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अध्याय 6

अंतर्राष्ट्रीय संगठन

परिचय

इस अध्याय में हम सोवियत संघ के बिखरने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका के बारे में पढ़ेंगे। हम देखेंगे कि एक उभरते हुए विश्व में नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के पुनर्निर्माण की बातें हो रही थीं। इन्हीं चुनौतियों में एक थी अमरीका की शक्ति का बढ़ना। सुधार की प्रक्रियाओं और उनकी कठिनाइयों की एक मिसाल संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में होने वाला बदलाव है। संयुक्त राष्ट्रसंघ से भारत का जुड़ाव और सुरक्षा परिषद् के सुधारों को लेकर उसका विशेष दृष्टिकोण अपने आप में जानकारी का एक अहम विषय है। इस अध्याय का अंत इस सवाल से किया गया है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ एेसे विश्व में कोई भूमिका निभा सकता है जिसमें किसी एक महाशक्ति का दबदबा हो। इस अध्याय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भी चर्चा की गई है।

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जून 2006 के दौरान इजराइल ने लेबनान पर हमला किया। उसका कहना था कि उग्रवादी गुट हिज़बुल्लाह पर नियंत्रण करने के लिए हमला ज़रूरी है। भारी संख्या में आम नागरिक मारे गए। कई सार्वजनिक इमारत और रिहायशी इलाके इजराइली बमबारी की चपेट में आए। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इस मामले पर एक प्रस्ताव बहुत बाद यानी अगस्त में पास किया और इजराइली सेना इस इलाके से अक्टूबर में ही वापस हो सकी। ये दोनों कार्टून इस संकट में संयुक्त राष्ट्रसंघ और उसके महासचिव की भूमिका पर टिप्पणी करते हैं।


हमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन क्यों चाहिए?

एक ओर इस तरह के कार्टून और टिप्पणियाँ हैं तो दूसरी ओर हम पाते हैं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को आज की दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठन माना जाता है। अमूमन ‘यू एन’ कहे जाने वाले इस संगठन को विश्व भर के बहुत-से लोग एक अनिवार्य संगठन मानते हैं। यह संगठन उनकी नज़र में शांति और प्रगति के प्रति मानवता की आशा का प्रतीक है। हमें संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठनों की ज़रूरत क्यों है? आइए, यहाँ एेसे दो लोगों के विचार पढ़ते हैं जिन्हें इस संगठन के कामकाज की अंदरुनी जानकारी है -

‘‘संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन मानवता को स्वर्ग पहुँचाने के लिए नहीं बल्कि उसे नरक से बचाने के लिए हुआ है।’’

- डेग हैमरसोल्ड; संयुक्त राष्ट्रसंघ के दूसरे महासचिव

‘‘बतकही की चौपाल, ठीक कहा आपने! संयुक्त राष्ट्रसंघ में खूब बैठकें होती हैं, दनादन भाषण होते हैं - ख़ासकर आम सभा के वार्षिक सत्र में। लेकिन, जैसा कि चर्चिल कहते थे, हथियार लड़ाने से बढ़िया है कि ज़बान लड़ाई जाए। क्या यह बात बेहतर नहीं कि एक एेसी जगह भी हो जहाँ दुनिया के सारे देश इकट्ठे हों और कभी-कभार अपनी बातों से एक-दूसरे का सर खाएँ, बनिस्पत लड़ाई के मैदान में एक-दूसरे का सर कलम करने के?’’

- शशि थरूर; संयुक्त राष्ट्रसंघ में सार्वजनिक सूचना और संचार के पूर्व

अवर सचिव।


m1.tifयही बात तो वे संसद के बारे में कहते हैं। क्या हमें बतकही की एेसी चौपालें वास्तव में चाहिए?


ये दो उद्धरण एक महत्त्वपूर्ण बात की तरफ इशारा करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन हर मर्ज़ की दवा नहीं लेकिन वे महत्त्वपूर्ण ज़रूर हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन युद्ध और शांति के मामलों में मदद करते हैं। वे देशों की सहायता करते हैं ताकि हम सब की बेहतर जीवन-स्थितियाँ कायम हों।

देशों के बीच मनमुटाव और झगड़े होते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अपने वैर-विरोध के कारण वे एक-दूसरे से युद्ध ठान लें। इसकी जगह वे विभेद के मसलों पर बातचीत कर सकते हैं और उसका एक शांतिपूर्ण समाधान ढूँढ़ सकते हैं। वस्तुत अधिकांश झगड़ों और विभेदों का समाधान बिना युद्ध के ही किया जाता है, लेकिन यह एक एेसा तथ्य है जिस पर कम ध्यान जाता है। इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन कोई शक्तिशाली राज्य नहीं होता जिसकी अपने सदस्यों पर धौंस चलती हो। अंतर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण विभिन्न राज्य ही करते हैं और यह उनके मामलों के लिए जवाबदेह होता है। जब राज्यों में इस बात पर सहमति होती है कि कोई अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनना चाहिए, तभी एेसे संगठन कायम होते हैं। एक बार इनका निर्माण हो जाए तो ये समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान में सदस्य देशों की मदद करते हैं।

शीतयुद्ध के बाद के समय में कुछ संगठनों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, खासकर विश्व की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में। इनमें से एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड-IMF) है। यह संगठन वैश्विक स्तर की वित्त-व्यवस्था की देखरेख करता है और माँगे जाने पर वित्तीय तथा तकनीकी सहायता मुहैया करता है। 189 (12 अप्रैल 2016 की स्थिति) देश अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्य हैं लेकिन हर सदस्य की राय का वजन बराबर नहीं है। समूह-7 के सदस्य (अमरीका, जापान, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली और कनाडा) के पास 41.29 प्रतिशत मत हैं। अन्य अग्रणी सदस्यों में चीन (6.09 %), भारत (2.64 %), रूस (2.59 %), ब्राज़ील (2.22 %) और सऊदी अरब (2.02 %) हैं। अकेले अमरीका के पास 16.52 प्रतिशत मताधिकार हैं।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन एक और तरीके से मददगार होते हैं। राष्ट्रों के सामने अक्सर कुछ काम एेसे आ जाते हैं जिन्हें साथ मिलकर ही करना होता है। कुछ मसले इतने चुनौतीपूर्ण होते हैं कि उनसे तभी निपटा जा सकता है जब सभी साथ मिलकर काम करें। इसकी एक मिसाल तो बीमारी ही है। कुछ रोगों को तब ही खत्म किया जा सकता है जब विश्व का हर देश अपनी आबादी को टीके लगाने में सहयोग करे। हम ‘ग्लोबल वार्मिंग’ (विश्वव्यापी तापवृद्धि) और उसके प्रभावों का ही उदाहरण लें। वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने से तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्रतल की ऊँचाई बढ़ने का ख़तरा है। अगर एेसा हुआ तो विश्व के समुद्रतटीय इलाके जिसमें बड़े-बड़े शहर भी शामिल हैं, डूब जाएेंगे। हर देश अपने-अपने तरीके से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के दुष्प्रभावों का समाधान ढूँढ़ सकता है। तब भी अंतत सबसे प्रभावकारी समाधान तो यही है कि वैश्विक तापवृद्धि को रोका जाए। इसके लिए विश्व के बड़े औद्योगिक देशों का सहयोग करना ज़रुरी है।


