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अध्याय 5


समकालीन दक्षिण एशिया  

परिचय


आइए, अब हम शीत युद्ध के दौर में विश्व के एक बड़े फ़लक पर हुए बदलावों से नज़र हटा कर अपना ध्यान अपने क्षेत्र यानी दक्षिण एशिया की ओर मोड़ें। बीसवीं सदी के आख़िरी सालों में जब भारत और पाकिस्तान ने खुद को परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्रों की बिरादरी में बैठा लिया तो यह क्षेत्र अचानक पूरे विश्व की नज़र में महत्त्वपूर्ण हो उठा। स्पष्ट ही विश्व का ध्यान इस इलाके में चल रहे कई तरह के संघर्षों पर गया। इस क्षेत्र के देशों के बीच सीमा और नदी जल के बँटवारे को लेकर विवाद कायम है। इसके अतिरिक्त विद्रोह, जातीय संघर्ष और संसाधनों के बँटवारे को लेकर होने वाले झगड़े भी हैं। इन वजहों से दक्षिण एशिया का इलाका बड़ा संवेदनशील है और अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि आज विश्व में यह क्षेत्र सुरक्षा के लिहाज से खतरे की आशंका वाला क्षेत्र है। साथ ही एक बात और है। इस इलाके के बहुत से लोग इस तथ्य की निशानदेही करते हैं कि दक्षिण एशिया के देश अगर आपस में सहयोग करें तो यह क्षेत्र विकास करके समृद्ध बन सकता है। इस अध्याय में हम दक्षिण एशिया के देशों के बीच मौजूद संघर्षों की प्रकृति और इन देशों के आपसी सहयोग को समझने की कोशिश करेंगे। दक्षिण एशिया के देशों की घरेलू राजनीति से इन झगड़ों या सहयोग का मिज़ाज तय होता है अथवा वह इनके मूल में हैं। इस वजह से अध्याय में पहले दक्षिण एशिया का परिचय दिया जाएगा और कुछ देशों की घरेलू राजनीति की चर्चा की जाएगी।

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येगेनी डेलाक्रो ने सन् 1830 में एक पेंटिंग बनायी थी। इसका शीर्षक था–‘लिबर्टी लीडिंग द पीपल’। पेंटिंग में स्वतंत्रता की देवी को जनता की अगुआई करते हुए चित्रित किया गया था। यहाँ दिया गया चित्र उसी पेंटिंग का सुभाष राय कृत रूपांतरण है।

हिमाल साउथ एशियन (जनवरी, 2007), द साउथ एशियन ट्रस्ट, नेपाल से साभार



क्या है दक्षिण एशिया?

भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट-मैच कितना तनावपूर्ण होता है– यह हम बखूबी जानते हैं। हमने यह भी देखा है कि क्रिकेट मैच देखने के लिए पाकिस्तानी अथवा भारतीय ‘फैन्स’ जब एक-दूसरे के देशों में पहुँचते हैं तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता है; गर्मजोशी से मेजबानी की जाती है। यही हाल दक्षिण एशियाई मामलों का भी है। यह एक एेसा क्षेत्र है जहाँ सद्भाव और शत्रुता, आशा और निराशा तथा पारस्परिक शंका और विश्वास साथ-साथ बसते ह

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दक्षिण एशिया के देशों की कुछ एेसी विशेषताओं की पहचान करें जो इस क्षेत्र के देशों में तो समान रूप से लागू होती हैं परंतु पश्चिम एशिया अथवा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों पर लागू नहीं होतीं।


शुरुआत हम एक बुनियादी सवाल से करें कि दक्षिण एशिया है क्या? अमूमन बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को इंगित करने के लिए ‘दक्षिण एशिया’ पद का व्यवहार किया जाता है। उत्तर की विशाल हिमालय पर्वत-श्रृंखला, दक्षिण का हिंद महासागर, पश्चिम का अरब सागर और पूरब में मौजूद बंगाल की खाड़ी से यह इलाका एक विशिष्ट प्राकृतिक क्षेत्र के रूप में नज़र आता है। यह भौगोलिक विशिष्टता ही इस उप-महाद्वीपीय क्षेत्र के भाषाई, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अनूठेपन के लिए जिम्मेदार है। इस क्षेत्र की चर्चा में जब-तब अफ़गानिस्तान और म्यांमार को भी शामिल किया जाता है। चीन इस क्षेत्र का एक प्रमुख देश है लेकिन चीन को दक्षिण एशिया का अंग नहीं माना जाता। इस अध्याय में हम ‘दक्षिण एशिया’ पद का इस्तेमाल उपर्युक्त सात देशों के लिए करेंगे। इस तरह परिभाषित दक्षिण एशिया हर अर्थ में विविधताओं से भरा-पूरा इलाका है फिर भी भू-राजनीतिक धरातल पर यह एक क्षेत्र है।

दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में एक-सी राजनीतिक प्रणाली नहीं है। अनेक समस्याओं और सीमाओं के बावजूद भारत और श्रीलंका में ब्रिटेन से आज़ाद होने के बाद, लोकतांत्रिक व्यवस्था सफलतापूर्वक कायम है। भारत में लोकतंत्र के विकास के बारे में आप एक और क़िताब में विस्तार से पढ़ेंगे। इस क़िताब में आज़ादी के बाद के दिनों की भारतीय राजनीति की चर्चा की गई है। भारत के लोकतंत्र की बहुत सारी सीमाओं की तरफ इंगित किया जा सकता है लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि एक राष्ट्र के रूप में भारत हमेशा लोकतांत्रिक रहा है। यही बात श्रीलंका पर लागू होती है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में लोकतांत्रिक और सैनिक दोनों तरह के नेताओं का शासन रहा है। शीतयुद्ध के बाद के सालों में बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम रहा। पाकिस्तान में शीतयुद्ध के बाद के सालों में लगातार दो लोकतांत्रिक सरकारें बनीं। पहली सरकार बेनज़ीर भुट्टो और दूसरी नवाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में कायम हुई। लेकिन इसके बाद 1999 में पाकिस्तान में सैनिक तख्तापलट हुआ। 2008 से फिर से यहाँ लोकतांत्रिक-शासन है। 2006 तक नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र था और इस बात का खतरा बराबर बना हुआ था कि राजा अपने हाथ में कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ ले लेगा। 2008 में राजतंत्र को खत्म किया और नेपाल एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में उभरा। बांग्लादेश और नेपाल के अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि पूरे दक्षिण एशिया में लोकतंत्र एक स्वीकृत मूल्य बन चला है।


u1.tifक्या इन देशों की कोई सुनिश्चित परिभाषा है? यह परिभाषा बनाता कौन है?


