है और इस कारण क्षेत्रीय मामलों में उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया है। इसकी विशाल आबादी, बड़ा भू-भाग, संसाधन, क्षेत्रीय अवस्थिति और राजनैतिक प्रभाव इस तेज आर्थिक वृद्धि के साथ मिलकर चीन के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते हैं।
1949 में माओ के नेतृत्व में हुई साम्यवादी क्रांति के बाद चीनी जनवादी गणराज्य की स्थापना के समय यहाँ की आर्थिकी सोवियत मॉडल पर आधारित थी। आर्थिक रूप से पिछड़े साम्यवादी चीन ने पूँजीवादी दुनिया से अपने रिश्ते तोड़ लिए। एेसे में इसके पास अपने ही संसाधनों से गुजारा करने के अलावा कोई चारा न था। हाँ, थोड़े समय तक इसे सोवियत मदद और सलाह भी मिली थी। इसने विकास का जो मॅाडल अपनाया उसमें खेती से पूँजी निकाल कर सरकारी नियंत्रण में बड़े उद्योग खड़े करने पर जोर था। चूंकि इसके पास विदेशी बाज़ारों से तकनीक और सामानों की खरीद के लिए विदेशी मुद्रा की कमी थी इसलिए चीन ने आयातित सामानों को धीरे-धीरे घरेलू स्तर पर ही तैयार करवाना शुरू किया।
इस मॉडल में चीन ने अभूतपूर्व स्तर पर औद्योगिक अर्थव्यवस्था खड़ा करने का आधार बनाने के लिए सारे संसाधनों का इस्तेमाल किया। सभी नागरिकों को रोजगार और सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ देने के दायरे में लाया गया और अपने नागरिकों को शिक्षित करने और उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने के मामले में चीन सबसे विकसित देशों से भी आगे निकल गया। अर्थव्यवस्था का विकास भी 5 से 6 फीसदी की दर से हुआ। लेकिन जनसंख्या में 2-3 फीसदी की वार्षिक वृद्धि इस विकास दर पर पानी फेर रही थी और बढ़ती आबादी विकास के लाभ से वंचित रह जा रही थी। खेती की पैदावार उद्योगों की पूरी ज़रूरत लायक अधिशेष नहीं दे पाती थी। अध्याय दो में हम सोवियत संघ की राज्य-नियंत्रित आर्थिकी के संकट की चर्चा कर चुके हैं। एेसे ही संकट का सामना चीन को भी करना पड़ा। इसका औद्योगिक उत्पादन पर्याप्त तेजी से नहीं बढ़ रहा था। विदेशी व्यापार न के बराबर था और प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी।
चीनी नेतृत्व ने 1970 के दशक में कुछ बड़े नीतिगत निर्णय लिए। चीन ने 1972 में अमरीका से संबंध बनाकर अपने राजनैतिक और आर्थिक एकांतवास को खत्म किया। 1973 में प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने कृषि, उद्योग, सेना और विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आधुनिकीकरण के चार प्रस्ताव रखे। 1978 में तत्कालीन नेता देंग श्याओपेंग ने चीन में आर्थिक सुधारों और ‘खुले द्वार की नीति’ की घोषणा की। अब नीति यह हो गयी कि विदेश पूंजी और प्रौद्योगिकी के निवेश से उच्चतर उत्पादकता को प्राप्त किया जाए। बाज़ारमूलक अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए चीन ने अपना तरीका आजमाया।
चीन ने ‘शॉक थेरेपी’ पर अमल करने के बज़ाय अपनी अर्थव्यवस्था को चरणबद्ध ढंग से खोला।
1982 में खेती का निजीकरण किया गया और उसके बाद 1998 में उद्योगों का। व्यापार संबंधी अवरोधों को सिर्फ ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों’ के लिए ही हटाया गया है जहाँ विदेशी निवेशक अपने उद्यम लगा सकते हैं।