एेसे मुद्दों और समस्याओं की एक सूची बनाइए जिन्हें सुलझाना किसी एक देश के लिए संभव नहीं है और जिनके लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन की ज़रूरत है।


दुर्भाग्य से, सहयोग की ज़रूरत को पहचानना और सचमुच में सहयोग करना दो अलग-अलग बातें हैं। देश सहयोग करने की ज़रूरत को पहचान सकते हैं लेकिन सहयोग का सबसे बेहतर तरीका क्या हो – इस पर हमेशा उनके बीच सहमति नहीं हो सकती। सहयोग में आने वाली लागत का भार कौन कितना उठाए, सहयोग से होने वाले लाभ का आपसी बँटवारा न्यायोचित ढंग से कैसे हो, मोल-तोल के बाद जो तय हो जाए उससे कोई मुकरे नहीं और आपसी समझौते के बाद जो बातें तय हुई हैं उनसे कोई भी दग़ा न करे- इन बिंदुओं पर सभी देश हमेशा सहमत नहीं होते। एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन सहयोग करने के उपाय और सूचनाएँ जुटाने में मदद कर सकता है। एेसा संगठन नियमों और नौकरशाही की एक रूपरेखा दे सकता है ताकि सदस्यों को यह विश्वास हो कि आने वाली लागत में सबकी समुचित साझेदारी होगी, लाभ का बँटवारा न्यायोचित होगा और कोई सदस्य एक बार समझौते में शामिल हो जाता है तो वह इस समझौते के नियम और शर्तों का पालन करेगा।


संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना

अगस्त 1941 अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट और ब्रितानी प्रधानमंत्री चर्चिल द्वारा अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर किए गए।

जनवरी 1942 धुरी शक्तियों के खिलाफ लड़ रहे 26 मित्र-राष्ट्र अटलांटिक चार्टर के समर्थन में वाशिंग्टन में मिले और दिसंबर 1943 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा पर हस्ताक्षर हुए।

फरवरी 1945 तीन बड़े नेताओं (रूजवेल्ट, चर्चिल और स्टालिन) ने याल्टा सम्मेलन में प्रस्तावित अंतर्राष्ट्रीय संगठन के बारे में संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक सम्मेलन करने का निर्णय किया।

अप्रैल-मई 1945 सेन फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्रसंघ का अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के मसले पर केंद्रित दो महीने लंबा सम्मेलन संपन्न।

26 जून 1945 संयुक्त राष्ट्रसंघ चार्टर पर 50 देशों के हस्ताक्षर। पोलैंड ने 15 अक्टूबर को हस्ताक्षर किए। इस तरह संयुक्त राष्ट्रसंघ में 51 मूल संस्थापक सदस्य हैं।

24 अक्टूबर 1945 संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना। 24 अक्टूबर संयुक्त राष्ट्रसंघ दिवस।

30 अक्टूबर 1945 भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल।


शीतयुद्ध के अंत के बाद अब संयुक्त राष्ट्रसंघ थोड़ी अलग भूमिका निभा सकता है – हम एेसा अनुमान कर सकते हैं। अमरीका और उसके खेमे के देश विजेता बनकर उभरे हैं। एेसे में बहुत से लोगों और सरकारों को इस बात की चिंता सता रही है कि अमरीका की अगुआई में पश्चिमी देश इतने ताकतवर हो जाएँगे कि उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं पर लगाम कसना असंभव होगा। क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका के साथ संवाद और चर्चा में मददगार हो सकता है और क्या यह संगठन अमरीकी सरकार की ताकत पर अंकुश लगा सकता है? हम इन सवालों के उत्तर अध्याय के अंत में खोजेंगे।


संयुक्त राष्ट्रसंघ का विकास

पहले विश्वयुद्ध ने दुनिया को इस बात के लिए जगाया कि झगड़ों के निपटारे के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने का प्रयास ज़रूर किया जाना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप ‘लीग अॉव नेशंस’ का जन्म हुआ। शुरुआती सफलताओं के बावजूद यह संगठन दूसरा विश्वयुद्ध (1939-45) न रोक सका। पहले की तुलना में इस महायुद्ध में कहीं ज़्यादा लोग मारे गये और घायल हुए।

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1942 की संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा के आधार पर दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान (1943 में) अमरीेका के युद्ध सूचना विभाग (यूनाइटेड स्टे्टस अॉफिस अॉव वार इंफॉरमेशन) द्वारा तैयार किया गया पोस्टर। इस पोस्टर में उन देशों के झंडों को देखा जा सकता है जिन्हाेंने मित्र राष्ट्रों के युद्धक प्रयासों के

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http://www.newint.org/issue375/pics/un-map-big.gif पर आधारित


संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनेक एजेंसियों का यहाँ जिक्र किया गया है। हरेक एजेंसी की गतिविधियों के बारे में एक समाचार खोजें।

Sr.Unni4.tifशीतयुद्ध हो या न हो, एक सुधार तो सबसे पहले ज़रूरी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ में केवल लोकतांत्रिक नेताओं को ही अपने देश की नुमाइंदगी करने का हक होना चाहिए। आखिर किसी तानाशाह को देश की जनता की ओर से बोलने की अनुमति कैसे दी जा सकती है?