दक्षिण एशिया के दो सबसे छोटे देशों में भी एेसे ही बदलाव की बयार बह रही है। भूटान 2008 में संवैधानिक राजतंत्र बन गया। राजा के नेतृत्व में, यह बहुदलीय लोकतंत्र के रूप में उभरा। दूसरा द्वीपीय देश मालदीव 1968 तक सल्तनत हुआ करता था। 1968 में यह एक गणतंत्र बना और यहाँ शासन की अध्यक्षात्मक प्रणाली अपनायी गयी। 2005 के जून में मालदीव की संसद ने बहुदलीय प्रणाली को अपनाने के पक्ष में एकमत से मतदान किया। मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) का देश के राजनीतिक मामलों में दबदबा है। एमडीपी ने 2018 में हुए चुनावों में जीत हासिल की।

दक्षिण एशिया मेें लोकतंत्र का रिकार्ड मिला-जुला रहा है। इसके बावजूद दक्षिण एशियाई देशों की जनता लोकतंत्र की आकांक्षाओं में सहभागी है। इस क्षेत्र के पाँच बड़े देशों में हाल ही में एक सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण से यह बात ज़ाहिर हुई कि इन पाँचों देशों में लोकतंत्र को व्यापक जन-समर्थन हासिल है। इन देशों में हर वर्ग और धर्म के आम नागरिक – लोकतंत्र को अच्छा मानते हैं और प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र की संस्थाओं का समर्थन करते हैं। इन देशों के लोग शासन की किसी और प्रणाली की अपेक्षा लोकतंत्र को वरीयता देते हैं और मानते हैं कि उनके देश के लिए लोकतंत्र ही ठीक है। ये निष्कर्ष बड़े महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि पहले से माना जाता रहा है कि लोकतंत्र सिर्फ विश्व के धनी देशों में फल-फूल सकता है। इस लिहाज से देखें तो दक्षिण एशिया के लोकतंत्र के अनुभवों से लोकतंत्र की वैश्विक कल्पना का दायरा बढ़ा है।

आइए, हम देखें कि भारत को छोड़कर दक्षिण एशिया के अन्य चार बड़े देशों में लोकतंत्र का अनुभव कैसा रहा?

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ये दोनों आरेख दक्षिण एशिया के पाँच बड़े देशों के 19 हजार से अधिक नागरिकों से लिए गए साक्षात्कार पर आधारित हैं।

स्रोत – एस डी एस ए टीम – स्टेट अॉव डेमोक्रेसी इन साऊथ एशिया, नयी दिल्ली, अॉक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2007


पाकिस्तान में सेना और लोकतंत्र

पाकिस्तान में पहले संविधान के बनने के बाद देश के शासन की बाग़डोर जनरल अयूब खान ने अपने हाथों में ले ली और जल्दी ही अपना निर्वाचन भी करा लिया। उनके शासन के खिलाफ़ जनता का गुस्सा भड़का और एेसे में उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा। इससे एक बार फिर सैनिक शासन का रास्ता साफ हुआ और जनरल याहिया खान ने शासन की बागडोर संभाली। याहिया खान के सैनिक-शासन के दौरान पाकिस्तान को बांग्लादेश-संकट का सामना करना पड़ा और 1971 में भारत के साथ पाकिस्तान का युद्ध हुआ। युद्ध के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान टूटकर एक स्वतंत्र देश बना और बांग्लादेश कहलाया। इसके बाद पाकिस्तान में जुल्फ़िकार अली भुट्टो के नेतृत्व में एक निर्वाचित सरकार बनी जो 1971 से 1977 तक कायम रही। 1977 में जेनरल जियाउल-हक ने इस सरकार को गिरा दिया। 1982 के बाद जेनरल जियाउल-हक को लोकतंत्र-समर्थक आंदोलन का सामना करना पड़ा और 1988 में एक बार फिर बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार बनी। पाकिस्तान में इसके बाद की राजनीति बेनज़ीर भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग के आपसी होड़ के इर्द-गिर्द घूमती रही। निर्वाचित लोकतंत्र की यह अवस्था 1999 तक कायम रही। 1999 में एक बार फिर सेना ने दखल दी और जेनरल परवेज़ मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को हटा दिया। 2001 में परवेज़ मुशर्रफ ने अपना निर्वाचन राष्ट्रपति के रूप में कराया। पाकिस्तान पर सेना की हुकूमत थी हालाँकि सैनिक शासकों ने अपने शासन को लोकतांत्रिक जताने के लिए चुनाव कराए हैं। 2008 से पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता शासन कर रहे हैं।


दक्षिण एशिया का घटनाक्रम (1947 से)

1947 ब्रिटिश-राज की समाप्ति के बाद भारत और पाकिस्तान का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय।

1948 श्रीलंका (तत्कालीन सिलोन) को आज़ादी मिली; कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई।

1954-55 पाकिस्तान शीतयुद्धकालीन सैन्य गुट ‘सिएटो’ और ‘सेंटो’ में शामिल हुआ।

सितंबर 1960 भारत और पाकिस्तान ने सिंधु नदी जल समझौते पर हस्ताक्षर किए।

1962 भारत और चीन के बीच सीमा-विवाद।

1965 भारत-पाक युद्ध; संयुक्त राष्ट्रसंघ का भारत-पाक पर्यवेक्षण मिशन।

1966 भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद समझौता। शेख मुजीबुर्रहमान ने पूर्वी पाकिस्तान को ज़्यादा स्वायत्तता देने के लिए छ सूत्री प्रस्ताव रखा।

मार्च 1971 बांग्लादेश के नेताओं द्वारा आज़ादी की उद्घोषणा।

अगस्त 1971 भारत और सोवियत संघ ने 20 सालों के लिए मैत्री संधि पर दस्तख़त किए।

दिसंबर 1971 भारत-पाक युद्ध; बांग्लादेश की मुक्ति।

जुलाई 1972 भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला-समझौता।

मई 1974 भारत ने परमाणु-परीक्षण किए।

1976 पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच कूटनयिक संबंध बहाल हुए।

दिसंबर 1985 ‘दक्षेस’ के पहले सम्मेलन (ढाका) में दक्षिण एशिया के देशों ने ‘दक्षेस’ के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए।

1987 भारत-श्रीलंका समझौता; भारतीय शांति सेना का श्रीलंका में अभियान (1987-90)।

1988 मालदीव में भाड़े के सैनिकों द्वारा किए गए षड्यंत्र को नाकाम करने के लिए भारत ने वहाँ सेना भेजी। भारत और पाकिस्तान के बीच एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों और सुविधाओं पर हमला न करने के समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

1988-91 पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में लोकतंत्र की बहाली।

1993 ‘दक्षेस’ के सातवें सम्मेलन (ढाका) में आपसी व्यापार में दक्षेस के देशों को वरीयता देने की संधि (SAPTA) पर हस्ताक्षर।