नयी आर्थिक नीतियों के कारण चीन की अर्थव्यवस्था को अपनी जड़ता से उबरने में मदद मिली। कृषि के निजीकरण के कारण कृषि-उत्पादों तथा ग्रामीण आय में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निजी बचत का परिमाण बढ़ा और इससे ग्रामीण उद्योगों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ी। उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि-दर तेज रही। व्यापार के नये कानून तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों (स्पेशल इकॉनामिक ज़ोन-SEZ) के निर्माण से विदेश-व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। चीन पूरे विश्व में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे आकर्षक देश बनकर उभरा। चीन के पास विदेशी मुद्रा का अब विशाल भंडार है और इसके दम पर चीन दूसरे देशों में निवेश कर रहा है। चीन 2001 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया। इस तरह दूसरे देशों के लिए अपनी अर्थव्यवस्था खोलने की दिशा में चीन ने एक क़दम और बढ़ाया। अब चीन की योजना विश्व आर्थिकी से अपने जुड़ाव को और गहरा करके भविष्य की विश्व व्यवस्था को एक मनचाहा रूप देने की है।
चीन की आर्थिकी में तो नाटकीय सुधार हुआ है लेकिन वहाँ हर किसी को सुधारों का लाभ नहीं मिला है। चीन में बेरोजगारी बढ़ी है और 10 करोड़ लोग रोजगार की तलाश में है। वहाँ महिलाओं के रोजगार और काम करने के हालात उतने ही खराब हैं जितने यूरोप में 18वीं और 19वीं सदी में थे। इसके अलावा पर्यावरण के नुकसान और भ्रष्टाचार के बढ़ने जैसे परिणाम भी सामने आए। गाँव और शहर के तथा तटीय और मुख्यभूमि पर रहने वाले लोगों के बीच आर्थिक फासला बढ़ता जा रहा है।
चीन की बढ़ती ताकत
अमूमन चीन का नाम आते ही हमारे जेहन में चीन की दीवार और ड्रैगन की तस्वीर कौंधती है। चीन के आर्थिक उभार को दिखाने के लिए यहाँ कार्टूनिस्ट ने दोनों का इस्तेमाल किया है। पहचानिए कि कार्टून में दिखाया गया एक छोटा-सा आदमी कौन हो सकता है? क्या वह ड्रैगन को रोक सकता है?
चीनी साइकिल
चीन के साथ भारत के संबंध
पश्चिमी साम्राज्यवाद के उदय से पहले भारत और चीन एशिया की महाशक्ति थे। चीन का अपने आसपास के इलाकों पर भी काफी प्रभाव था और आसपास के छोटे देश इसके प्रभुत्व को मानकर और कुछ नज़राना देकर चैन से रहा करते थे। चीनी राजवंशों के लम्बे शासन में मंगोलिया, कोरिया, हिन्द-चीन के कुछ इलाके और तिब्बत इसकी अधीनता मानते रहे थे। भारत के भी अनेक राजवंशों और साम्राज्यों का प्रभाव उनके अपने राज्य से बाहर भी रहा था। भारत हो या चीन, इनका प्रभाव सिर्फ राजनैतिक नहीं था – यह आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक भी था। पर चीन और भारत अपने प्रभाव क्षेत्रों के मामले में कभी नहीं टकराए थे। इसी कारण दोनों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रत्यक्ष संबंध सीमित ही थे। परिणाम यह हुआ कि दोनों देश एक दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह से नहीं जान सके और जब बीसवीं सदी में दोनों देश एक दूसरे से टकराए तो दोनों को ही एक-दूसरे के प्रति विदेश नीति विकसित करने में मुश्किलें आईं।