‘लीग अॉव नेशंस’ के उत्तराधिकारी के रूप में संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद सन् 1945 में इसे स्थापित किया गया। 51 देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र पर दस्तख़त करने के साथ इस संगठन की स्थापना हो गई। दो विश्वयुद्धों के बीच ‘लीग अॉव नेशंस’ जो नहीं कर पाया था उसे कर दिखाने की कोशिश संयुक्त राष्ट्रसंघ ने की। संयुक्त राष्ट्रसंघ का उद्देश्य है अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों को रोकना और राष्ट्रों के बीच सहयोग की राह दिखाना। इसकी स्थापना के पीछे यह आशा काम कर रही थी कि यह संगठन विभिन्न देशों के बीच जारी एेसे झगड़ों को रोकने का काम करेगा जो आगे चलकर युद्ध का रूप ले सकते हैं और अगर युद्ध छिड़ ही जाए तो शत्रुता के दायरे को सीमित करने का काम करेगा। इसके अलावा, चूँकि झगड़े अक्सर सामाजिक-आर्थिक विकास के अभाव में खड़े होते हैं इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक मंशा पूरे विश्व में सामाजिक-आर्थिक विकास की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए विभिन्न देशों को एक साथ लाने की है।

2011 तक संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों की संख्या 193 थी। इसमें लगभग सभी स्वतंत्र देश शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में हरेक सदस्य को एक वोट हासिल है। इसकी सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी सदस्य हैं। इनके नाम हैं – अमरीका, रूस, ब्रिटेन, प्रुांस और चीन। दूसरे विश्वयुद्ध के तुरंत बाद के समय में ये देश सबसे ज़्यादा ताकतवर थे और इस महायुद्ध के विजेता भी रहे, इसलिए इन्हें स्थायी सदस्य के रूप में चुना गया।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे अधिक दिखने वाला सार्वजनिक चेहरा और उसका प्रधान प्रतिनिधि महासचिव होता है। वर्तमान महासचिव एंटोनियो गुटेरेस। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के नौवें महासचिव हैं। उन्हाेंने महासचिव का पद 1 जनवरी 2017 को संभाला। ये 1995 से 2002 तक पुर्तगाल के प्रधानमंत्री और 2005 से 2015 तक यूनाइटेड नेशंस हाई कमीशनर फॉर रिफ्यूजीज रहे।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की कई शाखाएँ और एजेंसियाँ हैं। सदस्य देशों के बीच युद्ध और शांति तथा वैर-विरोध पर आम सभा में भी चर्चा होती है और सुरक्षा परिषद् में भी। सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने के लिए कई एजेंसियाँ हैं जिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन- WHO), संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम-UNDP), संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार आयोग (यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन राइट्स कमिशन - UNHRC), संयुक्त राष्ट्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग (यूनाइटेड नेशंस हाई कमिशन फॉर रिफ्यूजीज - UNHCR), संयुक्त राष्ट्रसंघ बाल कोष (यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड- UNICEF) और संयुक्त राष्ट्रसंघ शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, सोशल एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन - UNESCO) शामिल हैं।

शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार

बदलते परिवेश में ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किसी भी संगठन में सुधार और विकास करना लाज़िमी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ भी इसका अपवाद नहीं है। हाल के वर्षों में इस वैश्विक संस्था में सुधार की माँग करते हुए आवाजें उठी हैं। बहरहाल, सुधारों की प्रकृति के बारे में कोई स्पष्ट राय और सहमति नहीं बन पायी है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के सामने दो तरह के बुनियादी सुधारों का मसला है। एक तो यह कि इस संगठन की बनावट और इसकी प्रक्रियाओं में सुधार किया जाए। दूसरे, इस संगठन के न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों की समीक्षा की जाए। लगभग सभी देश सहमत हैं कि दोनों ही तरह के ये सुधार ज़रुरी हैं। देशों के बीच में सहमति इस बात पर नहीं है कि इसके लिए दरअसल ठीक करना क्या है, कैसे करना है और कब करना है?

संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव

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ट्राइग्व ली (1946-1952) नार्वे; वकील और विदेश मंत्री; कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई में युद्धविराम के लिए प्रयास; कोरिया-युद्ध को शीघ्र समाप्त करवाने में नाकामयाब रहने पर आलोचना; दोबारा महासचिव बनाने का सोवियत संघ ने विरोध किया। महासचिव के पद से त्यागपत्र।

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डेग हैमरशोल्ड (1953-1961) स्वीडन; अर्थशास्त्री और वकील; स्वेज नहर से जुड़े विवाद को सुलझाने और अप्रुीका के अनौपनिवेशीकरण के लिए काम किया। कांगो-संकट को सुलझाने की दिशा में किए गए प्रयासों के लिए मरणोपरांत नोबेल शांति पुरस्कार। सोवियत संघ और प्रुांस ने अप्रुीका में इनकी भूमिका की आलोचना की।

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यू थांट (1961-1971); बर्मा (म्यांमार) शिक्षक और राजनयिक; क्यूबा के मिसाइल-संकट के समाधान और कांगोे के संकट की समाप्ति के लिए प्रयास किए। साइप्रस में संयुक्त राष्ट्रसंघ की शांतिसेना बहाल की। वियतनाम युद्ध के दौरान अमरीका की आलोचना की।

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कुर्त वाल्डहीम (1972-1981); अॉस्ट्रिया; कूटनयिक और विदेशमंत्री। नामीबिया और लेबनॉन की समस्याओं के समाधान के प्रयास किए। बांग्लादेश में राहत-अभियान की देख-रेख। तीसरी बार महासचिव पद पर चुने जाने की दावेदारी का चीन ने विरोध किया।

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जेवियर पेरेज द कूइयार (1982-1991) पेरु; वकील और राजनयिक; साइप्रस, अफगानिस्तान और अल सल्वाडोर में शांति-स्थापना के लिए प्रयास किए। नामीबिया की आज़ादी के लिए मध्यस्थता। फॉकलैंड युद्ध के बाद ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच मध्यस्थता।

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बुतरस बुतरस घाली (1992-1996) मिस्र; राजनयिक, विधिवेत्ता और विदेशमंत्री; ‘एन अजेंडा फॉर पीस’ नामक रिपोर्ट जारी की। मोजांबिक में संयुक्त राष्ट्रसंघ का सफल अभियान चलाया। बोस्निया, सोमालिया और रवांडा में संयुक्त राष्ट्रसंघ की असफलताओं के लिए आरोप लगे। गंभीर असहमतियों के कारण अमरीका ने दुबारा महासचिव बनने का विरोध किया।

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कोफी ए. अन्नान (1997-2006) घाना; संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारी; एड्स, टीबी और मलेरिया से लड़ने के लिए एक वैश्विक कोष बनाया। अमरीकी नेतृत्व में इराक पर हुए हमले को अवैध करार दिया। 2005 में मानवाधिकार परिषद् तथा शांति संस्थापक आयोग की स्थापना की। 2001 का नोबेल शांति पुरस्कार मिला।

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बान की मून (2007-2016) कोरिया गणराज्य (दक्षिण कोरिया); कूटनयिक और विदेशमंत्री। इस पद पर बैठने वाले दूसरे एशियाई हैं। जलवायु परिवर्तन पर प्रकाश डाला। सहस्राब्दि विकास लक्ष्य और सतत विकास लक्ष्य पर ध्यान दिया। यूएन वीमेन के निर्माण के लिए काम किया। युद्ध वियोजन और परमाणु निरस्त्रीकरण पर जोर दिया।