दिसंबर 1996 गंगा नदी के पानी में हिस्सेदारी के मसले पर भारत और बांग्लादेश के बीच फरक्का संधि पर हस्ताक्षर हुए।

मई 1998 भारत और पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण किए।

दिसंबर 1998 भारत और श्रीलंका ने मुक्त व्यापार संधि पर हस्ताक्षर किए।

फरवरी 1999 भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस-यात्रा कर लाहौर गए तथा शांति के एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए।

जून-जुलाई 1999 भारत और पाकिस्तान के बीच करगिल-युद्ध।

जुलाई 2001 वाजपेयी-मुशर्रफ के बीच आगरा-बैठक असफल।

फरवरी 2004 12वें दक्षेस सम्मेलन में ‘मुक्त व्यापार संधि (SAFTA)’ पर हस्ताक्षर हुए।

2007 अफ़गानिस्तान दक्षेस का सदस्य बना।

नवंबर 2014 18वां दक्षेस सम्मेलन काठमांडू, नेपाल में हुआ।

 

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पाकिस्तान में लोकतंत्र के स्थायी न बन पाने के कई कारण हैं। यहाँ सेना, धर्मगुरु और भूस्वामी अभिजनों का सामाजिक दबदबा है। इसकी वज़ह से कई बार निर्वाचित सरकारों को गिराकर सैनिक शासन कायम हुआ। पाकिस्तान की भारत के साथ तनातनी रहती है। इस वज़ह से सेना-समर्थक समूह ज्यादा मजबूत हैं और अक्सर ये समूह दलील देते हैं कि पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और लोकतंत्र में खोट है। राजनीतिक दलों के स्वार्थ साधन तथा लोकतंत्र की धमाचौकड़ी से पाकिस्तान की सुरक्षा खतरे में पड़ेगी। इस तरह ये ताकतें सैनिक शासन को जायज़ ठहराती हैं। लोकतंत्र तो खैर पाकिस्तान में पूरी तरह सफल नहीं हो सका है लेकिन इस देश में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत मज़बूती के साथ कायम रहा है। पाकिस्तान में अपेक्षाकृत स्वतंत्र और साहसी प्रेस मौजूद है और वहाँ मानवाधिकार आंदोलन भी काफी मजबूत है।

पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शासन चले- इसके लिए कोई खास अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलता। इस वज़ह से भी सेना को अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए बढ़ावा मिला है। अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने अपने-अपने स्वार्थों से गुज़रे वक्त में पाकिस्तान में सैनिक शासन को बढ़ावा दिया। इन देशों को उस आतंकवाद से डर लगता है जिसे ये देश ‘विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद’ कहते हैं। इन देशों को यह भी डर सताता है कि पाकिस्तान के परमाण्विक हथियार कहीं इन आतंकवादी समूहों के हाथ न लग जाएँ। इन बातों के मद्देनज़र पाकिस्तान को ये देश ‘पश्चिम’ तथा दक्षिण एशिया में पश्चिमी हितों का रखवाला मानते हैं।

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m5.tifएक ओर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी थे जो मिलकर एक हो गए; दूसरी ओर भारत और पाकिस्तान हैं, जहाँ लोगों का एक-दूसरे देश में जाना भी आसान नहीं है।


बांग्लादेश में लोकतंत्र

1947 से 1971 तक बांग्लादेश पाकिस्तान का अंग था। अंग्रेजी राज के समय के बंगाल और असम के विभाजित हिस्सों से पूर्वी पाकिस्तान का यह क्षेत्र बना था। इस क्षेत्र के लोग पश्चिमी पाकिस्तान के दबदबे और अपने ऊपर उर्दू भाषा को लादने के ख़िलाफ़ थे। पाकिस्तान के निर्माण के तुरंत बाद ही यहाँ के लोगों ने बंगाली संस्कृति और भाषा के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ़ विरोध जताना शुरू कर दिया। इस क्षेत्र की जनता ने प्रशासन में अपने न्यायोचित प्रतिनिधित्व तथा राजनीतिक सत्ता में समुचित हिस्सेदारी की माँग भी उठायी। पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व के खिलाफ़ जन-संघर्ष का नेतृत्व शेख मुजीबुर्रहमान ने किया। उन्होंने पूर्वी क्षेत्र के लिए स्वायत्तता की माँग की। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग को 1970 के चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान की सारी सीटों पर विजय मिली। अवामी लीग को संपूर्ण पाकिस्तान के लिए प्रस्तावित संविधान सभा में बहुमत हासिल हो गया। लेकिन सरकार पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं का दबदबा था और सरकार ने इस सभा को आहूत करने से इंकार कर दिया। शेख़ मुज़ीब को गिर ़फ्तार कर लिया गया। जेनरल याहिया खान के सैनिक शासन में पाकिस्तानी सेना ने बंगाली जनता के आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। हज़ारों लोग पाकिस्तानी सेना के हाथो मारे गए। इस वज़ह से पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग भारत पलायन कर गए। भारत के सामने इन शरणार्थियों को संभालने की समस्या आन खड़ी हुई। भारत की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की आज़ादी की माँग का समर्थन किया और उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता दी। इसके परिणामस्वरूप 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध की समाप्ति पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण तथा एक स्वतंत्र राष्ट्र ‘बांग्लादेश’ के निर्माण के साथ हुई।


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1987 में जेनरल इरशाद के खिलाफ लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा मारे गए नूर हुसैन की याद में ढाका विश्वविद्यालय में दीवार पर बनी एक चित्रमाला। उसकी पीठ पर अंकित है - गणतंत्र मुक्त पाक। दीवार पर ‘जय बांग्ला’, ‘जय बंगबंधु’, ‘विप्लववीर ही सच्चे इंसान हैं’ और ‘क्रांति ही मुक्ति का इकलौता रास्ता है’ जैसे नारे लिखे हैं।

शाहिदुल आलम, ड्रिक से साभार

 

बांग्लादेश ने अपना संविधान बनाकर उसमें अपने को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा समाजवादी देश घोषित किया। बहरहाल, 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान ने संविधान में संशोधन कराया और संसदीय प्रणाली की जगह अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली को मान्यता मिली। शेख मुज़ीब ने अपनी पार्टी अवामी लीग को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को समाप्त कर दिया। इससे तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा हुई। 1975 के अगस्त मेें सेना ने उनके ख़िलाफ बग़ावत कर दी और इस नाटकीय तथा त्रासद घटनाक्रम में शेख मुज़ीब सेना के हाथो मारे गए। नये सैनिक-शासक जियाउर्रहमान ने अपनी बांग्लादेश नेशनल पार्टी बनायी और 1979 के चुनाव में विजयी रहे। जियाउर्रहमान की हत्या हुई और लेफ्टिनेंट ज़ेनरल एच एम इरशाद के नेतृत्व में बांग्लादेश में एक और सैनिक-शासन ने बागडोर संभाली। लेकिन, बांग्लादेश की जनता जल्दी ही लोकतंत्र के समर्थन में उठ खड़ी हुई। आंदोलन में छात्र आगे-आगे चल रहे थे। बाध्य होकर जेनरल इरशाद ने एक हद तक राजनीतिक गतिविधियों की छूट दी। इसके बाद के समय में जेनरल इरशाद पाँच सालों के लिए राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। जनता के व्यापक विरोध के आगे झुकते हुए लेफ्टिनेंट जेनरल इरशाद को राष्ट्रपति का पद 1990 में छोड़ना पड़ा। 1991 में चुनाव हुए। इसके बाद से बांग्लादेश में बहुदलीय चुनावों पर आधारित प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र कायम है।