अंग्रेजी राज से भारत के आज़ाद होने और चीन द्वारा विदेशी शक्तियों को निकाल बाहर करने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि ये दोनों मुल्क साथ आकर विकासशील दुनिया और खास तौर से एशिया के भविष्य को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। कुछ समय के लिए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा भी लोकप्रिय हुआ। सीमा विवाद पर चले सैन्य संघर्ष ने इस उम्मीद को समाप्त कर दिया। आज़ादी के तत्काल बाद 1950 में चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने तथा भारत-चीन सीमा पर बस्तियाँ बनाने के फैसले से दोनों देशों के बीच संबंध एकदम गड़बड़ हो गए। भारत और चीन दोनों देश अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों और लद्दाख के अक्साई-चिन क्षेत्र पर प्रतिस्पर्धी दावों के चलते 1962 में लड़ पड़े।
1962 के युद्ध में भारत को सैनिक पराजय झेलनी पड़ी और भारत-चीन सम्बन्धों पर इसका दीर्घकालिक असर हुआ। 1976 तक दोनों देशों के बीच कूटनैतिक संबंध समाप्त ही रहे। इसके बाद धीरे-धीरे दोनों के बीच सम्बन्धों में सुधार शुरू हुआ। 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में चीन का राजनीतिक नेतृत्व बदला। चीन की नीति में भी अब वैचारिक मुद्दों की जगह व्यावहारिक मुद्दे प्रमुख होते गए इसलिए चीन भारत के साथ संबंध सुधारने के लिए विवादास्पद मामलों को छोड़ने को तैयार हो गया। 1981 में सीमा विवादों को दूर करने के लिए वार्ताओं की शृंखला भी शुरू की गई।
शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से भारत-चीन संबंधों में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। अब इनके संबंधों का रणनीतिक ही नहीं, आर्थिक पहलू भी है। दोनों ही खुद को विश्व-राजनीति की उभरती शक्ति मानते हैं और दोनों ही एशिया की अर्थव्यवस्था और राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहेंगे।
चरण
© अपनी कक्षा को तीन समूहों में बाँटो।
© हर समूह को यूरोपीय संघ, आसियान और दक्षेस जैसे संगठनों के बारे में जानकारियाँ जुटाने का जिम्मा सौंपें।
© इनमें संगठन के उद्देश्य और कामकाज के बारे में सूचनाएं भी हों। इनकी बैठकों, शिखर सम्मेलनों की तस्वीरें भी जुटाई जा सकती हैं।
© हर समूह अपनी जानकारियाँ पूरी कक्षा के सामने रखे।
अध्यापकों के लिए
* अध्यापक इन संस्थाओं के कामकाज पर ध्यान केन्द्रित करें।
* छात्रों का ध्यान असैनिक/आर्थिक संगठनों की उपलब्धियों पर खींचें।
* क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों द्वारा अपने सदस्य देशों के विकास में निभाई जाने वाली भूमिका को बताएँ।
* विश्व शांति और सुरक्षा के वैकल्पिक नजरिए के रूप में आर्थिक संगठनों की बढ़ती भूमिका के प्रति बच्चों को जागरूक करें।
दिसम्बर 1988 में राजीव गांधी द्वारा चीन का दौरा करने से भारत-चीन सम्बन्धों को सुधारने के प्रयासों को बढ़ावा मिला। इसके बाद से दोनों देशों ने टकराव टालने और सीमा पर शांति और यथास्थिति बनाए रखने के उपायों की शुरुआत की है। दोनों देशों ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में परस्पर सहयोग और व्यापार के लिए सीमा पर चार पोस्ट खोलने के समझौते भी किए हैं। 1999 से भारत और चीन के बीच व्यापार 30 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। इससे चीन के साथ संबंधों में नयी गर्मजोशी आयी है। चीन और भारत के बीच 1992 में 33 करोड़ 80 लाख डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ था जो 2017 में बढ़कर 84 अरब डॉलर का हो चुका है। हाल में, दोनों देश एेसे मसलों पर भी सहयोग करने के लिए राजी हुए हैं जिनसे दोनों के बीच विभेद पैदा हो सकते थे, जैसे - विदेशों में ऊर्जा सौदा हासिल करने का मसला। वैश्विक धरातल पर भारत और चीन ने विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों के संबंध में एक जैसी नीतियाँ अपनायी हैं।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2014 में भारत का दौरा किया। 2015 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन गए थे। इन दौरों में जिन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए उनके बारे में पता करें।