चित्र www.un.org से साभार

बनावट और प्रक्रियाओं में सुधार के अंतर्गत सबसे बड़ी बहस सुरक्षा परिषद् के कामकाज को लेकर है। इससे जुड़ी हुई एक माँग यह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ायी जाए ताकि समकालीन विश्व राजनीति की वास्तविकताओं की इस संगठन में बेहतर नुमाइंदगी हो सके। ख़ास तौर से एशिया, अप्रुीका और दक्षिण अमरीका के ज़्यादा देशों को सुरक्षा-परिषद् में सदस्यता देने की बात उठ रही है। इसके अतिरिक्त, अमरीका और पश्चिमी देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट से जुड़ी प्रक्रियाआें और इसके प्रशासन में सुधार चाहते हैं।

जहाँ तक संयुक्त राष्ट्रसंघ में किन्हीं मुद्दों को ज़्यादा प्राथमिकता देने अथवा उन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ के न्यायाधिकार में लाने का सवाल है तो कुछ देश और विशेषज्ञ चाहते हैं कि यह संगठन शांति और सुरक्षा से जुड़े मिशनों में ज़्यादा प्रभावकारी अथवा बड़ी भूमिका निभाए जबकि औरों की इच्छा है कि यह संगठन अपने को विकास तथा मानवीय भलाई के कामों (स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, जनसंख्या नियंत्रण, मानवाधिकार, लिंगगत न्याय और सामाजिक न्याय) तक सीमित रखे।

आइए, हम दोनों ही किस्म के सुधारों पर नज़र दौड़ाएँ। इस चर्चा में हम ज़्यादा जोर ढाँचागत और प्रक्रियागत सुधारों पर देंगे।


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बान की मून, संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव, 2015 में नई दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र की 70वीं वर्षगांठ का जश्न मनाने की शुरुआत करते हुए

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद सन् 1945 में हुई थी। इस महायुद्ध के बाद विश्व राजनीति की जो सच्चाइयाँ थीं उसी के अनुरूप इसका गठन हुआ और इसके कामकाज से तत्कालीन विश्व राजनीति की वास्तविकताएँ झलकती थीं। शीतयुद्ध के बाद ये सच्चाइयाँ बदल गईं हैं। 1991 से आए बदलावों में से कुछ निम्नलिखित हैं –

» सोवियत संघ बिखर गया।

» अमरीका सबसे ज़्यादा ताकतवर है।

» सोवियत संघ के उत्तराधिकारी राज्य रूस और अमरीका के बीच अब संबंध कहीं ज़्यादा सहयोगात्मक हैं।

» चीन बड़ी तेजी से एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है; भारत भी तेजी से इस दिशा में अग्रसर है।

» एशिया की अर्थव्यवस्था अप्रत्याशित दर से तरक्की कर रही है।

» अनेक नए देश संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल हुए हैं (ये देश सोवियत संघ से आज़ाद हुए देश हैं अथवा पूर्वी यूरोप के भूतपूर्व साम्यवादी देश हैं)।

» विश्व के सामने चुनौतियों की एक पूरी नयी कड़ी (जनसंहार, गृहयुद्ध, जातीय संघर्ष, आतंकवाद, परमाण्विक प्रसार, जलवायु में बदलाव, पर्यावरण की हानि, महामारी) मौजूद है।

एेसी दशा में जब शीतयुद्ध का अंत (1989) हो रहा था तो विश्व के सामने सवाल था कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ का होना पर्याप्त है? जो कुछ करना ज़रुरी है क्या उसे करने में संयुक्त राष्ट्रसंघ सक्षम है? इसे क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? संयुक्त राष्ट्रसंघ बेहतर ढंग से काम कर सके इसके लिए कौन-से सुधार ज़रुरी हैं? पिछले पंद्रह सालों से इसके सदस्य देश इन प्रश्नों के व्यावहारिक और संतोषजनक उत्तर ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रक्रियाओं और ढाँचे में सुधार

सुधार होने चाहिए – इस सवाल पर व्यापक सहमति है लेकिन सुधार कैसे किया जाए का मसला कठिन है। इस पर सहमति कायम करना मुश्किल है। यहाँ हम संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् में सुधार पर जारी बहस की थोड़ी चर्चा करेंगे। सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में एक प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। प्रस्ताव में तीन मुख्य शिकायतों का जिक्र था –

» सुरक्षा परिषद् अब राजनीतिक वास्तविकताओं की नुमाइंदगी नहीं करती।

» इसके फ़ैसलों पर पश्चिमी मूल्यों और हितों की छाप होती है और इन फ़ैसलोें पर चंद देशों का दबदबा होता है।

» सुरक्षा परिषद् में बराबर का प्रतिनिधित्व नहीं है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे में बदलाव की इन बढ़ती हुई माँगों के मद्देनज़र एक जनवरी 1997 को संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव कोफी अन्नान ने जाँच शुरू करवाई कि सुधार कैसे कराए जाएँ। मिसाल के तौर पर यही कि क्या सुरक्षा परिषद् के नए सदस्य चुने जाने चाहिए?

इसके बाद के सालों में सुरक्षा परिषद् की स्थायी और अस्थायी सदस्यता के लिए मानदंड सुझाए गए। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं। सुझाव आए कि एक नए सदस्य को -

» बड़ी आर्थिक ताकत होना चाहिए।

» बड़ी सैन्य ताकत होना चाहिए।

» संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में एेसे देश का योगदान ज़्यादा हो।

» आबादी के लिहाज से बड़ा राष्ट्र हो।

» एेसा देश जो लोकतंत्र और मानवाधिकारों का सम्मान करता हो।

» यह देश एेसा हो कि अपने भूगोल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के लिहाज से विश्व की विविधता की नुमाइंदगी करता हो।

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दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सन् 1944 में विश्व बैंक की औपचारिक स्थापना हुई। इस बैंक की गतिविधियाँ प्रमुख रूप से विकासशील देशों से संबंधित हैं। यह बैंक मानवीय विकास (शिक्षा, स्वास्थ्य), कृषि और ग्रामीण विकास (सिंचाई, ग्रामीण सेवाएँ), पर्यावरण सुरक्षा (प्रदूषण में कमी, नियमों का निर्माण और उन्हें लागू करना), आधारभूत ढाँचा (सड़क, शहरी विकास, बिजली) तथा सुशासन (कदाचार का विरोध, विधिक संस्थाओं का विकास) के लिए काम करता है। यह अपने सदस्य-देशों को आसान ऋण और अनुदान देता है। ज्यादा गरीब देशों को ये अनुदान वापिस नहीं चुकाने पड़ते। इस अर्थ में यह संस्था समकालीन वैश्विक अर्थ-व्यवस्था को भी प्रभावित करती है।