नेपाल में राजतंत्र और लोकतंत्र

नेपाल अतीत में एक हिन्दू-राज्य था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज़ उठाते रहे। लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरुद्ध हो गई।

एक मजबूत लोकतंत्र-समर्थक आंदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली। नेपाल में लोकतांत्रिक सरकारों का कार्यकाल बहुत छोटा और समस्याओं से भरा रहा। 1990 के दशक में नेपाल के माओवादी नेपाल के अनेक हिस्सों में अपना प्रभाव जमाने में कामयाब हुए। माओवादी, राजा और सत्ताधारी अभिजन के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह करना चाहते थे। इस वज़ह से राजा की सेना और माओवादी गुरिल्लों के बीच हिंसक लड़ाई छिड़ गई। कुछ समय तक राजा की सेना, लोकतंत्र-समर्थकों और माओवादियों के बीच त्रिकोणीय संघर्ष हुआ। 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया। इस तरह नेपाल में जो भी थोड़ा-बहुत लोकतंत्र था उसे राजा ने खत्म कर दिया।

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बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक के बारे में ज्यादा जानकारी जुटायें। क्या भारत में ग़रीबी कम करने के लिए एेसी ही जुगत लगा सकते हैं?


अप्रैल 2006 में यहाँ देशव्यापी लोकतंत्र- समर्थक प्रदर्शन हुए। संघर्षरत लोकतंत्र-समर्थक शक्तियों ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की जब राजा ज्ञानेन्द्र ने बाध्य होकर संसद को बहाल किया। इसे अप्रैल 2002 में भंग कर दिया गया था। मोटे तौर पर अहिंसक रहे इस प्रतिरोध का नेतृत्व सात दलों के गठबंधन (सेवेन पार्टी अलाएंस), माओवादी तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किया।

नेपाल में लोकतंत्र की आमद अब लगभग मुकम्मल हुई है। नेपाल अपने इतिहास के एक अद्वितीय दौर से गुज़र रहा था। नेपाल का संविधान लिखने के लिए वहाँ संविधान-सभा का गठन हुआ। नेपाल में कुछ लोग मानते थे कि अलंकारिक अर्थों में राजा का पद कायम रखना ज़रूरी था ताकि नेपाल अपने अतीत से जुड़ा रहे। माओवादी समूहों ने सशस्त्र संघर्ष की राह छोड़ देने की बात मान ली थी। माओवादी चाहते थे कि संविधान में मूलगामी सामाजिक आर्थिक पुनर्रचना के कार्यक्रमों को शामिल किया जाय। सात दलों के गठबंधन में शामिल हरेक दल को यह बात स्वीकार नहीं थी। माओवादी और कुछ अन्य राजनीतिक समूह भारत की सरकार और नेपाल के भविष्य में भारतीय सरकार की भूमिका को लेकर बहुत शंकित थे। 2008 में नेपाल राजतंत्र को खत्म करने के बाद लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। 2015 में नेपाल ने नया संविधान अपनाया।

श्रीलंका में जातीय संघर्ष और लोकतंत्र

हम देख चुके हैं कि आज़ादी (1948) के बाद से लेकर अब तक श्रीलंका में लोकतंत्र कायम है। लेकिन, श्रीलंका को एक कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा। यह चुनौती न तो सेना की थी और न ही राजतंत्र की। श्रीलंका को जातीय संघर्ष का सामना करना पड़ा जिसकी माँग है कि श्रीलंका के एक क्षेत्र को अलग राष्ट्र बनाया जाय।

आज़ादी के बाद से (श्रीलंका को उन दिनों सिलोन कहा जाता था) श्रीलंका की राजनीति पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के हितों की नुमाइंदगी करे वालों का दबदबा रहा है। ये लोग भारत छोड़कर श्रीलंका आ बसी एक बड़ी तमिल आबादी के खिलाफ़ हैं। तमिलों का बसना श्रीलंका के आज़ाद होने के बाद भी जारी रहा। सिंहली राष्ट्रवादियों का मानना था कि श्रीलंका मेें तमिलों के साथ कोेई ‘रियायत’ नहीं बरती जानी चाहिए क्योंकि श्रीलंका सिर्फ सिंहली लोगों का है। तमिलों के प्रति उपेक्षा भरे बरताव से एक उग्र तमिल राष्ट्रवाद की आवाज़ बुलंद हुई। 1983 के बाद से उग्र तमिल संगठन ‘लिबरेशन टाइगर्स अॉव तमिल ईलम’ (लिट्टे) श्रीलंकाई सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष कर रहा है। इसने ‘तमिल ईलम’ यानी श्रीलंका के तमिलों के लिए एक अलग देश की माँग की है। श्रीलंका के उत्तर पूर्वी हिस्से पर लिट्टे का नियंत्रण है


m3.tifनेपाल तो सचमुच बड़ा रोमांचक जान पड़ता है। काश! मैं नेपाल में होती।


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यहाँ दो चित्र दिए गए हैं। पहले चित्र में लोकतंत्र समर्थक दुर्गा थापा को लोकतंत्र-बहाली की एक रैली (काठमांडू, 1990) में भाग लेते हुए दिखाया गया है। दूसरी तस्वीर 2006 की है। इसमें भी दुर्गा थापा को दिखाया गया है लेकिन इस बार वे लोकतंत्र बहाली के दूसरे आंदोलन की सफलता का उत्सव मना रही हैं।

चित्र - मिन बजराचार्य से साभार


श्रीलंका की समस्या भारतवंशी लोगों से जुड़ी है। भारत की तमिल जनता का भारतीय सरकार पर भारी दबाव है कि वह श्रीलंकाई तमिलों के हितों की रक्षा करे। भारतीय सरकार ने समय-समय पर तमिलों के सवाल पर श्रीलंका की सरकार से बातचीत की कोशिश की है। लेकिन 1987 में भारतीय सरकार श्रीलंका के तमिल मसले में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हुई। भारत की सरकार ने श्रीलंका से एक समझौता किया तथा श्रीलंका सरकार और तमिलों के बीच रिश्ते सामान्य करने के लिए भारतीय सेना को भेजा। आखिर में भारतीय सेना लिट्टे के साथ संघर्ष में फंस गई। भारतीय सेना की उपस्थिति को श्रीलंका की जनता ने भी कुछ ख़ास पसंद नहीं किया। श्रीलंकाई जनता ने समझा कि भारत श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी कर रहा है। 1989 में भारत ने अपनी ‘शांति सेना’ लक्ष्य हासिल किए बिना वापस बुला ली।