1998 में भारत के परमाणु हथियार परीक्षण को कुछ लोगों ने चीन से खतरे के मद्देनज़र उचित ठहराया था। लेकिन इससे भी दोनों के बीच संपर्क कम नहीं हुआ। यह सच है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में भी चीन को मददगार माना जाता है। बांग्लादेश और म्यांमार से चीन के सैनिक संबंधाें को भी दक्षिण एशिया में भारतीय हितों के खिलाफ माना जाता है। पर इसमें से कोई भी मुद्दा दोनों मुल्कों में टकराव करवा देने लायक नहीं माना जाता। इस बात का एक प्रमाण यह है कि इन चीजों के बने रहने के बावजूद सीमा विवाद सुलझाने की बातचीत और सैन्य स्तर पर सहयोग का कार्यक्रम जारी है। चीन और भारत के नेता तथा अधिकारी अब अक्सर नयी दिल्ली और बीजिंग का दौरा करते हैं। इससे दोनों देश एक-दूसरे को ज्यादा करीब से समझने लगे हैं। परिवहन और संचार मार्गों की बढ़ोत्तरी, समान आर्थिक हित तथा एक जैसे वैश्विक सरोकारों के कारण भारत और चीन के बीच संबंधों को ज्यादा सकारात्मक तथा मजबूत बनाने में मदद मिली है।
जापान
सोनी, पैनासोनिक, कैनन, सुजुकी, होंडा, ट्योटा और माज़्दा जैसे प्रसिद्ध जापानी ब्रांडों के नाम आपने ज़रूर सुनें होंगे। उच्च प्रौद्योगिकी के उत्पाद बनाने के लिए इनके नाम मशहूर हैं। जापान के पास प्राकृतिक संसाधन कम हैं और वह ज्यादातर कच्चे माल का आयात करता है। इसके बावजूद दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान ने बड़ी तेजी से प्रगति की। जापान 1964 में आर्थिक सहयोग तथा विकास संगठन/अॉर्गनाइज़ेशन फॉर इकॉनॉमिक कोअॉपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) का सदस्य बन गया। 2017 में जापान की अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। एशिया के देशों में अकेला जापान ही समूह-7 के देशों में शामिल है। आबादी के लिहाज से विश्व में जापान का स्थान ग्यारहवाँ है।
आसीमो, विश्व का सबसे अत्याधुनिक मानवरूपी रोबोट।
स्रोत: http://asimo.honda.com
परमाणु बम की विभीषिका झेलने वाला एकमात्र देश जापान है। जापान संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में 10 प्रतिशत का योगदान करता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में अंशदान करने के लिहाज से जापान दूसरा सबसे बड़ा देश है। 1951 से जापान का अमरीका के साथ सुरक्षा-गठबंधन है। जापान के संविधान के अनुच्छेद 9 के अनुसार - ‘‘राष्ट्र के संप्रभु अधिकार के रूप में युद्ध को तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में बल-प्रयोग अथवा धमकी से काम लेने के तरीके का जापान के लोग हमेशा के लिए त्याग करते हैं।’’ जापान का सैन्य व्यय उसके सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1 प्रतिशत है फिर भी सैन्य व्यय के लिहाज से विश्व में जापान का स्थान सातवां है।
इन तथ्यों को ध्यान में रखकर अनुमान लगाइए कि वैकल्पिक शक्ति-केंद्र के रूप में जापान कितना प्रभावकारी होगा?