 

स्पष्ट है कि इन मानदंडों में से हर एक की कुछ न कुछ वैधता है। सरकारें अपने-अपने हित और महत्त्वाकांक्षाओं के लिहाज से कुछ कसौटियों को फायदेमंद तो कुछ को नुकसानदेह मानती हैं। भले ही कोई देश सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए इच्छुक न हो, वह फिर भी बता सकता है कि इन कसौटियों में दिक्कत है। सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए किसी देश की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी होनी चाहिए अथवा उसके पास कितनी बड़ी सैन्य-ताकत होनी चाहिए? कोई राष्ट्र संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में कितना योगदान करे कि सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हासिल कर सके? कोई देश विश्व में बड़ी भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा हो तो उसकी बड़ी जनसंख्या इसमें बाधक है या सहायक? अगर लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रति सम्मान ही कसौटी हो तो इस मामले में बेहतरीन रिकार्ड वाले देशों की कतार लग जाएगी। सवाल यह है कि क्या ये देश ‘परिषद्’ के सदस्य के रूप में प्रभावकारी होंगे?


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चरण

© कक्षा को छ समूहों में बांटे। हर समूह संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए यहाँ सुझाए गए किसी एक मानदंड का पालन करेगा।

© हर समूह अपने मानदंड के आधार पर स्थायी सदस्यों की एक सूची बनाएगा। (मसलन जनसंख्या के मानदंड को अपनाने वाला समूह पाँच सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों की सूची बनाएगा।)

© हर समूह अपनी सुझाई हुई सूची पर एक प्रस्तुति करेगा और बताएगा कि यह मानदंड क्यों अपनाया जाना चाहिए।

अध्यापकों के लिए

* छात्रों को समूह के लिए वह मानदंड अपनाने दें जिसकी वे स्वयं तरफदारी कर रहे हों।

* सभी सूचियों की तुलना करें और देखें कि कितने नाम इन सूचियों में साझे हैं। यह भी देखें कि कितनीबार भारत का नाम आ रहा है।

* कुछ समय एक खुली चर्चा करें कि हमें कौन-सा मानदंड अपनाना चाहिए।


इसके आगे सवाल यह भी है कि प्रतिनिधित्व के मसले को कैसे हल किया जाए? क्या भौगोलिक दृष्टि से बराबरी के प्रतिनिधित्व का यह अर्थ है कि एशिया, अप्रुीका, लातिनी अमरीका और कैरेबियाई क्षेत्र की एक-एक सीट सुरक्षा परिषद् में होनी चाहिए? एक प्रश्न यह भी है कि क्या महादेशों के बजाए क्षेत्र और उपक्षेत्र को प्रतिनिधित्व का आधार बनाया जाए। प्रतिनिधित्व का मसला भूगोल के आधार पर क्यों हल किया जाए? आर्थिक विकास को आधार मानकर यह मसला क्यों नहीं हल किया जाए? अगर आर्थिक विकास को आधार मानें तब भी कठिनाई है। विकासशील देश विकास की अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़े हैं। फिर संस्कृति का क्या करें? क्या विभिन्न संस्कृतियों या ‘सभ्यताओं’ को ज़्यादा संतुलित ढंग से प्रतिनिधित्व दिया जाए? कोई विश्व को सभ्यता या संस्कृति के आधार पर बाँटकर कैसे देख सकता है जब कि किसी एक ही राष्ट्र के भीतर विभिन्न संस्कृति-धाराएँ उपस्थित होती हैं?

इसी से जुड़ा एक मसला सदस्यता की प्रकृति को बदलने का था। मिसाल के तौर पर, कुछ का जोर था कि पाँच स्थायी सदस्यों को दिया गया निषेधाधिकार (वीटो पावर) खत्म होना चाहिए। अनेक का मानना था कि निषेधाधिकार लोकतंत्र और संप्रभु राष्ट्रों के बीच बराबरी की धारणा से मेल नहीं खाता अत यह संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए उचित या प्रासंगिक नहीं है।

सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में स्थिरता कायम करने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र में पाँच स्थायी सदस्यों को विशेष हैसियत दी गई। पाँच स्थायी सदस्यों को मुख्य फायदा था कि सुरक्षा-परिषद् में उनकी सदस्यता स्थायी होगी और उन्हें ‘वीटो’ का अधिकार होगा। अस्थायी सदस्य दो वर्षों के लिए चुने जाते हैं और इस अवधि के बाद उनकी जगह नए सदस्यों का चयन होता है। दो साल की अवधि तक अस्थायी सदस्य रहने के तत्काल बाद किसी देश को फिर से इस पद के लिए नहीं चुना जा सकता। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन इस तरह से होता है कि विश्व के सभी महादेशों का प्रतिनिधित्व हो सके।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अस्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार नहीं है। सुरक्षा-परिषद् में फैसला मतदान के जरिए होता है। हर सदस्य को एक वोट का अधिकार होता है। बहरहाल, स्थायी सदस्यों में से कोई एक अपने निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग कर सकता है और इस तरह वह किसी फैसले को रोक सकता है, भले ही अन्य स्थायी सदस्यों और सभी अस्थायी सदस्यों ने उस फ़ैसले के पक्ष में मतदान किया हो।

निषेधाधिकार को समाप्त करने की मुहिम तो चली है लेकिन इस बात की भी समझ बनी है कि स्थायी सदस्य एेसे सुधार के लिए शायद ही राजी होंगे। शीतयुद्ध भले ही समाप्त हो गया हो, लेकिन संभव है कि विश्व अभी इतने आमूल-चूल बदलाव के लिए तैयार न हो। इस बात का खतरा है कि ‘वीटो’ न हो तो सन् 1945 के समान इन ताकतवर देशों की दिलचस्पी संयुक्त राष्ट्रसंघ में न रहे; इससे बाहर रहकर वे अपनी रुचि के अनुसार काम करें और उनके जुड़ाव अथवा समर्थन के अभाव में यह संगठन प्रभावकारी न रह जाए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का न्यायाधिकार

सदस्यता का सवाल एक गंभीर सवाल है। लेकिन इसके अलावा भी विश्व के सामने कुछ ठोस मसले हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने जब अपने अस्तित्व के 60 साल पूरे किए तो इसके सभी सदस्य देशों के प्रमुख इस सालगिरह को मनाने के लिए 2005 के सितम्बर में इकट्ठे हुए। इस अवसर पर मौजूदा स्थितियों की समीक्षा हुई। इस बैठक में शामिल नेताओं ने बदलते हुए परिवेश में संयुक्त राष्ट्रसंघ को ज़्यादा प्रासंगिक बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने का फ़ैसला किया –