श्रीलंका के इस संकट का हिंसक चरित्र था। अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ के रूप में नार्वे और आइसलैंड जैसे स्केंडिनेवियाई देश युद्धरत दोनों पक्षों को फिर से आपस में बातचीत करने के लिए राजी कर रहे थे। अंतत सशस्त्र संघर्ष समाप्त हो गया क्योंकि 2009 में लिट्टे को खत्म कर दिया गया।

संघर्षों की चपेट में होने के बाद भी श्रीलंका ने अच्छी आर्थिक वृद्धि और विकास के उच्च स्तर को हासिल किया है। जनसंख्या की वृद्धि-दर पर सफलतापूर्वक नियंत्रण करने वाले विकासशील देशों में श्रीलंका प्रथम है। दक्षिण एशिया के देशों में सबसे पहले श्रीलंका ने ही अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया। गृहयुद्ध से गुजरने के बावजूद कई सालों से इस देश का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है। अंदरूनी संघर्ष के झंझावातों को झेलकर भी श्रीलंका ने लोकतांत्रिक राजव्यवस्था कायम रखी है।

भारत-पाकिस्तान संघर्ष

आइए, अब हम घरेलू राजनीति के दायरे से बाहर निकलें और इस क्षेत्र के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के एेसे दायरों पर नज़र डालें जहाँ संघर्ष हुए हैं। शीतयुद्ध की समाप्ति का यह अर्थ नहीं कि इस इलाके में भी संघर्ष और तनाव समाप्त हो गए। हम आंतरिक लोकतंत्र या जातीय संघर्ष के मसलों पर हुए टकरावों को देख चुके हैं। लेकिन, कुछ महत्त्वपूर्ण संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति के भी हैं। दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति केंद्रीय है और इस वज़ह से इनमें से अधिकांश संघर्षों का रिश्ता भारत से है।

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यह कार्टून शांति वार्ताओं में श्रीलंका के नेतृत्व के आगे मौजूद दुविधा को दिखाता है। एक ओर शेर के रूप में सिंहली कट्टरपंथी हैं और दूसरी ओर बाघ के रूप में तमिल उग्रवादी।


इन संघर्षों में सबसे प्रमुख और सर्वग्रासी संघर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच का संघर्ष है। विभाजन के तुरंत बाद दोनों देश कश्मीर के मसले पर लड़ पड़े। पाकिस्तान की सरकार का दावा था कि कश्मीर पाकिस्तान का है। भारत और पाकिस्तान के बीच 1947-48 तथा 1965 के युद्ध से इस मसले का समाधान नहीं हुआ। 1948 के युद्ध के फलस्वरूप कश्मीर के दो हिस्से हो गए। एक हिस्सा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहलाया जबकि दूसरा हिस्सा भारत का जम्मू-कश्मीर प्रान्त बना। दोनों के बीच एक नियंत्रण-सीमा रेखा है। 1971 में भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ एक निर्णायक युद्ध जीता लेकिन कश्मीर मसला अनसुलझा ही रहा।

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भारत-पाक वार्ताओं के चालू दौर पर एक नज़रिया


सामरिक मसलों जैसे सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण तथा हथियारों की होड़ को लेकर भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनातनी रहती है। 1990 के दशक में दोनों देशों ने परमाणु हथियार और एेसे हथियारों को एक-दूसरे पर दागने की क्षमता वाले मिसाइल हासिल कर लिए। इससे दोनों देशों के बीच हथियारों की होड़ ने एक नया चरित्र ग्रहण किया है। 1998 में भारत ने पोखरण में और इसके कुछ दिनों के अंदर ही पाकिस्तान ने चगाई पहाड़ी पर परमाणु-परीक्षण किए। इसके बाद से एेसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान एक सैन्य-संबंध में बंध चुके हैं और इनके बीच सीधे और सर्वव्यापी युद्ध छिड़ने की आशंका कम हो गई है।

लेकिन, दोनों देशों की सरकारें लगातार एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखती हैं। भारत सरकार का आरोप है कि पाकिस्तान सरकार ने लुके-छुपे ढंग से हिंसा की रणनीति जारी रखी है। आरोप है कि वह कश्मीरी उग्रवादियों को हथियार, प्रशिक्षण और धन देता है तथा भारत पर आतंकवादी हमले के लिए उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है। भारत सरकार का यह भी मानना है कि पाकिस्तान ने 1985-1995 की अवधि में खालिस्तान-समर्थक उग्रवादियों को हथियार तथा गोले-बारुद दिए थे। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई) पर बांग्लादेश और नेपाल के गुप्त ठिकानों से पूर्वोत्तर भारत में भारत-विरोधी अभियानों में संलग्न होने का आरोप है। इसके जवाब में पाकिस्तान की सरकार भारतीय सरकार और उसकी खुफिया एजेंसियों पर सिंध और बलूचिस्तान में समस्या को भड़काने का आरोप लगाती है।


u2.tifकश्मीर मसले पर होने वाली बातचीत एेसी जान पड़ती है मानो भारत और पाकिस्तान के शासक अपनी जायदाद का झगड़ा निपटा रहे हों। कश्मीरियों को इसमें कैसा लगता होगा?


भारत और पाकिस्तान के बीच नदी- जल के बँटवारे के सवाल पर भी तनातनी हुई है। 1960 तक दोनों के बीच सिन्धु नदी के इस्तेमाल को लेकर तीखे विवाद हुए। संयोग से, 1960 में विश्व बैंक की मदद से भारत और पाकिस्तान ने ‘सिंधु-जल संधि’ पर दस्तख़त किए और यह संधि भारत-पाक के बीच कई सैन्य संघर्षों के बावजूद अब भी कायम है। हालाँकि सिंधु जल-संधि की व्याख्या और नदी-जल के इस्तेमाल को लेकर अभी भी कुछ छोटे-मोटे विवाद हैं। कच्छ के रन में सरक्रिक की सीमारेखा को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद हैं। यह विवाद छोटा जान पड़ता है लेकिन इसके साथ एक चिन्ता जुड़ी हुई है। इस विवाद का समाधान जिस ढंग से किया जाएगा उसका असर सरक्रिक इलाके से सटे समुद्री-संसाधन के नियंत्रण पर भी पड़ेगा। भारत और पाकिस्तान के बीच इन सभी मामलों के बारे में वार्ताओं के दौर चल रहे हैं।