हाल के दिनों में दोनों देशों के बीच उच्चस्तरीय द्विपक्षीय यात्राओं के दौरान हस्ताक्षर किए गए प्रमुख समझौतों के बारे में भी पता करें।
दक्षिण कोरिया
कोरियाई प्रायद्वीप को द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में दक्षिण कोरिया (रिपब्लिक अॉफ़ कोरिया) और उत्तरी कोरिया (डेमोक्रेटिक पीपुल्स रिपब्लिक अॉफ़ कोरिया) में 38वें समानांतर के साथ-साथ विभाजित किया गया था। 1950-53 के दौरान कोरियाई युद्ध और शीत युद्ध काल की गतिशीलता ने दोनों पक्षों के बीच प्रतिद्वंदिता को तेज़ कर दिया। अंतत: 17 सितंबर 1991 को दोनों कोरिया संयुक्त राष्ट्र के सदस्य बने।
प्रश्नावली
1. तिथि के हिसाब से इन सबको क्रम दें -
(क) विश्व व्यापार संगठन में चीन का प्रवेश (ख) यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना
(ग) यूरोपीय संघ की स्थापना (घ) आसियान क्षेत्रीय मंच की स्थापना
2. ‘ASEAN way’ या आसियान शैली क्या है?
(क) आसियान के सदस्य देशों की जीवन शैली है
(ख) आसियान सदस्यों के अनौपचारिक और सहयोगपूर्ण कामकाज की शैली को कहा जाता है।
(ग) आसियान सदस्यों की रक्षानीति है।
(घ) सभी आसियान सदस्य देशों को जोड़ने वाली सड़क है।
3. इनमें से किसने ‘खुले द्वार’ की नीति अपनाई?
(क) चीन (ख) दक्षिण कोरिया (ग) जापान (घ) अमरीका
4. खाली स्थान भरें –
(क) 1962 में भारत और चीन के बीच .................. और ................... को लेकर सीमावर्ती लड़ाई हुई थी।
(ख) आसियान क्षेत्रीय मंच के कामों में ............................................ और .................... करना शामिल है।
(ग) चीन ने 1972 में ........................ के साथ दोतरफा संबंध शुरू करके अपना एकांतवास समाप्त किया।
(घ) ........................ योजना के प्रभाव से 1948 में यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्थापना हुई।
(ङ) ........................ आसियान का एक स्तम्भ है जो इसके सदस्य देशों की सुरक्षा के मामले देखता है।
5. क्षेत्रीय संगठनों को बनाने के उद्देश्य क्या हैं?
6. भौगोलिक निकटता का क्षेत्रीय संगठनों के गठन पर क्या असर होता है?
7. ‘आसियान विज़न-2020’ की मुख्य-मुख्य बातें क्या हैं?
8. आसियान समुदाय के मुख्य स्तंभों और उनके उद्देश्यों के बारे में बताएँ।
9. आज की चीनी अर्थव्यवस्था नियंत्रित अर्थव्यवव्था से किस तरह अलग है?
10. किस तरह यूरोपीय देशों ने युद्ध के बाद की अपनी परेशानियाँ सुलझाईं? संक्षेप में उन कदमों की चर्चा करें जिनसे होते हुए यूरोपीय संघ की स्थापना हुई।
11. यूरोपीय संघ को क्या चीजें एक प्रभावी क्षेत्रीय संगठन बनाती हैं।
12. चीन और भारत की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मौजूदा एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था को चुनौती दे सकने की क्षमता है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने तर्कों से अपने विचारों को पुष्ट करें।
13. मुल्कों की शांति और समृद्धि क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों को बनाने और मजबूत करने पर टिकी है। इस कथन की पुष्टि करें।
14. भारत और चीन के बीच विवाद के मामलों की पहचान करें और बताएँ कि वृहत्तर सहयोग के लिए इन्हें कैसे निपटाया जा सकता है। अपने सुझाव भी दीजिए।