स्थायी सदस्यों द्वारा ‘वीटो-पावर का इस्तेमाल (1 जून 2018 तक)

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» शांति संस्थापक आयोग का गठन

» यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को अत्याचारों से बचाने में असफल हो जाए तो विश्व-बिरादरी इसका उत्तरदायित्व ले – इस बात की स्वीकृति।

» मानवाधिकार परिषद् की स्थापना (2006 के 19 जून से सक्रिय)।

» सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल्स) को प्राप्त करने पर सहमति।


सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals SDGs) के बारे में पता करें।

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यह बात बिलकुल ग़लत है। असल में वीटो की ज़रूरत तो कमजोर देशों को है, उनको नहीं जिनके पास पहले से बहुत ताकत है।



» हर रूप-रीति के आतंकवाद की निंदा

» एक लोकतंत्र-कोष का गठन

» ट्रस्टीशिप काउंसिल (न्यासिता परिषद्) को समाप्त करने पर सहमति।

यह समझना कठिन नहीं कि ये मुद्दे भी संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए बड़े पेंचदार हैं। शांति संस्थापक आयोग को क्या करना चाहिए? दुनिया में बहुत-से झगड़े चल रहे हैं। यह आयोग किसमें दखल दे? हर झगड़े में दखल देना क्या इस आयोग के लिए उचित अथवा संभव होगा? ठीक इसी तरह यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि अत्याचारों से निपटने में विश्व-बिरादरी की जिम्मेदारी क्या होगी? मानवाधिकार क्या है और इस बात को कौन तय करेगा कि किस स्तर का मानवाधिकार-उल्लंघन हो रहा है? मानवाधिकार-उल्लंघन की दशा में क्या कार्रवाई की जाए - इसे कौन तय करेगा? बहुत से देश अब भी विकासशील जगत का हिस्सा हैं। एेसे में ‘सतत विकास लक्ष्य’ में निर्धारित विकास संबंधी महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को मानक बनाना कहाँ तक व्यावहारिक है? क्या आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है? संयुक्त राष्ट्रसंघ लोकतंत्र को बढ़ावा देने में धन का इस्तेमाल कैसे करेगा? एेसे ही और भी सवाल किए जा सकते हैं।

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दारफुर की हालत की एक बानगी। आपका क्या मानना है, संयुक्त राष्ट्रसंघ इस तरह की स्थितियों में किस प्रकार हस्तक्षेप कर सकता है? क्या इसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के न्यायाधिकार में बदलाव की ज़रूरत हैै?

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संयुक्त राष्ट्रसंघ मे सुधार और भारत

भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे में बदलाव के मसले को कई आधारों पर समर्थन दिया है। भारत का मानना है कि बदले हुए विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ की मज़बूती और दृढ़ता ज़रुरी है। भारत इस बात का भी समर्थन करता है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ विभिन्न देशों के बीच सहयोग बढ़ाने और विकास को बढ़ावा देने में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाए। भारत का विश्वास है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के अजेंडे में विकास का मामला प्रमुख होना चाहिए क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए यह ज़रुरी पूर्व शर्त है।

भारत की एक बड़ी चिंता सुरक्षा परिषद् की संरचना को लेकर है। सुरक्षा-परिषद् की सदस्य संख्या स्थिर रही है जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में सदस्यों की संख्या खूब बढ़ी है। भारत का मानना है कि इससे सुरक्षा परिषद् के प्रतिनिधित्वमूलक चरित्र की हानि हुई है। भारत का तर्क है कि परिषद् का विस्तार करने पर वह ज़्यादा प्रतिनिधिमूलक होगी और उसे विश्व-बिरादरी का ज़्यादा समर्थन मिलेगा।

हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्य संख्या सन् 1965 में 11 से बढ़ाकर 15 कर दी गई थी लेकिन स्थायी सदस्यों की संख्या स्थिर रही। इसके बाद से परिषद् का आकार जस का तस बना हुआ है। यह भी एक तथ्य है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में ज़्यादातर विकासशील सदस्य-देश हैं। इस कारण, सुरक्षा परिषद् के फ़ैसलों में उनकी भी सुनी जानी चाहिए क्योंकि इन फ़ैसलों का उन पर प्रभाव पड़ता है।


विश्व व्यापार संगठन

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विश्व व्यापार संगठन (वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन- WTO) - यह अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक व्यापार के नियमों को तय करता है। इस संगठन की स्थापना सन् 1995 में हुई। यह संगठन ‘जेनरल एग्रीमेंट अॉन ट्रेड एंड टैरिफ’ के उत्तराधिकारी के रूप में काम करता है जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आया था। इनके सदस्यों की संख्या 164 (29 जुलाई 2016 की स्थिति) है। हर फ़ैसला सभी सदस्यों की सहमति सेकिया जाता है लेकिन अमरीका, यूरोपीय संघ तथा जापान जैसी बड़ी आर्थिक शक्तियाँ विश्व-व्यापार संगठन में व्यापार के नियमों को इस तरह बनाने में कामयाब हो गई हैं जिससे उनके हित सधते हों। विकासशील देशों की बहुधा शिकायत रहती है कि इस संगठन की कार्यविधि पारदर्शी नहीं है और बड़ीआर्थिक ताकतें उन्हें धकियाती हैं।


भारत सुरक्षा परिषद् के अस्थायी और स्थायी, दोनों ही तरह के सदस्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी का समर्थक है। भारत के प्रतिनिधियों का तर्क है कि पिछले कुछ वर्षों में सुरक्षा-परिषद् की गतिविधियों का दायरा बढ़ा है। सुरक्षा-परिषद् के कामकाज की सफलता विश्व-बिरादरी के समर्थन पर निर्भर है। इस कारण सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन की कोई योजना व्यापक धरातल पर बननी चाहिए। मिसाल के लिए, उसमें अभी की अपेक्षा ज़्यादा विकासशील देश होने चाहिए।

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क्या हम पाँच बड़े दादाओं की दादागिरी खत्म करना चाहते हैं या उनमें शामिल होकर एक और दादा बनना चाहते हैं?