भारत और उसके अन्य पड़ोसी देश

बांग्लादेश और भारत के बीच गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के जल में हिस्सेदारी सहित कई मुद्दों पर मतभेद हैं। भारतीय सरकारों के बांग्लादेश से नाखुश होने के कारणों में भारत में अवैध आप्रवास पर ढाका के खंडन, भारत-विरोधी इस्लामी कट्टरपंथी जमातों को समर्थन, भारतीय सेना को पूर्वोत्तर भारत में जाने के लिए अपने इलाके से रास्ता देने से बांग्लादेश के इंकार, ढाका के भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने के फैसले तथा म्यांमार को बांग्लादेशी इलाके से होकर भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने देने जैसे मसले शामिल हैं। बांग्लादेश की सरकार का मानना है कि भारतीय सरकार नदी-जल में हिस्सेदारी के सवाल पर इलाके के दादा की तरह बरताव करती है। इसके अलावा भारत की सरकार पर चटगाँव पर्वतीय क्षेत्र में विद्रोह को हवा देने; बांग्लादेश के प्राकृतिक गैस में सेंधमारी करने और व्यापार में बेईमानी बरतने के भी आरोप हैं।

विभेदों के बावजूद भारत और बांग्लादेश कई मसलों पर सहयोग करते हैं। पिछले बीस वर्षों के दौरान दोनों के बीच आर्थिक संबंध ज़्यादा बेहतर हुए हैं। बांग्लादेश भारत के ‘लुक ईस्ट’ और 2014 से ‘एक्ट ईस्ट’ नीति का हिस्सा है। इस नीति के अन्तर्गत म्यांमार के ज़रिए दक्षिण-पूर्व एशिया से संपर्क साधने की बात है। आपदा-प्रबंधन और पर्यावरण के मसले पर भी दोनों देशों ने निरंतर सहयोग किया है। 2015 में दोनों ने कुछ परिक्षेत्रों (एन्केलेव) का आदान-प्रदान किया। इस बात के भी प्रयास किए जा रहे हैं कि साझे खतरों को पहचान कर तथा एक दूसरे की ज़रूरतों के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता बरतकर सहयोग के दायरे को बढ़ाया जाए।

भारत और नेपाल के बीच मधुर संबंध हैं और दोनों देशोें के बीच एक संधि हुई है। इस संधि के तहत दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के देश में बिना पासपोर्ट (पारपत्र) और वीज़ा के आ-जा सकते हैं और काम कर सकते हैं। ख़ास संबंधों के बावजूद दोनों देश के बीच अतीत में व्यापार से संबंधित मनमुटाव पैदा हुए हैं। नेपाल की चीन के साथ दोस्ती को लेकर भारत सरकार ने अक्सर अपनी अप्रसन्नता जतायी है। नेपाल सरकार भारत-विरोधी तत्त्वों के खिलाफ कदम नहीं उठाती। इससे भी भारत नाखुश है। भारत की सुरक्षा एजेंसियाँ नेपाल में चल रहे माओवादी आंदोलन को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानती हैं क्योंकि भारत में बिहार से लेकर आन्ध्र प्रदेश तक विभिन्न प्रांतों में नक्सलवादी समूहों का उभार हुआ है। नेपाल में बहुत से लोग यह सोचते हैं कि भारत की सरकार नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल दे रही है और उसके नदी जल तथा पनबिजली पर आँख गड़ाए हुए है। चारों तरफ से जमीन से घिरे नेपाल को लगता है कि भारत उसको अपने भूक्षेत्र से होकर समुद्र तक पहुँचने से रोकता है। बहरहाल भारत-नेपाल के संबंध एकदम मज़बूत और शांतिपूर्ण है। विभेदों के बावजूद दोनों देश व्यापार, वैज्ञानिक सहयोग, साझे प्राकृतिक संसाधन, बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन ग्रिड के मसले पर एक साथ हैं। नेपाल में लोकतन्त्र की बहाली से दोनों देशों के बीच संबंधों के और मज़बूत होने की उम्मीद बंधी है।

m2.tifएेसा क्यों है कि हर पड़ोसी देश को भारत से कुछ-न-कुछ परेशानी है? क्या हमारी विदेश नीति में कुछ गड़बड़ी है? या यह केवल हमारे बड़े होने के कारण है?


श्रीलंका और भारत की सरकारों के संबंधों में तनाव इस द्वीप में ज़ारी जातीय संघर्ष को लेकर है। जब तमिल आबादी राजनीतिक रूप से नाखुश हो और उसे मारा जा रहा हो तो एेसे मेें भारतीय नेताओं और जनता का तटस्थ बने रहना असंभव लगता है। 1987 के सैन्य हस्तक्षेप के बाद से भारतीय सरकार श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में असलंग्नता की नीति पर अमल कर रही है। भारत सरकार ने श्रीलंका के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत किए हैं। इससे दोनों देशों के संबंध मज़बूत हुए हैं। श्रीलंका में ‘सुनामी’ से हुई तबाही के बाद के पुनर्निर्माण कार्यों में भारतीय मदद से भी दोनों देश एक दूसरे के करीब आए हैं।


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चरण

© कक्षा में आठ समूह बनाएँ यानी दक्षिण एशिया में जितने देश हैं उतने समूह। हर समूह में आप छात्रों को अलग-अलग संख्या में रख सकते हैं ताकि दक्षिण एशिया के देशों के आकार को इंगित किया जा सके।

© प्रत्येक समूह को एक देश का नाम दें। समूह का नाम जिस देश के नाम पर रखें उस समूह को उक्त देश के कुछ तथ्यों की जानकारी दें। इसमें कुछ बुनियादी सूचनाएँ हों और दक्षिण एशिया के शेष देशों के साथ इस देश के मतभेद वाले मुद्दों/विवादों की संक्षिप्त चर्चा हो। इस अध्याय में जो मुद्दे बताये गए हैं उन्हें भी रखा जा सकता है। आप चाहें तो कोई और प्रासंगिक मुद्दा ले सकते हैं जिसकी चर्चा इस अध्याय में नहीं की गई है।

© छात्रों से कहें कि वे अपनी पसंद का कोई मुद्दा चुन लें। विवाद का यह मुद्दा द्विपक्षीय भी हो सकता है और बहुपक्षीय भी (मुद्दा भारत केंद्रित होगा। इसके कारण स्पष्ट हैं)।

© प्रत्येक समूह से कहें कि उनके देश की सरकार ने अतीत में विवादों के समाधान के लिए जो कदम उठाए हैं उसकी खोजबीन करें। छात्र यह भी बताएं कि विवाद के समाधान के प्रयास क्यों असफल हुए?