आश्चर्य नहीं कि भारत खुद भी पुनर्गठित सुरक्षा-परिषद् में एक स्थायी सदस्य बनना चाहता है। भारत विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। भारत में विश्व की कुल-जनसंख्या का 1/5वाँ हिस्सा निवास करता है। इसके अतिरिक्त, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की लगभग सभी पहलकदमियों में भाग लिया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांति बहाल करने के प्रयासों में भारत लंबे समय से ठोस भूमिका निभाता आ रहा है। सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी इसलिए भी उचित है क्योंकि वह तेजी से अंतर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक-शक्ति बनकर उभर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है और यह कभी भी अपने भुगतान से चुका नहीं है। भारत इस बात से आगाह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता का एक प्रतीकात्मक महत्त्व भी है। इससे पता चलता है कि किसी देश का अंतर्राष्ट्रीय मामलों में महत्त्व बढ़ रहा है। किसी देश को अपनी इस बढ़ी हुई हैसियत का फायदा उसकी विदेश नीति में मिलता है। अगर आपकी साख एक ताकतवर देश के रूप में है तो आपका प्रभाव ज़्यादा होगा।

अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी

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अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी (इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी -IAEA) - इस संगठन की स्थापना 1957 में हुई। यह संगठन परमाण्विक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देने और सैन्य उद्देश्यों में इसके इस्तेमाल को रोकने की कोशिश करता है। इस संगठन के अधिकारी नियमित रूप से विश्व की परमाण्विक सुविधाओं की जाँच करते हैं ताकि नागरिक परमाणु-संयंत्रों का इस्तेमाल सैन्य उद्देश्यों के लिए न हो।


भारत चाहता है कि वह संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् में निषेधाधिकार संपन्न (वीटोधारी) सदस्य बने, लेकिन कुछ देश सुरक्षा परिषद् में भारत को स्थायी सदस्य बनाने का विरोध करते हैं। सिर्फ पड़ोसी पाकिस्तान ही नहीं, जिनके साथ भारत के संबंध दिक्कततलब रहे हैं, बल्कि कुछ और देश भी चाहते हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद् में वीटोधारी स्थायी सदस्य के रूप में शामिल न किया जाए। मिसाल के लिए, कुछ देश भारत के परमाणु हथियारों को लेकर चिंतित हैं। कुछ और देशों का मानना है कि पाकिस्तान के साथ संबंधों में कठिनाई के कारण भारत स्थायी सदस्य के रूप में अप्रभावी रहेगा। कुछ अन्य देशों का मानना है कि उभरती हुई ताकत के रूप में अन्य देशों मसलन ब्राजील, जर्मनी, जापान और शायद दक्षिण अप्रुीका को भी शामिल करना पड़ेगा जिसका ये देश विरोध करते हैं। कुछ देशों का विचार है कि अगर सुरक्षा परिषद् में किसी तरह का विस्तार होता है तो अप्रुीका और दक्षिण अमरीका को ज़रूर प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए क्योंकि मौजूदा सुरक्षा परिषद् में इन्हीं महादेशों की नुमाइंदगी नहीं है। इन सरोकारों को देखते हुए भारत या किसी और देश के लिए निकट भविष्य में संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन पाना मुश्किल लगता है।

एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ

संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे और प्रक्रियाओं में सुधार से कुछ देशों की यह आशा भी बँधी रही है कि इन बदलावों से संयुक्त राष्ट्रसंघ एक-ध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीका सबसे ताकतवर देश है और उसका कोई गंभीर प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं – कारगर ढंग से काम कर पाएगा। क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीकी प्रभुत्व के विरुद्ध संतुलनकारी भूमिका निभा सकता है? क्या यह संगठन शेष विश्व और अमरीका के बीच संवाद कायम करके अमरीका को अपनी मनमानी करने से रोक सकता है?

अमरीका की ताकत पर आसानी से अंकुश नहीं लगाया जा सकता। पहली बात तो यह कि सोवियत संघ की गैर मौजूदगी में अब अमरीका एकमात्र महाशक्ति है। अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत के बूते वह संयुक्त राष्ट्रसंघ या किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठन की अनदेखी कर सकता है।

M4.tifअगर संयुक्त राष्ट्रसंघ किसी को न्यूयार्क बुलाए और अमरीका उसे वीजा न दे तो क्या होगा?     



दूसरे, संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर अमरीका का खास प्रभाव है। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में सबसे ज़्यादा योगदान करने वाला देश है। अमरीका की वित्तीय ताकत बेजोड़ है। यह भी एक तथ्य है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीकी भू-क्षेत्र में स्थित है और इस कारण भी अमरीका का प्रभाव इसमें बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई नौकरशाह इसके नागरिक हैं। इसके अतिरिक्त, अगर अमरीका को लगे कि कोई प्रस्ताव उसके अथवा उसके साथी राष्ट्रों के हितों के अनुकूल नहीं है अथवा अमरीका को यह प्रस्ताव न जँचे तो अपने ‘वीटो’ से वह उसे रोक सकता है। अपनी ताकत और निषेधाधिकार के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के चयन में भी अमरीका की बात बहुत वज़न रखती है। अमरीका अपनी इस ताकत के बूते शेष विश्व में फूट डाल सकता है और डालता है, ताकि उसकी नीतियों का विरोध मंद पड़ जाए।

इस तरह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाने में ख़ास सक्षम नहीं। फिर भी, एकध्रुुवीय विश्व में जहाँ अमरीकी ताकत का बोलबाला है – संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका और शेष विश्व के बीच विभिन्न मसलों पर बातचीत कायम कर सकता है और इस संगठन ने एेसा किया भी है। अमरीकी नेता अक्सर संयुक्त राष्ट्रसंघ की आलोचना करते हैं लेकिन वे इस बात को समझते हैं कि झगड़ों और सामाजिक-आर्थिक विकास के मसले पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के जरिए 190 राष्ट्रों को एक साथ किया जा सकता है। जहाँ तक शेष विश्व की बात है तो उसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ एेसा मंच है जहाँ अमरीकी रवैये और नीतियों पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। यह बात ठीक है कि वाशिंग्टन के विरुद्ध शेष विश्व शायद ही कभी एकजुट हो पाता है और अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाना एक हद तक असंभव है, लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्रसंघ ही वह जगह है जहाँ अमरीका के किसी खास रवैये और नीति की आलोचना की सुनवाई हो और कोई बीच का रास्ता निकालने तथा रियायत देने की बात कही-सोची जा सके।


एमनेस्टी इंटरनेशनल

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एमनेस्टी इंटरनेशनल एक स्वयंसेवी संगठन है। यह पूरे विश्व में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाता है। यह संगठन मानवाधिकारों से जुड़ी रिपोर्ट तैयार और प्रकाशित करता है। सरकारों को ये रिपोर्ट अक्सर नागवार लगती हैं क्योंकि एमनेस्टी का ज़्यादा जोर सरकारों द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार पर होता है। बहरहाल, ये रिपोर्ट मानवाधिकारों से संबंधित अनुसंधान और तरफदारी में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


आसियान क्षेत्रीय मंच के सदस्यों के नाम पता करें।


ह्यूमन राइट्स वॉच

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यह भी मानवाधिकारों की वकालत और उनसे संबंधित अनुसंधान करने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन है। यह अमरीका का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन है। यह दुनिया भर के मीडिया का ध्यान मानवाधिकारों के उल्लंघन की ओर खींचता है। इसने बारूदी सुरंगों पर रोेक लगाने के लिए , बाल सैनिकों का प्रयोग रोकने के लिए और अंतर्राष्ट्रीय दंड न्यायालय स्थापित करने के लिए अभियान चलाने में मदद की है।


संयुक्त राष्ट्रसंघ में थोड़ी कमियाँ हैं लेकिन इसके बिना दुनिया और बदहाल होगी। आज विभिन्न समाजों और मसलों के बीच आपसी तार जुड़ते जा रहे हैं। इसे ‘पारस्परिक निर्भरता’ का नाम दिया जाता है। इसे देखते हुए यह कल्पना करना कठिन है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठन के बिना विश्व के सात अरब से भी ज़्यादा लोग कैसे रहेंगे। प्रौद्योगिकी यह सिद्ध कर रही है कि आने वाले दिनों में विश्व में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाएगी। इसलिए, संयुक्त राष्ट्रसंघ का महत्त्व भी निरंतर बढ़ेगा। लोगों को और सरकारों को संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा दूसरे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के समर्थन और उपयोग के तरीके तलाशने होंगे - एेसे तरीके जो उनके हितों और विश्व बिरादरी के हितों से व्यापक धरातल पर मेल खाते हों।

प्रश्नावली

1. निषेधाधिकार (वीटो) के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। इनमें प्रत्येक के आगे सही या ग़लत का चिह्न लगाएँ।

(क) सुरक्षा-परिषद् के सिर्फ स्थायी सदस्यों को ‘वीटो’ का अधिकार है।

(ख) यह एक तरह की नकारात्मक शक्ति है।

(ग) सुरक्षा परिषद् के फ़ैसलों से असंतुष्ट होने पर महासचिव ‘वीटो’ का प्रयोग करता है।

(घ) एक ‘वीटो’ से भी सुरक्षा-परिषद् का प्रस्ताव नामंजूर हो सकता है।

2. संयुक्त राष्ट्रसंघ के कामकाज के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। इनमें से प्रत्येक के सामने सही या ग़लत का चिह्न लगाएँ।

(क) सुरक्षा और शांति से जुड़े सभी मसलों का निपटारा सुरक्षा-परिषद् में होता है।

(ख) मानवतावादी नीतियों का क्रियान्वयन विश्वभर में फैली मुख्य शाखाओं तथा एजेंसियों के मार्फत होता है।

(ग) सुरक्षा के किसी मसले पर पाँचों स्थायी सदस्य देशों का सहमत होना उसके बारे में लिए गए फैसले के क्रियान्वयन के लिए ज़रूरी है।

(घ) संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा के सभी सदस्य संयुक्त राष्ट्रसंघ के बाकी प्रमुख अंगों और विशेष एजेंसियों के स्वत सदस्य हो जाते हैं।

3. निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य सुरक्षा-परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के प्रस्ताव को ज़्यादा वज़नदार बनाता है?

(क) परमाणु क्षमता

(ख) भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ के जन्म से ही उसका सदस्य है।

(ग) भारत एशिया में है।

(घ) भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और स्थिर राजनीतिक व्यवस्था

4. परमाणु प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण उपयोग और उसकी सुरक्षा से संबद्ध संयुक्त राष्ट्रसंघ की एजेंसी कानाम है –

(क) संयुक्त राष्ट्रसंघ निरस्त्रीकरण समिति

(ख) अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी

(ग) संयुक्त राष्ट्रसंघ अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा समिति

(घ) इनमें से कोई नहीं।

5. विश्व व्यापार संगठन निम्नलिखित में से किस संगठन का उत्तराधिकारी है?

(क) जेनरल एग्रीमेंट अॉन ट्रेड एंड टैरिफ

(ख) जेनरल एरेंजमेंट अॉन ट्रेड एंड टैरिफ

(ग) विश्व स्वास्थ्य संगठन

(घ) संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम

6. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

(क) संयुक्त राष्ट्रसंघ का मुख्य उद्देश्य .............. है।

(ख) संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे जाना-पहचाना पद .............. का है।

(ग) संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में .............. स्थायी और .............. अस्थायी सदस्य हैं।

(घ) .............. संयुक्त राष्ट्रसंघ के वर्तमान महासचिव हैं।

(च) मानवाधिकारों की रक्षा में सक्रिय दो स्वयंसेवी संगठन .............. और .............. हैं।

7. संयुक्त राष्ट्रसंघ की मुख्य शाखाओं और एजेंसियों का सुमेल उनके काम से करें -

1. आर्थिक एवं सामाजिक परिषद्

2. अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय

3. अंतर्राष्ट्रीय आण्विक ऊर्जा एजेंसी

4. सुरक्षा-परिषद्

5. संयुक्त राष्ट्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग

6. विश्व व्यापार संगठन

7. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

8. आम सभा

9. विश्व स्वास्थ्य संगठन

10. सचिवालय

(क) वैश्विक वित्त-व्यवस्था की देखरेख।

(ख) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का संरक्षण।

(ग) सदस्य देशों के आर्थिक और सामाजिक कल्याण की चिंता।

(घ) परमाणु प्रौद्योगिकी का शांतिपूर्ण उपयोग और सुरक्षा।

(ड) सदस्य देशों के बीच मौजूद विवादों का निपटारा।

(च) आपातकाल में आश्रय तथा चिकित्सीय सहायता मुहैया करना।

(छ) वैश्विक मामलों पर बहस-मुबाहिसा

(ज) संयुक्त राष्ट्रसंघ के मामलों का समायोजन और प्रशासन

(झ) सबके लिए स्वास्थ्य

(ञ) सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार की राह आसान बनाना।

8. सुरक्षा-परिषद् के कार्य क्या हैं?

9. भारत के नागरिक के रूप में सुरक्षा-परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के पक्ष का समर्थन आप कैसे करेंगे? अपने प्रस्ताव का औचित्य सिद्ध करें।

10. संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे को बदलने के लिए सुझाए गए उपायों के क्रियान्वयन में आ रही कठिनाइयों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें?

11. हालाँकि संयुक्त राष्ट्रसंघ युद्ध और इससे उत्पन्न विपदा को रोकने में नाकामयाब रहा है लेकिन विभिन्न देश अभी भी इसे बनाए रखना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ को एक अपरिहार्य संगठन मानने के क्या कारण हैं।

12. संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार का अर्थ है सुरक्षा परिषद् के ढाँचे में बदलाव। इस कथन का सत्यापन करें।