© प्रत्येक समूह के छात्र अपने देश की नुमाइंदगी करें और दूसरे समूह के साथ अपने निष्कर्षों को मिलायें।


अध्यापकों के लिए

* समान मसलों/विवादों वाले देशों को एक साथ रखें। मामला द्विपक्षीय हो तो दो समूह होंगे। अगर मामले बहुपक्षीय हैं तो ज्यादा समूह बनेंगे। (द्विपक्षीय मामलों के उदाहरण हैं - भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर का मामला या भारत और बांग्लादेश के बीच आप्रवासियों का मामला। बहुपक्षीय मामले का उदाहरण है आतंकवाद या मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने से जुड़े मुद्दे)।

* समूहों को एक तय समय सीमा में समाधान के प्रस्तावों पर बातचीत करनी है। अध्यापक इस बातचीत के परिणाम को लिख लें। ध्यान इस बात पर रहे कि सहमति किस बिंदु पर बनी और असहमति किस बिंदु पर।

* दक्षिण एशिया के देशों में मौजूद स्थिति से बातचीत के इन परिणामों का मिलान करें। प्रदत्त तथ्यों के आधार पर किसी राजनीतिक मुद्दे पर बातचीत में जो कठिनाई आई हो उसकी चर्चा करें। शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए एक-दूसरे के हितों से तालमेल बैठाना ज़रूरी है - इस मसले पर चर्चा करके इस अभ्यास को समाप्त करें।



भारत के भूटान के साथ भी बहुत अच्छे रिश्ते हैं और भूटानी सरकार के साथ कोई बड़ा झगड़ा नहीं है। भूटान से अपने काम का संचालन कर रहे पूर्वोत्तर भारत के उग्रवादियों और गुरिल्लों को भूटान ने अपने क्षेत्र से खदेड़ भगाया। भूटान के इस कदम से भारत को बड़ी मदद मिली है। भारत भूटान में पनबिजली की बड़ी परियोजनाओं में हाथ बँटा रहा है। इस हिमालयी देश के विकास कार्यों के लिए सबसे ज्यादा अनुदान भारत से हासिल होता है। मालदीव के साथ भारत के संबंध सौहार्दपूर्ण तथा गर्मजोशी से भरे हैं। 1988 में श्रीलंका से आए कुछ भाड़े के तमिल सैनिकों ने मालदीव पर हमला किया। मालदीव ने जब आक्रमण रोकने के लिए भारत से मदद माँगी तो भारतीय वायुसेना और नौसेना ने तुरंत कार्रवाई की। भारत ने मालदीव के आर्थिक विकास, पर्यटन और मत्स्य उद्योग में भी मदद की है।

आपने ध्यान दिया होगा कि दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे पड़ोसियों के साथ भारत को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। भारत का आकार बड़ा है और वह शक्तिशाली है। इसकी वज़ह से अपेक्षाकृत छोटे देशों का भारत के इरादों को लेकर शक करना लाजिमी है। दूसरी तरफ, भारत सरकार को अक्सर महसूस होता है कि उसके पड़ोसी देश उसका बेज़ा फायदा उठा रहे हैं। भारत नहीं चाहता कि इन देशों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो। उसे भय लगता है कि एेसी स्थिति में बाहरी ताकतों को इस क्षेत्र में प्रभाव जमाने में मदद मिलेगी। छोटे देशों को लगता है कि भारत दक्षिण एशिया में अपना दबदबा कायम करना चाहता है।

दक्षिण एशिया के सारे झगड़े सिर्फ भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच ही नहीं है। नेपाल-भूटान तथा बांग्लादेश-म्यांमार के बीच जातीय मूल के नेपालियों के भूटान आप्रवास तथा रोहिंग्या लोगों के म्यांमार में आप्रवास के मसले पर मतभेद रहे हैं। बांग्लादेश और नेपाल के बीच हिमालयी नदियों के जल की हिस्सेदारी को लेकर खटपट है। यह बात सही है कि इस इलाके के सभी बड़े झगड़े भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच हैं। इसका एक कारण दक्षिण एशिया का भूगोल भी है जहाँ भारत बीच में स्थित है और बाकी देश भारत की सीमा के इर्द-गिर्द पड़ते हैं।


शांति और सहयोग

क्या दक्षिण एशिया के देश एक-दूसरे का सहयोग करते हैं या ये देश एक-दूसरे से सिर्फ़ लड़ते रहते हैं? अनेक संघर्षों के बावजूद दक्षिण एशिया के देश आपस में दोस्ताना रिश्ते तथा सहयोग के महत्त्व को पहचानते हैं। शांति के प्रयास द्विपक्षीय भी हुए हैं और क्षेत्रीय स्तर पर भी। दक्षेस (साउथ एशियन एसोशियन फॉर रिजनल कोअॉपरेशन (saarc) दक्षिण एशियाई देशों द्वारा बहुस्तरीय साधनों से आपस में सहयोग करने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। इसकी शुरुआत 1985 में हुई। दुर्भाग्य से विभेदों की मौजूदगी के कारण दक्षेस को ज्यादा सफलता नहीं मिली है। दक्षेस के सदस्य देशों ने सन् 2002 में ‘दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार-क्षेत्र समझौते’ (SAFTA) पर दस्तख़त किये। इसमें पूरे दक्षिण एशिया के लिए मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का वायदा है।

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यह कार्टून क्षेत्रीय सहयोग की प्रगति में भारत और पाकिस्तान की भूमिका के बारे में क्या बताता है?



u3.tifअगर अमरीका के बारे में लिखे गए अध्याय को ‘अमरीकी वर्चस्व’ का शीर्षक दिया गया तो इस अध्याय को भारतीय वर्चस्व क्यों नहीं कहा गया?


यदि दक्षिण एशिया के सभी देश अपनी सीमारेखा के आर-पार मुक्त-व्यापार पर सहमत हो जाएँ तो इस क्षेत्र में शांति और सहयोग के एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकती है। दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते (SAFTA) के पीछे यही भावना काम कर रही है। इस समझौते पर 2004 में हस्ताक्षर हुए और यह समझौता 1 जनवरी 2006 से प्रभावी हो गया। इस समझौते का लक्ष्य है कि इन देशों के बीच आपसी व्यापार में लगने वाले सीमा शुल्क को कम कर दिया जाए। कुछ छोटे देश मानते हैं कि ‘साफ्टा’ की ओट लेकर भारत उनके बाज़ार में सेंध मारना चाहता है और व्यावसायिक उद्यम तथा व्यावसायिक मौजूदगी के जरिये उनके समाज और राजनीति पर असर डालना चाहता है। भारत सोचता है कि ‘साफ्टा’ से इस क्षेत्र के हर देश को फायदा होगा और क्षेत्र में मुक्त व्यापार बढ़ने से राजनीतिक मसलों पर सहयोग ज्यादा बेहतर होगा। भारत में कुछ लोगों का मानना है कि ‘साफ्टा’ के लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं क्योंकि भारत भूटान, नेपाल और श्रीलंका से पहले ही द्विपक्षीय व्यापार समझौता कर चुका है।

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भारत और पाकिस्तान से लिए गए दो कार्टून इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले दो बाहरी खिलाड़ियों की भूमिका की व्याख्या करते हैं। ये बाहरी खिलाड़ी कौन हैं? क्या आपको इन दोनों के दृष्टिकोण में कुछ समानता दिखाई देती है?

हालाँकि भारत और पाकिस्तान के संबंध कभी खत्म न होने वाले झगड़ों और हिंसा की एक कहानी जान पड़ते हैं फिर भी तनाव को कम करने और शांति बहाल करने के लिए इन देशों के बीच लगातार प्रयास हुए हैं। दोनों देश युद्ध के जोखिम कम करने के लिए विश्वास बहाली के उपाय करने पर सहमत हो गये हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ दोनों देशों के लोगों के बीच दोस्ती का माहौल बनाने के लिए एकजुट हुई हैं। दोनों देशों के नेता एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझने और दोनों देशों के बीच मौजूद बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए सम्मेलनों में भेंट करते हैं। पिछले पाँच वर्षों के दौरान दोनों देशों के पंजाब वाले हिस्से के बीच कई बस-मार्ग खुले हैं। अब वीज़ा आसानी से मिल जाते हैं।


M4.tifलगता है हर संगठन व्यापार के लिए ही बनता है? क्या व्यापार लोगोें के आपसी मेलजोल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है?


कोई भी क्षेत्र हवा में नहीं होता। चाहे कोई क्षेत्र अपने को गैर इलाकाई ताकतों से अलग रखने की जितनी भी कोशिश करे उस पर बाहरी ताकतों और घटनाओं का असर पड़ता ही है। चीन और संयुक्त राज्य अमरीका दक्षिण एशिया की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले दस वर्षों में भारत और चीन के संबंध बेहतर हुए हैं। चीन की रणनीतिक साझेदारी पाकिस्तान के साथ है और यह भारत-चीन संबंधों में एक बड़ी कठिनाई है। विकास की ज़रूरत और वैश्वीकरण के कारण एशिया महादेश के ये दो बड़े देश ज्यादा नजदीक आये हैं। सन् 1991 के बाद से इनके आर्थिक संबंध ज़्यादा मज़बूत हुए हैं।

शीतयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में अमरीकी प्रभाव तेजी से बढ़ा है। अमरीका ने शीतयुद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों से अपने संबंध बेहतर किए हैं। वह भारत-पाक के बीच लगातार मध्यस्थ की भूमिका निभा रहा है। दोनों देशों में आर्थिक सुधार हुए हैं और उदार नीतियाँ अपनाई गई हैं। इससे दक्षिण एशिया में अमरीकी भागीदारी ज़्यादा गहरी हुई है। अमरीका में दक्षिण एशियाई मूल के लोगों की संख्या अच्छी-खासी है। फिर, इस क्षेत्र की जनसंख्या और बाजार का आकार भी भारी भरकम है। इस कारण इस क्षेत्र की सुरक्षा और शांति के भविष्य से अमरीका के हित भी बंधे हुए हैं।

बहरहाल, दक्षिण एशिया को संघर्षों की आशंका वाले क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता रहेगा अथवा यह एक एेसे क्षेत्रीय गुट के रूप में उभरेगा जिसके सांस्कृतिक गुण-धर्म तथा व्यापारिक हित एक हैं - यह बात किसी बाहरी शक्ति से ज्यादा यहाँ के लोगों और सरकारों पर निर्भर है।

प्रश्नावली

1. देशों की पहचान करें –

(क) राजतंत्र, लोकतंत्र-समर्थक समूहों और अतिवादियों के बीच संघर्ष के कारण राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण बना।

(ख) चारों तरफ भूमि से घिरा देश।

(ग) दक्षिण एशिया का वह देश जिसने सबसे पहले अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया।

(घ) सेना और लोकतंत्र-समर्थक समूहों के बीच संघर्ष में सेना ने लोकतंत्र के ऊपर बाजी मारी।

(ङ) दक्षिण एशिया के केंद्र में अवस्थित। इस देश की सीमाएँ दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों से मिलती हैं।

(च) पहले इस द्वीप में शासन की बागडोर सुल्तान के हाथ में थी। अब यह एक गणतंत्र है।

(छ) ग्रामीण क्षेत्र में छोटी बचत और सहकारी ऋण की व्यवस्था के कारण इस देश को ग़रीबी कम करने में मदद मिली है।

(ज) एक हिमालयी देश जहाँ संवैधानिक राजतंत्र है। यह देश भी हर तरफ से भूमि से घिरा है।

2. दक्षिण एशिया के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?

(क) दक्षिण एशिया में सिर्फ़ एक तरह की राजनीतिक प्रणाली चलती है।

(ख) बांग्लादेश और भारत ने नदी-जल की हिस्सेदारी के बारे में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।

(ग) ‘साफ्टा’ पर हस्ताक्षर इस्लामाबाद के 12वें सार्क-सम्मेलन में हुए।

(घ) दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन और संयुक्त राज्य अमरीका महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. पाकिस्तान के लोकतंत्रीकरण में कौन-कौन सी कठिनाइयाँ हैं?

4. नेपाल के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बहाल करने में कैसे सफल हुए?

5. श्रीलंका के जातीय-संघर्ष में किनकी भूमिका प्रमुख है?

6. भारत और पाकिस्तान के बीच हाल में क्या समझौते हुए?

7. एेसे दो मसलों के नाम बताएँ जिन पर भारत-बांग्लादेश के बीच आपसी सहयोग है और इसी तरह दोएेसे मसलों के नाम बताएँ जिन पर असहमति है।

8. दक्षिण एशिया में द्विपक्षीय संबंधों को बाहरी शक्तियाँ कैसे प्रभावित करती हैं?

9. दक्षिण एशिया के देशों के बीच आर्थिक सहयोग की राह तैयार करने में दक्षेस (सार्क) की भूमिका और सीमाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें। दक्षिण एशिया की बेहतरी में ‘दक्षेस’ (सार्क) ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सके, इसके लिए आप क्या सुझाव देंगे?

10. दक्षिण एशिया के देश एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यह क्षेत्र एकजुट होकर अपना प्रभाव नहीं जमा पाता। इस कथन की पुष्टि में कोई भी दो उदाहरण दें और दक्षिण एशिया को मजबूत बनाने के लिए उपाय सुझाएँ।

11. दक्षिण एशिया के देश भारत को एक बाहुबली समझते हैं जो इस क्षेत्र के छोटे देशों पर अपना दबदबा जमाना चाहता है और उनके अंदरूनी मामलों में दखल देता है। इन देशों की एेसी सोच के लिए कौन-कौन सी बातें जिम्मेदार हैं?